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शुक्रवार, 7 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१२५/१२७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
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*अमिट पाप प्रचंड* 
*दादू काया कर्म लगाइ कर, तीर्थ धोवै आइ ।* 
*तीर्थ मांही कीजिए, सो कैसे कर जाइ ॥१२५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक प्राणी किये हुए पाप - कर्मो को धोने के लिये तीर्थों में आकर स्नान करते हैं, परन्तु यहाँ तीर्थ में भी फिर अनेक प्रकार के पाप - कर्म करने लगते हैं, वे किस प्रकार मिटेंगे ? ये तो बज्र - लेप पाप हैं । ये कहीं नहीं मिटेंगे । अथवा यह मनुष्य शरीर ही तीर्थ कहिए, तरने का स्थान है और इसी में भक्ति - ज्ञान के द्वारा जीव अपने पापों को मेटने में समर्थ है । परन्तु जो अज्ञानी, मनुष्य शरीर पाकर भी भगवान् से विमुख कर्म करते हैं, उनके उद्धार का कोई भी साधन फिर नहीं है । और जो सत्संग पाकर भी मन के विषय - विकारों को नहीं धोते हैं, उनका कल्याण होना असम्भव है ॥१२५॥ 
कर्म जिते गृह में लगे, देवद्वार नसि जाइ । 
जगन्नाथ तहाँ कीजिये, सो कैसे कर जाइ ॥ 
सुरघर अरु तीरथ विषै, सतसंगति गुरु साथ । 
उत्तम अस्थल अघ किये, अमिट पाप जगन्नाथ ॥ 
*जहँ तिरिये तहँ डूबिये, मन में मैला होइ ।* 
*जहँ छूटे तहँ बंधिये, कपट न सीझे कोइ ॥१२६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस मनुष्य शरीर में तिरने का कहिए, संसार से पार होने का परमेश्‍वर ने मौका दिया है, उसमें अब यह जीव, माया का मल अर्थात् अपना पाप रूपी मल दूर नहीं करता है, तो ऐसे अज्ञानी मन्दभागी जीव संसार के जन्म - मरण में ही गोते खाते रहते हैं, क्योंकि माया - मोह के बन्धन से छूटने का सत्संग रूप साधन प्राप्त करके भी जिनका विषय - वासना और तृष्णा रूप कपट दूर नहीं हुआ, उनको अब संसार से मुक्त होने का और कोई भी उपाय नहीं हैं ॥१२६॥ 
*सत्संग महिमा* 
*दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साध ।* 
*दादू साधू राम बिन, दूजा सब अपराध ॥१२७॥* 
इति साधु का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग १५॥ साखी १२७॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब प्रकरण का उपसंहार करके इस अंग का तात्पर्य कहते हैं कि हे संतों ! जब तक प्रारब्ध भोग के अनुसार प्राण और स्थूल शऱीर का संयोग बना रहे, तब तक पूर्ण रूप से वृत्ति को प्रभु के स्मरण और सत्संग में लगा कर रहिये । क्योंकि शेष, बाकी, सब व्यवहार पापरूप हैं, इसलिए त्यागने योग्य हैं । 
इति साधु का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥ अंग १५॥ साखी १२७॥
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(१२३/१२४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*बंध्या मुक्ता कर लिया, उरभ्या सुरझ समान ।*
*बैरी मिंता कर लिया, दादू उत्तम ज्ञान ॥१२३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मुक्त - पुरुष संसार के अन्दर बंधे हुए प्राणियों को अपने उपदेशों द्वारा मुक्त कर देते हैं । देहाध्यास में उलझे हुओं को देह - अध्यास रहित संत की तरह बना देते हैं । अन्तःकरण में शत्रु - भावना को बदलकर आत्म - उपदेश से सबके मित्र बना देते हैं । यह मुक्त पुरुषों का उत्तम ज्ञान है ॥१२३॥ 
*झूठा साचा कर लिया, काँचा कंचन सार ।* 
*मैला निर्मल कर लिया, दादू ज्ञान विचार ॥१२४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर से झूठे सांसारिक प्राणियों को मुक्त - पुरुषों ने राम - नाम का स्मरण कराकर परमेश्‍वर से सच्चे बना दिया । जो साधनों में कच्चे थे, उनको साधनों का उपदेश देकर कंचन के समान शुद्ध कर दिया । पापों से मैले थे, उनको राम - नाम स्मरण के उपदेश द्वारा निर्मल बना दिया । फिर वे उन्हीं संतों के विचार रूप ज्ञान को सम्पादन करने लगते हैं ॥१२४॥ 
हरिगीतिका ~ 
यह भक्त मीरा और अंगद, जहर अमृत कर लिया । 
प्रहलाद पावक नीर करके, सुमरिया अपना पिया ॥ 
पृथ्वीपति जु चंद गोपी, मिली जलधर सीझिया । 
नाथ गोरख लाल खोरी, कृष्ण कुब्जा को किया ॥ 
सिद्ध नागा नाथ तुलसी, मछंदर गोरख मिले । 
ऋषि नारद नृप विरही, चिमन वीसव जू मिले ॥ 
भक्त घाटम कनक पर्वत, नाथ गोरख ने किया । 
सकल साध सुधार आतम, दास हरि दरसन दिया ॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 6 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१२१/१२२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*विष का अमृत कर लिया, पावक का पाणी ।*
*बाँका सूधा करि लिया, सो साध बिनाणी ॥१२१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त - पुरुष संत, जिन्होंने विषयों से हटाकर अन्तःकरण को निर्मल आत्म - स्वरूप बना लिया है और माया, मोह, क्रोध, अग्नि से उदास होकर शान्ति सहित भक्ति में लीन रहते हैं । परमेश्‍वर से विमुख मन को भगवान् के सन्मुख करने वाले साधु परम विवेकी हैं और वे जिज्ञासुजनों को भी स्वस्वरूप प्राप्ति कराने में समर्थ हैं ॥१२१॥ 
*दादू ऊरा पूरा कर लिया, खारा मीठा होइ ।* 
*फूटा सारा कर लिया, साधु विवेकी सोइ ॥१२२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो नाम - स्मरण के बिना ऊरे(खाली) थे, उनको सच्चे मुक्त - पुरुष संतों ने अपनी समर्थता से उपदेशों द्वारा नाम - स्मरण कराके पूरे बना दिये । जो संसार - भावना में खारे थे अर्थात् विषयासक्त थे, उनको सत्संग द्वारा मीठे, सुखरूप बना लिये । संसार की ओर जिनके मन इन्द्रिय दौड़ते थे, उनको उपदेशों द्वारा ‘सारा’ कहिए, एकाग्र कर लिया । ऐसी विवेकी संतों की ही शक्ति है, अन्य की नहीं ॥१२२॥ 
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(११९/१२०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*दादू मम सिर मोटे भाग, साधों का दर्शन किया ।*
*कहा करै जम काल, राम रसायन भर पिया ॥११९॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल जी महाराज कहते हैं कि आज हमारा भारी पुण्य उदय हुआ है कि सच्चिदानन्द ब्रह्म मूर्ति रूप में प्रगट होकर हमें संत रूप से दर्शन दे रहे हैं । अब कालरूप यमराज हमारा क्या बिगाड़ सकता है ? हमने राम की भक्ति रूप अमृत रस को पूर्णतया हृदय में भरकर, स्मरण द्वारा साक्षात्कार रूप से पान कर रहे हैं ॥११९॥ 
आप नरैना गुहा में, संतन दियो दीदार । 
तब या साखी पद कह्यौ, रामकली मधि सार ॥ 
प्रसंग ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल जी महाराज नरैना गुफा में ईश्‍वर आराधना करते थे । एक रोज मध्य रात्रि में गुप्त - प्रकट ऋषि, मुनि, संत आदिक महाराज से ज्ञान - गोष्ठी करने के लिए आये । उस समय परम गुरुदेव ब्रह्मऋषि ने यह उपरोक्त साखी और राग रामकली के शब्द ~ 
“आज हमारे राम जी, साधु घर आये ॥टेक॥ 
मंगलाचार चहुँ दिसि भये, आनन्द बधाये ।” 
का गायन करके संतों का अभिनन्दन किया और फिर रात भर ज्ञान - गोष्ठी होती रही । प्रातःकाल शिष्यों ने पूछा कि गुरुदेव रात्रि को कौन पधारे थे ? ब्रह्मऋषि ने उपरोक्त साखी से शिष्यों को उत्तर दिया । 
*साधु समर्थता* 
*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।* 
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥१२०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे परोपकारी संतभक्त जीव के तन - मन को परमात्मा के सन्मुख करके चौरासी के दुःखों से बचाते हैं । संत ऐसे दयालु हैं कि भगवान् की स्वयं प्रेरणा से ही संत परोपकार रूप कार्य करते रहते हैं अर्थात् सांसारिक जीवों को मानव - व्यवहार और परमार्थ का मार्ग दर्शाते हैं ॥१२०॥
(क्रमशः)

बुधवार, 5 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(११७/११८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साधु कंवल हरि वासना, संत भ्रमर संग आइ ।*
*दादू परिमल ले चले, मिले राम को जाइ ॥११७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह संसार ही सरोवर है, इसमें ब्रह्मवेत्ता संतों का शरीर ही मानो कमल है और उसमें जीव ब्रह्म की एकता रूप ज्ञान ही सुगन्धि है । जैसे कमल की सुगन्धि सर्वत्र फैलती है, इसी प्रकार संतों की ज्ञान रूप महिमा सर्वत्र प्रकाश रही है । उत्तम जिज्ञासु ही भँवरा रूप हैं, वे संसार - दशा से उड़कर उनकी शरण में जाकर उस सुगन्धि का पान करते हैं, अर्थात् ज्ञान को सम्पादन करके स्वस्वरूप में अभेद हो जाते हैं ॥११७॥ 
*साधु सज्जन* 
*दादू सहजैं मेला होइगा, हम तुम हरि के दास ।* 
*अंतरगति तो मिलि रहे, पुनि प्रकट प्रकाश ॥११८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सतगुरु दादूदयाल जी महाराज कहते हैं कि हम और तुम परमेश्‍वर के भक्त हैं । परमेश्‍वर की कृपा से सहज में, कहिए स्वभाव से ही मिलाप होगा । अन्तःकरण में तो साक्षी - भाव से सब प्राणियों से मिले हुए ही हैं, किन्तु जब मुमुक्षु स्वस्वरूप में स्थित होते हैं, तब तो ब्रह्म प्रकाश स्वयं ही प्रकाशता है ॥११८॥ 
जगजीवन जी टहलड़ी, आंधी थे गुरुदेव । 
ताहि समय साखी कही, जगजीवन प्रति भेव ॥ 
प्रसंग ~ आंधी ग्राम में वैश्य पूरणचन्द जी और ताराचन्द जी, ब्रह्मऋषि दादूदयाल के शिष्य निवास करते थे । उनकी प्रार्थना को स्वीकार करके आंधी में ब्रह्मऋषि चातुर्मास पधारे । दौसा नगर टहलड़ी स्थान में ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज के शिष्य जगजीवनराम जी निवास करते थे । गुरुदेव के दर्शनों के लिये जगजीवनराम जी महाराज का मन बहुत इच्छा करने लगा । तब जगजीवनराम जी ने लिखा कि गुरुदेव ! आप के दर्शनों की भारी प्यास लग रही है, आपके दर्शन कब होंगे ? इसके उत्तर में ब्रह्मऋषि दादूदयाल जी महाराज ने उपरोक्त साखी जगजीवनराम जी को लिख भेजी । गुरुदेव के अमृतमय वचन विचार कर जगजीवन जी के मन में धैर्य आ गया । 
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(११५/११६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*दादू राम मिलन के कारणे, जे तूँ खरा उदास ।*
*साधु संगति शोध ले, राम उन्हीं के पास ॥११५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! राम से मिलने की इच्छा है तो, तुम ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति ढूंढ लो और फिर उनके सत्संग में एकाग्र रहो, वहाँ ही राम है । अर्थात् ऐसे संतों के पास राम प्रगट है ॥११५॥ 
उत्तम जन सौं मिलत ही, औगुण सौं गुण होय । 
घन संगि खारो उदधि को, बरसै मीठो तोय ॥ 
*पुरुष प्रकाशिक संत महिमा* 
*ब्रह्मा शंकर सेष मुनि, नारद ध्रुव शुकदेव ।* 
*सकल साधु दादू सही, जे लागे हरि सेव ॥११६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मा जी, शंकर जी, शेष जी, वशिष्ठ मुनि, देवर्षि नारद जी, ध्रुव जी, शुकदेव जी, ये जो - जो भगवान् की भक्ति में लगे हैं । यह कहते हैं कि हम सब ही साधुओं के सत्संग से इस पद को प्राप्त हुए हैं, जिनकी महिमा सर्वत्र कहिए पुराणों में, धर्म शास्त्रों में, लोक - लोकान्तरों में, आज भी विख्यात हैं । ऐसे पुरुषों के वचनों का विचार करके, सतसंगति करिये ॥११६॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 4 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(११३/११४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*भाव भक्ति का भंग कर, बटपारे मारहिं बाट ।*
*दादू द्वारा मुक्ति का, खोले जड़े कपाट ॥११३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वंचक, छली, असत्यमार्गी, परमेश्‍वर के भाव और भक्ति को त्यागकर बटपारे(डकैती करने वाले) पथिकों को लूटने वाले असुरों को देखकर मुक्ति का द्वार खुला हुआ भी बन्द हो जाता है । क्योंकि वंचक पुरुष भाव - भक्ति को मिटाकर विषय - वासना में भटकाते हैं और ब्रह्मवेत्ता संतों के सत्संग में आने वालों के लिये मोक्ष द्वार खुलता है और सम्पूर्ण कर्म - बन्धन कट जाते हैं ॥११३॥ 
साधु संगति होत ही, मुक्त मुक्ति के पाट । 
जगन्नाथ अति अगम सो, सुगम होत हरि बाट ॥ 
जसवन्त नृप दिया कढाइ, मरुधर से सब भेख । 
दास नारायण जी कही, थैली नाना पेख ॥ 
दृष्टान्त ~ जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह ने किसी पाखण्डी भेषधारी साधु के अपराध पर रुष्ट होकर मारवाड़ से सभी भेषधारी साधुओं को निकाल दिये । जो अच्छे संत थे, वे महाराज नारायनदास जी, जो दादूदयाल जी के पोता शिष्य थे, उनके पास जाकर बोले कि आपके शिष्य जसवंत सिंह राजा ने एक पाखण्डी की गलती पर सब साधुओं को निकाल दिया । महाराज बोले ~ “चिन्ता मत करो । राजा सब ठीक हो जाएगा ।” आप जोधपुर पधारो । राजा गुरु जी की अगवानी करने आया और महलों में ले जाकर ठहराया । नारायणदास जी महाराज बोले ~ “दो थैली रुपयों की चाहिए ।” राजा ने खजांची को हुक्म दिया कि दो थैली गुरु महाराज के पास ला दो । गुरु महाराज खजांची को बोले ~ दोनों थैलियों में एक - एक खोटा रुपया डाल लाना । दो थैली आ गई । सन्त राजा के सामने बोले ~ “इन रुपयों को परख लो । परखे तो दो रुपये खोटे निकले । महाराज ने कहा ~ “उठाओ, ले जाओ सभी खोटे हैं ।” राजा ~ “महाराज ! सभी तो खोटे नहीं है, दो खोटे हैं । दो और मंगवा लो ।” संत ~ “नहीं सब खोटे हैं ।” राजा ~ “महाराज ! मर्जी आपकी, खोटे तो सब नहीं है ।” संत बोले ~ “बाकी रुपया सब अच्छा है ?” राजा ~ “हाँ ।” “तुम्हारे नगर में अपराध तो एक पाखण्डी ने किया था, वह एक खोटा था । तुमने सारे साधुओं को मारवाड़ से कैसे निकाल दिया ? ’राजा ने नत - मस्तक होकर क्षमा - याचना चाही । महाराज बोले ~ “सब साधुओं की जमीन - जायदाद वापिस देओ और सबको बुलाकर बसाओ । साधु तो जनसमुदाय की सेवा करते हैं ।”राजा ने सब साधुओं को वापिस बुलाकर सबकी जायदाद लौटा दी । 
*सत्संग महिमा महात्म* 
*साधु संगति अंतर पड़े, तो भागेगा किस ठौर ।* 
*प्रेम भक्ति भावै नहीं, यहु मन का मत और ॥११४॥* 
टीका ~ हे मन ! तू सच्चे ब्रह्मनिष्ठ संतों की संगति से अलग रहकर किस जगह भाग कर जाएगा ? तुझे कहाँ शान्ति मिलेगी ? प्रभु की प्रेमाभक्ति तुझे अच्छी नहीं लगती है । हे मन ! तैने तो अपना और ही कुछ मत बना रखा है, उससे तो तेरा कल्याण नहीं होगा ॥११४॥ 
जो संतों की संगति से आत्मचिन्तन में अन्तराय पड़े, तो फिर और शान्ति का स्थान कहाँ है ? और शुभ संस्कारों की दुर्बलता से प्रभु प्रेमाभक्ति की वार्ता भी तुझे अच्छी नहीं लगती है । हे मन ! तू तो तेरी स्वेच्छा से वर्त रहा है, अर्थात् व्यवहार कर रहा है, इसी से सन्तुष्ट रहता है । यह मत अज्ञानी संसारी जनों का भी है । 
गुरु दादू की कथा में, आवत इक रजपूत । 
हुक्का की मन में रही, संतां कही सो सूत ॥ 
दृष्टान्त ~ आमेर में ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज बिराजते थे । आपके प्रवचन में ईश्‍वर प्रेमी, भक्त, संत कितने ही आकर सुना करते थे । एक रोज एक राजपूत ने भी सुना कि ब्रह्मऋषि गुरुदेव का यहाँ प्रवचन होता है । वह राजपूत हुक्का पिया करता था । हाथ में हुक्का पकड़े, नय लगाये पीता हुआ, जहाँ पर गुरुदेव के प्रवचन हो रहे थे, सामने आकर खड़ा हो गया और झांकने लगा । श्रोता लोग उसे देखकर सभी चकित हो गये । खड़ा - खड़ा गुड़ - गुड़ हुक्का पीने लगा । संतों ने कहा ~ “ठाकुर साहब ! विराजो । नमस्कार करके बैठो, सत्संग सुनो ।” राजपूत बोला ~ “मोड़े इकट्ठे होकर बैठे हैं, कोई आव नहीं, आदर नहीं, बैठने को मांचा नहीं, कुर्सी नहीं, कोई मुढा नहीं, कहाँ बैठें?” भिनभिनाहट करके राम का कपूत वापिस ही लौट गया । 
ब्रह्मऋषि कहते हैं कि “यहु मन का मत और ।” 
जन रज्जब गुरु सान पर, झूठी मन तलवार । 
तो तीखी कित कीजिये, रे मन सोच विचार ॥ 
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(१११/११२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*अज्ञान मूर्खः हितकारी, सज्जनो हि समो रिपुः ।* 
*ज्ञात्वा(परि) त्यजंति ते, निरामयी मनोजितः ॥१११॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी आत्मा से विमुख और मूर्ख, कहिए व्यवहार में शून्य है और अपना शुभ चिन्तक है, तो भी हे सज्जन ! शत्रु के समान ही है । इसलिए संतजन, अज्ञानी मित्र और सज्जन शत्रु को समान जानकर शुद्ध बुद्धि वाले पुरुष, इन का संग नहीं करते हैं ॥१११॥ 
पंडितो हि वरं शत्रुः, न मूर्खो हितकारकः । 
वानरेण हतो राजा, विप्रश्चौरेण रक्षितः ॥ 
दुश्मन की कृपा बुरी, भली सज्जन की त्रास । 
बादल कर गर्मी करै, जद वर्षन की आस ॥ 
इक नृप वानर को कियो, मन में अति विश्‍वास । 
चोर विप्र रक्षा करी, वानर कियो विनाश ॥ 
दृष्टान्त ~ एक बाजीगर ने बन्दर को पहरा देना सिखला रखा था । वह राजा के पास लाया और बोला ~ “यह वानर तलवार लेकर, रात भर चौकीदारी करता है ।” राजा ने उसकी कीमत मुँह मांगी उसे दिला दी और बन्दर को अपने महल में रात को अपने पलंग के पहरा देने को बांध दिया । एक रोज, एक पंडित ने विचार किया कि राजा के यहाँ चोरी करने चलें । यद्यपि वह पंडित था, परन्तु उसके हाथ में चोर रेखा पड़ी थी । इसलिये उसका मन चोरी करने को किया करता था । जब राजा के चोरी करने गया, तो खजाने पर पहुँचा । फिर वहाँ विचार किया कि सोने के चुराने में तो बहुत पाप है, चांदी के चुराने में भी बहुत पाप है । ऐसे देखते - देखते राजमहल में पहुँच गया । वहाँ देखा कि वानर हाथ में नंगी तलवार लिये राजा के पलंग के चारों तरफ घूम कर पहरा दे रहा है । ऊपर छत से एक काला सर्प राजा की गर्दन के ऊपर लटक रहा है । उसकी छाया राजा की गर्दन पर पड़ती थी । बन्दर तलवार लेकर ज्यों ही राजा की गर्दन पर मारना चाहे, तो सांप अपना फन ऊपर कर ले और छाया हट जाय । 
यह खेल ब्राह्मण ने देखा । ब्राह्मण ने सोचा कि मूर्ख बन्दर छाया को सांप समझकर राजा को मार बैठेगा, तो बड़ा अन्याय हो जाएगा । हो न हो, इस बन्दर को खत्म कर देना चाहिये । ब्राह्मण के पास भी तलवार थी । मौका पाकर बन्दर की गर्दन पर मारी कि दो टुकड़े हो गये । बन्दर की जरा सी पूँछ और कान का टुकड़ा काट कर जेब में रख लिया । ऊपर जो छत में सर्प था, उसको भी तलवार से मार कर ढाल में झेल लिया और राजा के पलंग के नीचे ढाल को उलटी करके ढक दिया । फिर वहाँ से चला । सोचा चोरी तो जरूर करनी चाहिए । सब चीजों में दोष देखता - देखता रसोई में पहुँचा । एक कोने में आटे का छानस पड़ा था । ब्राह्मण ने विचार किया कि पाप तो इसके चुराने में भी है । परन्तु चलो, यह तो ले ही चलें, गाय ही इसे खा लेगी । छानस की गठरी बांध कर सिर पर रख ली और घर ले आया । 
सवेरे राजा ने देखा कि बन्दर मरा पड़ा है । बन्दर को मारने वाले की तलाश करायी, परन्तु कुछ पता नहीं चला । ढाल उठाई तो, नीचे मरा हुआ काला सर्प भी देखने में आया । राजा ने विचार किया, ‘जिसने इस सर्प को मारा है, उसी ने इस बन्दर को मारा है ।’ डूंडी पिटवा दी कि जिसने बन्दर मारा है, वह आवे, उसको मुँह मांगा इनाम देंगे । बहुत से लोग इनाम के भूखे गये । राजा ने सबूत मांगी, तो कुछ नहीं । तब ब्राह्मण ने विचार किया, कि मैं भी चलूं । अपने सिर पर वह छानस की पोट रखकर दरबार में पहुँचा । राजा को नमस्कार किया और बोला ~ “मैंने बन्दर मारा है ।” राजा बोले ~ “सबूत क्या हैं ?” तो बन्दर के कान और पूंछ राजा के सामने डाल दिये । राजा देखकर चकित हो गये । राजा ने पूछा ~ “आपने बन्दर को क्यों मारा ?” उपरोक्त वृत्तान्त ब्राह्मण ने सारा सुना दिया । राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उपरोक्त श्‍लोक बोला । ब्राह्मण को मुंह - मांगी ईनाम दी और राजा जान गया कि मूर्ख द्वारा किया गया हित भी अहितकर है और विद्वान् द्वारा किया अहित भी हितकारक है । 
*कुसंगति केते गये, तिनका नांव न ठांव ।* 
*दादू ते क्यों उद्धरैं, साधु नहीं जिस गाँव ॥११२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कुसंग में पड़कर कितने ही अज्ञानी, मूर्ख संसारी जीव अधोगति में चले गये हैं । उन कुसंगियों का न तो कोई नाम लेवा है और न उनका ठांव स्थान व कोई उनका गाँव है । सब ही उज्जड़ हो गये । जिस गाँव में परमेश्‍वर के प्यारे संत नहीं हैं । उस गाँव का कैसे उद्धार हो सकता है ? सच्चे संतों के द्वारा ही जीव सन्मार्ग को अपना कर अपना कल्याण करते हैं । जिसके अन्तःकरण में संतों के शब्द नहीं हैं, उन जीवों का मनुष्य - जन्म निष्फल ही जाता है ॥११२॥ 
नारद कोप्यौ संत बिन, कोप कह्यो एक बैन । 
नगरी उबरी संत शऱण, बजर सिला से चैन ॥ 
दृष्टान्त ~ नारद जी त्रिलोकी में गमन करते रहते हैं । जिस गाँव में संत को नहीं देखें, तो उस गाँव को वे श्राप दे देते हैं । एक नगर में वह आये तो वहाँ इधर - उधर कहीं संत की कुटिया दिखाई नहीं पड़ी । तब क्रोध कर नारद जी बोले ~ इस गाँव पर इन्द्र का बज्र पड़ेगा । बज्र आकाश से चला, गड़बड़ाहट होता हुआ । उस गाँव की सीमा में एक संत की समाधि थी । वह संत तुरन्त बोले ~ “बज्र रुक जा ।” बज्र रुक गया । तब नारद जी ने देखा, “बज्र कैसे नहीं पड़ा ? कोई यहाँ संत है ।” नारद जी ने ध्यान धर कर देखा तो संत जमीन में समाधि लगाये बैठे हैं । समाधि खोलकर बोले ~ “नारद जी महाराज, कुछ जरा ऊपर - नीचे देखकर फिर बोला करो ।” नारद बोले ~ “महाराज ! जिस गाँव में संत दिखाई नहीं पड़ते, तभी मैं श्राप देता हूँ । आपके द्वारा इस गाँव की रक्षा हो गई ।” ब्रह्मऋषि कहते हैं, जिस गाँव में सन्त नहीं हैं, उनका उद्धार होना असम्भव है । 
पर उपकारी संत हो, ग्राम तज्यों कर छोहै । 
तीन तापपुर को भई, पुनि लाये कर मोहै ॥ 
दृष्टान्त ~ एक नगर में एक परोपकारी महात्मा रहते थे । नगरवासियों से याचना करके आये - गये, भूखे - प्यासे, दुखियों की सेवा - सत्कार किया करते । कुछ गाँव के लोग ईश्‍वर - विमुखी कहने लगे कि तुम गाँव से चले जाओ । गाँव को लूट - लूट कर दुनियां को खिलाते हो । महात्मा चले गये । गाँव के ऊपर तीन ताप, अध्यात्म, अधिभौतिक, अधिदैव आकर पड़ी । गाँव के सब लोग घबरा उठे । विचारशील लोगों ने कहा कि सुख चाहते हो तो, उन्हीं महात्मा को वापिस लाकर बसाओ । वह परोपकारी जनसमुदाय की सेवा करने वाले ईश्‍वर रूप हैं । जब गाँव के लोगों ने उनके पास जाकर अपना अपराध क्षमा चाहा और लाकर गाँव में बसाया, तो तीनों ताप शान्त हो गये । 
(क्रमशः)

सोमवार, 3 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१०८/११०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*कुसंगति*
*गंगा यमुना सरस्वती, मिलैं जब सागर मांहि ।* 
*खारा पानी ह्वै गया, दादू मीठा नांहि ॥१०८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे गंगा - यमुना का जल मीठा है, परन्तु खार समुद्र का संगम होते ही उनका जल खारा हो जाता है । इसी प्रकार सच्चे साधुजनों का अति निर्मल अन्तःकरण भी कुसंगति से, मीठी कहिए, स्वस्वरूप ब्रह्म को विसार कर विकारी हो जाता है । इसलिए उत्तम पुरुषों को सदैव ब्रह्मवेत्ता संतों की संगति में ही रहना चाहिए । अथवा इडा, पिंगला, सुषुम्ना तीनों स्वर, गंगा, यमुना, सरस्वती के समान हैं । ये तीनों स्वर संतों के सफल हैं, क्योंकि प्राणायाम और श्‍वास पर श्‍वास, ‘सोऽहं’ जाप से सार्थक हैं । परन्तु संसारी जनों के तीनों स्वर, कुसंग से ‘खारा’ कहिए, संसार - बंधन के ही कारण हैं ॥१०८॥ 
‘कबीर’ खाई कोट की, पाणी पीवै न कोइ । 
जाइ मिलै जब गंग में, सब गंगोदक होइ ॥ 
*दादू राम न छाड़िये, गहिला तज संसार ।* 
*साधु संगति शोध ले, कुसंगति संग निवार ॥१०९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! हे बावले ! हे भोले प्राणी ! इस संसार मोह को तज और राम का भजन कर । क्योंकि इस संसार प्रेम में, राम का स्मरण नहीं छोड़ना । इसको त्यागने का क्या साधन है ? सो कहते हैं कि साधु संगति प्राप्त कर ले और कुसंगति को त्याग दे ॥१०९॥ 
त्यज दुर्जन - संसर्गं, भज साधु - समागमम् । 
कुरु पुण्यमहोरात्रं, स्मर नित्यमनित्यताम् ॥ 
निष्कामी सेवक कही, सुख दुख सुनियो नांहि । 
मोड़े घोड़ी के कनैं, धोती दई सुखाहि ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संत घूमते - घूमते एक गाँव में, एक भक्त के यहाँ गये और बोले ~ भक्त ! अबके चातुर्मास तेरे यहाँ ही ठहरेंगे । भक्त निष्कामी सच्चा परमेश्‍वर का सेवक था । वह बोला ~ ‘महाराज ! और किसी भक्त के यहाँ ठहर जाओ । संत बोले ~ नहीं, तुम्हारे ही ठहरेंगे । भक्त बोला ~ “हम गृहस्थी हैं । हमारे सुख - दुःख आते ही रहते हैं, आप हमारे सुख - दुःख में शामिल नहीं होवें, तो ठहरो” । संत ~ “भाई ! हम नहीं होंगे ।” 
सत्संग होता रहा । संत, भजन पाठ करते और सत्संग करते रहे । एक रोज भक्त की घोड़ी चोर चुरा कर ले गये । घर में विचार करने लगे कि हजार रुपये की घोड़ी चोर ले गये आज । संत के भी कानों में यह आवाज आ गई । मन में संत ने यह विचार किया कि घोड़ी तो आ जानी चाहिये, जहाँ भी हो वहाँ से । संत जंगल में घूमने गये । घोड़ी जो चोर ले गये थे, उन चोरों का लड़का घोड़ी की रस्सी पकड़ कर पानी पिलाने ले जा रहा था । घोड़ी उससे छुड़ाकर दौड़ी हुई आ रही थी । 
संत को देखकर घोड़ी हिनहिनाने लग गई । संत ने घोड़ी को तालाब पर लाकर छोड़ दी और स्नान करके अपनी धोती बड़ की डाली पर सुखा कर घर आ गये । विचार किया मन में, कि धोती लेने भक्त को तालाब भेजूँ, तब घोड़ी देख लेगा, तो पकड़ कर ले आवेगा । तब भक्त को बुलाकर बोले ~ “भाई ! हमारी धोती तालाब के किनारे सूख रही है, आप ले आओ ।” तुरन्त गया । धोती उठाई और वहाँ चरती हुई घोड़ी को पकड़ कर ले आया । 
घोड़ी को ठिकाने बांधकर भक्त संत से बोला ~ “महाराज ! अब आधा चौमासा किसी ओर भक्त के यहाँ कर लेना ।” “क्यों भाई ?” भक्त ~ “आपकी मेरी क्या बात हुई थी ?” संत ~ “सुख - दुःख में शामिल नहीं होना ।” भक्त ~ “तो फिर आप कैसे शामिल हो गये ?” महात्मा ~ “हम कहाँ हुए ?” भक्त ~ “घोड़ी कौन लाया ? आप ही तो लाये ।” महात्मा ~ भाई ! हम घोड़ी लेने थोड़े ही गये थे । भक्त ~ “आपके मन में संकल्प - विकल्प हुए कि नहीं ?” महात्मा ~ “जरूर हुए ।” भक्त ~ “इसी लिए तो घोड़ी आ गई । महाराज ! मैं कोई कामना रखकर, आपकी और परमेश्‍वर की सेवा नहीं करता हूँ । मेरे अन्दर किसी प्रकार की वासना उत्पन्न नहीं करता ।” संत ~ धन्य ! धन्य ! तुम्हारी सेवा को । तुम ही सच्चे सेवक हो । 
ब्रह्मऋषि कहते हैं कि राम के भजन में कोई कामना नहीं करना । 
*दादू कुसंगति सब परिहरै, मात पिता कुल कोइ ।* 
*सजन स्नेही बांधवा, भावै आपा होइ ॥११०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कुसंगति सब प्रकार से कहिए तन से, मन से, वचन से त्यागिये । चाहे माता हो कुसंग में, चाहे पिता हो, चाहे कुल बांधव हों, चाहे सज्जन हों, स्नेही हों, चाहें भाई हों, भावे अपना शरीर भी कुसंग में पड़ गया हो, तो भी उसके कुसंग को सब प्रकार से त्यागना चाहिये । अर्थात् अपने अन्तःकरण के गुण - विकार, सम्पूर्ण दोषों का भी त्याग करना चाहिए । तब ही यह जीव श्रेय को प्राप्त कर सकता है ॥११०॥ 
तजो रे मन ! हरि - विमुखन को संग । 
तजिए ताहि कोटि वैरी सम, करत भजन में भंग ॥ 
“जाके प्रिय न राम - वैदेही । 
तजिये ताहि कोटि वैरी सम, जदपि परम सनेही ॥” 
(दुःसंगः सर्वथा त्याज्यः ।) - तुलसी 
भरत मात को तज दई, पिता तज्यो प्रहलाद । 
गोप्यां पति, नुज लंकपति, अज आयो तज साध ॥ 
दृष्टान्त ~ भरत जी ने अपनी माता कैकयी का त्याग किया । प्रहलाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप का त्याग किया । गोपियों ने अपने पतियों को कुमार्गी जानकर भगवान कृष्ण की शरण में आ गई । विभीषण अपने भाई रावण का त्याग करके राम की शरण में आया । ऐसे ही संत, अपने बहिरंग और अन्तरंग इन्द्रियादि परिवार का त्याग कर आत्म - परायण होते हैं । 
श्रवण नारी परिहरी, कुब्जा तज कंसा । 
मन्दोदरी रावण तज्या, मेट्या हरि शंसा ॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 2 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१०५/१०७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*सब ही मृतक देखिये, क्यों कर जीवैं सोइ ।*
*दादू साधु प्रेम रस, आणि पिलावे कोइ ॥१०५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्व ही संसारीजन जन्म - मरण के मार्ग में हैं । ये बहिर्मुख अज्ञानी इस प्रकार कैसे जीवेंगे ? कोई परोपकारी मुक्त - पुरुष, निष्कामी संत दया करके अपने उपदेशों द्वारा राम का भक्ति - वैराग्य रूपी अमृत पिलावें, तो ही जी सकते हैं ॥१०५॥ 
*सब ही मृतक देखिये, किहिं विधि जीवैं जीव ।* 
*साधु सुधारस आणि करि, दादू बरसे पीव ॥१०६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक प्राणी, अधिकतर विषय आसक्त होने से मृतक तुल्य हैं । यह बहिर्मुख जीव किस प्रकार जीवन - भाव को प्राप्त होवे ? यदि ईश्‍वर की कृपा हो और ब्रह्मवेत्ता सच्चे संतों की कृपा होवे, तब तो यह जीव संजीवन भाव को प्राप्त हो सकता है, अन्यथा नहीं । परन्तु संत - कृपा तभी होती है, जब यह जीव उनकी शरण में जाय, तब वह आत्म - उपदेश द्वारा, ब्रह्म ज्ञानामृत पिलाते हैं ॥१०६॥ 
*हरि जल बरसै बाहिरा, सूखे काया खेत ।* 
*दादू हरिया होइगा, सींचणहार सुचेत ॥१०७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो पुरुष बहिर्मुखी है अर्थात् बहिरंग निषिद्ध कर्मों में आसक्त हैं, तो आत्म - उपदेश भी उसको निष्फल है और सकाम तप, व्रत, बहिरंग साधनों से शरीर कृश होता है । परन्तु जो साधक निष्काम कर्म करने वाला ईश्‍वर वाक्य और गुरु वाक्य में सावधान होकर, अन्तःकरण में शम - दम और वेदान्त श्रवण - मनन के द्वारा, ब्रह्म भाव को प्राप्त होते हैं, उनका काया रूपी खेत, दैवी सम्पत्ति से, सदैव हरा - भरा रहता है ॥१०७॥
(क्रमशः)

शनिवार, 1 जून 2013

= साधु का अंग १५ =(१०१/१०२)


॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= साधु का अंग १५ =* 
*चौंप चरचा* 
*दादू श्रोता स्नेही राम का, सो मुझ मिलवहु आणि ।* 
*तिस आगे हरि गुण कथूं, सुणत न करई काणि ॥१०२॥* 
टीका ~ स्वयं को उपलक्षण करके ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज परमेश्‍वर कहते हैं कि “हे परमेश्‍वर ! हमें कोई जिज्ञासु मिले तो, आपका ही अनन्य भक्त मिले क्योंकि उसको आपके ज्ञान - ध्यान की वार्ता कहें तो सुनने में आलस्य और संसार की लज्जा नहीं करे । सत्य उपदेश का मनन व निदिध्यास रहे ॥१०२॥ 
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*साधु परमार्थी*
*दादू सब ही मृतक समान हैं, जीया तब ही जाण ।*
*दादू छांटा अमी का, को साधु बाहे आण ॥१०३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्व ही अज्ञानी संसारीजन स्वस्वरूप के तरफ से मरे हुए हैं अर्थात् विषयों में सकाम कर्मों में आसक्त हो रहे हैं । सौभाग्य से यदि ब्रह्मवेत्ता संत आत्म - उपदेश रूपी अमृत बरसावें तो जीव स्वस्वरूप में प्रवृत्त होकर सजीवन भाव को प्राप्त होते हैं ॥१०३॥
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*सबही मृतक ह्वै रहे, जीवैं कौन उपाइ ।*
*दादू अमृत रामरस, को साधू सींचे आइ ॥१०४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्व ही सांसारिक अज्ञानी प्राणी विषयासक्त, मृतक तुल्य हैं । उनके जीने का कोई भी उपाय नहीं है । केवल ब्रह्मवेत्ता संतों के आत्म - उपदेश ही उनके एक जीने का उपाय है । यदि वे मुक्त - पुरुषों की शरण में जावें, तब ही उनका कल्याण हो सकता है ॥१०४॥ 
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(९९/१००)


॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= साधु का अंग १५ =* 
*दादू सब जग फटिक पाषाण है, साधु सैंधव होइ ।* 
*सैंधव एकै ह्वै रह्या, पानी पत्थर दोइ ॥९९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण जगत् के अज्ञानी, विषयी, पामर, सकामी पुरुष, विलौरी पत्थर के समान आपा अहंकार सहित हैं, और तत्त्ववेत्ता मुक्त - पुरुष, अनात्म, आपा अहंकार से रहित हैं सैंधव नमक के समान । वे परमात्मा का स्मरण करते - करते परमात्मा रूप हो जाते हैं । और उपरोक्त अज्ञानी, भेदवादी संसारीजन पानी - पत्थर की तरह परमात्मा से अलग ही जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमते रहते हैं ॥९९॥ 
*साधु परमार्थी* 
*को साधु जन उस देश का, आया इहि संसार ।* 
*दादू उसको पूछिये, प्रीतम के समाचार ॥१००॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्म - देश से कोई मुक्त - पुरुष ब्रह्मवेत्ता, इस संसार में जीवों के कल्याण अर्थ आये हैं, उनको प्रीतम प्यारे परमेश्‍वर से मिलने के साधन रूप समाचार पूछिये । वे मुक्त - पुरुष, उत्तम साधकों को आत्म - उपदेश देकर परमात्मा के सन्मुख करेंगे ॥१००॥
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*दादू दत्त दरबार का, को साधु बांटै आइ ।*
*तहाँ राम रस पाइये, जहँ साधु तहँ जाइ ॥१०१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमात्मा के दरबार का ज्ञान - ध्यान - आत्म - उपदेश रूपी धन, कोई ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही जीवों का कल्याण करने को इस संसार में आकर बांटते हैं अर्थात् आत्म - उपदेश करते हैं । उत्तम जिज्ञासु उनकी शरण में जाकर आत्म उपदेश का सम्पादन करते हैं ॥१०१॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 31 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(९६/९८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*दादू अवगुण छाड़ै गुण गहै, सोई शिरोमणि साध ।*
*गुण औगुण तैं रहित है, सो निज ब्रह्म अगाध ॥९६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत, सांसारिक अज्ञानी जीवों अवगुण दुर्गुणों का त्याग करते हैं और उनके गुणों को सारग्राही दृष्टि से लेते हैं, ऐसे संत ही मानव - समाज में सबके शिरोमणि आदर्शनीय हैं । गुण और अवगुण दोनों से मुक्त हो गये,वे तो ब्रह्म की ही मूर्ति हैं ॥९६॥ 
सारग्राही पक्ष में, जो पुरुष, काम - क्रोध आदिक अवगुणों का त्याग कर, निर्विषय होकर, सत्य, संतोष, श्रद्धा आदि सद्गुणों को धारें, वेही शिरोमणि साधु हैं और जो भाग्यशाली गुणातीत स्वस्वरूप में मग्न रहते हैं, वे तो ब्रह्म ही हैं, उनकी तो अपार महिमा है ।
इक अवगुण इक गुण गहै, उभै भाव संसार । 
बहुछिद्री(चलनी) अरु सूप ज्यूं, ‘जगन्नाथ’ त्यौहार ॥ 
रोम रोम चक्षु गुणन को, औगुण लोचन अंध । 
स्वाति बूंद से काम है, पर्यौ रहो जल सिंध ॥ 
गुण ग्राही एक नृप हो, औगुण लेतो नांहि । 
मरे स्वान को देखकर, दांत सराये ताहि ॥ 
दृष्टान्त ~ एक राजा थे । वह संतों की सेवा और सत्संग किया करते थे । एक संत बोले ~ राजन् ! तुम सब जीवों में से गुण ले लिया करो, उसके औगुण उसमें ही छोड़ दिया करो । फिर राजा सबमें से गुण ही लेता, कोई दोष होता तो वह उसी में छोड़ देता । एक रोज मंत्री राजा की परीक्षा करने को नगर के बाहर, जिधर एक कुत्ता मरा सड़ रहा था, राजा को उधर से ले गया । 
मंत्री ने कुत्ते की दुर्गन्धि से अपना नाक बन्द कर लिया और बोला ~ राजन् ! इसने पहले जन्म में न मालूम, कौनसे कुकर्म किये थे, जिससे कुत्ता बना और फिर कुत्ता बनकर भी इसने सबको तकलीफ ही पहुँचाई, और अब मरकर भी सबको दुर्गन्धि से दुःख ही देता है । राजा बोले ~ मंत्री ! यद्यपि यह सत्य है, तथापि इसके दांत देखो, मरे हुए के भी कैसे सुन्दर दिखते हैं । मंत्री राजा के चरणों में नत - मस्तक हो गया । राजा बोले ~ मंत्री ! संसार गुण अवगुण से भरा हुआ है । सारग्राही पुरुष इसमें गुण ही लेते हैं । 
*जग जन विपरीत* 
*दादू सैन्धव फटिक पाषाण का, ऊपर एकै रंग ।* 
*पानी मांहैं देखिये, न्यारा न्यारा अंग ॥९७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे भक्त - संत, सैंधव नमक के समान आपा रहित होते हैं । जैसे सैंधव पानी में एक रूप हो जाता है, वैसे ही निष्कामी भक्त भी परमेश्‍वर का नाम - स्मरण करते - करते परमेश्‍वर रूप हो जाते हैं । और बिलौरी पत्थर सैंधव के समान चमकीला है, परन्तु जल में पड़ा हुआ भी कभी जलरूप नहीं होता है । ऐसे ही अज्ञानी संसारीजन ऊपर से तो सज्जन दिखलाई पड़ते हैं, परन्तु नाना प्रकार के आपा अहंकार से युक्त रहते हैं । वे सत्संग रूपी जल में चाहे कितने ही रहें, परन्तु परमेश्‍वर के साथ वे एक रूप नहीं होते, जन्म - मरण में ही जाते हैं ॥९७॥ 
*दादू सैंधव के आपा नहीं, नीर खीर परसंग ।* 
*आपा फटिक पाषाण के, मिलै न जल के संग ॥९८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सैंधव आपा रहित है और जल भी आपा रहित है । दूध में जल गिरते ही दूध अपना रूप उसे दे देता है, ऐसे ही सैंधव जल रूप हो जाता है । परन्तु चमकीला पत्थर आपा सहित कठोर है । वह जल के साथ अभेद नहीं होता । इसी प्रकार सच्चे संत अनात्म, आपा रहित, परमेश्‍वर में अभेद हो जाते हैं और अज्ञानी संसारीजन आपा सहित राम - राम करते हुए भी जन्म - मरण में जाते हैं ॥९८॥ 
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(९३/९५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साहिब का उनहार सब, सेवक मांही होइ ।*
*दादू सेवक साधु को, दूजा नांही कोइ ॥९३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत राम के सेवक, मुक्त - पुरुष, निर्गुण, निर्विकल्प स्वरूप और शील कहिए ब्रह्मचर्य, जरणा, कोमलता, सरलता आदि स्वभाव, ये परमेश्‍वर के गुण मुक्त - पुरुषों में स्वभाव से ही प्रकट रहते हैं । ऐसे सेवक - स्वामी, परमेश्‍वर रूप होकर, फिर वे परमेश्‍वर की ही महिमा गाते हैं । ऐसी स्थिति में सेवक स्वामी में कोई भेदभाव नहीं रहता है ॥९३॥
मारवाड़ में कोई नृप, बांट्यो सब को धान । 
तासूं इक चारण कही, नर नारी सुत जान ॥
दृष्टान्त ~ मारवाड़ में एक राजा ने नगर में सभी गरीबों को धान खाने के लिये बँटवाया । एक चारण कवि धान लेने नहीं आये । तब राजा राजकुमार को बोले ~ एक बैलगाड़ी धान की भरके उनके घर तुम डाल आओ । राजकुमार ने धान की बैलगाड़ी भरकर चारण के घर डाल दी और बोले ~ ‘‘धान पिता जी ने दिया है और बैलगाड़ी मैं अपनी तरफ से दान करता हूँ, तब बारैठ जी बोले ~ 
पंगा जतेहि पाण, पुण्य पाणी पहलै पीवै । 
पंगु जतेहि पाण, पीयो चाहै मालवणी ॥
बेटो बाप तणा हि, चीलां जे चालै नहीं । 
जननी ताही जणाहि, बुरी कहावै बैरीसल ॥
धन्य हो ! जो धर्मनिष्ठ बाप और मां, उनकी रहणी - सहणी पुत्र में होवे, वही पुत्र धन्य है । और जो बाप के आचरण रूपी लीक पर पुत्र नहीं चले तो बैरीसल जी कहते हैं कि उसकी जननी कहिये, माता जन्म देकर बुरी कहलाती है ।
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*दादू जब लग नैन न देखिये, साध कहैं ते अंग ।*
*तब लग क्यों कर मानिये, साहिब का प्रसंग ॥९४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब तक अपने अन्तःकरण में मुक्त - पुरुष के ब्रह्म - प्राप्ति के साधन जो विवेक, वैराग्य आदि बतलाते हैं, वे तुम अपने विचार रूपी नेत्रों से नहीं देख लो, तब तक परमात्मा का अपने आपको साक्षात्कार हुआ है, यह नहीं मानना ॥९४॥
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*दादू सोइ जन साधु सिद्ध सो, सोइ सकल सिरमौर ।*
*जिहिं के हिरदै हरि बसै, दूजा नाहीं और ॥९५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सोई तो भक्त है, सोई साधु है और वही सिद्ध और सत्यवादी है, वही सच्चा शूरवीर है, जिसने मन इन्द्रियों को निग्रह करके अन्तःकरण में परमेश्‍वर की लय लगाई है और उसमें फिर किंचित् भी द्वैत - भाव नहीं आता । ऐसे संत सर्व - शिरोमणि हैं ॥९५॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 30 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(९०/९२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साधु शब्द सुख वर्षहि, शीतल होइ शरीर ।*
*दादू अन्तर आत्मा, पीवे हरि जल नीर ॥९०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मुक्त ब्रह्मवेत्ता संतों की वाणी द्वारा आत्मा आनन्द की वृष्टि होती है तथा सच्चे और शुद्ध व्यवहार की भी वृष्टि होती है । और फिर जिज्ञासुओं की बुद्धि व्यवहार में दक्ष होकर आत्म - परायण कहिए निष्काम स्मरण करके ब्रह्मानन्द में मग्न रहती है ॥९०॥ 
*साधु लक्षण* 
*साधु सदा संयम रहै, मैला कदे न होइ ।* 
*दादू पंक परसै नहीं, कर्म न लागै कोइ ॥९१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! राम के सच्चे भक्त - संत सदैव निर्वासनिक होते हैं । उनको पाप रूपी कीचड़ स्पर्श नहीं करता है और कर्मों के बन्धन से भी वे मुक्त रहते हैं, क्योंकि निष्काम राम का स्मरण करके वे फिर रामरूप हो गये हैं ॥९१॥ 
*साध सदा संयम रहै, मैला कदे न होइ ।* 
*शून्य सरोवर हंसला, दादू विरला कोइ ॥९२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह सच्चे संत मुक्त पुरुष, निर्विकल्प ब्रह्मानन्द रूप सरोवर के हंस, इस संसार में कोई बिरले ही होते हैं । उनका दर्शन और सत्संग, जीवों को भाग्य से ही प्राप्त होता है ॥९२॥ 
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(८७/८९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साधु पारख लक्षण* 
*गरथ न बांधै गांठड़ी, नहीं नारी सौं नेह ।* 
*मन इंद्री सुस्थिर करै, छाड़ सकल गुण देह ॥८७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! धन को ऐसे संचित न करे, जो न खावे और न खाने दे, और जमा करता रहे । नारी से नारीभाव करके प्रीति नहीं करे और अपने मन इन्द्रियों को अपनी आत्मा में स्थिर करके शरीर के सम्पूर्ण गुण विकारों का त्याग करे, वही उत्तम पुरुष है ॥८७॥ 
गल में पहरै गूदड़ी, गांठि न बांधै दाम । 
शेख भावदी, यों कहै, तिसको करूँ सलाम ॥ 
*निराकार सौं मिल रहै, अखंड भक्ति कर लेह ।* 
*दादू क्यों कर पाइये, उन चरणों की खेह ॥८८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो मुक्त - पुरुष निराकार की अखंड उपासना में मग्न रहते हैं, ऐसे संतों के चरणों की रज भाग्य से ही प्राप्त होती है और उनकी वाणी तथा क्रिया की दृष्टि, रहन - सहन आदि मुमुक्षुओं को परम सौभाग्य से ही प्राप्त होवे हैं, तब वह जीव व्यवहार में दक्ष होता है ॥८८॥ 
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शिनम् । 
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूर्तस्तस्यांध्रिरेणुभिः ॥ 
सन्त एक ने हठ किया, प्रति दिन गंगा न्हाय । 
अथवा कालिन्दी न्हान करै, उसी के भोजन पाय ॥ 
गंगा आदिक तीर्थ भी, संतन के ढिग जाय । 
सन्त कुटी के सामने, लेट गई दो गाय ॥ 
दृष्टान्त ~ एक वैरागी सन्त ने हठ किया कि वह उसी सन्त भक्त के यहाँ भोजन करेंगे, जो नित्य गंगा या यमुना स्नान करता हो । सन्त का यह व्रत निरन्तर तीन वर्ष तक निभता रहा । एक दिन वह वैरागी सन्त घूमते हुए गंगा - तट से कुछ दूर स्थित एक आश्रम में पहुँचे । आश्रमवासी सन्त ने उनका आदर सत्कार किया और भोजन करने का आग्रह किया, जिसे वैरागी सन्त ने यह विचार कर स्वीकार कर लिया कि गंगा के पास में आश्रम होने से यहाँ के सन्त तो प्रतिदिन ही गंगा - स्नान करते होगें । भोजन से निवृत्त होने के बाद उन्होंने आश्रमवासी सन्त से पूछ ही लिया कि आप तो कम से कम एक बार तो गंगा - स्नान कर ही लेते होंगे ? 
आश्रमवासी सन्त ने कहा - “हम तो कभी गंगा - स्नान करने नहीं जाते । हम तो राम - नाम की गंगा में स्नान करते है ।” यह सुनते ही वैरागी साधु का मन खिन्न हो उठा । रात को नींद नहीं आयी । अर्ध रात्रि पश्‍चात् उन्होंने काली और पीली रंग की दो गायों को आश्रम के द्वार पर मिट्टी में लौट कर स्नान करते देखा । उसके बाद इन दोनों का श्‍वेत - धवल रंग हो गया । वे दोनों आश्रम को शीश नमाकर चली गईं । प्रातःकाल सन्त ने बताया कि काली रंग की यमुना और पीली रंग की गंगा गौ रूप में संतों की चरण रज का स्पर्श करने आयी थी । सन्त - रज का स्पर्श पाकर वे निर्मल हो गई थीं । ऐसा है राम - नाम का प्रभाव । 
*समाचार सत पीव का, कोइ साधु कहेगा आइ ।* 
*दादू शीतल आत्मा, सुख में रहे समाइ ॥८९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर प्राप्ति के सत्य समाचार अर्थात् साधन, आत्म उपदेश, कोई बिरले संत ही कहते हैं । उनके श्रवण से अन्तःकरण, निदिध्यास द्वारा, आत्मा आनन्द रूप सुख में ही लीन रहता है ॥८९॥
(क्रमशः)

बुधवार, 29 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(८४/८६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*जिहिं घट प्रकट राम है, सो घट तज्या न जाइ ।* 
*नैनहुँ मांही राखिये, दादू आप नशाइ ॥८४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन सच्चे संत भक्तों के हृदय में निर्गुण ब्रह्म आत्म - स्वरूप से प्रकट हो रहे हैं, उनको अपने नेत्रों में धारण करिये । उनकी शऱण नहीं त्यागिये और अपने आपा कहिए, अनात्म - अहंकार का त्याग करके, उन संतों की दया से जो ब्रह्मस्वरूप साक्षात्कार होवे, उस आनन्द को अन्तःकरण में राखिये, जरणा करिए, अहंकार भाव से प्रकट नहीं करना ॥८४॥
साहिब को देखै सदा, प्रगट घट घट माहिं । 
ताको कैसे त्यागिये, सो ही है सब माहिं ॥
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*जिहिं घट दीपक राम का, तिहिं घट तिमिर न होइ ।*
*उस उजियारे ज्योति के, सब जग देखै सोइ ॥८५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन सच्चे मुक्त पुरुषों के हृदय में, निर्गुण राम रूप दीपक, आत्म - स्वरूप से प्रगट है, उनके अन्तःकरण में तमोगुण का लेशमात्र भी विकार नहीं रहता है । ज्ञानरूप ज्योति के उजियारे में, वे सब जगत को ब्रह्ममय देखते हैं ॥८५॥
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*साधु अबिहड़*
*कबहुँ न बिहड़ै सो भला, साधु दिढ मति होइ ।*
*दादू हीरा एक रस, बॉंध गॉंठड़ी सोइ ॥८६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो मुक्त पुरुष अपनी वृत्ति को, आत्म - स्वरूप से फिर अनात्माकार न होने दे, वह साधक दृढ़मति है । हीरा रूपी ब्रह्म अभ्यास को एक रस कहिए, धारण करके रहे, अर्थात् ऐसे साधक ही जीवन - मुक्त कहे जाते हैं ॥८६॥
सन्त रखै उर में सदा, एक ब्रह्म मणि नूर । 
जिज्ञासु राखै सदा, गुरु उर हिरदै पूर ॥
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(८१/८३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*घर वन मांहीं राखिये, दीपक जलता होइ ।*
*दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं सब कोइ ॥८१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उपरोक्त अर्थ को ही पुनः दिखलाते हैं कि ब्रह्मवेत्ता मुक्त - पुरुष, चाहे घर में हों या वन में, उनकी ब्रह्मज्ञान रूप ज्योति में, पांचों ज्ञान इन्द्रियॉं, मन और प्राण, ये सभी ब्रह्म - चिन्तन करते - करते ब्रह्मरूप हो जाते हैं ॥८१॥
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*घर वन मांहीं राखिये, दीपक प्रकट प्रकाश ।*
*दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं उस पास ॥८२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त पुरुषों को, चाहे घर में रखो या वन में, परन्तु उनमें ब्रह्मज्ञान रूपी दीपक प्रकाशता है । उत्तम संत, जहॉं भी कहीं होते हैं, साधक उनकी शरण में आकर उनके ज्ञान को सम्पादन करके उनके स्वरूप ही बन जाते हैं, अर्थात् ब्रह्मरूप ही हो जाते हैं ॥८२॥
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*घर वन मांही राखिये, दीपक ज्योति सहेत ।*
*दादू प्राण पतंग सब, आइ मिलैं उस हेत ॥८३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे निष्पक्ष ब्रह्मवेत्ता संत, जिनका शरीर घर में रहे या वन में, परन्तु ब्रह्म - ज्योति सहित होवे, तो उत्तम साधक जहॉं भी कहीं होंगे, वे वहॉं से मुक्त होने की वासना लेकर, वहीं उनकी शरण में आकर, ज्ञान - सम्पादन करके ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जायेंगे ॥८३॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 28 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(७८/८०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*जग जन विपरीत*
*दादू आनंद सदा अडोल सौं, राम सनेही साध ।* 
*प्रेमी प्रीतम को मिले, यहु सुख अगम अगाध ॥७८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे मुक्त ब्रह्मवेत्ता संतजन काल - कर्म - गुण - विकार से रहित, अचल उस एक परमेश्‍वर में लय लगाकर, ब्रह्मानन्द में निरन्तर मग्न रहते हैं, क्योंकि जिज्ञासुजनों को परमात्मा से मिलने का एवं स्वस्वरूप प्राप्ति का सुख सीमा रहित है ॥७८॥ 
*पुरुष प्रकाशिक* 
*यहु घट दीपक साध का, ब्रह्म ज्योति प्रकाश ।* 
*दादू पंखी संतजन, तहाँ परैं निज दास ॥७९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत भक्तों का, यह स्थूल शरीर ही दीपक है और भक्ति वैराग्य आदि इसमें तेल है । शुद्ध वृत्ति रूप बत्ती इसमें लगी है और ब्रह्मज्ञान रूप ही इस दीपक की ज्योति है और उत्तम मुमुक्षु पुरुष ही पतंग रूप से वहाँ उनकी शऱण में आकर, ज्ञान सम्पादन करके, ब्रह्मभाव को प्राप्त होते हैं ॥७९॥ 
*घर वन मांहीं राखिये, दीपक ज्योति जगाइ ।* 
*दादू प्राण पतंग सब, जहँ दीपक तहँ जाइ ॥८०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता पुरुषों का शरीर, प्रारब्धवश चाहे प्रवृत्ति मार्ग में रहे, अथवा गृहस्थ आश्रम में रहे, या निवृत्ति मार्ग में विरक्त रहे, परन्तु उनमें ब्रह्म - ज्योति का प्रकाश, प्रकाशित रहता है । उस ज्योति के प्रेमी, उत्तम साधक पुरुष, मल - विक्षेप रहित उनकी शरण में जाकर आत्म - भाव को प्राप्त हो जाते हैं ॥८०॥ 
कवित्त 
जिनके सुमति जागी, भोग सौं भये बिरागी, 
परसंग त्यागी जे पुरुष त्रिभुवन में । 
रागादिक भाव नास, जिनकी रहन न्यारी, 
कबहूँ मगन ह्वै, रहत धाम धन में ॥ 
जे सदैव आपकों, विचारै सर्वज्ञ सुध, 
जिनके विकलता न व्यापै कहुँ मन में । 
तेहि मोक्ष मारग के साधक कहावैं सन्त, 
भावै रहो मन्दिर में भावै रहो वन में ॥
(क्रमशः)

= साधु का अंग १५ =(७५/७७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साध पारख लक्षण*
*दादू अन्तर एक अनंत सौं, सदा निरंतर प्रीत ।* 
*जिहिं प्राणी प्रीतम बसै, सो बैठा त्रिभुवन जीत ॥७५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ‘अन्तर’ कहिए - भीतर अन्तःकरण में ‘एक’ - देशकाल वस्तु प्रच्छेद रहित, अद्वैत ब्रह्म से जो पुरुष अन्तराय रहित होकर स्नेह करते हैं, वे जिज्ञासु तीनों लोकों के लाभ को जीतकर, तीनों गुणों से मुक्त होकर स्वस्वरूप में स्थित हो रहे हैं ॥७५॥ 
*साधु महिमा महात्म* 
*दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संगि खेलै पीव ।* 
*बहुत भाँति कर वारणें, तापर दीजे जीव ॥७६॥* 
टीका ~ अपने को उपलक्षण करके ब्रह्मऋषि गुरुदेव उपदेश करते है कि हे जिज्ञासुओं ! हम सभी जिज्ञासु उन ब्रह्मनिष्ठ संतों के सेवक हैं, जिन्होंने स्वस्वरूप को साक्षात्कार कर लिया है, ऐसे ब्रह्म - परिचय संतों की हम किस प्रकार वन्दना करें ? क्योंकि अब हमने तो सर्वस्व उनके चरणों में न्यौछावर कर दिया है ॥७६॥ 
वासुदेवस्य ये भक्ताः शान्तास्तद्वतमानसाः । 
तेषां दासस्य दासोऽहं भवे जन्मनि जन्मनि ॥ 
साधु एक चोपाड़ में, उतर्यो लोक समाज । 
मारन उठे असुर दोइ, मैं नरसिंह तव काज ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संत एक गाँव में चौपाल में आकर ठहरे । बहुत से गाँव के लोग बैठे थे । उनमें से कई लोग संत को बोले ~ “यहाँ से उठ जा ।” दूसरी जगह बैठे, तो फिर बोले ~ “यहाँ से उठ जा” । ऐसे तंग करने लगे । उन्हीं में से फिर दो असुर, महात्मा को मारने को खड़े हो गये । इतने में ही तीसरे पुरुष में परमेश्‍वर प्रकट हो गये और वह बोला ~ “हे राक्षसों ! यह महात्मा तो प्रहलाद है और तुम हिरणाकुश हो और मैं नरसिंह हूँ । तुम्हारे को चीर कर डाल दूंगा ।” इस प्रकार परमेश्‍वर अपने आत्मीयजनों की रक्षा करने को तत्पर रहते हैं । जो परमेश्‍वर के साथ खेलते हैं, उन भक्तों की परमेश्‍वर रक्षा करते हैं । 
सालेरी तन मन तज्यो, हरि संतां के भाव । 
ता पुण्य परताप से, लंकापति कै जाव ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संतों की मण्डली नगर में पहुँची । सत्संग होने लगा । एक भक्त ने खीर की रसोई का संतों को सामान दिया । भंडारी एक पेड़ के नीचे खीर बना रहा था । ऊपर से काला सांप खीर के कढाह में गिर गया । भंडारी को यह पता नहीं चला । उसी पेड़ पर एक सालेरी(गिलहरी) यह देख रही थी । गिलहरी ने सोचा, ‘संत खीर खाएँगे, तो सब मर जायेंगे, इन संतों की जान किस प्रकार से बचाऊँ ?” 
जब संत लोगों ने जीमने को पंगत लगाई, तब उनके देखते - देखते ही सालेरी खीर के कढाह में कूद गई । संत लोग कहने लगे, अब तो यह खीर अपने काम की नहीं है । इसको जमीन में गिरा दो, कोई पशु खा लेंगे । ज्यों ही खीर को जमीन में गिराया, तो काला नाग कढाह के पैंदे में निकला । संत लोगों ने विचार किया कि इस सालेरी ने हमारी जान बचाई है । 
तब सभी संतों ने उसको वरदान दिया कि जा, तेरे को ऐसा पति मिलेगा, जिसे राम के बिना कोई नहीं मार सकेगा । उन संतों के वरदान से वह सालेरी एक राज - कन्या बनी । फिर वह वैराग्य को प्राप्त होकर तप करने चली गई । जिस जंगल में ऋषि - मुनि रहते थे, वहीं वह रहने लगी और ऋषि - मुनियों की सेवा करती । 
जहाँ ऋषि - मुनि रहते थे, वह जंगल बालि के कब्जे में था । बालि ऋषियों की देख - रेख किया करते थे, अर्थात् राक्षसों से रक्षा किया करते थे । एक रोज एक मुनि ने स्वप्न - दोष के कारण अपनी कोपीन उतार कर रख दी और फिऱ दूसरी कोपीन धारण कर ली । वह कोपीन वैसे ही पड़ी रही । 
सवेरे स्नान करके पूजा में बैठ गये । कोपीन धोना भूल गये । जब पूजा से उठे, इस लड़की ने आकर नमस्कार किया । आपने कहा ~ यह कोपीन धो ला ।” लड़की ने कोपीन धोई । दाग न छूटा तो, दातों से पकड़ कर दाग छुड़ाने लगी । फिर कोपीन ला कर सुखा दी । लड़की को हमल रह गया । कुछ दिनों में ऋषियों को बड़ी भारी चिन्ता हो गई कि हे विधाता ! यह क्या हुआ ? अब तो यह लड़की हमारे पास रहने के लायक नहीं । किसी के साथ इसको कर दें । हमारी रक्षा बालि करता है, बालि को ही दे दें, तो यह राज - रानी होगी । 
इतने में मयदानव आ गया । कहने लगा ~ लाओ, टैक्स दो, तुम रावण के राज में रहते हो । ऋषियों ने कहा ~ हमारे पास कर देने को कुछ भी नहीं है । इतने में वह राज - कन्या आ गई । मयदानव बोला ~ “यह कौन है ?” ऋषि ~ राज - कन्या है । बोला ~ मैं इसे ले जाऊंगा । ऋषियों ने कहा कि तुम ले जाओ । वह उस राज - कन्या को लेकर लंका की ओर चला । पीछे से बालि आ गया । 
ऋषि लोग बोले ~ बालि ! तुम्हारे लिए, हमने बहुत अच्छी चीज रखी थी, परन्तु वह मयदानव अभी ले गया । बालि ने तुरन्त मयदानव को रास्ते में घेर लिया और उस लड़की का हाथ पकड़ लिया । एक हाथ मयदानव ने पकड़ लिया । बालि ने कहा ~ “मेरी चीज है, मेरे लिये रखी थी ऋषियों ने ।” मयदानव ~ “मैं कर में लाया हूँ, इसको ।” दोनों आपस में उसको खींचने लगे । ब्रह्मा जी ने यह देखकर संकल्प किया कि एक की दो हो जाओ । दो बन गई । बीच में अंगद पैदा हो गया । 
बालि जबरदस्त था, इसलिए वह उस लड़की को और अंगद को, दोनों को ले आया । वही बालि की रानी तारा कहलाई और उस पुत्र का नाम अंगद पड़ा । दूसरी मयदानव ले गया, जो ब्रह्मा के मन से पैदा हुई, इसलिये उसका नाम मन्दोदरी पड़ा । मयदानव वृद्ध था । उसने उसको पुत्री मानकर रावण के साथ उसकी शादी कर दी और पुष्पक - विमान जो कुबेर को जीत कर मयदानव लाया था, वह उसको दहेज में रावण को दे दिया । वही सालेरी संतों के वरदान से लंकापति को प्राप्त हुई और उस लंकापति की मृत्यु राम के द्वारा हुई । जो संत परमात्मा के साथ में भक्ति रूपी खेल खेलते हैं, उन पर सालेरी ने अपने आप को न्यौछावर कर दिया ।
*भ्रम विध्वंसण* 
*दादू लीला राजा राम की, खेलैं सब ही संत ।* 
*आपा पर एकै भया, छूटी सबै भरंत ॥७७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! राजा तो राम जी हैं और उनके सच्चे भक्तसंत, राम की लीला कहिए, भक्ति रूपी खेल, भेद - भाव, ऊँच - नीच छोड़कर, भक्ति भाव द्वारा ब्रह्म - भावना होने पर अपना - पराया का भेद - भाव और कर्त्तव्य आदिक की भावना त्यागकर, ‘एकै भये’, अर्थात् ऐसे ब्रह्मवेत्ता ब्रह्मरूप ही होते हैं । इसलिये संतों को सर्वत्र एक आत्म - भाव ही भासता है ॥७७॥
गंज अटूट टूटै नहीं, ढोवत हारे बैल । 
‘राधो’ सब धनि धनिं करैं, देह धरी हरि गैल ॥ 
द्वैत भाव दुविधा मिटी, सुखी भये सब संत । 
टौंक महोच्छव कारणैं, दादू भये अनंत ॥ 
टौंक पधारे महोरच्छवै, आप लगायो भोग । 
तब सिष पूछी जब कही, या साखी इहि जोग ॥ 
प्रसंग ~ टौंक में माधोकाणी नाम के एक वैरागी निष्पक्ष संत रहते थे । उन्होंने अपने गुरु का भंडारा किया । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज को स्वयं जाकर, भंडारे में पधारने को आमंत्रित किया । उनका प्रेम देखकर महाराज ने स्वीकार कर लिया । जब महाराज टौंक पधारे, तो माधोकाणी ने ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज की गाजे - बाजे से आगवानी करी । उस भंडारे में जितनी रसोई बनी थी, उससे कई गुना ज्यादा जीमने वाले संत - भक्त आ गये । 
माधोकाणी को चिन्ता हुई कि अब इसमें कैसे पूरा होगा ? तब वे वैरागियों के बड़े - बड़े महन्तों के पास गये, जो भंडारे में आये हुए थे और बोले ~ इसी सामान में पूर्ति हो जाये, ऐसी दया करो । वैरागी बोले ~ तुम दादूदयाल जी को ईश्‍वर मानते हो, उनके ही पास जाओ । तब माधोकाणी ने ब्रह्मऋषि के पास आकर प्रणाम किया । उपरोक्त सब वृत्तान्त सुना दिया । ब्रह्मऋषि बोले ~ ‘राम जी, चिन्ता नहीं करना । आप जैसे सच्चे निष्पक्ष संतों के सब काम रामजी पूरा करेंगे । 
परम गुरुदेव भंडारा में पधारे और आप ने भगवान् के भोग लगाया और पड़दा डाल दिया । राम जी ने अटूट रिद्धि कर दी । वह भंडारा सात दिन तक अखण्ड चला । इस लीला को देखकर सब चकित हो गये । सब लोगों ने फिर कहा कि दादूदयाल ऐसे महापुरुष हैं तो इस मेले में सबको अपने हाथ से प्रसाद दें । तब ब्रह्मऋषि ने काली मिर्च और लौंग का एक मुट्ठा भरा और यह संकल्प किया कि “हे राम जी ! सबकी इच्छा पूर्ति आप ही करते हो,” यह कहकर, लोंग काली मिर्च का मुट्ठा, हाथ घूमाकर मेले में फैंका । सभी मनुष्यों को यह भान हुआ कि दादूदयाल मानो, मेरे पास ही खड़े, मुझे प्रसाद दे रहे हैं । 
इस प्रकार माधोकाणी के सब काम राम जी ने पूरे किये । जब ब्रह्मऋषि के शिष्यों ने प्रश्‍न किया कि गुरूदेव ! ये आपने माधोकाणी के सब काम पूरे किस लिये किए ? वह तो वैरागी साधु थे । तब शिष्यों को उपरोक्त साखी से उपदेश किया कि जो आपा अभिमान से रहित, मत - मतान्तरों के पक्ष से अलग निष्पक्ष होकर, परमेश्‍वर की भक्ति करते हैं, वे सभी संत एक रूप हैं, उनमें मैं - तू का भेद - भाव नहीं होता । वही सच्चे राम के भक्त हैं । इसलिये हमने राम जी की आज्ञा से उनका काम पूरा किया । 
(क्रमशः)