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सोमवार, 4 दिसंबर 2017

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू गुप्त गुण परगट करै, परगट गुप्त समाइ ।*
*पलक मांहि भानै घड़ै, ताकी लखी न जाइ ॥* 
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साभार ~ Yogi Muktinath

रामायण में एक घास के तिनके का भी रहस्य है, और रामायण के अंदर इस टाइप के बहुत से रहस्य छिपे हैं जो हर किसी को नहीं मालूम, क्योंकि आज तक किसी ने हमारे ग्रंथो को समझने की कोशिश नहीं की, सिर्फ हमने पढ़ा है देखा है और सुना है, आज मैं आप के समक्ष ऐसा ही एक रहस्य बताने जा रहा हूँ, धर्म प्रेमी बंधु इस पोस्ट को जरूर पढ़ेंगे...
रावण ने जब माँ सीता जी का हरण करके लंका ले गया, तब लंका मे सीता जी वट वृक्ष के नीचे बैठ कर चिंतन करने लगी, रावण बार बार आकर माँ सीता जी को धमकाता था लेकिन माँ सीता जी कुछ नहीं बोलती थी, यहाँ तक कि रावण ने श्री राम जी के वेश भूषा मे आकर माँ सीता जी को भी भ्रमित करने की कोशिश की लेकिन फिर भी सफल नहीं हुआ, रावण थक हार कर जब अपने शयन कक्ष मे गया तो मंदोदरी बोली आप ने तो राम का वेश धर कर गया था फिर क्या हुआ, रावण बोला जब मैं राम का रूप लेकर सीता के समक्ष गया तो सीता मुझे नजर ही नहीं आ रही थी !
रावण अपनी समस्त ताकत लगा चुका था लेकिन जगत जननी माँ को आज तक कोई नहीं समझ सका फिर रावण भी कैसे समझ पाता ! रावण एक बार फिर आया और बोला मैं तुमसे सीधे सीधे संवाद करता हूँ लेकिन तुम कैसी नारी हो की मेरे आते ही घास का तिनका उठाकर उसे ही घूर घूर कर देखने लगती हो, क्या घास का तिनका तुम्हें राम से भी ज्यादा प्यारा है रावण के इस प्रश्न को सुनकर माँ सीता जी बिलकुल चुप हो गयी, और आँख से आसुओं की धार बह पड़ी...
"अब इस प्रश्न का उत्तर समझो" - 
जब श्री राम जी का विवाह माँ सीता जी के साथ हुआ, तब सीता जी का बड़े आदर सत्कार के साथ गृह प्रवेश भी हुआ बहुत उत्सव मनाया गया, जैसे कि एक प्रथा है कि नव वधू जब ससुराल आती है तो उस नववधू के हाथ से कुछ मीठा पकवान बनवाया जाता है, ताकि जीवन भर घर पर मिठास बनी रहे ! इसलिए माँ सीता जी ने उस दिन अपने हाथों से घर पर खीर बनाई और समस्त परिवार राजा दशरथ सहित चारों भ्राता और ऋषि संत भी भोजन पर आमंत्रित थे, माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया, और भोजन शुरू होने ही वाला था कि ज़ोर से एक हवा का झोका आया, सभी ने अपनी अपनी पत्तल सम्हाली, सीता जी देख रही थी, ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया, माँ सीता जी ने उस तिनके को देख लिया, लेकिन अब खीर मे हाथ कैसे डालें ये प्रश्न आ गया, माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर जो देखा, तो वो तिनका जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया, सीता जी ने सोचा अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा, लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी का यह चमत्कार को देख रहे थे, फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष मे चले गए और माँ सीता जी को बुलवाया ! 
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फिर राजा दशरथ बोले मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था, आप साक्षात जगत जननी का दूसरा रूप हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी मत देखना, इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थी, यही है उस तिनके का रहस्य ! 
माता सीता जी चाहती तो रावण को जगह पर ही राख़ कर सकती थी लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन की वजह से वो शांत रही ! 
जय श्री राम

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सबही व्याधि की, औषधि एक विचार ।*
*समझे तैं सुख पाइये, कोइ कुछ कहो गँवार ॥* 
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साभार : Chetna Kanchan Bhagat
प्रश्न -
भगवान ! जीवन इतना उलटा-उलटा क्यों मालूम होता है? सभी कुछ अस्तव्यस्त है। इसमें परमात्मा की क्या मर्जी है?
ओशो -
मुल्ला नसरुद्दीन के संबंध में कहानी है कि जब वह बच्चा था तभी उसके मां-बाप, पड़ोसी परिचित हो गए कि वह उलटी खोपड़ी है। तो सब उसको उलटी खोपड़ी जानते थे। जैसे अगर दरवाजा खुला हो और तुम्हें दरवाजा बंद करवाना हो तो उसके मां-बाप समझ गए थे कि कभी भूल कर उससे मत कहना कि दरवाजा बंद करो, नहीं तो बंद दरवाजे को खोल देगा। उलटी खोपड़ी! खुला भी हो दरवाजा तो भी उससे कहो कि बेटा, जरा दरवाजा खोल दे। वह फौरन बंद कर देगा। तो वे उलटी आज्ञा देते थे उसको।
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एक दिन नसरुद्दीन अपने बाप के साथ गधे पर रेत की बोरियां लाद कर आ रहा है। पीछे बाप है, आगे-आगे नसरुद्दीन है। एक बोरी बाएं तरफ ज्यादा झुकी जा रही है और ऐसा लग रहा है कि वह पानी में गिर जाएगी। दो बोरियां दोनों तरफ समतुल हों तो टिकी रह सकती हैं। बाईं बोरी झुकी जा रही है, खुद भी गिरेगी और दाईं बोरी को भी गिरा लेगी। और रेत अगर गीली हो गई हो इतनी भारी हो जाएगी कि फिर गधा खींच नहीं सकेगा। तो बाप ने कहा, बेटा, जरा बोरी को बाईं तरफ झुका दे।
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बाईं तरफ गिर रही है, मगर उलटी खोपड़ी है, तो उससे कहना पड़ा कि बेटा, जरा बोरी को बाईं तरफ झुका दे। और बाप तो हैरान हो गया, उसने बाईं तरफ झुका दिया। बोरियां गिर गईं पानी में। बाप ने कहा, नसरुद्दीन, तुझे क्या हुआ आज?
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नसरुद्दीन ने कहा, आज मैं इक्कीस साल का हो गया, अब क्या समझते हैं आप ! अब मैं बालिग हो गया। अब मुझे धोखा न दे सकेंगे। अब मैं सिर्फ उलटी खोपड़ी ही नहीं हूं, बालिग भी हूं। मैं समझ गया आपका मतलब क्या था। आप सोचते थे मैं दाईं तरफ झुकाऊंगा। वे बचपन की बातें थीं। बचपन में आपने मुझे खूब धोखा दे लिया।
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आदमी बालिग हो गया है आज का, बस इतना ही फर्क पड़ा है। पहले भी आदमी उलटी खोपड़ी था, आज बालिग और हो गया, और मुसीबत आ गई। प्रौढ़ हो गया है। इसमें ईश्वर का कोई हाथ नहीं है। मनुष्य अकेला प्राणी है, जिसे परमात्मा ने स्वतंत्रता दी है। कुत्ता कुत्ता है, बिल्ली बिल्ली है। बिल्ली बिल्ली ही पैदा होती है, बिल्ली ही मरती है। कुत्ता कुत्ता पैदा होता है, कुत्ता ही मरता है। तुम किसी कुत्ते से यह नहीं कह सकते कि तुम थोड़े कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर कुत्ते हैं। लेकिन आदमी से तुम कह सकते हो कि तुम थोड़े कम आदमी हो। क्यों? क्योंकि आदमी अकेला है जो स्वतंत्र है।
आदमी चाहे तो पशुओं से नीचे गिर जाए और चाहे तो देवताओं से ऊपर उठ जाए। लेकिन ऊपर उठने में चढ़ाई है और चढ़ाई श्रमपूर्ण है। नीचे उतरने में ढलान है, श्रम नहीं लगता। इसलिए आदमी नीचे की तरफ जाना आसान पाता है। 
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जैसे कि कार अगर पहाड़ी से नीचे की तरफ आ रही हो तो कंजूस आदमी पेट्रोल बंद कर देते हैं। पेट्रोल की जरूरत ही नहीं है, कार अपने से ही चली आती है। ढलान है। लेकिन तुम पेट्रोल बंद करके पहाड़ी नहीं चढ़ सकते; ऊर्जा लगेगी, शक्ति लगेगी, श्रम लगेगा, साधना लगेगी। ऊंचाइयां मांगती हैं साधना। पुण्य मांगते हैं साधना। परमात्मा तक पहुंचना है तो जैसे कोई गौरीशंकर का पर्वत चढ़े। पसीना-पसीना हो जाओगे। खून पसीना बनेगा। कौन उतनी झंझट ले ! और अगर कभी कोई झंझट लेने भी लगे तो बाकी नहीं लेने देते, बाकी उसकी टांग पकड़ कर नीचे खींच लेते हैं। वे कहते हैं, कहां जाते हो? पागल हो गए हो ! क्योंकि बाकी को भी कष्ट होता है यह देख कर कि कोई ऊपर जाए, कोई हम से ऊपर जाए !
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देवानंद ! परमात्मा को क्यों फंसाते हो? जीवन उलटा-उलटा है, क्योंकि हम सबकी मर्जी जीवन को उलटा-उलटा जीने की है। शीर्षासन तुम करो और कहो कि क्या मामला है, मैं उलटा क्यों खड़ा हूं? इसमें परमात्मा की क्या मर्जी है?
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परमात्मा की कोई मर्जी नहीं है। परमात्मा ने तुम्हें स्वतंत्रता दी है कि चाहो तो पैर से खड़े होओ, चाहो तो सिर से खड़े होओ। परमात्मा ने तुम्हें स्वतंत्रता दी है, चाहे बाएं जाओ, चाहे दाएं जाओ; चाहे अच्छा करो, चाहे बुरा; चाहे नरक खोजो, चाहे स्वर्ग। परमात्मा ने स्वतंत्रता दी है–यह उसका महान दान, उसका प्रसाद, उसकी भेंट। और तुम उसका दुरुपयोग कर रहे हो। इसलिए जीवन उलटा-पुलटा है। इसलिए सब अस्तव्यस्त है।
ओशो ~ कहे होत अधीर

रविवार, 3 दिसंबर 2017

= १९८ =

卐 सत्यराम सा 卐
*प्रेम पियाला राम रस, हमको भावै येहि ।*
*रिधि सिधि मांगैं मुक्ति फल, चाहैं तिनको देहि ॥* 
*तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार ॥* 
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*क्‍या चाह और कामना के अभाव में निष्क्रियता आ जायेगी ?*

नहीं ऐसा नहीं होता विचार करने की बात है कि यदि कोई ऐसा सोचता है कि कर्म के लिए चाह या कामना आवश्यक है तो उस दशा में भगवान श्री कृष्ण द्वारा मानव जाति के लिए प्रदत्त कर्मयोग और निष्काम-कर्म का सारा ज्ञान वृथा हो जायेगा।

यदि किसी कर्म के पीछे प्रेरक, कामना या चाह है तो सबसे पहले यह मानना होगा कि हम अपनी कामना चाह की पूर्ति हेतु गलत/अवांछनीय तरीके भी अपना सकते हैं। दूसरे किसी की सभी कामनाएँ कभी पूरी नहीं होतीं अत: कामना/चाह की अपूर्ति में दु:ख और निराशा प्राप्त होगी।

स्वामी शरणानन्द जी कहते है कि सेवा करने के लिए राग अपेक्षित नहीं है, अपितु उदारता की अपेक्षा है।

एक साधक ने स्वामी जी से प्रश्न् किया कि बिना इच्छा के कर्म कैसे हो सकता है। इसका समाधान स्वामी जी ने इस प्रकार किया:-

''देखो। कर्म और चीज है, सेवा और चीज है। कर्म तो होता है अपने सुख के प्रलोभन को लेकर और सेवा होती है दूसरों के हित को लेकर। आपकी इच्छायें अपने सुख को लेकर न उठें, हमारी पीड़ा को लेकर उठें। हे भगवान तुमने मुझे आँखें दी हैं, मैं अन्धे के काम आ जाऊॅं। हे भगवान तुमने मुझे धन दिया है, मैं निर्धन के काम आऊॅं। हे भगवान तुमने मुझे बल दिया है, मैं निर्बल के काम आऊॅं।''

''आप इच्छाओं का रुख बदल दीजिये, इच्छायें मिट जायेंगी। परन्तु दु:ख की बात यह है कि आपको जो कुछ मिलता है आप उसे से सुख लेना चाहते हैं। आप समाज व परिवार को कुछ देना नहीं चाहते, उनसे सुख की अपेक्षा करते हैं। इच्छा यह उठे कि मैं दूसरों के काम आ जाऊॅं। जब आपकी यह मांग सबल हो जायेगी, इच्छायें मिट जायेंगी। भगवान ने आपको इतना सुन्दर बनाया है कि आप चाहो तो सारे संसार के काम आ जाओ।''

''आप कहें कि कैसे आ जायें, हमारे पास तो थोड़ा सा बल है, और संसार बहुत बड़ा है। सन्त कहते है कि मन, वाणी कर्म से बुराई रहित हो जाओ, संसार के काम आ जाओगे। बुराई मत करो, भलाई करो या न करो।''

कोई प्रश्न् कर सकता है कि यदि किसी व्यक्ति-उदाहरणार्थ एक विद्यार्थी में कोई महत्वाकांक्षा(ambition) और चाह(desire) नहीं होगी तो वह पढ़ाई ठीक से करने के लिए कैसे उत्प्रेरित होगा। यहीं पर हम लोगों से भूल होती है कि हम बच्चों के ऊपर अपनी इच्छाओं/कामनाओं का बोझ लाद देते हैं कि तुम्हें कक्षा में अव्वल आना है,तुम्हें आई0ए0एस0/डाक्टर/इन्जीनियर आदि बनना ही है। कभी-कभी बच्चे स्वयँ भी गलत धारणाओं के कारण अपने लिए targets fix कर लेते हैं कि मुझे यह position लाना ही है अमुक पद पाना ही है। इसका नतीजा होता है कि बच्चा तनाव(Stress/tension) में रहता है। और यदि संकल्प(expectation) के अनुरूप सफलता नहीं मिलती है तो हताशा से ग्रसित हो जाता है और अखबारों में अक्सर समाचार आते हैं कि अमुक छात्र ने आत्म-हत्या कर लिया।

अत: बच्चों में चाह/कामना के बजाय कर्तव्यपरायणता का बीज बोना चाहिये। छात्र जीवन में ठीक से पढ़ाई करना छात्र का कर्तव्य है। कर्तव्य-निष्ठा का भाव ठीक से पढ़ाई करने के लिए उत्प्रेरक होना चाहिए। व्एक मित्र पढ़ाई में इसी भाव से सत्र(session) प्रारम्भ होने के पहले ही दिन से regular पढ़ाई करते थे। परिणाम भी अच्छे आते थे। उन्हें जो उपलब्धि हुई उसे उन्होंने कभी लक्ष्य(target) नहीं बनाया। बिल्कुल शान्त मन से कर्तव्य की दृष्टि से पढ़ाई करते थे। बी0एस0सी0 की फाइनल परीक्षा के पूर्व उनके पिताजी इलाहाबाद होस्टल में मिलने आये थे। उन्होंने अपने बेटे से पूछा कि कैसा डिवीजन आयेगा। उन्होंने संकोच(humility) वश धीरे से कहा कि प्रथम डिवीजन आना चाहिये। इस पर पिता जी ने पूछा कि तुमने पढ़ाई ठीक से किया है कि नहीं। उनके हाँ कहने पर पिता जी ने कहा कि तुमने अपनी डयूटी पूरा किया है तो यदि तुम फेल भी हो जाओ तो मुझे कोई शिकायत नहीं होगी। मेरे मित्र ने कोई targets fix नहीं किया था,परन्तु फिर भी इन्टर साइन्स के तीनों विषयों में डिस्टिन्कशन प्राप्त किया था और बी0एस0सी0 में top किया।

यही बात कर्म के हर क्षेत्र में लागू होती है। ऊपर उध्दरण में अंकित है कि स्वामी जी ने सलाह दिया है कि ''इच्छाओं का रुख बदल दीजिये, इच्छायें मिट जायेंगी।'' देखिये, एक व्यक्ति यह इच्छा रखता है कि मैं डाक्टर बनूँगा, खूब पैसे अर्जित करुँगा, बड़ा मकान बनवाऊॅंगा, बड़ी-बड़ी मोटर गाड़ियाँ होंगी, खूब ऐशो-आराम करुँगा। दूसरा व्यक्ति इस भाव से डाक्टर बनना चाहता है कि डाक्टर बनकर मरीजों की खूब सेवा करुँगा। बात वही है, पर एक की प्रेरणा चाह और स्वार्थ है, जबकि दूसरे की प्रेरणा सेवा-वृत्ति है।

एक अन्य उदाहरण लें। एक वैज्ञानिक कैन्सर की दवा निकालने के लिए रिसर्च में लगा हुआ है। वह सोचता है कि मैं सफल हो गया तो उसे पेटेन्ट करा लूँगा, खूब धन कमाऊॅंगा, खूब ख्याति होगी और नोबेल प्राइज मिलेगा। दूसरा वैज्ञानिक कैन्सर के भयावह परिणामों को सोचता है कि मरीज कितना शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलता है, उसके परिवार को कितना मानसिक कष्ट और आर्थिक कठिनाई झेलनी पड़ती है। मरीज बचा नहीं तो परिवार उजड़ गया और यदि मरीज ही कमाऊ(earning member) था तो आर्थिक विपदा भी भोगना पड़ता है। वह किसी अपनी चाह से नहीं बल्कि करुणा से प्रेरित होकर रिसर्च में जुटा रहता है। ऐसा सुना है कि यदि भाव शुध्द हो तो ईश्वरीय सहायता(divine help) भी मिलती है।

किसी ने प्रश्न् किया कि ईश्वर प्रेम की प्राप्ति अथवा अपने नित्य,अविनाशी रसरूप जीवन की प्राप्ति को जीवन का लक्ष्य बताया गया है। इसके लिए चाह और कामना होगी तब ही तो इसकी प्राप्ति होगी। अन्यथा कैसे होगी?

विचार करने की बात है कि चाह और कामनाएँ शरीर और संसार को लेकर उठती हैं। जिसने अपने को साधक स्वीकार किया उसके जीवन में शान्ति,स्वाधीनता और प्रियता/योग, बोध, प्रेम की मांग होती है और माँग 'स्व' में होती है। अपना दायित्व पूरा करने पर मांग की पूर्ति स्वत: होती है।

पर यदि कोई प्रभु प्रेम की प्राप्ति के सम्बन्ध में चाह और कामना शब्द का प्रयोग करना ही चाहता है तो उसका अर्थ सांसारिक वस्तुओं,परिस्थितियों की प्राप्ति,नहीं होगा बल्कि भाव की दृष्टि से वह प्रभु-प्रेम की लालसा के ही अर्थ में आयेगा।

यह अर्थ उसी दशा में सत्य होगा जब हमने प्रभु को अपना साध्य माना है न कि सांसारिक उपलब्धियों के लिए साधन बनाया है। स्वामी जी कहते थे कि यदि प्रभु से कोई चाह हो,तो यही होना चाहिए कि प्रभु तुम मुझे प्यारे लगो। यह चाह उस 'चाह' से भिन्न है जिसे लेकर जीवन में 'अचाह' होने के लिए संतो द्वारा, अपने धार्मिक ग्रंथों द्वारा, सलाह दी गई है।

अत: चाह/कामना रहित होकर हम निष्क्रिय नहीं होंगे बल्कि हम से जो भी कर्म होंगे वे अति सुन्दर होंगे,कर्म के अन्त में सन्तोष और प्रसन्नता होगी,फल जो भी हो। ऐसे व्यक्ति को इस बात का पूर्ण ध्यान रहता है कि उसका रोल कर्म करना है - फल उसके हाथ में नहीं है - फल तो विधान से बनता है।

= १९७ =


卐 सत्यराम सा 卐
*निश्चल सदा चलै नहिं कबहूँ, देख्या सब में सोई ।*
*ताही सौं मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ॥* 
*आदि अनन्त सोई घर पाया, अब मन अनत न जाई ।*
*दादू एक रंगै रंग लागा, तामें रह्या समाई ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com 
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स्वयं के और परम के बीच-वह जो भीतर छिपा जीव है वह, और वह जो विराट मे छिपा हुआ ब्रह्म है वह-दोनो के बीच जिसे कोई भी भेद बुद्धि के द्वारा दिखाई नहीँ पड़ता, वह जीवन्मुक्त कहलाता है। कोई भेद दिखाई नहीँ पड़ता, बुद्धि के द्वारा। सभी भेद बुद्धि के द्वारा दिखाई पड़ते हैँ।बुद्धि ही भेद करने की व्यवस्था है।
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जैसे जल मे कोई भी सीधी लकड़ी या अन्य वस्तु डालेँ, वह तिरछी दिखाई पड़ेगी। तिरछी है नहीँ, ये देखने वाले को भी पक्का पता है। हजार बार बाहर निकाल कर देख लेँ, फिर जल मे डाल देँ, पानी के अंदर हाथ डाल कर भी लकड़ी को देख लेँ तो वह सीधी ही प्रतीत होती है - हाथ को, लेकिन तिरछी ही दिखाई पड़ती है;क्योँकि जल का माध्यम और हवा का माध्यम किरणोँ के लिये यात्रा-पथ बदल देता है।
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बुद्धि भेद निर्मात्री है। प्रकाश को बुद्धि से देखने के कारण दो हिस्से-अंधेरा और उजाला, हो जाते हैँ। अंधेरे और उजाले मे कोई फर्क नही है, दोनो एक का ही क्रमिक विस्तार है। इसीलिये उल्लू अंधेरे मे भी देख सकता है। उल्लू देख पाता है अंधेरे मे क्योँकि अंधेरा भी सूक्ष्म प्रकाश है और उल्लू की आंखे उसको पकड़ने मे समर्थ है। मनुष्य की आंखे भी एकदम महाप्रकाश आ जाए तो अंधेरे मे डूब जाएंगी क्योँकि उतना प्रकाश आंख देख नहीँ पाती हैँ। जितने दूर के प्रकाश को देखने की क्षमता है आंखो की - वह है उजाला - उसके इस पार भी अंधेरा, उस पार भी अंधेरा। 
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बुद्धि प्रत्येक को दो मे बांट देती है।
बुद्धि है विश्लेषण,
बुद्धि है भेद,
बुद्धि है विभाजन।
इसीलिये जन्म और मृत्यु दो दिखाई देते हैँ, दो हैँ नहीँ। जन्म है प्रारंभ, मृत्यु उसी का अंत है। दो छोर हैँ, एक ही घटना के। अभी प्रेम है, अभी घृणा हो जाती है। अभी लगाव था, अभी विकर्षण लगता है। अभी मित्रता थी, अभी शत्रुता हो जाती है। वे दो नहीँ है, नहीँ तो रुपांतरण अंसभव था। प्रति क्षण ये बदलाहट चलती रहती है। बुद्धि का ढंग है कि प्रत्येक दो मे विभाजित हो जाता है। बुद्धि को हटाकर जो जगत को देखता है, उसे सारे भेद तिरोहित हो जाते हैँ।
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अद्वैत का, वेदांत का सार-अनुभव उन्ही लोगोँ का अनुभव है, जिन्होने बुद्धि को हटा कर जगत को देखा। फिर जगत ब्रह्म हो जाता है। तब जो भीतर जीव है और जो वहां ब्रह्म प्रतीत होता था, वे भी एक का ही दो छोर हो जाते हैँ। लेकिन बुद्धि को अलग करके देखेगा मनुय, तभी। ये जरा मुश्किल है, क्योँकि जब भी मनुष्य देखता है, बुद्धि से ही देखता है। बुद्धि के अतिरिक्त मनुष्य देखेगा कैसे? कुछ भी देखे, विचार बीच मे अवश्य आएगा। बुद्धि के पार उठने के लिये गहन अभ्यास की जरुरत है।

शनिवार, 2 दिसंबर 2017

= १९६ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू पलक मांहि प्रकटै सही, जे जन करैं पुकार ।*
*दीन दुखी तब देखकर, अति आतुर तिहिं बार ॥*
*आगे पीछे संग रहै, आप उठाये भार ।*
*साधु दुखी तब हरि दुखी, ऐसा सिरजनहार ॥* 
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**अहेतुकी कृपा करने वाले अतिशय दयालु प्रभु**
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महात्मा गाँधी का कहना था कि 'मुझे ऐसा कोई अवसर याद नहीं आता जब मैंने उन्हें(ईश्वर) को सच्चे मन से पुकारा हो और उन्होंने न सुना हो।''

श्रीमद्भागवत् में गजेन्द्र-मोक्ष का एक प्रसंग है। सरोवर में ग्राह गजराज को खींच कर ले जा रहा था। साथ के हाथी उसकी कोई मदद नहीं कर पाये और उसका भी बल काम नहीं कर रहा था। तब उसने असहाय होकर भगवान को पुकारा। पूर्व जन्म में सीखकर कंठस्थ किये हुए स्तोत्र का पाठ करने लगा । उसकी पुकार सुनकर श्री हरि(भगवान) प्रकट हो गये और करुणावश गजराज को ग्राह के चंगुल से बचा लिया।
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गीता प्रेस गोरखपुर के द्वारा वही स्तुति गजेन्द्र मोक्ष के नाम से छोटी से पुस्तिका के रूप में प्रकाशित है। उसके आरम्भ में 'परिचय' में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने लिखा है - महामना मालवीय जी(पं0 मदन मोहन) महाराज कहा करते थे कि गजेन्द्र कृत इस स्तवन का आर्त भाव से पाठ करने पर लौकिक, पारमार्थिक महान संकटों और विघ्नों से छुटकारा मिल जाता है.....। तात्पर्य हुआ कि जिस प्रकार गजराज ने भगवान को पुकारा था, उसी भाँति कोई भी पुकारे तो वह सुनते हैं और उसका उध्दार करते हैं।
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महाभारत ग्रंथ में धृतराष्ट्र की राजसभा में उनके पुत्र दु:शासन द्वारा द्रौपदी का निर्वस्त्र करने के प्रयास का प्रसंग है। उन्होंने पहले अपने पतियों की ओर फिर पितामह और अन्य गुरुजनों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखा पर जब किसी ने भी उनकी लाज बचाने हेतु कोई उपक्रम नहीं किया तब उन्होंने असमर्थ होकर द्वारिकाधीश(कृष्ण भगवान) को आर्त भाव से पुकारा तो भगवान उनका चीर अन्तहीन बढ़ाते ही गये। दु:शासन थककर बैठ गया और द्रौपदी को भगवान ने निर्वस्त्र होने से बचाकर उनकी लाज रखी।
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इन दृष्टांतों से यह प्रश्न उठता है कि क्या ईश्वर पुकारने पर ही सुनते हैं अन्यथा नहीं? यदि ऐसा होता तो उन्हें अहैतु कृपा करने वाला कैसे कह सकते थे। वह तो अतिशय दयालु हैं और दया करने में आलस्य नहीं करते(गजेन्द्र मोक्ष से) स्वामी कृष्णानन्द जी ने एक अवसर पर कहा था कि "He protects us all the time-we must learn to see. His grace in every event.''
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यह उनका स्वयं का अनुभव था और अनेक और लोगों का भी ऐसा ही अनुभव है। जब राणा ने मीराबाई के पास जहरीला सर्प और फिर विष का प्याला भेजा तो उनके अराध्य गिरधर गोपाल ने स्वयं उन्हें फूलों की माला और अमृत में परिवर्तित कर दिया।
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हिरण्यकशिपु ने जब अपने पुत्र प्रह्लाद को पहाड़ से नीचे फेंकवाया, आग में जलाने का प्रयास किया तब उन्होंने(प्रह्लाद) भगवान को पुकारा नहीं, बस उनके ध्यान में मग्न रहे। प्रभु ने अपने आप ही अपने भक्त, अपने शरणी की रक्षा की।
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ब्रह्मनिष्ठ संत स्वामी शरणानन्द जी की साधना-काल में उनके सद्गुरु ने उनसे कहा था कि ''ठहरी हुई बुध्दि में श्रुतियों का ज्ञान स्वत: प्रकट होता है।'' स्वामी जी के जीवन का एक प्रसंग है - पटना में नेशनल साइन्स कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था। स्वामी जी के प्रेमियों ने उन्हें भी आमंत्रित किया। फिर कहा गया कि वह अधिवेशन को सम्बोधित करेंगे। जब वह मंच पर पहुँचे तो अधिवेशन में भाग लेने वालों में से किसी ने कहा कि आप परमाणु-विज्ञान पर कुछ बताइये। प्रश्नकर्ता ने चाहे जिस भी भाव से पूछा हो, परन्तु स्वामी जी आधा घन्टा तक विशेषज्ञ की भाँति परमाणु-विज्ञान पर बोलते रहे। जब वह चलने लगे तो एक भक्त ने पूछा कि आप तो केवल कक्षा चार या पाँच तक पढ़े थे, आपने यह सब कैसे बोला। इस पर उन्होंने कहा कि जिसने साइन्स बनाई है न उसी ने मुझे बता दिया।
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इसका एक पहलू तो यह है कि ठहरी हुई बुध्दि में परमाणु-विज्ञान का ज्ञान स्वत: प्रकट हो गया। दूसरा पहलू यह है कि उनके शरण्य(प्रभु) ने अपने शरणागत की लाज रखने के लिये स्वयँ ही उनकी वाणी के माध्यम से बोल दिया। स्वामी जी की जिस कोटि की शरणागति थी - सम्पूर्ण समर्पण(total surrender) उसमें उनके द्वारा प्रभु से मदद के लिए कहना-पुकार लगाना, सोचा ही नहीं जा सकता। अत: यही मानना पड़ेगा कि प्रभु अपनी अहैतु की कृपा से अपनी ही ओर से स्वयं ही उनके मुख से आधे घंटे तक बोलते रहे।
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परमहंस योगानन्दजी के जीवन का भी एक ऐसा ही प्रसंग है। जब वह जहाज से विदेश जा रहे थे तो रास्ते में उनसे सह-यात्रियों को सम्बोधित करने को कहा गया। परन्तु वह एक शब्द नहीं बोल सके। अपने केबिन में जाकर अपने गुरु को याद करके खूब रोये। अगले दिन वह पाँच मिनट के बजाय पैंतालिस मिनट तक सुन्दर अंग्रेजी भाषा में बोलते रहे और श्रोता शान्त होकर सुनते रहे। यदि रोने को पुकार माना जाय तो दूसरी बात होगी, अन्यथा उनके गुरु ने(सद्गुरु, ईश्वर का ही रूप तो होता है) या प्रभु ने अपने बालक की लाज रखने के लिए उनके मुख से बोला।
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ऐसा ही अनुभव एक अन्य व्यक्ति का है। किशोरावस्था में इन्टर साइन्स का छात्र था। पढ़ाई ठीक से न करने के कारण क्लास में पिछड़ गया था। एक दिन ट्रिग्नामेट्री के क्लास में बोर्ड पर एक प्रश्न् हल करने को कहा गया। उसकी और उसके बाद कुछ और छात्र जिनसे कहा गया, कि असफलता पर टीचर बहुत रुष्ट हुए और चेतावनी दी कि यदि एक सप्ताह में क्लास के अपटूडेट नहीं आये तो मैथेमेटिक्स छोड़कर आर्टस का विषय ज्वाइन करना पड़ेगा। वह किशोर बहुत परेशान और भयभीत हो गया कि घर पर उसकी बड़ी भद हो जायेगी। मैथेमेटिक्स के एलजेब्रा, कोआर्डिनेट ज्योमेट्री, ट्रिग्नामेट्री आदि अनेक उप-विषय थे- उन सब में एक सप्ताह में अपटूडेट आना असम्भव ही था।
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कुछ ही दिनों पश्चात् टीचर ने ब्लैक बोर्ड पर कोआर्डिनेट ज्योमेट्री का एक प्रश्न् लिख दिया और बारी-बारी से उन सबसे अगला स्टेप पूछने लगे जिनको चेतावनी दी थी। उस किशोर ने इस आशंका से कि कहीं उससे न पूछ दिया जाय, डेस्क में मुँह छिपाने का प्रयास किया तब तक उसे अपना नाम सुनाई पड़ा, वह मंत्रवत खड़ा हुआ और अगला स्टेप बोल दिया जो बिल्कुल सही था। क्लास के अन्त में सबसे तेज लड़कों ने पूछा कि तुमने कैसे बता दिया, यह तो हमें भी नहीं मालूम था। उसने कहा कि उसे भी नहीं मालूम कि उसने कैसे बताया।
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कदाचित् घबड़ाहट के कारण बुध्दि ठहर गई थी और उसी ठहरी हुई बुध्दि में स्वयमेव उत्तर आ गया। परन्तु इसके पीछे प्रभु की अहैतु की कृपा और अतिशय दयालुता ही मानना चाहिये कि उन्होंने उसे फजीहत से बचाने के लिए उसकी वाणी में स्वयं उत्तर दे दिया। यदि ठहरी हुई बुध्दि का योगदान कहा जाय तब भी उन्हीं की कृपालुता तो थी जिसने उसकी बुध्दि को ठहरा दिया। उसे तो बुध्दि ठहराने का उस समय अता-पता भी नहीं था। सब कुछ अपने आप ही हो गया।
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यदि कोई यह तर्क प्रस्तुत करे कि ठहरी हुई बुध्दि मात्र एक मानसिक स्थिति है जो अपने आप(natural phenomena) बन जाती है किन्हीं विशेष परिस्थितियों में, तब भी प्रभु की कृपालुता(अहैतु की) तो है ही। क्यों? इसलिए कि कोई चीज अपने आप नहीं होती। यह भी उनके ही बनाई नियम/प्रक्रिया से ही होता है। इसके अतिरिक्त:-
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(1) यह उन्हीं का बनाया नियम तो है कि ठहरी हुई बुध्दि में हम उन परम चैतन्य से सीधे जुड़ जाते हैं।
(2) कैसे विशाल और विचित्र कम्प्यूटर है कि न website की जरूरत और न Connectivity की समस्या। Instant connection होता है।
(3) उत्तर के लिए search भी नहीं करना पड़ता। हमें question feed भी नहीं करना पड़ता। Relevent उत्तर instantly आ जाता है। यह भी उनकी कृपालुता ही तो है कि वह relevent ही उत्तर आता है - यह नहीं होता कि उसके बजाय अपनी भक्ति का रहस्य बताने लगे।
(4) यह भी नहीं होता कि वह कहें कि अभी मेरा mood नहीं है, मन नहीं कर रहा है, तुम अपनी समस्या स्वयं झेलो। उन्हें इसीलिए दया करने में आलस्य नहीं करने वाला कहा गया है।
पूर्व प्रस्तरों में उन दृष्टान्तो को प्रस्तुत मात्र यह कहने के लिए किया गया है कि ऐसा नहीं है कि प्रभु केवल पुकारने पर ही कृपा करते हैं बल्कि वह अपनी कृपालुता के वश में होकर स्वमेव ही अपने बच्चों का हित साधन करते रहते हैं। उनकी करुणा, कृपालुता,महिमा का कहाँ तक बखान किया जाय। पुरुषोत्तमदास जलोटा जी ने एक भजन गाया है जिसकी मुख्य(lead) पंक्ति है-
'प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु
को नियम बदलते देखा।
अपना मान टले टल जाये,
भक्त का मान न टलते देखा॥'
ऐसे प्रभु की शरणागति न अपनाकर इधर-उधर अन्य विश्वासों में भटकते रहने से बढ़कर हम लोगों का और क्या दुर्भाग्य हो सकता है? मनुष्य जन्म पाकर उसको गंवाने के समान है।
अत: जिसने उनके प्रति अपने को पूर्णरूपेण समर्पण कर दिया, उनकी शरणागति अपना लिया वह तो निर्भय और निश्चिन्त हो जाता है। वह उनसे कोई अपेक्षा या चाह नहीं रखता, इसलिए किसी भी परिस्थिति में उसका उन्हें अपने लिए सहायता, कृपा हेतु पुकारने का प्रश्न् ही नहीं होता। वह तो अपने को पूर्णतया उनको सौंप देता है और जो भी होता है उसी में प्रसन्न और आनन्दित रहता है।
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परन्तु उन्हें पुकारना भी ठीक ही है। किसी संकट की घड़ी में हम उन परम कृपालु सर्व सामर्थ्यवान अपने परम हितैषी को ही तो पुकारेंगे। परन्तु अन्य विश्वास, धन का, बल का या बुध्दि का विश्वास रखते हुए प्रभु को पुकारने का कोई अर्थ नहीं होगा। अनेक विश्वास एक विश्वास में और अनेक सम्बन्ध एक सम्बन्ध में विलीन कर देने पर ही उन्हें पुकारना अर्थ पूर्ण होता है। जब द्रौपदी ने सबसे निराश होकर, हाथ से और दांत से भी चीर की पकड़ छोड़ दिया और असमर्थ भाव से उन्हें पुकारा तब कृष्ण भगवान ने उनकी लाज रख ली।
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हम उन्हें पुकारते ही तब हैं जब अपनी सामर्थ्य से हार जाते हैं और अपने को नितान्त असमर्थ अनुभव करते हैं। मीरा जी ने और प्रह्लाद ने इसका झंझट ही नहीं रखा। वे पूर्णरूपेण उनके आश्रित हो गये और उनकी भक्ति और प्रेम में मग्न रहे। अपनी कोई इच्छा/चाह ही नहीं रही सिवा उनके प्रेम की।

नोट : इसका यह अर्थ नहीं है कि हम निष्क्रिय हो जायें। हमें उन्हीं(प्रभु) के आश्रित और शरणागत होकर अपना कर्तव्य-कर्म जो विवेक विरोधी या अपनी सामर्थ्य-विरोध नहीं है, को करना ही है। कर्तव्य होता ही वह है जो विवेक-विरोधी और सामर्थ्य-विरोधी न हो। कार्य में सफलता में विलम्ब होने पर हम अधीर और उद्विग्न होते हैं,जिसके लिए वास्तव में कोई आचित्य नहीं है। दृढ़ विश्वास के साथ अपने कर्म में लगा रहे। ऐसे अनेक अनुभूत दृष्टान्त है जिन्हें लिखने पर यह गाथा बहुत लम्बी हो जायेगी। इतना ही कहना पर्याप्त और विश्वास को सुदृढ़ करने वाला होगा कि जिस विलम्ब को लेकर हम परेशान होते रहे थे, वह कार्य को सफल बनाने हेतु प्रभु का well planned design था। ऐसे परम हितैषी, परम कृपालु, परम उदार प्रभु के हम आश्रित हो जायें या आर्तभाव से पुकारें वह तत्वत: उनके प्रति विश्वास ही है। और बस आनन्द ही आनन्द है।

= १९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*पढे न पावै परमगति, पढे न लंघै पार ।*
*पढे न पहुंचै प्राणियां, दादू पीड़ पुकार ॥*
*दादू निवरे नाम बिन, झूठा कथैं गियान ।*
*बैठे सिर खाली करैं, पंडित वेद पुरान ॥* 
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साभार ~ The Truth-सत्य

ज्ञानं बंध:। 
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पहला तो, ज्ञान बंध है— इस बात का ज्ञान कि मैं हूं। दूसरा, ज्ञान बंध है— वह सब ज्ञान जो तुम बाहर से इकट्ठा कर लिये हो, जो तुमने शास्त्रों से चुराया है, जो तुमने सदगुरुओं से उधार लिया है, जो तुम्हारी स्मृति है— वह सब बंधन है। उससे तुम्हें शक्ति न मिलेगी। इसलिए तुम पंडित से ज्यादा बंधा हुआ आदमी न पाओगे।
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मेरे पास सब तरह के लोग आते हैं— सब तरह के मरीज। उसमें पंडित से ज्यादा कैंसरग्रस्त कोई भी नहीं है। उसका इलाज नहीं है। वह लाइलाज है। उसकी तकलीफ यह है कि वह जानता है। इसलिए, न वह सुन सकता है, न समझ सकता है। तुम उससे कुछ बोलो, इसके पहले कि तुम बोलो, उसने उसका अर्थ कर लिया है; इसके पहले कि वह तुम्हें सुने, उसने व्याख्या निकाल ली है। शब्दों से भरा हुआ चित्त, जानने में असमर्थ हो जाता है। वह इतना ज्यादा जानता है, बिना कुछ जाने; क्योंकि सब जाना हुआ उधार है।
शास्त्र से अगर ज्ञान मिलता होता, तो सभी के पास शास्त्र है, ज्ञान सभी को मिल गया होता। ज्ञान तो तब मिलता है, जब कोई निःशब्द हो जाता है; जब वह सभी शास्त्रों को विसर्जित कर देता है; जब वह उस सब ज्ञान को, जो दूसरों से मिला है, वापिस लौटा देता है जगत को; जब वह उसे खोजता है, जो मेरा मूल अस्तित्व है, जो मुझे दूसरों से नहीं मिला।
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इसे थोड़ा समझें। तुम्हारा शरीर तुम्हें तुम्हारे मां और पिता से मिला है। तुम्हारे शरीर में तुम्हारा कुछ भी नहीं है। आधा तुम्हारी मां का दान है, आधा तुम्हारे पिता का दान है। फिर तुम्हारा शरीर तुम्हें भोजन से मिला है—वह जो रोज तुम भोजन कर रहे हो; पांच तत्वों से मिला है—वायु है, अग्रि है, पांचों तत्व हैं, उनसे मिला है। इसमें तुम्हारा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारी चेतना, तुम्हें पांचों तत्वों में से किसी से भी नहीं मिली। तुम्हारी चेतना तुम्हें मां और पिता से भी नहीं मिली।
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तुम जो—जो जानते हो वह तुमने स्कूल, विश्वविद्यालय से सीखा है, शास्त्रों से सुना है, गुरुओं से पाया है। वह तुम्हारे शरीर का हिस्सा है, तुम्हारी आत्मा का नहीं। तुम्हारी आत्मा तो वही है जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिली है। जब तक तुम उस शुद्ध तत्व को न खोज लोगे, जो निपट तुम्हारा है, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला है—न मां ने दिया, न पिता ने दिया, न समाज ने, न गुरु ने, न शास्त्र ने—वही तुम्हारा स्वभाव है।
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ज्ञान बंध है—क्योंकि, वह तुम्हें इस स्वभाव तक न पहुंचने देगा। ज्ञान ने ही तुम्हें बांटा है। तुम कहते हो कि मैं हिंदू हूं। तुमने कभी सोचा है कि तुम हिंदू क्यों हो? तुम कहते हो कि मैं मुसलमान हूं। तुमने कभी विचारा कि तुम मुसलमान क्यों हो? हिंदू और मुसलमान में फर्क क्या है? क्या उनका खून निकालकर कोई डाक्टर परीक्षा करके बता सकता है कि यह हिंदू का खून है, यह मुसलमान का खून है? क्या उनकी हड्डियां काटकर कोई बता सकता है कि हड्डी मुसलमान से आती है कि हिंदू से आती है? कोई उपाय नहीं है। शरीर की जांच से कुछ भी पता न चलेगा; क्योंकि, दोनों के शरीर पांच तत्त्वों से बनते हैं। लेकिन अगर उनकी खोपड़ी की जांच करो तो पता चल जायेगा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है; क्योंकि दोनों के शाख अलग, दोनों के सिद्धांत अलग, दोनों के शब्द अलग। शब्दों का भेद है तुम्हारे बीच। तुम हिंदू हो; क्योंकि तुम्हें एक तरह का ज्ञान मिला, जिसका नाम हिंदू है। दूसरा जैन है; क्योंकि उसे दूसरी तरह का ज्ञान मिला, जिसका ज्ञान जैन है। तुम्हारे बीच जितने फासले है—दीवाले हैं—वें ज्ञान की दिवाले हैं, और सब ज्ञान उधार है।
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तुम एक मुसलमान बच्चे को हिंदू के घर में रख दो, वह हिंदू की तरह बड़ा होगा। वह ब्राह्मण की तरह जनेऊ धारण करेगा। वह उपनिषद और वेद के वचन उद्धृत करेगा। और तुम एक हिंदू के बच्चे को मुसलमान के घर रख दो, वह कुरान की आयत दोहरायेगा।
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ज्ञान तुम्हें बांटता है; क्योंकि ज्ञान तुम्हारे चारों तरफ एक दीवार खींच देता है। और ज्ञान तुम्हें लड़ाता है, और ज्ञान तुम्हारे जीवन में वैमनस्य और शत्रुता पैदा करता है। थोड़ी देर को सोचो कि तुम्हें कुछ भी न सिखाया जाये कि तुम हिंदू हो, या मुसलमान, या जैन, या पारसी, तो तुम क्या करोगे? तुम बड़े होओगे एक मनुष्य की भांति; तुम्हारे बीच कोई दीवार न होगी।
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दुनियां में कोई तीन सौ धर्म हैं—तीन सौ कारागृह हैं। और हर आदमी के पैदा होते, उसे एक कारागृह से दूसरे कारागृह में डाल दिया जाता है। और पंडित, पुरोहित बड़ी चेष्टा करते हैं कि बच्चे पर जल्दी—से—जल्दी कब्जा हो जाए। उसको वे धर्म—शिक्षा कहते हैं। उससे ज्यादा अधर्म और कुछ भी नहीं है। वह उसको धर्म—शिक्षा कहते हैं। सात साल के पहले बच्चों को पकड़ते हैं; क्योंकि सात साल का बच्चा अगर बड़ा हो गया, तो फिर पकड़ना रोज—रोज मुश्किल हो जायेगा। और बच्चे को अगर थोड़ा भी बोध आ गया, तो फिर वह सवाल उठाने लगेगा। और सवालों का जवाब पंडितों के पास बिलकुल नहीं है। पंडित सिर्फ मूढ़ को तृप्त कर पाते हैं। जितनी कम बुद्धि का आदमी हो, पंडित से उतनी जल्दी तृप्त हो जाता है।
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वह एक प्रश्र पूछता है, उत्तर मिल जाता है। तुम जाते हो, पंडित से पूछते हो, संसार को किसने बनाया? वह कहता है, भगवान ने। तुम प्रसन्न घर लौट आते हो, बिना पूछे कि भगवान को किसने बनाया। अगर तुम दूसरा प्रश्र पूछते, पंडित नाराज हो जाता; क्योंकि, उसका उसे भी पता नहीं है। किताब में वह लिखा नहीं है। और फिर झंझट की बात है. परमात्मा को किसने बनाया ! फिर तुम पूछते ही चले जाओगे; वह कोई भी जवाब दे, तुम पूछोगे, उसको किसने बनाया।
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अगर गौर से देखो तो तुम्हारे पहले सवाल का जवाब दिया नहीं गया है। पंडित ने तुम्हें सिर्फ संतुष्ट कर दिया; क्योंकि तुम बहुत बुद्धिमान नहीं हो। और बच्चे अबोध हैं। उनका अभी तर्क नहीं जगा, विचार नहीं जगा; अभी वे प्रश्र नहीं पूछ सकते। अभी तुम जो भी कचरा उनके दिमाग में डाल दो, वे उसे स्वीकार कर लेंगे। बच्चे सभी कुछ स्वीकार कर लेते हैं; क्योंकि वे सोचते हैं, जो भी दिया जा रहा है, वह सभी ठीक है। बच्चा ज्यादा सवाल नहीं उठा सकता। सवाल उठाने के लिए थोड़ी प्रौढ़ता चाहिए। इसलिए सभी धर्म बच्चों की गर्दन पकड़ लेते हैं और फांसी लगा देते हैं।
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फांसी बड़ी सुंदर ! किसी के गले में बाइबल लटकी है, किसी के गले में समयसार लटका है; किसी के गले में कुरान लटकी है, किसी के गले में गीता लटकी है। ये इतने प्रीतिकर बंधन हैं कि इनको छोड़ने की हिम्मत फिर जुटानी बहुत मुश्किल है। और जब भी तुम इन्हें छोड़ना चाहोगे, एक खतरा सामने आ जायेगा। क्योंकि, इन्हें छोड़ा तो तुम अज्ञानी ! क्योंकि, जैसे तुम उन्हें छोड़ोगे, तुम पाओगे, मैं तो कुछ जानता नहीं, बस यह किताब सारी संपदा है। इसको सम्हालो अपने अज्ञान को छिपाने का यही तो एक उपाय है। लेकिन अज्ञान छिपने से अगर मिटता होता, तो बड़ी आसान बात हो गई होती। अज्ञान छिपने से बढ़ता है। जैसे कोई अपने घाव को छिपा ले। उससे कुछ मिटेगा नहीं। घाव और भीतर ही भीतर बढ़ेगा; मवाद पूरे शरीर में फैल जायेगी।
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शिव कहते है ज्ञान बंध है—शान सीखा हुआ, ज्ञान उधार, ज्ञान दूसरे से लिया हुआ—बंधन का कारण है। तुम उस सबको छोड देना, जो दूसरे से मिला है। तुम उसकी तलाश करना, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। तुम उसकी खोज में निकलना, उस चेहरे की खोज में जो कि तुम्हारा है। तुम्हारे भीतर छिपा हुआ एक झरना है चैतन्य का, जो तुम्हें किसी से भी नहीं मिला। जो तुम्हारा स्वभाव है, जो तुम्हारी निज—संपदा है, निजत्व है—वही तुम्हारी आत्मा है।

गुरुवार, 30 नवंबर 2017

= १९४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*साचा सिर सौं खेल है, यह साधु जन का काम ।*
*दादू मरणा आसँघै, सोई कहैगा राम ॥* 
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य
“प्रपत्ति”
‘नमामि भक्तमाल को’
राजा जगदेव जी – २
राजा जगदेव जी की रिझवार निष्ठा का वर्णन हुआ, अब उनकी धर्म निष्ठा का वर्णन सुनिए. एक यवन राजकुमारी इनकी रिझवार निष्ठा पर आसक्त हो गयी और उसने अपने पिता से कहा कि उसे राजा से विवाह करना है. बादशाह ने राजा को बुलाकर बहुत समझाया, फिर अनेक प्रकार का प्रलोभन दिया और अंत में भय भी दिखाया पर राजा नहीं माने. बादशाह ने खींज कर राजा को मार डालने का आदेश दे दिया.
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जब बधिक लोग राजा को मारने लेकर जा रहे थे तब राजकुमारी ने उन्हें रोककर कहा कि उसे राजा से प्यार है. राजा को नहीं मारा जाए और उसने राजा को अपने सामने बुलाया. उसे लगा कि अगर राजा उसे एक बार देख लेंगे तो विवाह से मना नहीं करेंगे. राजकुमारी ने राजा से उसकी ओर देखने को कहा पर राजा ने मुँह मोड़ लिया. तब राजकुमारी ने गुस्से में आकर सिपाहियों से कहा कि राजा का सिर काटकर उसके पास लाया जाए. ऐसा ही किया गया. पर जब राजा का कटा हुआ सिर राजकुमारी के सामने रखा गया तो वह सिर भी पीछे मुड़ गया. राजा की ऐसी धर्म निष्ठा देखकर सभी प्रभावित हो गए.
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जो धर्म पर चलता है उसकी कभी हार नहीं होती है. हारता तो सदा अधर्मी ही है. अधर्मी का प्रयोजन कभी सफल नहीं होता है. जो धर्मनिष्ठ है उसका धर्म उसके एक अंग को भी झुकने नहीं देता है.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

= १९३ =


卐 सत्यराम सा 卐
*अपनी अपनी जाति सौं, सब को बैसैं पांति ।*
*दादू सेवग राम का, ताके नहीं भरांति ॥* 
*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥* 
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साभार ~ Dana Mahiya
**प्रेज़ेंट्स** ओशो ~ बिखरे मोती
दोस्तोवस्की ने एक छोटी—सी कथा लिखी है। लिखा है कि जीसस के मरने के अठारह सौ वर्ष बाद जीसस को खयाल आया कि मैं पहले जो गया था जमीन पर, तो बे समय पहुंच गया था। वह ठीक वक्त न था, लोग तैयार न थे और मुझे मानने वाला कोई भी न था। मैं अकेला ही पहुंच गया था। और इसलिए मेरी दुर्दशा हुई; और इसलिए लोग मुझे स्वीकार भी न कर पाए, समझ भी न पाए। और लोगों ने मुझे सूली दी, क्योंकि लोग मुझे पहचान ही न सके। अब ठीक वक्त है। अगर मैं अब वापस जमीन पर जाऊं, तो आधी जमीन तो ईसाइयत के हाथ में है। हर गांव में मेरा मंदिर है। जगह— जगह मेरे पुजारी हैं। जगह—जगह मेरे नाम पर घंटी बजती है, और जगह—जगह मेरे नाम पर मोमबत्तियां जलाई जाती हैं। आधी जमीन मुझे स्वीकार करती है। अब ठीक वक्त है, मैं जाऊं।
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और जीसस यह सोचकर एक रविवार की सुबह बैथलहम, उनके जन्म के गांव में वापस उतरे। सुबह है। रविवार का दिन है। लोग चर्च से बाहर आ रहे हैं। प्रार्थना पूरी हो गई है। और जीसस एक वृक्ष के नीचे खड़े हो गए हैं। उन्होंने सोचा है कि आज वह अपनी तरफ से न कहेंगे कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं। क्योंकि पहले एक दफा कहा था, बहुत चिल्लाकर कहा था कि मैं जीसस क्राइस्ट हूं; मैं ईश्वर का पुत्र हूं मैं तुम्हारे लिए संदेश लेकर आया परम जीवन का, और जो मुझे समझ लेगा, वह मुक्त हो जाएगा, क्योंकि सत्य मुक्त कर देता है। लेकिन इस बार, अब तो वे लोग मुझे वैसे ही पहचान लेंगे, घर—घर में तस्वीर है। अब तो कोई जरूरत न होगी मुझे घोषणा करने की।
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वे चुपचाप खड़े रहे। लोगों ने पहचाना जरूर, लेकिन गलत ढंग से पहचाना। भीड़ इकट्ठी हो गई, और लोग हंसने लगे, और मजाक करने लगे। और किसी ने कहा कि बिलकुल बन—ठन कर खड़े हो! बिलकुल जीसस जैसे ही मालूम पड़ते हो! खूब स्वांग रचा है! अभिनेता कुशल हो, जरा भी भूल—चूक निकालनी मुश्किल है ! जीसस को कहना ही पड़ा कि तुम गलती कर रहे हो। मैं कोई अभिनय नहीं कर रहा हूं। मैं वही जीसस क्राइस्ट हूं जिसकी तुम पूजा करके बाहर आ रहे हो।
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तो लोग हंसने लगे और उन्होंने कहा कि जल्दी से तुम यहां से भाग जाओ, इसके पहले कि मंदिर का प्रधान पुरोहित बाहर निकले। नहीं तो तुम मुसीबत में पड़ोगे। और रविवार का दिन है, चर्च में बहुत लोग आए हुए हैं, व्यर्थ तुम्हारी मारपीट भी हो जा सकती है। तुम भाग जाओ। जीसस ने कहा, क्या कहते हो, ईसाई होकर ! पहली दफा जब मैं आया था, तो यहूदियों के बीच में आया था, कोई ईसाई न था; तो मुझे कोई पहचान न सका। यह स्वाभाविक था। लेकिन तुम भी मुझे नहीं पहचान पा रहे हो ! और तभी पादरी आ गया।
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चर्च के बाहर और लोग आ गए और बाजार में भीड़ लग गई। जीसस पर जो लोग हंस रहे थे, वे जीसस के पादरी के चरणों में झुक—झुक कर नमस्कार करने लगे ! लोग जमीन पर लेट गए। बड़ा पादरी ! बड़ा पुरोहित मंदिर के बाहर आया है ! जीसस बहुत चकित हुए। फिर भी जीसस के मन में एक आशा थी कि लोग भला न पहचान पाएं, लेकिन मेरा पुजारी तो पहचान ही लेगा! लेकिन पादरी के जब लोग चरण छू चुके, और उसने आंखें ऊपर उठाकर देखा, तो कहा कि बदमाश को पकड़ो और नीचे उतारो ! यह कौन शरारती आदमी है? जीसस एक बार आ चुके, और अब दुबारा आने का कोई सवाल नहीं है। लोगों ने जीसस को पकड़ लिया। जीसस को अठारह सौ साल पहले का खयाल आया। ठीक ऐसे ही वे तब भी पकडे गए थे। लेकिन तब पराए लोग थे और तब समझ में आता था। लेकिन अब अपने ही लोग पकडेंगे, यह भरोसे के बाहर था। और जीसस को जाकर चर्च की एक कोठरी में ताला लगाकर बंद कर दिया गया।
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आधी रात किसी ने दरवाजा खोला, कोई छोटी—सी लालटेन को लेकर भीतर प्रविष्ट हुआ। जीसस ने उस अंधेरे में थोड़े से प्रकाश में देखा, पादरी है, वही पुरोहित ! उसने लालटेन एक तरफ रखी, दरवाजा बंद करके ताला लगाया। फिर जीसस के चरणों में सिर रखा और कहा कि मैं पहचान गया था। लेकिन बाजार में मैं नहीं पहचान सकता हूं। तुम हो पुराने उपद्रवी ! हमने अठारह सौ साल में किसी तरह व्यवसाय ठीक से जमाया है। अब सब ठीक चल रहा है, तुम्हारी कोई जरूरत नहीं; हम तुम्हारा काम कर रहे हैं। तुम हो पुराने उपद्रवी! अगर तुम वापस आए, तो तुम सब अस्तव्यस्त कर दोगे, तुम हो पुराने अराजक। तुम फिर सत्य की बातें कहोगे और सब नियम भ्रष्ट हो जाएंगे। और तुम फिर परम जीवन की बात कहोगे, और लोग स्वच्छंद हो जाएंगे।
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हमने सब ठीक—ठीक जमा लिया है, अब तुम्हारी कोई भी जरूरत नहीं है। अब तुम्हें कुछ भी करना हो, तो हमारे द्वारा करो। हम तुम्हारे और मनुष्य के बीच की कड़ी हैं। तो मैं तुम्हें भीड़ में नहीं पहचान सकता हूं। और अगर तुमने ज्यादा गड़बड़ की, तो मुझे वही करना पड़ेगा, जो अठारह सौ साल पहले दूसरे पुरोहितों ने तुम्हारे साथ किया था। हम मजबूर हो जाएंगे तुम्हें सूली पर चढ़ाने को। तुम्हारी मूर्ति की हम पूजा कर सकते हैं और तुम्हारे क्रास को हम गले में डाल सकते हैं, और तुम्हारे लिए बड़े मंदिर बना सकते हैं, और तुम्हारे नाम का गुणगान कर सकते हैं, लेकिन तुम्हारी मौजूदगी खतरनाक है।
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जब भी ईश्वर अपने परम ऐश्वर्य में कहीं प्रकट होगा, तब उसकी मौजूदगी खतरनाक हो जाती है। वे जो हमारे क्षुद्र अहंकार हैं, उन क्षुद्र अहंकारों को बड़ी पीड़ा शुरू हो जाती है। जब भी विराट ईश्वर सामने होता है, तो हमारा क्षुद्र अहंकार बेचैन हो जाता है। हम मरे हुए ईश्वर को पूज सकते हैं, जीवित ईश्वर को पहचानना मुश्किल है।
-गीता-दर्शन-भाग-5-प्रवचन-115/
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बुधवार, 29 नवंबर 2017

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जन ! कुछ चेत कर, सौदा लीजे सार ।*
*निखर कमाई न छूटणा, अपने जीव विचार ॥* 
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साभार ~ Hansraj Taneja via @Mukesh Kumar‎

ज्ञान मार्ग से उपजी वैज्ञानिकता - श्री शम्भू नाथ शुक्ल

बुद्ध चरित में एक कथा है—बुद्ध के अंतिम समय में उनके प्रिय शिष्य आनंद ने उनसे पूछा कि भगवन‍‍् इस पृथ्वी लोक में कौन-सा अपराध ज्यादा पातक देता है, जान-बूझकर किया गया अपराध अथवा अनजाने में हुआ अपराध? बुद्ध ने आनंद की उम्मीद के विपरीत कहा कि अज्ञानतावश हुआ अपराध। आनंद हतप्रभ रह गया। भगवन‍् किस तरह का उपदेश दे रहे हैं? भला जान-बूझकर किया गया अपराध क्षम्य है और अनजाने में किया अपराध ज्यादा पातक का भागी कैसे बना सकता है? उसने फिर पूछा यह कैसे भगवन‍्? मुझे तो लगता है कि अनजाने में किया गया अपराध क्षमा के योग्य है। आनंद को लग रहा था कि वे शायद उसकी जिज्ञासा को समझ नहीं पाए। पर भगवान बुद्ध अपनी ही बात पर कायम थे। उन्होंने फिर वही जवाब दिया।

शिष्य आनंद की जिज्ञासा का शमन करते हुए बुद्ध ने कहा कि देखो आनंद मैं तुमको एक उदाहरण दे रहा हूं। मान लो एक व्यक्ति खूब गर्म लोहे की छड़ पर अनजाने में बैठ जाता है और दूसरा उस छड़ की गर्माहट को जानते हुए, तो बताओ अग्नि का ताप किसको ज्यादा जलाएगा? आनंद ने कहा कि भगवन‍् जो अनजाने में उस गर्म लोहे की छड़ पर बैठा है। बुद्ध बोले- तो यही बात मैं भी कह रहा हूं प्रिय आनंद। अनजाने में किया गया अपराध ज्यादा पातक का भागी बनाता है। पर आनंद को अभी भी यह बात समझ में नहीं आई। उसने कहा कि मुझे लगता है कि अनजाने या भोले आदमी द्वारा किया गया अपराध क्षम्य होना चाहिए। एक आदमी जानबूझ कर अपराध कर रहा है पर दूसरा बेचारा भूलवश, तो जाहिर है कि अपराध उसी का बड़ा समझा जाएगा जिसने जानबूझ कर किया। बुद्ध बोले—आनंद जो अज्ञान के कारण अपराध करता है वह अधिक दोषी इसलिए भी है कि उसने ज्ञान को नहीं स्वीकारा। हर चीज का ज्ञान जरूरी है आनंद और इसके लिए जरूरी है अनवरत ज्ञान का अभ्यास। जो अज्ञान में अपराध करेगा वह भीषण अपराध करेगा पर जानबूझ कर करने वाला अपराध छोटा होगा। अब आनंद की समझ में आया कि वे ज्ञान की महिमा का बखान कर रहे हैं।

भगवान बुद्ध का आशय ज्ञान की रोशनी से था। उनका मानना था कि हर आदमी अपने दुख से सिर्फ तब ही उबर सकता है जब वह अज्ञान से ज्ञान की तरफ जाए। यह ज्ञान की रोशनी ही उसे उसके सारे दुखों से उबारने में सहायक होगी। बुद्ध का सारा जोर प्राणियों को ज्ञानवान बनाना था और इसी का नतीजा था कि बुद्ध का दर्शन मनुष्य को अंधविश्वास की तरफ नहीं ले जाता और जिन प्रश्नों के उत्तर ज्ञात न हों, बुद्ध उन प्रश्नों को मानव जीवन के लिए व्यर्थ मानकर छोड़ने की सलाह देते हैं। बुद्ध कहते हैं कि ईश्वर है अथवा नहीं या आत्मा है अथवा नहीं, इसे जान लेने या न जान लेने से मनुष्य का कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। इसलिए ऐसे फिजूल प्रश्नों को छोड़ देना ही श्रेयस्कर होगा भंते। मनुष्य जीवन के बाकी सभी उपादेयों को समझ लेने की बात बुद्ध करते हैं पर ईश्वर के बारे में वे चुप साध जाते हैं। यही कारण है कि बुद्ध के बाद ही भारत में ज्ञानवाद की आंधी चल पड़ी और ज्यादातर वैज्ञानिक खोजें तथा चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियां बुद्ध के बाद की हैं।

कणाद के दर्शन के जिस अणुवाद का ज्ञान हमें मिलता है वह भी बुद्ध के परवर्ती काल का है। बुद्ध ने जीवन को वैज्ञानिक पद्धति से समझने का प्रयास किया और जाना भी। लेकिन बौद्ध धर्म में चूंकि निजी मोक्ष पर जोर इतना था कि शुरू में बुद्धचर्या मात्र कुछ बौद्ध भिक्षुओं तक ही सिमटी रही। पर जब बुद्ध मार्ग का विस्तार हुआ तो महायान संप्रदाय का जन्म हुआ और बुद्ध का दर्शन आम आदमी तक भी पहुंचा। सिर्फ साधकों पर जोर होने के कारण बुद्ध का पूर्ववर्ती काल सिमटा हुआ ही रहा है पर जैसे-जैसे सबकी साझेदारी स्वीकार हुई, बौद्ध धर्म का इतना विस्तार हुआ कि देश और काल की सीमाएं लांघते हुए बौद्ध धर्म पश्चिम एशिया से लेकर दक्षिण-पूर्व एशिया में तो पहुंचा ही। यूरोप के स्पेन में आज भी बौद्ध मठ मिल जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि ईसाई मत में जो करुणा का आग्रह है वह बौद्ध मत से ही आया। पर ईसाई मत में ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने के बाद भी उसमें वैज्ञानिकता रही और निरंतर इस मत को और धारदार तथा आधुनिक जीवनशैली के अनुकूल बनाया गया पर बौद्ध मत कुछ सीमा तक प्रगति करने के बाद पीछे घिसटता चला गया। और आज खुद भारत में ही बौद्ध मत के अनुयायियों की संख्या एक करोड़ से ऊपर नहीं है।

यह एक अजीब बात है कि जिस धर्म ने सबसे पहले ईश्वर की सत्ता को नकारा और सिर्फ ज्ञान की पहुंच को ही सत्य माना, उस धर्म का वजूद भारत में भले न हो पर पूरा दक्षिण-पूर्व एशिया तथा मध्य एशिया आज भी उसी धर्म को अपना आदर्श मानता है। चीन हो या जापान अथवा थाईलैंड या वियतनाम अथवा कंबोडिया, बर्मा या मलयेशिया और इंडोनेशिया आदि सभी जगह आदर्श बौद्ध ही हैं। मलयेशिया और इंडोनेशिया में राजकीय धर्म भले इस्लाम हो पर वहां पर आम जनता की जीवनशैली पर बुद्ध के ही आदर्श हावी हैं और यही कारण है कि इन दोनों ही मुल्कों में इस्लाम का दखल बस मस्जिदों तक सीमित है। चीन और जापान में धर्म अध्यात्म का अबूझ रूप लेकर नहीं फैला बल्कि वहां बुद्ध चर्या का ज्ञान स्वरूप ही पसंद किया गया। यही कारण है कि बुद्ध वहां धर्म के प्रतीक हैं पर जीवन शैली में जो खुलापन और आध्यात्मिकता है वह प्रवृत्तिवादी है जो यहां के लोगों को निरंतर शोध और वैज्ञानिकता की तरफ ले जाती है। इन मुल्कों में धर्म त्राता का रूप तो है पर अंधविश्वास के रूप में कतई नहीं। वहां धर्म उपासना तक ही सीमित है और जीवन शैली में जो वैज्ञानिकता है वह बुद्ध धर्म के ज्ञानमार्ग के कारण ही। ऐसे में बुद्ध का उपदेश याद आता है—भंते, अज्ञान ही सबसे बड़ा अपराध है और पातक है, इसलिए अज्ञान को त्यागो और ज्ञान की रोशनी की तरफ निरंतर चलते रहो। चरैवति! चरैवति !

= १९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
*अर्थ आया तब जानिये, जब अनर्थ छूटे ।*
*दादू भाँडा भरम का, गिरि चौड़े फूटे ॥* 
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साभार ~ Hansraj Taneja via @Ravi Kant‎

निर्वाण उपनिषद --ओशो (प्रवचन --14)
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इसलिए संन्यासी के पास अगर कोई रहे, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है। संन्यासी तो मुश्किल में होता है अपने ढंग की, लेकिन उसकी मुश्किल तो ठीक है, उसके पास कोई रहे, तो बहुत मुश्किल में पड़ जाता है। क्योंकि संन्यासी भ्रम नहीं पोसना चाहता और जो भी उसके पास रहेगा, वह भ्रम पोसना चाहता है। अगर संन्यासी सत्य के ही साथ सीधा जीता है, तो जो भी उसके निकट है, वह अड़चन में पड़ना शुरू हो जाता है। क्योंकि संन्यासी ऐसी बातें कहेगा, इस ढंग से जीएगा कि आप अपने भ्रमों को न पोस पाएंगे। इसलिए एक बहुत दुर्घटना इस जमीन पर घटती रही है और वह यह है कि इस जमीन पर जिन लोगों ने भी सत्ये की खोज की है, उनके आसपास के लोग कभी भी उनको प्रेम भी नहीं कर पाए और कभी उनको समझ भी नहीं पाए।
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सुकरात की पत्नी तक, जो निकटतम थी उसके, उसको नहीं समझ पाई, क्योंकि सुकरात कोई भ्रम में सहायता न देगा । तो सुकरात और उसकी पत्नी की कलह अनिवार्य हो गई, क्योंकि पत्नी चौबीस घंटे भ्रमों की मांग कर रही है और सुकरात कोई भ्रम नहीं दे सकता। पत्नी के मन में कहीं तो आकांक्षा होती है कि कभी सुकरात कहे कि तुम सुंदर हो। लेकिन सुकरात कहता है, सौंदर्य तो मन का भाव है। शरीर से उसका कोई संबंध नहीं है। खयाल है। उसका कोई अर्थ नहीं है। अब यह पत्नी बड़ी मुश्किल में पड़ेगी। पत्नी चाहती है कि सुकरात कभी कहे कि तुम्हारे बिना मैं न जी सकूंगा। सुकरात कहता है, सब सबके बिना जी सकते हैं। बल्कि अगर सुकरात से सच पूछो,तो वह कहेगा कि तुम्हारे बिना मैं ज्यादा आसानी से जी सकूंगा। लेकिन यह पत्नी के मन को तो बड़ी तकलीफ होगी, बड़ी पीड़ादाई हो जाएगी बात। बहुत कठिन हो जाएगा, क्योंकि उसके कोई सपने खडे न हो पाएंगेे और वह तैयारी में नहीं है तोड़ने की।
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इसलिए जब जीसस ने अपनी मां को कहा कि कोई मेरी मां नहीं है, कोई मेरा पिता नहीं है, तो हम समझ सकते हैं कि मां को कैसी पीड़ा हुई होगी। बेटा चोर होता, बेईमान होता और कह देता कि कोई मेरी मां नहीं, तो मां प्रसन्न भी हो सकती थी कि झंझट मिटी। बदनामी अपने सिर न आएगी। बेटा हो गया है पैगंबर। हजारों लोग उसे भगवान का बेटा मानने लगे हैं। मां बहुत आतुरता से आई होगी कि भीड़ के सामने जीसस कह देगा कि तू मेरी मां है। और जीसस ने कह दिया कि नहीं, कौन किसकी मां! कौन किसका बेटा! कोई किसी का कोई भी नहीं है। तो हम समझ सकते हैं कि मां को, मां के भ्रम को कैसा धक्का लगा होगा।
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जब बुद्ध ने अपने पिता को कहा कि आप नहीं जानते कि मैं कौन हूं आप मुझे नहीं पहचानते। तो बुद्ध के पिता तो क्रोध से भर गए। उन्होंने कहा, मैं तुझे नहीं पहचानता? मैंने तुझे पैदा किया! ये तेरी हड्डीयां, और तेरा खून, और तेरा मांस मेरा है। तेरी रगों में जो बह रही है ताकत, वह मेरी है। और मैं तुझे नहीं पहचानता? तू नहीं था, उसके पहले मैं था। बुद्ध ने कहा, वह सब ठीक है। वह खून भी आपका होगा, हड्डियां भी आपकी होंगी, वह शरीर भी आपका होगा, लेकिन मेरा उससे कुछ लेना—देना नहीं, मैं और ही हूं। बुद्ध के बाप ने कहा, तू मुझ से पैदा हुआ है ! बुद्ध ने कहा, वह भी ठीक है। लेकिन आप एक चौराहे की तरह थे, जिस पर से मैं आया, लेकिन मेरी यात्रा आपके मिलने के बहुत पहले से चल रही है। आप एक रास्ता थे, जस्ट ए पैसेज, जिससे मैं आया, वह ठीक है। लेकिन अगर दरवाजा यह कहने लगे कि चूंकि मैं उसमें से निकला, इसलिए वह मुझे जानता है, तो आति हो जाएगी। बाप तो आग—बबूला हो गया। उन्होंने कहा, तू मुझे सिखाता है? सभी बाप आग—बबूला हो जाएंगे कि तू मुझे सिखाता है? बुद्ध सत्य की बात कर रहे हैं, कठिनाई वहीं है और बाप अभी भ्रमों के बीच जीना चाहता है।
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बुद्ध की पत्नी ने अपने बेटे को कहा कि राहुल, अपने बाप से वसीयत मांग ले। ये तेरे बाप खड़े हैं। व्यंग्य गहन था। बुद्ध के पास तो कुछ भी न था देने को। लेकिन पत्नी रोष में थी। यह आदमी छोड्कर भाग गया था। बेटे ने तो पहली दफा ही बुद्ध को होश में देखा था, क्योंकि बेटा तो पहले ही दिन का था, पैदा ही हुआ था, तब बुद्ध घर से निकल गए थे। बारह साल बाद लौटे हैं। तो राहुल को सामने खड़ा करके उनकी पत्नी ने कहा कि ये रहे तुम्हारे पिता, जिन्होंने तुम्हे जन्म दिया। भाग गए जन्म देकर। अब मिले हैं, मौका मत चूकना। फिर भाग जाएंगे। इनसे ले लो वसीयत कि मेरे लिए क्या देते हो जगत में! मुझे पैदा कर दिया, तो है क्या?
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बुद्ध की पत्नी जो व्यंग्य कर रही है, वह भ्रमों की दुनिया का व्यंग्य है। लेकिन बुद्ध ने कहा कि मेरे निकट आ, बड़ी संपदा मेरे पास है, वह मैं तुझे देता हूं। और जो दिया, वह भिक्षा—पात्र था। और आनंद को कहा, आनंद संन्यास में दाक्षित करो राहुल को। पत्नी तो कांप गई, रोने लगी, लेकिन राहुल दीक्षित हो चुका था। बुद्ध ने कहा, जो मेरे पास श्रेष्ठ है, वही तो मैं दूं। जो संपदा है, वही मैं दूं। जिसको छोड गया था, वह विपदा थी। अब मैं संपदा लेकर आया हू। वही मैं देता हूं।
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बुद्ध के बाप रोने लगे और उन्होंने कहा कि तू बर्बाद करके रहेगा। अकेला तू मेरा बेटा था। तेरे जाने से भारी उपद्रव हुआ। अब तेरा बेटा ही मालिक है सारे साम्राज्य का। इसको भी तू संन्यासी कर रहा है ! बुद्ध ने कहा, आप भी राजी हो जाएं। क्योंकि यह साम्राज्य पाकर आपको क्या मिला? मुझे छोड्कर क्या खो गया? और यह मेरा बेटा भी इसी चक्की में पिसता रहे, तो क्या मिल जाएगा? मैं इसे संपदा देता हूं। लेकिन सबको लगा कि बुद्ध भारी अन्याय कर रहे हैं। सारे गांव में दुख की लहर फैल गई कि बारह साल के लड़के को दीक्षा दे दी। हद अन्याय है। लेकिन बुद्ध जहां जीते हैं, वहा भ्रमों का जगत नहीं है। संन्यासी चौबीस घंटे भ्रम तोड़ने में लगा रहता है। और भ्रम टूटते हैं, तो ही तीन गुणों के पार यात्रा शुरू होती है।

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

= १९० =


卐 सत्यराम सा 卐
*साचा समर्थ गुरु मिल्या, तिन तत्त दिया बताइ ।*
*दादू मोटा महाबली, घट घृत मथि कर खाइ ॥* 
*मथि करि दीपक कीजिये, सब घट भया प्रकाश ।*
*दादू दीवा हाथि करि, गया निरंजन पास ॥* 
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साभार ~ Hansraj Taneja via Prem Arora
ओशो : सहज योग--(प्रवचन--19)
प्रेम प्रार्थना है
मैं तो कहता हूं: जो है, इस क्षण, अभी, यहां, उसे जानो। मानने पर मेरा जोर नहीं है। क्योंकि जो भी तुम्हें मनाता है, वही तुम्हें गुलाम बना लेगा। मनाने का अर्थ है: तुम्हारे हाथ में झूठ पकड़ा देना। जो तुम्हारा अनुभव नहीं है, वह झूठ है। मेरा अनुभव मेरे लिए सत्य है। तुम्हारा अनुभव तुम्हारे लिए सत्य होगा। मेरा अनुभव तुम्हारे लिए कभी सत्य नहीं हो सकता। 
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मैंने स्वाद लिया, तुम्हें तो स्वाद नहीं आया। मैंने संगीत सुना, तुम्हारे कान तो वैसे के वैसे वंचित रहे। मैंने भोजन किया, मेरी भूख मिटी; तुम्हारी तो न मिट जायेगी। अगर मेरे भोजन करने से मेरे संन्यासी की भूख नहीं मिटती; तो मैं परमात्मा को जान लूं, इससे मेरा संन्यासी कैसे परमात्मा को जान सकेगा? जब शरीर की भूख तक नहीं मिटती, तो आत्मा की भूख कैसे मिट जायेगी?
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इसलिए स्मरण रहे कि सत्य जब भी जानने वालों के हाथ से गैर-जाननेवालों के हाथ में जाता है, उसी प्रक्रिया में झूठ हो जाता है। दूसरे का सत्य तुम्हारे लिए झूठ है। इसलिए मैं कोई धारणाएं नहीं दे रहा हूं। अगर कुछ मैं दे रहा हूं तो जागरण, होश। इसलिए मेरी धारणाओं पर बलिदान करने का तो कोई सवाल ही नहीं है, कोई प्रश्न ही नहीं है।
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त्याग और बलिदान मेरी जीवन-शैली के अंग ही नहीं हैं। मैं तुमसे कुछ भी मेरे लिए छोड़ो, ऐसा न कहता हूं न कह सकता हूं। हां, तुम्हें जो दिखाई पड़ने लगे व्यर्थ है, वह छूट जायेगा और जो सार्थक है, तुम उसे पकड़ने लगोगे। लेकिन यह घटना घटेगी तुम्हारे भीतर, तुम्हारे अंतरतम में; तुम्हीं इसके निरीक्षक, तुम्हीं इसके मालिक होओगे। मैं तुम्हारा मालिक नहीं हूं, ज्यादा-से-ज्यादा तुम्हारा संगी-साथी हूं। 
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बुद्ध ने स्वयं को कहा है, मैं कल्याण-मित्र हूं। वही मैं तुमसे कहता हूं: मैं तुम्हारा कल्याण-मित्र हूं। तुम मेरे शिष्य हो, इससे तुम यह मत समझ लेना कि मेरे भीतर कोई गुरु-भाव है। तुम जरूर मेरे शिष्य हो, क्योंकि तुम अभी तलाश कर रहे हो। लेकिन जहां तक मेरा संबंध है, मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, न तुम मेरे शिष्य हो। क्योंकि मुझे तो वह दिखाई पड़ रहा है: तुम जिसे तलाश कर रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। मेरी तरफ से तो मैं मित्र हूं, तुम्हारी तरफ से गुरु हूं। 
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तुम अज्ञानी हो। तुम अज्ञानियों की सारी धारणाएं गलत हैं। उसी में यह धारणा भी सम्मिलित है कि मैं तुम्हारा गुरु हूं, कि तुम मेरे शिष्य हो। जब दीया जलेगा, तुम्हारे भीतर रोशनी होगी, ये धारणाएं भी विदा हो जायेंगी। न तुम पाओगे कि तुम शिष्य हो, न तुम पाओगे कि मैं गुरु हूं। न रहेगा मैं, न रहेगा तू; परमात्मा ही रह जाता है--न कोई शिष्य, न कोई गुरु। और जहां दोनों खो जाते हैं, वहीं सत्य का प्रथम साक्षात्कार है।

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
*मन ही सौं मन सेविये, ज्यौं जल जलहि समाइ ।*
*आत्म चेतन प्रेम रस, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥*
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साभार ~ Hansraj Taneja via Prem Arora

ओशो : कहे होत अधीर--(प्रवचन--12)
मेरे देखे, अगर तुम परमात्मा के निकट आना चाहते हो तो सत्यनारायण की कथा तुम्हें उसके निकट नहीं लाएगी। क्योंकि तुम्हारी सत्यनारायण की कथा में न तो सत्य है और न नारायण है; वह तो पंडित—पुरोहित का व्यवसाय है। यज्ञ—हवन, आग में फेंका गया घी, गेहूं, चावल—पागलपन है, विक्षिप्तता है, अपराध है। 
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देश भूखा मरता हो और हजारों मनों का अनाज, सैकड़ों पीपे घी प्रतिवर्ष बहाया जाता है अग्नि में। तुम पागल हो ! यह धर्म नहीं है। जलानी है अपने भीतर की मशाल। और उसके जलाने का सुगमतम जो उपाय है, वह है सृजनात्मक हो जाओ। जीवन को वैसा ही मत छोड़ो जैसा तुमने पाया था।
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जीवन को कुछ सुंदर करो। उठाओ तूलिका, जीवन को थोड़े रंग दो ! उठाओ वीणा, जीवन को थोड़े स्वर दो ! पैरों में बांधो घूंघर, जीवन को थोड़ा नृत्य दो ! प्रेम दो ! प्रीति दो ! तोड़ो उदासी। जीवन को थोड़ा उत्सव से भरो ! और तुम जितने सृजनात्मक हो जाओगे उतना ही तुम पाओगे, तुम परमात्मा के करीब आने लगे। क्योंकि परमात्मा अर्थात सृजनात्मकता। उसके करीब आने का एक ही उपाय है: सृजन।
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इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि तुम्हारे पंडित—पुजारी से तो कवि, चित्रकार, मूर्तिकार, अभिनेता कहीं ज्यादा करीब होता है परमात्मा के। अभिनेता जब अभिनय में अपने को पूरी तरह डुबा देता है तो वह प्रार्थना का क्षण है। चित्रकार जब चित्र बनाने में बिलकुल लवलीन हो जाता है, तल्लीन हो जाता है, भूल ही जाता है अपने को—तब वह प्रार्थना का क्षण है। जब भी तुम सृजन की किसी क्रिया में अपने को पूरा गला देते हो, पिघला देते हो—मिट जाते हो। कवि, चित्रकार, अभिनेता, मूर्तिकार कहीं ज्यादा करीब हैं परमात्मा के—पंडित, पुरोहितों, दार्शनिकों, विचारकों से। लेकिन कवि हो, चित्रकार हो, मूर्तिकार हो, बस क्षण भर को डूबता है, फिर बाहर निकल आता है; उसकी डुबकी गहरी नहीं।
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तीन छोटे—छोटे बच्चे बात कर रहे थे। एक बच्चे ने कहा कि तैरना तो कोई मेरे पिताजी से सीखे, क्या डुबकी मारते हैं ! दूसरे ने कहा, तुम्हारे पिताजी, डुबकी ! फिर निकलते हैं या नहीं? निकल आते हैं। उसने कहा, डुबकी मेरे पिताजी मारते हैं। आधा—आधा घंटे तक पता ही नहीं चलता।
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तीसरे ने कहा, यह भी कोई डुबकी है ! मेरी पिताजी ने डुबकी सात साल पहले मारी थी, अभी तक नहीं लौटे। और मैं मां से पूछता हूं, कब लौटेंगे? मां कहती है, अब वे आने वाले नहीं, वे डुबकी मार ही गए। डुबकी इसको कहते हैं !

सोमवार, 27 नवंबर 2017

= १८८ =

卐 सत्यराम सा 卐
*कहबा सुनबा मन खुशी, करबा औरै खेल ।*
*बातों तिमिर न भाजई, दीवा बाती तेल ॥*
*दादू करबे वाले हम नहीं, कहबे को हम शूर ।*
*कहबा हम थैं निकट है, करबा हम थैं दूर ॥* 
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साभार ~ Dana Mahiya
"इतना ज्ञान, तो फिर **क्यों नहीं हैं ख़ुश** धरती पर लोग"

एक दिन यमराज और चित्रगुप्त आपस में बात कर रहे थे। अचानक से यमराज ने चित्रगुप्त से पूछा, "चित्रगुप्त, एक बात बताओ, वहाटसअप और फ़ेस्बुक पर होने वाले ज्ञान के आदान प्रदान को देखकर तो लगता है कि मनुष्यलोक में सभी लोग एकदम मज़े में होंगे और स्वर्ग का आनन्द ले रहे होंगे पर उनके चेहरों को देखकर एेसा मालूम तो नहीं पडता. क्या प्रोब्लम हो सकता है"

चित्रगुप्त हल्के से मुस्कुराये और बोले, "महाराज, कल मैंने आपको आपके पेट दर्द के लिए आयुर्वेद का एक बेहतरीन इलाज वहाटसअप पर भेजा था, वो आपको कैसा लगा?"

यमराज ने बड़े ही उत्साह के साथ तुरंत उत्तर दिया और बोले, "जरूर ही बहुत अच्छा होगा चित्रगुप्त क्योंकि मैंने तुरंत उसे मेरे सारे ग्रुप्स पर फॉरवर्ड कर दिया था. और तुरंत बहुत सारे लाइकस भी आ गए थे. और तो और, अब वही मैसेज मुझे वापस भी आने लगे हैं."

यमराज का उत्तर सुनकर चित्रगुप्त बोले, "वो तो ठीक है महाराज, - पर क्या आपने वो नुस्खा आजमाया?"

यमराज बड़े ही उदास होकर बोले - "नहीं चित्रगुप्त, मैं उस नुस्ख़े को नहीं आज़मा पाया क्योंकि मैं पूरा समय उस नुस्ख़े को सभी लोगों को फ़ॉर्वर्ड करने में व्यस्त रहा."

इसपर चित्रगुप्त ने उत्तर दिया, "तो महाराज, बस यही प्रोब्लम है. ज्ञान तो बहुत है पर जीवन मैं उतारने का समय किसी के पास नहीं। बस सब फ़ॉर्वर्ड करने में लगे रहते हैं।"

= १८७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू शब्द अनाहद हम सुन्या, नखसिख सकल शरीर ।*
*सब घट हरि हरि होत है, सहजैं ही मन थीर ॥* 
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साभार ~ Dana Mahiya
**श्रवण**
यह एक विज्ञान है, गहन विज्ञान । श्रवण रहस्यों पर ही गहन शोध हो तो अनुपम परिणाम आ सकते है । ईश्वर की कृपा से साधना भक्ति से परा भक्ति पर गहन रहस्यों का कभी कुछ शोध हो ।
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नवधा में श्रवण प्रथम है, यह रहस्य है अभी तक । सत्संग - कथा आदि पर हम जोर देते बहुत सुनते है परन्तु श्रवण है क्या ? सुनने से क्या होता है ? और कैसा श्रवण हो ? क्या श्रवण शक्ति वास्तव में कुछ अनुपम वस्तु दे सकती है ? आदि ... श्रवण के लिये आवश्यक है श्रोता । जल के लिये आवश्यक है प्यासा । 
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श्रोता कौन है, जिसमें स्वत्व का लोप हो । जो अनभिज्ञ हो । ज्ञाता तो वक्ता होगा, श्रोता नहीं । संसार में बाहरी रूप से सभी श्रोता लगते, परन्तु वास्तविक श्रोता कभी वक्ता नही हो सकता । वह पी रहा है, पिने पर तर्क वितर्क और प्रतिक्रिया भी नहीँ देगा, बस पियेगा सदा ही । कथित धार्मिक जगत में आपको वास्तविक श्रोता नहीं मिलेंगे, वहाँ सब वक्ता ही, श्रोतव्य का अभिनय । अथवा वक्ता होने हेतु ही श्रोता । श्रवण विज्ञान पर गहन शोध होने पर ही उसका महत्व निकल सकेगा ।
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बालक नेत्र से नही प्रथम शब्द से ही जगत की और आकर्षित होता । उसके भीतर शोर उतरता, उसमें धीरे धीरे हित और व्यर्थ शब्द की विभक्ति स्वतः होने लगती । जैसे बाज़ार का शोर और उस शोर में माँ की आवाज़ । नन्हा शिशु भीतर जाने वाली कौनसा शब्द मेरे हेतु है कौनसा नही इससे विचलित हो उठता है और रोता है । अवस्था होने पर हम गहन शोर में भी हमें सुनना वह सुन सकते है । जैसे विद्यालय में खेलते बालकों के बीच गहन शोर में शिक्षक वार्ता करते है और अवांछनीय श्रवण का सहज त्याग करते है, ऐसा हम सब करते हैं । 
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किसी शोर की जगह आप वॉइस रिकॉर्ड कीजिये, उसे सुनिये उसमें इतनी तरह के शोर को आप महसूस करेगें जो आपने स्वयं रिकॉर्ड के समय नहीं सुना जबकि वह ध्वनि हमारी कर्ण शक्ति के अनुरूप ही थी, यन्त्र सभी ध्वनियों को रिकॉर्ड करता है और हमारे भीतर उनका चुनाव गहरा जाता है । शहरी को यातायात का शोर प्रभावित नहीं करता, वन्य जीव या भील आदि हेतु वह कर्ण शक्ति के लिए हानिकर है । यहीं चुनाव, की जो सुनना वही सुनाई आवे श्रवण भक्ति रहस्य है । अर्थात् मूल में अनहद सुनाई आवे, या रस जगत में श्यामसुन्दर की नित्य वेणु ध्वनित हो, हमें श्यामसुन्दर की सुननी ही नहीँ अतः सुन नहीं पाते, जब सत्य से प्रीत होगी तो वही ही सुनाई आएगा जो सत्य शब्द है । 
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श्रवण की गहनता साधना की समाधि से भी गहन है । समाधि शून्य अवस्था है, श्रवण में जगत की शून्यता से वास्तविक शब्द को सुन लेना सिद्ध होगा । ऐसी गहन श्रवण शक्ति कुदरत में अनुभूत होती है जिनका लौकिक जगत में पारलौकिक सौंदर्य और रस प्रकट सा लगता है । भक्ति पथ पर चलने वाला केवल वक्ता हुआ तो वह भक्त नही भगवान ही होना चाहता है, भक्त अनुरक्त, जीव नित्य दास है, ईश्वर से अभिन्न परन्तु भक्ति में वह ईश्वर का सेवक । सेवा-सेव्य-सेवक-स्वामी सभी एक । परन्तु एकता से रस की सिद्धि नही होगी, उस हेतु सेवक ही होना होगा । 
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माँ के गर्भ में शिशु जब होता है तो वह उसे अपने में होकर भी पृथक् अनुभूत करती है, और अपने में होने पर भी उसकी सेवा भी करती है, जैसे कई महिला तब ही दूध आदि पान करती है वह गर्भवती हो यह सेवा है नन्हें शिशु की । स्वयं हेतु का भी त्याग इसमे और यही भावना गोपी जीवन का रहस्य, कुछ भी पीकर पुष्टि प्रियतम की । नवधा भक्ति का एक एक सोपान आश्रय को गाढ़ा करेगा और आत्म निवेदन स्वतः हो जाएगा । वस्तुतः सेवक होना सरल नहीँ और जो सेवक होना नही चाहे वह भक्त नही हो सकता ।
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जगत में सेवा भी आज बड़ा व्यापार, होटल आदि रूप में । वहाँ सेवा का अभिनय, वहाँ सेवा की शिक्षा-दीक्षा होती । वेटर को भोजन हेतु आने वाले से आत्मीय प्रेम नहीँ । परन्तु सेवा कला सीख वह अभिनय सुंदर करता है जिससे वहाँ बैठे व्यक्ति की सत्ता सिद्ध होती, प्रत्येक व्यक्ति राजा होना चाहता है, ईश्वर होना चाहता है अतः होटल आदि में उनकी यह भावना सिद्ध हो जाती है । वास्तविक चाकर कभी स्वामी होना चाहता ही नहीँ । होटल का वेटर भी कहीं और जाकर ऑर्डर को व्याकुल रहता है, वह वास्तविक सेवक नहीँ । 
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अतः श्रवण का पायदान ही भक्ति में पार नही हो सकता है, आज व्यवस्था बदल गई है परन्तु कुछ समय पूर्व पाठशाला में अध्यापक से जो श्रद्धा विकसित होती वह जीवन भर रहती । अब तो छात्र अध्यापक से आंतरिक क्षोभ रखते है, अगर श्रद्धा रहे अपने विद्यालय में अपने अध्यापक के प्रति तो श्रवण भक्ति का स्वभाविक अभ्यास होगा और श्रद्धा से प्रत्येक शब्द जीवन बनाने वाला सिद्ध होगा, जहाँ शिक्षक में श्रद्धा वहाँ वह आध्यात्मिक गुरु का ही दर्शन करते है । ऐसे छात्र का जीवन सदा गहरा होता है क्योंकि प्रति पल जीवन भर वह प्राप्त ज्ञान और जीवन पथ को अपने अध्यापक से प्राप्त जानता है, स्वयं के सामर्थ्य से नहीँ । अहंकार के ना होने पर जीवन दिव्य वस्तु है क्योंकि वह अपने सामर्थ को नही । अपितु कृपा की सिद्धि करती है ।
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श्रुति और स्मृति दोनों ही परम्पराएँ श्रवण आधारित रही हैं, आज शास्त्र और ग्रन्थ प्रकाशित हैं, पहले वह सन्त और गुरूजन में ही रहते और वाणी रूप प्रकट होते जिन्हें श्रवण की सिद्धि से ही सटीक ग्रहण किया जा सकता था । तब श्रवण गहरा था क्योंकि तब अगर कोई शब्द सुनने से चूक हो तो सारा श्लोकार्थ बदल जाता । अतः श्रवण ही पात्र रहा सदियों तक । आज पुस्तकें है, कोई वस्तु छुट गई पुनः - पुनः देख सकते है सो सटीकता नहीं रही, गहनता नहीं रही, मन का एक समय एक जगह होना नहीं रहा ।
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शिशुत्व में प्रत्येक जीव श्रवण से ही सीखता है । शिशुत्व की श्रवणा विकसित है, क्योंकि वह सुनकर ही सीख रहा इसलिये नन्हा शिशु चीन में जन्म ले तो सहजता से वह कठिन भाषा सीख जाता है जो विद्वानों का विषय है । श्रवण रहस्य पर आप भी चिंतन कीजिये । मेरा मानना श्रवण करना आ जावे तो ईश्वर से गहनतम और आंतरिक सम्बंध रहें । जिन्हें अपने इष्ट के अतिरिक्त अन्य कुछ सुनाई न आवें वह श्रवण भक्ति सोपान पर खड़े हैं । वहाँ नित्य भगवत् नाम ध्वनित होता है । मन्त्र सिद्धि पर स्वयं का ग्रहण मन्त्र ही नित्य भीतर सुनाई आने लगता है, यह अनन्यता से ही होगा । जिसे और भी कुछ इस समय भाने लगे तो नहीं होगा । जागृत नाम जहाँ कृपा से प्रकट हो जाता है वहाँ श्रवण शक्ति अन्य ध्वनि कैसे सुन सकती है । जो बहुत कुछ सुन ईश्वर के लिये क्या है वह चुन लेते है वह श्रवण भक्ति के उपासक हैं - साधक हैं...
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वास्तविक शरणागत, सम्पूर्णता से ईश्वर रूपी रस समुद्र में डूब गया अतः वह किस अधिकार से द्वितीय वस्तु की कल्पना भी कर सकता है । उसके कर्ण भी समर्पित और कर्ण शक्ति भी । अतः वह सर्व इंद्रिय से नित्य एक ही रस पी रहा । ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ईश्वर का भजन मन के निरोध से पूर्व असम्भव है, श्रवण कर्ण रूपी ज्ञानेन्द्रिय का भजन । सुहृद जन से सुनी बात पर सरलता से विश्वास सम्भव और उसे जीवन भर मिटाना आसान नहीँ अतः दादी आदि की बात जीवन भर पत्थर की लकीर । कोई दादी विवाह में जूते को प्रणाम करा दे तो वह भी भगवान, परम्पराओं में श्रद्धा होती है कारण ... अनुसरण । वास्तविक श्रवण होने पर अन्य लौकिक श्रवण तनिक असर नहीं करते । सर्वधर्मान् परितज्य ... !! तुम ही मुझे सुनाई आने लगो । इस पर विस्तार से वैज्ञानिक समीक्षा जीवन में कभी ... 
@सत्यजीत "तृषित"

रविवार, 26 नवंबर 2017

= १८६ =


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू इस आकार तैं, दूजा सूक्षम लोक ।*
*तातैं आगे और है, तहँ वहाँ हर्ष न शोक ॥* 
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साभार ~ oshoganga
कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते।
मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्॥
(अष्टावक्र: महागीता) 

'कहीं तो शरीर का दुख है, कहीं वाणी दुखी है और कहीं मन दुखी होता है। इसलिए तीनों को त्याग कर मैं पुरुषार्थ में, आत्मानंद में सुखपूर्वक स्थित हू।
कुत्र अपि कायस्थ खेद............।
दुख हैं शरीर के, हजार दुख हैं। शरीर में सब रोग छिपे पड़े हैं। समय पा कर कोई रोग प्रगट हो जाता है, परन्तु पड़ा तो होता ही है भीतर। सब रोग ले कर हम पैदा हुए हैं। शरीर को तो व्याधि कहा है ज्ञानियों ने। सब व्याधियों की जड़ वहां है, क्योंकि शरीर पहली व्याधि है। शरीर में होना ही व्याधि में होना है। शरीर में होना उपाधि में होना है। 
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उलझ गए फिर और उलझनें तो अपने आप आती चली जाती हैं। तो शरीर का दुख है कहीं। कहीं कोई दुखी है बीमारी से, कहीं कोई दुखी है बुढ़ापे से, कहीं कोई दुखी है कि कुरूप है। और आश्चर्य यह है कि, जो स्वस्थ हैं वे सुखी नहीं हैं। जो सुंदर हैं वे भी सुखी नहीं हैं। तो ऐसा लगता है कि शरीर के साथ सुख संभव ही नहीं है। रोगी दुखी है, समझ में आता है; परन्तु स्वस्थ क्या कर रहा है? वह भी कोई सुखी नहीं दिखायी पड़ता।
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इस जीवन में कुछ ऐसा होता है कि शरीर के साथ सुखी होना संभव ही नहीं है। शरीर के साथ सुख का कोई संबंध नहीं है। कहीं तो शरीर का दुख है, कहीं वाणी दुखी है। कोई इसलिए दुखी है कि उसके पास बुद्धि नहीं है, विचार नहीं, वाणी नहीं। और जिनके पास बुद्धि है, वाणी है, विचार है, उनसे पूछो। उनमें से अनेक आत्महत्या कर लेते हैं, पागल हो जाते हैं।
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जिनके पास वाणी नहीं है, वे गूंगे हैं। और जिनके पास वाणी है, वे विक्षिप्त हो जाते हैं। जिनके पास विचार नहीं है, वे दीन-हीन हैं, वे तड़पते हैं कि यदि, हमारे पास बुद्धि होती। जिनके पास है, वे बुद्धि का क्या करते हैं? स्वम् के लिए और उलझने खड़ी कर लेते हैं, हजार उलझनें खड़ी कर लेते हैं, चिंताओं का जाल, संताप का जाल फैला लेते हैं। जनक कहते हैं: बड़े अदभुत दुख हैं शरीर के, वाणी के, मन के, इसलिए मैं तीनों को त्याग कर, अपने में डूब कर, वहां खड़ा हो गया हूं, जहां न मैं वाणी हूं, न शरीर, न मन। उस साक्षी भाव में सुखपूर्वक स्थित हूं।

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू निबहै त्यौं चलै, धीरै धीरज मांहि ।*
*परसेगा पीव एक दिन, दादू थाके नांहि ॥* 
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साभार ~ ‎Anand Nareliya

एक राजा हुआ, उसने दूर-दूर खबर की कि जो भी धर्म श्रेष्ठ होगा उसे मैं स्वीकार करूंगा। अनेक-अनेक पंडित आए, समझाते थे कि हमारा धर्म श्रेष्ठ है, दूसरा पंडित समझाता कि हमारा धर्म श्रेष्ठ है। वे विवाद भी करते, एक-दूसरे को हराने और पराजित करने की कोशिश भी करते। लेकिन राजा के सामने कुछ सिद्ध न हो पाया कि कौन धर्म चरम धर्म है, कौन सर्वोत्कृष्ट धर्म है। और जब यही सिद्ध न हुआ तो राजा अधर्म के जीवन में जीता रहा। उसने कहा, जिस दिन सर्वश्रेष्ठ धर्म उपलब्ध हो जाएगा उस दिन मैं धर्म का अनुसरण करूंगा। जब तक सर्वश्रेष्ठ धर्म का पता ही नहीं है तो मैं कैसे जीवन को छोडूं और बदलूं ! तो जीवन तो वह अधर्म में जीता रहा, लेकिन सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में पंडितों के विवाद सुनता रहा। सभी धर्मों के लोग आए। और किसी भी धर्म का आदमी आया, उसने कहा, मेरा धर्म श्रेष्ठ है, दूसरों के नीचे हैं। राजा उनकी दलीलें सुनता; दूसरों को आमंत्रित करता, उनकी दलीलें सुनता। ऐसे जीवन बीता। जीवन तो है छोटा और दलीलें तो हैं बड़ी। तो दलीलों में तो जीवन बिलकुल बीत ही सकता है, कोई कठिनाई नहीं है।
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फिर तो राजा बूढ़ा होने लगा और घबड़ा गया कि अब क्या होगा? अधर्म का जीवन दुख देने लगा, पीड़ा लाने लगा। लेकिन जब श्रेष्ठ धर्म ही न मिले तो वह चले भी कैसे धर्म की राह पर? अंततः एक भिखारी उसके द्वार पर आया और उस भिखारी ने कहा कि मैंने सुना है कि तुम पीड़ित हो और परेशान हो। तुम्हारे चेहरे से भी दिखाई पड़ता है।
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उस राजा ने कहा, मैं सर्वश्रेष्ठ धर्म की खोज में हूं। भिखारी ने कहा, सर्वश्रेष्ठ धर्म? क्या बहुत धर्म होते हैं दुनिया में कि उसमें कोई श्रेष्ठ और अश्रेष्ठ का भी सवाल उठे? धर्म तो एक है। कोई धर्म बुरा और कोई धर्म अच्छा, यह तो होता ही नहीं, तो सर्वश्रेष्ठ का कोई सवाल नहीं। राजा बोला, लेकिन मेरे पास तो जितने लोग आए उन्होंने कहा, हमारा धर्म श्रेष्ठ है।
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उस फकीर ने कहा, जरूर उन्होंने धर्म के नाम से, मैं श्रेष्ठ हूं, यही कहा होगा। उनका अहंकार बोला होगा। धर्म तो एक है, अहंकार अनेक हैं। राजा से उसने कहा कि जब भी कोई पंथ से बोलता है या किसी धर्म से बोलता है, तो समझ लेना कि वह धर्म के पक्ष में नहीं बोल रहा, अपने पक्ष में बोल रहा है। और जहां पक्ष है, जहां पंथ है, वहां धर्म नहीं होता। धर्म तो वहीं होता है जहां व्यक्ति निष्पक्ष होता है। पक्षपाती मन में धर्म नहीं हो सकता। राजा प्रभावित हुआ। उसने कहा, तो फिर तुम मुझे बताओ मैं क्या करूं?
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उस फकीर ने कहा कि आओ नदी के पार चलें, वहां मैं बताऊंगा। वे नदी के किनारे गए। उस फकीर ने कहा कि जो सर्वश्रेष्ठ नाव हो तुम्हारे राजधानी की वह बुलाओ, तो उसमें बैठ कर उस तरफ चलें। राजा ने कहा, यह बिलकुल ठीक। राजा जाए तो सर्वश्रेष्ठ नाव आनी चाहिए। बीस-पच्चीस जो अच्छी से अच्छी नावें थीं वे बुलाई गईं। सुबह वे गए थे, दोपहर इसी में हो गई, सब नावें इकट्ठी हुईं। अब वे घाट के किनारे भूखे बैठे हुए हैं। और वह फकीर भी अजीब था, एक-एक नाव में दोष निकालने लगा कि इसमें यह खराबी है, इसमें यह दाग लगा हुआ है, यह तो आपके बैठने योग्य नहीं है। इसमें मैं कैसे बैठ सकता हूं, यह तो बहुत छोटी है।
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राजा भी थक गया, सांझ हो गई, सूरज डूबने लगा। राजा ने कहा, क्या बकवास लगा रखी है! नाव कोई भी काम दे सकती है। और अगर नाव कोई भी पसंद नहीं पड़ती तो नदी भी कोई भारी नहीं, चलो हम तैर कर ही निकल चलें। छोटी सी नदी है, अभी कभी के उस तरफ पहुंच गए होते।
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फकीर जैसे इसकी प्रतीक्षा में ही था, उसने कहा, मैं इसी की प्रतीक्षा में था। तुम्हें जीवन में यह खयाल नहीं आया कि धर्मों की प्रतीक्षा क्यों कर रहे हो, तैर कर भी निकला जा सकता है। और सच तो यह है कि धर्म की कोई नाव नहीं होती। व्यक्तिगत रूप से ही तैरना पड़ता है। धर्म की कोई नाव नहीं होती।
……….OSHO 
समाधि कमल–(प्रवचन–15)

शनिवार, 25 नवंबर 2017

= १८४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*ज्यों रसिया रस पीवतां, आपा भूलै और ।*
*यों दादू रह गया एक रस, पीवत पीवत ठौर ॥*
*जहँ सेवक तहँ साहिब बैठा, सेवक सेवा मांहि ।*
*दादू सांई सब करै, कोई जानै नांहि ॥* 
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य

“प्रपत्ति”
‘नमामि भक्तमाल को’
श्रीकृष्णदासजी ~
ये सुनार जाति के थे. इनका मन भगवान श्री राधाकृष्ण की सेवा में ही लगता था. इनकी सेवा की रीति भी अनोखी थी. ये नृत्य और गान के माध्यम से प्रभु को रिझाते थे. जब ये आनंदमग्न होकर नृत्य करते तो इन्हें अपने शरीर की सुध नहीं रहती थी. भगवान भी इनके नृत्य-गान से बहुत आनंदित होते थे.
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एक बार की बात है कि नृत्य करते हुए इनके एक पैर का नूपुर खुलकर गिर गया. ये नृत्य में इतने मग्न थे कि इनको इस बात का पता ही नहीं चला. घुँघुरू के बिना ताल बिगड़ने लगा. हमारे नंदनंदन से रहा नहीं गया. श्रीलालजी ने अपने श्री चरणों से दिव्य नूपुर खोलकर कृष्णदास जी के पैरों में बाँध दिया – ‘नंद्कुंवर कृष्णदास कों निज पग तें नूपुर दियो.’ अब तालपर घुंघरू का बजना सुनकर श्रीठाकुर जी बहुत प्रसन्न हुए. जब इनका नृत्य पूर्ण हुआ और इन्हें होश आया तब इन्होंने देखा कि इनके एक पैर का नूपुर तो अलग पड़ा है और उस पैर में दिव्य नूपुर बंधा है. श्री भगवान की कृपालुता को देखकर इनके आँखों से आँसू बहने लगे.
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लोग पूछते हैं कि ‘भक्ति कैसे करें ?’ अरे भाई ! जो काम आपको सबसे अच्छा आता हो उसी से भगवान की सेवा करना शुरू कर दो, उसी से प्रभु को रिझाना शुरू कर दो. संसार खीजने को बैठा है तो श्री ठाकुर जी रीझने को बैठे हैं. संसार में आप किसी के लिये कितना भी कर लो, आपकी छोटी सी गलती पर वो आपसे तुरंत रूठ जायेगा. हमारे ठाकुर जी के सामने आप लाख गलतियाँ कर लो, वो आपके द्वारा एक बढ़िया काम होने पर तुरंत रीझ जायेंगे. हमारे ठाकुर को तो रीझने का मौका चाहिए. हमें कुछ नया नहीं करना है, जो कर रहे हैं वो यह सोचकर करें कि इससे ठाकुर जी प्रसन्न हों तो वह ज़रूर प्रसन्न होंगे.
“स्वामी सौमित्राचार्य”