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रविवार, 3 अप्रैल 2016

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
सुख मांहि दुख बहुत हैं, दुख मांही सुख होइ ।
दादू देख विचार कर, आदि अंत फल दोइ ॥ 
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साभार ~ ऊँ नारायण नारायण
पांडवों के जीवन में अनगिनत दुःख आये लेकिन उन्होंने इन दुखों को अपना प्रारब्ध मान कर सहा। उन्होंने कभी इन बातों की शिकायत श्रीकृष्ण से नहीं की जो उनके परम् स्नेही थे निकट के संबंधी थे और उस पर पांडव ये भी जानते थे की कृष्ण परम् भगवान हैं।
पांडवों को कृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा थी। उन्होंने हर स्थिति में कृष्ण पर अपना विश्वास रखा और उनकी शरण में हमेशा अपने आपको सुखी समझा चाहे स्थितियां कितनी भी विपरीत रही हो।
जब युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों को उनका राज्य मिल गया तब कृष्ण वापिस द्वारिका जाने लगे तो पांडवों की माता कुंती महारानी ने उनसे प्रार्थना की जो बड़ी अद्भुत है और एक शुद्ध भक्त ही ये प्रार्थना कर सकता है।
उन्होंने भगवान से कहा कि हे गोविन्द हमारी जिंदगी में हमेशा दुःख ही दुःख आये ताकि आप हमेशा हमारे साथ रहो। आपने हमारे दुःख से समय में एक पल भी हमें नहीं छोड़ा और आज जब सुख आया है तो आप हमें छोड़ कर जा रहे हो। ऐसा सुख किस काम का जिसमे आप हमारे साथ नहीं रहो इससे तो दुःख ही अच्छा था जो आप हमारे साथ हर कदम पर थे।
कथा का तात्पर्य यही है की दुःखों से कभी घबराना नहीं चाहिए। जैसे एक काबिल व्यक्ति को ही मुश्किल कार्य दिए जाते हैं उसी तरह जो भगवान के प्रिय होते है उन्हीं की परीक्षा भगवान लेते हैं। दुःख में हम समझते है की हमारा कोई नहीं है पर ये हमारी अज्ञानता है। भगवान हर पल हमारे साथ होते हैं पर अज्ञानता के कारण हम उन्हें महसूस नहीं कर पाते।
जहाँ कृष्ण है वहाँ अन्धकार नहीं है आइये इस भौतिक जगत की माया के अन्धकार को पीछे छोड़ते हुए कृष्ण की शरण की और चले जहाँ केवल परम् आनंद है।
नारायण नारायण 
लक्ष्मीनारायण भगवान की ज

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू औगुण गुण कर माने गुरु के, सोई शिष्य सुजाण ।
सतगुरु औगुण क्यों करै, समझै सोई सयाण ॥ 
सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ ।
दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥ 
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साभार ~~~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
*****गुरू का हुक्म *****
गुरू नानक साहिब ने अपने सेवकों को मुर्दा खाने का हुक्म दिया । देखने में यह मुनासिब हुक्म नहीं था । हम मुर्दें को छू जाने पर नहाते हैं । फिर खाये कौन ? सब भाग गये । एक भाई लहना खङे रहे और आगे आकर मुर्दे के चारों और फिरे, गुरू नानक साहिब ने पूछा यह क्या करते हो ? तब उत्तर दिया दिया, "महाराज जी ! मैं देखता था कि किस तरफ से खाना शुरू करूं । पैरों की ओर से या सिर की ओर से ?" जब खाने लगे तो हलवा प्रसाद निकला । यह सबको नाजायज हुक्म लगा था, लेकिन भाई लहना को नहीं । 
गुरू नानक साहिब ने उनको गुरू गद्दी का हकदार बना दिया और वे भाई लहना से गुरू अंगद साहिब बन गये । इसी तरह जब गुरू गोविन्दसिंह ने अपने शिष्यो की परख की तब पाँच हजार में से सिर्फ पाँच प्यारे निकले । जब गुरू परखता है तो बङे बङे फेल हो जाते है जीव का इम्तहान में पास होना बङी मुश्किल बात है । गुरू किसी का इम्तिहान न ले । 
## सत्य राम सा

= १९८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू देखत ही भया, श्याम वर्ण तैं सेत ।
तन मन यौवन सब गया, अजहुँ न हरि सौं हेत ॥ 
दादू झूठे के घर देख कर, झूठे पूछे जाइ ।
झूठे झूठा बोलते, रहे मसाणों आइ ॥ 
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya ~ 
एक बहुत ही पुरानी कहानी है, हुआ कुछ यूँ था कि, एक चतुर व्यक्ति को अपनी मृत्यु से बहुत डर लगता था, इसीलिए, एक दिन उसे चतुराई सूझी और "काल" को अपना मित्र बना लिया, और, उससे कहा - मित्र, तुम किसी को भी नहीं छोड़ते हो, किसी दिन मुझे भी "काल में धेर लोगे"।

काल ने कहा - सृष्टि नाटक का यह शाश्वत नियम है, इसीलिए मैं मजबूर हूँ,. लेकिन, आप मेरे मित्र हैं, इसीलिए, मैं आपकी जितनी सेवा कर सकता हूँ जरूर करूँगा, आप मुझ से क्या आशा रखते हैं बताइये ? इस पर उस चतुर व्यक्ति ने कहा, मैं इतना ही चाहता हूँ कि आप मुझे लेने पधारने से कुछ दिन पहले एक पत्र अवश्य लिख देना, ताकि, मैं अपने बाल - बच्चों को कारोबार की सभी बाते अच्छी तरह से समझा दूँ और, स्वयं भी भगवान के भजन में लग जाऊँ।

उस व्यक्ति की ऐसी बातें सुनते ही काल ने बहुत प्रेम से कहा, यह कौन सी बड़ी बात है, मैं आपको लेने आने से पहले, एक नहीं आपको चार पत्र भेज दूँगा, ये सुनकर वो मनुष्य बड़ा प्रसन्न हुआ सोचने लगा कि आज से मेरे मन से काल का भय भी निकल गया और अब मैं जाने से पूर्व अपने सभी कार्य पूर्ण करके जाऊँगा, तो देवता भी मेरा स्वागत करेंगे.......!

दिन बीतते गये, आखिर मृत्यु की घड़ी आ पहुँची, नियत समय पर काल अपने दूतों सहित उस चतुर व्यक्ति के समीप आकर कहने लगा आपके नाम का वारंट मेरे पास है मित्र चलिए ! मैं सत्यता और दृढ़तापूर्वक अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए एक क्षण भी तुम्हें और यहाँ नहीं छोड़ूँगा, ये सुनते ही, मनुष्य के माथे पर बल पड़ गये और, उसकी भृकुटी तन गयी तथा, कहने लगा धिक्कार है तुम्हारे जैसे मित्रों पर, मेरे साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ? तुमने तो मुझे वचन दिया था कि लेने आने से पहले पत्र लिखूँगा ???? मुझे बड़ा दुःख है कि तुम बिना किसी सूचना के अचानक ही दूतों सहित मेरे ऊपर चढ़ आए और, मित्रता तो दूर रही तुमने अपने वचनों तक को भी नहीं निभाया।

काल हँसा और बोला, मित्र इतना झूठ तो न बोलो। तुम तो मेरे सामने ही मुझे झूठा सिद्ध कर रहे हो, क्योंकि, मैंने आपको एक नहीं चार पत्र भेजे, परन्तु, आपने एक भी उत्तर नहीं दिया। मनुष्य ने चौंक कर पूछा कौन से पत्र .????? कोई प्रमाण है ?????????? मुझे पत्र प्राप्त होने की कोई डाक रसीद आपके पास है तो दिखाओ ?????? काल ने कहा - मित्र, घबराओ नहीं क्योंकि मेरे चारों पत्र इस समय आपके पास मौजूद हैं। 

मेरा पहला पत्र आपके सिर पर चढ़कर बोला और, आपके काले सुन्दर बालों को पकड़ कर उन्हें सफ़ेद कर दिया साथ ही यह भी सन्देश दिया कि सावधान हो जाओ तथा, जो करना है कर डालो। नाम, बड़ाई और धन-संग्रह के झंझटो को छोड़कर भजन में लग जाओ पर, मेरे पत्र का आपके ऊपर जरा भी असर नहीं हुआ। बनावटी रंग लगा कर आपने अपने बालों को फिर से काला कर लिया और, पुनः जवान बनने के सपनों में खो गए। आज तक मेरे श्वेत अक्षर आपके सिर पर लिखे हुए हैं।

कुछ दिन बाद मैंने दूसरा पत्र आपके नेत्रों के प्रति भेजा और, नेत्रों की ज्योति मंद होने लगी फिर भी आँखों पर मोटे शीशे चढ़ा कर आप जगत को देखने का प्रयत्न करने लगे। आपने दो मिनट भी संसार की ओर से आँखे बंद करके, ज्योतिस्वरूप प्रभु का ध्यान, मन में नहीं किया जब आप इतने पर भी सावधान नहीं हुए......

तो, मुझे आपकी दीनदशा पर बहुत तरस आया और मित्रता के नाते मैंने तीसरा पत्र भी भेजा। मेरे इस इस पत्र ने आपके दाँतो को छुआ, हिलाया और तोड़ दिया परन्तु, अपने इस पत्र का भी जवाब न देखकर जबरदस्ती नकली दाँत लगवाये और जबरदस्ती संसार के भौतिक पदार्थों का स्वाद लेने लगे। आपके इन कृत्यों पर मुझे बहुत दुःख हुआ कि मैं सदा इसके भले की सोचता हूँ और, यह हर बार एक नया, बनावटी रास्ता अपनाने को तैयार रहता है।

तब अपने अन्तिम पत्र के रूप में मैंने रोग-क्लेश तथा पीड़ाओं को भेजा परन्तु, आपने अहंकार वश सब अनसुना कर दिया। इस तरह जब उस चतुर मनुष्य ने काल के भेजे हुए पत्रों को समझा तो, फूट - फूट कर रोने लगा और, अपने विपरीत कर्मों पर पश्चाताप करने लगा।

उसने स्वीकार किया कि मैंने गफलत में शुभ चेतावनी भरे इन पत्रों को नहीं पढ़ा और, मैं सदा यही सोचता रहा कि कल से भगवान का भजन करूँगा अपनी कमाई अच्छे शुभ कार्यो में लगाऊँगा पर वह कल नहीं आया। इस पर काल ने कहा आज तक तुमने जो कुछ भी किया, राग-द्वेष, स्वार्थ और भोगों के लिए किया। जो जान-बूझकर ईश्वरीय नियमों को जो तोड़ता है, वह अक्षम्य है। अंततः जब उस मनुष्य को जब बातों से काम बनते हुए नज़र नहीं आया तो, उसने काल को करोड़ों की सम्पत्ति का लोभ दिखाया।

जिस पर काल ने हँसकर कहा यह मेरे लिए धूल है क्योंकि लोभ संसारी लोगो को वश में कर सकता है, मुझे नहीं यदि तुम मुझे लुभाना ही चाहते थे तो, सच्चाई और शुभ कर्मों का धन संग्रह करते। काल ने जब मनुष्य की एक भी बात नहीं सुनी तो, वह हाय-हाय करके रोने लगा और, सभी सम्बन्धियों को पुकारा परन्तु काल ने उसके प्राण पकड़ लिए और चल पड़ा अपने गन्तव्य की ओर।
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= १९७ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू चन्दन कद कह्या, अपना प्रेम प्रकाश ।
दह दिशि प्रगट ह्वै रह्या, शीतल गंध सुवास ॥
दादू पारस कद कह्या, मुझ थीं कंचन होइ ।
पारस परगट ह्वै रह्या, साच कहै सब कोइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन (प्रवचन -पैंसठवां)...osho
जैसे सूरज निकलता है और फूल खिल जाते हैं; कोई सूरज को आकर फूलों को खिलाना नहीं पड़ता। सूरज निकलता है, पक्षी गीत गाने लगते हैं; कोई एक-एक पक्षी के कंठ को खटखटाना नहीं पड़ता कि अब गीत गाओ। सूरज कुछ करता ही नहीं; उसकी मौजूदगी, और जीवन संचरित हो जाता है।

जिस दिन आपके भीतर आप सिर्फ मौजूद होते हैं–शांत मौजूद, जस्ट योर प्रेजेंस, सिर्फ उपस्थिति–आपकी उपस्थिति में जो महाशक्ति प्रकट हो जाती है, विजय घट जाती है। भीतर की विजय कोई संघर्ष नहीं है। भीतर की विजय कोई युद्ध नहीं है। भीतर की विजय कोई दमन नहीं है।

लाओत्से कहता है, “जो दूसरों को जीतता है वह पहलवान है; और जो स्वयं को जीतता है वह शक्तिशाली।’

जो दूसरों को जीतता है वह व्यर्थ ही अपनी शक्ति खो रहा है। आखिर में उसके हाथ खाली रह जाएंगे। आखिर में वह पाएगा, उसकी मुट्ठियों में सिवाय राख के और कुछ भी नहीं है। और जो स्वयं को जीत लेता है वही वस्तुतः शक्ति का उपयोग कर रहा है। उसने जीवन-ऊर्जा में जो भी छिपा था मूल्यवान, सुंदर, सत्य, वह सभी पा लिया है।

आप दो तरह का उपयोग कर सकते हैं शक्ति का: एक तो बाहर दूसरों को जीतने में और एक भीतर स्वयं को जीतने में। दोनों का गणित अलग है और दोनों का तंत्र अलग है, दोनों के काम का ढंग अलग है। बाहर शक्ति को हिंसात्मक होना पड़ता है; भीतर शक्ति को अहिंसात्मक होना पड़ता है। बाहर शक्ति विध्वंस करती है; भीतर शक्ति सृजनात्मक हो जाती है–आत्म-सृजन, स्वयं का आविष्कार।

लेकिन भाषा की मजबूरी है। हम जो बाहर के लिए उपयोग करते हैं वही भीतर के लिए उपयोग करना पड़ता है। लेकिन आप फर्क समझ लेंगे। यह कोई जीत नहीं है, क्योंकि यहां न कोई हारने को है भीतर और न कोई जीतने को है। यहां दो नहीं हैं कि हार-जीत हो सके। इसलिए जो लड़ने में लग जाता है वह द्वंद्व में पड़ जाता है। और उसका द्वंद्व उसे और भी रुग्ण कर देता है। द्वंद्वग्रस्त संन्यासी, साधक, योगी चौबीस घंटे एक ही काम में लगा है, अपने से लड़ने के काम में लगा है। इस काम में कभी भी विजय आती नहीं। कौन जीतेगा? कौन हारेगा? वहां दो नहीं हैं। और इस लड़ने में वह अपनी शक्ति खो रहा है।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

= १९६ =

卐 सत्यराम सा 卐
रत्न पदारथ माणिक मोती, हीरों का दरिया ।
चिंतामणि चित रामधन, घट अमृत भरिया ॥
समर्थ शूरा साधु सो, मन मस्तक धरिया ।
दादू दर्शन देखतां, सब कारज सरिया ॥ 
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साभार ~ Indu Mahajan.......... 

एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वह अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।
उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मंत्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा, "मैं सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरूरत है।"
इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया।
अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, "उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।" राजा को विस्मय हुआ! जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहा है कि उसके पास सबकुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, "आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।"
राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।
कणाद ने कहा, "गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।" एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है, वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।
यह कैसी धर्म-साधना?
एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, "मेरी पत्नी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती। यदि आप उसे थोड़ा समझा दें तो बड़ा अच्छा हो।" साधु बोला, "ठीक है।" अगले दिन सबेरे ही वह साधु उसके घर गया। पति वहां नहीं था। उसने उसके सम्बंध में पत्नी से पूछा। पत्नी ने कहा, "जहां तक मैं समझती हूं, वह इस समय चमार की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।" पति पास के पूजाघर में माला फेर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। बाहर आकर बोला, "यह बिल्कुल गलत है। मैं पूजाघर में था।"
साधु हैरान हो गया। पत्नी ने यह देखा तो पूछा, "सच बताओं कि क्या तुम पूजाघर में थे? क्या तुम्हारा शरीर पूजाघर में, माला हाथ में और कहीं नहीं था?" पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। उसे जूते खरीदने थे और रात को ही उसने अपनी पत्नी से कहा था कि सबेरा होते ही खरीदने जाऊंगा। माला फेरते-फेरते वास्तव में उसका मन चमार की दुकान पर पहुंच गया था और चमार से जूते के मोल-तोल पर कुछ झगड़ा हो रहा था।
विचार को छोड़ों और निर्विचार हो जाओ तो तुम जहां हो, वहीं प्रभु का आगमन हो जाता है।

= १९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जीव न जानै राम को, राम जीव के पास ।
गुरु के शब्दों बाहिरा, तातैं फिरै उदास ॥ 
दादू जा कारण जग ढूंढिया, सो तो घट ही मांहि ।
मैं तैं पड़दा भरम का, तातैं जानत नांहि ॥ 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com  

मनुष्य सब तरफ दौड़ चुका होता है और हाथ आती है हार, सब पा लेता है और सब व्यर्थ हो जाता है। जिस क्षण अनुभव हो जाए कि सब दौड़ व्यर्थ है,उस क्षण मनुष्य स्वयं को परमात्मा मे ही पाता है। जिस क्षण ये अनुभव मे आ गया कि दौड़ कर मिला कुछ नहीँ, पाया कुछ नहीँ, उस क्षण दौड़ समाप्त हुई। फिर न दौड़ने की वजह से वह दिखाई पड़ जाता है, जो दौड़ने के कारण दिखाई नहीँ पड़ रहा था।
यदि सारी दौड़ व्यर्थ हो जाए तो दृष्टि घूम जाती है। जो अटकाव बाहर था, वह समाप्त हुआ। संसार में देखने योग्य, पाने योग्य, खोजने योग्य कुछ नहीँ रह जाता। संसार की वासना समाप्त हुई। वासना है दूर जाने का मार्ग। निर्वासना है पास आने का मार्ग। इसीलिये समस्त बुद्ध पुरुषोँ ने निर्वासना पर इतना जोर दिया है।
"शरीर के भीतर छिपा है वह अजन्मा नित्य।"
कभी पैदा नहीँ हुआ जो-सदा है, और सदा है, और सदा है। ऐसा जो अजन्मा नित्य है, वह इसी शरीर के भीतर छिपा है,लेकिन शरीर को उसका कोई पता नहीँ। अग्नि के भीतर छिपा है, अग्नि को पता नहीँ। सब जगह छिपा है, जहां छिपा है, जिसके भीतर छिपा है, उसे पता नहीँ। क्योँ? क्योँकि जिसके भीतर छिपा है, वह बाहर दौड़ रहा है।

= १९४ =

卐 सत्यराम सा 卐
साध सदा संयम रहै, मैला कदे न होइ ।
शून्य सरोवर हंसला, दादू विरला कोइ ॥
साहिब का उनहार सब, सेवक मांही होइ ।
दादू सेवक साधु को, दूजा नांही कोइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन—(प्रवचन—पैंसठवां)...osho
दलाई लामा तिब्बत से जब हटे तो चीन की पूरी कोशिश थी कि दलाई लामा तिब्बत से हट न पाएं। उन्नीस सौ उनसठ में, जो लोग भी धर्म के गुह्य रहस्य से परिचित हैं, उन सबके लिए एक ही खयाल था कि दलाई लामा किसी तरह तिब्बत से बाहर आ जाएं और उनके साथ तिब्बत के बहुमूल्य ग्रंथ और तिब्बत के कुछ अनूठे साधक और संन्यासी भी तिब्बत के बाहर आ जाएं। लेकिन बाहर आ सकेंगे, यह असंभावना थी। कोई चमत्कार हो जाए तो ही बाहर आने का उपाय था। क्योंकि दलाई लामा के पास कोई आधुनिक साज-सामान नहीं; कोई फौज, कोई बम, कोई हवाई जहाज, कोई सुरक्षा का बड़ा उपाय नहीं। और चीन ने पूरे तिब्बत पर कब्जा कर लिया है।

दलाई लामा का तिब्बत से निकल आना बड़ी अनूठी घटना है। क्योंकि हजारों सैनिक पूरे हिमालय में सब रास्तों पर खड़े थे। और कोई सौ हवाई जहाज पूरे हिमालय पर नीची उड़ान भर रहे थे कि कहीं भी दलाई लामा का काफिला तिब्बत से बाहर न निकल जाए। लेकिन एक चमत्कार हुआ।

जिन चमत्कारों को आपने सुना है–मोहम्मद, महावीर, बुद्ध–वे बहुत पुरानी घटनाएं हो गई हैं। सुना है आपने कि मोहम्मद चलते थे तो उनके ऊपर, अरब के रेगिस्तान में, छाया के लिए बादल छाया कर देते थे। सुना है कि महावीर चलते थे तो कांटा भी पड़ा हो सीधा तो उलटा हो जाता था। ये सारी बातें कहानी मालूम होती हैं। लेकिन अभी उन्नीस सौ उनसठ में जो घटना घटी है वह कहानी नहीं हो सकती, और उसके हजारों पर्यवेक्षक हैं, निरीक्षक हैं।

जितनी देर दलाई लामा को भारत प्रवेश करने में लगी, उतनी देर पर पूरे हिमालय पर एक धुंध छा गई। और सौ हवाई जहाज खोज रहे थे, लेकिन नीचे देख सकना संभव नहीं हुआ। वह धुंध उसी दिन पैदा हुई जिस दिन दलाई लामा पोताला से बाहर निकले; और वह धुंध उसी दिन समाप्त हो गई जिस दिन दलाई लामा भारत में प्रवेश कर गए। और वैसी धुंध हिमालय पर कभी भी नहीं देखी गई थी। वह पहला मौका था।

तो जो लोग धर्म की गुह्य धारणाओं को समझते हैं, उनके लिए यह एक बहुत बड़ा प्रमाण था। वह प्रमाण इस बात का था कि जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, अगर वह विनष्ट होने के करीब हो, तो पूरी प्रकृति भी उसको बचाने में साथ देती है। लाओत्से की पूरी परंपरा नष्ट होने के करीब है। इसलिए दुनिया में बहुत तरह की कोशिश की जाएगी कि वह परंपरा नष्ट न हो पाए, उसके बीज कहीं और अंकुरित हो जाएं, कहीं और स्थापित हो जाएं। मैं जो बोल रहा हूं वह भी उस बड़े प्रयास का एक हिस्सा है।

और लाओत्से को अगर कहीं भी स्थापित करना हो तो भारत के अतिरिक्त और कहीं स्थापित करना बहुत मुश्किल है। दलाई लामा को भी जरूरी नहीं था कि भारत भागें; कहीं और भी जा सकते थे। लेकिन कहीं और आशा नहीं है। वे जो लाए हैं, उसे किन्हीं हृदय तक पहुंचाना हो, तो उन हृदयों की और कहीं संभावना न के बराबर है।

इसलिए लाओत्से पर बोलने का मैंने चुना है कि शायद कोई बीज आपके मन में पड़ जाए, शायद अंकुरित हो जाए। क्योंकि भारत समझ सकता है। अकर्म की धारणा को भारत समझ सकता है। निसर्ग की, स्वभाव की धारणा को भारत समझ सकता है। क्योंकि हमारी भी पूरी चेष्टा यही रही है हजारों वर्षों में।

यह सुन कर आपको कठिनाई होगी। क्योंकि आपको समझाने वाले साधु-महात्मा भी जो समझा रहे हैं, वह कनफ्यूशियस से मिलता-जुलता है, लाओत्से से मिलता-जुलता नहीं है। आपको भी जो शिक्षाएं दी जाती हैं, वे भी प्रकृति की नहीं हैं, वे भी सारी शिक्षाएं आदर्शों की हैं। उनमें भी कोशिश की जा रही है कि आपको कुछ बनाया जाए।

मैं मानता हूं कि वह भी भारत की मूल धारा नहीं है। भारत की भी मूल धारा यही है कि आपको कुछ बनाया न जाए; क्योंकि जो भी आप हो सकते हैं, वह आप अभी हैं। आपको उघाड़ा जाए, बनाया न जाए। आपके भीतर छिपा है; आपको कुछ और होना नहीं है; जो भी आप हो सकते थे, और जो भी आप कभी हो सकेंगे, वह आप अभी इसी क्षण हैं। सिर्फ ढंका है। कुछ निर्मित नहीं करना है, कुछ अनावरण करना है, कुछ पर्दा हटा देना है। आदमी को बनाना नहीं है परमात्मा, आदमी परमात्मा है–सिर्फ इसका स्मरण, सिर्फ इसका बोध, इसकी जागृति। जैसे खजाना आपके घर में है, उसे कहीं खोजने नहीं जाना है, कोई दूर की यात्रा नहीं करनी है। लेकिन वह कहां गड़ा है, उसका आपको स्मरण नहीं रहा। हो सकता है, आप उसी के ऊपर बैठे हैं और आपको कुछ पता नहीं है।

लाओत्से को भारत में स्थापित करना, भारत की ही जो गहनतम आंतरिक दबी धारा है, उसको भी आविष्कृत करने का उपाय है।

तो दोहरे प्रयोजन हैं। एक तो लाओत्से चीन से उजड़ गया; वहां बचना बहुत असंभव है। और भारत के अतिरिक्त और कोई ग्राहक भूमि नहीं हो सकती, जहां उसके बीज अंकुरित हो सकें–एक। और दूसरा कि भारत खुद उसके साधु-संन्यासियों की शिक्षाओं से पीड़ित और परेशान है। और वे शिक्षाएं भारत की मौलिक शिक्षाएं नहीं हैं; वे शिक्षाएं नैतिक लोगों की शिक्षाएं हैं, सुधारकों की शिक्षाएं हैं। लेकिन उन क्रांतिद्रष्टा ऋषियों की शिक्षाएं नहीं हैं।

गुरुवार, 31 मार्च 2016

= १९३ =

卐 सत्यराम सा 卐
अपने अपने पंथ की, सब को कहै बढाइ ।
तातैं दादू एक सौं, अन्तरगति ल्यौ लाइ ॥ 
दादू द्वै पख दूर कर, निर्पख निर्मल नांव ।
आपा मेटै हरि भजै, ताकी मैं बलि जांव ॥ 
दादू तज संसार सब, रहै निराला होइ ।
अविनाशी के आसरे, काल न लागै कोइ ॥ 
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साभार ~ Anand Nareliya

स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन—(प्रवचन—पैंसठवां)...osho
“यदि सम्राट और भूस्वामी इस निष्कलुष स्वभाव को शुद्ध रख सकें, तो सारा संसार उन्हें स्वेच्छा से स्वामित्व प्रदान करेगा।’

इस तरह के वचन कनफ्यूशियस को ध्यान में रख कर कहे गए हैं। क्योंकि कनफ्यूशियस समझा रहा था सम्राटों को, राजकुमारों को, भूस्वामियों को कि तुम इस तरह से जीओ, इस तरह का व्यवहार करो, इस तरह उठो, इस तरह बैठो; तुम्हारा आचरण, तुम्हारी नीति, तुम्हारा आदर्श ऐसा हो; तुम्हारा जीवन मर्यादा का जीवन हो; सब लोग देखें और तुम्हारे आचरण से प्रभावित हों; तुम्हारा उठना-बैठना भी शाही हो, वह भी साधारण न हो; तभी तुम लोगों के ऊपर स्वामित्व रख सकोगे।

लाओत्से कहता है, यह स्वामित्व झूठा है। लाओत्से कहता है कि यदि सम्राट और भूस्वामी अपने भीतर के निष्कलुष स्वभाव को शुद्ध रख सकें, तो सारा संसार उन्हें स्वेच्छा से स्वामित्व प्रदान करेगा।

यह एक अलग तरह का स्वामित्व है। जो इसलिए नहीं कि तुम्हारे आचरण से कोई प्रभावित होता है, इसलिए भी नहीं कि तुम्हारे व्यवहार से कोई प्रभावित होता है, बल्कि सिर्फ इसलिए कि तुम जैसे हो, तुम्हारा होना ही चुंबक है, तुम्हारा अपना स्वाभाविक होना ही आकर्षण है। पहला जो आकर्षण है, वह चेष्टित है, उसमें हिंसा है, उसमें दूसरे का ध्यान है। दूसरा जो आचरण है, वह चेष्टित नहीं है, वह प्रवाह है। और उसमें हिंसा नहीं है, उसमें दूसरे का कोई ध्यान नहीं है।

लाओत्से के अनुयायी एक बहुत अनूठी बात मानते रहे हैं। लाओत्से कहता था कि अगर एक गांव में चार आदमी भी मेरी बात समझ जाएं, और चार आदमी भी मेरी बात को समझ कर स्वाभाविक जीने लगें, तो पूरा गांव मैं बदल दूंगा। उन चार आदमियों को गांव में लोगों को बदलने जाने की जरूरत नहीं है। उन्हें किसी से कहने की भी जरूरत नहीं है कि तुम अच्छे हो जाओ। उनकी मौजूदगी लोगों को अच्छा करने लगेगी। वे जहां से गुजरेंगे, वहां उनकी हवा, उनका जादू काम करने लगेगा। और लोगों को कभी यह पता भी नहीं चलेगा कि कौन उन्हें बदल रहा है। क्योंकि लाओत्से कहता है, यह पता चल जाए कि कोई तुम्हें बदल रहा है तो इससे भी प्रतिरोध पैदा होता है।

बाप बेटे को बदलना चाहता है तो बेटा सख्त हो जाता है। पत्नी पति को बदलना चाहती है तो पति सख्त हो जाता है। क्योंकि अहंकार बदला जाना पसंद नहीं करता। कोई पसंद नहीं करता कि कोई आपको बदले। क्योंकि जैसे ही कोई आपको बदलता है, उसका मतलब हुआ कि वह आप जैसे हो उसको स्वीकार नहीं करता; वह आपको प्रेम नहीं करता। आप जैसे हो, अस्वीकृत हो। पहले वह कांट-छांट करेगा, पहले वह आपको अपने अनुकूल बनाएगा और फिर वह आपको पसंद करेगा। लेकिन दुनिया में कोई भी बदला जाना इसलिए पसंद नहीं करता। इसलिए बाप जब बदलने की कोशिश करता है बेटे को तो भूल करता है। शायद इसी कारण बेटा फिर कभी भी बदला नहीं जा सकेगा। और जब गुरु शिष्य को बदलने की कोशिश करता है तो बाधा खड़ी हो जाती है। जब नेता अनुयायियों को बदलने की कोशिश करते हैं तो अनुयायी नहीं बदलते, अनुयायी भी फिर नेता को बदलने की कोशिश में संलग्न हो जाते हैं। और अक्सर अनुयायी सफल हो जाते हैं और नेता हार जाते हैं। स्वाभाविक है, क्योंकि अनुयायी बहुत हैं और नेता अकेला है।

सुना है मैंने कि जब फ्रांस की क्रांति हुई तो पेरिस के एक मुहल्ले में जोर का उपद्रव मचा हुआ था और एक गिरोह आग लगाने जा रहा था। तो दो पुलिस के आदमियों ने, उस गिरोह में जो आदमी नेता जैसा मालूम पड?ता था, उसको पकड़ लिया। तो उसके वचन बड़े प्रसिद्ध हो गए हैं। उस आदमी ने कहा कि डोंट प्रिवेंट मी; लेट मी गो। आई हैव टु फालो दैट क्राउड, बिकाज आई एम देयर लीडर। रोको मत, मुझे जाने दो; क्योंकि मुझे इस भीड़ के पीछे जाना है, क्योंकि मैं उनका नेता हूं।

नेता को भीड़ के पीछे चलना पड़ता है। नेता अपने अनुयायियों का भी अनुयायी होता है। उसको देखना पड़ता है कि अनुयायी क्या चाहते हैं। नेता अनुयायियों को बदलने में लगे रहते हैं, अनुयायी नेताओं को बदल लेते हैं। बदलने की चेष्टा में हिंसा है। और इसलिए जो ज्यादा है संख्या में, वह जीत जाता है।

लाओत्से कहता है, अगर किसी को बदलने की कोशिश करनी पड़े तो वह आदमी काम का ही नहीं जो बदलने में लगा है। बदलाहट एक आंतरिक घटना है। और जैसे ही कोई व्यक्ति अपने स्वभाव के साथ जीता है, उसके पास जाकर आपकी श्वास की गति बदल जाती है, उसके पास जाकर आपके हृदय की धड़कन बदल जाती है, उसके पास जाकर आपके भीतर का सब कुछ बदलने लगता है। उसकी मौजूदगी!

सूफी फकीर इस तथ्य को स्वीकार करते रहे हैं। और इसलिए सूफी फकीरों का एक नियम रहा है कि किसी को पता मत चलने दो, चुपचाप रहे आओ। तुम्हारा चुपचाप रहना लोगों को बदलने में सुगमता देगा।

एक सूफी फकीर हुआ, झुन्नून। वर्षों तक वह शिष्यों में बैठा रहता था और एक नकली आदमी को गुरु बना कर बैठा दिया। वह गुरु शिक्षा देता था, समझाता था, और झुन्नून शिष्यों में बैठा रहता था। यह तो बहुत बाद में लोगों को पता चला कि यह आदमी झुन्नून नहीं है। फिर झुन्नून कौन है? पता चलने पर पता चला कि जो वर्षों से शिष्यों में बैठा रहता है। और जब उससे पूछा गया तो उसने कहा, इस भांति मैं तुमको आसानी से बदल सकता हूं। तुम्हारा ध्यान लगा रहता है वहां बोलने वाले पर और इधर मैं चुपचाप तुम्हारे पास।

लाओत्से कहता है कि अगर भूस्वामी, सम्राट, गुरु, नेता–वे जो लोगों को प्रभावित करते हैं–केवल अपने भीतर के स्वभाव के साथ जी सकें, तो संसार उन्हें स्वेच्छा से स्वामित्व प्रदान करेगा।

अभी तो उनको स्वामित्व बड़ी छीन-झपटी से लेना पड़ता है। अपने नेताओं की आप हालत देखें! किस बामुश्किल वे नेता बने रहते हैं, कितनी जद्दोजहद से नेता बने रहते हैं। आप लाख उपाय करो, वे नेता बने रहते हैं। हजार लोग उनकी टांगें खींच रहे हैं और वे नेता बने हुए हैं। उनका एक ही काम है चौबीस घंटे–कैसे नेता बने रहें। ऐसा लगता है कि कोई उनको नेता रखने को राजी नहीं है।

इसलिए आप देखते हैं, एक नेता पद से नीचे उतर जाए, फिर आपको पता ही नहीं चलता कि वह कहां गया। अखबारों में नाम नहीं, कोई खबर पूछता नहीं। अजीब स्वामित्व था यह भी कि कल अखबारों में बड़ी सुर्खी उसी नाम की थी; अब सिर्फ एक बार आपको पता चलेगा जब वे इस संसार को छोड़ेंगे। तब अखबार के एक कोने में खबर छपेगी कि उनका देहावसान हो गया। उसके पहले आपको अब पता चलने वाला नहीं है कि वे कहां हैं। यह स्वामित्व, यह नेतृत्व, यह प्रभाव बड़ा अदभुत मालूम होता है; कि पद से उतरते ही खो जाता है। जैसे व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है, सिर्फ पद का मूल्य है। असल में, पद की तलाश वे ही व्यक्ति करते हैं जिनके भीतर कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि पद का मूल्य उनको मूल्य होने का भ्रम दे देता है; पद की गरिमा से वे गरिमायुक्त हो जाते हैं। पद से हटते से ही गरिमा खो जाती है; फिर उन्हें कोई पूछता नहीं।

लाओत्से कहता है कि अगर कोई व्यक्ति अपने निसर्ग के साथ जी रहा हो, जैसा परमात्मा ने, जैसा ताओ ने उसे चाहा है, जैसी उसकी नियति है उसके अनुकूल बह रहा हो, तो उसके पास एक स्वामित्व होता है, एक नेतृत्व, एक गुरुत्व, जो आरोपित नहीं है, जो चेष्टित नहीं है, जिसको उसने किसी के ऊपर डाला नहीं है, जो उसकी सहज मालकियत है। और तब उसे एक स्वामित्व मिल जाता है, जो संसार उसे स्वेच्छा से देता है।

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
मति मोटी उस साधु की, द्वै पख रहित समान ।
दादू आपा मेट कर, सेवा करै सुजान ॥ 
कछु न कहावै आपको, काहू संग न जाइ ।
दादू निरपख ह्वै रहै, साहिब सौं ल्यौ लाइ ॥ 
=============================
साभार ~ Anand Nareliya

ताओ उपनिषाद (भाग–3) प्रवचन–64...osho 
हर आदमी अनूठा पैदा होता है। और हम आदर्श देते हैं उसको कुछ होने के कि तू यह हो जा! कठिनाई है मां-बाप की, क्योंकि उनको भी पता नहीं कि घर में जो पैदा हुआ है, वह क्या हो सकता है। किसी को भी पता नहीं। अभी तो वह जो पैदा हुआ है, उसको भी पता नहीं कि वह क्या हो सकता है। सारा जीवन अज्ञात में विकास है। तो मां-बाप की बेचैनी यह है कि कोई ढांचा क्या दें वे?

तो जो पहले लोग हो चुके हैं चमकदार, उनका ढांचा देते हैं कि तुम ऐसे हो जाओ। वह ढांचा फांसी बन जाता है। और वह ढांचा ही प्रकृति के प्रतिकूल ले जाने का कारण हो जाता है।

फिर हम ढांचे में ढाल कर व्यक्तियों को खड़ा कर देते हैं। वे फंसे हुए लोग हैं, जिनके चारों तरफ लोहे की जंजीरें हैं सख्त। उनमें से निकलना मुश्किल है। जब तक मनुष्यता यह स्वीकार न कर ले कि प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है, और किसी की कापी न है और न हो सकता है। दो व्यक्ति समान नहीं हैं; हो भी नहीं सकते; होना भी नहीं चाहिए। अगर आप कोशिश करके राम हो भी जाएं, तो आप एक बेहूदा दृश्य होंगे, और कुछ भी नहीं। राम का होना तो एक बात है, आपका होना सिर्फ नकल होगा। झूठे होंगे आप। सच्चे राम होने का कोई उपाय नहीं। कारण? क्योंकि सच्चे राम होने के लिए बड़ी कठिनाई है। कठिनाई क्या है? यह नहीं कि राम होना बड़ा कठिन है। राम बिना कोशिश किए हो गए, इसलिए बहुत कठिन तो मालूम नहीं होता। या कि बुद्ध होना बहुत कठिन है? बुद्ध बिना कोशिश किए हो गए; कोई बहुत कठिन नहीं है। कठिनाई दूसरी है।

एक-एक व्यक्ति इतिहास, समय और स्थान के ऐसे अनूठे बिंदु पर पैदा होता है, उस बिंदु को दुबारा नहीं दोहराया जा सकता। वह बिंदु एक दफा आ चुका, और अब कभी नहीं आएगा। इसलिए कोई आदमी दोहर नहीं सकता। इसलिए सब आदर्श खतरनाक हैं।

फिर हम किसी व्यक्ति को स्वीकार नहीं करते हैं। हम सब का अहंकार है भीतर; वह सिर्फ अपने को स्वीकार करता है और अपने अनुसार सबको चलाना चाहता है। इस दुनिया में सबसे खतरनाक और अपराधी लोग वे ही हैं, जो अपने अनुसार सारी दुनिया को चलाना चाहते हैं। इनसे महान अपराधी खोजने कठिन हैं; भला आप उनको महात्मा कहते हों। आपके कहने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

जब भी मैं कोशिश करता हूं कि किसी को मेरे अनुसार चलाऊं, तभी मैं उसकी हत्या कर रहा हूं। मेरे अहंकार को तृप्ति मिल सकती है कि मेरे अनुसार इतने लोग चलते हैं; लेकिन मैं उन लोगों को मिटा रहा हूं।

इसलिए वास्तविक धार्मिक गुरु आपको आपके निसर्ग की दिशा बताता है; आपको अपने अनुसार नहीं चलाना चाहता। आपको कहता है कि आप अपने अनुसार ही हो जाएं, और इस होने के लिए जो भी त्यागना पड़े और जो भी मुसीबत झेलनी पड़े, वह झेल लें। क्योंकि सब मुसीबतें छोटी हैं, अगर उस आनंद का पता मिल जाए, जो स्वयं के अनुसार होने से मिलता है। सब मुसीबतें छोटी हैं; उसकी कोई कीमत नहीं है। सब मुसीबतें आसान हैं।

और आप दूसरे के अनुसार बनने की कोशिश करते रहें, तो आप दुखी, और दुखी, और दुखी होते चले जाएंगे। कभी आपको आनंद की कोई झलक न मिलेगी।

आनंद की झलक का मतलब ही है कि मेरी प्रकृति और विराट की प्रकृति के बीच कोई तालमेल खड़ा हो गया, कोई हार्मनी आ गई। अब दोनों एक लय में बद्ध होकर नाच रहे हैं। मेरा हृदय विराट के हृदय के साथ लयबद्ध हो गया; मेरा स्वर और विराट का स्वर मिल गया; अब दोनों में जरा भी फासला नहीं है।

तो मुझे अपने ही अनुसार, अपने ही जैसा होना चाहिए। इसके लिए कोई मुझे सहायता नहीं देगा। सब इसमें बाधा डालेंगे; क्योंकि सब चाहेंगे कि उनके अनुसार हो जाऊं।

मां-बाप चाहते हैं; फिर स्कूल में शिक्षक हैं, वे चाहते हैं; फिर नेता हैं, फिर महात्मा हैं, फिर पोप हैं, शंकराचार्य हैं, वे चाहते हैं कि मेरे अनुसार हो जाओ। इस दुनिया में आपको चारों तरफ, जैसे बहुत से गिद्ध आप पर टूट पड़े हों, वे सब आपको अपना भोजन बनाना चाहते हैं। इसमें आप भूल ही जाते हैं कि आप सिर्फ अपने जैसे होने को पैदा हुए थे। पर एक बात तो पक्की है कि आप दुखी होते रहते हैं। उस दुख को ही पहचानें। अगर आप दुखी हैं, तो समझ लें कि यह पक्की है बात, आप निसर्ग के प्रतिकूल चल रहे हैं। दुख काफी सबूत है।

और जब आप दुखी होते हैं तो पता है, आप क्या करते हैं? आप जब दुखी होते हैं, तब आप वही भूल दोहराते हैं जिसके कारण आप दुखी हैं। तब आप किसी से पूछने जाते हैं कि कोई रास्ता बताइए, जिस पर मैं चलूं और मेरा दुख मिट जाए। वह आपको रास्ता बताएगा कोई न कोई। वह रास्ता उसका होगा। और हो सकता है, उस पर चलने से उस आदमी का दुख भी मिट गया हो। मगर वह रास्ता उसका होगा। और दूसरे का रास्ता आपका रास्ता नहीं हो सकता। आपको अपना रास्ता खोजना पड़ेगा।

आप दूसरों के रास्तों से परिचित हो लें, इससे सहयोग मिल सकता है। आप दूसरे के रास्तों को पहचान लें, इससे अपने रास्ते की खोज में सहारा मिल सकता है। लेकिन किसी दूसरे के रास्ते पर अंधे की तरह चले अगर आप, तो आपको अपना रास्ता कभी भी नहीं मिलेगा। कितने लोग महावीर के पीछे चले हैं, और एक भी महावीर नहीं हो सका। और कितने लोग बुद्ध के पीछे चले हैं, और एक भी बुद्ध नहीं हो सका। क्या कारण है? इतना अपव्यय हुआ है शक्ति का, कारण क्या है?

कारण एक है: आपका रास्ता किसी दूसरे का रास्ता नहीं है, और किसी दूसरे का रास्ता आपका रास्ता नहीं है। आत्माएं अद्वितीय हैं, और हर आत्मा का अपना रास्ता है।

तो क्या करें? अपने दुख को समझें, अपने दुख के कारण को खोजें कि मेरे दुख का कारण क्या है। उस कारण से हटने की कोशिश करें। रास्ते मत खोजें, दूसरों से जाकर मत पूछें। क्या है दुख का कारण आपका?

= १९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
अध्यात्म
योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजैं सहजैं आव ।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव ॥ ९ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! लय योग के द्वारा सुरति को लगाओ और सहजावस्था को प्राप्त होओ । इस प्रकार धीरे - धीरे अभ्यास द्वारा परमेश्वर की तरफ में लगाओ । यह मनुष्य देह मुक्तिरूपी महल का दरवाजा है । इस प्रकार परमेश्वर में भाव सहित प्रेमा भक्ति द्वारा लय लगाओ ॥ ९ ॥ 

सहज शून्य मन राखिये, इन दोनों के मांहि ।
लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥ १० ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! योग में तो मन को निद्र्वन्द्व कहिए, निर्विकल्प स्वरूप बना कर स्वस्वरूप में स्थिर करिये, किन्तु परमेश्वर में लय रूप समाधि द्वारा स्थिरता करके भक्ति द्वारा भगवद् दर्शन रूप अमृत का पान करिए । वहाँ फिर किसी भी प्रकार के काल का भय नहीं रहता । तात्पर्य यह है कि तत्वबोध लक्ष्य तो योग का भी वही है, किन्तु भक्तिरूप लय का मार्ग सुगम है ॥ १० ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ लै का अंग)
चित्र सौजन्य ~ नरसिँह जायसवाल

बुधवार, 30 मार्च 2016

= १९० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू दया दयालु की, सो क्यों छानी होइ ।
प्रेम पुलक मुलकत रहै, सदा सुहागनी सोइ ॥
दादू बिगसि बिगसि दर्शन करै, पुलकि पुलकि रस पान ।
मगन गलित माता रहै, अरस परस मिलि प्राण ॥ 
=================================
साभार ~ Anand Nareliya

स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन—(प्रवचन—पैंसठवां)...osho
उपयोगिता का अर्थ यह है कि जो हम कर रहे हैं, उसका कोई उपयोग नहीं; कहीं जाना है, कहीं कोई मंजिल है, जिस तरह से हम पहुंच जाएं।

लेकिन लाओत्से कहता है कि ताओ मंजिल नहीं है। इसलिए उसने नाम दिया है ताओ। ताओ का अर्थ है दि वे, मार्ग। ताओ कोई मंजिल नहीं है कि जहां पहुंचना है। मार्ग ही ताओ है, मार्ग ही परमात्मा है। प्रतिपल मंजिल है। और प्रतिपल का उपयोग जो साधन की तरह करेगा वह उपयोगितावादी है, और जो प्रतिपल का उपयोग साध्य की तरह करता है वह उत्सववादी है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। तब जीने के ढंग दो ढंग के हो सकते हैं। एक कि आप सब कुछ कर रहे हैं कहीं पहुंचने के लिए, और जहां पहुंचना है वह आगे है। अक्सर तो वहां कोई पहुंचता नहीं कभी, क्योंकि मरने तक हम टालते ही चले जाते हैं। और एक दूसरा रास्ता है कि जहां हमें पहुंचना है, वहां हम अभी हैं; अब हमें सिर्फ भोगना है, इस क्षण को।

आप मुझे सुन रहे हैं। आप दो ढंग से सुन सकते हैं। एक ढंग तो यह है कि मुझे सुन कर आपको कोई ज्ञान प्राप्त करना है, कि मुझे सुन कर आपको कुछ रास्ता निकालना है, कि मुझे सुन कर आप उसका कुछ उपयोग करेंगे। तो फिर आपका सुनना एक काम है। और दूसरा कि आप मुझे सुन रहे हैं, यह सुनना ही आनंद है। इससे कहीं पहुंचना नहीं, इससे कुछ उपयोग नहीं करना, इससे कोई ज्ञान इकट्ठा नहीं करना, कोई पंडित नहीं बन जाना, कहीं जाना नहीं। यह सुनने का जो क्षण है, यह आनंदपूर्ण है, यह एक उत्सव है। तब प्रतिपल आप आनंदित हैं। इसकी उपयोगिता बाहर नहीं है, भीतर है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि इससे आपको लाभ न होगा; इससे ही लाभ होगा। क्योंकि प्रतिपल जो आपने आनंद लिया है, वही इकट्ठा हो जाएगा, उसकी राशि बन जाएगी। और जिसने टाला है, उसके हाथ खाली रह जाएंगे। क्योंकि जिसने प्रतिपल इकट्ठा नहीं किया, वह आखिर में इकट्ठा कैसे कर लेगा? क्षण तो खो जा रहे हैं।

लाओत्से बिलकुल गैर-उपयोगितावादी है। वह जो परम सत्य है, वह जो परम जीवन का तत्व है, गैरत्तराशी लकड़ी की तरह है; कोई उसका उपयोग नहीं कर सकता।

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
सदा लीन आनन्द में, सहज रूप सब ठौर ।
दादू देखै एक को, दूजा नाहीं और ॥ 
दादू जहँ तहँ साथी संग है, मेरे सदा अनंद ।
नैन बैन हिरदै रहै, पूरण परमानंद ॥ 
=========================
साभार ~ Anand Nareliya
स्वर्ग और पृथ्वी का आलिंगन—(प्रवचन—पैंसठवां)...osho
परमात्मा का उपयोग करने की कभी भूल कर मत सोचना; जीवन का उपयोग करने की कभी भूल कर मत सोचना। जीवन को व्यर्थ गंवाना हो तो तरकीब है यह कि उसका कुछ उपयोग सोचना। और जीवन का सच में कुछ उपयोग कर लेना हो तो उपयोग की बात ही छोड़ देना, और जीवन को आनंद की तरह, उत्सव की तरह लेना।
लेकिन हम परमात्मा का भी उपयोग करते हैं। इसलिए जब हम दुख में होते हैं तब हम परमात्मा की तरफ जाते हैं। क्योंकि सुख में उसका कोई उपयोग नहीं है। क्या उपयोग है? सुख में कोई परमात्मा को याद नहीं करता। कोई जरूरत ही नहीं तो याद क्या करना!
मैंने सुना है, एक ईसाई घर में मां अपने बेटे से सुबह पूछ रही है कि रात तूने प्रार्थना की या नहीं? तो उसने कहा, रात तो कोई जरूरत ही नहीं थी, सभी कुछ ठीक था; प्रार्थना का कोई सवाल ही न था।
प्रार्थना तो हम तभी करते हैं…। आज ही मैं किसी का जीवन पढ़ रहा था। उसकी पत्नी कार में एक दुर्घटना में चोट खा गई। उसके पहले कभी वह चर्च नहीं गई थी। लेकिन इस रविवार को वह चर्च पहुंची। हाथ पर, पैर पर पट्टियां बंधी हैं। चर्च का पादरी भी चौंका, क्योंकि वह महिला कभी चर्च आई नहीं थी, पति सदा अकेला ही आता था। प्रवचन के बाद जब लोग चर्च से विदा होने लगे तो पादरी ने महिला को रोक कर कहा, क्या ज्यादा घबड़ा गई हो दुर्घटना से, क्योंकि चर्च आने का और कोई कारण नहीं दिखाई पड़ता।
दुख में जब हम होते हैं तो परमात्मा की याद आती है; क्योंकि अब उसका कुछ उपयोग हो सकता है। सुख में हम होते हैं तो हम उससे बचना ही चाहेंगे; कहीं उधार मांगने लगे, कुछ और उपद्रव…। परमात्मा भी मिलना चाहे आप जब सुख में हों, तो आप कहेंगे, अभी ठहरो, अभी कोई जरूरत नहीं। प्रार्थना करते हैं तो कुछ मांगने के लिए, स्मरण करते हैं तो कुछ मांगने के लिए।
लाओत्से कहता है, ध्यान रखना, उसका कोई भी उपयोग नहीं हो सकता। और जब तक तुम उपयोग की भाषा में सोचते हो तब तक तुम्हारा उससे कोई संबंध नहीं हो सकता। जिस दिन उपयोग की भाषा बंद और उत्सव की भाषा शुरू, उस दिन परमात्मा से संबंध हो जाता है। फिर चाहे मंदिर जाओ, न जाओ; फिर चाहे उसका स्मरण करो, न करो; फिर चाहे धर्म की ऊपरी व्यवस्था से तुम्हारा नाता बने, न बने; लेकिन जीवन को उत्सव में जो बदल लेता है, वह जीवन को प्रार्थना में बदल लेता है।



= १८८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू यहु मन तीनों लोक में, अरस परस सब होइ ।
देही की रक्षा करैं, हम जनि भींटै कोइ ॥ ९२ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! शरीरधारी संसारिक जन, शरीर की पवित्रता और आचार - विचार का नाना प्रकार से विचार करके लोक - व्यवहार में छूआछूत का भाव दर्शाते हैं अर्थात् आडम्बर करते हैं । परन्तु यह मन त्रिलोकी में अच्छे बुरे नीचे - ऊँचे, सभी पदार्थों के साथ ओत - प्रोत होकर बर्ताव करता है । इस मन की स्थिति पर कोई संसारीजन ध्यान नहीं देते, बल्कि शास्त्रों का अध्ययन करने वाले पंडित भी इस मन को निषिद्ध वासनाओं से निग्रह नहीं कर पाते ॥ ९२ ॥ 
आसा तृष्णा चूहड़ी, काम क्रोध चांडाल । 
इन ऊपर चौका फिरै, तो सांचो आचार ॥ 

दादू देह जतन कर राखिये, मन राख्या नहीं जाइ ।
उत्तम मध्यम वासना, भला बुरा सब खाइ ॥ ९३ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारिक लोग शरीर को अनेक साधनों की कसौटी दे - देकर कस लेते हैं, परन्तु मन को काबू में नहीं कर पाते । मन तो भला - बुरा, उत्तम - मध्यम सभी पदार्थों को संकल्पों के द्वारा भोगता रहता है । इसलिए शरीर की अपेक्षा मन को ही वश में करके रखना चाहिये । यह मन ही मनुष्य से अनर्थ करा देता है ॥ ९३ ॥ 
काया कसणी अनंत विधि, दे दे देही दंड । 
‘सुन्दर’ मन भाग्या फिरै, सप्त द्वीप नौ खंड ॥ 

सूरसेन पूजा करै, पीपै पूछी आइ । 
जीन करावत मूढ़ तहां, मोची के घर जाइ ॥ 
दृष्टान्त - १ ~ टोडा रायसिंह के राजा सूरसेन थे । उन्होंने पीपाजी महाराज से उपदेश ग्रहण किया था । बहिरंग लोगों के कहने से गुरुदेव पीपा जी महाराज में उसने श्रद्धा कम कर ली । पीपा जी महाराज ने विचार किया कि यह गुरु में अश्रद्धा करके नरक में जाएगा । इसलिये इसको उपदेश करना चाहिए । यह विचार कर महाराज राजभवन में आये । द्वारपाल पीपाजी से बोला कि राजा साहब की आज्ञा है कि कोई भी हमारी आज्ञा के बिना, अंदर न आने पावे । महाराज बोले ~ जाओ, उससे कह दो कि गुरु महाराज आये हैं । सूरसेन बोला ~ “बोल दो, अभी भगवान् की पूजा कर रहे हैं । ठहरो ।” द्वारपाल आकर बोला ~ राजा जी भगवान् की पूजा कर रहे हैं, आप ठहरो । उस समय पीपाजी महाराज ने अन्तर्वृत्ति होकर सूरसेन के मन को देखा कि चमारों के यहां घोड़े की जीन सिलाने का विचार कर रहा है । उस समय राजा हाथों से तो भगवान् की पूजा कर रहा था और मन में यह संकल्प करता था कि मेरे घोड़े की जीन फट गई, अभी पूजा के बाद मोची को बुलाकर जीन ठीक कराऊँगा । तब पीपा जी महाराज ने बाहर से आवाज दी “ मूर्ख ! क्या पूजा करता है ?” मन तो चमारों के यहां जीन - तोबरे सिला रहा है ?” यह सुनते ही राजा पूजा छोड़कर दौड़ा । पीपा जी महाराज के चरणों में नमस्कार किया और अपना अपराध क्षमा कराया । यही ब्रह्मऋषि सतगुरु कहते हैं कि “देह जतन करि राखिये, मन राख्या नहीं जाइ.” संसारिक पुरुषों से ।
शश चकोर मिल मीनि पै, गये करावन न्याव । 
ध्यान खोल नेरे लिये, खाये करके डाव ॥ 

दृष्टान्त ~ २ ~ एक(शश) खरगोश और चकोर में विवाद हुआ । खरगोश कहता है कि मैं भारी हूँ और चकोर अपने को भारी बताता था । उसी समय उन दोनों ने एक आँख मूँदे बिल्ली को देखा और सोचा कि वह कोई महात्मा है, हमारा न्याय कर देगी । उसके पास गये और अपने विवाद की बात बताई तो उसने अपनी आँखे खोलकर कहा - मेरे पास आओ, मैं तुमको बराबर कर दूँगी । खरगोश को भारी बताकर उसका माँस तोड़ खाया । फिर चकोर को भारी बताकर उसका माँस तोड़ खाया । इस प्रकार वह उनका बारी - बारी से माँस खाती जाती है । दार्ष्टान्त - बिल्ली ने शरीर को ध्यानस्थ कर रखा था, परन्तु मन तो दूसरों को मारने के विचार में ही लगा था । उक्त प्रकार का साधन भगवत् प्राप्ति का साधन नहीं हो सकता । तभी महाराज ने कहा है - “देह जतन कर राखिये, मन राख्या नहिंजाइ ।”
(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)
चित्र सौजन्य ~ नरसिँह जायसवाल

मंगलवार, 29 मार्च 2016

= १८७ =

卐 सत्यराम सा 卐
भाव भक्ति उपजै नहीं, साहिब का प्रसंग ।
विषय विकार छूटै नहीं, सो कैसा सत्संग ॥ 
बासण विषय विकार के, तिनको आदर मान ।
संगी सिरजनहार के, तिन सौं गर्व गुमान ॥
अंधे को दीपक दिया, तो भी तिमिर न जाय ।
सोधी नहीं शरीर की, तासन का समझाइ ॥ 
===============================
साभार ~ Manoj Puri Goswami
निष्काम एवं संकल्प रहित कर्म योग-यात्रा को आगे बढ़ाते हैं 
--- गीता श्लोक 6।3 ~

गणित में 2+1=3 होता है, तीन में एक एवं दो, दोनों हैं लेकिन दिखते नहीं, ठीक इस तरह गीता का भी समीकरण है --- प्रकृति + पुरुष = मनुष्य, जिसमें न तो प्रकृति दिखती है और न पुरुष । गणित समीकरण के तीन में एक एवं दो को देखनें वाला बुद्धिबादी गणितज्ञ कहलाता है और गीता के समीकरण में मनुष्य में प्रकृति-पुरुष को देखनें वाला तत्त्व-ज्ञानी होता है । गीता सूत्र 6.3 कह रहा है --- योग में इच्छा-संकल्प की उर्जा नहीं होती -- इस बात को समझना चाहिए । योग क्या है ? किसी भी तरह से परमात्मा में रूचि पैदा करनें का मार्ग, योग है - जिसमें गुणों के तत्वों को समझ कर ऐसा बन जाना होता है की गुणों के तत्वों का स्वतः त्याग हो जाता है । 
यह यात्रा अंतहीन यात्रा है जिसका प्रारम्भ तो है लेकिन कोई अंत नहीं । योग सिद्धि से बैराग्य मिलता है जिसमें गुणों के तत्वों का त्याग हो जाता है लेकिन अहंकार एक मात्र तत्त्व ऐसा है जो पुनः योग को खंडित कर देता है । योग खंडित होना क्या है ?
योगी जब अपनें प्रसंशकों से घिरता जाता है तब उस पर राजस-तामस गुणों का प्रभाव एवं अहंकार का असर दिखने लगता है और इस स्थिति को कहते हैं --- योग खंडित होना ।
बिषय से बैराग्य तक की यात्रा कर्म-योग की यात्रा है जो एक सुलभ यात्रा है लेकिन बैराग्य से आगे की यात्रा ज्ञानकी यात्रा है जो परा भक्ति में प्रवेश कराती है । ज्ञान की यात्रा में गुण तत्वों का असर तो नहीं होता लेकिन जैसे - जैसे गुण तत्वों की पकड़ कमजोर होती जाती है, अहंकार और पैना होता जाता है , जो इस बात को समझकर चलते हैं, उनको बुद्धत्व मिलता है और जो नहीं चल पाते, वे योग का ब्यापार करनें लगते हैं । गीता गुणों का योग है, जहां -----
न भोग का स्वाद मिलता है
न चाह होती है
न अहंकार होता है
न सुख-दुःख होता है
न मन होता है और
न लक्ष्य का पता होता है ।
====ॐ=====

= १८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा मांहि ।
दादू सांई सब करै, कोई जानै नांहि ॥
दादू सेवक सांई वश किया, सौंप्या सब परिवार ।
तब साहिब सेवा करै, सेवक के दरबार ॥ 
==========================
साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo

।। जय श्री राधे जय जगन्नाथ जय श्रीकृष्ण ।।
जगन्नाथस्वामी नयनपथगामी भवतुमे.....!!!
जगन्नाथजी का एकमात्र विग्रह ऐसा है की जो अतिप्राचीन है.....जिनके साथ कई संतों की कथायें जुडी हैं....!!
करमाबाई जाट की बेटी होकर भी उनके हाथ से भगवान प्रत्यक्ष प्रकट होकर खिचडी का भोग आरोगते थे.... और खिचडी का भोग पाने के लिये जगन्नाथजी ने उस माता करमाबाई को पुरी में बुला लिया था.......!!! जब वे वृध्द हो गई तो जिद करके कृष्ण-बलदाऊ करमा माता को बिना स्नान किये ही खिचडी बनाने को बाध्य करते.....!!! पुजारियो ने जब भगवान की माता करमाबाई के खिचडी के प्रति ऐसी(दिव्य) आसक्ति देखी तो रसोईघर के पीछे उनके रहने की व्यवस्था कर दी....!!!
कारे मुसलमान भक्त था....जिसे लोगों ने सीढ़ियों पर रोका था(ईन्दिरा को भी रोका था)...... तो कारे ने कातर स्वर से पुकारा.....
"कारे करारपर खडा तेरे दरबार विच।
अटकी हैं नाव अब तो जरा गौर किजिये।
हिंदुओं का नाथ तो हमारा कुछ दावा नहीं।
जगतका नाथ हौ अब तो सुध लिजिये।।"
तब तुरंत जगन्नाथजीने कारेको सीढ़ियों पर दर्शन दिये....!!
माधवदासबाबा को अतिसार हुआ था तो टट्टीमें लथपथ रहते थे..... कोई सेवा न करता...... तब भगवान ने प्रत्यक्ष होकर बहोत मना करने पर भी उनके शौच के वस्त्र धोना, स्नान कराना आदि किया...!! माधवदासजी ने बहोत प्रार्थना की शरीर पुरा करने की.... तब भगवान ने उनका १५ दिन का प्रारब्ध अपने उपर लिया....!!! तबसे हर साल १५ दिन दर्शन बंद होता है... कोई भोग नहीं लगता..... केवल दवा...!!!! ऐसी जगन्नाथजी की लीलायें कई हैं....!!! जयदेवजी के गीत-गोविंद के श्रीराधागोविंदजी के शृँगार के पदगान सुनकर ही रसिकशिरोमणी जगन्नाथ जी शयन करते हैं....!!!

साभार ~ हरि हरि
श्री जगन्नाथ मंदिर पुरी मेँ ~ 
श्री जगन्नाथ जी की महत्वपूर्ण लीला नव कलेवर अनुष्ठान क्रिया होने जा रही है.... नवकलेवर यानी नया शरीर। इसमें विश्वविख्यात जगन्नाथ मंदिर में रखे भगवान जगन्नाथ, बालभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन की पुरानी मूर्ति को नई मूर्ति से बदला जाता है। इसका आयोजन तब होता है, जब हिंदू कैलेंडर में आषाढ़ के दो महीने होते हैं, जैसा कि इस साल हो रहा है। ऐसा संयोग 12 या 19 वर्षों में एक बार होता है। आखिरी नवकलेवर वर्ष 1996 में मनाया गया था। भगवान की नई मूर्तियां नीम की विशेष किस्म की लकड़ी से बनाई जाती है, इसे स्थानीय भाषा में दारु ब्रह्मा कहते हैं। इस समारोह में न सिर्फ मूर्तियां बदली जाती हैं बल्कि रहस्यमयी अनुष्ठान के जरिये 'ब्रहमा शक्ति' भी पुरानी मूर्ति से नई मूर्ति में स्थानांतरित की जाती है। 
इस प्रक्रिया की शुरुआत जगन्नाथ को दोपहर का भोग लगाने के बाद होती है। भगवान व उनके भाई-बहनों के लिए विशेष तौर पर 12 फुट की माला, जिसे धन्व माला कहते हैं, तैयार की जाती है। पूजा के बाद यह माला 'पति महापात्र परिवार' को सौंप दी जाती है, जो पुरी से 50 किलोमीटर दूर स्थित काकतपुर तक मूर्तियों के लिए लकड़ी खोजने वाले दल की अगुआई करते हैं। काकतपुर में मां मंगला का मंदिर है। वृक्षों की खोज पर निकला दल यात्रा के दौरान पुरी के पूर्व राजा के महल में रुकता है। सबसे बड़ा दैतापति(सेवक) मंदिर में ही सोता है और माना जाता है कि देवी उसके सपने में आकर उन नीम के वृक्षों की सही जगह की जानकारी देती हैं, जिनसे तीनों मूर्तियां बननी हैं।
ये कोई साधारण नीम के वृक्ष नहीं होते। चूंकि भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला है, इसलिए जिस वृक्ष से उनकी मूर्ति बनाई जाएगी वह भी उसी रंग का होना चाहिए। हालांकि भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा है इसलिए उनकी मूर्तियों के लिए हल्के रंग का नीम वृक्ष ढूंढा जाता है। जिस वृक्ष से भगवान जगन्नाथ की मूर्ति बनाई जाएगी, उसकी कुछ खास पहचान होती है, जैसे उसमें चार प्रमुख शाखाएं होनी जरूरी हैं। ये शाखाएं नारायण की चार भुजाओं की प्रतीक होती हैं। वृक्ष के समीप ही जलाशय, श्मशान और चीटियों की बांबी हो यह बहुत जरूरी होता है। वृक्ष की जड़ में सांप का बिल होना चाहिए और वृक्ष की कोई भी शाखा टूटी या कटी हुई नहीं होनी चाहिए। वृक्ष चुनने की अनिवार्य शर्त होती है कि वह किसी तिराहे के पास हो या फिर तीन पहाड़ों से घिरा हुआ हो। उस वृक्ष पर कभी कोई लता नहीं उगी हो और उसके नजदीक ही वरुण, सहादा और बेल के वृक्ष हों(ये वृक्ष बहुत आम नहीं होते हैं)। और चिह्निïत नीम के वृक्ष के नजदीक शिव मंदिर होना भी जरूरी है। 
मूर्तियों के लिए नीम के वृक्षों की पहचान करने के बाद एक शुभ मुहुर्त में मंत्रों के उच्चारण के बीच उन्हें काटा जाता है। इसके बाद इन वृक्षों की लकडिय़ों को रथों पर रखकर दैतापति जगन्नाथ मंदिर लाते हैं, जहां उन्हें तराशकर मूर्तियां बनाई जाती हैं। मूर्तियां बदलने का यह समारोह मशहूर रथ यात्रा से तीन दिन पहले होता है, जब 'ब्राह्मण' या पिंड को पुरानी मूर्तियों से निकालकर नई मूर्तियों में लगाया जाता है। मूर्तियां बदलना इतना आसान नहीं है और इसके लिए कड़े नियम होते हैं, जिनका पालन करना अनिवार्य है। नियमानुसार मूर्तियां बदलने के लिए चुने गए दैतापतियों की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है, पिंड बदलने से पहले उनके हाथ कपड़े से बांध दिए जाते हैं और लकड़ी की खोज शुरू होने के पहले ही दिन से उन्हें बाल कटवाने, दाढ़ी बनाने या मूंछ कटाने की अनुमति नहीं होती है। मध्यरात्रि में दैतापति अपने कंधों पर पुरानी मूर्तियां लेकर जाते हैं और भोर से पहले उन्हें समाधिस्त कर दिया जाता है। यह ऐसी रस्म है, जिसे कोई देख नहीं सकता और अगर कोई देख ले तो उसका मरना तय होता है। इसी वजह से राज्य सरकार के आदेशानुसार इस रस्म के दौरान पूरे शहर की बिजली बंद कर दी जाती है। अगले दिन नई मूर्तियों को 'रत्न सिंहासन' पर बैठाया जाता है.......
 जय श्री राधे जय जगन्नाथ जयश्रीकृष्ण 

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
(राग केदार)
म्हारा रे वाहला ने काजे, हृदये जोवा ने हौं ध्यान धरूं ।
आकुल थाये प्राण मारा, कोने कही पर करूँ ॥ टेक ॥
संभार्यो आवे रे वाहला, वेहला एहों जोई ठरूं ।
साथीजी साथे थइ ने, पेली तीरे पार तरूं ॥ १ ॥
पीव पाखे दिन दुहेला जाये, घड़ी बरसां सौं केम भरूं ।
दादू रे जन हरि गुण गाता, पूरण स्वामी ते वरूं ॥ २ ॥
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साभार ~ वाया ~ Savita Savi Lumb "भगवान् श्रीकृष्ण"

भक्त शिरोमणी संत नरसी मेहता तथा ‘केदार’ राग का जादू...!

भगवान का नाम होश खोकर सुंदरता से आलापना ही उनकी चाह, ब्रह्मानंद था। भजन गाते केदार राग में वे रंग जाते। इस राग की रसमोहिनी से प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण उन्हें अंकित हुए थे । 
इस राग से उन्होंने अनेकों के दुख दूर किए तथा कितने ही लोगों का सुख बढाया था। राग के स्वरों से सर्पदंश हुए एक हरिजन बालक के प्राण वापस आए थे । एक बार एक भला गृहस्थ ब्राह्मण नरसी के पास आया । बेटी की शादी हेतु धन कहां से लाया जाए यह चिंता उसे सता रही थी । नरसी ने उससे पूछा, ‘‘कितना धन चाहिए ?’’ ब्राह्मण ने डरते डरते उत्तर दिया, ‘‘५०० रुपये.’’ 
वे साहूकार के घर गए । लोभी तथा चाणाक्ष साहूकार को नरसी का भक्ति वैभव मालूम था । उनके केदार राग की कीर्ती उसने सुनी थी । उसने कहा, ‘‘पैसे देता हूं; किंतु धरोहर क्या रखोगे?’’ साहूकार ने एक मार्ग सुझाया, ‘‘तुम्हारा केदार राग धरोहर रखो । पैसा देता हूं ।’’ संत नरसी मेहता के पास वह ही एक मूल्यवान चीज थी। फिर भी ‘अब श्रीकृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन से वंचित रहुंगा । जीवन का सर्वश्रेष्ठ आनंद खो बैठुंगा’, यह विचार उनके मनमें नहीं था । उन्होंने कहा, ‘‘केदार राग धरोहर के रूप में रखो; किंतु ब्राह्मण को धन दो।’’ ‘ब्याज समेत पैसा वापस होने तक नरसी केदार राग भूले से भी गाएगा नहीं’, यह प्रमुख शर्त थी । 
मंगल कार्य संपन्न हुआ । उस आनंद के सामने अपने नुकसान की खंत संत नरसी को नहीं लगी । केदार राग के बिना भजन, कीर्तन शुरू था; किंतु मजा नहीं था, मन लग नहीं रहा था । भगवान के प्रत्यक्ष दर्शन बिना हृदय की प्यास बुझ नहीं रही थी । 
दिन-पर-दिन निकल गए; किंतु धन नहीं मिल रहा था। साहूकार का कर्जा नहीं उतर रहा था तथा केदार राग बंधमुक्त हुए बिना नरसीं को शांति नहीं मिल रही थी । उसी समय निंदकों ने भी उनकी भक्ति झूठी होने के आरोप किए । राजा द्वारा नरसीं को बुलाया गया । उनकी भक्ति की परिक्षा लेना तय हुआ- ‘राजमहल के एक कक्ष में श्रीकृष्ण की एक मूर्ति रखी गई । 
मूर्ति के हाथ में एक पुष्पहार दिया गया । उस मूर्तिके आगे नरसीं अपना भजन, कीर्तन करें । श्रीकृष्ण सजीव होकर नरसीं के गले में पुष्पहार पहनाए । यदि यह बात विशिष्ट कालावधिमें घटित नहीं हुई, तो नरसी के उपर लगाए आरोप सही मानकर शासन किया जाएगा ।’ यह राजाज्ञा नरसीं को सुनाई गई । नरसी अविचल थे ! उन्होंने कहा, ‘‘प्रभूकी इच्छा होगी वैसा ही होगा ।’’ नरसीं ने श्रीकृष्ण के सामने आसन जमाया, टाळवीणा ली । ‘नरसीं की भक्ति सच्ची अथवा निंदकों की आसुरी शक्ति सच्ची’, यह निर्णय लगना था । 
नटनागर को भक्तों की परिक्षा लेने का शौक ! नरसीं हेतु प्रकट होना, श्रीकृष्ण के लिए असंभव थोडे ही था ! केदार राग आलापे बिना श्रीहरी अपनी जगह से न हिले, क्या संत नरसी मेहता की साधना, भक्ति इतनी लूली-लंगडी, दुबली थी ? 
समय आगे-आगे जा रहा था । बीच रात का समय आया । नरसीं की कसौटी का क्षण दूर नहीं था । विरोधकों की आशाएं जागृत हुई । उसी समय नगरी में चमत्कार हुआ । साहूकार के दरवाजे पर हलकी सी थपकी हुई । नरसी मेहता की आवाज उसे सुनाई दी, ‘‘कृपा करके दरवाजा खोलिए ।’’ साहूकार ने स्वागत किया। नरसीं ने ब्याज एवं मूल रखा तथा कहा, ‘‘पैसे वापस करने में देर हुई । क्षमा करना । ‘केदार’ राग मुक्त हुआ ऐसी रसीद दो ।’’ 
साहूकार ने पैसे लिए तथा करार पत्र निकाला । पैसा पहुंचनेके हस्ताक्षर कर कागज संत नरसी मेहता को दे दिया । इधर भजन करते संत नरसी मेहता ने ऐसे ही आंख खोलकर कृष्णमूर्ति की तरफ देखा। उतने में एक कागज हलके से उनके सामने आया । ब्याज-मूल पहुंचने का साहूकार का हस्ताक्षर किया करारपत्र देंखकर नरसी अचंभित हुए ! उनके आनंदकी सीमा नहीं रही। श्रीकृष्णकी लीला अगाध थी । उनका केदार मुक्त हुआ था! नरसीं ने केदार राग में भजन आलापना आरंभ किया। 
केदार के स्वरों से एक अलग ही दिव्य स्वरभावविश्व निर्माण हुआ ।
श्रीकृष्ण की मूर्ति की चारों ओर एक तेजोवलय निर्माण हुआ । निंदकों का दिल धक से रह गया ! नरसीं की आखों से प्रेमाश्रू बहने लगे । इतनी देर जड अचेतन श्रीकृष्णमूर्ति सजीव हो गई तथा अपने हाथ की पुष्पमाला नरसीं के गले में डालने हेतु आगे बढने लगी । केदार की स्वलहरों से प्रसन्न हुए, भक्तों की लाज रखने वाले गिरधर नागर अपने भक्तके गले में माला पहनाकर क्षणार्ध में अंतर्धान हो गए......!

सोमवार, 28 मार्च 2016

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मन भुजंग यहु विष भर्या, निर्विष क्योंही न होइ ।
दादू मिल्या गुरु गारड़ी, निर्विष कीया सोइ ॥ 
दादू जीव जंजालों पड़ गया, उलझ्या नौ मण सूत ।
कोई इक सुलझे सावधान, गुरु बाइक अवधूत ॥ 
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साभार ~ Manoj Puri Goswami 
~ आसान रास्ता~
एक बार एक डाकू गुरु नानक के पास गया और उनके चरणों में गिरकर बोला - 'मैं अपने जीवन से परेशान हो गया हूं। जाने कितनों को मैंने लूटकर दुखी किया है। मुझे कोई रास्ता बताइए ताकि मैं इस बुराई से बच सकूं।'
गुरु नानक ने बड़े प्रेम से कहा - 'यदि तुम बुराई करना छोड़ दो तो बुराई से बच जाओगे।' गुरु नानक की बात सुनकर डाकू बोला - 'अच्छी बात है, मैं कोशिश करूंगा।' यह कहकर वह वापस चला गया। कुछ दिन बीतने के बाद वह फिर उनके पास लौट आया और बोला - 'मैंने बुराई छोड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन छोड़ नहीं पाया। अपनी आदत से मैं लाचार हूं। मुझे कोई अन्य उपाय बताइए।'
गुरु जी बोले - 'अच्छा, ऐसा करो कि तुम्हारे मन में जो भी बात उठे, उसे कर डालो, लेकिन रोज-रोज दूसरे लोगों से कह दो।' डाकू को बड़ी खुशी हुई कि इतने बड़े संत ने जो मन में आए, सो कर डालने की आज्ञा दे दी। अब मैं बेधड़क डाका डालूंगा और दूसरों से कह दूंगा। यह तो बहुत आसान है। वह खुशी-खुशी उनके चरण छूकर घर लौट गया। कुछ दिनों बाद डाकू फिर उनके पास जा पहुंचा। गुरु नानक ने पूछा - 'अब तुम्हारा क्या हाल है?'
डाकू बोला - 'गुरुजी, आपने मुझे जो उपाय बताया था, मैंने उसे बहुत आसान समझा था, लेकिन वह तो निकला बड़ा मुश्किल। बुरा काम करना जितना मुश्किल है तो उससे कहीं अधिक मुश्किल है - दूसरों के सामने उसे कह पाना। इस काम में बहुत ज्यादा कष्ट होता है।' इतना कहकर डाकू चुप हो गया और फिर बोला - 'गुरुजी इसलिए अब दोनों में से मैंने आसान रास्ता चुन लिया है। मैंने डाका डालना ही छोड़ दिया है।' गुरु नानक मुस्करा दिए