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रविवार, 7 जून 2020

= २९७ =


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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
२९७ - हैरान । उत्सव ताल
https://youtu.be/3bWXXKkYtiQ
हम तैं दूर रही गति तेरी ।
तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपरी मति मेरी ॥टेक॥
मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं ।
सुरति समाइ बुद्धि बल थाके, वचन न पहुंचैं ताँहीं ॥१॥
योग न ध्यान ज्ञान गम नांहीं, समझ - समझ सब हारे ।
उनमनी रहत प्राण घट साधे, पार न गहत तुम्हारे ॥२॥
खोजि परे गति जाइ न जानी, अगह गहन कैसे आवै ।
दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावै ॥३॥
इति राग नट नारायण समाप्त: ॥१८॥पद ७॥
ब्रह्म स्वरूप की आश्चर्यता दिखा रहे हैं - प्रभो आपका स्वरूप हमारे मन इन्द्रियों के ज्ञान से दूर ही रहा है । जैसे आप हैं, वैसे तो अपने को आप ही जानते हो । मेरी तुच्छ बुद्धि तो आपको जान ही क्या सकती है ? 
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आप मन से अगम और दृष्टि से अगोचर हैं, बुद्धि आपके स्वरूप में प्रविष्ट नहीं हो सकती । जहां बुद्धि की शक्ति थक जाती है, वहां वचन तो पहुंचता ही नहीं, अत: सँत - जन ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा ही आप में समाये रहते हैं । 
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आपके वास्तविक स्वरूप के अन्त तक योग, ध्यान और ज्ञान द्वारा भी गमन नहीं होता । योगी, ध्यानी, ज्ञानी आदि आपके स्वरूप को समझकर मध्य में ही थक गये हैं, पार नहीं पा सके । शरीरस्थ प्राण को साधना द्वारा अधीन करके समाधि में रहने वाले भी आपके स्वरूप का पार नहीं पा सकते । 
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अनेक खोजी लोक आपको खोजने के लिये पीछे पड़े, किन्तु वे भी स्वरूप का अन्त न जान सके । वह अग्रान है, ग्रहण करने में कैसे आये । हां, वे मन इन्द्रियों के अविषय परब्रह्म ही यदि अपना साक्षात्कार करा देवें, तो जिसका महान् भाग्य हो, वह उनका दर्शन प्राप्त करता है ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग नट नारायण समाप्त : ॥१८॥

शनिवार, 6 जून 2020

= २९६ =

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२९६ - परमेश्वर महिमा । राज विद्याधर ताल
तुम बिन ऐसै कौन करे ।
गरीब निवाज गुसांई मेरो, माथैं मुकुट धरै ॥टेक॥
नीच ऊंच ले करै गुसांई, टार्यो हूं न टरै ।
हस्त कमल की छाया राखै, काहूं तैं न डरै ॥१॥
जाकी छोत जगत को लागै, तापर तूँ ही ढरै ।
अमर आप ले करै गुसांई, मार्यो हूं न मरै ॥२॥
नामदेव कबीर जुलाहो, जन रैदास तिरै ।
दादू वेगि बार नहिं लागै, हरि सौं सबै सरै ॥३॥
परमेश्वर की महिमा कह रहे हैं - दीन - हीन प्राणियों पर कृपा करने वाले हे मेरे स्वामिन् ! भक्तिवश अपवित्र अवस्था में भी आपने वेश्या के हाथ से अपने मस्तक पर मुकुट धारण किया था, आपके बिना ऐसे कौन कर सकता है ? (मुकुट धारण की कथा भक्तमाल में प्रसिद्ध है) । 
.
प्रभो ! आप नीच को उच्च कर लेते हैं, वह आपकी कृपा से प्राप्त उच्चस्थिति से हटाने से भी नहीं हटता, उच्च ही रहता है । उसे आप अपने कर - कमलों की रक्षा रूप छाया में रखते हैं, अत: वह किसी से भी नहीं डरता । 
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जिसको जगत् में लोग अछूत समझते हैं, उस पर आप ही कृपा करते हैं । प्रभो ! उसे आप अपनी शरण में लेकर अमर कर लेते हैं, वह प्रहलाद के समान किसी के मारने से भी नहीं मरता । 
.
आपके भजन बल से नामदेव, जुलाहे कबीर और भक्त रैदास सँसार सिन्धु से तैर गये हैं । आप हरि की कृपा से कुछ भी देर न लग कर अति शीघ्र ही सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 5 जून 2020

= २९५ =

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*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२९५ - परमेश्वर महिमा । राज विद्याधर ताल
तुम बिन ऐसै कौन करे ।
गरीब निवाज गुसांई मेरो, माथैं मुकुट धरै ॥टेक॥
नीच ऊंच ले करै गुसांई, टार्यो हूं न टरै ।
हस्त कमल की छाया राखै, काहूं तैं न डरै ॥१॥
जाकी छोत जगत को लागै, तापर तूँ ही ढरै ।
अमर आप ले करै गुसांई, मार्यो हूं न मरै ॥२॥
नामदेव कबीर जुलाहो, जन रैदास तिरै ।
दादू वेगि बार नहिं लागै, हरि सौं सबै सरै ॥३॥
परमेश्वर की महिमा कह रहे हैं - दीन - हीन प्राणियों पर कृपा करने वाले हे मेरे स्वामिन् ! भक्तिवश अपवित्र अवस्था में भी आपने वेश्या के हाथ से अपने मस्तक पर मुकुट धारण किया था, आपके बिना ऐसे कौन कर सकता है ? (मुकुट धारण की कथा भक्तमाल में प्रसिद्ध है) । 
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प्रभो ! आप नीच को उच्च कर लेते हैं, वह आपकी कृपा से प्राप्त उच्चस्थिति से हटाने से भी नहीं हटता, उच्च ही रहता है । उसे आप अपने कर - कमलों की रक्षा रूप छाया में रखते हैं, अत: वह किसी से भी नहीं डरता । 
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जिसको जगत् में लोग अछूत समझते हैं, उस पर आप ही कृपा करते हैं । प्रभो ! उसे आप अपनी शरण में लेकर अमर कर लेते हैं, वह प्रहलाद के समान किसी के मारने से भी नहीं मरता । 
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आपके भजन बल से नामदेव, जुलाहे कबीर और भक्त रैदास सँसार सिन्धु से तैर गये हैं । आप हरि की कृपा से कुछ भी देर न लग कर अति शीघ्र ही सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 4 जून 2020

= २९४ =

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*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२९४ - राज मृँगाक ताल बसँत में
नीके मोहन सौं प्रीति लाई ।
तन मन प्राण देत बजाई, रँग रस के बनाई ॥टेक॥
ये ही जीयरे वे ही पीवरे, छोड्यो न जाई, माई ।
बाण भेद के देत लगाई, देखत ही मुरझाई ॥१॥
निर्मल नेह पिया सौं लागो, रती न राखी काई ।
दादू रे तिल में तन जावे, संग न छाडूं माई ॥२॥
अब तो हमने अच्छी प्रकार मोहन से प्रीति कर ली है । हृदय पर प्रेम रस का अच्छा रँग बनाकर ढोल बजाते हुये अपना तन और प्राण उनको समर्पण कर रहे हैं । 
.
हे माई ! वे ही हमारे प्रियतम हैं, यह जीवन उन्हीं का है, उन्हें छोड़ा नहीं जा सकता । वे वियोग के बाण लगा सकते हैं, तब देखते २ ही हमारा हृदय - कमल कुम्हला जाता है । 
.
अब तो प्रियतम से निर्मल स्नेह हो गया है, रत्ती मात्र भी कपट रूप मैल नहीं रहा है । अरी माई ! अब हम उनका संग कभी भी नहीं छोड़ सकते, कारण, यह शरीर तो पल भर में जाने वाला है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 3 जून 2020

= २९३ =

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२९३ - राज मृगाँक ताल
कब देखूँ नैनहुँ रेख१ रती, 
प्राण मिलन को भई मती ।
हरि सों खेलूँ हरी गती२, 
कब मिलि हैं मोहि प्राणपती ॥टेक॥
बल कीती३ क्यों देखूँगी रे, 
मुझ माँहीं अति बात अनेरी४ ।
सुन साहिब इक विनती मेरी, 
जन्म जन्म हूं दासी तेरी ॥१॥
कहै दादू सो सुनसी साँई, 
हौं अबला बल मुझ में नाँहीं ।
करम५ करी घर मेरे आई, 
तो शोभा पिव तेरे ताँई ॥२॥
मेरा जीवात्मा प्रभु से मिले, इसके लिये मेरी बुद्धि आतुर हो रही है । मैं उन प्रभु का कभी किंचित् मात्र भी स्वरूप१ देख पाऊंगी तो मुझे शाँति मिलेगी । वे प्राणपति मुझे कब मिलेंगे ? 
.
और मैं उन हरि का ही रूप२ धारण करके हरि के साथ कब खेल सकूंगी ? अरे ! मैं अपने बल करके३(द्वारा) तो उनको कैसे देख सकूंगी ? कारण, मेरे में तो ऐसी बहुत - सी दोष४ रूप बातें हैं, जो उनसे दूर करती हैं । किन्तु हे स्वामिन् ! मेरी एक विनय सुनिये, मैं जन्म २ से आपकी दासी रही हूं.. 
.
और विनय कर रही हूं, आप मेरे प्रभु होने से वह विनय अवश्य सुनेंगे, ऐसी आशा है । हे प्रियतम ! मैं अबला हूं, मुझ में कुछ भी बल नहीं है, अत: आप कृपा५ करके मेरे हृदय घर में पधारेंगे, तब ही आपके लिये शोभा की बात रहेगी ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 2 जून 2020

= २९२ =

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*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
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२९२ - विरह । जयमँगल ताल
https://youtu.be/GoJigDPjSzM
गोविन्द ! कबहुँ मिलै पीव मेरा ?
चरण - कमल क्यों हीं कर देखूँ, 
राखूँ नैनहुं नेरा ॥ टेक ॥
निरखण का मोहि चाव घणेरा, 
कब मुख देखूँ तेरा?
प्राण मिलन को भयी उदासी, 
मिल तूँ मीत सवेरा ॥ १ ॥
व्याकुल तातैं भई तन देही, 
शिर पर जम का हेरा ।
दादू रे जन राम मिलन को, 
तपई तन बहुतेरा ॥ २ ॥
२९२ - २९४ में विरह दिखा रहे हैं - मेरे प्रियतम गोविन्द ! आप मुझे कब मिलेंगे ? किस प्रकार मैं आपके चरण - कमलों को देख कर उन्हें अपने नेत्रों के समीप रख सकूंगा ? 
.
मुझे आपका मुख देखने का बड़ा उत्साह है किन्तु पता नहीं कब देख सकूंगा ? आप से मिलने के लिये मेरा मन दु:खी हो रहा है । मेरे सिर पर यम का हमला भी हो रहा है । 
.
इससे स्थूल शरीर में स्थित जीवात्मा व्याकुल हो रहा है । अरे ! मुझ भक्त का तन राम से मिलने के लिये बहुत प्रकार से सँतप्त रहता है । अत: हे मित्र ! शीघ्र ही मुझ से मिलो ।
(क्रमशः)

सोमवार, 1 जून 2020

= २९१ =

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*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
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२९१ - हितोपदेश । गजताल
ताको काहे न प्राण संभालै ।
कोटि अपराध कल्प के लागे, माँहिं महूरत टालै ॥टेक॥
अनेक जन्म के बन्धन बाढ़े, बिन पावक फंद जालै ।
ऐसो है मन नाम हरी को, कबहूं दु:ख न सालै ॥१॥
चिन्तामणि जुगति सों राखै, ज्यों जननी सुत पालै ।
दादू देखु दया करै ऐसी, जन को जाल न रालै१ ॥२॥
हितकर उपदेश कर रहे हैं - अरे प्राणी ! जो कल्प(ब्रह्मा का एक दिन) भर के हृदय में लगे हुये पापों को एक मुहुर्त्त(४८ मिनट वो १ क्षण) में हटा लेते हैं, उन प्रभु का स्मरण क्यों नहीं करता ? 
.
वे अनेक जन्मों के कर्म बन्धनों को काट डालते हैं, बिना अग्नि ही भक्तों के फँद को जला देते हैं । अरे ! तू अपने मन में सोच तो सही, उन हरि का नाम ऐसा शक्तिशाली है कि - स्मरण करने वाले को कोई भी प्रकार का दु:ख व्यथित नहीं करता । 
.
जैसे माता अपने पुत्र का पालन करती है, वैसे ही युक्ति से चिन्तामणि रूप हरि अपने भक्तों की रक्षा करते हैं । अरे ! देख तो सही, वे ऐसी दया करते हैं कि - उनके भक्त को यमदूत अपने जाल में नहीं डाल१ सकते ।
(क्रमशः)

रविवार, 31 मई 2020

= २९० =


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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग हुसेनी बँगाल १७ (गायन समय पहर दिन चढ़े चन्द्रोदय ग्रँथ के मतानुसार)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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२९० - (गुजराती) विनय । त्रिताल
तूँ घर आव सु क्षण पीव ।
हिक तिल मुख दिखलावहु तेरा, क्या तरसावै जीव ॥टेक॥
निश दिन तेरा पँथ निहारूँ, तूँ घर मेरे आव ।
हिरदा भीतर हेत सौं रे वाहला, तेरा मुख दिखलाव ॥१॥
वारी फेरी बलि गई रे, शोभित सोई कपोल ।
दादू ऊपरि दया करीनें, सुनाइ सुहावे बोल ॥२॥
इति राग हुसेनी बँगाल समाप्त: ॥१७॥पद २॥
दर्शनार्थ विनय कर रहे हैं - हे मेरे शुभ लक्षणों युक्त प्रियतम ! आप मेरे हृदय घर में पधारिये । मुझे थोड़ा - सा दर्शन देने के लिए भी आप मेरे मन को इतना क्यों तरसा रहे हैं ? 
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मैं दिन - रात आपका मार्ग देख रही हूँ, आप मेरे घर पधारिये । प्रियतम ! हृदय घर में आकर प्रेम पूर्वक अपना सुन्दर शोभा युक्त कपोलों वाला मुख दिखलाइये । 
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मैं अपना सब कुछ आप पर निछावर करके आपकी बलिहारी जा रही हूं । आप मुझ पर दया करके, मुझे प्रिय लगें ऐसे वचन सुनाने की कृपा कीजिये ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग हुसेनी बँगाल समाप्त : ॥१७॥
(क्रमशः)

शनिवार, 30 मई 2020

= २८९ =

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*राग हुसेनी बँगाल १७ (गायन समय पहर दिन चढ़े चन्द्रोदय ग्रँथ के मतानुसार)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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२८९ - (फारसी) अनन्यता । त्रिताल
है दाना१ है दाना२, दिलदार३ मेरे कान्हा ।
तूँ हीं मेरे जान४ जिगर५, यार मेरे खाना६ ॥टेक॥
तूँ हीं मेरे मादर७ पिदर८, आलम९ बेगाना१० ।
साहिब शिरताज मेरे, तूँ हीं सुताना ॥१॥
दोस्त दिल तूँ हीं मेरे, किसका खिल११ खाना१२ ।
नूर१३ चश्म१४ ज्यंदद१५ मेरे, तूँ हीं रहमाना१६ ॥२॥
एकै असनाव१७ मेरे, तूँ हीं हम जाना ।
जानिबा१८ अजीज१९ मेरे, खूब खजाना ॥३॥
नेक२० नबर महर मीराँ२१, बँदा मैं तेरा ।
दादू दरबार तेरे, खूब साहिब मेरा ॥४॥
अनन्यता दिखा रहे हैं, हे महान्१ और सर्वज्ञ२ मेरे प्यारे३ कृष्ण ! 
.
आप ही मेरे जीवन४, कलेजा५, सहायक, और निवास६ स्थान हैं । आप ही सँसार९ में मेरे माता७ पिता८ और पराये१० जन भी हैं, 
.
आप ही मेरे स्वामी, शिरोमणि बादशाह, सुहृद हैं और यह सब११ शरीर रूप घर१२ भी किसका है, आप ही का है । हे दयालु१६ ईश्वर ! आपका स्वरूप१३ ही मेरे नेत्र१४ तथा जीवन१५ का लक्ष्य है । 
.
हमने जान लिया है - एक मात्र आप ही सँसार वो मेरे(असना१७=आव१७) बीच१७ में शोभारूप१७ हैं । आप ही मेरे पक्ष१८ पर रहने वाले सम्बन्धी१९ और श्रेष्ठ धनराशि हैं । 
.
हे मेरे श्रेष्ठ स्वामिन् ! मैं आपके दरबार में आया हूं, आपका दास हूं । हे मेरे सरदार२१ ! मुझ पर उत्तम२० दया युक्त दृष्टि करिये ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 29 मई 2020

= २८८ =

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग टोडी(तोडी) १६ (गायन समय दिन ६ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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२८८ - परिचय पराभक्ति । कोकिल ताल
अखिल भाव अखिल भक्ति, अखिल नाम देवा ।
अखिल प्रेम अखिल प्रीति, अखिल सुरति सेवा ॥टेक॥
अखिल अँग अखिल संग, अखिल रँग रामा ।
अखिलारत अखिलामत, अखिलानिज नामा ॥१॥
अखिल ज्ञान अखिल ध्यान, अखिल आनन्द कीजै ।
अखिला लै अखिला मैं, अखिला रस पीजै ॥२॥
अखिल मगन अखिल मुदित, अखिल गलित साँई ।
अखिल दरश अखिल परस, दादू तुम माँहीं ॥३॥
इति राग टोडी(तोडी) समाप्त ॥१६॥पद २०॥
परिचय होने पर पराभक्ति करने की प्रेरणा कर रहे हैं, परिचित परब्रह्म देव में सब प्रकार से श्रद्धा करनी चाहिए । सर्व समय नाम चिन्तन करना चाहिये । वे सर्व प्रकार से प्रेम - पात्र होने योग्य हैं । उनसे सर्व प्रकार प्रीति करनी चाहिये और उन सर्व रूप की वृत्ति द्वारा सेवा करते रहना चाहिये । 
.
वे राम सब रँगों में, सबके साथ तथा सब शरीरों में विद्यमान हैं । सब अवस्थाओं में उनसे प्रेम करना । सब प्रकार उनके मत में रहना और सब प्रकार ही सत्यरामादि निज नामों का चिन्तन करना चाहिए ।
.
सब प्रकार से उसी का ध्यान करते हुए ज्ञान द्वारा सब में उसी को देखते हुए सर्व प्रकार से आनन्द करना चाहिए । सब में वृत्ति जाने पर भी सब प्रकार से सर्व रूप ब्रह्म दर्शन - रस का पान करना चाहिए । 
.
सर्व प्रकार प्रभु के प्रेम में गलित और सब भाँति प्रसन्न रहते हुए उस सर्व रूप में ही निमग्न रहना चाहिये । वह सर्व में देखने योग्य, सर्व में स्पर्श करने योग्य परब्रह्म तुम्हारे भीतर ही है ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग टोडी(तोडी) समाप्त: ॥ १६ ॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 28 मई 2020

= २८७ =

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*राग टोडी(तोडी) १६ (गायन समय दिन ६ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
.
२८७ - परिचय । कोकिल ताल
सुन्दर राम राया ।
परम ज्ञान परम ध्यान, परम प्राण आया ॥टेक॥
अकल सकल अति अनूप, छाया नहिं माया ।
निराकार निराधार, वार पार न पाया ॥१॥
गँभीर धीर निधि शरीर, निर्गुण निरकारा ।
अखिल अमर परम पुरुष, निर्मल निज सारा ॥२॥
परम नूर परम तेज, परम ज्योति प्रकाशा ।
परम पुँज परापरँ, दादू निज दासा ॥३॥
साक्षात्कार की स्थिति बता रहे हैं, निर्गुण के उत्कृष्ट ध्यान तथा उत्कृष्ट ज्ञान के द्वारा परम सुन्दर विश्व को सत्ता मात्र से चलाने वाला राजा, परम प्राण रूप सब में रमने वाला राम अपने आत्म - स्वरूप से ही भास आया है । 
.
वह काल रहित, सर्व रूप, अति अनुपम, निराकार होने से छाया तथा माया रहित निराधार है । उसका आदि अन्त नहीं प्राप्त होता । 
.
वह अति गँभीर है, उसका स्वरूप धैर्य की निधि रूप है किन्तु निर्गुण होने से अकार का वाच्य विष्णु नहीं है और वह परम पुरुष अखिल आकारों में अमर भाव से स्थित है । ऐसा उसका निर्मल वास्तविक स्वरूप है । 
.
वह परम तेज रूप है, उस परम ज्योति का प्रकाश ज्ञान रूप से सबमें फैला हुआ है । वह सब प्रकार की परमता की राशि है, माया से परे है, हम उसी के निजी भक्त हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 27 मई 2020

= २८६ =

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*राग टोडी(तोडी) १६ (गायन समय दिन ६ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
.
२८६ - विनती । वसँत ताल
आदि है आदि अनादि मेरा, 
सँसार सागर भक्ति भेरा१ ।
आदि है अंत है, 
अंत है आदि है, विरुद तेरा ॥टेक॥
काल है झाल है, झाल है काल है, 
राखिले राखिले प्राण घेरा ।
जीव का जन्म का, जन्म का जीव का, 
आपहीं आपले भान झेरा२ ॥१॥
भ्रम का कर्म का, कर्म का भ्रम का, 
आइबा जाइबा मेट फेरा ।
तारले पारले, पारले तारले, 
जीव सौं शिव३ है निकट नेरा ॥२॥
आत्मा राम है, राम है आत्मा, 
ज्योति है युक्ति सौं करो मेला ।
तेज है सेज है, सेज है तेज है, 
एक रस दादू खेल खेला ॥३॥
अद्वैत स्थिति के लिये प्रभु से विनय कर रहे हैं, उत्पत्ति रहित, मेरे मूल - कारण आदि देव परमेश्वर ! आप की भक्ति सँसार - सागर को पार करने के लिए बेड़ा१ है । आप ही सृष्टि के आदि और अन्त में रहते हैं । आप का यश सृष्टि के आदि से अन्त तक सँसार में फैला रहता है । 
.
काल की जो दु:ख रूप तरँगे हैं, वे ही काल रूप होकर मेरे प्राण निकालने के लिए घेरा लगा रही हैं, आप रक्षा करो, रक्षा करो । जीव का जो जन्म धारण करने का कारण कर्म रूप और जीव पर जो जन्म का प्रभाव कर्तृत्व रूप झगड़ा२ है, उसे तोड़ कर आप ही अपने अँशात्मा को अपनालें । 
.
इस प्रकार भ्रम तथा कर्म का दु:ख और कर्म तथा भ्रमवश आना - जाना रूप चक्कर मेटिये । कामादि से रक्षा करके उनके वेग से पार करिये और उनसे पार दैवी गुणों से भी तार कर निर्गुण स्थिति द्वारा जीव को अपने शिव स्वरूप ब्रह्म के निकट और शिव रूप को जीव के समीप करिये । 
.
आत्मा राम - रूप है, राम आत्म - ज्योति रूप हैं ऐसी अभेद बोधक युक्तियां हृदय में उत्पन्न करके दोनों को मिलाओ । ब्रह्म तेज है वही वृत्ति रूप शय्या है, वृत्ति रूप शय्या है वही ब्रह्म तेज है । इस प्रकार वृत्ति ब्रह्म की एक रस एकता रहे और हम अद्वैतानन्द रूप खेल खेलते रहें ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 26 मई 2020

= २८५ =


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*राग टोडी(तोडी) १६ (गायन समय दिन ६ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
.
२८५ - समता । वसँत ताल
एकहीं एकैं भया अनँद, एकहीं एकैं भागे द्वन्द ॥टेक॥
एकहीं एकैं एक समान, एकहीं एकैं पद निर्वान ॥१॥
एकहीं एकैं त्रिभुवन सार, एकहीं एकैं अगम अपार ॥२॥
एकहीं एकैं निर्भय होइ, एकहीं एकैं काल न कोइ ॥३॥
एकहीं एकैं घट परकाश, एकहीं एकैं निरंजन वास ॥४॥
एकहीं एकैं आपहि आप, एकहीं एकैं माइ न बाप ॥५॥
एकहीं एकैं सहज स्वरूप, एकहीं एकैं भये अनूप ॥६॥
एकहीं एकैं अनत न जाइ, एकहीं एकैं रह्या समाइ ॥७॥
एकहीं एकैं भये लै लीन, एकहीं एकैं दादू दीन ॥८॥
समता की विशेषता दिखा रहे हैं, एकता के द्वारा एक आत्मस्वरूप ब्रह्म में स्थित हुये तब आनन्द प्राप्त हुआ । हृदय से द्वन्द्व भाग गये, 
.
सब एक समान भासने लगे, निर्वाण पद प्राप्त हुआ । त्रिभुवन के सार, अगम, अपार प्रभु से परिचय हुआ । 
.
निर्भय हो गये, काल का कोई भय नहीं रहा । अन्त:करण में ज्ञान प्रकाश हुआ, निरंजन राम में निवास हुआ । 
.
कोई माता - पितादि कारण न भास कर आप ही स्वरूप स्थिति रह गई । अनुपम होकर सहज स्वरूप में आ गये । 
.
अन्य स्थान न जाकर अपने स्वरूप में ही समा गये । इस प्रकार हम दीनता द्वारा साम्य भाव में आकर अद्वैत ब्रह्म में वृत्ति लगाते हुये उसी में लीन हो गये हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 25 मई 2020

= २८४ =

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग टोडी(तोडी) १६ (गायन समय दिन ६ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
.
२८४ - नाम समता । उत्सव ताल
माधइयो - माधइयो मीठौ री माइ,
माहवो - माहवो भेटियो आइ ॥टेक॥
कान्हइयो - कान्हइयो करताँ जाइ,
केशवो - केशवो केशवो धाइ ॥१॥
भूधरो - भूधरो भूधरो भाइ,
रमैयो - रमैयो रह्यो समाइ ॥२॥
नरहरि - नरहरि नरहरि राइ,
गोविन्दो - गोविन्दो दादू गाइ ॥३॥
भगवद् नामों में साम्यता दिखा रहे हैं, हे भाई ! माधव२ करना मुझे मधुर लगता है । माहवो२(गुजराती नाम) करने से वे प्रभु आकर मुझ से मिले हैं । 
.
कृष्ण२ करते ही मेरा समय जाता है । केशव२ करने से केशव दौड़कर आते हैं । 
.
भूधर२ करना भूधर प्रभु को प्रिय लगता है । हम रमैया२ करते हुये उसी में समा रहे हैं । 
.
हम नरहरि२ करते रहते हैं, नरहरि सबका राजा है । गोविन्द२ गाते रहते हैं । इस प्रकार सभी भगवन्नाम हमको समान भाव से प्रिय लगते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 24 मई 2020

= २८३ =

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.
२८३ - आत्म समता । उत्सव ताल
ऐसे बाबा राम रमीजै, 
आतम सौं अंतर नहिं कीजे ॥टेक॥
जैसे आतम आपा लेखै, 
जीव जन्तु ऐसे कर पेखै ॥१॥
एक राम ऐसे कर जानैं, 
आपा पर अंतर नहिं आनैं ॥२॥
सब घट आत्म एक विचारै, 
राम सनेही प्राण हमारै ॥३॥
दादू सांची राम सगाई, 
ऐसा भाव हमारे भाई ॥४॥
सब में सम - भाव से बर्ताव करते हुये भजन करने की प्रेरणा कर रहे हैं, हे बाबा ! ऐसा अभेद ज्ञान युक्त राम में राम का चिन्तन रूप रमण करना चाहिये । 
.
जिससे किसी भी आत्मा से भेद व्यवहार न किया जाय । जैसे अपनी आत्मा को देखे । वैसे ही अपनी आत्मा समझ कर सभी जीव - जन्तुओं को देखना चाहिये । 
.
विचार करके जाने - सब में एक ही राम स्थित है, अपने पराये का भेद हृदय में न आने दे 
.
तथा ऐसा विचार करे कि - सभी शरीरों में आत्मा एक ही है और राम हम सबका ही प्राण स्नेही है । 
.
हे भाई ! हमारे हृदय में तो ऐसा ही भाव है कि - आत्माराम से सम्बन्ध होना ही सच्चा सम्बन्ध है । शरीरादि का भेद युक्त सम्बन्ध मिथ्या है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 23 मई 2020

= २८१ =

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२८२ - भेष बिडँवन । ललित ताल
हम पाया, हम पाया रे भाई, 
भेष बनाय ऐसी मन आई ॥टेक॥
भीतर का यहु भेद न जानैं, 
कहै सुहागिनि क्यों मन मानैं ॥१॥
अंतर पीव सौं परिचय नाँहीं, 
भई सुहागिनि लोगन माँहीं ॥२॥
सांई स्वप्ने कबहुं न आवैं, 
कहबा ऐसे महल बुलावैं ॥३॥
इन बातन मोहि अचरज आवै, 
पटम१ किये कैसे पिव पावै ॥४॥
दादू सुहागिनि ऐसे कोई, 
आपा मेट राम रत होई ॥५॥
सँत - भेष के समान स्वरूप बनाने वालों के दँभ का परिचय दे रहे हैं, दँभी प्राणी सँत के समान भेष बनाकर कहता है... 
.
भाइयो ! हमने प्रभु को प्राप्त कर लिया है, अवश्य प्राप्त कर लिया है । प्रतिष्ठा के लिये उसके मन में यह दँभपूर्ण भावना आती है । 
.
वह अपने अन्त:करण के भोग - राग रूप वो भीतर स्थित आत्मा - राम रूप रहस्य को तो नहीं जानता और अपने को प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त कहता है, 
.
परन्तु इस प्रकार कहने से प्रभु तथा हमारा मन कैसे माने ? भीतर तो प्रभु से परिचय नहीं हुआ है केवल दँभ से सँसारी लोगों में अपने को प्रभु सँयोग रूप सुहाग से युक्त कहता है । 
.
प्रभु तो कभी स्वप्न में भी हृदय में नहीं आते और कहता ऐसा है - मेरे हृदय - महल में प्रभु को प्रतिदिन बुलाता हूं । 
.
ऐसी बातों से हमें बड़ा आश्चर्य होता है । पाखँड१ करने से प्रभु कैसे मिलेंगे ? 
.
जो सब प्रकार का अहँकार नष्ट करके राम में अनुरक्त होता है, ऐसा कोई महानुभाव ही प्रभु प्राप्ति रूप सुहाग से युक्त होता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 22 मई 2020

= २८१ =

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२८१ - साधु प्रति उपदेश । ललित ताल
निर्पख रहणा, राम राम कहणा, 
काम क्रोध में देह न दहणा ॥टेक॥
जेणें मारग सँसार जाइला, 
तेणें प्राणी आप बहाइला ॥१॥
जे जे करणी जगत करीला, 
सो करणी सँत दूर धरीला ॥२॥
जेणें पँथैं लोक राता, 
तेणें पँथैं साधु न जाता ॥३॥
राम राम दादू ऐसे कहिये, 
राम रमत रामहि मिल रहिये ॥४॥
साधक सँतों को उपदेश कर रहे हैं, साधक सँतों को निर्पक्ष रहते हुये राम - राम उच्चारण करते रहना चाहिये । काम, क्रोधादिक से शरीर को नहीं जलाना चाहिये । 
.
जिस मार्ग में सँसारी प्राणी जाते हैं, उसमें जाकर साधक प्राणी अपने को सँसार - प्रवाह में ही बहाता है, 
.
अत: जो२ अनुचित कर्म जगत के प्राणी करते हैं, उन कर्मों को सँत जन दूर ही से त्याग देते हैं 
.
और जिस मार्ग में सँसारी लोग अनुरक्त हैं, उस भोग - राग रूप पँथ में सँत नहीं जाते । 
.
साधक सँतों को इस प्रकार राम२ करना चाहिये कि - राम से चिन्तन रूप आनन्द लेते२ राम में ही एक होकर रहें ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 21 मई 2020

= २८० =

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२८० - त्रिताल
हुसियार हाकिम न्याव है, 
सांई के दीवान ।
कुल का हिसाब होगा, 
समझ मुसलमान ॥टेक॥
नीयत२ नेकी सालिकाँ४, 
रास्ता ईमान५ ।
इखलास६ अँदर आपणे, 
रखणां सुबहान७ ॥१॥
हुक्म हाजिर होइ बाबा, 
मुसल्लम८ महरबान९ ।
अक्ल१० सेती आपणा, 
शोध लेहु सुजान ॥२॥
हक११ सौं हजूरी हूंणाँ, 
देखणाँ कर ज्ञान ।
दोस्त१२ दाना१३ दीन का, 
मनणाँ फरमान१४ ॥३॥
गुस्सा हैवानी१५ दूर कर, 
छाड़ दे अभिमान ।
दूई१६ दरोगा१७ नाँहिं खुशियां, 
दादू लेहु पिछान ॥४॥
अरे हाकिम ! सावधान रहना, भगवान् के दरबार में न्याय है । हे मुसलमान ! समझ लेना वहां सबका१ हिसाब होगा । 
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अपनी इच्छा२ भलाई३ में रखना, सदा४ ईमानदारी५ के मार्ग पर चलना । अपने भीतर सबसे प्रेम६ रखना और पवित्र७ प्रभु की आज्ञा में उपस्थित रहते हुये 
.
पूरा८ दयालु९ होना । हे बुद्धिमान् ! बुद्धि१० से अपने भीतर ही परमात्मा को खोजले और 
.
भजन द्वारा सत्य११ स्वरूप प्रभु के समीप होकर ज्ञान से उसे देखने का यत्न करना । दीनों के मित्र१२ और ज्ञाता१३ परमात्मा तथा सँतों की आज्ञा१४ मानना । 
.
क्रोध और पाशविक१५ वृत्ति हृदय से दूर करना, अभिमान को छोड़ देना । मिथ्या१७ भेद१६ जन्य प्रसन्नता में निमग्न मत होना । यही तुम्हारा कर्त्तव्य है, इसे पहचान कर पालन करना । 
इस पद से सांभर के हाकिम बिलँदखान को उपदेश दिया था और वह इस उपदेश को मानकर महाराज का भक्त ही बन गया था ।
(क्रमशः)

बुधवार, 20 मई 2020

= २७९ =

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.
२७९ - त्रिताल
काहे रे बक मूल गमावै, 
राम के नाम भले सचु१ पावे ॥टेक॥
वाद विवाद न कीजे लोई२, 
वाद विवाद न हरि रस होई ॥१॥
मैं तैं मेरी मानै नांहीं, 
मैं तैं मेट मिले हरि माँहीं ॥२॥
हार जीत सौं हरि रस जाई, 
समझ देख मेरे मन भाई ॥३॥
मूल न छाड़ी दादू बौरे, 
जनि१ भूलै तूँ बकबे औरे ॥४॥
अरे लोगो१ ! कोई व्यर्थ बकवाद करके अपना श्वास रूप मूल धन क्यों खोवे, सुख तो भली प्रकार राम - नाम चिन्तन से ही प्राप्त होता है । 
.
अत: हे लोगो ! वाद - विवाद नहीं करना चाहिए । वाद - विवाद से हरि - भक्ति - रस प्राप्त नहीं होता । 
.
मैं, तू इत्यादिक भेद - ज्ञान को भगवान् अच्छा नहीं मानते, सँत - जन "मैं, तू" रूप भेद बुद्धि नष्ट कर के ही हरि - स्वरूप में मिलते हैं । 
.
भाई ! तुम भी अपने मन में समझ कर देख लो, हार जीत का प्रयत्न करने से हरि भक्ति - रस हृदय से चला जाता है । 
.
हे विद्या के गर्व से उन्मत्त ! तू भगवद् भिन्न बातों के बकने में ही प्रभु को मत१ भूल, अपने मूल स्वरूप परब्रह्म का चिन्तन मत छोड़ ।
यह पद शास्त्रार्थ में प्रवृत्त सांभर के पँडित को कहा था ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 19 मई 2020

= २७८ =

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२७८ - ब्रह्म योग ताल
जाइ रे तन जाइ रे ।
जन्म सुफल कर लेहु राम रमि, 
सुमिर सुमिर गुण गाइ रे ॥टेक॥
नर नारायण सकल शिरोमणि, 
जन्म अमोलक आइ रे ।
सो तन जाइ जगत नहिं जानै, 
सकै तो ठाहर लाइ रे ॥१॥
जरा काल दिन जाइ गरासै, 
तासौं कुछ न बसाइ रे ।
छिन छिन छीजत जाइ मुग्ध नर, 
अंत काल दिन आइ रे ॥२॥
प्रेम भगति साधु की संगति, 
नाम निरन्तर गाइ रे ।
जे शिर भाग तो सौंज१ सुफल कर, 
दादू विलम्ब न लाइ रे ॥३॥
अरे प्राणी ! मैं तुझे बारम्बार कह रहा हूं - इस मानव देह के श्वास विषयों में लग कर व्यर्थ जा रहे हैं, तू बारम्बार राम का स्मरण और गुण - गान करते हुये, उस राम में अभेद रूप से रमण करके अपना मनुष्य जन्म सफल कर ले । 
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नर शरीर सब शरीरों में श्रेष्ठ और नारायण की प्राप्ति का हेतु है, अत: यह जन्म अमूल्य है, वही तन विषय - उपभोग में व्यर्थ जा रहा है । सँसारी प्राणी इस बात को नहीं जानते । जहां तक हो सके इसे शीघ्र ही भजन द्वारा अपने वास्तविक स्थान प्रभु के स्वरूप में ही लगा । 
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वृद्धावस्था इसकी सुन्दरता को तथा काल इसकी आयु के दिनों को ग्रास करता जा रहा है । उस पर तेरी शक्ति कुछ भी काम न देगी । मूर्ख नर ! यह शरीर क्षण २ में क्षीण होता जा रहा है । इस प्रकार अन्त का दिन आ जायगा । 
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यदि तू मनुष्य शरीर प्राप्ति से अपना अच्छा भाग्य मानता है, तब तो सँतों की संगति तथा निरन्तर भगवान् का नाम गायन करते हुये प्रेमाभक्ति करके इस नर जन्म रूप सामग्री१ को सफल बनाने में देर मत कर ।
(क्रमशः)