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शुक्रवार, 6 मार्च 2020

चितावणी कौ अंग १२/१५

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ९. चितावणी कौ अंग) 
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*एका एकी राम सों, कै साधु का संग ।* 
*दादू अनत न जाइये, और काल का अंग ॥१२॥* 
हे साधक ! तू केवल परमात्मा का ही भजन कर और किसी का भी संग मत कर । क्योंकि श्रीमद्भागवत में लिखा है कि अपनी आत्मा में क्रीडा करता हुआ आत्मा से ही प्रेम एवं आत्मवान् होकर जितेन्द्रिय साधक पृथ्वी पर अकेला ही रमता रहे । क्योंकि बहुतों के संग में कलह हो जाता है । दो के साथ रहने में सांसारिक बातचीत होने लगती है । अतः भिक्षुक को अकेला ही रहना चाहिये । जैसे नारी के हाथ में अनेक चूडियां हो तो वे आवाज करती हैं, परन्तु अकेली नहीं बजती । 
सिद्धि प्राप्ति के लिये भी साधक को अकेला ही रहना चाहिये । क्योंकि सिद्धियाँ उसको अकेला देखकर नहीं छोड़ती और कभी नष्ट भी नहीं होती । 
अकेला ही पैदा होता और अकेला ही मरता है, अकेला ही अपने पाप पुण्य को भोगता है । अतः साधक को अकेला ही रहना चाहिये, यदि देखा जाय तो संग सर्वदा वर्ज्य है । यदि अकेला नहीं रहा जाय तो फिर महात्माओं का संग करना चाहिये, सत्संग ही संसाररूपी रोग की औषधि है । श्री भगवान् शंकारचार्य जी लिखते हैं कि- 
संग करो तो सत्पुरुषों का करो । भगवान् की दृढ़ भक्ति करो । ईश्वर का पूजन करो । काम की बुद्धि को त्याग दो । प्रतिदिन विद्वानों का संग करो और उनके पादुका की सेवा करो । 
*दादू तन मन के गुण छाड़ि सब, जब होइ नियारा ।* 
*तब अपने नैनहुं देखिये, प्रगट पीव प्यारा ॥१३॥* 
जीवात्मा जब हिंसा आदि शरीर के धर्मों को काम क्रोध आदि मानस विकारों को त्याग कर देह से अपने आपको भिन्न समझने लगता है तब वह अपने प्रिय ब्रह्म का साक्षात्कार करता है । उस समय उसका सारा भेद निवृत्त हो जाता है । उपदेशसाहस्त्री में लिखा है कि- 
दृष्टा, दृश्य और इनका दर्श(यानी ज्ञान) यह सब भ्रम, जीव कल्पित है । ज्ञान से भिन्न दृश्य है ही नहीं । जैसे जागने पर स्वप्न के भ्रम स्वयं ही निवृत्त हो जाते हैं । अतः ज्ञानी को अपना स्वरूप सर्वत्र दीखता है । इसी अभिप्राय से श्री दादूजी महाराज लिख रहे हैं कि “तब अपने नैनहुं देखिये परगट पीव प्यारा” । 
*दादू झांती पाये पसु पिरी, अंदरि सो आहे ।* 
*होणी पाणे बिच्च में, महर न लाहे ॥१४॥* 
*दादू झांती पाये पसु पिरी, हाणे लाइ न बेर ।* 
*साथ सभौई हल्लियो, पोइ पसंदो केर ॥१५॥* 
हे साधक ! तुम्हारा प्यारा परमात्मा तेरे अन्तःकरण में तेरे पास ही विराजता है । अन्तर्मुख वृत्ति से तू उसको देख और परमेश्वर की कृपा का अनुभव कर । अब विलम्ब मत कर तेरे साथी(इन्द्रियाँ) सभी चले गये हैं । अब इस संसार में क्या देखता है? परमेश्वर के बिना तेरा कोई नहीं है । अपने भ्रम से व्यर्थ में ही तू क्यूं दुःखी हो रहा है? 
सर्ववेदान्तसार संग्रह में कहा है कि- 
सूर्य कुछ भी कर्म नहीं करता और न करवाता है । अपने अपने स्वभाव के अनुसार इन्द्रियाँ कर्म कर रही हैं, प्रत्यगात्मा तो सूर्य की तरह निष्क्रिय उदासी नहीं है । देहादिकों की प्रवृत्ति स्वभावानुसार हो रही है । माया से मोहित चित्त वाले अज्ञानी प्राणी आत्मा तत्व के स्वरूप को जाने बिना ही आत्मा में कर्तृत्व भौक्तृत्व आदि अनात्म धर्मों का आरोप कर देते हैं । आत्मा तो असंग निष्क्रिय चैतन्य स्वरूप है । जैसे दूरस्थ मेघों के कारण चन्द्र में भ्रम से गति का आरोप करते हैं वैसे ही आत्मरुपी चन्द्र में अज्ञानरूपी मेघ के कारण अज्ञानी पुरुष यह सब कुछ आत्मा का कार्य है ऐसा मिथ्या आरोप करते हैं, तथा दुःखी होते हैं । 
चितावणी का अंग समाप्तः ॥९॥ साखी १५॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 5 मार्च 2020

चितावणी कौ अंग ६/११

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ९. चितावणी कौ अंग) 
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*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।* 
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥६॥* 
*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं करि चित्त ।* 
*यह अनहद जहाँ थैं ऊपजै, खोजो तहाँ ही नित्त ॥७॥* 
*दादू जन ! कुछ चेत कर, सौदा लीजे सार ।* 
*निखर कमाई न छूटणा, अपने जीव विचार ॥८॥* 
हे साधक ! तुम असावधान मत रहो । किन्तु अविद्या निद्रा को त्याग कर चेतन ब्रह्म में अपने चित्त को लगाओ । गीता में लिखा है कि- 
संपूर्ण प्राणियों के लिये जो निशा की तरह अविद्या निशा हैं । उससे जितेन्द्रिय पुरुष जागा हुआ है । अर्थात् अविद्या को त्याग कर ब्रह्म में स्थित है और जिस अविद्या निद्रा में जागता हुआ सारा संसार व्यवहार कर रहा है, उस में ज्ञानी सो रहे हैं । अर्थात् वे ज्ञानी व्यवहारातीत हैं । अतः व्यवहारातीत होकर जहां अनाहत चक्र में अनाहद नाद सुनाई पड़ता है वहीँ पर ब्रह्म को खोजो, अवश्य दर्शन देगा । हे साधक ! कुछ चेत, इस असत्य व्यवहार में क्यों उलझा हुआ है अर्थात् इसमें क्यों अनुराग कर रहा है । यह यद्यपि शास्त्रविहित है तथापि तुझे नहीं तार सकेगा । अतः ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करो । वह ही तुझे संसार से पार लगाने वाला है । वेदान्तसंदर्भ में बतलाया है कि ज्ञान क्या है, और कैसे होता है? आत्मा अनात्म के विवेक हो ही ज्ञान कहते हैं । जब गुरु शिष्य को आत्मा अनात्मा का विवेक करके बतलाता है तब शिष्य शब्द ब्रह्म को पार कर जाता है । गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! तू देह नहीं है न मन, न प्राण, न बुद्धि, क्योंकि ये सब विकारवान् और विनाशशील है, जैसे घड़ा दृश्य होने से विनाशी है । 
केवल विशुद्ध ज्ञान निर्विशेष निरंजन परम आनन्दस्वरूप एक अद्वितीय है वह ही तू है । ऐसा जो अद्वय ज्ञान ही ज्ञान कहलाता है । तुम उसको प्राप्त करो । अन्यथा तुम्हारा संसार से निस्तारण नहीं हो सकेगा । 
*दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़ ।* 
*जाना है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़ ॥९॥* 
हे साधक ! हरि का भजन कर । भजन का साधन जो हरि नाम है उसको मत छोड़ । यहां पर सदा कोई नहीं रहा, अवश्य यहां से जाना होगा । अतः अभी से उस प्रभु के साथ प्रीति करले । 
*आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग ।* 
*दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥१०॥* 
यह तेरा, यह मेरा, इस भाव को त्याग दो । यह तेरा यह मेरा ऐसे विचार तो हलके विचार वालों के होते हैं । जो महान् चित्त वाले हैं उनके लिये तो सारा संसार ही कुटुम्ब है । अतः सत्पुरुषों की संगति से तेरे मेरे भाव को दूर करो । भगवान् की भक्ति करो । काल किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता । प्रतिदिन जा रहा है । युवा अवस्था भी अति चंचल है । जो-जो भोग पदार्थ हैं, वे, सब दुरन्त दुःख के देने वाले हैं । भाई बन्धु सब बांधने वाले हैं । भोगों को तो तुम महा रोग ही समझो । तृष्णा मृगतृष्णा की तरह मिथ्या है । अपनी इन्द्रियां ही शत्रु है । अपना बैरी आप ही है । आप अपने आप को मार रहा है । चींटी से लेकर ब्रह्मापर्यन्त सब ही भूत जातियाँ तुच्छ ही है । यह देह भी केवल दुःख के लिये ही है । सर्वथा अनात्मा होते हुए भी अपने को आत्मा मानने का चमत्कार दिखला रहा है, क्षण में ही आनन्दित हो जाता है और क्षण में दुःखी हो जाता है । देह के समान नीच शोचनीय तथा गुणहीन कोई भी पदार्थ नहीं है । ऐसा ज्ञान प्राप्त करके अपने आपको जगाओ । 
*बार बार यह तन नहीं, नर नारायण देह ।* 
*दादू बहुरि न पाइये, जन्म अमोलिक येह ॥११॥* 
यह शरीर दुर्लभ है, बार-बार प्राप्त नहीं होता । नारायण की प्राप्ति इसी में होती है, इसी से इस का महत्त्व है और यह अमौलिक है । अनन्त पुण्यों से मिला है । इसके द्वारा नारायण को प्राप्त करके शान्त बन जावो । हे साधक ! तू नारायण स्वरूप है । भ्रान्ति से सिद्ध जीव भाव को त्याग दे । स्वतः सिद्ध माया रहित निजरूप है । उसको याद कर । ईश्वर का भजन कर । तू कर्ता भोक्ता सुखी दुःखी संसारी जीव नहीं है । किन्तु तीनों अवस्थाओं से अतीत् गुणातीत, शब्दातीत ब्रह्म ही है । ऐसा जान कर सुखी हो जावो । लिखा है कि यह मनुष्य बड़ा ही दुर्लभ है और वैसे यह क्षणभंगुर है। इस शरीर से वैकुण्ठनाथ का दर्शन भी दुर्लभ ही है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 4 मार्च 2020

चितावणी कौ अंग १/५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ९. चितावणी कौ अंग) 
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
*दादू जे साहिब कौं भावै नहीं, सो हम थैं जनि होइ ।* 
*सतगुरु लाजै आपणा, साध न मानैं कोइ ॥२॥* 
मुक्ति को देने वाले इस मनुष्य शरीर में आकर जीव को शुभ कर्म ही करने चाहिये, अशुभाचरण नहीं । क्योंकि अशुभ कर्मों के करने से प्रभु प्रसन्न नहीं होते । गुरु को भी शिष्य के दुर्गुणों को सुन कर लज्जा आती है । साधु भी उन कर्मों की प्रशंसा नहीं करेगें । तो फिर क्या करना चाहिये, तो बतला रहे हैं कि- 
वेदान्त का युक्तियों द्वारा श्रवण मनन करे और योग का अभ्यास नित्य करे । जिससे आत्मा का दर्शन हो जावे । 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो सब परिहर प्राण ।* 
*मनसा वाचा कर्मणा, जे तूं चतुर सुजाण ॥३॥* 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो जीव न कीजी रे ।* 
*परिहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे ॥४॥* 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो बाट न बूझी रे ।* 
*सांई सौं सन्मुख रही, इस मन सौं झूझी रे ॥५॥* 
हे साधक ! यदि तू व्यवहार चतुर और बुद्धिमान है तो प्रभु की प्रसन्नता के विरोधी हिंसा अहंकार दम्भ आदि कर्मों में आसक्त मत हो । क्योंकि यह सब आसुर वृत्ति वाले कर्म हैं और सन्मार्ग का विरोध करने वाले हैं । अतः तुम उन विषय-विकारों को त्याग कर राम नाम रूप अमृत का पान कर । तथा मन के साथ उसको जीतने के लिये युद्ध कर । श्रुति में कहा है कि इस संसार में जो कुत्सित कर्म करने वाले हैं, वे नीच योनि में जन्म लेते हैं । जैसे कुत्ता, सूकर चाण्डाल योनि को प्राप्त करते हैं । तो फिर मन से कैसे लड़ें? यह लिख रहे हैं कि-वेदान्त संदर्भ में माया से युक्त ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं और मायातीत सच्चिदानन्द स्वरूप निरन्जन ब्रह्म है । उस चिदाकाश में मायारूपी मेघ है जिसमें बिजली चमक रही है और अहंता की गर्जना हो रही है । जहां पर महामोह का अन्धकार व्याप्त है । वहां पर देव द्वारा लीला करते हुए असार पदार्थों की वृत्तियों को नष्ट करने के लिये ज्ञान रूपी वायु है, जिससे उनका नाश हो जायेगा । दृग और दृश्य के मान को ज्ञान कहते हैं और दृश्य सर्वथा शून्य हो जाता है तब उसको विज्ञान कहते हैं । अतः ज्ञान विज्ञान के द्वारा इस मायामेघ को नष्ट कर दो । जिससे मन में असद् वृत्तियों की वर्षा न होगी । इसी प्रकार मन को जीतने के लिये युद्ध करना चाहिये । 
(क्रमशः)

मंगलवार, 3 मार्च 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ९६

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥करतूती करम॥* 
*कर्मै कर्म काटै नहीं, कर्मै कर्म न जाइ ।* 
*कर्मै कर्म छूटै नहीं, कर्मै कर्म बँधाइ ॥९६॥* 
संचित प्रारब्ध और आगामी ये तीन प्रकार के कर्म होते हैं । किसी भी कर्म से कर्म का नाश नहीं हो सकता । सभी कर्म अविद्या मूल कहें । किन्तु ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होने पर तो आगामी तथा पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है । अर्थात् उत्तर कर्मों के साथ संश्लेष नहीं और पूर्व संचित कर्मों का नाश हो जाता है । छान्दोग्य में लिखा है कि जैसे कमल के पत्तों पर पानी नहीं ठहरता वैसे ही ज्ञान होने पर ज्ञानी के पाप कर्मों का सम्बन्ध नहीं हो सकता । ऐसे ही पूर्व कर्मों का नाश भी देखा गया है । जैसे तूलिका को अग्नि में डालने से नष्ट हो जाती है ऐसे ही सब पाप कर्म ज्ञानी के नष्ट हो जाते हैं और भी कोई कर्म अब शेष हों तो वे 
भी ज्ञान से नष्ट हो जाते हैं । लिखा है कि- 
“उस परब्रह्म परमात्मा के ज्ञान से हृदय ग्रन्थि खुल जाती है और सारे संशय तथा सारे पाप क्षीण हो जाते हैं । यहां पर यह आशय है कि ब्रह्मविद्या के सामर्थ्य से मिथ्या ज्ञान के निवृत्त होने पर पूर्व सिद्ध कर्तृत्व भौक्तत्व से विपरीत “मैं ब्रह्म स्वरूप हूं” पहले भी ब्रह्म रूप था आगे भी ब्रह्म रूप रहूंगा वर्तमान में भी ब्रह्मरूप ही हूं ऐसा ज्ञान ब्रह्मवेत्ता को होता है । जिससे उसका मोक्ष हो जाता है । अन्यथा अनादिकाल में प्रवृत्त कर्मों का नाश न होने से मोक्ष का अभाव हो जायगा । ब्रह्मसूत्र में लिखा है कि- ब्रह्म ज्ञान होने पर कर्मों का नाश तथा आगामी कर्मों का संश्लेष नहीं होता ज्ञानी के ऐसे ही पुण्य का भी नाश और संश्लेष का अभाव सुना है । पुण्य भी अपना फल देता है । अतः ज्ञान में वह भी प्रतिबन्धक पुण्य के लिये भी पाप शब्द का प्रयोग देखा गया है । “जैसे नैनं सेतु महोरात्रे तरतः” इस श्रुति में पाप के साथ पुण्य का भी अनुक्रमण किया है । “सर्वे पाप्मानो निवर्तन्ते” इस अवशेष मन्त्र में पाप पुण्य इन दोनों का ही निवृत्ति बतलाई है । “क्षीयन्ते चास्य कर्माणि” इस मन्त्र में भी पाप पुण्य दोनों का ही ग्रहण किया गया है । ज्ञान फल की अपेक्षा पुण्य का फल भी ज्ञान से निकृष्ट होने से पुण्य भी ब्रह्म ज्ञान का प्रतिरोधक माना है । प्रारब्ध कर्मों का तो भागने से ही नाश होता है । ब्रह्म सूत्र में कहा है कि- 
चाहे करोड कल्प भी व्यतीत क्यों न हो जाय परन्तु प्रारब्ध कर्म तो भोग के बिना नष्ट नहीं हो सकता । अतः सभी कर्म ज्ञान के प्रति बन्धक होने से कर्मों से कर्मों का नाश नहीं हो सकता । कहा है कि मनुष्य कर्म से बंध जाता है और विद्या से मुक्त हो जाता है । इसी अभिप्राय से श्री दादूजी महाराज ने लिखा कि-“कर्मै कर्म काटे नहीं” भागवत में भी कहा है कि- जैसे कीचड से कीचड नहीं धुलता, सुरा पीने से सुरा पीने का जो पाप है, वह निवृत्त नहीं होता । भूतहत्या को यज्ञों से नहीं मिटा सकते और भी कहा है कि हे राक्षसों निषेकादि अवस्थाओं में कर्मों से क्लेश पाने वाले प्राणी को कितना स्वार्थ मिलता है, सो बतलावो, कुछ भी नहीं मिलता यह जीवात्मा शरीर से कर्म करता है कर्मों से शरीर प्राप्त होता है । फिर कर्म करता है यह सब अविवेक से ही है । इसलिये धर्म अर्थ काम मोक्ष जिसके आश्रित्, उस आत्मा हरि को निष्काम भाव से भजो । 
निष्कर्मीपतिव्रता का अंग समाप्तः ॥८॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 2 मार्च 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ८९/९५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥आन लग्न विभचार॥*
*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।*
*अठसिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥८९॥*
*स्वारथ सेवा कीजिये, ताथैं भला न होइ ।*
*दादू ऊसर बाहि कर, कोठा भरै न कोइ ॥९०॥*
*सुत वित मांगैं बावरे, साहिब सी निधि मेलि ।*
*दादू वे निष्फल गये, जैसे नागर बेलि ॥९१॥*
*फल कारण सेवा करै, जाचै त्रिभुवन राव ।*
*दादू सो सेवक नहीं, खेलै अपना दाव ॥९२॥*
*सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥९३॥*
सकामी भक्त किसी कामना को लेकर भगवान् को भजते हैं, लेकिन कामना से भजने वाले का कल्याण नहीं होता । कामना से की गयी सेवा उषरभूमि में डाले हुए बीज की तरह निष्फल ही है । परमात्मा जैसी निधि को प्राप्त करके भी जो मूर्ख भगवान् से स्त्री पुत्र धन आदि की याचना करते हैं उनका जीवन नागरबेली की तरह निष्फल ही चला जाता है । दुराराध्य हरि की आराधना करके जो सांसारिक सुख या पारलौकिक सुखों की भगवान् से याचना करते हैं, वे अज्ञानी हैं । कर्म फल प्राप्त होने पर वे हरि को भी कभी कभी भूल जाते हैं । अहो ! इस कलियुग में प्रायः ऐसे ही भक्त होगें जो अपना मतलब बनाकर भगवान् को भूल जायेंगे । भागवत में कहा है कि-स्त्री पुत्र धन मन्दिर वसुधा हाथी कोष विभूति इनके अतिरिक्त और भी वस्तु चाहते हैं वे सब पदार्थ चंचल है । मनुष्य की आयु क्षणभंगुर है । अतः जीव को इस जीवन में उनसे कितना प्यार प्राप्त हो सकता है और वे पदार्थ भी अनित्य है । पुण्य की कहीं अधिकता कहीं न्यूनता है, वे भी निर्मल नहीं है । अतः जिसमें कभी भी दूषण देखने सुनने में नहीं आवे, ऐसे भगवान् वासुदेव का अपनी आत्मा की प्राप्ति के लिये तुम सब भजन करो । कामना वाले कर्म से पुरुष जिस सुख के लिये कामों की चाहना करता है, वह देह तो पराया है । क्षणभंगुर है । कभी प्राप्त हो जाते हैं कभी न हो जाते हैं । स्त्री, पुत्र, घर, धन, राज्य, भण्डार, हाथी, मंत्री, भृत्य यह देह से दूर होते हुए ममता के स्थान है । इन से क्या लाभ होना है । जो शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं । जो आत्मा अव्यक्त अविनाशी आनन्द का महासमुद्र है उसको तुच्छ समझना, जो सुख अनर्थकारी और विनाशी है । देह से ही पैदा होते हैं और अज्ञान से सुखदायी प्रतीत होते हैं । परमेश्वर के सामने स्त्री पुत्र धनादि कुछ भी नहीं है । अतः जिसके धर्म अर्थ काम मोक्ष आश्रित हैं, उसी श्री हरि परमात्मा को भजो ।
उस भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर कौन सा ऐसा पदार्थ है कि जो नहीं मिलता । तथा स्वयं ही जो मानव को प्राप्त होने वाले हैं उनको भगवान् से क्या मांगना? अतः निष्काम भाव से भगवान् के चरणों को भजो ।      
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*॥सुमिरण नाम महात्म॥*
*तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार ॥९४॥*
*दादू सांई को संभालतां, कोटि विघ्न टल जांहि ।*
*राई मन बैसंदरा, केते काठ जलांहि ॥९५॥*
जो शरीर मन से निष्काम भाव से सर्वात्माभगवान् को जो सृष्टि के बनाने वाले हैं, उनको भजते हैं, ऐसे भक्त दुर्लभ हैं । जैसे छोटा सा अग्नि का कण करोडों मण लकड़ी के ढेर को जला देता है वैसे ही हरि नाम का स्मरण करने वाले भक्तों के करोड़ों जन्मों की पाप राशि हरि स्मरण से नष्ट हो जाती है । भागवत में भी कहा है कि-
दुष्ट चित वाला भी यदि हरि को भजता है तो हरि उसके पापों को नष्ट कर देते । जैसे बिना इच्छा के भी अग्नि का स्पर्श होने पर वह अग्नि जला देती है ।
(क्रमशः)

रविवार, 1 मार्च 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ८४/८९


🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*कोटि वर्ष क्या जीवना, अमर भये क्या होइ ।* 
*प्रेम भक्ति रस राम बिन, का दादू जीवन सोइ ॥८४॥* 
भक्त को प्रेमाभक्ति तथा राम दर्शनों के बिना करोड़ों वर्षों के लिये भागने को दीर्घ जीवन भी दे दिया जाय तो वह उसके लिये व्यर्थ ही है । स्वर्गीय सुख भी उसके लिये व्यर्थ ही है । क्योंकि वह उनको चाहता ही नहीं है । कठ में नचिकेता यमराज को कह रहे हैं कि- 
हे यमराज जिन भोगों का आपने वर्णन किया है वे सब क्षणभंगुर हैं । और मनुष्यों की इन्द्रियों की शक्ति को जीर्ण कर देते हैं । इसके सिवाय आयु चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो वह थोड़ी ही मानी जाती है । अतः यह आपके रथ वाहन और अप्सराओं के नाच गान आपके ही पास रहें । मुझे नहीं चाहिये । 
मनुष्य को कभी भी धन से तृप्त नहीं किया जा सकता है और धन तो आपके दर्शनों से मिल ही जायगा और जब तक आपका शासन रहेगा तब तक हम जीते ही रहेगें । अतः इन सबको क्या मांगना है । मेरे लायक वर तो आत्म ज्ञान ही है । 
यह मनुष्य जीर्ण होने वाला है तथा मरणधर्मा है, इस रहस्य को जानने वाला मनुष्य लोक का निवासी ऐसा कौन होगा जो कि बुढापे से रहित न मारने वाले आप जैसों का संग पाकर भी स्त्रियों के सौन्दर्य क्रीडा आमोद प्रमोद का बार बार ध्यान करता हुआ बहुत काल तक जीवित रहने में प्रेम करेगा । भागवत में- 
हे राजन इन्द्रियजन्य सुख दुःख ये दोनों ही प्राणियों को स्वर्ग नरक में भी मिलते हैं । अतः बुद्धिमान मनुष्य इनकी इच्छा न करे । 
*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।* 
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥८५॥* 
हे साधक ! तू कामना को त्याग दे । क्योंकि कामना दुःखदायी होती है । मैं सगुण से निर्गुण हो जाऊं, जीव से ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाऊं, सब ही तेरा मान सन्मान करें, ऐसी कामना भी नहीं करनी चाहिये । किन्तु निष्काम होकर ब्रह्म का ध्यान करें । अथवा पाचों ज्ञानेन्द्रियों को और मन को जीतकर जो सांसारिक कामना को त्याग कर, जो मेरे को निर्गुण ब्रह्म मान कर मेरा ध्यान करता है तो वह जीव भाव से ब्रह्म भाव में चला जाता है । 
*घट अजरावर ह्वै रहै, बन्धन नांही कोइ ।* 
*मुक्ता चौरासी मिटै, दादू संशय सोइ ॥८६॥* 
पूर्वोक्त रीति से निर्गुण ब्रह्म का ध्यान करे तो जीव के बन्धन करने वाले सारे कर्म नष्ट हो जाय और उसका शरीर भी देवादिकों की तरह पूजनीय हो जाय, संशय की निवृत्ति से जन्म मरण रहित होकर जीवन्मुक्त हो जाता है । लिखा है कि उस ब्रह्म को जान लेने से हृदयग्रंथी नष्ट हो जाती और सारे संशय दूर हो जाते हैं और कर्मों के क्षीण हो जाने से वह मुक्त हो जाता है । 
*॥लांबि रस॥* 
*निकटि निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव ।* 
*दादू पीवै राम रस, निहकामी निज सेव ॥८७॥* 
हे साधक ! जब तक तेरी ब्रह्माकारवृत्ति ब्रह्म में लीन नहीं होवे तब तक तू ब्रह्माभ्यास को मत छोड़, किन्तु निष्काम होकर ब्रह्म परायण होता हुआ अखण्ड राम-रस का पान कर । वेदान्तसन्दर्भ में लिखा है कि- 
“जैसे जल में डाला हुआ लवण गलकर जल रूप ही भासता है, जल से अलग होकर नहीं दीखता । ऐसे ही ब्रह्माकारवृत्ति भी ब्रह्म से मिलकर अद्वितीय ब्रह्मरूप ही भासती है । अलग नहीं ।” 
*॥प्रचै पतिव्रत॥* 
*सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोइ ।* 
*सारूप्य सारीखा भया, सायुज्य एकै होइ ॥८८॥* 
*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।* 
*अठसिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥८९॥* 
द्वैतवादी सालोक्य सामीप्य सारुप्य, सायुज्य भेद से चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं । परन्तु राम भक्ति का रसिक भक्त तो चारों प्रकार की मुक्ति को भी नहीं चाहता है । फिर अष्ट सिद्धि नव निधि को की तो इच्छा उसकी हो ही नहीं सकती । क्योंकि वे राम के प्यारे राम को छोड़कर अन्य से उनका कोई प्रयोजन ही नहीं रहता ।
(क्रमशः)

शनिवार, 29 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ८०/८३

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥पतिव्रत॥* 
*दादू दूजा कुछ नहीं, एक सत्य कर जान ।* 
*दादू दूजा क्या करै, जिन एक लिया पहचान ॥८०॥* 
तत्व ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है । इससे भिन्न जो ज्ञान है, वह मिथ्याज्ञान होने से अज्ञान ही है । इस विषय में वैदिक दृष्टान्त प्रमाणरूप से दिया जाता है । 
हे सौम्य ! एक मृत्पिण्ड को जान लेने से सब कुछ मिट्टी से बनने वाले मृन्मय पात्र जाने जाते हैं । जितना भी नामधेय है वह सब वाणी का विकार है । मिट्टी ही सत्य है । इसका भाव यह है कि जो यह मृत्पिण्ड है, यह परमार्थ से मिट्टी ही है । इस प्रकार मृदात्मरूप से जान लेने पर सब मृन्मय घट शराब उदञ्चन आदि मृण्मय जान लिये जाते हैं । क्योंकि मिट्टी रूप होने से मिट्टी के अलावा उनमें कोई विशेषता नहीं दीखती । क्योंकि सब नाम ध्येय वाणी का विकार है । अर्थात् वाणी ही घट शराब उदञ्चन आदि से विकार को प्राप्त हो रही है । वस्तुतः विकार नाम का कोई पदार्थ है नहीं । किन्तु नामध्येयमात्र मिथ्या है, केवल मिट्टी ही सत्य है । यह दृष्टान्त ब्रह्म की सत्यता में दिया जाता है । दार्ष्टांत भी ब्रह्म से भिन्न जितना भी कार्य है उसका अभाव ही ब्रह्म में प्रतीत होता है । अन्य श्रुतियों में भी ब्रह्म का एकत्व प्रतिपादन किया हुआ है । जैसे यह सब आत्मा ही है । वही सत्य है । जो सत्य है, वही आत्मा है । हे जीव तू ब्रह्मस्वरूप है । जो कुछ है वह आत्मा है । आत्मा ही सब कुछ है ब्रह्म ही सब कुछ है । जो नानात्व प्रतीत हो रहा है, वह मिथ्या है, इन सब श्रुतियों से आत्मा का एकत्व सत्यत्व प्रतिपादन किया गया है । इस प्रकार जिस जिज्ञासु ने भोग्य भोक्ता आदि सकल प्रपञ्च का ब्रह्म से अतिरिक्त मिथ्यात्व जान लिया, उसको द्वैत से क्या प्रयोजन है । 
*दादू कोई वांछै मुक्ति फल, कोइ अमरापुर वास ।* 
*कोई वांछै परमगति, दादू राम मिलन की प्यास ॥८१॥* 
कितने ही साधक भक्त सालोक्य सामीप्य सायुज्य सारुप्य नामक चार मुक्तियों को चाहते हैं । कितने ही स्वर्गीय सुख की कामना करते हैं, कितने ही परम गति को प्राप्त करके अपने को सुखी मानते हैं । किन्तु श्री दादूजी महाराज तो दर्शन की अभिलाषा के कारण दर्शन ही चाहते हैं, अन्य कुछ नहीं । भगवत्प्रिय भक्तों का यही लक्षण कहा है कि- 
“जिसने अपने मन और आत्मा को भगवान् में लगा रखा है वह भक्त ब्रह्मलोक प्राप्त होने पर भी उसको नहीं चाहता, न इन्द्र का साम्राज्य स्वर्ग को, न पृथ्वी पर सार्वभौम राज्य, न पाताल का राज्य, न योगजन्य ऋद्धि सिद्धियों को, न मोक्ष को चाहता है । किन्तु सदा दर्शन ही चाहता है । वह ही भगवान् का परमप्रिय भक्त होता है ।” 
*तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द ।* 
*दादू देखै नैन भर, तब केता होइ आनन्द ॥८२॥* 
मैं साधन विहीन हूं और आप भक्तवत्सल हैं । अतः हरे ! आप ही कृपा करके मेरे हृदय में रहते हुए भी बाहर प्रकट होकर दर्शन दीजिये । जिससे आपको बार-बार देखकर दर्शानन्द से तृप्त हो जाऊं । अहो ! जब आप प्रकट होकर दर्शन देंगे तब मुझे असीम आनन्द की प्राप्ति हो जायगी । भक्तिरसायन में लिखा है की- 
“हे कृष्ण जो महात्मा लोग आपके दर्शनों के लिये योग साधना करते हैं, उनको आपका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है । यह वाणी सम्भव है, कुछ अर्थ रखती हो । लेकिन हम तो इस बात को बिलकुल मिथ्या मानती हैं, क्योंकि हमारा मन आपके संयोग में आसक्त हो रहा है, फिर भी आपके पवित्र दर्शन गोपियों को जो नहीं हो रहा है । अतः आप की वाणी बिलकुल मिथ्या है, क्योंकि योग की अपेक्षा संयोग का महत्व ज्यादा है ।” 
*प्रेम पियाला राम रस, हमको भावै येहि ।* 
*रिधि सिधि मांगैं मुक्ति फल, चाहैं तिनको देहि ॥८३॥* 
मैं तो प्रेम का प्यासा हूं, अतः हे भगवान् ! आप प्रेम से अपना निज रस(भक्ति रस) पिलाइये । मैं मुक्ति फल ऋद्धि सिद्धियों से प्राप्त होने वाला सुख भी नहीं चाहता हूँ । जो इनको चाहते हैं आप उनको दीजिये । मेरे को तो आप अपना प्रेम पिलाइये । क्योंकि जिसको जो प्रिय होता है, उसकी प्राप्ति से वह सुखी होता है । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ७६/७९

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*दादू टीका राम को, दूसर दीजे नांहि ।*
*ज्ञान ध्यान तप भेष पक्ष, सब आये उस मांहि ॥७६॥*
ज्ञान ध्यान तप सन्यास से जो फल मिलता है, वह सब भगवान् राम की उपासना से प्राप्त हो जाता है । राम शब्द से ब्रह्म का बोध समझना । नाम भेद से अर्थ में भेद नहीं हुआ करता है । जैसे घट कलश इनमें वर्णभेद होने पर भी कोई भेद नहीं है । पुराण में लिखा है कि-राम इन्द्र, कृष्ण, हरि, शम्भु, शिव, यह सब शब्द ब्रह्म का ही बोध कराते हैं । जैसे घट और कलश इन में जरा सा भी अर्थ में भेद नहीं है । ब्रह्म, शंकर, इन्द्र, आत्मा तथा चराचर जगत् इन सब के अवसान की सीमा विश्वेश आप ही हैं । क्योंकि सारे वेद वेदांग सारे जगत् का कारण आपको ही बतलाते हैं । अतः ब्रह्म की उपासना ही श्रेष्ठ उपासना है ।
*साधू राखै राम को, संसारी माया ।*
*संसारी पल्लव गहै, मूल साधू पाया ॥७७॥*
भक्त तथा संसारी पुरुषों में बहुत भेद है । भक्त तो भगवान् को भजते हुए अपने हृदय में भगवान् को धारण करते हैं । संसारी पुरुष कामनाओं से प्रेरित होकर नाना देवी-देवताओं की उपासना और माया का ही चिन्तन करते हैं इससे वे माया को धारण करने से जन्म मरण रूपी चक्र में पड़ते रहते हैं और भक्त संसार से मुक्त हो जाते हैं ।
*॥आन लगनि विभचार॥* 
*दादू जे कुछ कीजिये, अविगत बिन आराध ।*
*कहबा सुनबा देखबा, करबा सब अपराध ॥७८॥*
*सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजै आन ।* 
*दादू आपा सौंपि सब, पीव को लेहु पिछान ॥७९॥*
मनुष्य जो जो भी कर्म करता है, सुनता बोलता देखता है वह सब अपराध ही है, जो कुछ चतुराई है वह भी बन्धन का कारण होने से दुःख रूप ही है । अतः सब कुछ परमात्मा को समर्पण करके उसका भजन ही करना चाहिये । लिखा है कि वही कर्म अच्छा है जिससे भगवान् प्रसन्न हो । विद्या भी वही है जिससे भगवान् का ज्ञान प्राप्त हो । भागवत में लिखा है- 
जो भगवान् के पराक्रम की गाथाओं को कान से नहीं सुनता उसके कान सर्पों के रहने के लिये बिल के समान हैं । जिसकी जिव्हा भगवान् के गुणों को नहीं गाती तो वह मैंढक की जीभ की तरह व्यर्थ बकवाद करनी वाली है । जो मस्तक भगवान् के चरण कमलों में नमस्कार नहीं करता, वह उसके शरीर पर बोझा ही है । चाहे कितने ही भूषण धारण कर रखे हों । जो हाथ भगवान् की सेवा न करते हों तो वे चाहे कितनें सुवर्ण भूषणों से युक्त क्यों नहीं हों, परन्तु वे मुर्दे के हाथ की तरह होते हैं, नेत्रों से जिन्होंने भगवान् की मूर्ति के दर्शन नहीं किये, वह नेत्र मोर के चंदवे की तरह देखने मात्र के लिये ही है । जो पैरों से चल कर भगवान के मन्दिर में नहीं जाता तो उसके पैर, पेड की तरह ही है । जिस का हृदय भगवान् के नामों का उच्चारण करते हुए प्रफुल्लित नहीं होता । शरीर में रोमावली हर्षित नहीं होती नेत्रों में अश्रु धारा नहीं बहे तो वह हृदय पत्थर की तरह कठोर ही है । अतः परमात्मा को जानने में ही जन्म की सार्थकता है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ७२/७५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*सब आया उस एक में, डाल पान फल फूल ।* 
*दादू पीछे क्या रह्या, जब निज पकड़या मूल ॥७२॥* 
*खेत न निपजै बीज बिन, जल सींचे क्या होइ ।* 
*सब निष्फल दादू राम बिन, जानत है सब कोइ ॥७३॥* 
*दादू जब मुख मांहि मेलिये, तब सब ही तृप्ता होइ ।* 
*मुख बिन मेले आन दिश, तृप्ति न माने कोइ ॥७४॥* 
*जब देव निरंजन पूजिये, तब सब आया उस मांहि ।* 
*डाल पान फल फूल सब, दादू न्यारे नांहि ॥७५॥* 
इन पद्यों में श्री दादूजी महाराज ब्रह्म की उपासना को दृढ़ कर रहे हैं । केवल परिश्रम ही है और जैसे खेत में बीज बोये बिना जल का सींचना व्यर्थ है तथा मूढता को ही बोधित करता है अथवा जैसे शरीरस्थ प्राणों को मुख से भोजन दिये बिना शरीर के अंगों का भोजन से लेप करने से भोजन का दुरूपयोग ही होगा । तथा हंसी कराने वाली बात होगी । इसी प्रकार ब्रह्म की उपासना के बिना केवल देवताओं की उपासना स्वर्गादि तुच्छ फल को देने वाली बात होते हुए भी निष्फल मानी गई है । क्योंकि मनुष्य जन्म केवल भोगों के लिये ही नहीं है किन्तु कल्याण के लिये है । देवताओं की उपासना से कल्याण नहीं होता अतः सबको ब्रह्म की उपासना करनी चाहिये । उसकी उपासना से सारे देवताओं की उपासना हो जायगी । क्योंकि ब्रह्म सर्वरूप सर्व कारण है । कारण से कार्य भिन्न नहीं होता किन्तु कारण रूप ही होता है । उपनिषद् में कहा है कि एक के जान लेने से सब कुछ जाना जाता है, जैसे मिट्टी के पिण्डे को जान लेने से मृन्मय घट शराब आदि सब जाने जाते हैं । घट पट आदि नामधेय तो वाणी का विकार होने से मिथ्या है, मृत्तिका ही सत्य है । भागवत् में कहा है कि जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने पर डाली पत्ते पुष्प फल आदि का सिंचन अपने आप ही हो जाता है । प्राणों को भोजन देने से शरीर के अंगों में भोजन पहुँच जाता है । ऐसे ही ब्रह्म की उपासना से सब उपासना हो जाती है । गीता में कहा है कि- 
“हे अर्जुन ! मेरे सिवाय किंचित् मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है । यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मेरे में गुंथा हुआ है । 
यह सब जगत् मेरी अव्यक्त मूर्ति से व्याप्त है । सारे प्राणी मेरे में स्थित हैं परन्तु मैं उनमें नहीं हूं ।”
(क्रमशः)

बुधवार, 26 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ६८/७१

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*सो धक्का सुनहाँ को देवै, घर बाहर काढै ।* 
*दादू सेवक राम का, दरबार न छाड़ै ॥६८॥* 
जैसे कुत्ते को दण्डे से मार मार कर घर से बाहर निकाल देने पर भी स्वामी को नहीं छोड़ता । ऐसे ही भक्त भी नाना दुःखों से दुःखित होने पर और भगवान् के अंगीकार न करने पर भी भगवद् भजन को, तथा भगवान् के दरबार में पड़ा हुआ उनको कभी नहीं छोड़ता । क्योंकि वह स्वामीभक्त है किन्तु मान अपमान से रहित सब द्वन्दों की तितिक्षा करता हुआ भगवान् के चरणों में पड़ा रहता है और उसी का सतत भजन करता रहता है । क्योंकि ऐसे भक्तों का उद्धार भगवान् करने वाले हैं और परमात्मा ही उनकी गति है । गीता में लिखा है कि- 
मानापमान में तथा शत्रु मित्र में तुल्य रहता हुआ सर्वकर्म को त्याग देता है । वह भक्तगुणातीत कहलाता है । सुख-दुःख में समान सदा स्वस्थ पत्थर सोना जिसकी दृष्टि में समान है, प्रिय अप्रिय की प्राप्ति में तुल्य, जिसके निन्दा स्तुति समान है ऐसा धीर पुरुष भगवान् का गुणातीत भक्त होता है । 
*साहिब का दर छाड़ि कर, सेवक कहीं न जाय ।* 
*दादू बैठा मूल गह, डालों फिरै बलाय ॥६९॥* 
निष्काम भक्त पतिव्रता भार्या की तरह मेरे भजन को नहीं छोड़ता और स्वर्गादि लोकों को देने वाले भोगप्रधान काम्यकर्मों में भी प्रवृत्त नहीं होता । ने देवताओं की उपासना करता क्योंकि वह एक ब्रह्मनिष्ठ है । भागवत में लिखा है कि- 
जब यह मनुष्य सब कर्मों को छोड़कर मुझे आत्म निवेदन करे, तब मेरे किये श्रेष्ठ कर्म करने के योग्य होता है । उसी से वह मोक्ष को प्राप्त जाता है और निश्चय ही मेरे समान ऐश्वर्य के योग्य हो जाता है । 
*दादू जब लग मूल न सींचिये, तब लग हरा न होइ ।* 
*सेवा निष्फल सब गई, फिर पछताना सोइ ॥७०॥* 
यह सारा संसार ब्रह्म से पैदा हुआ है । ऐसा श्रुति में कहा गया है, अतः सब जगत् का मूल कारण ब्रह्म है । जैसे वृक्ष की जड़ में पानी न देकर केवल पत्तों, शाखाओं पर पानी देना व्यर्थ है । ऐसे ही ब्रह्म की उपासना के विना देवताओं की उपासना पुनर्जन्मप्रद होने से व्यर्थ ही है । ब्रह्म की उपासना तो मुक्ति फल देने का कारण सफल है । स्वर्गादि लोकों के सुख को हम फल नहीं मानते क्योंकि पुण्य क्षीण होने से वे सब नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य लोक में आना पड़ता है । गीता में लिखा है कि- 
“जो जो सकामी पुरुष जिस जिस देवता को श्रद्धा से पूजना चाहते हैं, उस उस् देवभक्त की श्रद्धा को मैं उसमें स्थिर कर देता हूं । वह पुरुष उस श्रद्धा से प्रेरित होकर उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है । उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किया हुआ फल भोग प्राप्त करता है । परन्तु अल्पबुद्धि वालों का यह फल नाशवान् है । देवताओं को पूजने वाले देवलोक को प्राप्त होते हैं और मेरे को चाहने वाले मेरे भक्त मेरे को प्राप्त होते हैं । अतः ब्रह्मोपासना ही सर्वश्रेष्ठ उपासना है । अन्यथा फिर पश्चाताप करना पड़ेगा ।” 
*दादू सींचे मूल के, सब सींच्या विस्तार ।* 
*दादू सींचे मूल बिन, बाद गई बेगार ॥७१॥* 
जैसे वृक्ष की जड़ में पानी सींचने से वृक्ष के सभी डाली पत्ते आदि अवयवों में पानी पहुँच जाने से सारे वृक्ष की सिंचाई हो जाती है । मूल जड़ में पानी दिये बिना सब बेकार है । 
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ६५/६७

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*दादू सो वेदन नहीं बावरे, आन किये जे जाइ ।* 
*सब दुख भंजन सांइयाँ, ताहि सौं ल्यौ लाइ ॥६५॥* 
हे साधक ! किसी भी जीव का जन्म-मरणरूपी दुःख आत्म ज्ञान के बिना निवृत्त नहीं हो सकता, क्योंकि वह दुःख अज्ञानजन्य है । अतः तुम सर्वदुःखभंजक परमात्मा में अपने मन को लगावो । वह ही तुम्हारे दुःख को दूर करेगा । भागवत में लिखा है कि- 
“परमेश्वर से विमुख पुरुष को माया से भगवतस्वरूप का ज्ञान नहीं होता, प्रत्युत उसे मैं देह हूँ ऐसा अभिमान होता है । तब दूसरे के अभिनिवेश से भय होता है । अतः गुरु, देवता, इष्ट को मानने वाले बुद्धिमान मनुष्य को निश्चय ही भक्ति सहित ईश्वर को भजना चाहिये ।” 
भगवान् अरु विक्रम के चरणारविन्द के नखरुपी मणि के प्रकाश से जिसका ताप नष्ट हो गया है फिर हृदय में दुःख कैसे पैदा हो सकता है? जैसे चन्द्रमा के उदय होने पर सूर्य का ताप नहीं रहता । 
*दादू औषध मूली कुछ नहीं, ये सब झूठी बात ।* 
*जे औषध ही जीविये, तो काहे को मर जात ॥६६॥* 
हे साधक ! रसायन आदि औषध के सेवन से कोई अमर नहीं होता । वे सब मिथ्या है । जो वैद्य कहते हैं कि रसायन सेवन से निरोग हो जाता है वे सब मिथ्यावादी हैं । क्योंकि वैद्यों को भी जन्मते, मरते देखते हैं और रसायन सेवन करने वालों की भी मृत्यु होती है, अतः ब्रह्म ज्ञान से ही अमर भाव को तथा निरोगता को प्राप्त होता है । भागवत में कहा है कि- 
हे सौम्य ! गुण कर्म से बंधे हुए पुरुषों को संसार की ही गति मिलती है । जो जीव गुण कर्मों से उत्पन्न हुए गुण को जीत लेवे तो वह भक्ति योग करके निष्ठा से मेरे को प्राप्त होता है । 
*॥पतिव्रत॥* 
*मूल गहै सो निश्‍चल बैठा, सुख में रहै समाइ ।* 
*डाल पान भ्रमत फिरै, वेदों दिया बहाइ ॥६७॥* 
सर्व जगत् का मूल कारण ब्रह्म है क्योंकि श्रुति में ब्रह्म को ही जगत् का अभिन्न निमित्तोपादन कारण बतलाया है । जो उस ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे ब्रह्मानन्द में मग्न रहते हैं । जो वेदों में प्रतिपादित अर्थवाद है जिसका केवल स्तुति-निन्दा में तात्पर्य माना जाता है । अर्थात् अर्थवाद वाक्यों में कर्म की स्तुति या निन्दा की गई है । उस अर्थवाद से प्रतिपादित स्वर्ग सुखों में जो आसक्त होकर देवताओं की उपासना करते हैं, वे संसार रूपी दुःख में पचते रहते हैं । जैसे लिखा है कि जैसे सोमरस का यज्ञ में पान करने वाला अमर हो जाता है । जो चातुर्मास्य यज्ञ करने वाले हैं, वे स्वर्ग को प्राप्त कर लेते हैं । गीता में भी कहा है कि- 
हे अर्जुन ! सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने वाले स्वर्ग को ही श्रेष्ठ बतलाने वाले इससे बढ़कर और कुछ नहीं है, ऐसे अविवेकी जन जन्म रूप कर्म फल को देने वाली और भोग ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये बहुत सी क्रियाओं के विस्तार वाली वाणी को कहते हैं । उनकी ब्रह्म में निश्चयात्मिक बुद्धि नहीं हो सकती । 
(क्रमशः)

सोमवार, 24 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ६२/६४

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*चरणहुँ अनत न जाइये, सब उलटा मांहि समाइ ।* 
*उलट अपूठा आप में, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥६२॥* 
*दादू दूजे अंतर होत है, जनि आने मन मांहि ।* 
*तहाँ ले मन को राखिये, जहँ कुछ दूजा नांहि ॥६३॥* 
सत्संगति को छोड़ कर कुसंग में मत जावो, क्योंकि कुसंग से पतन का होना निश्चित है । अपनी इन्द्रियों से भी ब्रह्म चिन्तन के अलावा किसी का भी चिन्तन मत करो । क्योंकि दूसरे के ध्यान से ब्रह्म चिन्तन में अन्तराय(विघ्न) हो सकता है । अतः अद्वैत चिन्तन ही श्रेयस्कर है । गीता में-विषयों का ध्यान करने से मन विषयों में आसक्त हो जाता है और विषय संग से मन में इच्छा पैदा होती है । इच्छा से उसकी पूर्ति न होने से क्रोध, क्रोध से संमोह और उससे स्मृति का नाश तथा स्मृति नाश से बुद्धि का नाश और बुद्धि नाश से मृत्यु निश्चित ही है । इसी भाव से भागवत में-विषयों के ध्यान से विषयों में आसक्ति और मेरे ध्यान से मन मेरे में विलिन हो जाता है । 
परमात्मा में मन की स्थिति हो जाने पर धीरे धीरे कर्म नष्ट होने लगते हैं । कर्मों के नाश से सत्वगुण की बुद्धि सत्व से रजोगुण तमोगुण का नाश होने से इन्धन रहित अग्नि की तरह अन्तःकरण शान्त हो जाता है । आत्मा में अवरुद्ध चित्त वाले साधक को बाहर भीतर का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता जैसा कि बाण बनाने वाले को पास से सेना सहित राजा के जाने पर भी उसको सेना का पता ही नहीं चला, क्योंकि उसका मन बाण बनाने में लगा हुआ था । 
*॥भ्रम विधूंसण॥* 
*भ्रम तिमिर भाजै नहीं, रे जिय आन उपाइ ।* 
*दादू दीपक साज ले, सहजैं ही मिट जाइ ॥६४॥* 
हे साधक ! इस असत्य प्रपञ्च में सत्यत्व बुद्धि अज्ञानजन्य है । जीव ब्रह्म के भेद की निवृत्ति तीर्थाटन दान ब्रत आदि अन्य साधनों से नष्ट नहीं होती । किन्तु “तत्त्वमसि” आदि वाक्यजन्य ज्ञान से जो ब्रह्मात्मैकाकारवृत्ति से जब अविद्या का नाश होगा, तब सूर्योदय के समकाल रात्रि के अन्धकार की निवृत्ति की तरह स्वयं ही भेदबुद्धि नष्ट हो जायगी । अज्ञानजन्य वस्तु का ज्ञान से ही नाश संभव है । 
कहा है कि आत्मा ज्ञान स्वरूप है । अविद्या अति दुर्बल है । शब्द की शक्ति अचिन्त्य है । अतः शब्द अर्थ के सम्बन्ध को ग्रहण किये बिना ही जैसे दूसरों के द्वारा सुषुप्ति में जगाने पर निद्रा को त्याग कर सोता हुआ जाग जाता है । वहां पर जागृत की तरह शब्द को कोई नहीं जानता, फिर भी ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार “अहं ब्रह्मास्मि” इस वाक्य से ब्रहमज्ञान होने पर अविद्या के नाश से आत्मा का ज्ञान हो जाता है । जैसे रोग की निवृत्ति के बाद औषधि का सेवन निवृत्त हो जाता है उसी तरह ज्ञान होने से ही अविद्या स्वयं निवृत्त हो जाती है । 
यह आत्मज्ञान केवल श्रवण मात्र से प्राप्त नहीं होता क्योंकि अविद्या की वासना बड़ी प्रबल है । न केवल उपदेश श्रवण से ज्ञान होता है, जैसे विरोचन ने बहुत उपदेश श्रवण किया फिर भी उसको अविद्या के नाश न होने से ज्ञान नहीं हुआ । लिखा है श्रुति में- 
“यह आत्मा परब्रह्म परमात्मा-प्रवचन से, बुदधि से, बहुत सुनने से नहीं प्राप्त होता । किन्तु जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । क्योंकि यह परमात्मा उसके लिये अपने को यथार्थ रूप से प्रगट कर देता है ।” 
यह आत्मा बलहीन पुरुषों से भी प्राप्त नहीं होता न तप के द्वारा, किन्तु जो इन सब साधनों का यत्न करता है, उसको यह परमात्मा प्राप्त होता है । तब वह साधक उसके धाम में प्रविष्ट हो जाता है । अतः ज्ञान के लिये यत्न करो । (क्रमशः)

रविवार, 23 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ५८/६१

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥पतिव्रत॥* 
*दादू रहता राखिये, बहता देइ बहाइ । 
बहते संग न जाइये, रहते सौं ल्यौ लाइ ॥५८॥ 
निश्चल ब्रह्म तो एक ही है । प्रपञ्च तो मायिक होने से चल रहा है अर्थात् नष्ट होने वाला है । अतः निश्चल ब्रह्म में ही अपने मन को लीन करो । जो पदार्थ नाशवान् दुःख देने वाले हैं उनमें अपने मन को आसक्त मत करो । अर्थात् उनसे प्रेम मत करो क्योंकि उनकी प्रीति शाश्वत रहने वाली नहीं है । वेदान्त संदर्भ में लिखा है कि- सुख देने वाले पदार्थों में प्राणियों का जो प्रेम है वह सावधिक(कुछ ही दिन) रहने वाला है । आत्मा का जो प्रेम है वह शाश्वत प्रेम है । क्योंकि आत्मा सुख रूप है परम प्रेम का आस्पद(स्थान) माना गया है । अतः उसी में प्रेम करो । आत्मा का स्वलक्षण भी आनंद रूप ही माना है । 
*जनि बाझैं काहू कर्म सौं, दूजै आरंभ जाइ ।* 
*दादू एकै मूल गहि, दूजा देइ बहाइ ॥५९॥* 
काम्य कर्म सुख दुःख फल को देने वाले हैं, अतः उनको त्याग कर जगत् का कारण एक शुद्ध ब्रह्म है उसका ही अनुसंधान करें । भागवत में कहा है कि हे पुत्रों जो हमारे लोक में जाने की कामना करता है सो हमारा अनुग्रह रूप प्रयोजन का आशय यह है कि पिता पुत्र को गुरु शिष्यों को राजा प्रजा को ऐसी शिक्षा दे । परन्तु उपदेश देने पर भी सिखाया हुआ विषय न करे तो सिखाने वाले को क्रोध नहीं करना चाहिये । क्योंकि जो पुरुषतत्त्व को नहीं जानते वे प्राय कर्मों को अच्छा समझकर कर्म करने में लगते हैं । उनको फिर सकाम कर्म में नहीं लगाना चाहिये । क्योंकि सकाम कर्म में लगाना अन्धे को कूए में डालने के समान है । जो बहुत ही कामना करता है और उसकी दृष्टि अच्छा बुरा को समझाने में अंधी है और धन की चेष्टा करता है । किंचित् सुख के कारण वैर करना, वह मुर्ख इस बात को नहीं जानता कि अन्त में मुझे दुःख प्राप्त होगा । वह तो दुःख को ही सुख मानता है । ऐसे कुबुद्धिमानव अविद्या में ही पड़े रहते हैं । उनको देखकर कौन सदय मानव जानबूझकर इस विषय में उनको प्रवृत्त करेगा । जैसे अन्धा मनुष्य बुरे मार्ग में पड़ जाय तो उसको बुरे मार्ग में जाता हुआ देखकर क्या कोई विद्वान् अन्धे को उसी मार्ग में जाने का उपदेश करेगा? नहीं । 
*बावें देखि न दाहिने, तन मन सन्मुख राखि ।* 
*दादू निर्मल तत्त्व गह, सत्य शब्द यहु साखि ॥६०॥* 
ये सुख दुःख आने जाने वाले हैं । इनकी उपेक्षा करके परमात्मा के सन्मुख होकर सच्चिदानन्द ब्रह्म को ही भजो । इस विषय में ब्रह्म का साक्षात्कार किये हुए संत ही प्रमाण है । गीता में कहा है कि- हे कुन्तीपुत्र सर्दी गर्मी सुख दुःख के देने वाले हैं । इन्द्रिय संयोग तो क्षणभंगुर और अनित्य है, उनको तू सहन कर । 
सुख दुःख को समान समझने वाले धीर पुरुष को इन्द्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर सकते । वह ही मोक्ष के योग्य है । मुण्डक में कहा है कि- जो भोगों का आदर करने वाला मानव उनकी कामना करता है वह उन कामनाओं के कारण उन-उन स्थानों में पैदा होता है । जो पुरुष पूर्ण काम है उसकी सारी कामनायें यही पर सर्वथा विलिन हो जाती है । जो संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर निःस्पृह निर्मम होकर कर्म करता है वह ही शान्ति को प्राप्त होता है । 
*दादू दूजा नैन न देखिये, श्रवणहुँ सुने न जाइ ।* 
*जिह्वा आन न बोलिये, अंग न और सुहाइ ॥६१॥* 
चन्द्रोदय होने पर चकोर चन्द्रदर्शन को छोड़कर अन्य का दर्शन नहीं करता क्योंकि चकोर की चन्द्र में प्रीति है । मृग वीणानाद को छोड़कर अन्य नाद को नहीं सुनता । इसी प्रकार साधक भी ब्रह्म से भिन्न किसी अन्य का श्रवण मनन नहीं करता । किन्तु सर्वत्र ब्रह्म को ही देखता सुनता है । जिव्हा से हरि नाम ही रटता रहता है । अर्थात् ब्रह्म के बिना अन्य की इच्छा नहीं करता । उपनिषद में- उस एक ब्रह्म को ही जानो और सब वाणी को त्याग दो । 
हे बादल ! चाहे तूं पानी दो या नहीं, फिर भी मेरा चित्त तुम्हारे में ही लगा हुआ है । क्योंकि भयंकर प्यास से मर जाना अच्छा है लेकिन जल के लिये और से याचना करना अच्छा नहीं है । 
(क्रमशः)

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ५४/५७

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥ आन लग्न व्यभिचार ॥*
*करामात कलंक है, जाकै हिरदै एक ।* 
*अति आनन्द व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक ॥५४॥*
एक पति वाली नारी पतिव्रता कहलाती है और नानापतिवाली व्यभिचारिणी होती है । इसी प्रकार जिसके हृदय में केवल प्रभु प्रेम है वह प्रभु का प्रेमी भक्त है । जो नाना देवताओं को भजता है वह व्यभिचारिणी स्त्री की तरह किसी का भी भक्त नहीं । प्रभुभक्त चमत्कार दिखाने वाली माया को कलंक समझता है अतः उसके पास जाता भी नहीं । देवताओं के भक्त तो ऐहिक पारलौकिक भोगों के आनंद से माया के द्वारा व्यवहार करते हुए बहुत प्रसन्न होते हैं । जैसे व्यभिचारिणी नारी प्रसन्न होती है । 
*दादू पतिव्रता के एक है, व्यभिचारिणी के दोइ ।* 
*पतिव्रता व्यभिचारिणी, मेला क्यों कर होइ ॥५५॥* 
*पतिव्रता के एक है, दूजा नांही आन ।* 
*व्यभिचारिणी के दोइ हैं, पर घर एक समान ॥५६॥* 
पतिव्रता नारी की तरह एक निज ब्रह्म स्वरूप आत्मा पति को जो भजता है । उसकी द्वैत बुद्धि नष्ट हो जाती है । अतः केवल एक ब्रह्म ही शेष रह जाता है । तेरा मेरा यह भेद भी नष्ट हो जाता है । सकाम देवताओं की भक्ति करने वाले मनुष्यों की फल विषायिणी द्वैत बुद्धि नष्ट नहीं होती । अतः दोनों प्रकार के भक्तों का कहीं भी सामानाधिकरण नहीं हो सकता । अतः अव्यभिचार से एक भगवान् को ही भजना चाहिये । गीता में- 
मुझ परमेश्वर में अनन्य योग से अर्थात भगवान् वासुदेव के अलावा मेरी दूसरी कोई गति है ही नहीं ऐसी निश्चित जो अव्यभिचारिणी बुद्धि उससे उसका भजन करना चाहिये । अर्थात् किसी प्रकार से व्यभिचार न हो उसी को अव्यभिचारिणी भक्ति कहते हैं और एकान्त और शुद्ध देश में रहना विषयासक्त मनुष्यों के समुदाय में प्रेम न करना । 
*॥सुंदरि सुहाग॥* 
*दादू पुरुष हमारा एक है, हम नारी बहु अंग ।* 
*जे जे जैसी ताहि सौं, खेलैं तिस हि रंग ॥५७॥* 
भक्त तो भगवान् के अनन्त हैं । भगवान् एक हैं । उनका कोई कर्म में, ज्ञान से ध्यान भक्ति आदि अनेक साधनों से भजते हैं । भगवान् भी उनके साथ उनकी भावना के अनुसार सगुण निर्गुण भक्ति से स्वरूपानन्द रूप दर्शन क्रीड़ा के द्वारा खेलते हैं । लिखा है कि जैसे चन्द्रमा तो एक है परन्तु उससे प्रेम करने वाले चकोर अनन्त हैं । सूर्य जैसे एक है परन्तु उसको देखने वाले नेत्र अनेक हैं । ऐसे ही भगवान् श्रीकृष्ण एक हैं उनकी उपासना करने वाले हम सब बहिन भाई बहुत हैं । गीता में भी कहा है कि- 
जो जिस भावना के अनुसार मेरी शरण में आता है फल की कामना से मैं उनको वैसा ही फल दान देकर अनुग्रहित कर देता हूं । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ४९/५३

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*पर पुरुषा रत बांझणी, जाणे जे फल होइ ।* 
*जन्म बिगोवै आपना, दादू निष्फल सोइ ॥४९॥* 
*दादू तज भरतार को, पर पुरुषा रत होइ ।* 
*ऐसी सेवा सब करैं, राम न जाने सोइ ॥५०॥* 
जो बाह्य स्त्री अपने पति को निर्विय मान कर पर पुरुष से रत रहती है तो उसको बांझ होने से पुत्र लाभ तो मिलता नहीं और निन्दनीय कर्म करने से स्वर्ग भी नहीं मिलता । मुक्त भी नहीं हो सकती क्योंकि ब्रह्म ज्ञान का अभाव है । अतः उस नारी का जन्म व्यर्थ ही है । ऐसे ही जो ब्रह्म को नपुंसक लिंग होने से असमर्थ समझकर देवताओं की उपासना करता है तो बांझ नारी की तरह उसका जन्म भी निरर्थक ही है । क्योंकि ज्ञानाभाव के कारण मोक्ष नहीं हो सकता । शाश्वतिक स्वर्ग सुख भी नहीं पा सकता क्योंकि पुण्य क्षीण होने पे वापस आना पड़ेगा । 
गीता में कहा है कि “हे अर्जुन जो विषयासक्त पुरुष हैं वे अपने स्वभाव से प्रेरित हुए उन उन भोगों की कामना द्वारा ज्ञान से भ्रष्ट हुए उस उस नियम को धारण करके अर्थात् जिस-जिस देवता की आराधना के लिये जो-जो नियम लोक प्रसिद्ध हैं उन उन नियमों को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं । परन्तु उन अल्प बुद्धि वालों को नाशवान फल प्राप्त होता है । देवताओं को पूजने वाले देव लोक में जाते हैं । मेरे भक्त मेरे को चाहे जैसे ही भजें, शेष में मेरे को ही प्राप्त होते हैं ।” 
*॥ पतिव्रत ॥* 
*नारी सेवक तब लगै, जब लग सांई पास ।* 
*दादू परसै आन को, ताकी कैसी आस ॥५१॥* 
नारी जब तब अपने पति की सेवा तथा आज्ञा पालन करती है तो वह पतिव्रता मानी जायगी । यदि वह कभी कोई कामना से अन्य पुरुष के पास जाती है तो उसका पातिव्रत्य सुन्दर नहीं लगता । अर्थात् उस का पातिव्रत्य भंग हो जाता है । वैसे ही जो भक्त जीवनपर्यन्त यदि हरि को भजता है तब तो वह हरि भक्त सच्चा है और यदि इच्छा से परमात्मा को छोड़ कर किसी अन्य देवता की उपासना करता है तो वह हरि भक्त नहीं होगा । 
*॥ आन लगन व्यभिचार ॥* 
*दादू नारी पुरुष को, जाने जे वश होइ ।* 
*पीव की सेवा ना करै, कामणिगारी सोइ ॥५२॥*
पति स्त्री की सेवा से ही वश में होता है । ऐसे भगवान् भी भक्ति सेवा प्रेम से ही राजी होते हैं । यदि कोई स्त्री पति की सेवा का त्याग कर पति को वश करने के लिए जादू टोना मंत्र आदि उपाय करने लगे तो उसका यह व्यभिचार होगा, जिस से वह नारी व्यभिचारिणी कहलायेगी । गीता में कहा है कि- 
जो नारी संपूर्ण कर्मों को त्याग करके मेरा(सगुण ईश्वर का) निरन्तर अनन्य मन से ध्यान करते हुए भजती हैं, उन प्रेमी भक्तों को शीघ्र ही संसार सागर से पार कर देता हूँ । क्योंकि उनका चित्त मेरे में ही लगा रहता है । 
*॥ करुणा ॥* 
*कीया मन का भावता, मेटी आज्ञाकार ।* 
*क्या ले मुख दिखलाइये, दादू उस भर्तार ॥५३॥* 
जो स्त्री अपने पति की सेवा तो करती नहीं, और न उसकी आज्ञा का ही पालन करती तो वह अपने पति के सन्मुख कैसे जायेगी । ऐसे ही जिन्होंने भगवान् की शरणागति ग्रहण नहीं करी और न सेवा ही करी तो वह साधक कैसे भगवान् के सन्मुख जायेगा । किन्तु अन्य अन्य अपने मन को अच्छे लगने वाले कर्म को करता है भगवान् के प्रिय कार्यों को करता नहीं तो वह सर्व साधन विहीन होने के कारण साधनलभ्य भगवान् को कैसे प्राप्त कर सकेगा? 
(क्रमशः)

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ४४/४८

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥ पतिव्रत ॥* 
*दादू मनसा वाचा कर्मना, अंतर आवै एक ।* 
*ताको प्रत्यक्ष राम जी, बातें और अनेक ॥४४॥* 
जो मन से अन्तर्निष्ठ वृत्ति के द्वारा भगवान् का चिन्तन, वाणी से उनका गुणानुवाद, शरीर से उनके निमित्त कर्म करता है । उसको ब्रह्म का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है । 
भगवान् केवल दार्शनिक बातों से कभी प्रसन्न नहीं होते, वह तो वाणी का विलास मात्र है । श्रीभागवत में लिखा है कि- 
“शरीर मन वाणी इन्द्रियों से जो भी स्वाभाविक कर्म होते हैं वे सब नारायण के अर्पण कर दो । हे राजन् इस प्रकार भगवान् को भजते-भजते भक्ति वैराग्य तथा ज्ञान का प्रबोध भक्त को भगवान् की कृपा से प्राप्त हो जाते हैं । उनसे भक्त परमशान्ति को प्राप्त हो जाता है ।”
*दादू मनसा वाचा कर्मना, हिरदै हरि का भाव ।* 
*अलख पुरुष आगे खड़ा, ताके त्रिभुवन राव ॥४५॥* 
*दादू मनसा वाचा कर्मना, हरि जी सौं हित होइ ।* 
*साहिब सन्मुख संग है, आदि निरंजन सोइ ॥४६॥* 
*दादू मनसा वाचा कर्मणा, आतुर कारण राम ।* 
*सम्रथ सांई सब करै, परगट पूरे काम ॥४७॥* 
जो मन वाणी शरीर से भगवान् को प्रसन्न करता है, उसको आदि अन्त से रहित निराकार ईश्वर का प्रत्यक्ष हो जाता है । क्योंकि वह सर्वसमर्थ है । वह भक्तों के सभी कार्यों को सम्पन्न कर देता है । अतः भक्त अपने मन में दर्शनों के लिये अति उत्कट उत्कण्ठा जागृत करें ऐसा करने से भक्त के मन में दर्शनों की जितनी आतुरता होगी तो भगवान् उसके सामने प्रत्यक्ष दर्शन देने के लिये आ जायेंगे और फिर भक्त के संगी बन जायेंगे । श्री भागवत में लिखा है कि- 
“पापों का नाश करने वाले भगवान् प्रेम के विवश होकर भक्त के हृदय को नहीं छोडते क्योंकि भक्त ने प्रेम रूपी रस्सी से भगवान् के चरण कमलों को बांध रखा है । ऐसा भक्त भागवत में प्रधान भक्त माना जाता है ।” 
*नारी पुरुषा देख करि, पुरुषा नारी होइ ।* 
*दादू सेवक राम का, शीलवन्त है सोइ ॥४८॥* 
जो नारी पर पुरुष को देखकर उसको नारी की दृष्टि से देखती है । तथा जो पुरुष परनारी को देख कर उसके साथ पुरुष का सा व्यवाहर करता है । ये दोनों ही शीलवान् कहलाते हैं । क्योंकि नारी नारी के रूप पर मोहित नहीं होती । ऐसे ही जिस भक्त का मन भगवान् को देखकर भगवद्रूप हो जाता है तो वह भक्त भक्तों में श्रेष्ठ माना जाता है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 19 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ४०/४३

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥ पतिव्रत ॥*
*जिसका तिसकौं दीजिये, सांई सन्मुख आइ ।*
*दादू नख शिख सौंप सब, जनि यहु बंट्या जाइ ॥४०॥* 
पतिव्रतनिष्ठ भार्या का शरीर पति का ही माना गया है । ठीक वैसे ही भक्त का शरीर भी भगवान् की सेवा के लिये ही है । अतः मैं आपके शरीर को आपकी सेवा के लिये ही समर्पण कर रहा हूँ । क्योंकि भक्तों की वस्तुमात्र भगवान् के लिये ही होती है । मैं शरीर मन वाणी से आपका ही स्मरण करता हूँ और देवी देवताओं का नहीं और न मैं भोगों को ही चाहता हूँ । किन्तु मैं तो आपका सामीप्य चाहता हूँ सो प्रदान कीजिये ।
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*सारा दिल सांई सौं राखै, दादू सोई सयान ।*
*जे दिल बंटै आपना, सो सब मूढ़ अयान ॥४१॥*
वह ही बुद्धिमान है जो अपने मन को पूर्णतया दिन रात ब्रह्म में ही लीन रखता है । दूसरी जगह मन को नहीं जाने देता जो भगवान् को छोड़ कर बाह्य विषयों के अर्थों में मन के द्वारा रमण करते हैं, वे मूढ हैं । भागवत् में लिखा है कि- 
“धर्म अर्थ काम मोक्ष का देने वाला यह मनुष्य शरीर अनेक जन्म जन्मान्तरों के पुण्य से प्राप्त हुआ है । अतः यह अति दुर्लभ है । धीर मनुष्य को चाहिये कि वह अपने कल्याण के लिये जल्दी ही यत्न करे । क्योंकि यह अनित्य है और विषय भोग तो दसरे शरीरों में भी सर्वत्र मिल जाते हैं । मोक्ष तो इसी शरीर से प्राप्त होता है ।” 
*॥ विरक्तता ॥*
*दादू सारों सौं दिल तोरि कर, सांई सौं जोड़ै ।*
*सांई सेती जोड़ करि, काहे को तोड़ै ॥४२॥*
स्त्री पुत्र धन कुटुम्ब आदि से अपने मन को लौटा कर भगवान् में लीन करो और फिर किसी भी विषय में मत जाने दो । अन्यथा संसार कूप में अवश्य गिरोगे । भागवत में लिखा है कि- 
“जिन भाग्यहीनों की बुद्धि नष्ट हो गयी और भगवान् की कथा जो सब अशुभ नाशक है । उस कथा से जिनकी इन्द्रियाँ विमुख होकर लोभ में लवलीन हैं । ऐसे मानव लेश मात्र काम सुख के लिये उचित अनुचित का भी कुछ ध्यान नहीं करते और पापमय कर्म करते हैं । जिनसे उनका कुशल नहीं होता ।”
हे उरुक्रम ! भूख प्यास वातपित्तकफ से बार बार दुःखित शीत उष्ण पवन वर्षा से पीडित् कामाग्नि और आपके अत्यन्त कोप से प्रजा को दुःखी देख कर मेरा मन काँप रहा है कि ये लोग आपकी भक्ति क्यों नहीं करते हैं ।
*॥ आन लगनि विभचार ॥*
*साहिब देवै राखणा, सेवक दिल चोरै ।* 
*दादू सब धन साह का, भूला मन थोरै ॥४३॥*
यह मानव शरीर भगवान् की भक्ति के लिये ही मिला है । विषय भोग के लिये नहीं । परन्तु जो अज्ञानी हैं, वे इस शरीर को भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये व्यर्थ ही खो रहे हैं । हे साधक ! तेरा यह शरीर रूपी धन परमेश्वर का दिया हुआ है अतः उसी का है । ऐसा मान कर परमात्मा को अर्पण कर दे । भौतिक पदार्थों के लिये भगवान् को मत भूल । क्योंकि ये पदार्थ तो भगवान् की कृपा से भक्त को स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग ३६/३९

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । 
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ 
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त Ram Gopal तपस्वी 
(श्री दादूवाणी ~ ८. निहकर्मी पतिब्रता कौ अंग) 
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*॥ सुंदरि विलाप॥* 
*दादू नीच ऊँच कुल सुन्दरी, सेवा सारी होइ ।* 
*सोई सुहागिन कीजिये, रूप न पीजे धोइ ॥३६॥* 
जैसे कुरूप और कुकुल में पैदा होने वाली पतिव्रता स्त्री पति की सेवा से पति की प्रिय बन जाती है और साध्वी कहलाती है । क्योंकि सेवा में रूप और कुल की आवश्यकता नहीं होती, सेवा तो भावप्रधान होती है । ऐसे ही नीच कुल में पैदा होने वाला भक्त सेवा के द्वारा प्रभु प्रिय हो जाता है । प्रभुरूप कुल, धन आदि से प्रसन्न नहीं होते किन्तु केवल भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं । लिखा है कि व्याध का कोई आचरण अच्छा नहीं था । ध्रुव कोई बहुत बड़ी आयु वाला नहीं था । गजेन्द्र कोई पढ़ा लिखा नहीं था । कुब्जा का कोई सुन्दर रूप नहीं था । सुदामा के पास कोई धन नहीं था, वह तो बिलकुल निर्धन था । विदुर जी कोई उच्च जाति के नहीं थे । उग्रसेन जो यादवों का राजा था वह कोई बलशाली नहीं था । ये सब भगवान् के प्रेमी भक्त थे इसलिये इन पर भगवान् प्रसन्न थे क्योंकि भगवान् को केवल प्रेम भक्ति ही प्यारी है । 
*दादू जब तन मन सौंप्या राम को, ता सन क्या व्यभिचार ।*
*सहज शील संतोष सत, प्रेम भक्ति लै सार ॥३७॥* 
हे प्रभो, मैं तो शील-संतोषभावभक्ति साधनों से आप की ही सेवा करता हूँ और अपना तन मन सब कुछ आपको समर्पित कर दिया है । फिर भी आप मेरे से दूर दूर कैसे भाग रहे हैं? प्रसन्न हो जाइये । मैं आपको कभी नहीं छोड़ सकता हूँ । मैं तो आपका ही हूँ, आपके सिवा मेरा दूसरा कोई भी नहीं है । ऐसा भाव पतिव्रता भक्तों का हुआ करता है ।
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*पर पुरुषा सब परहरै, सुन्दरी देखै जागि ।* 
*अपणा पीव पिछाण करि, दादू रहिये लागि ॥३८॥* 
पतिसेवापरायण भार्या की तरह निष्काम भक्त सब प्राणियों में स्थित परमात्मा को पहचान कर देवताओं को भी आत्मभाव से ही पूजता है । देवत्व भावना से नहीं, क्योंकि उसकी भेदबुद्धि निवृत्त हो गई है और एक आत्मा में ही निष्ठ रहता है । यास्कसूत्र में लिखा है कि- 
जितने भी देवी देवता हैं वे सब उसी परमात्मा के ही अंग प्रत्यंग है । एक दिन ही सब भूतों में गूढ हैं । एक का ही विद्वान् ब्राह्मण अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं । सायणाचार्य लिखते हैं कि सभी परमात्मा का ही पूजन करते हैं । क्योंकि सब में वह आत्मा स्थित है । 
*आन पुरुष हूँ बहिनड़ी, परम पुरुष भरतार ।* 
*हूँ अबला समझूं नहीं, तूं जानै करतार ॥३९॥* 
हे सृष्टि के बनाने वाले परमेश्वर ! मेरी दृष्टि में तो सारे संसार के प्राणी बहिन के तुल्य हैं । अतः वे मेरे उपास्य नहीं हैं । मेरा स्वामी तो एक परमपुरुषोतम भगवान् ही है । अतः मैं आपकी ही उपासना करता हूँ । मैं तो साधनहीन होने से अबला हूँ । भक्त का साधन ही बल होता है? मैं नहीं जानता कि आपके पास में आने के लिये क्या साधन होता है? अतः आप ही साधन द्वारा आपके पास बुलाकर सामीप्यादि मुक्ति प्रदान करें ।
(क्रमशः)