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बुधवार, 8 जून 2016

= १९८ =

卐 सत्यराम सा 卐 
आन कथा संसार की, हमहिं सुणावै आइ ।
तिसका मुख दादू कहै, दई न दिखाइ ताहि ॥
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साभार ~ Anand Nareliya

एक दिन मोहम्मद ने अपने परिवार के एक युवक को कहा कि तू पड़ा—पड़ा सोया रहता है सुबह; कभी—कभी मेरे साथ चला कर मस्जिद। सुबह की नमाज भी हो जाएगी; टहलना भी हो जाएगा। ताजी हवा, सूरज का निकलना, पक्षियों के गीत। त पड़ा—पड़ा क्या करता है?

कई बार कहा, तो एक दिन वह युवक उनके साथ हो लिया। गया मस्जिद, मोहम्मद ने नमाज पढ़ी। वह भी खड़ा—खड़ा कुछ—कुछ गुन—गुन करता रहा होगा। जब लौटने लगे, तो उसे बडी अकड़ आ गयी।

गरमी के दिन थे और लोग अभी भी अपने — अपने घरों के सामने बिस्तरों पर सोए थे। उसने मोहम्मद से कहा. हजरत! जरा इन पापियों की तरफ तो देखिए! अभी तक सो रहे हैं! यह कोई समय सोने का है! यह प्रभु—प्रार्थना का समय है! इन पापियों की क्या गति होगी हजरत? मरकर ये कहा जाएंगे?

मोहम्मद तो एकदम चौंके। यह पहली दफे गया था। कल तक यह भी सोया रहा था। आज अचानक यह पुण्यात्मा हो गया! और इसकी गुन—गुन भी देखी होगी। इसको कुछ आता—वाता तो होगा नहीं, चला गया था। साथ—साथ खड़ा हो गया। देखता होगा कि मोहम्मद झुके, तो झुक जाता होगा।

मोहम्मद रुक गए। उन्होंने कहा. तू मुझे क्षमा कर। मुझसे बड़ी भूल हो गयी, जो मैं तुझे मस्जिद ले गया। तेरी तो नमाज हुई नहीं, मेरी नमाज खराब हो गयी। तू घर जा भाई! और मैं फिर वापस मस्जिद जाकर नमाज करूं।

वह युवक कहने लगा क्यों? तो मोहम्मद ने कहा कि तू न आता, वही अच्छा था। कम से कम दूसरों को पापी तो न समझता था। कम से कम यह पुण्यात्मा होने का दंभ तो तुझ में नहीं था। यह तो बड़ी गलती मुझसे हो गयी। मुझे क्षमा कर। अब ऐसी भूल दुबारा न करूंगा। अब भूलकर तुझ से न कहूंगा कि मस्जिद चल। तू घर जा, बिस्तर पर सो जा। मुझे जाने दे मस्जिद; मैं फिर नमाज करके आ जाऊं। और क्षमा महा लूं परमात्मा से कि मुझसे बड़ी भूल हो गयी।....osho

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू एक सुरति सौं सब रहैं, पंचों उनमनि लाग ।
यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग ॥ 
दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग ।
अरस परस मिल एक ह्वै, सन्मुख रहबा संग ॥ 
सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।
सहज रूप सुमिरण करै, निष्कामी दादू दीन ॥ 
सुरति सदा साबति रहै, तिनके मोटे भाग ।
दादू पीवैं राम रस, रहैं निरंजन लाग ॥ 
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दीपक तले अन्धेरा क्यों …… ओशो ......

आत्मा शाश्वत तत्व है, शरीर शाश्वत नहीं है। इसलिए तुम शरीर को पकड़ते हो, देखते हो, संभालते हो, खोजते हो। शरीर के सुखों की चिंता करते हो। इसलिए दिया तले अंधेरा इकठ्ठा हो जाता है। तुम चाहे स्वीकार करो या न करो। तुम्हारे चित्त में यह तीर चुभा ही है कि शरीर मरेगा।

आत्मा अमृत है। तुमने जाना हो न जाना हो; उसका अमृत स्वर तुम्हारे भीतर प्रतिध्वनित हो रहा है। तुम पहचानो, न पहचानो; सुनो न सुनो। वह स्वर वहां गूंज ही रहा है। जो अमृत है उसे भूलना आसान है। जो मरणधर्मा है उसे भूलना कठिन है। जो मरणधर्मा है उसे जल्दी भोग लो। गणित सीधा और साफ है। आत्मा अमृत है, शाश्वत है। वह संपदा खोनेवाली नहीं है वहां कभी कोई बीमारी प्रविष्ट नहीं होती। इन सब कारणों के कारण दिये तले अंधेरा है।

बुद्ध कितना ही कहें, 'जल्दी करो' तो भी जल्दी नहीं होती। कृष्ण कितना ही समझाएं, तुम समझ लेते हो फिर जाकर अपने संसार में लग जाते हो। यह बात इतने लोग समझाते हैं, फिर भी समझ में नहीं आती। शरीर के संबंध में कोई भी नहीं समझा रहा है, फिर भी समझ में आता है कि भोग लो। यह धारा सदा न रहेगी।

ये सारे कारण अगर ठीक से देख लोगे, तुम्हें समझ में आयेगा कि क्यों चेतना की धारा बाहर की तरफ बह रही है और भीतर की तरफ नहीं। क्यों तुम बाहर की तरफ देख रहे हो और भीतर नहीं। क्यों तुम धन खोज रहे हो, पद खोज रहे हो, संसार खोज रहे हो; आत्मा परमात्मा, मोक्ष नहीं। यह बिलकुल स्वाभाविक घटना है। दीया तले अंधेरा बिलकुल स्वाभाविक है।

यह वैसे ही है, जैसे साधारण मिट्टी के दिये के नीचे अंधेरा होता है। ऐसे ही तुम्हारे नीचे अंधेरा है। यह अंधेरा कब तक रहेगा ?
जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दिया है, तब तक अंधेरा रहेगा।

आचार्य रजनीश[ओशो] !

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
चलु दादू तहँ जाइये, जहँ चंद सूर नहिं जाइ ।
रात दिवस की गम नहीं, सहजैं रह्या समाइ ॥ 
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~
कल दोपहर एक पहाड़ी के अंचल में थे। धुप-छाया के विस्तार में बड़ी सुखद घड़ियां बीतीं। निकट ही था एक तालाब और हवा के तेज थपेड़ों ने उसे बेचैन कर रखा था। लहरें उठती-गिरतीं और टूटतीं। उसका सब-कुछ विक्षुब्ध था। 

--- फिर हवाएं सो गयीं और तालाब भी सो गया। 

--- मैंने कहा : 'देखो, जो बेचैन होता है, वह शांत भी हो सकता है। बेचैनी अपने में शांति को छिपाये हुए है। तालाब अब शांत है, तब भी शांत था। लहरें ऊपर ही थीं, भीतर पहले भी शांति थी। 

--- मनुष्य भी ऊपर अशांत है। लहरें ऊपर ही हैं, भीतर गहराई में घना मौन है। विचारों की हवाओं से दूर चलें और शांत सरोवर के दर्शन शुरू हो जाते हैं। यह सरोवर 'अभी और यहीं' पाया जा सकता है। समय का प्रश्न ही नहीं है। क्योंकि समय वहीं तक है, जहां तक विचार हैं। ध्यान समय के बाहर है। 

ईसा ने कहा है : 'और वहां समय नहीं है। And there shall be time no longer.'

--- समय में दुख है। समय दुख है। समयातीत होना आनंद में होना है। समयातीत होना आनंद होना है। 

--- चलो मित्र, समय के बाहर चलें, वहीं हम हैं। समय के भीतर जो दीखता है, वह समय के बाहर ही है। इतना जानना ही चलना है। जाना कि हवाएं रुक जाती हैं। और सरोवर शांत हो जाता है। 

आचार्य रजनीश[ओशो] !

= १९७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
मध्य नैन निरखूं सदा, सो सहज स्वरूप ।
देखत ही मन मोहिया, है तो तत्त्व अनूप ॥
तेज तार परिमित नहीं, ऐसा उजियारा ।
दादू पार न पाइये, सो स्वरूप सँभारा ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

ताओ उपनिषाद–(भाग–5) प्रवचन–106...osho
मैं तुम्हें नहीं बता सकता कि तुम्हारा मध्य क्या है। मैं तुम्हें बता सकता हूं कि मध्य को कैसे खोजो। मैं तुम्हें बता सकता हूं कि यह कसौटी है, इस पर कस लेना। मध्य की अवस्था बड़ी शांत, आनंद, प्रफुल्लता की अवस्था है। वहां कोई तनाव नहीं होता। शरीर को जितनी जरूरत होती है उतना तुम दे देते हो; शरीर तृप्त हो जाता है। ज्यादा भर देते हो, अशांति हो जाती है। कम देते हो, पीड़ा बनी रहती है। भोजन करते वक्त वह बिंदु देखना जहां–वह बिंदु बारीक है; अगर बहुत होश रखोगे तो तुम्हें मिल जाएगा–जहां तुम पाओगे, शरीर न तो भर गया ज्यादा और न खाली है, जहां तुम पाओगे कि तृप्ति का बिंदु आ गया, वहीं रुक जाना। रोज-रोज यह बिंदु अलग-अलग होगा, क्योंकि रोज स्थिति अलग होगी।
तो मैं तुम्हें बताता हूं कि बिंदु की परिभाषा क्या है। और यही मैं तुमसे पूरे जीवन के लिए कहता हूं। आज हो सकता है ध्यान की घंटे भर जरूरत हो, कल दो घंटा जरूरत हो। आज हो सकता है ध्यान की सुबह जरूरत हो, कल सांझ जरूरत हो। तुम जरूरत से जीना। बंधी लकीरों की क्या जरूरत है? क्योंकि लोगों ने तय कर लिया है कि रोज सुबह ध्यान करना है एक घंटा।
अब यह भी हो सकता है कि सुबह जब तुम उठे तब चित्त इतना प्रसन्न है, इतना आनंदित है कि ध्यान करने की प्रक्रिया में ही यह आनंद और चित्त की प्रसन्नता खो जाएगी। जब चित्त आनंदित ही है तो ध्यान क्यों करना? ध्यान तो हो ही रहा है। इस क्षण उत्सव कर लो। इस क्षण नाच लो बाहर जाकर सूरज की खुली रोशनी में। पक्षियों के साथ गीत गा लो, गुनगुना लो। वृक्षों से थोड़ा तालमेल कर लो। मन इतना आनंदित है, अब यह ध्यान करने किसलिए बैठे हो? ध्यान तो इलाज है; जब मन अशांत हो तब बैठना। जब मन रुग्ण हो तब औषधि को खोजना। लेकिन तुमने कसम खा ली कि ध्यान रोज करेंगे। और गुरु हैं पूरे मुल्क में बैठे जगह-जगह जो कहते हैं, नियम से एक ही समय रोज ध्यान करना। ध्यान कोई नियम है? ध्यान तो संतुलन जमाने की प्रक्रिया है। जब चित्त असंतुलित हो, तब जमाना; जब चित्त क्रोधित हो, अशांत हो, तनाव से भरा हो, तब हजार काम छोड़ कर द्वार बंद करके ध्यान करना। क्योंकि इस समय इलाज की जरूरत है। ध्यान औषधि है। प्यास जब लगे तब पानी पीना। नियम से क्यों पानी पी रहे हो? प्यास लगी नहीं है, लेकिन नियम है कि पानी पीना है तो पी रहे हैं। ध्यान भी जब तुम्हें प्यास लगे–जब चित्त अशांत है तो प्यास की खबर आ रही है–तब तुम ध्यान करना।
और कभी यह होगा कि घड़ी भर में ध्यान हो जाएगा, कभी दो घड़ी में होगा, कभी तीन घड़ी लग जाएंगी। निर्भर होगा कि बीमारी कितनी गहरी है, उतनी देर तक औषधि का उपयोग करना पड़ेगा। कभी संतुलन क्षण में सम्हल जाता है; कभी तुम बैठते नहीं हो ध्यान में और क्षण में ज्योति जग जाती है; कभी घड़ी लग जाती है। लेकिन अगर तुमने नियम बना लिया कि बस इतनी देर करना है तो तुम व्यर्थ ही चूकोगे। कभी संयोग से ठीक पड़ेगा, अन्यथा अधिकतर तुम खोओगे। निन्यानबे दिन बेकार जाएंगे; कभी एक दिन संयोगवशात ठीक होगा।
तो मैं तुम्हें कोई बंधी लकीर नहीं देता; मैं तुम्हें सिर्फ बोध देता हूं कि तुम देखना कब जरूरत है। जब जरूरत हो तब हजार काम छोड़ देना। ध्यान सबसे बड़ी चीज है, सबसे बड़ा भोजन है। एक बार शरीर भूखा रह जाए, कोई हर्ज नहीं; आत्मा को भूखा मत रखना। ध्यान आत्मा का भोजन है। लेकिन जब भूख लगी हो, तभी भोजन का मजा है

मंगलवार, 7 जून 2016

= १९६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
श्रम न आवै जीव को, अनकिया सब होइ ।
दादू मारग मिहर का, बिरला बूझै कोइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya
ताओ उपनिषाद–(भाग–5) प्रवचन–106...osho
योगी आखिरी मंजिल से भी भटक सकता है। क्योंकि योगी श्रम जैसा कर रहा है, बड़ी मेहनत उठा रहा है; जैसे परमात्मा पर कोई एहसान कर रहा है। क्योंकि तुम शीर्षासन लगा रहे, जैसे कि तुम अस्तित्व पर कोई एहसान कर रहे हो, जैसे तुम अस्तित्व को कर्जदार बना रहे हो कि देखो, मैंने कितना किया! योगी इसी भाव से खड़ा है कि देखो, मैंने कितना किया, और अभी तक नहीं मिला! एक शिकायत है।
प्रेमी की कोई शिकायत नहीं है। इसलिए भक्ति से कभी कोई भ्रष्ट नहीं होता। हो ही नहीं सकता; क्योंकि प्रेम से कभी कोई कैसे भ्रष्ट हो सकता है? प्रेम की कोई शिकायत ही नहीं है। प्रेम का तो सिर्फ धन्यवाद है। प्रेम तो कहता है कि मुझ जैसा आदमी और इतने जल्दी मंजिल के करीब आ गया! कुछ भी न करना पड़ा और मंजिल आ गई! तेरी अपरंपार कृपा है। चले भी नहीं और तेरा द्वार सामने आ गया! चलना भी कोई चलना था? चार कदम चले, वह कोई चलना था? वह कोई बात कहने की है?
प्रेमी सदा परमात्मा के द्वार पर कहता है कि मैंने कुछ भी न किया और तेरे प्रसाद की वर्षा हो गई। तेरी अनुकंपा अपार है। योगी ऐसे जाता है जैसे कि दावेदार है। प्रेमी ऐसे जाता है कि हमारा दावा क्या? अगर जन्मों-जन्मों तक न मिलता तो भी शिकायत क्या थी? शिकायत उठती है अहंकार से; शिकायत उठती है श्रम से; शिकायत उठती है तप से। प्रेम की कोई शिकायत नहीं। और ध्यान रखना, अगर परमात्मा से ही मिलना है तो प्रेम के अतिरिक्त सभी कुछ साधारण है। तुम प्रेम से ही जाना। तुम साधन को साध्य की तरह समझ लेना, एक-एक कदम उसी की मंजिल पर पहुंच रहा है। और तुम अनुग्रह-भाव से जाना। तुम किसी को कर्जदार नहीं बना रहे हो।
और जिस दिन तुम पाओगे, याद रखना, जिन्होंने भी पाया है उन सभी ने यह कहा है कि प्रसाद है, ग्रेस है। क्यों? क्योंकि हमने जो किया वह कुछ भी नहीं सिद्ध होता है आखिर में; वह कुछ भी नहीं था। क्या कर रहे हो तुम? क्या कर सकते हो? उपवास कर लिया, कि सिर के बल खड़े हो गए, कि नंगे खड़े हो गए, कि धूप में खड़े हो गए। इससे क्या लेना-देना है उसके मिलने का? यह तुम क्या कर रहे हो? जिस दिन वह मिलेगा और जिस दिन वर्षा होगी तुम्हारे ऊपर उसके अमृत की, उस दिन क्या तुम सोचोगे जो हमने किया उससे मूल्य चुका दिया, हम पाने के अधिकारी होकर आए? उस दिन पहली दफे तुम पाओगे कि तुम्हारा तो कोई अधिकार ही नहीं बना था। यह मिला है उसके प्रसाद से, यह उसकी अनुकंपा से। तुम अधिकारी की तरह कभी उस मंदिर में प्रवेश न कर पाओगे। तुम जब भी प्रवेश करोगे तब एक विनम्र याचक की भांति, एक विनम्र प्रेमी की भांति। अहोभाव से तुम प्रवेश कर पाओगे।
इसलिए तो मैं कहता हूं, यह यात्रा तुम नाच कर पूरी करना। इस यात्रा पर तुम्हारे पसीने के चिह्न न छूटें, तुम्हारे गीतों की छाप छूटे। तुम्हारे हर पद-चिह्न पर तुम्हारा अहोभाव छूटे। तुम्हारे अधिकारी का भाव न बढ़े, तुम्हारी विनम्रता गहन होती जाए, तुम निरहंकार होते जाओ। मंजिल आते-आते वह घड़ी आ जाए कि तुम मिट ही चुके हो–एक धुएं की रेखा, जो खो चुकी। अगर नाच कर पूरी हो सकती हो यात्रा तो ही पूरी होगी। जो भी मिले हैं उस आखिरी सत्य को वे नाच कर ही मिले हैं। हंसते हुए जाना, नाचते हुए जाना, गीत गाते जाना, मस्ती में जाना। श्रम की बात ही मत उठाओ। श्रम की बात ही बेतुकी है। प्रेम की चर्चा करो। प्रेम को गुनगुनाओ। और तब तुम पाओगे कि हर कदम मंजिल है। और अगर इस प्रेम में तुम डूब भी गए मझधार में तो तुम पाओगे, मझधार ही किनारा है

= १९५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो सब परिहर प्राण ।
मनसा वाचा कर्मणा, जे तूं चतुर सुजाण ॥ 
दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो जीव न कीजी रे ।
परिहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे ॥ 
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya

प्रेरक कहानी ~ तीन गांठें
भगवान बुद्ध अक्सर अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। एक दिन प्रातः काल बहुत से भिक्षुक उनका प्रवचन सुनने के लिए बैठे थे । बुद्ध समय पर सभा में पहुंचे, पर आज शिष्य उन्हें देखकर चकित थे क्योंकि आज पहली बार वे अपने हाथ में कुछ लेकर आए थे। करीब आने पर शिष्यों ने देखा कि उनके हाथ में एक रस्सी थी। बुद्ध ने आसन ग्रहण किया और बिना किसी से कुछ कहे वे रस्सी में गांठें लगाने लगे ।
वहाँ उपस्थित सभी लोग यह देख सोच रहे थे कि अब बुद्ध आगे क्या करेंगे; तभी बुद्ध ने सभी से एक प्रश्न किया, ‘मैंने इस रस्सी में तीन गांठें लगा दी हैं, अब मैं आपसे ये जानना चाहता हूँ कि क्या यह वही रस्सी है, जो गाँठें लगाने से पूर्व थी ?’
एक शिष्य ने उत्तर में कहा, गुरूजी इसका उत्तर देना थोड़ा कठिन है, ये वास्तव में हमारे देखने के तरीके पर निर्भर है। एक दृष्टिकोण से देखें तो रस्सी वही है, इसमें कोई बदलाव नहीं आया है । दूसरी तरह से देखें तो अब इसमें तीन गांठें लगी हुई हैं जो पहले नहीं थीं; अतः इसे बदला हुआ कह सकते हैं। पर ये बात भी ध्यान देने वाली है कि बाहर से देखने में भले ही ये बदली हुई प्रतीत हो पर अंदर से तो ये वही है जो पहले थी; इसका बुनियादी स्वरुप अपरिवर्तित है।”
“सत्य है !”, बुद्ध ने कहा, अब मैं इन गांठों को खोल देता हूँ।” यह कहकर बुद्ध रस्सी के दोनों सिरों को एक दुसरे से दूर खींचने लगे। उन्होंने पुछा, “तुम्हें क्या लगता है, इस प्रकार इन्हें खींचने से क्या मैं इन गांठों को खोल सकता हूँ?”
“नहीं-नहीं, ऐसा करने से तो या गांठें तो और भी कस जाएंगी और इन्हे खोलना और मुश्किल हो जाएगा। एक शिष्य ने शीघ्रता से उत्तर दिया।
बुद्ध ने कहा, ‘ठीक है, अब एक आखिरी प्रश्न, बताओ इन गांठों को खोलने के लिए हमें क्या करना होगा ?’
शिष्य बोला, इसके लिए हमें इन गांठों को गौर से देखना होगा, ताकि हम जान सकें कि इन्हे कैसे लगाया गया था, और फिर हम इन्हे खोलने का प्रयास कर सकते हैं।
“मैं यही तो सुनना चाहता था। मूल प्रश्न यही है कि जिस समस्या में तुम फंसे हो, वास्तव में उसका कारण क्या है, बिना कारण जाने निवारण असम्भव है। मैं देखता हूँ कि अधिकतर लोग बिना कारण जाने ही निवारण करना चाहते हैं, कोई मुझसे ये नहीं पूछता कि मुझे क्रोध क्यों आता है, लोग पूछते हैं कि मैं अपने क्रोध का अंत कैसे करूँ ? कोई यह प्रश्न नहीं करता कि मेरे अंदर अंहकार का बीज कहाँ से आया, लोग पूछते हैं कि मैं अपना अहंकार कैसे ख़त्म करूँ ?
प्रिय शिष्यों, जिस प्रकार रस्सी में में गांठें लग जाने पर भी उसका बुनियादी स्वरुप नहीं बदलता उसी प्रकार मनुष्य में भी कुछ विकार आ जाने से उसके अंदर से अच्छाई के बीज ख़त्म नहीं होते। जैसे हम रस्सी की गांठें खोल सकते हैं वैसे ही हम मनुष्य की समस्याएं भी हल कर सकते हैं। इस बात को समझो कि जीवन है तो समस्याएं भी होंगी ही, और समस्याएं हैं तो समाधान भी अवश्य होगा, आवश्यकता है कि हम किसी भी समस्या के कारण को अच्छी तरह से जानें, निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाएगा ।” महात्मा बुद्ध ने अपनी बात पूरी की।
ओम शांति ~ सुप्रभातम्
बुद्ध ने कहा न मृत्यु न जीवन। वही संन्यास का अर्थ भी है.

= १९४ =

#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐
मैं मेरे में हेरा, मध्य मांहिं पीव नेरा ॥ टेक ॥
जहाँ अगम अनूप अवासा, तहँ महापुरुष का वासा ।
तहँ जानेगा जन कोई, हरि मांहि समाना सोई ॥ १ ॥
अखंड ज्योति जहँ जागै, तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।
तहँ राम रहै भरपूरा, हरि संग रहै नहिं दूरा ॥ २ ॥
तिरवेणी तट तीरा, तहँ अमर अमोलक हीरा ।
उस हीरे सौं मन लागा, तब भरम गया भय भागा ॥ ३ ॥
दादू देख हरि पावा, हरि सहजैं संग लखावा ।
पूरण परम निधाना, निज निरखत हौं भगवाना ॥ ४ ॥
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साभार ~ Savita Savi Lumb via 
दिव्य प्रेम ~ 
आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए?
रूस में एक बहुत बड़े लेखक हुए हैं, इतने बड़े कि सारी दुनिया उन्हें जानती है। उनका नाम था लियो टॉल्स्टॉय, पर हमारे देश में उन्हें महर्षि टॉल्स्टॉय कहते है। उन्होंने बहुत-सी किताबें लिखी है। इन किताबों में बड़ी अच्छी-अच्छी बातें है। उनकी कहानियों का तो कहना ही क्या! एक-से एक बढ़िया है। उन्हें पढ़ते-पढ़ते जी नहीं भरता।
इन्हीं टॉल्स्टॉय की एक कहानी है - 'आदमी को कितनी जमीन चाहिए.?' इस कहानी में उन्होंने यह नहीं बताया कि हर आदमी को अपनी गुज़र-बसर के लिए किनती ज़मीन की जरूरत है। उन्होनें तो दूसरी ही बात कहीं है। वह कहते हैं कि आदमी ज्यादा-से-ज्यादा जमीन पाने के लिए कोशिश करता है, उसके लिए हैरान होता है, भाग-दौड़ करता है, पर आखिर में कितनी जमीन उसके काम आती है? कुल छ:फुट, जिसमें वह हमेशा के लिए सो जाता है।
यों कहने को यह कहानी है, पर इसमें दो बातें बड़े पते की कही गयी है। पहली यह कि आदमी की इच्छायें, कभी पूरी नही होतीं। जैसे-जैसे आदमी उनका गुलाम बनता जाता है, वे और बढ़ती जाती हैं। दूसरे, आदमी आपाधापी करता है, भटकता है, पर अन्त में उसके साथ कुछ भी नहीं जाता।
आपको शायद मालूम न हो, यह कहानी गांधीजी को इतनी पसन्द आयी थी कि उन्होनें इसका गुजराती में अनुवाद किया। हजारों कापियाँ छपीं और लोगों के हाथों में पहुँचीं। धरती के लालच में भागते-भागते जब आदमी मरता है तो कहानी पढ़ने वालों की आँखे गीली हो आती है। उनका दिल कह उठता है - 'ऐसा धन किस काम का!'
अपनी इस काहानी में टॉल्सटॉय ने जो बात कही है, ठीक वहीं बात हमारे साधु-सन्त, और त्यागी-महात्मा सदा से कहते आये है। उन्होने कहा है कि यह दुनिया एक माया-जाल है। जो इसमें फँसा कि फिर निकल नहीं पाता। लक्ष्मी यानी धन-दौलत को उन्होंने चंचला माना है। वे कहते हैं, "पैसा किसी के पास नहीं टिकता। जो आज राजा है, वही कल को भिखारी बन जाता है।"
आदमी इस दुनिया में खाली हाथ आता है, खाली हाथ जाता है। किसी ने कहा है न:
आया था यहॉँ सिकन्दर, दुनिया से ले गया क्या?
थे दोनों हाथ खाली, बाहर कफ़न से निकले।

संत कबीर ने यही बात दूसरे ढ़ंग से कही है:
कबीर सो धन संचिये, जो आगे कूँ होइ।
सीस चढ़ाये पोटली, जात न देखा कोई॥

उर्दू के मशहूर कवि नज़ीर अकबराबादी ने जो कहा है, वह तो बच्चे-बच्चे की जवान पर है:
सब ठाठ पड़ा रह जायेगा, जब लाद चलेगा बंजारा।

एक मुसलमान सन्त ने तो यहाँ तक कहा है, "ए इंसान, दौलत की ख्वाहिश न कर। सोने में गम का सामान है, उसकी मौजूदगी में मुहुब्बत खुदगर्ज और ठंडी हो जाती है। घमंड ओर दिखावे का बुखार चढ़ जाता है।"

आप कहंगे, "वाह जी वाह, आपने तो इतनी बातें कह डालीं। पर मैं पूछता हूँ कि बिना धन के किसका काम चलता है? साधु-सन्तों की बात छोड़ दीजिए, लेकिन जिसके घर-बार है, उसे खाने को अन्न चाहिए, पहनने को कपड़े और रहने को मकान चाहिए। और, आप क्या जानते नहीं, जिसके पास पैसा है, उसी को लोग इज्जत करते हैं, गरीब को कोई नहीं पूछता।"

"आपकी बात में सचाई है, पर एक बात बताइए—"आप रोटी खाते हैं?"
"जी हाँ। सभी खाते हैं।"
"किसलिए?"
"पेट भरने के लिए।"
"जानवर खाते हैं?""जी हाँ।"
"किसलिए?"
"पेट भरने के लिए?"
"ठीक। अब मुझे यह बताइए कि जब आदमी और जानवर दोनों पेट भरने के लिए खाते हैं तो फिर दोनों में क्या अन्तर क्या रहा?"
"यह भी आपने खूब कही! साहब, आदमी आदमी है, जानवर जानवर।"
"यह तो मैं भी मानता हूँ, पर मेरा सवाल तो यह है कि उन दोनों में अन्तर क्या है?"
"अन्तर! अन्तर यह है कि जानवर खाने के लिए जीता है, आदमी जीने के लिए खाता है।"
"वाह, आपने तो मेरे मन की ही बात कह दी। यही तो मैं कहना चाहता था। जब आदमी जीने के लिए खाता है, तब उसके जीवन को कोई उद्देश्य धन कमाना नहीं हो सकता। धन कमाने का मतलब होता है पेट के लिए जीना; और जो पेट के लिए जीता है, उसका पेट कभी नहीं भरता। आदमी तिजोरी में भरी जगह को नहीं देखता। उसकी निगाह खाली जगह पर रहती है। इसी को 'निन्यानवे का फेर' कहते हैं। स्वामी रामतीर्थ ने एक बड़ी सुन्दर कहानी लिखी है। एक धनी आदमी था। वह ओर उसकी स्त्री, दोनों हर घड़ी पेरशान रहते थे और अक्सर आपस में लड़ते रहते थे। उनका पड़ोसी गरीब था, दिन-भर मजूरी करता था। औरत घर का काम करती थी। रात को दोनों चैन की नींद सोते थे। एक दिन धनी स्त्री ने कहा, "इन पड़ोसियों को देखो, कैसे चैन से रहते हैं!" आदमी ने कहा, "ठीक कहती हो।"
अगले दिन उसने किया क्या कि पोटली में निन्यानवे रुपये बाँधे और उसे गरीब पड़ोसी के घर में डाल दिया। पड़ोसी ने रूपये देखे। उसकी आँखे चमक उठीं। उसी घड़ी लोभ ने उसे धर दबोचा। वह निन्यानवे के सौ और सो के एक सौ एक करने में लग गया। फिर क्या था! उसकी नींद हराम हो गयी। सुख भाग गया। मेहनत की खरी कमाई का आनन्द सपना हो गया।
हममें से ज्य़ादातर लोग ऐसे ही चक्कर में पड़े है। हम यह भूल जाते है कि इस चक्कर में कहीं सुख है तो वह नकली है। सुख से अधिक दु:ख है। असल में पैसा अपने-आपमें बुरा नहीं है। बुरा है उसका मोह। बुरा है उसका संग्रह। रोज़ी-पाने का अधिकार सबकों हैं, पर पैसा जोड़कर रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है।
आचार्य विनोवा ने बड़ी सुन्दरता से यह बात कही है, "धन को धारण करने पर वह निधन(मृत्यु) का कारण बन जाता है। इसलिए धन को 'द्रव्य' बनना चाहिए। जब धन बहने लगता है, तभी वह द्रव्य बनता है। द्रव्य बनने पर धन धान्य बन जाता हे।"
गांधीजी के शब्दों में, "सच्ची दौलत सोना-चाँदी नहीं, बल्कि स्वयं मनुष्य ही है। धन की खोज धरती के भीतर नहीं, मनुष्य के हृदय में ही करनी है।" जिस समाज और देश के पास इंसान की दौलत है, उसका मुकाबला कौन कर सकता है!

सोमवार, 6 जून 2016

= १९३ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
ऐसो अलख अनंत अपारा, तीन लोक जाको विस्तारा ॥ टेक ॥
निर्मल सदा सहज घर रहै, ताको पार न कोई लहै ।
निर्गुण निकट सब रह्यो समाइ, निश्चल सदा न आवै जाइ ॥ १ ॥
अविनाशी है अपरंपार, आदि अनंत रहै निरधार ।
पावन सदा निरंतर आप, कला अतीत लिप्त नहिं पाप ॥ २ ॥
समर्थ सोई सकल भरपूर, बाहर भीतर नेड़ा न दूर ।
अकल आप कलै नहीं कोई, सब घट रह्यो निरंजन होई ॥ ३ ॥
अवरण आपै अजर अलेख, अगम अगाध रूप नहिं रेख ।
अविगत की गति लखी न जाइ, दादू दीन ताहि चित्त लाइ ॥ ४ ॥
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साभार ~ निर्मला मिश्रा WTSAP
श्रीकृष्ण जी की सोलह कलाओ के बारे में..
अवतारी शक्तियों की सामर्थ्य को समझने के लिए कलाओं को आधार मानते हैं। कला को अवतारी शक्ति की एक इकाई मानें तो श्रीकृष्ण सोलह कला के अवतार माने गए हैं। भागवत पुराण के अनुसार सोलह कलाओं में अवतार की पूरी सामर्थ्य खिल उठती है। अवतारों में श्रीकृष्ण में ही यह सभी कलाएं प्रकट हुई थी। इन कलाओं के नाम हैं -
1 - श्री 
प्रथम कला के रूप में धन संपदा को स्थान दिया गया है। जिस व्यक्ति के पास अपार धन हो और वह आत्मिक रूप से भी धनवान हो। जिसके घर से कोई भी खाली हाथ नहीं जाए वह प्रथम कला से संपन्न माना जाता है। यह कला भगवान श्री कृष्ण में मौजूद है।
2 - भू 
जिस व्यक्ति के पास पृथ्वी का राज भोगने की क्षमता है। पृथ्वी के एक बड़े भू-भाग पर जिसका अधिकार है और उस क्षेत्र में रहने वाले जिसकी आज्ञाओं का सहर्ष पालन करते हैं वह अचल संपत्ति का मालिक होता है। भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योग्यता से द्वारिका पुरी को बसाया। इसलिए यह कला भी इनमें मौजूद है।
3 - कीर्ति
जिसके मान-सम्मान और यश की कीर्ति से चारों दिशाओं में गूंजती हो। लोग जिसके प्रति स्वतः ही श्रद्घा और विश्वास रखते हों वह तीसरी कला से संपन्न होता है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद है। लोग सहर्ष श्री कृष्ण की जयकार करते हैं।
4 - इला
चौथी कला का नाम इला है जिसका अर्थ है मोहक वाणी। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजद है। पुराणों में श्री उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण की वाणी सुनकर क्रोधी व्यक्ति भी अपना सुध-बुध खोकर शांत हो जाता था। मन में भक्ति की भावना भर उठती थी। यशोदा मैया के पास शिकायत करने वाली गोपियां भी कृष्ण की वाणी सुनकर शिकायत भूलकर तारीफ करने लगती थी।
5 - लीला 
पांचवीं कला का नाम है लीला। इसका अर्थ है आनंद। भगवान श्री कृष्ण धरती पर लीलाधर के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि इनकी बाल लीलाओं से लेकर जीवन की घटना रोचक और मोहक है। इनकी लीला कथाओं सुनकर कामी व्यक्ति भी भावुक और विरक्त होने लगता है।
6 - कांति 
जिनके रूप को देखकर मन स्वतः ही आकर्षित होकर प्रसन्न हो जाता है। जिसके मुखमंडल को देखकर बार-बार छवि निहारने का मन करता है वह छठी कला से संपन्न माना जाता है। भगवान राम में यह कला मौजूद थी। कृष्ण भी इस कला से संपन्न थे। कृष्ण की इस कला के कारण पूरा व्रज मंडल कृष्ण को मोहिनी छवि को देखकर हर्षित होता था। गोपियां कृष्ण को देखकर काम पीड़ित हो जाती थीं और पति रूप में पाने की कामना करने लगती थीं।
7 - विद्या 🌹
सातवीं कला का नाम विद्या है। भगवान श्री कृष्ण में यह कला भी मौजूद थी। कृष्ण वेद, वेदांग के साथ ही युद्घ और संगीत कला में पारंगत थे। राजनीति एवं कूटनीति भी कृष्ण सिद्घहस्त थे।
8 - विमल 
जिसके मन में किसी प्रकार का छल-कपट नहीं हो वह आठवीं कला युक्त माना जाता है। भगवान श्री कृष्ण सभी के प्रति समान व्यवहार रखते हैं। इनके लिए न तो कोई बड़ा है और न छोटा। महारास के समय भगवान ने अपनी इसी कला का प्रदर्शन किया था। इन्होंने राधा और गोपियों के बीच कोई फर्क नहीं समझा। सभी के साथ सम भाव से नृत्य करते हुए सबको आनंद प्रदान किया।
9 - उत्कर्षिणि
महाभारत के युद्घ के समय श्री कृष्ण ने नौवी कला का परिचय देते हुए युद्घ से विमुख अर्जुन को युद्घ के लिए प्रेरित किया और अधर्म पर धर्म की विजय पताका लहराई। नौवीं कला के रूप में प्रेरणा को स्थान दिया गया है। जिसमें इतनी शक्ति मौजूद हो कि लोग उसकी बातों से प्रेरणा लेकर लक्ष्य भेदन कर सकें।
10 - ज्ञान 🌹
भगवान श्री कृष्ण ने जीवन में कई बार विवेक का परिचय देते हुए समाज को नई दिशा प्रदान की जो दसवीं कला का उदाहरण है। गोवर्धन पर्वत की पूजा हो अथवा महाभारत युद्घ टालने के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगना यह कृष्ण के उच्च स्तर के विवेक का परिचय है।
11 - क्रिया 🌹
ग्यारहवीं कला के रूप में क्रिया को स्थान प्राप्त है। भगवान श्री कृष्ण इस कला से भी संपन्न थे। जिनकी इच्छा मात्र से दुनिया का हर काम हो सकता है वह कृष्ण सामान्य मनुष्य की तरह कर्म करते हैं और लोगों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। महाभारत युद्घ में श्री कृष्ण ने भले ही हाथों में हथियार लेकर युद्घ नहीं किया लेकिन अर्जुन के सारथी बनकर युद्घ का संचालन किया।
12 - योग 
जिनका मन केन्द्रित है, जिन्होंने अपने मन को आत्मा में लीन कर लिया है वह बारहवीं कला से संपन्न श्री कृष्ण हैं। इसलिए श्री कृष्ण योगेश्वर भी कहलाते हैं। कृष्ण उच्च कोटि के योगी थे। अपने योग बल से श्री कृष्ण ने ब्रह्मास्त्र के प्रहार से माता के गर्भ में पल रहे परीक्षित की रक्षा की। मृत गुरू पुत्र को पुर्नजीवन प्रदान किया।
13 - प्रहवि 
तेरहवीं कला का नाम प्रहवि है। इसका अर्थ विनय होता है। भगवान श्री कृष्ण संपूर्ण जगत के स्वामी हैं। संपूर्ण सृष्टि का संचलन इनके हाथों में है फिर भी इनमें कर्ता का अहंकार नहीं है। गरीब सुदामा को मित्र बनाकर छाती से लगा लेते हैं। महाभारत युद्घ में विजय का श्रेय पाण्डवों को दे देते हैं। सब विद्याओं के पारंगत होते हुए भी ज्ञान प्राप्ति का श्रेय गुरू को देते हैं। यह कृष्ण की विनयशीलता है।
14 - सत्य 
भगवान श्री कृष्ण की चौदहवीं कला का नाम सत्य है। श्री कृष्ण कटु सत्य बोलने से भी परहेज नहीं रखते और धर्म की रक्षा के लिए सत्य को परिभाषित करना भी जानते हैं यह कला सिर्फ श्री कृष्ण में है। शिशुपाल की माता ने कृष्ण से पूछा की शिशुपाल का वध क्या तुम्हारे हाथों होगी। श्री कृष्ण निःसंकोच कह देते हैं यह विधि का विधान है और मुझे ऐसा करना पड़ेगा।
यहां कृष्णा रिश्ते की डोर में बंधकर शिशुपाल की माता यानी अपनी बुआ से झूठ नहीं बोलते। इसी प्रकार अश्वत्थामा वध के समय श्री कृष्ण युधिष्ठिर से ऐसा झूठ बुलवाते हैं जो सत्य की सीमा में है और जिसके बोलने से युधिष्ठिर असत्य बोलने के पाप से भी बच जाते हैं।
15 - एषणा 
पंद्रहवीं कला का नाम इसना है। इस कला का तात्पर्य है व्यक्ति में उस गुण का मौजूद होना जिससे वह लोगों पर अपना प्रभाव स्थापित कर पाता है। जरूरत पड़ने पर लोगों को अपने प्रभाव को एहसास दिलाता है। कृष्ण ने अपने जीवन में कई बार इस कला का भी प्रयोग किया जिसका एक उदाहरण है मथुरा निवासियों को द्वारिका नगरी में बसने के लिए तैयार करना।
16 - अनुग्रह 
बिना प्रत्युकार की भावना से लोगों का उपकार करना यह सोलवीं कला है। भगवान श्री कृष्ण को कभी भक्तों से कुछ पाने की उम्मीद नहीं रखते हैं लेकिन जो भी इनके पास इनका बनाकर आ जाता है उसकी हर मनोकामना पूरी करते हैं।
अब तक हुए अवतारों में मत्स्य, कश्यप और वराह में एक एक कला, नृसिंह और वामन में दो दो और परशुराम मे तीन कलाएं व्यक्त हुई थी। राम बारह कला के अवतार थे और श्रीकृष्ण सोलह कला के माना जाता है कि भावी अवतार कल्कि भगवान चौबीस कला से संपन्न रहेंगे।
जय श्री राधे कृष्ण

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
सांई दीया दत घणां, तिसका वार न पार ।
दादू पाया राम धन, भाव भक्ति दीदार ॥ 
=========================== 

साभार ~ दिव्य प्रेम 
पारसमणि 
रवीन्द्र ठाकुर की एक बड़ी ही सीख देने वाली रचना है। एक आदमी को रात में सपने में भगवान् दिखाई दिये। उन्होंने उससे कहा कि जाओ, आमुक जगह पर एक साधु रहता है, उससे मिलो और उसके पास हीरा है, उसे ले लो। उस आदमी को लगा, भगवान की बात सही हो सकी है। सो अगले दिन उसने सबेरे उठकर उनके बताये स्थान पर साधु की खोज की। संयोग से साधु मिल गये। उसने उन्हें सपने में भगवान् के दर्शन देने और उनसे मिलकर हीरा लेने की बात बतायी। साधु ने कहा-"हाँ ठीक है। जाओ, वहाँ नदी-किनारे पेड़ के नीचे हीरा पड़ा है, उसे ले लो।" आदमी वहाँ गया और उसके अचरज का ठिकाना न रहा, जब उसने देखा कि पेड़ के नीचे सचमुच बड़ा कीमती हीरा पड़ा है। उसने हीरे को उठा लिया। खुशी से उसका दिल नाचने लगा।
अचानक उस आदमी के मन में एक विचार पैदा हुआ। साधु ने इसे यों ही क्यों डाल रखा है? जरूर उसके पास इस हीरे से भी मूल्यवान् कोई चीज़ है, जिसने ऐसी अनमोल चीज़ को मिट्टी के मोल बना दिया हैं यह हीरा तो आज है, कल नहीं। मुझे वही चीज़ प्राप्त करनी चाहिए, जो हीरे को भी ठीकरा कर देती है। इतना सोच उसने हीरे को नदी में फेंक दिया और साधू के पास चला गया।
यह घटना कवि के दिमाग की कोरी कल्पना नहीं है, इसमें बहुत बड़ी सच्चाई है। जिसके पास धन से भी कीमती कोई दूसरी चीज़ होती है, उसे धन फीका लगता है। किसी बुद्धिमान ने ठीक ही लिखा है, "जिसके पास केवल धन है, उससे बढ़कर ग़रीब और कोई नहीं है।" ऊँचे दर्जे के एक आदमी ने कितनी बढ़िया बात कहीं है, "मुझसे धनी कोई नहीं है, क्योंकि मैं सिवा भगवान् के और किसी का दास नहीं हूँ।"

= १९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू कोटि अचारिन एक विचारी, तऊ न सरभर होइ ।
आचारी सब जग भर्या, विचारी विरला कोइ ॥ 
दादू घट में सुख आनन्द है, तब सब ठाहर होइ ।
घट में सुख आनन्द बिन, सुखी न देख्या कोइ ॥ 
==============================
साभार ~ Rajnish Gupta
(((((((((( कर्म का रास्ता ))))))))))
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संत रविदास जूते बनाने का काम करते थे।
.
वे संन्यासियों और महात्माओं से बड़े स्नेह से मिलते और उनकी सेवा किया करते थे।
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एक बार उन्होंने एक संत की खूब सेवा की। संत उनसे बहुत खुश हुए। जब वह जाने लगे तो उन्होंने रविदास से कहा, मैं तुम्हें एक पारस पत्थर देना चाहता हूं।
.
अगर कोई लोहे की वस्तु इससे छू जाएगी तो वह सोना बन जाएगी।
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इतना कह कर उन्होंने पारस को उस लोहे की सूई से छुआ दिया, जिससे
रविदास जूते गांठते थे।
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रविदास ने कहा, अब मैं जूते किससे बनाऊंगा ?
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संत ने कहा, अब तुम्हें जूते बनाने की क्या जरूरत है ?
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जब भी पैसे चाहिए हों, इसको किसी
लोहे से छुआ देना।
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रविदास ने उसे लेने से इनकार कर दिया।
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लेकिन संत नहीं माने, बड़ा जोर डाला
और यह कहते हुए पारस पत्थर को उनके आसन के पास रख दिया कि इसकी मदद से जो चाहे करो।
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एक वर्ष बाद संत फिर उस रास्ते से गुजरे और रविदास की कुटिया तक पहुंचे।
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रविदास ने बड़े आदर भाव से उनकी सेवा की।
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संत ने कहा, तुम अभी तक इसी कुटिया में बैठे हो।
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मुझे उम्मीद थी कि तुमने पारस पत्थर की मदद से कोई मंदिर बनवाया होगा, पर तुम तो अब भी जूते बना रहे हो।
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रविदास ने उत्तर दिया, अगर मैं उस पत्थर का इस्तेमाल करने में लग जाता तो अपने कर्म से विमुख हो जाता।
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इसके बिना कोई भी व्यक्ति जीवन यात्रा नहीं कर सकता।
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निठल्ले बैठकर भोग करने से शरीर तो अस्वस्थ होता ही है, व्यक्ति ईश्वर की नजरों में भी गिर जाता है।
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कर्म से ही मनुष्य अपने चरम लक्ष्य तक पहुंच पाता है और मुझे अपने लक्ष्य तक हर हाल में पहुंचना है।
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(((((((( जय जय श्री राधे ))))))))
*******************************
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रविवार, 5 जून 2016

= १९० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
हंस गियानी सो भला, अन्तर राखे एक ।
विष में अमृत काढ ले, दादू बड़ा विवेक ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

एक बार की बात है, किसी राज्य में एक राजा था, जिसकी केवल एक टाँग और एक आँख थी।
उस राज्य में सभी लोग खुशहाल थे, क्यूंकि राजा बहुत बुद्धिमान और प्रतापी था। एक बार राजा के विचार आया कि क्यों खुद की एक तस्वीर बनवायी जाये।
फिर क्या था, देश विदेशों से चित्रकारों को बुलवाया गया और एक से एक बड़े चित्रकार राजा के दरबार में आये। राजा ने उन सभी से हाथ जोड़ कर आग्रह किया कि वो उसकी एक बहुत सुन्दर तस्वीर बनायें जो राजमहल में लगायी जाएगी।
सारे चित्रकार सोचने लगे कि, राजा तो पहले से ही विकलांग है, फिर उसकी तस्वीर को बहुत सुन्दर कैसे बनाया जा सकता है, ये तो संभव ही नहीं है, और अगर तस्वीर सुन्दर नहीं बनी तो राजा गुस्सा होकर दंड देगा। यही सोचकर सारे चित्रकारों ने राजा की तस्वीर बनाने से मना कर दिया। तभी पीछे से एक चित्रकार ने अपना हाथ खड़ा किया और बोला कि मैं आपकी बहुत सुन्दर तस्वीर बनाऊँगा जो आपको जरूर पसंद आएगी। फिर चित्रकार जल्दी से राजा की आज्ञा लेकर तस्वीर बनाने में जुट गया।
काफी देर बाद उसने एक तस्वीर तैयार की जिसे देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और सारे चित्रकारों ने अपने दातों तले उंगली दबा ली। उस चित्रकार ने एक ऐसी तस्वीर बनायीं जिसमें राजा एक टाँग को मोड़कर जमीन पे बैठा है और एक आँख बंद करके अपने शिकार पे निशाना लगा रहा है। राजा ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ कि उस चित्रकार ने राजा की कमजोरियों को छिपा कर कितनी चतुराई से एक सुन्दर तस्वीर बनाई है। राजा ने उसे खूब इनाम दिया।
तो, क्यों ना हम भी; दूसरों की कमियों को छुपाएँ, उन्हें नजर अंदाज करें और अच्छाइयों पर ध्यान दें। आजकल देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की कमियाँ बहुत जल्दी ढूंढ लेते हैं चाहें हममें खुद में कितनी भी बुराइयाँ हों लेकिन हम हमेशा दूसरों की बुराइयों पर ही ध्यान देते हैं कि अमुक आदमी ऐसा है, वो वैसा है।
इस कहानी से ये भी शिक्षा मिलती है कि कैसे हमें नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोचना चाहिए और किस तरह हमारी सकारात्मक सोच हमारी समस्यों को हल करती है।
( सब खुश रहैं )

सब का भला हो

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दान पुन्य तप तीरथ मेरे, केवल नाम तुम्हारा ।
यह सब मेरे सेवा पूजा, ऐसा बरत हमारा ॥
तारण तिरण नांव निज तेरा, तुमही एक आधारा ।
दादू अंग एक रस लागा, नांव गहै भव पारा ॥ 
===============================
साभार ~ RK Pathak via @Aparna Singh ~ 

रामकृष्ण के पास एक आदमी आया। उसने कहा : गंगा जा रहा हूं, काशी जा रहा हूं स्नान करने। परमहंस देव, आपका आशीर्वाद है न?
रामकृष्ण तो भोले – भाले, सीधे -सादे आदमी थे। कहते भी थे तो बात बड़ी मीठी कहते थे। कबीर जैसे नहीं थे कि उठाया एक टेंड्पा और मार दिया सिर पर! कबीर की अपनी रौनक है, अपनी शान है!
कबीर खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर बारै अपना चले हमारे साथ।।
कहते हैं : लट्ठ लिए खड़ा हूं, है कोई हिम्मतवार जो घर में आग लगा दे अपनी? लगा दे कोई घर में आग तो हमारे साथ चले! यह शर्त है।
रामकृष्ण तो और ढंग के व्यक्ति थे। बुद्धों में भी ढंग- ढंग के लोग हैं!… रामकृष्ण ने कहा कि ठीक है जाते हो तो जरूर जाओ, मगर एक बात तुम्हें बता दूं…। यह मीठी चोट है और कभी-कभी मीठी चोट कड्वी चोट से भी गहरी होती है, खयाल रखना। मुदिमार! कोई लट्ठ से नहीं मारी जाती। उसने कहा : जरूर कहें परमहंसदेव, क्या कहना है!
कहा : जरा पास आ, तेरे कान में कहूं। तू जा रहा है सो तो ठीक, लेकिन तूने देखा गंगा के किनारे बड़े -बड़े वृक्ष खड़े हैं!
उसने कहा : हा!
‘तुझे पता है वृक्ष क्यों खड़े हैं?’
‘मुझे कुछ पता नहीं। किसी शास्त्र में इसका उल्लेख भी नहीं है कि क्यों वृक्ष खड़े हैं। नदियों के किनारे वृक्ष होते हैं, सो वृक्ष हैं।
रामकृष्ण ने कहा : तुझे फिर पता नहीं। तू जब डुबकी मारेगा गंगा में तो गंगा की पवित्रता के कारण तेरे पाप धुल जाएंगे। मगर पाप इतनी आसानी से छोड़ने वाले नहीं। वे झाडों पर बैठ जाते हैं। फिर तू निकलेगा गंगा से, जब तू वापिस घर की तरफ चलेगा, उचक कर फिर सवार हो जाएंगे। तो अगर तू डुबकी मारे तो निकलना मत फिर, मार ही जाना डुबकी। नहीं तो बेकार हो गया सब। तेरी डुबकी वैसी होगी जैसे हाथी नहाने जाता है; खूब नहाता है, मल-मल कर नहाता है और फिर बाहर आ कर धूल फेंकता है। सब नहाया- धोया खराब कर लेता है। तो तू डुबकी मारे, अगर मेरी मान तो फिर मार ही जाना डुबकी, फिर निकलना मत।
उसने कहा : परमहंसदेव, आप क्या कह रहे हैं! क्या आत्महत्या करनी है, कि डुबकी मारी फिर निकलूं नहीं?
कहा : फिर जाना बेकार फिर आना -जाना ही होगा। वे झाडू पर बैठ जाएंगे चढ़ कर और रास्ता देखेंगे कि बच्चू? आओ… फिर सवार हो जाएंगे। इससे कुछ लाभ न होगा।
रामकृष्ण सीधे -सादे हैं। लट्ठ जैसा नहीं मारते। मगर मार दिया, मार दी कटार-ऐसी कि जो दिखाई भी नहीं पड़ती! यह आदमी गया नहीं फिर काशी, अब क्या खाक जाना है! अब पहले जाओ और काशी के सब झाडू कांटो और फिर पता नहीं झाडू कांटो तो वे कोई जमीन पर ही खड़े रहें। पाप ही हैं, जो झाडू पर चढ़ते हैं, तो जमीन पर ही खड़े रहें! मकानों पर बैठ जाएं। और पापों का क्या, बड़े सूक्ष्म हैं, हवा में पर मारें! वहीं ऊपर फड़फड़ करते रहें, तुम निकलो बाहर, फिर सवार हो जाएं। एक और गंगा है, जो तुम्हारे भीतर बह रही है। उस गंगा का नाम ध्यान है।




= १८८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू सुमिरण सहज का, दीन्हा आप अनंत ।
अरस परस उस एक सौं, खेलैं सदा बसंत ॥ 
दादू शब्द अनाहद हम सुन्या, नखसिख सकल शरीर ।
सब घट हरि हरि होत है, सहजैं ही मन थीर ॥ 
========================
साभार ~ Kripa Shankar B Mudgal ~ 
'राम' नाम और 'ॐ' की ध्वनि दोनों एक ही है :----
============================
कुछ संतों ने संस्कृत व्याकरण और आध्यात्मिक साधना दोनों से ही सिद्ध किया है कि तारक ब्रह्म 'राम' और 'ॐ' की ध्वनि दोनों एक ही हैं|
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संस्कृत व्याकरण की दृष्टी से -----
राम = र् + आ + म् + अ |
= र् + अ + अ + म् + अ ||
हरेक स्वर वर्ण पुल्लिंग होता है अतएव पूरा स्वतंत्र होता है| इसी तरह हर व्यंजन वर्ण स्त्रीलिंग है अतः वह परतंत्र है|
'आद्यन्त विपर्यश्च' पाणिनि व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार विश्लेषण किये गए 'राम' शब्द का 'अ' सामने आता है| इससे सूत्र बना --- अ + र् + अ + अ + म् |
व्याकरण का यह नियम है कि अगर किसी शब्द के 'र' वर्ण के सामने, तथा वर्ण के पीछे अगर 'अ' बैठते हों, तो उसका 'र' वर्ग 'उ' वर्ण में बदल जाता है|
इसी कारण राम शब्द के अंत में आने वाले र् + अ = उ में बदल जाते हैं|
इसलिए अ + र् + अ = उ
अर्थात उ + अ = ओ हुआ|
ओ + म् = ओम् या ॐ बन गए|
.
इसी तरह 'राम' शब्द के भीतर ही 'ॐ' मन्त्र निहित है| राम शब्द का ध्यान करते करते राम शब्द 'ॐ' में बदल जाता है| जिस प्रकार से ॐकार मोक्ष दिलाता है, उसी तरह से 'राम' नाम भी मोक्ष प्रदान करता है| इसी कारण से 'राम' मन्त्र को तारकब्रह्म कहते हैं|
.
जो साधक ओंकार साधना करते हैं और जिन्हें ध्यान में ओंकार की ध्वनी सुनती है वे एक प्रयोग कर सकते हैं| ध्यान में ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पिछले भाग में मेरु-शीर्ष (Medulla Oblongata) के ठीक ऊपर सुनाई देती है| यह प्रणव नाद मेरु-शीर्ष से सहस्त्रार और फिर समस्त ब्रह्माण्ड में फ़ैल जाता है| आप शांत स्थान में कमर सीधी रखकर आज्ञा चक्र पर दृष्टी रखिये और मेरुशीर्ष के ठीक ऊपर राम राम राम राम राम शब्द का खूब देर तक मानसिक जाप कीजिये| आप को ॐकर की ध्वनी सुननी प्रारम्भ हो जायेगी और राम नाम ॐकार में बदल जाएगा| कुछ समय के लिए कानों को अंगूठे से बंद कर सकते हैं| धन्यवाद| जय श्रीराम !
.
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
================
साभार ~ वेद ~ 

Ram and Aum:
Meditating on the name ॐ and meditating on the name राम (Ram) gives the same effects.

यथैव वटविजस्थ प्राकृतश्च महाद्रुमः |
तथैव रममन्त्रस्थ विद्यते चराचरं जगत् ||

“As the leaves branches flower fruit of banyan tree are latent in its seed, likewise the universe is latent in the name RAM”

If we decompress the word ram we get:

राम = र्+आ+म्+अ = र् +अ+अ+म्+अ

Swara Varna is male and independent; Vyanjan Varna is female and dependent. According to the rule of Panini Grammar “आद्यन्त विपर्ययश्च” in the decompress “राम” अ comes infront so it becomes= अ+र्+अ+अ+म्

Now र् +अ=उ 
उ+अ=ओ 
ओ+म् = ॐ 

So finally we get राम= ॐ 

This is how the ॐ is hidden in the word राम

We know that ॐ called the Pranava, a Sanskrit word which means both controller of life force (prana) and life-giver (infuser of prana). ॐ is the Brahman [Katha Upanshad-1.2.15,16,17; Chāndogya Upanishad 1.1.1-1; The Bhagavad Gitā 8.13, 17.23]. One who meditates on ॐ will attain Brahman; Ram is the same as ॐ so one who meditates on Ram will attain the Brahman also. This is the reason राम (Ram) word is called तारकब्रह्म (tarak Brahma).

शनिवार, 4 जून 2016

= १८७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू साचा अंग न ठेलिये, साहिब माने नांहि ।
साचा सिर पर राखिये, मिलि रहिये ता माँहि ॥ 
जे कोई ठेले साच कौं, तो साचा रहै समाइ ।
कौड़ी बर क्यों दीजिये, रत्न अमोलक जाइ ॥ 
=============================
साभार ~ Ridhi Sidhi
कोई भी सिद्धि तभी तक कायम रहती है, जब तक कि उसका अनुशासन नहीं तोड़ा जाए। हर सिद्धि का अपना एक अनुशासन होता है जैसे वाकसिद्धि यानी बोली की सिद्धि तभी तक होती है जब तक आप सच बोलते हैं। भूले से भी बोला गया एक झूठ कई वर्षों की वाक सिद्धि को खत्म कर सकता है। एक निरपराध का मारने से वर्षों की युद्ध निपुणता खत्म हो सकती है। अगर आप किसी सिद्धि के साथ हैं तो उसके अनुशासन को लगातार पालन करते रहे। एक चूक आपकी वर्षों की मेहनत को धूल में मिला सकता है।
महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्म तीरों की शैय्या पर लेट चुके थे। कौरव सेना की बागडोर गुरु द्रौणाचार्य के हाथ में थी। द्रौणाचार्य लगातार नई-नई व्यूह रचनाओं से पांडवों की सेना का नाश कर रहे थे। पांडवों की सेना में हड़कंप मचा हुआ था।
कृष्ण ने कहा किसी भी सूरत में द्रौणाचार्य को रोकना होगा, नहीं तो पांडव सेना समाप्त हो जाएगी। द्रौणाचार्य को शस्त्रों से रोकना मुश्किल था, सो कूट नीति का सहारा लिया गया। 
कौरव सेना के एक हाथी का नाम अश्वत्थामा था, कृष्ण ने भीम को कहा कि उसे मार दे। भीम ने ऐसा ही किया। और शोर मचाया कि मैंने अश्वत्थामा को मार दिया। अश्वत्थामा द्रौण के पुत्र का नाम भी था। वो इसकी पुष्टी करने के लिए युधिष्ठिर के पास गए। युधिष्ठिर से पूछा कि क्या वाकई अश्वत्थामा मारा गया है तो उन्होंने कहा हां मारा गया। इसी बीच कृष्ण ने विजयी शंख फूंक दिया। युधिष्ठिर ने यह भी कहा हाथी या मनुष्य यह नहीं पता। लेकिन द्रौण शंख के शोर में ये सुन नहीं पाए।
वे पुत्रशोक में ध्यान लगाकर बैठे और धृष्ठघुम्र ने उनका सिर काट दिया।
युधिष्ठिर ने सत्यव्रत लिया था। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे। कहते हैं इसी के प्रभाव से उनका रथ धरती से तीन अंगुल ऊपर चलता था। द्रौणाचार्य से बात के बाद उनका रथ जमीन पर आ गया। युधिष्ठिर ने झूठ नहीं बोला लेकिन उन्होंने एक झूठे कर्म में सहयोग दिया। इस कर्म के कारण उनकी सत्य सिद्धि जाती रही। हम जब भी कोई सिद्धि पाएं तो उसके अनुशासन को भूलकर भी ना तोड़ें। नहीं तो वह सिद्धि पलभर में हमारा साथ छोड़ देगी

= १८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू भावै तहाँ छिपाइए, साच न छाना होइ ।
शेष रसातल गगन धू, प्रगट कहिये सोइ ॥ ११० ॥ 
हे जिज्ञासुओ ! शेष जी पाताल में भजन करते हैं और ध्रुव जी आकाश में परमेश्वर की भक्ति करते हैं, किन्तु यह वार्ता समस्त लोकों में प्रसिद्ध है । इससे स्पष्ट है कि सत्य को चाहे जहाँ छिपाओ, परन्तु वह प्रकट होकर रहेगा । शेष जी और ध्रुव जी के आख्यान से यह अभिप्राय है कि दोनों भक्तों में स्थान से तो अन्तर है, एक आकाश में है और एक पाताल में है, परन्तु भक्ति में अन्तर नहीं है । दोनों भक्त समान प्रसिद्ध हैं, क्योंकि भगवत् तो अविनाशी और एकरस हैं ॥ ११० ॥ 

दादू कहाँ था नारद मुनिजना, कहाँ भक्त प्रहलाद । 
परगट तीनों लोक में, सकल पुकारैं साध ॥ १११ ॥ 
हे जिज्ञासुओ ! नारद मुनि किस कुल में हुए थे ? अर्थात् दासी पुत्र थे और अब कहाँ हैं ? त्रिलोकी में गमन करने की उनकी सदैव शक्ति है । इसी प्रकार प्रह्लाद राक्षस कुल में हुआ । उसकी ईश्वर भक्ति-अद्वितीय थी, ऐसी कथा है । किन्तु ये तीनों लोकों में सदा विख्यात हैं और समस्त साधु-महात्मा उनके गुणों का वर्णन करते हैं ॥ १११ ॥

दादू कहाँ शिव बैठा ध्यान धरै, कहाँ कबीरा नाम । 
सो क्यों छाना होइगा, जेरु कहैगा राम ॥ ११२ ॥ 
हे जिज्ञासुओं ! विचार करो शिवजी, परमात्मा का कहाँ ध्यान कर रहे हैं ? कहिए कैलास में, किन्तु उनकी कीर्ति सर्वत्र व्याप्त है । और कबीर जी राम-नाम का कहाँ जाप करते थे ? हे जिज्ञासु ! कबीर जी जुलाहे के कुल में उत्पन्न होकर ह्रदय में राम-नाम का स्मरण करके प्रसिद्ध हो रहे हैं । इसीलिए यह सत्य है कि जो कोई अब भी भगवत् भजन करेंगे, उनकी कीर्ति कहिए, यश सर्वत्र प्रकाशमान रहेगा ॥ ११२ ॥ 

दादू कहाँ लीन शुकदेव था, कहाँ पीपा, रैदास ।
दादू साचा क्यों छिपै, सकल लोक प्रकास ॥ ११३ ॥ 
हे जिज्ञासुओं ! देखो, शुकदेव जी तोता के शरीर में प्रभु-स्मरण में लीन हुए और भक्त पीपा जी भगवद् भक्ति से महान् भक्त कहलाए । ये गढ़ गागरोन के राजा थे । आम लोग इनके बारे में नहीं जानते । परन्तु भगवत् भक्ति के प्रभाव से इनका प्रकाश समस्त संसार में व्याप्त हो रहा है, क्योंकि जो सच्चे ईश्वर के भक्त हैं, उनकी अल़ोकिक महिमा छिपी कैसे रह सकती है ॥ ११३ ॥ 

दादू कहाँ था, गोरख, भरथरी, अनंत सिधों का मंत । 
परगट गोपीचन्द है, दत्त कहैं सब संत ॥ ११४ ॥ 
हे जिज्ञासुओं ! देखिए गोरखनाथ जी कहाँ हुए ? सुना जाता है कि गऊ के पेट से गोरखनाथ जी उत्पन्न हुए । परन्तु वे योग-बल से त्रिकाल में और तीनों लोकों में भगवद् भक्तों की परीक्षा करने वाले पारखी कहे जाते हैं । इसी प्रकार भरथरी जी, गोपीचन्द जी और दत्तात्रेय जी, ये सब संत प्रकट कहिए, अमर हैं । इसलिए सत्य-स्वरूप परमात्मा का दर्शन ही "मत'' कहिए, अनन्त सिद्धों का सिद्धान्त है । अथवा इस सत्य-मार्ग का अनुकरण करके ही अनन्त सिद्ध हुए हैं और होवेंगे ॥ ११४ ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मरबो एक जु बार, अमर झुकेड़े मारिये ।
तो तिरिये संसार, आतम कारज सारिये ॥
दादू जे तूं प्यासा प्रेम का, तो जीवन की क्या आस ।
शिर के साटे पाइये, तो भर भर पीवै दास ॥ 
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साभार ~ दिव्य प्रेम
ख़ुद मिटे तो वो मिले ~ बुद्ध के जीवन में उल्लेख है :
एक गांव में यज्ञ हो रहा है और गांव का राजा एक बकरे को बलि चढ़ा रहा है। बुद्ध गांव से गुजरे हैं, वे वहां पहुंच गए। और उन्होंने उस राजा से कहा कि यह क्या कर रहे हैं? इस बकरे को चढ़ा रहे हैं, किसलिए? तो उसने कहा कि इसके चढ़ाने से बड़ा पुण्य होता है। तो बुद्ध ने कहा,मुझे चढ़ा दो तो और भी ज्यादा पुण्य होगा। वह राजा थोड़ा डरा। बकरे को चढ़ाने में कोई हर्जा नहीं, लेकिन बुद्ध को चढ़ाना! उसके भी हाथ-पैर कंपे। और बुद्ध ने कहा कि अगर सच में ही कोई लाभ करना हो तो अपने को चढ़ा दो। बकरा चढ़ाने से क्या होगा? 
उस राजा ने कहा :ना, बकरे का कोई नुकसान नहीं है, यह स्वर्ग चला जाएगा। बुद्ध ने कहाःयह बहुत ही अच्छा है, मैं स्वर्ग की तलाश कर रहा हूं, तुम मुझे चढ़ा दो, तुम मुझे स्वर्ग भेज दो। और तुम अपने माता-पिता को क्यों नहीं भेजते स्वर्ग और खुद को क्यों रोके हुए हो? जब स्वर्ग जाने की ऐसी सरल और सुगम तुम्हें तरकीब मिल गई तो काट लो गर्दन। बकरे को बेचारे को क्यों भेज रहे हो जो शायद जाना भी न चाहता हो स्वर्ग? बकरे को खुद ही चुनने दो कहां उसे जाना है। उस राजा को समझ आई। उसे बुद्ध की बात खयाल में पड़ी।
यह बड़ी सचोट बात थी। आदमी ने सब चढ़ाया है.. धन चढ़ाया, फूल चढ़ाए। फूल भी तुम्हारे नहीं.. वे परमात्मा के हैं। वृक्षों पर चढ़े ही हुए थे। वृक्षों पर परमात्मा के चरणों पर ही चढ़े थे। वृक्षों के ऊपर से उनको परमात्मा की यात्रा हो ही रही थी। वहीं तो जा रही थी वह सुगंध, और कहां जाती? तुमने उनको वृक्षों से तोड़ कर मुर्दा कर लिया। और फिर मुर्दा फूलों को जाकर मंदिर में चढ़ा आए। और समझे कि बड़ा काम कर आए। कभी धूप-दीप जलाए, कि कभी जानवर चढ़ाए, कि कभी आदमी भी चढ़ा दिए! अपने को कब चढ़ाओगे?
"और जो अपने को चढ़ाता है, वही उसे पाता है।"!!..
ओशो !

शुक्रवार, 3 जून 2016

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू आपा उरझे उरझिया, दीसे सब संसार ।
आपा सुरझे सुरझिया, यहु गुरु ज्ञान विचार ॥ 
जब समझ्या तब सुरझिया, उलट समाना सोइ ।
कछु कहावै जब लगै, तब लग समझ न होइ ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta 
(((((((( जीवन कैसे जिया जाए ))))))))
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भ्रमण पर निकले एक संत की मुलाकात किसी शहर में एक बुजुर्ग से हुई।
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बुजुर्ग संत को अपने घर ले गए। उनका भरा-पूरा परिवार था। घर में बेटे-बहुओं के अलावा पौत्र-पौत्रियां भी थे।
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संत ने पूछा- आपके घर में तो सुख समृद्धि का वास लगता है। वैसे अब आप करते क्या हैं ?
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बुजुर्ग ने कहा- अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता। ईश्वर की दया से हमारा अच्छा कारोबार है,
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सारी जिम्मेदारियां अब मैंने अपने बेटों को सौंप दी हैं। घर का जिम्मा बहुएं संभालती हैं। इसी तरह जीवन चल रहा है।
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संत ने पूछा- पर आपको कुछ तो करना ही पड़ता होगा। बुढ़ापे में आपके इस सुखी जीवन का रहस्य क्या है ?
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संत की बात सुनकर बुजुर्ग मुस्कराया और बोला- मैंने जीवन के इस मोड़ पर एक ही फलसफा अपनाया है कि दूसरों से ज्यादा अपेक्षाएं मत पालो।
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जो मिले, उसमें संतुष्ट रहो। मैं और मेरी पत्नी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने बेटे-बहुओं को सौंपकर निश्चिंत हैं।
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अब वे जो कहते हैं, वह मैं कर देता हूं और जो कुछ भी खिलाते हैं, खा लेता हूं। अपने पौत्र पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूं।
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बच्चे जब कुछ भूल करते हैं, तब भी मैं चुप रहता हूं।
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जब कभी वे मेरे पास राय-मशविरे के लिए आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखते हुए उनके द्वारा की गई भूल से उत्पन्न दुष्परिणामों की ओर सचेत कर देता हूं।
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मेरी सलाह पर वे कितना अमल करते हैं, यह देखना मेरा काम नहीं है। यदि वे मेरे पास पुन: आते हैं तो मैं नेक सलाह देकर उन्हें विदा करता हूं।
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यह सुनकर संत बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा- इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए, यह आपने बखूबी समझ लिया है।
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(((((((( जय जय श्री राधे ))))))))
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