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शनिवार, 7 जनवरी 2017

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू एकै आत्मा, साहिब है सब मांहि ।
साहिब के नाते मिले, भेष पंथ के नांहि ॥ 
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साभार ~ Vijay Divya Jyoti
**धर्म और धार्मिकता**
धार्मिक व्यक्ति की कोई जात नहीं होती, उसका कोई वर्ग या धर्म विशेष नहीं होता क्योंकि धर्म एक यात्रा है अपने मूल तक पहुँचने की, स्वरूप को जानने की। जो भी इस यात्रा का पथिक है वही धार्मिक होता है और धार्मिक होना किसी जाति विशेष का लक्षण नहीं है। एक भूल जो हमने की वो है संप्रदाय को धर्म कहने की और इन तथाकथित धर्मों से जो मुक्त है वही धार्मिक हो पाता है, उसके जीवन में ही धर्म का फूल खिलता है और उस फूल की खूशबू ही धार्मिकता है। संप्रदाय मार्ग हैं धर्म के शिखर पर पहुँचने के। जिस प्रकार अलग अलग नदियां आती हैं अलग अलग रास्तों से और अंत में सागर में ही मिलती हैं, उसी प्रकार संप्रदाय भी नदियों के मार्ग की तरह ही हैं जो गिरते हैं अंत में धर्म के सागर में ही। 
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इस धरती पर कोई भी बुद्ध पुरुष हमें कुछ बनाने नहीं आते, बस इतना ही संदेश देते हैं वो कि हम वो हो जाएँ तो जो हम होने को आए हैं, हम अपनी परम नियति तक पहुँचें। डूबने वाला यह नहीं देखता कि जो नाव उसे बचाने आई है, उसका माझी कौन है? ऐसे ही बीमार यह नहीं सोचता कि चिकित्सक किस जात का है या किस संप्रदाय का? इससे इलाज़ करवाना है कि नहीं? असली चिकित्सक वही होता है जो बीमारी को पकड़ लेता है अर्थात निरूपण कर लेता है। ये भी संज्ञान में लेने के काबिल है कि “दवा” उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितना कि “चिकित्सक” क्योंकि चिकित्सक ने यदि रोग पहचान लिया और फिर आपका उस पर भरोसा है तो फिर वो उस हाथ से राख़ भी दे तो वो दवा हो जाती है और यदि भरोसा ना हो तो फिर स्वर्णभस्मी भी राख़ समान हो जाती है और वांछित लाभ नहीं मिलता। 
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इसी प्रकार से, हम में से भी अधिकतर लोग आध्यात्मिक रूप से बीमार होते हैं और भरोसा नहीं कर पाते, श्रद्धा नहीं कर पाते हैं जबकि धर्म का फूल खिलता है श्रद्धा की बगिया में। श्रद्धा जहां जन्म जाए और नाम सुमिरन के उसे पंख लग जाएँ तो ही धर्म के आकाश में उड़ान भरी जा सकती है। स्मरण रहे कि घाट(संप्रदाय या मार्ग) बहुत हैं मगर सागर एक ही है, आवश्यकता है तो सिर्फ एक श्रद्धा की नाव की, फिर चाहे आप किसी भी घाट से यात्रा प्रारम्भ करें लेकिन अंत में उतरना सागर में ही होगा।
॥भाव शब्दों से ज्यादा महत्वपूर्ण है, अतः लेखन त्रुटि के लिए क्षमा याचना है आपसे॥

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
तहँ वचन अमोलक सब ही सार, 
तहँ बरतै लीला अति अपार ।
उमंग देइ तब मेरे भाग, 
तिहि तरुवर फल अमर लाग ॥ 
अलख देव कोइ जाणैं भेव, 
तहँ अलख देव की कीजै सेव ।
दादू बलि बलि बारंबार, 
तहँ आप निरंजन निराधार ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

**(((((( तिरूपति बाला जी कथा ))))))**
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एक बार समस्त देवताओं ने मिलकर एक यज्ञ करने का निश्चय किया. यज्ञ की तैयारी पूर्ण हो गई. तभी वेद ने एक प्रश्न किया तो एक व्यवहारिक समस्या आ खड़ी हुई.
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ऋषि-मुनियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ की हविष तो देव गण ग्रहण करते थे लेकिन देवों द्वारा किए गए यज्ञ की पहली आहूति किसकी होगी. यानी सर्वश्रेष्ठ देव का निर्धारण जरूरी था जो फिर अन्य सभी देवों को यज्ञ भाग प्रदान करें.
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ब्रह्मा-विष्णु-महेश परमात्मा थे. इनमें से श्रेष्ठ कौन है इसका निर्णय आखिर हो तो कैसे. भृगु ने इसका दायित्व संभाला. वह देवों की परीक्षा लेने चले. ऋषियों से विदा लेकर वह सर्व प्रथम अपने पिता ब्रह्मदेव के पास पहुंचे.
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ब्रह्मा जी की परीक्षा लेने के लिए भृगु ने उन्हें प्रणाम नहीं किया. इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और उन्हें शिष्टता सिखाने का प्रयत्न किया. भृगु को गर्व था कि वह तो परीक्षक हैं, परीक्षा लेने आए हैं. पिता-पुत्र का आज क्या रिश्ता ?
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भृगु ने ब्रह्म देव से अशिष्टता कर दी. ब्रह्मा जी का क्रोध बढ़ गया और अपना कमण्डल लेकर पुत्र को मारने भागे. भृगु किसी तरह वहां से जान बचा कर भाग चले आए. इसके बाद वह शिव जी के लोक कैलाश गए.
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भृगु ने फिर से धृष्टता की. बिना कोई सूचना का शिष्टाचार दिखाए या शिव गणों से आज्ञा लिए सीधे वहां पहुंच गए जहां शिव जी माता पार्वती के साथ विश्राम कर रहे थे. आए तो आए, साथ ही अशिष्टता का आचरण भी किया.
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शिव जी शांत रहे पर भृगु न समझे. शिव जी को क्रोध आया तो उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया. भृगु वहां से भागे. अंत में वह भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे. श्री हरि शेष शय्या पर लेटे निद्रा में थे और देवी लक्ष्मी उनके चरण दबा रही थीं.
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महर्षि भृगु दो स्थानों से अपमानित करके भगाए गए थे. उनका मन बहुत दुखी था. विष्णु जी को सोता देख उन्हें न जाने क्या हो गया और उन्होंने विष्णु जी को जगाने के लिए उनकी छाती पर एक लात जमा दी.
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विष्णु जी जाग उठे और भृगु से बोले- मेरी छाती वज्र समान कठोर है. आपका शरीर तप के कारण दुर्बल. कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आई. आपने मुझे सावधान करके कृपा की है. आपका चरण चिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा.
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भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ. उन्होंने तो भगवान की परीक्षा लेने के लिए यह अपराध किया था परंतु भगवान तो दंड देने के बदले मुस्करा रहे थे. उन्होंने निश्चय किया कि श्री हरि सी विनम्रता किसी में नहीं. वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं.
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लौट कर उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनाई. सभी ने एक मत से यह निश्चय किया कि भगवान विष्णु को ही यज्ञ का प्रधान देवता समझ कर मुख्य भाग दिया जाएगा.
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लक्ष्मी जी ने भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया. परन्तु उन्हें इस बात पर क्षोभ था कि श्री हरि ने उद्दंड को दंड देने के स्थान पर उसके चरण पकड़ लिए और उल्टे क्षमा मांगने लगे.
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क्रोध से तमतमाई महा लक्ष्मी को लगा कि वह जिस पति को संसार का सबसे शक्ति शाली समझती हैं वह तो निर्बल हैं. यह धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश कैसे करते होंगे?
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महालक्ष्मी ग्लानि में भर गई और मन श्री हरि से उचट गया. उन्होंने श्री हरि और बैकुंठ लोक दोनों के त्याग का निश्चय कर लिया. स्त्री का स्वाभिमान उसके स्वामी के साथ बंधा होता है.
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उनके समक्ष कोई स्वामी पर प्रहार कर गया और स्वामी ने प्रतिकार भी न किया, यह बात मन में कौंधती रही. यह स्थान वास के योग्य नहीं, पर त्याग कैसे करें, श्री हरि से ओझल होकर रहना कैसे होगा ! वह उचित समय की प्रतीक्षा करने लगीं.
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श्री हरि ने हिरण्याक्ष के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए वराह अवतार लिया और दुष्टों का संहार करने लगे. महालक्ष्मी के लिए यह समय उचित लगा. उन्होंने बैकुंठ का त्याग कर दिया और पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं.
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श्री हरि और बैकुंठ का त्याग कर महालक्ष्मी पृथ्वी पर एक वन में तपस्या करने लगीं. तप करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया. विष्णु जी वराह अवतार का अपना कार्य पूर्ण कर बैकुंठ लौटे तो महालक्ष्मी नहीं मिलीं. वह उन्हें खोजने लगे.
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श्री हरि ने उन्हें तीनों लोकों में खोजा किंतु तप करके माता लक्ष्मी ने भ्रमित करने की अनुपम शक्ति प्राप्त कर ली थी. उसी शक्ति से उन्होंने श्री हरि को भ्रमित रखा. आख़िर श्री हरि को पता लग ही गया लेकिन तब तक वह शरीर छोड़ चुकीं थी.
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दिव्य दृष्टि से उन्होंने देखा कि लक्ष्मी जी ने चोलराज के घर में जन्म लिया है. श्री हरि ने सोचा कि उनकी पत्नी ने उनका त्याग सामर्थ्यहीन समझने के भ्रम में किया है इसलिए वह उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए अलौकिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे.
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महा लक्ष्मी ने मानव रूप धरा है तो अपनी प्रिय पत्नी को प्राप्त करने के लिए वह भी साधारण मानवों के समान व्यवहार करेंगे और महा लक्ष्मी जी का हृदय और विश्वास जीतेंगे.
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भगवान ने श्रीनिवास का रूप धरा और पृथ्वी लोक पर चोलनरेश के राज्य में निवास करते हुए महालक्ष्मी से मिलन के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे. राजा आकाशराज निःसंतान थे. उन्होंने शुकदेव जी की आज्ञा से संतान प्राप्ति यज्ञ किया.
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यज्ञ के बाद यज्ञशाला में राजा को हल जोतने को कहा गया. राजा ने हल जोता तो हल का फल किसी वस्तु से टकराया. राजा ने उस स्थान को खोदा तो एक पेटी के अंदर सहस्रदल कमल पर एक कन्या विराज रही थी. वह महालक्ष्मी थीं.
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राजा के मन की कामना पूरी हो गई थी. चूंकि कन्या कमल के फूल में मिली थी इसलिए उसका नाम रखा गया पदमावती. पदमावती नाम के अनुरूप ही रूपवती और गुणवती थी. साक्षात लक्ष्मी का अवतार. पद्मावती विवाह के योग्य हुई.
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एक दिन वह बाग में फूल चुन रही थी. उस वन में श्रीनिवास(बालाजी) आखेट के लिए गए थे. उन्होंने देखा कि एक हाथी एक युवती के पीछे पड़ा है और डरा रहा है. राजकुमारी के सेवक भाग खड़े हुए.
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श्रीनिवास ने तीर चला कर हाथी को रोका और पदमावती की रक्षा की. श्रीनिवास और पदमावती ने एक-दूसरे को देखा और रीझ गए. दोनों के मन में परस्पर अनुराग पैदा हुआ. लेकिन दोनों बिना कुछ कहे अपने-अपने घर लौट गए.
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श्रीनिवास घर तो लौट आए लेकिन मन पदमावती में ही बस गया. वह पदमावती का पता लगाने के लिए उपाय सोचने लगे. उन्होंने ज्योतिषी का रूप धरा और भविष्य वांचने के बहाने पदमावती को ढूंढने निकले.
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धीरे-धीरे ज्योतिषी श्रीनिवास की ख्याति पूरे चोल राज में फैल गई. पदमावती के मन में भी श्रीनिवास के लिए प्रेम हुआ था. वह उनसे मिलने को व्याकुल थी किंतु कोई पता-ठिकाना न होने के कारण उनका मन चिंतित था.
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इस चिंता और प्रेम विरह में उन्होंने भोजन-शृंगार आदि का त्याग कर दिया. इसके कारण उसका शरीर कृशकाय होता चला गया. राजा से पुत्री की यह दशा देखी नहीं जा रही थी. वह चिंतित थे. ज्योतिषी की प्रसिद्धि की सूचना राजा को हुई.
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राजा ने ज्योतिषी श्रीनिवास को बुलाया और सारी बात बता कर अपनी कन्या की दशा का कारण बताने को कहा. श्रीनिवास राजकुमारी का हाल समझने पहुंचे तो पदमावती को देख कर प्रसन्न हो गए. उनका उपक्रम सफल रहा था.
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उन्होंने परदमावती का हाथ अपने हाथ में लिया. कुछ देर तक पढने का स्वांग करने के बाद बोले- महाराज, आपकी पुत्री प्रेम के विरह में जल रही है. आप इनका शीघ्र विवाह करे दें तो स्वस्थ हो जाएंगी.
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पदमावती ने अब श्रीनिवास की ओर देखा. देखते ही पहचान लिया. उनके मुख पर प्रसन्नता के भाव आए और वह हंसीं. काफी दिनों बाद पुत्री को प्रसन्न देख राजा को लगा कि ज्योतिषी का अनुमान सही है.
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राजा ने श्रीनिवास से पूछा- ज्योतिषी महाराज, यदि आपको यह पता है कि मेरी पुत्री प्रेम के विरह में पीड़ित है तो आपको यह भी सूचना होगी कि मेरी पुत्री को किससे प्रेम है ? उसका विवाह करने को तैयार हूं. आप उसका परिचय दें ?
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श्रीनिवास ने कहा- आपकी पुत्री एक दिन वन में फूल चुनने गई थी. एक हाथी ने उन पर हमला किया तो आपके सैनिक और दासियां भाग खड़ी हुईं. राजकुमारी के प्राण एक धनुर्धर ने बचाए थे.
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राजा ने कहा- हां मेरे सैनिकों ने बताया था कि एक दिन ऐसी घटना हुई थी. एक वीर पुरुष ने उसके प्राण बचाए थे लेकिन मेरी पुत्री के प्रेम से उस घटना का क्या तात्पर्य !
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श्रीनिवास ने बताया- आपकी पुत्री को अपनी जान बचाने वाले उसी युवक से प्रेम हुआ है. राजा के पूछने पर श्रीनिवास ने कहा- वह कोई साधारण युवक नहीं, बल्कि शंख चक्रधारी स्वयं भगवान विष्णु हैं.
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इस समय बैकुंठ को छोड़कर मानव रूप में श्रीनिवास के नाम से पृथ्वी पर वास कर रहे हैं. आप पुत्री का विवाह उनसे करें. मैं इसकी सारी व्यवस्था करा दूंगा. यह बात सुनकर राजा प्रसन्न हो गए कि स्वयं विष्णु उनके जमाई बनेंगे.
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श्रीनिवास और पदमावती का विवाह तय हो गया. श्रीनिवास रूप में श्री हरि ने शुकदेव के माध्यम से समस्त देवी-देवताओं को अपने विवाह की सूचना भिजवा दी. शुकदेव की सूचना से सभी देवी-देवता अत्यंत प्रसन्न हुए.
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देवी-देवता श्रीनिवास जी से मिलने औऱ बधाई देने पृथ्वी पर पहुंचे. परंतु श्रीनिवास जी को खुशी के बीच एक चिंता भी होने लगी. देवताओं ने पूछा- भगवन ! संसार की चिंता हरने वाले आप इस उत्सव के मौके पर इतने चिंतातुर क्यों हैं ?
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श्रीनिवास जी ने कहा- चिंता की बात है, धन का अभाव. महा लक्ष्मी ने मुझे त्याग दिया इस कारण धनहीन हो चुका हूं. स्वयं महालक्ष्मी ने तप से शरीर त्याग मानव रूप लिया है और पिछली स्मृतियों को गुप्त कर लिया है.
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इस कारण उन्हें यह सूचना नहीं है कि वह महालक्ष्मी का स्वरूप है. वह तो स्वयं को राजकुमारी पदमावती ही मानती हैं. मैंने निर्णय किया है कि जब तक उनका प्रेम पुनःप्राप्त नहीं करता अपनी माया का उन्हें आभास नहीं कराउंगा.
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इस कारण मैं एक साधारण मनुष्य का जीवन व्यतीत कर रहा हूं और वह हैं राजकुमारी. राजा की पुत्री से विवाह करने और घर बसाने के लिए धन, वैभव और ऐश्वर्य की जरूरत है, वह मैं कहां से लाऊं ?
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स्वयं नारायण को धन की कमी सताने लगी. मानव रूप में आए प्रभु को भी विवाह के लिए धन की आवश्यकता हुई. यही तो ईश्वर की लीला है. जिस रूप में रहते हैं उस योनि के जीवों के सभी कष्ट सहते हैं.
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श्री हरि विवाह के लिए धन का प्रबंध कैसे हो, इस बात से चिंतित है. देवताओं ने जब यह सुना तो उन्हें आश्चर्य हुआ. देवताओं ने कहा- कुबेर आवश्यकता के बराबर धन की व्यवस्था कर देंगे.
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देवताओं ने कुबेर का आह्वान किया तो कुबेर प्रकट हुए. कुबेर ने कहा- यह तो मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि आपके लिए कुछ कर सकूं. प्रभु आपके लिए धन का तत्काल प्रबंध करता हूं. कुबेर का कोष आपकी कृपा से ही रक्षित है.
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श्री हरि ने कुबेर से कहा- यक्षराज कुबेर, आपको भगवान भोलेनाथ ने जगत और देवताओं के धन की रक्षा का दायित्व सौंपा है. उसमें से धन मैं अपनी आवश्यकता के हिसाब से लूंगा अवश्य, पर मेरी एक शर्त भी होगी.
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श्री हरि कुबेर से धन प्राप्ति की शर्त रख रहे हैं, यह सुनकर सभी देवता आश्चर्य में पड़ गए. श्री हरि ने कहा- ब्रहमा जी और शिव जी साक्षी रहें. कुबेर से धन ऋण के रूप में लूंगा जिसे भविष्य में ब्याज सहित चुकाऊंगा.
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श्री हरि की बात से कुबेर समेत सभी देवता विस्मय में एक दूसरे को देखने लगे. कुबेर बोले- भगवन, मुझसे कोई अपराध हुआ तो उसके लिए क्षमा कर दें. पर ऐसी बात न कहें. आपकी कृपा से विहीन होकर मेरा सारा कोष नष्ट हो जाएगा.
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श्री हरि ने कुबेर को निश्चिंत करते हुए कहा- आपसे कोई अपराध नहीं हुआ. मैं मानव की कठिनाई का अनुभव करना चाहता हूं. मानव रूप में उन कठिनाइयों का सामना करूंगा, जो मानव को आती हैं. धन की कमी और ऋण का बोझ सबसे बड़ा है.
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कुबेर ने कहा- प्रभु यदि आप मानव की तरह ऋण पर धन लेने की बात कर रहे हैं तो फिर आपको मानव की तरह यह भी बताना होगा कि ऋण चुकाएंगे कैसे ? मानव को ऋण प्राप्त करने के लिए कई शर्तें झेलनी पड़ती हैं.
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श्रीनिवास ने कहा- कुबेर, यह ऋण मैं नहीं, मेरे भक्त चुकाएंगे लेकिन मैं उनसे भी कोई उपकार नहीं लूंगा. मैं अपनी कृपा से उन्हें धनवान बनाऊंगा. कलियुग में पृथ्वी पर मेरी पूजा धन, ऐश्वर्य और वैभव से परिपूर्ण देवता के रूप में होगी.
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मेरे भक्त मुझसे धन, वैभव और ऐश्वर्य की मांग करने आएंगे. मेरी कृपा से उन्हें यह प्राप्त होगा बदले में भक्तों से मैं दान प्राप्त करूंगा जो चढ़ावे के रूप में होगा. मैं इस तरह आपका ऋण चुकाता रहूंगा.
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कुबेर ने कहा- भगवन कलियुग में मानव जाति धन के विषय में बहुत विश्वास के योग्य नहीं रहेगी. उन पर आवश्यकता से अधिक विश्वास करना क्या उचित होगा ?
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श्रीनिवास जी बोले- शरीर त्यागने के बाद तिरुपति के तिरुपला पर्वत पर बाला जी के नाम से लोग मेरी पूजा करेंगे. मेरे भक्तों की अटूट श्रद्धा होगी. वह मेरे आशीर्वाद से प्राप्त धन में मेरा हिस्सा रखेंगे. इस रिश्ते में न कोई दाता है और न कोई याचक.
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हे कुबेर, कलियुग के आखिरी तक भगवान बाला जी धन, ऐश्वर्य और वैभव के देवता बने रहेंगे. मैं अपने भक्तों को धन से परिपूर्ण करूंगा तो मेरे भक्त दान से न केवल मेरे प्रति अपना ऋण उतारेंगे बल्कि मेरा ऋण उतारने में भी मदद करेंगे.
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इस तरह कलियुग की समाप्ति के बाद मैं आपका मूलधन लौटा दूंगा. कुबेर ने श्री हरि द्वारा भक्त और भगवान के बीच एक ऐसे रिश्ते की बात सुनकर उन्हें प्रणाम किया और धन का प्रबंध कर दिया.
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भगवान श्रीनिवास और कुबेर के बीच हुए समझौते के साक्षी स्वयं ब्रहमा और शिव जी हैं. दोनों वृक्ष रूप में साक्षी बन गए. आज भी पुष्करिणी के किनारे ब्रह्मा और शिव जी बरगद के पेड़ के रूप में साक्षी बनकर खड़े हैं.
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ऐसा कहा जाता है कि निर्माण कार्य के लिए स्थान बनाने के लिए इन दोनों पेड़ों को जब काटा जाने लगा तो उनमें से खून की धारा फूट पड़ी. पेड़ काटना बंद करके उसकी देवता की तरह पूजा होने लगी.
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श्रीनिवास और पदमावती का विवाह पूरे धूमधाम से हुआ जिसमें सभी देवगण पधारे. भक्त मंदिर में दान देकर भगवान पर चढ़ा ऋण उतार रहे हैं जो कलियुग के अंत तक जारी रहेगा. 
(बाला जी भगवान की प्रचलित कथा)
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

= १९८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दूजा कुछ मांगै नहीं, हमको दे दीदार ।
तूं है तब लग एक टग, दादू के दिलदार ॥ 
दादू कहै, तूं है तैसी भक्ति दे, तूं है तैसा प्रेम ।
तूं है तैसी सुरति दे, तूं है तैसा खेम ॥
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साभार ~ Rajnish Gupta

(((((( रानियों के मन की वेदना ))))))
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जब भगवान श्री कृष्ण पृथ्वी लोक पर अपनी लीला समाप्त करके अपने धाम को चले गए तब भगवान की विरह-वेदना में उनकी सोलह हजार रानियाँ दुखी रहने लगीं.
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उन्होंने अपने प्रियतम प्रभु की चतुर्थ पटरानी यमुना जी को आनंदित देखा. वह विरह वेदना से शोकाकुल नहीं थी. इससे रानियों को आश्चर्य हुआ. उन्होंने सरल भाव से यमुना जी से कारण पूछ ही लिया.
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रानियों ने कहा – बहिन कालिंदी ! हमारी तरह तुम भी श्री कृष्ण की पत्नी हो. हम तो विरहाग्नि में जली जा रही हैं किन्तु तुम्हारी यह स्थिति नहीं है. तुम प्रसन्न हो, इसका क्या कारण है?
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यमुना जी ने कहा- बहनों, अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण हमारे प्रिय भगवान श्री कृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा हैं- श्री राधा जी ! मै दासी की भांति राधा जी की सेवा करती रहती हूं. उनकी सेवा का ही प्रभाव है कि विरह हमारा स्पर्श नहीं कर सकता.
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भगवान श्री कृष्ण की जितनी भी रानियां हैं सब की सब श्री राधा जी के ही अंश का विस्तार है. राधा कृष्ण एक हैं. उनका परस्पर संयोग है और उन दोनों का प्रेम ही वंशी है.
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तुम सब का भी श्री कृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है क्योंकि यह संभव नहीं है. भगवान जिसे अपनाते हैं उसे कहां छोड़ते हैं ? किन्तु तुम इस रहस्य को इस रूप में नहीं जानती हो इसलिए इतनी व्याकुल हो रही हो.
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यमुना जी आगे बोलीं- जब अक्रूर जी श्री कृष्ण को मथुरा ले गए थे तब गोपियों को भी ऐसी ही विरह-वेदना महसूस हुई थी. वह भी वास्तविक विरह नहीं था. प्रभु से विरह कहां ! वह तो विरह का आभास मात्र था.
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ये बातें गोपियां तो जानती नहीं थीं. जब प्रभु के मित्र उद्धव जी व्रज में आए और उन्होंने समझाया तब गोपियां इस बात को समझीं. यदि तुम्हे भी उद्धव जी का सत्संग प्राप्त हो जाए तो तुम भी श्री कृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी.
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रानियाँ बोली- सखी ! तुम्हारा जीवन धन्य है क्योंकि तुम्हें कभी भी अपने प्राणनाथ के वियोग का दुःख नहीं भोगना पडता. अब ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे उद्धव जी से शीघ्र भेंट हो जाए.
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तब यमुना जी बोलीं- जब भगवान अपने परमधाम को पधारे तब उद्धव जी भगवान की आज्ञा से बद्रिकाश्रम चले गए परन्तु व्रजभूमि को भी भगवान ने उद्धव जी को दे दिया था.
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किन्तु वह फल भूमि यहां से भगवान के अन्तःर्धान होने के साथ ही लोगों की सांसारिक दृष्टि से परे जा चुकी है. इसलिए उद्धव जी यहां प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देते. रानियों ने पूछा- ऐसा है तो फिर कैसे मिलेंगे हमें उद्धव जी ?
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यमुना जी ने कहा- एक स्थान है जहां उद्धव जी का दर्शन हो सकता है. गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान की लीला सहचरी गोपियों की विहार स्थली है वहां की लता अंकुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धव जी वहाँ निवास करते हैं.
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लताओं के रूप में उनके वास करने का यही उद्देश्य है कि भगवान की प्रियतमा गोपियों की चरण रज उन पर पड़ती रहे. उद्धवजी के सम्बन्ध में एक बात निश्चित यह भी है कि उन्हें भगवान ने अपना उत्सव स्वरुप प्रदान किया है.
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भगवान का उत्सव उद्धव जी का अंग है. इस लिए तुम सब व्रज में कुसुम सरोवर के पास ठहरो. भगवत भक्तों की मंडली एकत्र करके वाद्ययंत्र बजाकर भगवान की लीलाओं के भजन-कीर्तन करते उत्सव आरंभ करो.
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इस प्रकार जब तुम्हारे उत्सव की चर्चा होने लगेगी तो उस उत्सव का विस्तार होगा तब निश्चित ही उद्धव जी का दर्शन तुम्हें मिलेगा. तब रानियां व्रजनाभ और परीक्षित जी को लेकर व्रज में आईं.
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यमुना जी के बताए अनुसार गोवर्धन के निकट कुसुम सरोवर पर उत्सव श्री कृष्ण कीर्तन आरंभ कर दिया. वहां रहने वाले सभी भक्त जन एकाग्र हो गए. उनकी दृष्टि कहीं और न जाती थी. तभी सबके देखते देखते वहां फैले हुए लताओं के समूह से प्रकट होकर उद्धव जी सबके सामने आये.
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शरीर श्यामवर्ण, उसपर पीताम्बर शोभा पा रहा था. गले में वनमाला धारण किये हुए और मुख से बारबार गोपी वल्लभ श्री कृष्ण की मधुर लीलाओं का गान कर रहे थे. उद्धव जी के आगमन से उस कीर्तन की शोभा बहुत बढ़ गई.
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उद्धव जी ने भगवान की रानियों को प्रभु की विरह वेदना से निकलने का मार्ग बताया. उन्होंने व्रजनाभ और परीक्षित जी को दिव्य वृंदावन और श्री कृष्ण के उस स्थान से प्रेम के बारे बताया. तो रानियों के मन की वेदना मिटी और भजन में जुट गईं.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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= १९७ =

卐 सत्यराम सा 卐
ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।
दादू भेष अनन्त हैं, लाग रह्या सो एक ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

पहला प्रश्न :
मैं वर्षों से पूजा कर रहा हूं मगर हाथ कुछ नहीं आया। तीर्थ व्रत यात्रा सब कर चुका हूं पर निष्फल। क्या मैं ऐसे ही अकारण जीऊंगा और अकारण ही मर जाऊंगा?

आनंददास, सत्संग के बिना कोई पूजा नहीं है। सदगुरु के बिना कोई मंदिर का द्वार खुलेगा नहीं। पूजा तुमने की होगी बहुत, वह क्रियाकांड ही रही। पंडितों से सीखी होगी पूजा, और पंडित वे हैं जिन्हें स्वयं भी पूजा का कोई पता नहीं। शास्त्रों से सीखी होगी पूजा, शास्त्रों में शब्द हैं निश्चित, लेकिन सत्य नहीं। तुम लाश को ढोते रहे, तुम्हारा जीवंत व्यक्तित्व से संस्पर्श नहीं हुआ।

कृष्ण से मिलो तो नाच सकोगे, बुद्ध से मिलो तो ध्यान में उतर सकोगे; और कोई उपाय नहीं है। बुद्ध से तो लोग डरते हैं; कृष्ण से भयभीत हैं। कृष्ण की गीता पढ़ते हैं; बुद्ध की मूर्ति की पूजा करते हैं। मूर्ति में कोई प्राण तो नहीं हैं। मूर्ति निष्प्राण है, पूजा करते—करते तुम भी वैसे ही निष्प्राण हो जाओगे। पत्थरों के साथ रहोगे, पत्थर हो जाओगे। संग—साथ सोच कर करना।
फिर, तुम जो शब्द दोहराते रहे पूजा के नाम पर, उनमें तुम्हारे प्राण की अनुगूंज थी? तुम्हारे प्राण बोले थे? जिस ईश्वर को जाना नहीं, देखा नहीं, पहचाना नहीं, उस ईश्वर की तरफ जुड़े हुए हाथ सच कैसे हो सकते हैं? वे हाथ झूठे थे, वे हाथ पाखंड थे। इसलिए पूजा व्यर्थ गई।

पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती; निष्प्राण पूजा व्यर्थ जाती है। किन मंदिरों में तुमने पूजा की थी? किन तीर्थों में गए? उन मंदिरों में विराजमान था कोई? वे मंदिर खाली पड़े हैं। लोग तो मंदिरों में जाते ही तब हैं जब मंदिर खाली हो जाते हैं। जब तक मंदिरों में कोई दीया जलता है तब तक लोग दूर—दूर रहते हैं। दीये से डर लगता है। लपट पकड़ सकती है। दीये के पास तो पतंगे जा सकते हैं सिर्फ—मतवाले, दीवाने, पागल—जो अपने को निछावर कर सकें। कायर तो बाहर—बाहर होते हैं, जब तक दीया जलता है। जैसे ही दीया बुझा कि कायरों का मंदिरों में प्रवेश हो जाता है। फिर वे खूब घंटनाद करते हैं, आरतियां उतारते हैं। अब कोई भय नहीं है, अब भय का कोई कारण ही नहीं है।

जब नदी पूर पर होती है, बाढ़ पर होती है, तब तो तुम निकट नहीं आते; जब सूख ही जाती है नदी और रेत—ही—रेत रह जाती है, तब तुम अपनी नौका उतारते हो; फिर नौका आगे नहीं सरकती तो परेशान होते हो। फिर दोष नौका को देते हो। किसी बाढ़ में आई नदी का साथ खोजा होता, तो पूजा भी हो गई होती, प्रार्थना भी हो गई होती। किसी भरे मंदिर में गए होते, जहां मुहम्मद अभी जीवित हों, जहां कुरान अभी पैदा होती हो, जहां गोरख की वाणी अभी जग रही हो, जहां गोरख का अलख अभी जग रहा हो, ऐसी कोई जगह गए होते।
ओशो ~ मरो है जोगी मरो–(गोरख नाथ)

गुरुवार, 5 जनवरी 2017

= १९६ =

卐 सत्यराम सा 卐
शब्द विचारै करणी करै, राम नाम निज हिरदै धरै ।
काया मांहीं शोधै सार, दादू कहै लहै सो पार ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

**मंत्रो से आरोग्य**

शब्दों की ध्वनि का अलग-अलग अंगों पर एवं वातावरण पर असर होता है। कई शब्दों का उच्चारण कुदरती रूप से होता है। आलस्य के समय कुदरती आ... आ... होता है। रोग की पीड़ा के समय ॐ.... ॐ.... का उच्चारण कुदरती ऊँह.... ऊँह.... के रूप में होता है। यदि कुछ अक्षरों का महत्त्व समझकर उच्चारण किया जाय तो बहुत सारे रोगों से छुटकारा मिल सकता है।

'अ' उच्चारण से जननेन्द्रिय पर अच्छा असर पड़ता है।

'आ' उच्चारण से जीवनशक्ति आदि पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। दमा और खाँसी के रोग में आराम मिलता है, आलस्य दूर होता है।

'इ' उच्चारण से कफ, आँतों का विष और मल दूर होता है। कब्ज, पेड़ू के दर्द, सिरदर्द और हृदयरोग में भी बड़ा लाभ होता है। उदासीनता और क्रोध मिटाने में भी यह अक्षर बड़ा फायदा करता है।

'ओ' उच्चारण से ऊर्जाशक्ति का विकास होता है।

'म' उच्चारण से मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। शायद इसीलिए भारत के ऋषियों ने जन्मदात्री के लिए 'माता' शब्द पसंद किया होगा।

'ॐ' का उच्चारण करने से ऊर्जा प्राप्त होती है और मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। मस्तिष्क, पेट और सूक्ष्म इन्द्रियों पर सात्त्विक असर होता है।

'ह्रीं' उच्चारण करने से पाचन-तंत्र, गले और हृदय पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।

'ह्रं' उच्चारण करने से पेट, जिगर, तिल्ली, आँतों और गर्भाशय पर अच्छा असर पड़ता है।

= १९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू पहुँचे पूत बटाऊ होइ कर, नट ज्यों काछा भेख ।
खबर न पाई खोज की, हमको मिल्या अलेख ॥ 
दादू माया कारण मूंड मुंडाया, यहु तौ योग न होई ।
पारब्रह्म सूं परिचय नांहीं, कपट न सीझै कोई ॥ 
दादू जग दिखलावै बावरी, षोडश करै श्रृंगार ।
तहँ न सँवारे आपको, जहँ भीतर भरतार ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

******भगवान और मैं ????******
तुमने अब तक जाना तो अपने को मनुष्य है मनुष्य भी पूरा कहां ? कोई हिंदू है, कोई ईसाई है, कोई जैन है —उसमें भी खंड हैं, फिर हिंदू भी पूरा कहां ? उसमें भी कोई ब्राह्मण है, कोई शूद्र है, कोई क्षत्रिय है, कोई वैश्य है
फिर ब्राह्मण भी पूरा कहां ?

कोई देशस्थ, कोई कोकणस्थ फिर ऐसा कटता जाता, कटता जाता...
फिर उसमें भी स्त्री—पुरुष
फिर उसमें भी गरीब—अमीर
फिर उसमें भी सुंदर—कुरूप
फिर उसमें भी जवान—बूढ़ा
कितने खंड होते चले जाते हैं

आखिर में बचते हो तुम - बड़े क्षुद्र, बड़ी सीमा में बंधे, हजार—हजार सीमाओं में बंधे यह तुमने जाना है, आज अचानक मैं तुमसे कहता हूं ‘तुम भगवान हो’, श्रद्धा नहीं होती ...

तुम कहते हो : ‘भगवान और मैं कहां की बात कर रहे आप ? मैं तो जैसा अपने को जानता हूं, महापापी हूं हजार पाप करता हूं चोरी करता हूं जुआ खेलता हूं शराब पीता हूं।’

फिर भी मैं कहता हूं. तुम भगवान हो, ये तुमने जो सीमायें अपनी मान रखी हैं, ये तुम्हारी मान्यता में हैं और जिस दिन तुम हिम्मत करके इन सीमाओं के ऊपर सिर उठाओगे, अचानक तुम पाओगे कि सब सीमायें गिर गईं, तुम्हारा वास्तविक स्वरूप असीम है...
osho




बुधवार, 4 जनवरी 2017

= १९४ =

卐 सत्यराम सा 卐
देख दीवाने ह्वै गए, दादू खरे सयान ।
वार पार कोई ना लहै, दादू है हैरान ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

उसका रहस्य ******
जीवन के संबंध में जितनी धारणायें हैं, वे सब मनुष्य की भाषायें हैं—अज्ञात को शांत बनाने की चेष्टा है; किसी तरह अपरिभाषित को परिभाषा देने का उपाय है....

नाम लगा दिया तो थोड़ी राहत मिलती है कि चलो हमने जान लिया, अब परमात्मा इतनी बड़ी घटना है, किसने कब जाना, कौन जान सकता है, जानने का तो मतलब होगा परमात्मा को आर—पार देख लिया, आर—पार देखने का तो मतलब होगा उसकी सीमा है, जिसकी सीमा है, वह परमात्मा नहीं, जो असीम है, जिसका पारावार नहीं है न प्रारंभ है न अंत है—तुम उसको पूरा—पूरा कैसे जानोगे? कभी नहीं जानोगे, उसका रहस्य तो रहस्य ही रहेगा

विज्ञान कहता है : हम दो शब्द मानते हैं—ज्ञात और अज्ञात; नोन और अननोन, विज्ञान कहता है : ज्ञान वह है जो हमने जान लिया और अज्ञात वह है जो हम जान लेंगे, धर्म कहता है. हम तीन शब्द मानते हैं—ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय, ज्ञात वह है जो हमने जान लिया, अज्ञात वह है जो हम जान लेंगे, अज्ञेय, वह जो हम कभी नहीं जान पायेंगे...

परमात्मा अज्ञेय है..
उस अज्ञेय में श्रद्धा. सभी जानने पर समाप्त नहीं हो जाता, इस भाव का नाम श्रद्धा है, जो जान लिया वह तो क्षुद्र हो गया जो अनजाना रह गया है, वही विराट है, इस बात का नाम श्रद्धा है
osho

= १९३ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू विषै सुख मांहि खेलतां, काल पहुँच्या आइ ।
उपजै विनशै देखतां, यहु जग यों ही जाइ ॥ 
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साभार ~ Gajendra Kaurav(wtsap)
एक संत बहुत दिनों से नदी के किनारे बैठे थे, एक दिन किसी व्यकि ने उससे पुछा आप नदी के किनारे बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं 

संत ने कहा, इस नदी का जल पूरा का पूरा बह जाए इसका इंतजार कर रहा हूँ। 

व्यक्ति ने कहा, यह कैसे हो सकता है. नदी तो बहती ही रहती है सारा पानी अगर बह भी जाए तो, आप को क्या करना। 

संत ने कहा मुझे दुसरे पार जाना है। सारा जल बह जाए, तो मैं चल कर उस पार जाऊँगा। 

उस व्यक्ति ने गुस्से में कहा, आप पागल नासमझ जैसी बात कर रहे हैं, ऐसा तो हो ही नही सकता। 

तब संत ने मुस्कराते हुए कहा, यह काम तुम लोगों को देख कर ही सीखा है। तुम लोग हमेशा सोचते रहते हो कि जीवन मे थोड़ी बाधाएं कम हो जाएं, कुछ शांति मिले, फलाना काम खत्म हो जाए तो सेवा, साधन -भजन, सत्कार्य करेगें।

जीवन भी तो नदी के समान है यदि जीवन मे तुम यह आशा लगाए बैठे हो, तो मैं इस नदी के पानी के पूरे बह जाने का इंतजार क्यों न करूँ।

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
☀ (बाल्यावस्था)
पहले पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूँ आया इहि संसार वे ।
मायादा रस पीवण लग्गा, बिसार्या सिरजनहार वे ।
सिरजनहार बिसारा किया पसारा, मात पिता कुल नार वे ।
झूठी माया आप बँधाया, चेतै नहीं गँवार वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ आया इहि संसार वे ॥ १ ॥

☀ (तरुण अवस्था)
दूजे पहरै रैणि दे, बणिजारिया, तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ।
माया मोह फिरै मतवाला, राम न सक्या संभाल वे ।
राम न संभाले, रत्ता नाले, अंध न सूझै काल वे ।
हरि नहीं ध्याया, जन्म गँवाया, दह दिशि फूटा ताल वे ।
दह दिशि फूटा, नीर निखूटा, लेखा डेवण साल वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ॥ २ ॥

☀ (प्रौढ अवस्था)
तीजे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तैं बहुत उठाया भार वे ।
जो मन भाया, सो कर आया, ना कुछ किया विचार वे ।
विचार न कीया नाम न लीया, क्यों कर लंघै पार वे ।
पार न पावे, फिर पछितावे, डूबण लग्गा धार वे ।
डूबण लग्गा, भेरा भग्गा, हाथ न आया सार वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तैं बहुत उठाया भार वे ॥ ३ ॥

☀ वृद्धावस्था जर्जरी भूत(वृद्धावस्था)
चौथे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूँ पक्का हुआ पीर वे ।
जोबन गया, जरा वियापी, नांही सुधि शरीर वे ।
सुधि ना पाई, रैणि गँवाई, नैंनहुँ आया नीर वे ।
भव-जल भेरा डूबण लग्गा, कोई न बंधै धीर वे ।
कोई धीर न बंधे जम के फंधे, क्यों कर लंघे तीर वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ पक्का हुआ पीर वे ॥ ४ ॥
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साभार ~ Archana Maheshwari
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम ध्यान को बैठते हैं, तो नींद आ जाती है। आ ही जाएगी। ताकत भी तो बचनी चाहिए थोड़ी-बहुत। लास्ट आइटम समझा हुआ है ध्यान को! जब सब कर चुके, सब तरह की बेवकूफियां निपटा चुके–लड़ चुके, झगड़ चुके, क्रोध कर चुके; प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता–सब कर चुके, कौड़ी-कौड़ी पर सब गंवा चुके। जब कुछ भी नहीं बचता करने को, रद्दी में दो पैसे का खरीदा हुआ अखबार भी दिन में दस दफे चढ़ चुके। रेडियो का नाब कई दफा खोल चुके, बंद कर चुके। वही बकवास पत्नी से, बेटे से, जो हजार दफा हो चुकी है, कर चुके। जब कुछ भी नहीं बचता है करने को, तब एक आदमी सोचता है कि चलो, अब ध्यान कर लें। तब वह आंख बंद करके बैठ जाता है!
इतनी इंपोटेंस से, इतने शक्ति-दौर्बल्य से कभी ध्यान नहीं होने वाला है। भीतर आप नहीं जाएंगे, नींद में चले जाएंगे। शक्ति चाहिए भीतर की यात्रा के लिए भी। इसलिए आत्म-ज्ञान की तरफ जाने वाले व्यक्ति को समझना चाहिए, एक-एक कण शक्ति का मूल्य चुका रहे हैं आप, और बहुत महंगा मूल्य चुका रहे हैं।
जब एक आदमी किसी पर क्रोध से भरकर आग से भर जाता है, तब उसे पता नहीं कि वह क्या गंवा रहा है ! उसे कुछ भी पता नहीं कि वह क्या खो रहा है ! इतनी शक्ति पर, जिसमें उसने सिर्फ चार गालियां फेंकीं, इतनी शक्ति को लेकर तो वह गहरे ध्यान में कूद सकता था।
एक आदमी ताश खेलकर क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक आदमी शतरंज के घोड़ों पर, हाथियों पर लगा हुआ है। वह क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक आदमी सिगरेट पीकर धुआं निकाल रहा है बाहर-भीतर। वह क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। इतनी शक्ति से तो भीतर की यात्रा हो सकती थी।
और ध्यान रहे, बूंद-बूंद चूकर सागर समाप्त जाते हैं। और आदमी के पास, इस शरीर के कारण, सीमित शक्ति है। जीवन बहुत जल्दी रिक्त हो जाता है।
तीन सूत्र आपसे कहता हूं। इन तीन सूत्रों का यदि खयाल रहे–
☀संकल्प, विल
☀साहस, करेज
☀संयम, कंजरवेशन
अगर ये तीन सूत्र खयाल में रह जाएं, तो आपका आत्म-अज्ञान भभककर जल सकता है। और उस क्षण में आत्म-अज्ञान विलीन हो जाता है। और जो जानता है स्वयं को…।
ओशो
गीता दर्शन-(भाग–2) (अध्याय–5) प्रवचन–54

= १९१ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू कोई वांछै मुक्ति फल, कोइ अमरापुर वास ।
कोई वांछै परमगति, दादू राम मिलन की प्यास ॥ 
तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द ।
दादू देखै नैन भर, तब केता होइ आनन्द ॥ 
===========================
प्रिय मित्रो, भक्ति बिना मांग की हो, तभी फलित होगी केवल भगवत्-पूजा ही मुक्ति का उपाय है। उसके अतिरिक्त जो नाना प्रकार के यज्ञ, व्रत और सकाम पूजा आदि हैं, वे सब बंधन के कारण हैं। बंधन स्वर्ण के भी हों तो क्या? बंधन तो बंधन ही है। इच्छा मात्र जंजीर बन जाती है। वासना मात्र बंधन बन जाती है। मनुष्य ने कुछ भी मांगा स्वर्ग मांगा, बैकुंठ मांगा, और भूल हो गई।

प्रेमी मांगता नहीं। प्रेमी कहता है, मुझे स्वीकार कर लो, मुझे अपना लो, तुम ही तुम फैल जाओ मेरे ऊपर। सकाम न हो प्रार्थना, सकाम न हो पूजा, कुछ भी पाने की वासना न हो। आह्लाद से हो, आकांक्षा से नहीं। आनंद से हो, अनुग्रह से हो, अपेक्षा से नहीं। बस, ये ही सारा भेद है। प्रेम का ये जो रास्ता है, भक्ति, इस मे जो जितना मिटता है, परमात्मा की अनुकंपा उसे उतनी ही ज्यादा मिलती है। 

कृपा बरसती है और जिस क्षण मनुष्य पूरा मिट जाता है, उसी क्षण उसके भीतर परमात्मा का आविर्भाव होता है। इसका ये अर्थ नहीं है कि मनुष्य पूजा न करे। ये भी अर्थ नहीँ है कि मनुष्य को यदि मूर्ति प्रिय है तो मूर्ति के सामने बैठ कर चुपचाप वार्ता न करे। इतना ही अर्थ है कि सब सहज और आकांक्षा-शून्य हो। प्रार्थना और पूजा किसी लक्ष्य को पाने हेतु न हो। कोई भी इच्छा शेष न हो, कुछ भी पाने या होने का भाव न बचे तभी भक्ति। 
जय सनातन।

सोमवार, 2 जनवरी 2017

= १९० =

卐 सत्यराम सा 卐
आन कथा संसार की, हमहिं सुणावै आइ ।
तिसका मुख दादू कहै, दई न दिखाइ ताहि ॥ 
दादू मुख दिखलाइ साधु का, जे तुमहिं मिलावै आइ ।
तुम मांही अन्तर करै, दई न दिखाइ ताहि ॥ 
============================
साभार ~ Meenu Ahuja
सत्संग के अमृत कण - 

परमात्मा के संग से योग और संसार के संग से भोग होता है । सुख की इच्छा, आशा और भोग - ये तीनों सम्पूर्ण दु:खों के कारण हैं । सुख की इच्छा का त्याग कराने के लिए ही दु:ख आता है । शरीर में ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानना प्रमाद है, प्रमाद ही मृत्यु है । नाशवान को महत्त्व देना ही बंधन है । इसकी चाह ना छोड़ने से अविनाशी तत्त्व की प्राप्ति होती है । शरीर संसार से अपना संबंध मानना कुसंग है । आप भगवान को नहीं देखते, पर भगवान आपको निरंतर देख रहे हैं । ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए - इसी में सब दु:ख भरे हुए हैं । अपने स्वभाव को शुद्ध बनाने के समान कोई उन्नति नहीं है । अच्छाई का अभिमान बुराई की जड़ है । मिटने वाली चीज एक क्षण भी टिकने वाली नहीं होती । शरीर को मैं - मेरा मानने से तरह - तरह के और अनंत दु:ख आते हैं । दूसरों के दोष देखने से हमारा भला होता है, न दूसरों का । नाशवान की दास्ता ही अविनाशी के सम्मुख नहीं होने देती । 

आप भगवान के दास बन जाओ तो भगवान आपको मालिक बना देंगे । आराम चाहनेवाला अपनी वास्तविक उन्नति नहीं कर सकता । परमात्मा दूर नहीं हैं, केवल उनको पाने की लगन की कमी है । जब क नाशवान वस्तुओं में सत्यता दिखेगी, तब तक बोध नहीं होगा । 

अपने में विशेषता केवल व्यक्तित्व के अभिमान से दिखती है । भगवान से विमुख होकर संसार के सम्मुख होने के समान कोई पाप नहीं है । परमात्मा की प्राप्ति में भाव की प्रधानता है, क्रिया की नहीं । मन में किसी वस्तु की चाह रखना ही दरिद्रता है । 

स्वार्थ और अभिमान का त्याग करने से साधुता आती है । संसार से विमुख होने पर बिना प्रयत्न किए स्वत: सद् गुण आते हैं । यह सत्य है कि हमारा शरीर तो संसार में है, परंतु हम स्वयं भगवान में ही हैं । मुक्ति इच्छा के त्याग से होती है, वस्तु के त्याग से नहीं । भगवान के लिए अपनी मनचाही वस्तु को छोड़ देना ही शरणागति है । संसार की सामग्री संसार के काम की है, अपना काम की नहीं । संसार से किसी भी चीज की कामना करना दु:ख पाने जैसा ही है । 

मनुष्य का उत्थान और पतन भाव से होता है । वस्तु, परिस्थिति आदि से नहीं । आने वाला ही जाने वाला होता है - यहीं नियम है । हम घर में रहने से नहीं फंसते अपितु सम्पूर्ण घर को अपना मानने से फंसते हैं । 

‘है’ - को परमात्मा का न मानकर संसार का मान लेते हैं - यहीं गलती है । ‘करेंगे’ - यह निश्चित नहीं है, पर ‘मरेंगे’ - यह निश्चित है । ठीक उसी तरह जब तक अभिमान और स्वार्थ है, तब तक किसी के भी सात प्रेम नहीं हो सकता । 

असत् का संग छोड़े बिना सत्संग का प्रत्यक्ष लाभ नहीं होता । भगवान में अपनापन सबसे सुगम और श्रेष्ठ साधन है । यदि हम संसार को अपना ना मानें तो इसी क्षम मुक्ति है । किसी तरह से भगवान में लग जाओ, फिर भगवान अपने - आप संभालेंगे । 

ठगने में दोष है, ठगे जाने में दोष नहीं है । जिसका स्वभाव सुधर जाएगा, उसके लिए दुनिया सुधर जाएगी । भगवान के सिवाय कोई मेरा नहीं है - यह असली भक्ति है । 

लेकर दान देने की अपेक्षा न लेना ही उचित है । भगवान हठ से नहीं मिलते, प्रत्युत सच्ची श्रद्धा से मिलते हैं । भोगी व्यक्ति रोगी होता है, दु:खी होता है और दुर्गति में जाता है । 

भगवान से विमुख होते ही जीव अनाथ हो जाता है । संसार की आसक्ति का त्याग किए बिना भगवान में प्रीति नहीं होती । लेने की इच्छा वाला सदा दरिद्र ही रहता है । ऊंची - से ऊंची जीवन्मुक्त अवस्था मनुष्य मात्र में स्वाभाविक है । 

किसी के अहित की भावना करना अपने अहित को निमंत्रण देना है । वस्तु - व्यक्ति से सुख लेना महान जड़ता है । जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी न किसी के पराधीन होना ही पड़ेगा । परंतु जो दूसरों को दु:ख देता है, उसका भजन में मन नहीं लगता । 

जो हमसे किसी भी वस्तु की आकांक्षा रखता है, वह हमारा गुरु कैसे हो सकता है ? संतोष से काम, क्रोध और लोभ - तीनों नष्ट हो जाते हैं । अपने लिए सुख की इच्छा रखना आसुरी वृत्ति है । मिले हुए को अपना मत मानो तो मुक्ति स्वत:सिद्ध है । अपने सुख से सुखी होने वाला कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता । 

याद रखें, भगवान का प्रत्येक विधान आपके परम हित के लिए हैं ।.....श्रद्धेय श्री स्वामी राम सुख दास जी महाराज...प्रवचन




= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
साधु अंग का निर्मला, तामें मल न समाइ ।
परम गुरु प्रकट कहै, ताथैं दादू ताइ ॥ 
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***गुरू***

गुरु का अर्थ है : ऐसा व्यक्ति जो अभी कारागृह में है और मुक्त हो गया है। उसकी भी नाव किनारे आ लगी है। जल्दी ही वह भी यात्रा पर निकल जाएगा। थोड़ी देर और वह किनारे पर है। वह तुम्हारे ही जैसा है; लेकिन अब तुमसे बिलकुल भिन्न हो गया है। तुम जहां खड़े हो, वहीं वह खड़ा है। जल्दी ही तुम उसे वहां न पाओगे; क्योंकि जिसके पंख पूरे खुल गए, जिसकी उड़ने की तैयारी पूरी हो गई और जिसने स्वतंत्रता का स्वाद भी चख लिया, अब वह ज्यादा देर परतंत्रता में न रुक सकेगा। थोड़ी देर और, वह अपनी नाव पर सवार हो जाएगा। फिर वह भी कारागृह के बाहर होगा।

**तो गुरु का क्या अर्थ है ?**
गुरु का अर्थ है : ऐसी मुक्त हो गई चेतनाएं जो ठीक बुद्ध और कृष्ण जैसी हैं, लेकिन तुम्हारी जगह खड़ी हैं—तुम्हारे पास। कुछ थोड़ा सा ऋण उनका बाकी है—शरीर का, उसके चुकने की प्रतीक्षा है। बहुत थोड़ा समय है यह।
बुद्ध को चालीस वर्ष में ज्ञान हुआ। चालीस वर्ष वे और रुके। उन चालीस वर्षों में उनके शरीर के जो ऋण शेष थे, वे चुक गए। ऋण चुकते ही नाव खुल जाएगी। फिर तुम उन्हें खोज न पाओगे। फिर वे जैसे धुआं विलीन हो जाता है आकाश में, ऐसे ही विलीन हो जाएंगे। जैसे गंध उड़ जाती शून्य में, वैसे वे उड़ जाएंगे। फिर तुम उन्हें कहीं भी खोज न पाओगे। फिर तुम्हें कहीं उनकी रूपरेखा न मिलेगी। फिर उनका स्पर्श संभव न होगा।

मुक्त हो जाने के बाद शरीर का ऋण चुकाने की जो थोड़ी सी घड़ियां हैं, उन थोड़ी ही घड़ियों में गुरु का उपयोग हो सकता है। फिर तुम लाख महावीर को चिल्लाते रहो, फिर तुम लाख बुद्ध को पुकारते रहो—बहुत सार्थकता नहीं है। सदगुरु का अर्थ है: मध्य के बिंदु पर खड़ा व्यक्ति, जिसका पुराना संसार समाप्त हो गया, नया शुरू होने को है। पुराने का आखिरी हिसाब—किताब बाकी है—वह हुआ जा रहा है; जैसे ही वह पूरा हो जाएगा...। भीतर से तो बात समाप्त हो गई; लेकिन शरीर के संबंध उतने जल्दी समाप्त नहीं होते। शरीर पैदा हुआ था सत्तर साल या अस्सी साल जीने को। मां—बाप के शरीर से उसे अस्सी साल जीने की क्षमता मिली थी; और व्यक्ति चालीस साल में मुक्त हो गया, तो शरीर की क्षमता चालीस साल और शरीर को बनाए रखेगी। अब वह जिएगा मृत्यु की भांति: यहां होगा और नहीं होगा।

गुरु एक पैराडॉक्स है, एक विरोधाभास है: वह तुम्हारे बीच और तुमसे बहुत दूर; वह तुम जैसा और तुम जैसा बिलकुल नहीं; वह कारागृह में और परम स्वतंत्र। अगर तुम्हारे पास थोड़ी सी भी समझ हो तो इन थोड़े क्षणों का तुम उपयोग कर लेना, क्योंकि थोड़ी देर और, फिर तुम लाख चिल्लाओगे सदियों-सदियों तक, तो भी तुम उसका उपयोग न कर सकोगे। .................ओशो
सुन भई साधो--प्रवचन--18

रविवार, 1 जनवरी 2017

= १८८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जब प्राण पिछाणै आपको, आत्म सब भाई ।
सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥ 
==========================
साभार ~ Anand Nareliya

कद्दूओ का ध्यान ********
एक पुरानी कहानी तुमसे कहूं—झेन कथा है...
एक झेन सदगुरु के बगीचे में कद्दू लगे थे, सुबह—सुबह गुरु बाहर आया तो देखा, कद्दूओ में बड़ा झगड़ा और विवाद मचा है। कद्दू ही ठहरे! उसने कहा : ‘अरे कद्दूओ यह क्या कर रहे हो? आपस में लड़ते हो !’ वहा दो दल हो गए थे कद्दूओं में और मारधाड़ की नौबत थी। झेन गुरु ने कहा ‘कद्दूओ, एक—दूसरे को प्रेम करो।’ उन्होंने कहा ‘यह हो ही नहीं सकता। दुश्मन को प्रेम करें? यह हो कैसे सकता है !’ तो झेन गुरु ने कहा, ‘फिर ऐसा करो, ध्यान करो।’ कदुओं ने कहा. ‘हम कद्दू हैं, हम ध्यान कैसे करें ?’ तो झेन गुरु ने ‘कहा : ‘देखो—भीतर मंदिर में बौद्ध भिक्षुओं की कतार ध्यान करने बैठी थी—देखो ये कद्दू इतने कद्दू ध्यान कर रहे हैं।’ बौद्ध भिक्षुओं के सिर तो घुटे होते हैं, कदुओं जैसे ही लगते हैं। ‘तुम भी इसी भांति बैठ जाओ।’ पहले तो कद्दू हंसे, लेकिन सोचा ‘गुरु ने कभी कहा भी नहीं; मान ही लें, थोड़ी देर बैठ जाएं।’ जैसा गुरु ने कहा वैसे ही बैठ गए—सिद्धासन में पैर मोड़ कर आंखें बंद करके, रीढ़ सीधी करके। ऐसे बैठने से थोड़ी देर में शांत होने लगे।

सिर्फ बैठने से आदमी शांत हो जाता है। इसलिए झेन गुरु तो ध्यान का नाम ही रख दिये हैं. झाझेन। झाझेन का अर्थ होता है. खाली बैठे रहना, कुछ करना न। कद्दू बैठे—बैठे शांत होने लगे, बड़े हैरान हुए, बड़े चकित भी हुए! ऐसी शांति कभी जानी न थी।

चारों तरफ एक अपूर्व आनंद का भाव लहरें लेने लगा। फिर गुरु आया और उसने कहा : ‘अब एक काम और करो, अपने— अपने सिर पर हाथ रखो।’ हाथ सिर पर रखा तो और चकित हो गए। एक विचित्र अनुभव आया कि वहा तो किसी बेल से जुड़े हैं। और जब सिर उठा कर देखा तो वह बेल एक ही है, वहां दो बेलें न थीं, एक ही बेल में लगे सब कद्दू थे। कदुओं ने कहा : ‘हम भी कैसे मूर्ख! हम तो एक ही के हिस्से हैं, हम तो सब एक ही हैं, एक ही रस बहता है हमसे—और हम लड़ते थे।’ तो गुरु ने कहा. ‘अब प्रेम करो। अब तुमने जाना कि एक ही हो, कोई पराया नहीं। एक का ही विस्तार है।’
osho

= १८७ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू संगी सोई कीजिये, जे कबहूँ पलट न जाइ ।
आदि अंत बिहड़ै नही, ता सन यहु मन लाइ ॥ 
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((((( आपसी मतभेद से विनाश )))))
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एक बहेलिए ने एक ही तरह के पक्षियों के एक छोटे से झुंड़ को खूब मौज-मस्ती करते देखा तो उन्हें फंसाने की सोची. उसने पास के घने पेड़ के नीचे अपना जाल बिछा दिया.
.
बहेलिया अनुभवी था, उसका अनुमान ठीक निकला. पक्षी पेड़ पर आए और फिर दाना चुगने पेड़ के नीचे उतरे. वे सब आपस में मित्र थे सो भोजन देख समूचा झुंड़ ही एक साथ उतरा.
.
पक्षी ज्यादा तो नहीं थे पर जितने भी थे सब के सब बहेलिये के बिछाए जाल में फंस गए. जाल में फंसे पक्षी आपस में राय बात करने लगे कि अब क्या किया जाए. क्या बचने की अभी कोई राह है ?
.
उधर बहेलिया खुश हो गया कि पहली बार में ही कामयाबी मिल गयी. बहेलिया जाल उठाने को चला ही था कि आपस में बातचीत कर सभी पक्षी एकमत हुए. पक्षियों का झुंड़ जाल ले कर उड़ चला.
.
बहेलिया हैरान खड़ा रह गया. उसके हाथ में शिकार तो आया नहीं, उलटा जाल भी निकल गया. अचरज में पड़ा बहेलिया अपने जाल को देखता हुआ उन पक्षियों का पीछा करने लगा.
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आसमान में जाल समेत पक्षी उड़े जा रहे थे और हाथ में लाठी लिए बहेलिया उनके पीछे भागता चला जा रहा था. रास्ते में एक ऋषि का आश्रम था. उन्होंने यह माजरा देखा तो उन्हें हंसी आ गयी.
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ऋषि ने आवाज देकर बहेलिये को पुकारा. बहेलिया जाना तो न चाहता था पर ऋषि के बुलावे को कैसे टालता. उसने आसमान में अपना जाल लेकर भागते पक्षियों पर टकटकी लगाए रखी और ऋषि के पास पहुंचा.
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ऋषि ने कहा- तुम्हारा दौड़ना व्यर्थ है. पक्षी तो आसमान में हैं. वे उड़ते हुए जाने कहां पहुंचेंगे, कहां रूकेंगे. तुम्हारे हाथ न आयेंगे. बुद्धि से काम लो, यह बेकार की भाग-दौड़ छोड़ दो.
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बहेलिया बोला- ऋषिवर अभी इन सभी पक्षियों में एकता है. क्या पता कब किस बात पर इनमें आपस में झगड़ा हो जाए. मैं उसी समय के इंतज़ार में इनके पीछे दौड़ रहा हूं. लड़-झगड़ कर जब ये जमीन पर आ जाएंगे तो मैं इन्हें पकड़ लूंगा.
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यह कहते हुए बहेलिया ऋषि को प्रणाम कर फिर से आसमान में जाल समेत उड़ती चिड़ियों के पीछे दौड़ा. एक ही दिशा में उड़ते उड़ते कुछ पक्षी थकने लगे थे. कुछ पक्षी अभी और दूर तक उड़ सकते थे.
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थके पक्षियों और मजबूत पक्षियों के बीच एक तरह की होड़ शुरू हो गई. कुछ देर पहले तक संकट में फंसे होने के कारण जो एकता थी वह संकट से आधा-अधूरा निकलते ही छिन्न-भिन्न होने लगी.
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थके पक्षी जाल को कहीं नजदीक ही उतारना चाहते थे तो दूसरों की राय थी कि अभी उड़ते हुए और दूर जाना चाहिए. थके पक्षियों में आपस में भी इस बात पर बहस होने लगी कि किस स्थान पर सुस्ताने के लिए उतरना चाहिए.
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जितने मुंह उतनी बात. सब अपनी पसंद के अनुसार आराम करने का सुरक्षित ठिकाना सुझा रहे थे. एक के बताए स्थान के लिए दूसरा राजी न होता. देखते ही देखते उनमें इसी बात पर आपस में ही तू-तू, मैं-मैं हो गई.
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एकता भंग हो चुकी थी. कोई किधर को उड़ने लगा कोई किधर को. थके कमजोर पक्षियों ने तो चाल ही धीमी कर दी. इन सबके चलते जाल अब और संभल न पाया. नीचे गिरने लगा. अब तो पक्षियों के पंख भी उसमें फंस गए.
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दौड़ता बहेलिया यह देखकर और उत्साह से भागने लगा. जल्द ही वे जमीन पर गिरे. बहेलिया अपने जाल और उसमें फंसे पक्षियों के पास पहुंच गया. सभी पक्षियों को सावधानी से निकाला और फिर उन्हें बेचने बाजार को चल पड़ा.
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तुलसीदासजी कहते है- जहां सुमति तहां संपत्ति नाना, जहां कुमति तहां विपत्ति निधाना. यानी जहां एक जुटता है वहां कल्याण है. जहां फूट है वहां अंत निश्चित है. 
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महाभारत के उद्योग पर्व की यह कथा बताती कि आपसी मतभेद में किस तरह पूरे समाज का विनाश हो जाता है.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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शनिवार, 31 दिसंबर 2016

= १८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।
दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥ 
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((( श्रीहरि ने सुधारी देवेंद्र की बुद्धि )))
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इंद्र ने एक बार घमंड में भरकर ऐसा सभागार बनवाने का निर्णय लिया जैसा कभी किसी ने न बनवाया हो. तुरंत विश्वकर्मा को काम में लगा दिया गया. सभागार बनने लगा.
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विश्वकर्मा काम पूरा कर इंद्र को निरीक्षण के लिए बुलाते तो इंद्र कुछ न कुछ मीन मेख निकाल देते और फिर नए सिरे से काम करने का आदेश दे देते. इस कारण विश्वकर्मा का काम लगातार सौ साल तक चला लेकिन भवन पूरा ही न हो सका.
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भगवान विश्वकर्मा को इन सौ सालों से एक भी छुट्टी नहीं मिल सकी. विश्वकर्मा जी परेशान होकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे और परेशानी बताई. विश्वकर्मा की यह दुर्गति देख ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से इसका समाधान निकालने को कहा.
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विष्णुजी ने सारी बात सुनने के बाद तय किया कि इंद्र का घमंड नष्ट किए बिना बात नहीं बनेगी. भगवान ने बटुक यानी छोटे ब्राह्मण बालक जो शिक्षा ग्रहण के लिए गुरूकुल जाते हैं. बटुक बनकर श्रीहरि इंद्र के पास गए.
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उन्होंने इंद्र से पूछा- मैं आपके अद्भुत भवन निर्माण की दूर-दूर तक फैली प्रशंसा सुनकर आया हूं. यह भवन कुल कितने विश्वकर्मा मिलकर तैयार कर रहे हैं और यह पूरी तरह बनकर कब तक तैयार हो जायेगा ?
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इंद्र ने उपहास की मुद्रा में कहा- यह भी कोई प्रश्न हुआ ? क्या विश्वकर्मा भी दो-चार हुआ करते हैं ? बटुक बोले- इतने से घबरा गए देवेंद्र ? न जाने कितने ब्रह्मांड हैं और उसमें न जाने कितनी तरह की सृष्टि. उस सृष्टि में न जाने कितने ब्रह्मा, विष्णु महेश.
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इंद्र के कुछ समझने से पूर्व बटुक ने कहा- देवराज आप धरती के धूलकण गिन सकते हैं पर इंद्र और विश्वकर्मा की गिनती नहीं हो सकती. जैसे नदी में नौकाएं तैरती हैं वैसे ही महाविष्णु के रोमकूप के बीच जो पानी है उसमें तमाम ब्रह्मांड तैरते हैं.
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बटुक रूपी भगवान का यह प्रवचन चल ही रह था कि तभी वहां कतार लगाए हुए चींटे गुजरे. बटुक और इंद्र ने भी उसे देखा. चींटों को देखकर बटुक हंसने लगे. इंद्र ने कहा- अब क्या हुआ, चींटों को देखकर क्यों हंस रहे हो ब्राह्मण कुमार ?
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बटुक ने कहा- आप जिन चींटों को देख रहे हैं कभी ये भी इंद्र हुआ करते थे परंतु आज कर्मों के हिसाब से इन्हें यह योनि भुगतनी पड़ रही है. कर्मों का भी खेल निराला है. ये भगवान को इंसान और इंसान को श्वान बना दें.
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बात आगे बढती कि तभी वहां एक बहुत बुजुर्ग मुनि सिर पर चटाई ओढे, माथे पर सफेद तिलक लगाए आ पहुंचे. शरीर तो जर्जर हो गया था लेकिन उनका मुख तेज के कारण चमक था. उनके सीने पर बालों का एक चक्राकार गुच्छा था.
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इंद्र ने मुनि को नमस्कार कर बैठने का स्थान दिया. बटुक ने पूछा- हे महामुने आप कौन हैं ? यह आपके सीने पर बालों का ऐसा विचित्र सा गुच्छा क्यों हैं ? आप जैसे तेजस्वी मुनि ने यह सिर पर चटाई क्यों ओढ रखी है ?
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मुनि बोले- बटुक, जीवन के असंख्य बरस बीत जाने पर भी मैंने न तो कोई रहने का ठिकाना बनाया, न विवाह कर के घर बसाया और न ही कोई आजीविका खोजी. अब मैं धूप, बारिश, सर्दी सब से बचने के लिए हमेशा ही यह चटाई ओढकर चलता हूं.
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मेरे सीने पर बालों का जो गुच्छा है इसके कारण मुझे लोमश कहते हैं.यही मेरी आयु का प्रमाण भी है. एक इंद्र के पतन होने पर सीने का एक रोआं गिर जाता है. दो कल्प समाप्त होने पर पिछले कल्प के जब सारे ब्रह्मा खत्म हो जाएंगे तब मेरा भी अंत हो जाएगा.
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लोमश कहते रहे- बटुक, सबको जाना है. असंख्य ब्रह्मा आए और गए फिर मैं घर, पत्नी, संतान, धन की इच्छा क्यों करुं ? भगवत प्राप्ति ही मेरे लिए संपत्ति और मोक्ष का मार्ग है. यह कहकर लोमश मुनि अंतर्धान हो गए. बटुक भी चले गए.
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इंद्र सन्नाटे में खड़े यह सोचते रहे कि जिसकी इतनी लंबी उम्र है वह एक घास फूस का घर भी नहीं बनाते, चटाई ओढे जीवन गुजारते हैं और मैं इतना बड़ा भवन बनवा रहा हूं. उन्हें अपने निर्णय पर पछतावा हुआ.
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इंद्र ने तत्काल विश्वकर्मा को बुलवाया. क्षमा प्रार्थना के साथ काफी धन देकर कार्य को रोकने का अनुरोध किया. बटुक और लोमश की बातें सुनकर इंद्र का मन विरक्त हो उठा. स्वर्ग के ऐश्वर्य से उन्हें घबराहट होने लगी. उन्हें अपना अगला जीवन चींटे का दिखने लगा.
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सोच विचार कर इंद्र ने वन में रहकर तप का निर्णय किया. वह अपने आलीशान महल से निकले ही थे कि देवताओं के गुरु वृहस्पति उन्हें मिल गए. वृहस्पति ने सारी बात सुनी फिर उन्हें समझा बुझा कर फिर से राज-काज में लगा दिया. (स्रोत: ब्रह्मवैवर्त पुराण)
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

साधारण जीवन में भी प्रेम तभी खुलता है जब तुम खो जाते हो। जब तुम डूब जाते हो। जब मैं की आवाज बंद हो जाती है। और जब मैं से भी महत्वपूर्ण तू हो जाता है और तू ही जब तुम्हारा जीवन हो जाता है। तुम अपने को मिटा सकते हो प्रेमी के लिए, प्रेयसी के लिए, आनंदभाव से तुम मृत्यु में उतर सकते हो, तभी प्रेम फलित होता है। जब साधारण जीवन में प्रेम फलित होता है, तब भी वही झलक आती है कि एक ही रह जाता है, दो मिट जाते हैं।

लेकिन जब उस परम प्रेम का उदय होता है, तब तो निश्चित ही तुम्हारी रूप-रेखा भी नहीं बचनी चाहिए। तुम्हारा नाम-ठिकाना भी नहीं बचना चाहिए। तुम तो बिलकुल ही मिटोगे तभी वह हो सकेगा। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएंगे वे खो जाएंगे, जो अपने को खो देंगे वे बच जाएंगे। वहां तो मिटने वाला सब कुछ पा लेता है और बचाने वाला सब कुछ खो देता है।

कहते हैं नानक, 'जो कोई अपने आप को कुछ समझता है, वह उसके आगे जा कर शोभा नहीं पाता।' सच तो यह है, वह उसके आगे पहुंच ही नहीं पाता। क्योंकि जिसकी आंखों में अकड़ है, उसकी आंखें अंधी हैं। और जिसके हृदय में यह खयाल है, मैं कुछ हूं, उसका व्यक्तित्व बहरा है, जड़ है, वह मरा ही हुआ है। वह परमात्मा के सामने आ ही नहीं सकता। परमात्मा तो सदा तुम्हारे सामने है। लेकिन जब तक तुम हो, तुम उसे न देख पाओगे। क्योंकि तुम ही बाधा हो। जैसे ही बाधा गिर जाती है, तुम्हारी आंखें निर्मल हो कर खुलती हैं बिना किसी भाव के कि मैं हूं। तुम बिलकुल ना-कुछ की तरह होते हो। एक शून्य ! उस शून्य में तत्क्षण वह प्रवेश कर जाता है।

कबीर ने कहा है, सूने घर का पाहुना।
जैसे ही तुम शून्य हुए, वह अतिथि आ जाता है। जब तक तुम अपने से भरे हो, तुम उसे चूकते रहोगे। जिस दिन तुम खाली होओगे, वह तुम्हें भर देता है।

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
जैसा है तैसा नाम तुम्हारा, ज्यों है त्यों कह सांई ।
तूं आपै जाणै आपको, तहँ मेरी गम नांहि ॥
जीव ब्रह्म सेवा करै, ब्रह्म बराबर होइ ।
दादू जाणै ब्रह्म को, ब्रह्म सरीखा सोइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

अज्ञान बिलकुल स्वाभाविक है, पता हमें नहीं है, इसका एक पहलू तो यह है कि हमें पता नहीं है; इसका दूसरा पहलू यह है कि जीवन रहस्य है, पता हो ही नहीं सकता, इसका एक पहलू तो यह है कि मुझे पता नहीं है, इसका दूसरा पहलू यह है कि जीवन अज्ञात रहस्य है, पहेली है, इसलिए पता हो कैसे सकता है इसलिए जिसने जाना कि मैं नहीं जानता वही जानने में समर्थ हो जाता है, क्योंकि वह जान लेता है : जीवन परम गुह्य रहस्य है

परमात्मा रहस्य है, कोई सिद्धात नहीं, जो कहता है परमात्मा है, वह यह थोड़े ही कह रहा है कि परमात्मा कोई सिद्धात है; वह यह कह रहा है कि हम समझ नहीं पाये, समझ में आता नहीं, ज्ञात होता नहीं—अज्ञेय है, इस सारी बात को हम एक शब्द में रख रहे हैं कि परमात्मा है , परमात्मा शब्द में इतना ही अर्थ है कि सब रहस्य है और समझ में नहीं आता; सूझ—बूझ के पार है; बुद्धि के पार है; तर्क के अतीत है; जहां विचार थक कर गिर जाते हैं, वहां है, अवाक जहां हो जाती है चेतना, जहां आश्चर्यचकित हम खड़े रह जाते हैं…

कभी तुम किसी वृक्ष के पास आश्चर्यचकित हो कर खड़े हुए हो? जीवन कितने रहस्य से भरा है, लेकिन तुम्हारे ज्ञान के कारण तुम मरे जा रहे हो, रहस्य को तुम देख नहीं पाते, और जिसने रहस्य नहीं देखा, वह क्या खाक धर्म से संबंधित होगा.

एक छोटा—सा बीज वृक्ष बन जाता है और तुम नाचते नहीं, तुम रहस्य से नहीं भरते, रोज सुबह सूरज निकल आता है, आकाश में करोड़ों—करोड़ों अरबों तारे घूमते हैं, पक्षी हैं, पशु हैं, इतना विराट विस्तार है जीवन का—इसमें हर चीज रहस्यमय है, किसी का कुछ पता नहीं है, और जो—जो तुम्हें पता है वह कामचलाऊ है...

विज्ञान बहुत दावे करता है कि हमें पता है, पूछो कि पानी क्या है? तो वह कहता है हाइड्रोजन और आक्सीजन का मेल है लेकिन हाइड्रोजन क्या है? तो फिर अटक गये, फिर झिझक कर खड़े हो गये, तो वह कहता है : हाइड्रोजन क्या है, अब यह जरा मुश्किल है क्योंकि हाइड्रोजन तो तत्व है, दो का संयोग हो तो हम बता दें, पानी दो का संयोग है—हाइड्रोजन और आक्सीजन का जोड़, एच टू ओ, लेकिन हाइड्रोजन तो सिर्फ हाइड्रोजन है

अब कोई तुमसे पूछे, पीला रंग क्या है? तो अब क्या खाक कहोगे कि पीला रंग क्या है, पीला रंग यानी पीला रंग हाइड्रोजन यानी हाइड्रोजन, अब कहना क्या है? मगर यह कोई उत्तर हुआ कि हाइड्रोजन यानी हाइड्रोजन?

नहीं, विज्ञान भी कोई उत्तर देता नही; थोड़ी दूर जाता है, फिर ठिठक कर खड़ा हो जाता है, सब शास्त्र थोडी दूर जाते हैं, फिर ठिठक कर गिर जाते हैं, मनुष्य की क्षमता सीमित है और असीम है जीवन—जाना कैसे जा सकता है, इसलिए जिसने जान लिया कि नहीं जानता, वही ज्ञानी है...
osho

= १८३ =

卐 सत्यराम सा 卐
प्रेम कथा हरि की कहै, करै भक्ति ल्यौ लाइ ।
पीवै पिलावै राम रस, सो जन मिलियो आइ ॥ 
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(((((((( श्रीजगन्नाथ जी कथा ))))))))
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एक बार भगवान श्री कृष्ण सो रहे थे और निद्रावस्था में उनके मुख से राधा जी का नाम निकला. पटरानियों को लगा कि वह प्रभु की इतनी सेवा करती है परंतु प्रभु सबसे ज्यादा राधा जी का ही स्मरण रहता है.
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रुक्मिणी जी एवं अन्य रानियों ने रोहिणी जी से राधा रानी व श्री कृष्ण के प्रेम व ब्रज-लीलाओं का वर्णन करने की प्रार्थना की. माता ने कथा सुनाने की हामी तो भर दी लेकिन यह भी कहा कि श्री कृष्ण व बलराम को इसकी भनक न मिले.
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तय हुआ कि सभी रानियों को रोहिणी जी एक गुप्त स्थान पर कथा सुनाएंगी. वहां कोई और न आए इसके लिए सुभद्रा जी को पहरा देने के लिए मना लिया गया.
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सुभद्रा जी को आदेश हुआ कि स्वयं श्री कृष्ण या बलराम भी आएं तो उन्हें भी अंदर न आने देना. माता ने कथा सुनानी आरम्भ की. सुभद्रा द्वार पर तैनात थी. थोड़ी देर में श्री कृष्ण एवं बलराम वहां आ पहुंचे. सुभद्रा ने अन्दर जाने से रोक लिया.
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इससे भगवान श्री कृष्ण को कुछ संदेह हुआ. वह बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति द्वारा अन्दर की माता द्वारा वर्णित ब्रज लीलाओं को आनंद लेकर सुनने लगे. बलराम जी भी कथा का आनंद लेने लगे.
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कथा सुनते-सुनते श्री कृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भुत प्रेम भाव उत्पन्न हुआ. उस भाव में उनके पैर-हाथ सिकुड़ने लगे जैसे बाल्य काल में थे. तीनों राधा जी की कथा में ऐसे विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे.
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बड़े ध्यान पूर्वक देखने पर भी उनके हाथ-पैर दिखाई नहीं देते थे. सुदर्शन ने भी द्रवित होकर लंबा रूप धारण कर लिया. उसी समय देवमुनि नारद वहां आ पहुंचे. भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो गए और निहारते रहे.
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कुछ समय बाद जब तंद्रा भंग हुई तो नारद जी ने प्रणाम करके भगवान श्री कृष्ण से कहा- हे प्रभु ! मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो रूप देखा है, वह रूप आपके भक्त जनों को पृथ्वी लोक पर चिर काल तक देखने को मिले. आप इस रूप में पृथ्वी पर वास करें.
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भगवान श्री कृष्ण नारद जी की बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा. कलिकाल में मैं इसी रूप में नीलांचल क्षेत्र में अपना स्वरूप प्रकट करुंगा.
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कलियुग आगमन के उपरांत प्रभु की प्रेरणा से मालव राज इन्द्रद्युम्न ने भगवान श्री कृष्ण, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा जी की ऐसी ही प्रतिमा जगन्नाथ मंदिर में स्थापित कराई. यह रोचक कथा आगे पड़े.
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राजा इन्द्रद्युम्न श्रेष्ठ प्रजा पालक राजा थे. प्रजा उन्हें बहुत प्रेम करती थी. प्रजा सुखी और संतुष्ट थी. राजा के मन में इच्छा थी कि वह कुछ ऐसा करे जिससे सभी उन्हें स्मरण रखें.
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दैवयोग से इंद्रद्युम्न के मन में एक अज्ञात कामना प्रगट हुई कि वह ऐसा मंदिर का निर्माण कराएं जैसा दुनिया में कहीं और न हो. इंद्रद्युम्न विचारने लगे कि आखिर उनके मंदिर में किस देवता की मूर्ति स्थापित करें.
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राजा के मन में यही इच्छा और चिंतन चलने लगा. एक रात इसी पर गंभीर चिंतन करते सो गए. नीद में राजा ने एक सपना देखा. सपने में उन्हें एक देव वाणी सुनाई पड़ी.
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इंद्रद्युम्न ने सुना- राजा तुम पहले नए मंदिर का निर्माण आरंभ करो. मूर्ति विग्रह की चिंता छोड़ दो. उचित समय आने पर तुम्हें स्वयं राह दिखाई पड़ेगी. राजा नीद से जाग उठे. सुबह होते ही उन्होंने अपने मंत्रियों को सपने की बात बताई.
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राज पुरोहित के सुझाव पर शुभ मुहूर्त में पूर्वी समुद्र तट पर एक विशाल मंदिर के निर्माण का निश्चय हुआ. वैदिक-मंत्रोचार के साथ मंदिर निर्माण का श्रीगणेश हुआ.
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राजा इंद्रद्युम्न के मंदिर बनवाने की सूचना शिल्पियों और कारीगरों को हुई. सभी इसमें योगदान देने पहुंचे. दिन रात मंदिर के निर्माण में जुट गए. कुछ ही वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हुआ.
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सागर तट पर एक विशाल मंदिर का निर्माण तो हो गया परंतु मंदिर के भीतर भगवान की मूर्ति की समस्या जस की तस थी. राजा फिर से चिंतित होने लगे. एक दिन मंदिर के गर्भगृह में बैठकर इसी चिंतन में बैठे राजा की आंखों से आंसू निकल आए.
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राजा ने भगवान से विनती की- प्रभु आपके किस स्वरूप को इस मंदिर में स्थापित करूं इसकी चिंता से व्यग्र हूं. मार्ग दिखाइए. आपने स्वप्न में जो संकेत दिया था उसे पूरा होने का समय कब आएगा ? देव विग्रह विहीन मंदिर देख सभी मुझ पर हंसेंगे.
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राजा की आंखों से आंसू झर रहे थे और वह प्रभु से प्रार्थना करते जा रहे थे- प्रभु आपके आशीर्वाद से मेरा बड़ा सम्मान है. प्रजा समझेगी कि मैंने झूठ-मूठ में स्वप्न में आपके आदेश की बात कहकर इतना बड़ा श्रम कराया. हे प्रभु मार्ग दिखाइए.
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राजा दुखी मन से अपने महल में चले गए. उस रात को राजा ने फिर एक सपना देखा. सपने में उसे देव वाणी सुनाई दी- राजन ! यहां निकट में ही भगवान श्री कृष्ण का विग्रह रूप है. तुम उन्हें खोजने का प्रयास करो, तुम्हें दर्शन मिलेंगे.
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इन्द्रद्युम्न ने स्वप्न की बात पुनः पुरोहित और मंत्रियों को बताई. सभी यह निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रभु की कृपा सहज प्राप्त नहीं होगी. उसके लिए हमें निर्मल मन से परिश्रम आरंभ करना होगा.
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भगवान के विग्रह का पता लगाने की जिम्मेदारी राजा इंद्रद्युम्न ने चार विद्वान पंडितों को सौंप दिया. प्रभु इच्छा से प्रेरित होकर चारों विद्वान चार दिशाओं में निकले.
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उन चारों में एक विद्वान थे विद्यापति. वह चारों में सबसे कम उम्र के थे. प्रभु के विग्रह की खोज के दौरान उनके साथ बहुत से अलौकिक घटनाएं हुई. प्रभु का विग्रह किसे मिला ? यह प्रसंग आगे पढ़ें.
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पंडित विद्यापति पूर्व दिशा की ओर चले. कुछ आगे चलने के बाद विद्यापति उत्तर की ओर मुडे तो उन्हें एक जंगल दिखाई दिया. वन भयावह था. विद्यापति श्री कृष्ण के उपासक थे. उन्होंने श्री कृष्ण का स्मरण किया और राह दिखाने की प्रार्थना की.
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भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से उन्हें राह दिखने लगी. प्रभु का नाम लेते वह वन में चले जा रहे थे. जंगल के मध्य उन्हें एक पर्वत दिखाई दिया. पर्वत के वृक्षों से संगीत की ध्वनि सा सुरम्य गीत सुनाई पड़ रहा था.
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विद्यापति संगीत के जान कार थे. उन्हें वहां मृदंग, बंसी और करताल की मिश्रित ध्वनि सुनाई दे रही थी. यह संगीत उन्हें दिव्य लगा. संगीत की लहरियों को खोजते विद्यापति आगे बढ़ चले.
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वह जल्दी ही पहाड़ी की चोटी पर पहुंच गए. पहाड़ के दूसरी ओर उन्हें एक सुंदर घाटी दिखी जहां भील नृत्य कर रहे थे. विद्यापति उस दृश्य को देखकर मंत्र मुग्ध थे. सफर के कारण थके थे पर संगीत से थकान मिट गयी और उन्हें नींद आने लगी.
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अचानक एक बाघ की गर्जना सुनकर विद्यापति घबरा उठे. बाघ उनकी और दौड़ता आ रहा था. बाघ को देखकर विद्यापति घबरा गए और बेहोश होकर वहीं गिर पडे.
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बाघ विद्यापति पर आक्रमण करने ही वाला था कि तभी एक स्त्री ने बाघ को पुकारा- बाघा..!! उस आवाज को सुनकर बाघ मौन खडा हो गया. स्त्री ने उसे लौटने का आदेश दिया तो बाघ लौट पड़ा.
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बाघ उस स्त्री के पैरों के पास ऐसे लोटने लगा जैसे कोई बिल्ली पुचकार सुनकर खेलने लगती है. युवती बाघ की पीठ को प्यार से थपथपाने लगी और बाघ स्नेह से लोटता रहा.
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वह स्त्री वहां मौजूद स्त्रियों में सर्वाधिक सुंदर थी. वह भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी. ललिता ने अपनी सेविकाओं को अचेत विद्यापति की देखभाल के लिए भेजा.
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सेविकाओं ने झरने से जल लेकर विद्यापति पर छिड़का. कुछ देर बाद विद्यापति की चेतना लौटी. उन्हें जल पिलाया गया. विद्यापति यह सब देख कर कुछ आश्चर्य में थे.
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ललिता विद्यापति के पास आई और पूछा- आप कौन हैं और भयानक जानवरों से भरे इस वन में आप कैसे पहुंचे. आपके आने का प्रयोजन बताइए ताकि मैं आपकी सहायता कर सकूं.
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विद्यापति के मन से बाघ का भय पूरी तरह गया नहीं था. ललिता ने यह बात भांप ली और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा- विप्रवर आप मेरे साथ चलें. जब आप स्वस्थ हों तब अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थान करें.
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विद्यापति ललिता के पीछे-पीछे उनकी बस्ती की तरफ चल दिए. विद्यापति भीलों के पाजा विश्वावसु से मिले और उन्हें अपना परिचय दिया. विश्वावसु विद्यापति जैसे विद्वान से मिलकर बड़े प्रसन्नता हुए.
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विश्वावसु के अनुरोध पर विद्यापति कुछ दिन वहां अतिथि बनकर रूके. वह भीलों को धर्म और ज्ञान का उपदेश देने लगे. उनके उपदेशों को विश्वावसु तथा ललिता बड़ी रूचि के साथ सुनते थे. ललिता के मन में विद्यापति के लिए अनुराग पैदा हो गया.
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विद्यापति ने भी भांप लिया कि ललिता जैसी सुंदरी को उनसे प्रेम हो गया है किंतु विद्यापति एक बड़े कार्य के लिए निकले थे. अचानक एक दिन विद्यापति बीमार हो गए. ललिता ने उसकी सेवा सुश्रुषा की.
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इससे विद्यापति के मन में भी ललिता के प्रति प्रेम भाव पैदा हो गया. विश्वावसु ने प्रस्ताव रखा की विद्यापति ललिता से विवाह कर ले. विद्यापति ने इसे स्वीकार कर लिया.
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कुछ दिन दोनों के सुखमय बीते. ललिता से विवाह करके विद्यापति प्रसन्न तो था पर जिस महत्व पूर्ण कार्य के लिए वह आए थे, वह अधूरा था. यही चिंता उन्हें बार बार सताती थी.
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इस बीच विद्यापति को एक विशेष बात पता चली. विश्वावसु हर रोज सवेरे उठ कर कहीं चला जाता था और सूर्योदय के बाद ही लौटता था. कितनी भी विकट स्थिति हो उसका यह नियम कभी नहीं टूटता था.
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विश्वावसु के इस व्रत पर विद्यापति को आश्चर्य हुआ. उनके मन में इस रहस्य को जानने की इच्छा हुई. आखिर विश्वावसु जाता कहां है. एक दिन विद्यापति ने ललिता से इस सम्बन्ध में पूछा. ललिता यह सुनकर सहम गई.
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आखिर वह क्या रहस्य था ? क्या वह रहस्य विद्यापति के कार्य में सहयोगी था या विद्यापति पत्नी के प्रेम में मार्ग भटक गए. यह प्रसंग आगे पढ़ें
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विद्यापति ने ललिता से उसके पिता द्वारा प्रतिदिन सुबह किसी अज्ञात स्थान पर जाने और सूर्योदय के पूर्व लौट आने का रहस्य पूछा. विश्ववासु का नियम किसी हाल में नहीं टूटता था चाहे कितनी भी विकट परिस्थिति हो.
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ललिता के सामने धर्म संकट आ गया. वह पति की बात को ठुकरा नहीं सकती थी लेकिन पति जो पूछ रहा था वह उसके वंश की गोपनीय परंपरा से जुड़ी बात थी जिसे खोलना संभव नहीं था.
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ललिता ने कहा- स्वामी ! यह हमारे कुल का रहस्य है जिसे किसी के सामने खोला नहीं जा सकता परंतु आप मेरे पति हैं और मैं आपको कुल का पुरुष मानते हुए जितना संभव है उतना बताती हूं.
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यहां से कुछ दूरी पर एक गुफा है जिसके अन्दर हमारे कुल देवता हैं. उनकी पूजा हमारे सभी पूर्वज करते आए हैं. यह पूजा निर्बाध चलनी चाहिए. उसी पूजा के लिए पिता जी रोज सुबह नियमित रूप से जाते हैं.
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विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह भी उनके कुल देवता के दर्शन करना चाहते हैं. ललिता बोली- यह संभव नहीं. हमारे कुल देवता के बारे में किसी को जानने की इच्छा है, यह सुनकर मेरे पिता क्रोधित हो जाएंगे.
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विद्यापति की उत्सुक्ता बढ़ रही थी. वह तरह-तरह से ललिता के अपने प्रेम की शपथ देकर उसे मनाने लगे. आखिर कार ललिता ने कहा कि वह अपने पिता जी से विनती करेगी कि वह आपको देवता के दर्शन करा दें.
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ललिता ने पिता से सारी बात कही. वह क्रोधित हो गए. ललिता ने जब यह कहा कि मैं आपकी अकेली संतान हूं. आपके बाद देवता के पूजा का दायित्व मेरा होगा. इसलिए मेरे पति का यह अधिकार बनता है क्योंकि आगे उसे ही पूजना होगा.
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विश्वावसु इस तर्क के आगे झुक गए. वह बोले- गुफा के दर्शन किसी को तभी कराए जा सकते हैं जब वह भगवान की पूजा का दायित्व अपने हाथ में ले ले. विद्यापति ने दायित्व स्वीकार किया तो विश्वावसु देवता के दर्शन कराने को राजी हुए.
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दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व विद्यापति की आंखों पर पट्टी बांधकर विश्वावसु उनका दाहिना हाथ पकड़ कर गुफा की तरफ निकले. विद्यापति ने मुट्ठी में सरसों रख लिया था जिसे रास्ते में छोड़ते हुए गए.
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गुफा के पास पहुंचकर विश्वावसु रुके और गुफा के पास पहुंच गए. विश्वावसु ने विद्यापति के आँखों की काली पट्टी खोल दी. उस गुफा में नीले रंग का प्रकाश चमक उठा. हाथों में मुरली लिए भगवान श्री कृष्ण का रूप विद्यापति को दिखाई दिया.
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विद्यापति आनंद मग्न हो गए. उन्होंने भगवान के दर्शन किए. दर्शन के बाद तो जैसे विद्यापति जाना ही नहीं चाहते थे. पर विश्वावसु ने लौटने का आदेश दिया. फिर उनकी आंखों पर पट्टी बांधी और दोनों लौट पड़े.
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लौटने पर ललिता ने विद्यापति से पूछा. विद्यापति ने गुफा में दिखे अलौकिक दृश्य के बारे में पत्नी को बताना भी उसने उचित नहीं समझा. वह टाल गए. यह तो जानकारी हो चुकी थी कि विश्वावसु श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करते हैं.
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विद्यापति को आभास हो गया कि महाराज ने स्वप्न में जिस प्रभु विग्रह के बारे में देव वाणी सुनी थी, वह इसी मूर्ति के बारे में थी. विद्यापति विचार करने लगे कि किसी तरह इसी मूर्ति को लेकर राजधानी पहुंचना होगा.
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वह एक तरफ तो गुफा से मूर्ति को लेकर जाने की सोच रहे थे दूसरी तरफ भील राज और पत्नी के साथ विश्वासघात के विचार से उनका मन व्यथित हो रहा था. विद्यापति धर्म-अधर्म के बारे में सोचता रहे.
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फिर विचार आया कि यदि विश्वावसु ने सचमुच उसपर विश्वास किया होता तो आंखों पर पट्टी बांधकर गुफा तक नहीं ले जाता. इसलिए उसके साथ विश्वास घात का प्रश्न नहीं उठता. उसने गुफा से मूर्ति चुराने का मन बना लिया.
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विद्यापति ने ललिता से कहा कि वह अपने माता-पिता के दर्शन करने के लिए जाना चाहता है. वे उसे लेकर परेशान होंगे. ललिता भी साथ चलने को तैयार हुई तो विद्यापति ने यह कह कर समझा लिया कि वह शीघ्र ही लौटेगा तो उसे लेकर जाएगा.
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ललिता मान गई. विश्वावसु ने उसके लिए घोड़े का प्रबंध किया. अब तक सरसों के दाने से पौधे निकल आए थे. उनको देखता विद्यापति गुफा तक पहुंच गया. उसने भगवान की स्तुति की और क्षमा प्रार्थना के बाद उनकी मूर्ति उठाकर झोले में रख ली.
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शाम तक वह राजधानी पहुंच गया और सीधा राजा के पास गया. उसने दिव्य प्रतिमा राजा को सौंप दी और पूरी कहानी सुनायी. राजा ने बताया कि उसने कल एक सपना देखा कि सुबह सागर में एक कुन्दा बहकर आएगा.
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उस कुंदे की नक्काशी करवाकर भगवान की मूर्ति बनवा लेना जिसका अंश तुम्हें प्राप्त होने वाला है. वह भगवान श्री विष्णु का स्वरूप होगा. तुम जिस मूर्ति को लाए हो वह भी भगवान विष्णु का अंश है. दोनों आश्वस्त थे कि उनकी तलाश पूरी हो गई है.
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राजा ने कहा कि जब भगवान द्वारा भेजी लकड़ी से हम इस प्रतिमा का वड़ा स्वरूप बनवा लेंगे तब तुम अपने ससुर से मिलकर उन्हें मूर्ति वापस कर देना. उनके कुल देवता का इतना बड़ा विग्रह एक भव्य मंदिर में स्थापित देखकर उन्हें खुशी ही होगी.
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दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व राजा विद्यापति तथा मंत्रियों को लेकर सागर तट पर पहुंचा. स्वप्न के अनुसार एक बड़ा कुंदा पानी में बहकर आ रहा था. सभी उसे देखकर प्रसन्न हुए. दस नावों पर बैठकर राजा के सेवक उस कुंदे को खींचने पहुंचे.
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मोटी-मोटी रस्सियों से कुंदे को बांधकर खींचा जाने लगा लेकिन कुंदा टस से मस नहीं हुआ. और लोग भेजे गए लेकिन सैकड़ों लोग और नावों का प्रयोग करके भी कुंदे को हिलाया तक नहीं जा सका.
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राजा का मन उदास हो गया. सेनापति ने एक लंबी सेना कुंदे को खींचने के लिए भेज दी. सारे सागर में सैनिक ही सैनिक नजर आने लगे लेकिन सभी मिल कर कुंदे को अपने स्थान से हिला तक न सके. सुबह से रात हो गई.
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अचानक राजा ने काम रोकने का आदेश दिया. उसने विद्यापति को अकेले में ले जाकर कहा कि वह समस्या का कारण जान गया है. राजा के चेहरे पर संतोष के भाव थे. राजा ने विद्यापति को गोपनीय रूप से कहीं चलने की बात कही.
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राजा इंद्रद्युम्न ने कहा कि अब भगवान का विग्रह बन जाएगा. बस एक काम करना होगा. भगवान श्री कृष्ण ने राजा को ऐसा क्या संकेत दे दिया था कि उसकी सारी परेशानी समाप्त हो गई. यह प्रसंग आगे पढ़ें.
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राजा इंद्रध्युम्न को भगवान की प्रेरणा से समझ में आने लगा कि आखिर प्रभु के विग्रह के लिए जो लकड़ी का कुंदा पानी में बह कर आया है वह हिल-डुल भी क्यों नहीं रहा.
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राजा ने विद्यापति को बुलाया और कहा- तुम जिस दिव्य मूर्ति को अपने साथ लाए हो उसकी अब तक जो पूजा करता आया था उससे तुरंत भेंट करके क्षमा मांगनी होगी. बिना उसके स्पर्श किए यह कुंदा आगे नहीं बढ सकेगा.
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राजा इंद्रद्युम्न और विद्यापति विश्वावसु से मिलने पहुंचे. राजा ने पर्वत की चोटी से जंगल को देखा तो उसकी सुंदरता को देखता ही रह गया. दोनों भीलों की बस्ती की ओर चुपचाप चलते रहे.
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इधर विश्वावसु अपने नियमित दिनचर्या के हिसाब से गुफा में अपने कुल देवता की पूजा के लिए चले. वहां प्रभु की मूर्ति गायब देखी तो वह समझ गए कि उनके दामाद ने ही यह छल किया है.
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विश्वावसु लौटे और ललिता को सारी बात सुना दी. विश्वावसु पीड़ा से भरा घर के आंगन में पछाड़ खाकर गिर गए. ललिता अपने पति द्वारा किए विश्वास घात से दुखी थी और स्वयं को इसका कारण मान रही थी. पिता-पुत्री दिन भर विलाप करते रहे.
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उन दोनों ने अन्न का एक दाना भी न छुआ. अगली सुबह विश्वावसु उठे और सदा की तरह अपनी दिनचर्या का पालन करते हुए गुफा की तरफ बढ़ निकले. वह जानते थे कि प्रभु का विग्रह वहां नहीं है फिर भी उनके पैर गुफा की ओर खींचे चले जाते थे.
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विश्वावसु के पीछे ललिता और रिश्तेदार भी चले. विश्वावसु गुफा के भीतर पहुंचे. जहां भगवान की मूर्ति होती थी उस चट्टान के पास खड़े होकर हाथ जोड़ कर खडे रहे. फिर उस ऊंची चट्टान पर गिर गए और बिलख–बिलख कर रोने लगे. उनके पीछे प्रजा भी रो रही थी.
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एक भील युवक भागता हुआ गुफा के पास आया और बताया कि उसने महाराज और उनके साथ विद्यापति को बस्ती की ओर से आते देखा है. यह सुन कर सब चौंक उठे. विश्वावसु राजा के स्वागत में गुफा से बाहर आए लेकिन उनकी आंखों में आंसू थे.
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राजा इंद्रद्युमन विश्वावसु के पास आए और उन्हें अपने हृदय से लगा लिया. राजा बोले- भीलराज, तुम्हारे कुल देवता की प्रतिमा का चोर तुम्हारा दामाद नहीं मैं हूं. उसने तो अपने महाराज के आदेश का पालन किया. यह सुन कर सब चौंक उठे.
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विश्वावसु ने राजा को आसन दिया. राजा ने उस विश्वावसु को शुरू से अंत तक पूरी बात बता कर कहा कि आखिर क्यों यह सब करना पड़ा. फिर राजा ने उनसे अपने स्वप्न और फिर जगन्नाथ पुरी में सागर तट पर मंदिर निर्माण की बात कह सुनाई.
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राजा ने विश्वावसु से प्रार्थना की- भील सरदार विश्वावसु, कई पीढ़ियों से आपके वंश के लोग भगवान की मूर्ति को पूजते आए हैं. भगवान के उस विग्रह के दर्शन सभी को मिले इसके लिए आपकी सहायता चाहिए.
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ईश्वर द्वारा भेजे गए लकड़ी के कुंदे से बनी मूर्ति के भीतर हम इस दिव्य मूर्ति को सुरछित रखना चाहते हैं. अपने कुल की प्रतिमा को पुरी के मंदिर में स्थापित करने की अनुमति दो. उस कुंदे को तुम स्पर्श करोगे तभी वह हिलेगा.
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विश्वावसु राजी हो गए. राजा सपरिवार विश्वावसु को लेकर सागर तट पर पहुंचे. विश्वावसु ने कुंदे को छुआ. छूते ही कुंदा अपने आप तैरता हुआ किनारे पर आ लगा. राजा के सेवकों ने उस कुंदे को राज महल में पहुंचा दिया.
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अगले दिन मूर्तिकारों और शिल्पियों को राजा ने बुलाकर मंत्रणा की कि आखिर इस कुंदे से कौन सी देवमूर्ति बनाना शुभ दायक होगा. मूर्तिकारों ने कह दिया कि वे पत्थर की मूर्तियां बनाना तो जानते हैं लेकिन लकड़ी की मूर्ति बनाने का उन्हें ज्ञान नहीं.
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एक नए विघ्न के पैदा होने से राजा फिर चिंतित हो गए. उसी समय वहां एक बूढा आया. उसने राजा से कहा- इस मंदिर में आप भगवान श्री कृष्ण को उनके भाई बलभद्र तथा बहन सुभद्रा के साथ विराज मान करें. इस दैवयोग का यही संकेत है.
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राजा को उस बूढ़े व्यक्ति की बात से सांत्वना तो मिली लेकिन समस्या यह थी कि आखिर मूर्ति बने कैसे ? उस बूढ़े ने कहा कि मैं इस कला में कुशल हूं. मैं इस पवित्र कार्य को पूरा करूंगा और मूर्तियां बनाउंगा. पर मेरी एक शर्त है.
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राजा प्रसन्न हो गए और उनकी शर्त पूछी. बूढ़े शिल्पी ने कहा- मैं भगवान की मूर्ति निर्माण का काम एकांत में करूंगा. मैं यह काम बंद कमरे में करुंगा. कार्य पूरा करने के बाद मैं स्वयं दरवाजा खोल कर बाहर आऊंगा. इस बीच कोई मुझे नहीं बुलाए.
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राजा सहमत तो थे लेकिन उन्हें एक चिंता हुई और बोले- यदि कोई आपके पास नहीं आएगा तो ऐसी हालत में आपके खाने पीने की व्यवस्था कैसे होगी ? शिल्पी ने कहा- जब तक मेरा काम पूर्ण नहीं होता मैं कुछ खाता-पीता नहीं हूं.
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राज मंदिर के एक विशाल कक्ष में उस बूढ़े शिल्पी ने स्वयं को 21 दिनों के लिए बंद कर लिया और काम शुरू कर दिया. भीतर से आवाजें आती थीं. महारानी गुंडीचा देवी दरवाजे से कान लगाकर अक्सर छेनी-हथौड़े के चलने की आवाजें सुना करती थीं.
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महारानी रोज की तरह कमरे के दरवाजे से कान लगाए खड़ी थीं. 15 दिन बीते थे कि उन्हें कमरे से आवाज सुनायी पडनी बंद हो गई. जब मूर्ति कार के काम करने की कोई आवाज न मिली तो रानी चिंतित हो गईं.
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उन्हें लगा कि वृद्ध आदमी है, खाता-पीता भी नहीं कहीं उसके साथ कुछ अनिष्ट न हो गया हो. व्याकुल होकर रानी ने दरवाजे को धक्का देकर खोला और भीतर झांककर देखा.
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महारानी गुंडीचा देवी ने इस तरह मूर्तिकार को दिया हुआ वचन भंग कर दिया था. मूर्तिकार अभी मूर्तियां बना रहा था. परंतु रानी को देखते ही वह अदृश्य हो गए. मूर्ति निर्माण का कार्य अभी तक पूरा नहीं हुआ था. हाथ-पैर का निर्माण पूर्ण नहीं हुआ था.
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वृद्ध शिल्पकार के रूप में स्वयं देवताओं के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा आए थे. उनके अदृश्य होते ही मूर्तियां अधूरी ही रह गईं. इसी कारण आज भी यह मूर्तियां वैसी ही हैं. उन प्रतिमाओं को ही मंदिर में स्थापित कराया गया.
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कहते हैं विश्वावसु संभवतः उस जरा बहेलिए का वंशज था जिसने अंजाने में भगवान कृष्ण की ह्त्या कर दी थी. विश्वावसु शायद कृष्ण के पवित्र अवशेषों की पूजा करता था. ये अवशेष मूर्तियों में छिपाकर रखे गए थे.
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विद्यापति और ललिता के वंशज जिन्हें दैत्य्पति कहते हैं उनका परिवार ही यहां अब तक पूजा करता है.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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