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रविवार, 14 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१५७-९)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विरह का अँग ३ =**

विरह - विनती
आज्ञा अपरंपार की, बसि अम्बर भरतार ।
हरे पटम्बर पहरि कर, धरती करे सिंगार ॥ १५७ ॥
१५७ - १५९ में विरह पूर्वक विनय कर रहे हैं - हे अपरंपार, विश्व - भर्तार, परमात्मा ! मैं आपकी आज्ञानुसार, आपको प्राप्त करने के लिए उद्यत् हो रहा हूं । आप मेरे हृदयाकाश में निवास करके अपनी कृपा - वृष्टि करें । जिससे मेरे अन्तःकरण की धारणा शक्ति - धरणी, सर्व हितैषिता रूप हरे रंग से रंजित, आपके स्वरुप संबंधी विचार - वस्त्र धारण करके अपनी शोभा बढ़ायेगी ।

वसुधा१ सब फूले फले, पृथ्वी अनन्त अपार ।
गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार ॥ १५८ ॥
उस धारणा शक्ति रूप पृथ्वी१ के आश्रय रहने वाले संपूर्ण दैवी संपदा के गुण रूप वनस्पति विशेष रूप से फूलें फलेंगी, फिर तो यह मेरी बुद्धि रूप पृथ्वी अनन्त प्राणियों को अपार सुख – प्रद बन जायेगी । अत: आप मेरे हृदयाकाश में, स्वस्वरूप - घटा से प्रेमाभक्ति प्रदान रूप गर्जना करते हुये ज्ञान - जल से मेरे अन्तःकरण - स्थल को परिपूर्ण कर दीजिये । ऐसा करते ही मेरी अज्ञान पर विजय होकर जय जयकार रूप ध्वनि होने लगेगी ।

काला मुँह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।
मेघ तुम्हारे घर घणां, बरसहु दीनदयाल ॥ १५९ ॥ 
इति विरह का अंग समाप्त: ॥ ३ ॥ सा - ४४७ ।
दीनदयालु स्वामिन ! आपके स्वरुप रूप घर में शक्ति रूप मेघों की कमी नहीं है । अत: आप ज्ञान - जल वर्षा द्वारा मेरे अन्तःकरण प्रदेश के सांसारिक तृष्णा - दुष्काल को नष्ट करके ब्रह्मानन्द - सुकाल कर दीजिये । आँधी ग्राम में अकाल पीड़ित जनता के हितार्थ वर्षा करने के लिए इन्द्र को १५७ - १५९ से प्रेरित किया था । प्रसंग कथा दृ - सु - सि - त - ९/१५६ में देखो । 
इन्द्र को प्रेरित करने के पक्ष का अर्थ इस प्रकार है - हे प्रभो भर्ता इन्द्र ! तुम्हें अपरंपार परमात्मा की आज्ञा है - तुम नभमंडल में बसते हुए वर्षा द्वारा पृथ्वी की पालना करो । फिर भी आप वर्षा क्यों नहीं कर रहे हैं ? अब आप शीघ्र ही वर्षा करें, जिससे यह धरणी वृक्षावलि रूप हरा वस्त्र पहन कर सुशोभित होगी ॥ १५७ ॥ सभी वसुधा के वृक्षादि फूल - फल देंगे, पृथ्वी में अन्नादि अनन्त पदार्थ उत्पन्न होंगे, उनसे अपार प्राणियों को सुख मिलेगा । अत: आप नभ - मंडल में गर्जना करते हुए जल के द्वारा पृथ्वी के सरोवरादि स्थलों को परिपूर्ण कर दें, जिससे पृथ्वी पर आनंद हो जाय ॥ १५८ ॥
दीनदयालु पृथ्वीपते ! वर्षा करो, क्योंकि तुम्हारे घर में मेघों की तो कमी है नहीं फिर दुष्काल को नष्ट करके सदा के लिए सुकाल क्यों नहीं करते ? आपको शीघ्र वर्षा करनी चाहिए ॥ १५९ ॥ 
यह प्रेरणा पूर्ण होते ही इन्द्र ने वर्षा कर दी थी ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका विरह का अंग समाप्त: ॥३॥
(क्रमशः)

शनिवार, 13 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१५४-६)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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विरह - पतिव्रत
बाट विरह की सोधि कर, पंथ प्रेम का लेहु ।
लै के मारग जाइये, दूसर पाँव न देहु ॥ १५४ ॥
१५४ - १५५ में जैसे पतिव्रता एक पति परायण होकर रहती है, वैसे ही एक विरह – साधना का व्रत लेने की प्रेरणा कर रहे हैं - विरह की प्राप्ति का साधन खोज करके प्रेम का पंथ पकड़ो और चित्त - वृत्ति को भगवत् - स्वरुप में लीन करके भगवत् में ही प्रवेश करो । इस विरह रूप भगवत् - प्राप्ति के साधन से भिन्न नाना सकाम साधनों में मत पड़ो ।
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विरहा बेगा भक्ति सहज में, आगे पीछे जाइ ।
थोड़े मांहीं बहुत है, दादू रहु ल्यौ लाय ॥ १५५ ॥
तीव्र विरह शीघ्र ही भगवन् से मिला देता है और नवधादि भक्ति के साधक अपनी साधनानुसार आगे पीछे सहजावस्था में जाकर भगवन् से मिलते हैं । विरह थोड़े समय में ही बहुत लाभ पहुँचाता है । अत: विरह द्वारा ही अपनी वृत्ति सदा भगवन् में लगाये रहो ।
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विरह - बाण 
विरहा बेगा ले मिले, ताला - बेली पीर ।
दादू मन घाइल गया, सालै सकल शरीर ॥ १५६ ॥
विरह - बाण की विशेषता कह रहे हैं - जब तीव्र विरह - बाण लगता है, तब अत्यन्त व्याकुलता - प्रद पीड़ा के सहित मन घायल हो जाता है । यह वेदना सारे शरीर को व्यथित करती है । ऐसा विरह शीघ्र ही सांसारिक भोगासक्ति से ऊंचा उठाता है और अपने साथ लेकर भगवन् से मिला देता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१५१-३)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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विरहा मेरा मीत है, विरहा वैरी नांहिं । 
विरहा को वैरी कहै, सो दादू किस मांहिं ॥१५१॥
यद्यपि विरह शत्रु के सामान व्यथित करता है किन्तु वास्तव में शत्रु नहीं है, प्रत्युत हमारा तो सच्चा मित्र है । क्योंकि उससे होने वाले कष्ट का फल अखण्डानन्द रूप परमात्मा की प्राप्ति है । जो विरह को शत्रु कहता है, न जाने यह व्यक्ति किस स्थिति में है ? अर्थात भगवद् भक्त न होकर सांसारिक प्राणी ही हो सकता है ।
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दादू इश्क अलह की जाति है, इश्क अलह का अंग ।
इश्क अल्लाह वजूद है, इश्क अलह का रंग ॥१५२॥
प्रेम ही ईश्वर की जाति है, प्रेम ही उसे प्रिय है, प्रेम ही उसका देह है और प्रेम ही उसका रंग है । अकबर बादशाह ने चार प्रश्न किये थे - १ ईश्वर की जाति क्या है ? २ उसको प्रिय क्या है ? ३ उसके शरीर का आकार कैसा है ? ४ उसका रंग कैसा है ? उन्हीं का उत्तर इस साखी से दिया था ।
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साधु - महिमा
दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखन का चाव ।
तहाँ ले शीश नवाइये, जहाँ धरे थे पाँव ॥१५३॥
भगवन् और संतों का जहां चरण स्पर्श हो, उस स्थान की तथा संतों की महिमा बता रहे हैं - विरह द्वारा प्रियतम परमात्मा को प्राप्त होने पर विरही परमात्मारूप ही हो जाते हैं । अत: उन प्रियतम रूप संतों के चरण स्पर्श करने चाहिए । मुझे भी ऐसे संतों के दर्शन करने का उत्साह रहता है । जहां भी प्रभु ने और संतों ने अपने चरण रखे थे, वहां मस्तक नवाकर यहां की धूलि शिर पर धारण करनी चाहिए । दादूजी महाराज जब तक अहमदाबाद में रहे तब तक प्रतिदिन कांकरिया तालाब पर जहां उनको वृद्ध रूप में भगवन् का दर्शन हुआ था, उस भूमि को प्रणाम करने जाते थे और यह साखी बोला करते थे ।
(क्रमशः)

बुधवार, 10 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१४८-१५०)


॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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राम विरहनी ह्वै रह्या, विरहनि ह्वै गई राम । 
दादू विरहा बापुरा, ऐसे कर गया काम ॥१४८॥ 
जब भगवन् के प्रति भक्त का विनीत विरह अनन्यभाव से अन्तःकरण में आया, तब एक ऐसा विचित्र कार्य कर गया, जो किसी अन्य से होना असंभव ही था । यह बता रहे हैं – राम विरहनी हो गये और विरहनी राम बन गई अर्थात राम और विरही भक्त में तादात्म्य हो गया । 
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विरह बिचारा ले गया, दादू हमको आइ । 
जहँ अगम अगोचर राम था, तहँ विरह बिना को जाइ ॥१४९॥ 
भगवन् के विनीत विरह ने हमारे अन्तःकरण में आकर, हमें सांसारिक भोगासक्ति से उठाया और मन से अगम, इन्द्रियों के अविषय, राम के वास्तव - स्वरुप में अभेद भाव से स्थिर कर दिया है । उस राम के स्वरुप में विरह बिना कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता । अत: विरह ने हमारा बड़ा उपकार किया है । 
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विरह बापुरा आइ कर, सोवत जगावे जीव । 
दादू अंग लगाइ कर, ले पहुँचावे पीव ॥१५०॥ 
भगवन् का विनीत विरह भक्त के हृदय में आकर, भोगासक्ति रूप निद्रा से उसके अन्तःकरण को जगाता है और अपने स्वरुप के साथ लगाकर अर्थात विरही बनाकर, सांसारिक भावनाओं से ऊंचे उठा लेता है और भगवत् - स्वरुप में पहुँचा देता है । भक्त और भगवन् को एक कर देता है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१४५-७)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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**विरही - विरह - लक्षण**
जे हम छाड़ैं राम को, तो राम न छाड़ै ।
दादू अमली अमल तैं, मन क्यों करि काढै ॥१४५॥
१४५ - १५२ में विरही और विरह के लक्षण कह रहे हैं - जैसे नशेबाज नशे को छोड़ना चाहे तो भी नशे को मन से किस प्रकार निकाल सकता है ? अर्थात नहीं । वैसे ही जब हम विरही विरह की तीव्रावस्था में राम को छोड़ना चाहें, तो भी राम हमको नहीं छोड़ते ।
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विरहा पारस जब मिले, विरहनि विरहा होइ ।
दादू परसै विरहनी, पिव पिव टेरे सोइ ॥१४६॥
जब विरही भक्त को पारस के सामान शुद्ध और उत्तम विरहावस्था की प्राप्ति होती है, तब विरही विरह - रूप ही हो जाता है और विरह के साथ अभेद हुआ यह विरही अपने प्रियतम को पीव - पीव पुकारता हुआ उसी में मिल जाता है ।
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आशिक१ माशूक२ ह्वै गया, इश्क कहावे सोइ ।
दादू उस माशूक का, अल्लह आशिक होइ ॥१४७॥
जब प्रेमी१, प्रेम - पात्र२ हो जाता है तब ही उसका प्रेम सच्चा माना जाता है । इस प्रकार जब विरही भक्त भगवत् - स्वरुप में अभेदावस्था को प्राप्त करता है, तब स्वयं भगवन् उसके प्रेमी बन जाते हैं और यह प्रेम - पात्र बन जाता है । सीकरी शहर में अकबर बादशाह ने प्रश्न किया था - सच्चे प्रेम और सच्चे प्रेमी का क्या लक्षण है ? इस साखी से उसी का उत्तर दिया था ।
(क्रमशः)

रविवार, 7 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१४२-४)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विरह का अँग ३ =**

विरह अग्नि में जल गये, मन के विषय विकार ।
तातैं पंगुल ह्वै रह्या, दादू दर दीदार ॥१४२॥
हमारे मन की विषय - वासना और कामादि विकार विरहाग्नि में जल गये हैं । इसी से यह अब लोकान्तर में जाने की इच्छा रूप पैरों से रहित होकर भगवद् - दर्शनार्थ एकाग्रता रूप द्वार पर स्थित है ।

जब विरहा आया दरद सौं, तब मीठा लागा राम ।
काया लागी काल ह्वै, कड़वे लागे काम ॥१४३॥
जब तीव्र वेदना सहित भगवद् विरह हमारे में प्रकट हुआ, तब एक मात्र राम ही मधुर लगने लगे । प्रथम देहासक्ति होने से जो देह सेवा ही प्रिय लगती थी, अब यह देहासक्ति काल रूप भासने लभी है, कारण देहासक्ति से ही बारम्बार मृत्यु होती है । प्रथम जो सांसारिक भोग प्राप्ति के कार्य प्रिय लगते थे, वे अब अति कटु प्रतीत होने लगे हैं, क्योंकि उन सकाम कर्मों का ही तो फल जन्मादि संसार है ।
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**विरह - बाण**
जब राम अकेला रह गया, तन मन गया विलाय ।
दादू विरही तब सुखी, जब दरश परस मिल जाइ ॥१४४॥
विरह - बाणाघात का फल कह रहे हैं - जब विरह - बाणाघात से देहाध्यास और मन के विकार नष्ट हो जाते हैं, तब मन में एकमात्र राम का चिन्तन ही रह जाता है । फिर जब राम के दर्शन करके राम में ही मिल जाता है, तब ही विरही सुखी होता है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 6 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१३९-१)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विरह का अँग ३ =**
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दादू नैन हमारे ढीठ१ हैं, नाले नीर न जांहिं ।
सूके सरां सहेत वै, करंक भये गलि मांहिं ॥१३९॥
हमारे नेत्र अति निर्लज्ज१ हैं, कारण, भगवद् - विरह – व्यथा होने पर भी इनसे अश्रु जल के नाले नहीं चल रहे हैं और यदि भीतर जल ही नहीं रहा है तो सूखे सरोवर की मच्छियों के सामान अडिग स्नेह से गल कर पंजर क्यों नहीं हो गये ?
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**विरही - विरह - लक्षण**
दादू विरह प्रेम की लहरि में, यहु मन पंगुल होइ ।
राम नाम में गलि गया, बूझै विरला कोइ ॥१४०॥
विरही और विरह का लक्षण कह रहे हैं - विरह - सरिता की प्रेम - तरंग में यह मन विषयाशा रूप पैरों से रहित होकर निश्चल हो जाता है और राम - नाम - स्मरण द्वारा सब अंधकार गल जाने पर मन नाम के साथ अभेद हो जाता है, क्षण भर भी स्मरण नहीं त्यागता । इस स्थिति को कोई विरला संत ही जान पाता है ।
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**विरहाग्नि**
विरह अग्नि में जल गये, मन के मैल विकार ।
दादू विरही पीव का, देखेगा दीदार ॥१४१॥
१४१ - १४३ में विरहाग्नि विषयक विचार कह रहे हैं - जिसके मन के पाप और कामादि विकार विरहाग्नि से जल गये हैं, यही विरही अपने प्रभु का साक्षात्कार कर सकेगा ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 4 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१३६-८)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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नैनहुँ नीर न आइया, क्या जाणैं वे रोइ ।
तैसे ही कर रोइये, साहिब नैनहुँ जोइ ॥१३८॥
भगवद् - विरह वेदना मेरे हृदय को व्यथित कर रही है किन्तु मेरे इन नेत्रों में तो किंचित् भी अश्रु - जल नहीं आया है । ठीक है, वे मायिक भोग - पदार्थों के लिए ही रोना सीखे हैं, मायातीत ब्रह्म प्राप्ति के लिए रोने की पद्धति को वे क्या जानें ? किन्तु तुम विरही - जनों को तो उसी प्रकार रोना चाहिए, जिस प्रकार शीघ्र ही अपने नेत्रों से भगवद् का दर्शन कर सकें ।
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विरह - विलाप
रात दिवस का रोवणाँ, पहर पलक का नांहि ।
रोवत - रोवत मिल गया, दादू साहिब मांहि ॥१३६॥
१३६ - १३९ में विरह पूर्वक विलाप दिखा रहे हैं - भगवद् - विरही जनों का रुदन रात - दिन निरंतर होता रहता है, सांसारिक मनुष्यों के सामान पहर या क्षण का नहीं होता । वे तो भगवद् - दर्शनार्थ रोते - रोते अन्त में भगवत् स्वरुप में ही मिल जाते हैं ।
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दादू नैन हमारे बावरे, रोवें नहिं दिन रात ।
सांई संग न जागहीं, पिव क्यों पूछे बात ॥१३७॥
हमारे नेत्र पागल हैं, इसीलिए तो अपनी तृप्ति के कारण भगवद् - दर्शनार्थ दिन - रात नहीं रो रहे हैं । हमारा मन भी नाम - चिन्तन द्वारा भगवन् के साथ नहीं जागता, फिर ऐसी स्थिति पर प्रियतम प्रभु हमारे दु:ख सुख की बात कैसे पूछेंगे ?
(क्रमशः)

बुधवार, 3 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१३४-५)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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*विरह - विनती*
रोम - रोम रस प्यास है, दादू करहि पुकार ।
राम घटा दल उमंगि कर, बरसहु सिरजनहार ॥१३३॥
विरह पूर्वक दर्शनार्थ विनय कर रहे हैं - राम ! आपके दर्शन - रस की प्यास मेरे रोम २ को लग रही है । सृष्टिकर्ता ! मैं विरही बारंबार प्रार्थना कर रहा हूँ - जैसे बादल समूह की घटा उमंग कर जल वर्षाती है वैसे ही आप मुझ पर प्रसन्न होकर दर्शनानन्द रस वर्षाइये ।
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*विरही - विरह - लक्षण*
प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर मांहिं ।
रोम - रोम पिव - पिव करे, दादू दूसर नांहिं ॥१३४॥
१३४ - १३५ में विरही और विरह के लक्षण कह रहे हैं - मेरे शरीर पिंजर में प्रियतम प्रभु की प्रीति प्रवेश करके स्थिर हो गई है । मेरा रोम २ पीव २ ही पुकारता है । अब मेरा प्रभु के बिना अन्य लक्ष्य नहीं रहा है ।
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सब घट श्रवणा सुरति सौं, सब घट रसना बैन ।
सब घट नैना ह्वै रहे, दादू विरहा ऐन ॥१३५॥
जिस समय विरही भक्त का संपूर्ण शरीर श्रवण रूप होकर भगवत् का आंतरनाद सुनने के लिए, सुरति रूप होकर ध्यान करने के लिए, रसना रूप होकर भक्ति - रस पान करने के लिए, नेत्र रूप होकर दर्शन के लिए निरंतर तत्पर रहता है, तब ही उसमें विरह का प्रत्यक्ष रूप माना जाता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 1 अगस्त 2016

= विरह का अंग =(३/१३०-२)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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छिन - विछोह
दादू पड़दा पलक का, येता अंतर होइ ।
दादू विरही राम बिन, क्यों करि जीवे सोइ ॥१३०॥
विरही भक्त को क्षण का भगवद् - वियोग भी असह्य है, यह कह रहे हैं - जैसे नेत्र पर पलक का पड़दा आ जाता है, तब उसे कुछ भी नहीं दीखता, वैसे ही विरही भक्त और भगवन् के मध्य एक क्षण का अन्तराय भी विरही के जीवन को अंधकारमय बना देता है, फिर यह विरही - भक्त राम के साक्षात्कार बिना सुखपूर्वक कैसे जीवित रह सकता है ?
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विरह - लक्षण
काया मांहैं क्यों रह्या, बिन देखे दीदार ।
दादू विरही बावरा, मरे नहीं तिहिँ बार ॥१३१॥
१३१ - १३२ में विरह लक्षण कह रहे हैं - हे विरही भक्त ! भगवत् साक्षात्कार के बिना तेरा प्राण शरीर में कैसे रह रहा है ? उत्तम विरही तो मीन - वारि सम भगवत् मिलन बिना जीवित नहीं रह सकता । जो विरही भगवन् के लिए तत्काल नहीं मर सकता; वह वास्तविक विरह की स्थिति से अनभिज्ञ तथा पागल है ।
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बिन देखे जीवै नहीं, विरह का सहिनाण ।
दादू जीवै जब लगैं, तब लग विरह न जाण ॥१३२॥
वास्तव में तीव्र विरह प्रकट होने पर विरही भक्त भगवन् को बिना देखे जीवित नहीं रह सकता । यही उत्तम विरह का लक्षण है । जब तक सुख पूर्वक जीवित है, तब तक उत्तम विरह नहीं जानना चाहिए ।
(क्रमशः)

रविवार, 31 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१२७-९)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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सहजैं मनसा मन सधै, सहजैं पवना सोइ ।
सहजैं पंचों थिर भये, जे चोट विरह की होइ ॥१२७॥
यदि प्राणी के हृदय में भगवद् - विरह की चोट पदार्थों जाय तो स्वागाविक ही उसकी मनोवृत्तियाँ अन्तर्मुख होकर मन प्रभु में स्थिर हो जाता है । मन के स्थिर होने पर प्राण की गति सूक्ष्म होकर यह भी स्थिर हो जाती है । प्राण, मन, निरोध के सिद्ध होते ही पंच ज्ञानेन्द्रियें स्वाभाविक ही परमात्मा के स्वरुप में पदार्थों कर स्थिर हो जाती हैं ।
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मारणहारा रहि गया, जिहिँ लागी सो नांहिं ।
कबहूं सो दिन होइगा, यहु मेरे मन मांहिं ॥१२८॥
जिसके भी भगवद् - विरह - बाण की चोट लगी, उसका देहादि अंधकार सब नष्ट हो गया और उन असत्य अंधकारों के स्थान में विरह - बाण को मारने वाले भगवन् ही अभेद रूप से स्थिर हो गये । प्रभो ! उक्त प्रकार से मेरा और आपका अभेद होगा, वह दिन कब उदय होगा ? उसे देखने की मेरे मन में उत्कट अभिलाषा है ।
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प्रीतम मारे प्रेम सौं, तिनको क्या मारे ।
दादू जारे विरह के, तिनको क्या जारे ॥१२९॥
जिन भक्तों का मन भगवद् - विरहाग्नि से जल चुका है, उन्हें काम, शोकादि क्या जलावेंगे ? अर्थात उनके मन पर कामादि अपना प्रभाव नहीं डाल सकते । जिनको प्रियतम प्रभु ने अपने प्रेम से मारा है, उन्हें काल क्या मारेगा ? वे तो काल - कलना से रहित ब्रह्मरूप हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१२४-६)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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विरही सिसकै पीड़ सौं, ज्यों घायल रण मांहि ।
प्रीतम मारे बाण भर, दादू जीवै नांहि ॥१२४॥
जैसे रण में घायल हुआ वीर सिसकता है, वैसे ही विरही विरह - व्यथासे व्याकुल रहता है । प्रियतम प्रभु अपनी शक्ति भर उसके विरह - बाण मारते हैं किन्तु यह भगवद् - साक्षात्कार बिना विषय - सुखों से सुखी होकर जीवित नहीं रह सकता ।
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दादू विरह जगावे दरद को, दरद जगावे जीव ।
जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारें पीव ॥१२५॥
भगवद् - वियोग का अनुभव होने पर उसकी प्राप्ति के लिए व्यथा होने लगती है । उस व्यथा से व्यथित होकर जीव मोह - निद्रा से जाग जाता है और अपनी चित्तवृत्ति को विषयाकार स्थिति रूप निद्रा से उठाकर भगवदाकार ही रखने लगता है । तब पंच ज्ञानेन्द्रियाँ भी भगवत् - परायण होकर उसी को पुकारने लगती हैं अर्थात उसी का दर्शन, शब्द, भंध, स्पर्श और रस चाहती हैं ।
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दादू मारे प्रेम सौं, बेधे साधु सुजाण ।
मारणहारे को मिले, दादू विरही बाण ॥१२६॥
अन्य वीर द्वेष पूर्वक लक्ष्य को सिद्ध करते हैं और उनका अस्त्र लक्ष्य को नष्ट करके यहीं गिर पड़ता है या मंत्र सिद्ध हो तो स्वयं वीर के पास लौट आता है, किन्तु भगवन् अपने बुद्धिमान् साधक संत - लक्ष्य को प्रेम पूर्वक विरह - बाण से युक्त करते हैं और यह बाण लक्ष्य को बेधकर लक्ष्य के सहित भगवन् में ही आ मिलता है अर्थात साधक, साधन और साध्य एक रूप हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१२१-३)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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दादू भलका मारे भेद सों, सालै मँझि पराण ।
मारण हारा जाणि है, कै जिहिं लागे बाण ॥१२१॥
भगवन् भक्त के विरह - बाण बड़े रहस्य - पूर्वक मारते हैं । किसी अन्य को तो पता भी नहीं लगता, किन्तु भक्त के मन में भारी व्यथा होती रहती है । उस व्यथा को या तो मारने वाले भगवन् जानते हैं या जिसके बाण लगता है, यह जानता है ।
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दादू सो शर हमको मारिले, जिहिं शर मिलिये जाइ ।
निश दिन मारग देखिये, कबहूं लागे आइ ॥१२२॥
भगवन् ! आप हमें विरह - व्यथासे मारना ही चाहते हैं, तो यह तीव्रतर विरह - बाण मारिये, जिसके लगते ही हम देहादि आसक्ति से ऊंचे उठकर शीघ्र ही आपसे आ मिलें । हम निश - दिन उस तीव्रतर विरह - बाण की प्रतीक्षा कर रहे हैं - यह कब आकर हमारे लगेगा ।
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जिहिं लागी सो जागि है, बेध्या करण पुकार ।
दादू पिंजर पीड़ है, साले बारंबार ॥१२३॥
जिसके विरह - बाण की चोट लभी है, यह उससे युक्त होकर भगवद् - दर्शनार्थ पुकारता हुआ जागता रहता है और उसके हृदय - पिंजरे में स्थित यह पीड़ा उसे बारंबार व्यथित करती रहती है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/११८-१२०)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
श्री दादू अनुभव वाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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*करणी बिना कथनी*
दादू अक्षर प्रेम का, कोई पढेगा एक ।
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढैं अनेक ॥११८॥
कर्त्तव्य रहित कथन पर कह रहे हैं - भगवत् प्रेम रहित अनेक विद्वान् कितनी ही पुस्तकें पढते आ रहे हैं किन्तु भगवन् के अविनाशी प्रेम का पाठ तो कोई विरला एक ही पढेगा या किसी विरले ने ही पढा होगा ।
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दादू पाती प्रेम की, विरला बांचे कोइ ।
वेद पुराण पुस्तक पढैं, प्रेम बिना क्या होइ ॥११९॥
परमेश्वर के प्रेम - पत्र को तो कोई विरले विरही भक्त ही पढते हैं किन्तु चातुर्य बढ़ाने के लिए अनेक मानव वेद - पुराणादि पुस्तकें पढते हैं, परन्तु प्रेम बिना क्या उन्हें भगवद् - दर्शन हो जाता है ? दर्शन तो प्रेम से ही होते हैं ।
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*विरह - बाण*
दादू कर बिन, शर बिन, कमान बिन, मारण खैंचि कसीस१ ।
लागी चोट शरीर में, नख शिख सालै सीस ॥१२०॥
१२० - १२९ में विरह - बाणाघात विषयक विचार कह रहे हैं - भगवन् भक्तजनों के बिना हाथ, बिना शर और बिना धनुष ही निर्दयता१ पूर्वक खींच कर विरह - बाण मारते हैं । विरह – बाण की चोट जिनके शरीर में लग जाती है, उनके शरीर को नख से शिर की शिखा पर्यन्त व्याकुल करती रहती है ।
(क्रमशः)

रविवार, 17 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/११६-७)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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दादू तो पिव पाइये, भावै१ प्रीति लगाइ ।
हेजैं२ हरि बुलाइये, मोहन मंदिर आइ ॥११५॥
यदि श्रद्धा१ पूर्वक भगवन् में प्रीति की जाय तो वे प्राप्त हो जाते हैं । प्रेम२ पूर्वक हरि का आह्वान करो, वे विश्व - विमोहन भगवन् तुम्हारे हृदय - मंदिर में आ जायेंगे ।
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*विरह - उपजनि* 
दादू जाके जैसी पीड़ है, सो तैसी करे पुकार । 
को सुक्षम को सहज में, को मृतक तिहिँ बार ॥११६॥ 
त्रिविध विरह उत्पत्ति दिखा रहे हैं - जिस विरही भक्त के हृदय में जैसी विरह - वेदना होती है, यह वैसी ही पुकार करता है । जिसमें अल्प व्यथा होती है यह किंचित् समय पुकारता है, जिसमें तीव्र होती है यह स्वाभाविक जीवन भर पुकारता रहता है और जिसमें तीव्रतर अवस्था आ जाती है, यह तो एक क्षण भर का वियोग भी सहन नहीं कर सकता, तत्काल ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । 
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*विरह - लक्षण* 
दरद हि बूझे दरदवंद, जाके दिल होवे । 
क्या जाणे दादू दरद की, नींद भर सोवे ॥११७॥ 
विरह का लक्षण विरही ही जानता है, यह कह रहे हैं - जिसके हृदय में विरह -व्यथा उत्पन्न हुई है, यही उसको जानता है । जिनके हृदय में प्रकट नहीं हुई, उन सांसारिक प्राणियों को भगवद् - विरह - वेदना का अनुभव नहीं होता । उनकी तो विषय - सुख में ही अलम् बुद्धि रहती है, अत: वे दिन भर भोगों के लिए यत्न करते हैं और रात्रि को यथेष्ट सोते हैं, किन्तु भगवद् विरही जन रात - दिन रोते रहते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/११२-४)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी टीका** ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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विरह - उपदेश 
दादू तो पिव पाइये, कश्मल१ है सो जाइ । 
निर्मल मन कर आरसी, मूरति मांहिं लखाय ॥११२॥ 
११२ - ११५ में विरह सम्बन्धी उपदेश कर रहे हैं - यदि विरह द्वारा हृदय के पापादि१ दोष नष्ट हो जायँ तो प्रभु मिल सकते हैं । मन - दर्पण को निर्मल करो फिर तो भीतर ही प्रभु - मूर्ति दिखाई देने लगेगी । 
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दादू तो पिव पाइये, करिये मंझ विलाप । 
सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परकट होवे आप ॥११३॥ 
यदि भगवद् - विरह से व्यथित होकर, उनके दर्शनार्थ अपने अन्तःकरण में ही विलाप करते रहोगे तो वे कभी सुनकर अपने मन में तुम्हारी बात तुम्हें दर्शन देने के लिये रख लेंगे और स्वयं तुम्हारे हृदय में प्रकट हो होजायेंगे ।
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दादू तो पिव पाइये, कर सांई की सेव ।
काया मांहिं लखाइसी, घट ही भीतर देव ॥ ११४ ॥
यदि विरह - वेदना सहित भगवन् की भक्ति की जाय तो वे प्राप्त हो जाते हैं । वे निरंजनदेव अन्तःकरण में ही साक्षीरूप से स्थित हैं और भक्ति की परिपाकावस्था में काया के भीतर ही दिख जायेंगे ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 14 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१०९-११)

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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी टीका** ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥

**= विरह का अँग ३ =**

बिन ही नैनहुँ रोवणा, बिन मुख पीड़ पुकार ।
बिन ही हाथों पीटणा, दादू बारंबार ॥१०९॥
भगवद् - विरही जन यद्यपि वियोगिनी नारी के सामान बाहर से रोते, पुकारते और शिर आदि को अपने हाथों से पीटते तो नहीं दिखाई देते, किन्तु उनके अन्तःकरण में वे क्रियाएं बारंबार होती ही रहती हैं ।

प्रीति न उपजे विरह बिन, प्रेम भक्ति क्यों होइ ।
सब झूठे दादू भाव बिन, कोटि करे जे कोइ ॥११०॥
विरह बिना हृदय में प्रीति प्रकट नहीं होती और जिसमें प्रेम का अँकुर ही नहीं, उससे प्रेमाभक्ति कैसे हो सकती है ? परम प्रेम के बिना यदि कोई भगवद् - दर्शनार्थ कोटि उपाय करे तो भी वे मिथ्या ही हैं, उनसे दर्शन न होगा ।

दादू बातों विरह न ऊपजे, बातों प्रीति न होइ ।
बातों प्रेम न पाइये, जिनि रु पतीजे कोइ ॥१११॥ 
केवल विरह और प्रीति उत्पन्न होने की बातों से विरह और प्रीति नहीं उत्पन्न होते । प्रेम की बातें करने से ही प्रेम नहीं मिलता । केवल इनकी बातें करने वाले पर ऐसा विश्वास न करना चाहिए कि - यह वास्तव में विरही तथा प्रेमी भक्त है । 
(क्रमशः)

बुधवार, 13 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१०७-८)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी टीका** ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**= विरह का अँग ३ =**
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दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम करी पुकार । 
तातैं साहिब ना मिव्या, दादू बीती बार ॥१०६॥ 
न तो हमारे में विरह - वेदना प्रकट हुई और न व्याकुल होकर हमने दर्शनार्थ भगवन् की प्रार्थना ही की । इसीलिए हमें भगवन् नहीं मिले और हमारी आयु का समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया ।
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अंदर पीड़ न ऊभरे, बाहर करे पुकार ।
दादू सो क्यों कर लहे, साहिब का दीदार ॥१०७॥
जिसके हृदय में विरह - व्यथा तो उत्पन्न हुई नहीं और केवल लोक दिखावे के लिये बाहर से पुकारता है, यह भगवत् का साक्षात्कार कैसे कर सकता है ?
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मन ही मांहीं झूरणा, रोवे मन ही मांहिं ।
मन ही मांहीं धाह दे, दादू बाहर नांहिं ॥१०८॥
प्रभु दर्शन के इच्छुक विरही को चाहिए - अपने मन में ही विलाप करते हुए धाड़ मार २ कर रोवे, बाहर लोक दिखावे के लिए रोना आदि व्यहवार न करे ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१०४-५)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
**श्री दादू अनुभव वाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= **विरह का अँग ३** =
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दादू चोट बिना तन प्रीति न उपजे, औषधि अंग रहंत ।
जनम लगैं जीव पलक न परसे, बूंटी अमर अनंत ॥१०४॥
जब तक रोग वेदना नहीं होता, तब तक अपने शरीर के पास कोट की जेब में औषधि रहने पर भी उसके खाने की रूचि नहीं होती, वैसे ही जब तक विरह - व्यथा नहीं होती तब तक अमर करने वाली अनन्त परमात्मा रूप बूंटी को जीव जीवन भर प्रयत्न करके एक क्षण भर के लिए भी प्राप्त नहीं कर सकता ।
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दादू चोट न लागी विरह की, पीड़ न उपजी आइ । 
जागै न रोवे धाह दे, सोवत गई बिहाइ ॥१०५॥ 
जिनके भगवद् - विरह की चोट नहीं लगी एवं उनके हृदय में भगवद् प्राप्ति के लिए व्यथा भी नहीं हुई और वे मोह - निद्रा से जागकर भगवद् - दर्शनार्थ धाड़ मार - मार रोये भी नहीं । ऐसे सांसारिक प्राणियों की आयु अज्ञान - निद्रा में सोते - सोते ही बीत गई । 
(क्रमशः)

सोमवार, 11 जुलाई 2016

= विरह का अंग =(३/१०२-३)

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
"श्री दादू अनुभव वाणी" टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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= विरह का अँग ३ =
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दादू क्षुधा बिना तन प्रीति न उपजे, बहु विधि भोजन नेरा ।
जनम लगैं जिव रती न चाखे, पाक पूरि बहुतेरा ॥१०२॥
विविध प्रकार के बहुत से गोजन समीप में पड़े रहने पर भी यदि प्राणी को क्षुधा न हो तो उनके खाने की रूचि उसके मन में नहीं होती । वैसे ही तृप्तिकारक संपूर्ण पाकों का शिरोमणि परब्रह्म - पाक अपनी अनन्त महिमा द्वारा सभी विश्व में परिपूर्ण है किन्तु विरह - वेदना बिना जीव जीवन - भर दौड़ - धूप मचा कर भी ब्रह्मानन्द का किंचित् मात्र भी अनुभव नहीं कर सकता ।
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दादू तपत बिना तन प्रीति न उपजे, संग ही शीतल छाया ।
जनम लगैं जीव जाणे नांहीं, तरुवर त्रिभुवन राया ॥ १०३ ॥ 
शीतकाल में अति निकट श्रेष्ठ वृक्ष की शीतल छाया हो तो भी तेज धूप के बिना उसमें बैठने की रूचि नहीं होती । वैसे ही जब तक विरह – व्यथा प्रकट नहीं होती, तब तक प्राणी त्रिलोक - स्वामी परमात्मा के स्वरुप को जानने के लिए जन्म - पर्यन्त यत्न करे तो भी नहीं जान पाता ।
(क्रमशः)