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बुधवार, 4 मार्च 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१५०. समुच्चय उत्तर । राज विद्याधर ताल ~
पंथीड़ा पंथ पिछाणी रे पीव का, गहि विरहे की बाट ।
जीवत मृतक ह्वै चले, लंघे औघट घाट, पंथीड़ा ॥ टेक ॥
सतगुरु सिर पर राखिये, निर्मल ज्ञान विचार ।
प्रेम भक्ति कर प्रीत सौं, सन्मुख सिरजनहार, पंथीड़ा ॥ १ ॥
पर आतम सौं आत्मा, ज्यों जल जलहि समाइ ।
मन हीं सौं मन लाइये, लै के मारग जाइ, पंथीड़ा ॥ २ ॥
तालाबेली ऊपजै, आतुर पीड़ पुकार ।
सुमिर सनेही आपणा, निशदिन बारम्बार, पंथीड़ा ॥ ३ ॥
देखि देखि पग राखिये, मारग खांडे धार ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू लंघे पार, पंथीड़ा ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, उपरोक्त प्रश्‍नों का समुच्चय उत्तर दे रहे हैं कि हे विरहीजनों ! उस पीव के मार्ग को अब आप पहचानो । विरहरूपी मार्ग को ग्रहण करो । जो जीवित ही आपा - अभिमान से रहित मृतक तुल्य हो जाते हैं, वे विरहीजन काम - क्रोध आदि अथवा शरीर - अध्यास रूपी घाट से जो मुक्त होते हैं और सतगुरु को सिर पर धार कर उनके निर्मल ज्ञान का विचार करते हैं और प्रीति - पूर्वक निष्काम प्रेमाभक्ति में लगे हैं, वे सिरजनहार का सन्मुख दर्शन पा लेते हैं । और हे विरहीजनों ! आप अपनी व्यष्टि आत्मा को समष्टि परमात्मा में अभेद करिये, जैसे जल में जल मिल जाता है । अपने व्यष्टि मन को, समष्टि चैतन्यरूप मन में लगाइये । और अखंड लय रूपी मार्ग पर जाइये । ताला = तलप और बेली = विलाप सहित अन्तःकरण में पुकारिये । इस प्रकार अपने स्नेही परमेश्‍वर का रात - दिन स्मरण करिये । परन्तु विचार करके विरहरूपी मार्ग पर चलना । परमेश्‍वर की प्राप्ति का मार्ग, तलवार की धार के समान तीक्ष्ण है । मन - वचन - कर्म करके विरहरूपी मार्ग को अपनाइये ।

Recognize the path to your Beloved, O traveler,
and take the route of the anguished lover in separation.
One who treads as the living dead
crosses the impassable ghat.
Keep the Master’s grace on your head
and reflect on his pure teachings.
Develop love and devotion with endearment
and keep the thought of the Creator always before you.
Try to merge yourself into God, like water into water.
Fix your mind within by following the path
of the Sound Current.
A yearning will arise; make then an intense
and anguished call.
Repeat the Name of your Beloved day and night,
again and again.
Watching, carefully place your foot;
the path is like the edge of a sword.
With care in thought, word and deed,
you shall cross to the other shore, O Dadu.
(English translation from "Dadu~The Compassionate Mystic" 
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

मंगलवार, 3 मार्च 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१४९. विरह प्रश्‍न । राज विद्याधर ताल ~
पंथीड़ा बूझै विरहणी, कहिनैं पीव की बात,
कब घर आवै कब मिलूँ, जोऊँ दिन अरु रात, पंथीड़ा ॥ टेक ॥
कहाँ मेरा प्रीतम कहाँ बसै, कहाँ रहै कर वास ?
कहँ ढ़ूँढ़ूँ कहँ पाइये, कहाँ रहे किस पास, पंथीड़ा ॥ १ ॥
कवन देश कहँ जाइये, कीजे कौन उपाय ?
कौन अंग कैसे रहे, कहा करै, समझाइ, पंथीड़ा ॥ २ ॥
परम सनेही प्राण का, सो कत देहु दिखाइ ।
जीवनि मेरे जीव की, सो मुझ आनि मिलाइ, पंथीड़ा ॥ ३ ॥
नैन न आवै नींदड़ी, निशदिन तलफत जाइ ।
दादू आतुर विरहणी, क्यूं करि रैन विहाइ, पंथीड़ा ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव विरह के सहित प्रश्‍न कर रहे हैं कि हे संतरूप विरहीजनों । मैं आपसे पूछती हूँ कि क्या आप पीव के मार्ग को जानते हो ? हमको कहो न, उनके कब दर्शन होंगे ? हमारे हृदय रूपी घर में कब आवेंगे ? हम उनसे कब मिलेंगे ? रात - दिन हम बाट देख रहे हैं । वह हमारे प्रीतम कहाँ है ? कहाँ वास करके रहते हैं । मैं उनको कहाँ ढूँढूं ? कहाँ मिलेंगे ? हे संतों ! वह किसके पास रहते हैं ? उनका कौनसा देश है ? कहाँ जावें ? अब हम विरहीजन क्या उपाय करें ? उनका अंग कैसा है और कैसे रहते हैं ? हे संतों ! अब आप हमको समझा कर कहो, क्या करें ? हमारे प्राणों के स्नेही को कहीं हमें दिखाइये ? वह तो हमारे जीव की जीवन हैं । हे संतों ! उनको हमसे मिलाओ । अब तो हमारे नेत्रों में नींद भी नहीं आती है और रात दिन को तड़फते - तड़फते बिता रहे हैं । अब हम विरहीजन, अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं । हे संतों ! यह उम्र रूपी रात्रि कैसे बितावें ?

सोमवार, 2 मार्च 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१४८.(गुजराती भाषा) पंजाबी त्रिताल ~
अमे विरहणिया राम तुम्हारड़िया ।
तुम बिन नाथ अनाथ, कांइ बिसारड़िया ॥ टेक ॥
अपने अंग अनल परजाले, नाथ निकट नहिं आवे रे ।
दर्शन कारण विरहनि व्याकुल, और न कोई भावे रे ॥ १ ॥
आप अपरछन अमने देखे, आपणपो न दिखाड़े रे ।
प्राणी पिंजर लेइ रह्यो रे, आड़ा अन्तर पाड़े रे ॥ २ ॥
देव देव कर दरशन माँगे, अन्तरजामी आपे रे ।
दादू विरहणी वन वन ढ़ूँढ़े, ये दुख कांइ न कापे रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, विरहीजनों का विलाप बता रहे हैं कि हे राम ! हम तो आपके ही विरहीजन हैं । हमको आपने क्यों विसार दिया ? हे नाथ ! हम अपने शरीर को विरह रूप अग्नि से जला रहे हैं, क्योंकि आप हमारे नजदीक होते हुए भी, प्रकट नहीं हो रहे हो । आपके दर्शनार्थ हम विरहीजन अति व्याकुल हो रहे हैं । हमको आपके सिवाय ओर कोई भी देवी - देवता अच्छा नहीं लगता है । आप छिपकर हमको देख रहे हो, परन्तु हमको आपका स्वरूप नहीं दिखाते हो । मैं प्राणधारी, शरीर रूप पिंजर इसलिये धारण किये हुए हूँ कि आप हमको दर्शन दोगे । किन्तु आप तो हमसे दूर रहने के लिये, आवरण रूप पर्दा ही डाल रहे हो । हे अन्तर्यामी ! हम आपसे आपके दर्शन मांगते हैं, आप दर्शन देओ । हम विरहीजन आपको अनेक प्रकार के साधनों द्वारा, आपको वन - वन में ढ़ूँढ़ रहे हो । इस हमारे दुःख को क्यों नहीं काटते हो ?

रविवार, 1 मार्च 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१४७. विरह विलाप । पंजाबी त्रिताल ~
कबहूँ ऐसा विरह उपावै रे, पीव बिन देखे जीव जावै रे ॥ टेक ॥
विपति हमारी सुनहु सहेली, पीव बिन चैन न आवै रे ।
ज्यौं जल भिन्न मीन तन तलफै, पीव बिन वज्र बिहावै रे ॥ १ ॥
ऐसी प्रीति प्रेम की लागै, ज्यों पंखी पीव सुनावै रे ।
त्यूं मन मेरा रहै निसवासर, कोइ पीव कूं आण मिलावै रे ॥ २ ॥
तो मन मेरा धीरजधरही, कोइ आगम आण जनावे रे ।
तो सुख जीव दादू का पावै, पल पिवजी आप दिखावे रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें विरहीजनों का विलाप दिखा रहे हैं कि हे स्वामी परमेश्‍वर ! कभी आप हमारे अन्तःकरण में ऐसा विरह उत्पन्न करोगे कि जिस से आपके दर्शन बिना हमारा जीव इस शरीर से निकल जाय ? हे विरहीजनों ! हमारी इस विरह की विपत्ति को सुनो, हमें पीव का दर्शन किए बिना अब शान्ति नहीं है । जैसे मछली जल से अलग होकर तड़फती है, ऐसे ही हम तड़फ रहे हैं । अब तो पीव के दर्शन किए बिना हमारे को ऐसा मालूम पड़ता हैं, जैसे कोई हमको वज्र से मार रहा हो । जैसे पपैया स्वाति नक्षत्र की बूँद के लिये पुकारता है, ऐसी ही हमारी प्रीति, प्रेम - पूर्वक पीव से लगी है । ऐसे हमारा मन रात - दिन पपैया बनकर पुकार रहा है । है कोई ऐसा विरहीजन ? जो हमको हमारे प्रीतम से मिला दे, तभी हमारा मन धैर्य को प्राप्त होवे अथवा जो पहले ही आकर कहे कि परमेश्‍वर, तुम्हारे को दर्शन देने आ रहे हैं । तब ही हमारा विरहीजनों का जीव सुख मानेगा, जब जीव अपना दर्शन दिखावेंगे ।

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१४६. अत्यन्त विरह(गुजराती भाषा) । अड्डूताल ~
कोई कहो रे मारा नाथ ने, नारी नैण निहारे बाट रे ॥ टेक ॥
दीन दुखिया सुन्दरी, करुणा वचन कहे रे ।
तुम बिन नाह विरहणी व्याकुल, केम कर नाथ रहे रे ॥ १ ॥
भूधर बिन भावे नहिं कोई, हरि बिन और न जाणे रे ।
देह गृह हूँ तेने आपूं, जे कोई गोविन्द आणे रे ॥ २ ॥
जगपति ने जोवा ने काजे, आतुर थई रही रे ।
दादू ने देखाड़ो स्वामी, व्याकुल होई गई रे ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें अत्यन्त विरहभाव कह रहे हैं कि हे संतों ! कोई उस हमारे प्रीतम परमेश्‍वर को जाकर कहो कि आपकी विरहिनी सुन्दरी आपके दर्शनों के लिये नेत्रों से मार्ग देख रही है । हमतो उस प्रभु के दर्शनों के बिना दीन दुःखी हो रही हैं और कातरता युक्त वचन कह रहे हैं । हे पति ! आपके बिना हम विरहिनी अत्यंत व्याकुल हैं । इस शरीर में अब हमारे प्राण कैसे रहें ? हे भूधर ! भूमि को या गोवर्धन को धारण करने वाले! आपके बिना हमें इस त्रिलोकी में कुछ भी प्रिय नहीं लगता है । हम तो हे हरि ! आपके बिना और किसी को भी अपना स्वामी नहीं अपनाते । हे संतों ! जो कोई हमको गोविन्द से मिला दे, तो उसको हम अपना घर - द्वार और प्राण भी अर्पण कर दें । हे जगपति ! आपके दर्शन करने के लिये हम तो अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं । अब तो हम विरहीजनों को आप अपना दर्शन दिखाओ, हम अत्यन्त व्याकुल हो रही हैं ।

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
http://youtu.be/N3e8mxa3UcQ
१४५. विरह । अड्डुताल ~
क्यों विसरै मेरा पीव पियारा, जीव की जीवन प्राण हमारा ॥ टेक ॥
क्यों कर जीवै मीन जल बिछुरै, तुम्ह बिन प्राण सनेही ।
चिन्तामणि जब कर तैं छूटै, तब दुख पावै देही ॥ १ ॥
माता बालक दूध न देवै, सो कैसे कर पीवै ।
निर्धन का धन अनत भुलाना, सो कैसे कर जीवै ॥ २ ॥
बरषहु राम सदा सुख अमृत, नीझर निर्मल धारा ।
प्रेम पियाला भर भर दीजे, दादू दास तुम्हारा ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सद्गुरुदेव इसमें विरह दिखा रहे हैं कि हे हमारे प्यारे पीव परमेश्‍वर ! आप मुझे क्यों भूल रहे हो ? आप तो हमारे जीव को जीवन और प्राणों से भी प्रिय हो । मछली जल से वियोग होने पर, कैसे जीवित रह सकती है ! हे प्राण स्नेही ? ऐसे हम आपके बिना कैसे जीवित रहें ? किसी के हाथ से चिन्तामणि रूप हीरा खो जाय, तब उसको भारी दुःख होता है और जब माता बच्चे को दूध न दे तो वह अपने आप कैसे पी सकता है ? जैसे निर्धन को अनायास धन प्राप्त हो जावे, और वह उस धन को अन्यत्र ऱख कर भूल जावे, तो फिर वह कैसे जीवित रह सकता है ? इसी प्रकार हम विरहीजन आपके बिना कैसे जीवित रह सकते हैं ? हे राम ! आप सदा ही सुख रूप हो । आपके दर्शनरूपी आनन्द की हमारे हृदय में बरसा करो । और फिर आपका अखंड - प्रेम, वृत्ति रूप प्याले में भर - भर कर हमको पिलाओ । हे प्रभु ! हम तो आप ही के विरहीजन दास हैं ।

फकीर रुपया धर धरे, नारनोल के मांहि । 
फौज गई कोउ ले गयो, शीश टेक मर जांहि ॥ १४५ ॥
दृष्टान्त ~ एक फकीर नारनोल की एक बगीची में रहता था । बगीची के बाहर जमीन में कुछ रुपये गाड़ दिये । एक समय सैनिक लोगों ने वहाँ आकर बगीची के आस - पास पड़ाव डाला और रोटी बनाने को जमीन खोदकर चूल्हा बनाया, उसी जगह । सैनिक को रुपये मिल गये । जब सेना वहाँ से रवाना हो गई, फकीर ने जाकर अपने रुपये देखे, तो वहाँ नहीं मिले । वहीं सिर टेक करके जान दे दी । यह माया ऐसे प्राण ले लेती है ।

एक कहत धोवत गई, एक सुनत बोराइ । 
सो कैसे धीरज धरै, जो धरी हाथ सौं जाइ ॥ १४५ ॥
दृष्टान्त ~ एक गरीब बनिये का लड़का था । नदी पर स्नान किया । हाथ धोने को मिट्टी खोदी । वहाँ एक धन का बर्तन निकल आया । लड़के ने खोलकर देखा तो अशर्फी भरी हैं । ईंट लेकर माँजने लगा कि इसको उज्जवल कर लूँ । कोई जानेगा कि पानी ले जा रहा है । फिर उस बर्तन के दोनों किनारे पकड़ कर गहरे पानी में जाकर गोता लगाया, बर्तन हाथ से छूट कर अथाह पानी में चला गया । वह पागल हो गया और “हाय ! धोवत गई”, इस प्रकार कहता हुआ घर आया । लोगों ने देखा, इसको कोई भूत - प्रेत लग गया । बाप ने पूछा ~ “क्या गई धोवत ?” उपरोक्त बात पिता को सुनाई । पिता सुनकर पागल हो गया । वह बोला ~ “हाय ! क्यों धोवे था । हाय ! क्यों धोवे था” । बेटा कहे, “धोवत गई ।” बाप कहे, “हाय ! क्यों धोवे था ? ऐसे ही कपड़े में लपेट कर धन के बर्तन को क्यों नहीं ले आया ?” यह माया इस प्रकार जीवों को पागल बना देती है ।

Why has my dearly Beloved forgotten me?
You are my very life breath.
Like a fish separated from water,
How can I survive without You, O my Lord?
When the wish-granting gem slips from his hand,
one cannot but suffer.
When the mother gives no milk,
how can the baby drink?
If a pauper’s money is lost somewhere,
how can he survive ?
Shower forth eternally, O God,
the pure torrential currents of blissful Nectar,
And give Dadu, Your slave, the cup
of Your love full to the brim.
(English translation from "Dadu~The Compassionate Mystic" 
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)



गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
१४४. झपताल ~
मना, जप राम नाम कहिये ।
राम नाम मन विश्राम, संगी सो गहिये ॥ टेक ॥
जाग जाग सोवे कहा, काल कंध तेरे ।
बारम्बार कर पुकार, आवत दिन नेरे ॥ १ ॥
सोवत सोवत जन्म बीते, अजहूँ न जीव जागे ।
राम सँभार नींद निवार, जन्म जुरा लागे ॥ २ ॥
आस पास भरम बँध्यो, नारी गृह मेरा ।
अंत काल छाड़ चल्यो, कोई नहिं तेरा ॥ ३ ॥
तज काम क्रोध मोह माया, राम राम करणा ।
जब लग जीव प्राण पिंड, दादू गहि शरणा ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु मन के प्रति उपदेश करते हैं कि हे मन ! अब राम - नाम का जाप कर और यह राम नाम का स्मरण तेरे विश्राम का स्थान है । इसके द्वारा जो राम आत्म - स्वरूप है, उसे ग्रहण कर । हे मन ! अब मोह रूप निद्रा में क्या सोता है ? जाग ! तेरे शरीर के कंधे पर काल बाजा बजा रहा है । सतगुरु और संतजन अपने उपदेशों द्वारा पुकार - पुकार कर कह रहे हैं कि तेरे अन्त समय का दिन नजदीक आ रहा है । अज्ञान रूप निद्रा में सोते - सोते तेरे अनेकों जन्म बीत गये, परन्तु अभी तक भी, हे मन रूप अज्ञानी जीव ! तूँ नहीं जाग रहा है । अब जागकर राम - नाम के स्मरण द्वारा, मोह रूप निद्रा को दूर कर । इस मनुष्य - जन्म में शरीर की जर्जर अवस्था, कहिये बुढ़ापा आ पहुँचा है । परन्तु अब भी तूँ, आशा रूपी फांसियों से जकड़ा हुआ है कि मेरी स्त्री है, मेरा घर - बार है, मेरे बेटे - पोते हैं, ऐसे करता - करता ही, तूँ अन्तकाल में सबको छोड़कर चला जाएगा । इनमें कोई भी तेरा साथ देने वाला नहीं है । इसलिये अब तूँ काम, क्रोध, मोह, माया को त्यागकर राम - नाम का स्मरण कर । जब तक हे जीव ! तेरे प्राण - पिंड का वियोग नहीं होता, तब तक राम - नाम की शरण ग्रहण करके रह । इसी में तेरा कल्याण है ।
सांई स्वर्ग पधारिया, कुछ सानों भी अक्ख । 
खीर सपासप मारिया, कुछ पींडी भी चक्ख ॥ १४४ ॥
दृष्टान्त ~ एक गृहस्थी था । उसकी स्त्री बदचलन थी, परन्तु वह उसको कहा क रती कि मैं तुम्हारे बिना इस घर में अकेली कैसे रहूँ ? मुझे तो कुछ खाना - पीना, सोना - जागना, पहरना - ओढ़ना, अच्छा ही नहीं लगता । जिस रोज यह विदेश जाने लगा, तब बोला ~ आज खीर और चूरमा बना लो । जब बन गया, तब उसने सोचा, जरा इसकी परीक्षा तो कर लूँ । पलंग पर लेट गया और फिर अपने श्‍वास को चढ़ा लिया । स्त्री आकर पति को जगाने लगी, तो देखा यह तो मर गया । तब सोचा कि पहले खीर तो खा लूँ, फिर रोऊँगी, नहीं तो बहुत लोग घर में आ जायेंगे, फिर खीर कैसे खाऊँगी । उसने थाली में खीर ठंडी करके खूब डट कर चढ़ा ली और बर्तन वगैरा सब माँज धोकर रख दिये । खीर और चूरमा की पिंडी को दबा कर रख दी, फिर बैठ कर रोने लगी । आस - पास के लोग इकट्ठे हो गये तो स्त्री बड़दावे दे - देकर रोने लगी ।
सांई स्वर्ग पधारिया, कुछ सानों भी अक्ख ।
हे स्वामी ! तुम तो स्वर्ग में चले गये, परन्तु कुछ मुझे भी तो कह जाते । तब वह पलंग पर सूता ही बोला - खीर सपासप मारिया, कुछ पींडी भी चक्ख । यह कहकर वह बैठा हो गया । सब लोग चकित हो गये । उस स्त्री को जैसी पतिव्रता थी, वैसी उसने जान ली और फिर उसको तलाक दे दिया । वह पुरुष सत्संगी था ।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१४३. उपदेश । झपताल ~
मना ! जप राम नाम लीजे,
साधु संगति सुमिर सुमिर, रसना रस पीजै ॥ टेक ॥
साधू जन सुमिरन कर, केते जप जागे ।
अगम निगम अमर किये, काल कोइ न लागे ॥ १ ॥
नीच ऊँच चिन्त न कर, शरणागति लीये ।
भक्ति मुक्ति अपनी गति, ऐसैं जन कीये ॥ २ ॥
केते तिर तीर लागे, बन्धन भव छूटे ।
कलि मल विष जुग जुग के, राम नाम खूटे ॥ ३ ॥
भरम करम सब निवार, जीवन जप सोई ।
दादू दुख दूर करण, दूजा नहिं कोई ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव मन को नाम - स्मरण का उपदेश कर रहे हैंकि हे हमारे मन! इस मनुष्य शरीर में अब राम - नाम का स्मरण कर और सच्चे संतों की संगति में राम - नाम के महत्त्व को जान कर रसना से निष्काम भाव से राम - नाम के स्मरण रूपी रस का पान करिये । कितने ही संतजन राम - नाम का जाप कर - करके मोह निद्रा से जागे हैं, ‘अगम’ = शास्त्र और ‘निगम’= वेद भी राम - नाम के माहात्म्य का वर्णन करते हैं कि यह राम - नाम का स्मरण जीव को अमर करता हैं और किसी भी प्रकार का कोई भी काल उस जीव का स्पर्श नहीं करता । इस राम का स्मरण नीच कुल का चाहे ऊँच कुल का । राम जी उन भक्तों को अपनी शरण में लेकर मोक्ष गति देते हैं । उनको अपनी अनन्य भक्ति देकर जीवन - मुक्ति द्वारा अपने समान राम रूप बना लिये हैं । इस कलिकाल में कितने ही संत राम - नाम को जपकर संसार - समुद्र से तैर कर जन्म - मरण रूप बन्धन से मुक्त हो गये हैं । कलियुग के पाप और शब्द आदि विषय, में सब रामनाम के स्मरण से अन्तःकरण से नष्ट हो जाते हैं । और पांच प्रकार का भ्रम और सकाम कर्म आदिकों के बन्धन राम - नाम के प्रताप से सब दूर हो जाते हैं । हे मन ! यह संत और भक्तों के जीवन रूप राम - नाम का तूँ अब जाप कर । इस संसार में राम - नाम के सिवाय दुःखों को दूर करने वाला और कोई भी उपाय नहीं है ।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

= १४२ =

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१४२. परिचय । राजमृगांक ताल
देहुरे मंझे देव पायो, वस्तु अगोचर लखायो ॥टेक॥
अति अनूप ज्योति - पति, सोई अन्तर आयो ।
पिंड ब्रह्माण्ड सम, तुल्य दिखायो ॥१॥
सदा प्रकाश निवास निरंतर, सब घट मांहि समायो ।
नैन निरख नेरो, हिरदै हेत लायो ॥२॥
पूरव भाग सुहाग सेज सुख, सो हरि लैन पठायो ।
देव को दादू पार न पावै, अहो पै उन्हीं चितायो ॥३॥
इति राग केदार सम्पूर्ण ॥६॥पद २६॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें साक्षात्कार का परिचय बता रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! इस शरीर के अन्तःकरण रूपी मन्दिर में चैतन्य रूपी देव का ज्ञान रूप नेत्रों से या सुरति - स्मृति रूप नेत्रों से हमने दर्शन किया ।
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वह मन इन्द्रियों का अविषय चैतन्य स्वरूप आप अपनी कृपा द्वारा, हमको अपना स्वरूप साक्षात्कार करा रहे हैं, जो अति अनूप है । सब जीवरूप ज्योतियों के वह स्वामी हैं, वही हमारे ‘अन्तर’ कहिए जीव - मात्र के भीतर प्राप्त करने योग्य हैं । शरीर और ब्रह्माण्ड के अन्दर अपना व्याप्त स्वरूप दिखा रहे हैं ।
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वही सदा ज्ञान - स्वरूप सबके अन्दर अन्तराय रहित होकर सब घटों में प्रकाश रहे हैं । ज्ञान रूपी नेत्रों से निरख करके हमने अपने हृदय की प्रीति उनसे ही लगाई है ।
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पूर्व का अक्षय भाग्य उदय हुआ, जिससे कि हरि हृदय रूपी सेज पर, जीव - ब्रह्म की एकता रूप सुहाग को लेने के लिये, हमको इस मनुष्य शरीर में भेजे हैं । उस चैतन्य स्वरूप देव का हमने पार नहीं पाया है । जिन पर उन्होंने दया की है, उनको ही अपना स्वरूप ‘चिताया’ कहिए बताया है ।
इति राग केदार टीका सहित सम्पूर्ण ॥६॥पद २६॥
(क्रमशः)