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बुधवार, 30 अप्रैल 2025

*साँच चाणक का अंग १४*

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*कहबा सुनबा मन खुशी, करबा औरै खेल ।*
*बातों तिमिर न भाजई, दीवा बाती तेल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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*श्री रज्जबवाणी सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*साँच चाणक का अंग १४*
साखी कही सु कहा कहैं आखि१,
कहै जु श्लोक सु लोक न पायो । 
जोरे२ कवित्त न वित्त जुर्यो तत्व, 
गीत गयें३ गति४ मांहि न आयो ॥
गाथा सु ग्रंथ ग्रथ्यो नहिं गोविन्द,
पाठ पदौं पद में न समायो । 
हो रज्जब राम रटे बिन बाद५, 
सँवारि६ सवैये सु ह्वै न सवायो७ ॥१५॥
जिनने साखी बना कर कही है सो साखी क्या उनकी साक्षी१ देंगी ? जिनने श्लोक बनाकर कहे हैं उनने भी प्रभु लोक नहीं पाया है । 
कवित्त जोड़ने२ से तत्त्व ज्ञान रूप धन नहीं जुड़ता । गीत गाने३ से मुक्ति४ की अवस्था में नहीं आता । 
गाथा तो ग्रथित की किंतु गोविन्द से मन को नहीं गूंथा तब क्या है ? पदों का पाठ रचने से प्रभु पद में नहीं समाता है । 
राम नाम के चिंतन बिना व्यर्थ५ सवैये बनाकर६ कोई श्रेष्ठ७ नहीं होता । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

*साँच चाणक का अंग १४*

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*दादू जे जे चित बसै, सोई सोई आवै चीति ।*
*बाहर भीतर देखिये, जाही सेती प्रीति ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)*
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*श्री रज्जबवाणी सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*साँच चाणक का अंग १४*
कहै कछु और गहै कछु ओर,
लहैगो सोई जा मे चित्त समायो१ ।
कहै मुख राम गहै कर चाम हो,
माली ने अंत में चरस२ हि पायो ॥
जर्यो सब ग्राम उठे गृह ठाम३ हो,
बात कहै कछु नाहिं सिरायो४ ।
पेट की पाहि५ जगावत गोरख,
रज्जब जोगी को टूक६ हि आयो ॥१४॥
कहता कुछ और है, ग्रहण कुछ और करता है किंतु प्राप्त तो उसी को करेगा जिसमे चित्त लगा१ है ।
माली कूप चलाते समय मुख से राम कहता है और हाथ मे चर्म की लाव पकड़ता है वा चर्म की पतली रस्सी जिसमे भौंण शनै: चलता है, पकड़ता है । मन में चड़स पकड़ने की बात रहती है, तब अंत में उसे चड़स ही मिलता है ।
सब ग्राम जल गया है, घर आदि स्थान३ उठ गये हैं, ऐसी बात कहने से कुछ भी नाश४ नहीं होता है ।
पेट की पूर्ति की इच्छा५ से गोरख जगाता है उस योगी के लिये टुकड़ा६ ही आता है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 2 अप्रैल 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
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कहनी१ रहनी२ बिन काम न आव ही,
अंध क्यो दीप ले कूप टरेगो ।
नर तैं सुन नाम लियो शुक सारो३ ने,
तो व४ कहा कछु काम जरेगो५ ॥
विद्या धन्वंतरी की सीखी जु बादि ने
मूये को विष न कोई हरेगो ।
साधु सु शब्द असाधु ने सीखे हो,
रज्जब यूं नहिं काम सरेगो६ ॥१३॥
कहने१ के समान रहे२ बिना कहना कुछ भी काम नहीं आता, अंधा हाथ में दीपक लेकर कूप से कैसे बच सकता है ?
मनुष्य से काम प्रीति के शब्द सुनकर शुक पक्षी तथा मैना३ पक्षी वे ही शब्द रूप नाम उच्चारण करे तो वे४ क्या कुछ काम से जलेंगे५ ?
कोई वादी धन्वंतरी की विद्या सीख ले तो तो क्या ? मुरदे का विष तो नहीं हर सकता ।
ऐसे साधु के सुन्दर शब्द असाधु ने सीख लिये तो क्या ? ऐसे मुक्ति रूप कार्य तो सिद्ध३ नहीं हो सकता ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 21 मार्च 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*दादू पद जोड़े का पाइये, साखी कहे का होइ ।*
*सत्य शिरोमणि सांइयां, तत्त न चीन्हा सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
का पद साखि कवित्त के जोरे१ जे,
काया की सौंज२ जु जोरी३ न जाई ।
रसना रस नैन निरखि दश हूं दिशि,
नासिका दास गई लपटाई ॥
इन्द्री अनंग४ सुने श्रवणा गये,
मांहि गये मन शुद्ध न पाई ।
हो रज्जब बात बहु विधि जोरी५ पै,
आतम राम न जोरी रे भाई ॥१२॥
यदि शरीर की सामग्री२ परमार्थ में नहीं लगाई३ तो पद, साखी कवित्त आदि को जोड़ने१ से क्या लाभ है ?
रसना रस में लगी है, नेत्र सांसारिक सौंन्दर्य को देखने दशों दिशाओं जाते हैं । नासिक सुगन्ध में लिपट रही है ।
इन्द्री काम परायण हो रही है । सांसारिक शब्द सुनने के लिये श्रवण तत्पर हैं । भीतर जाने पर मन शुद्ध नहीं मिलता है ।
बातें बहुत प्रकार को जोड़ली हैं परन्तु आत्मा को राम से नहीं जोड़ा तब क्या है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 17 मार्च 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*दादू माया कारण मूंड मुंडाया, यहु तौ योग न होई ।*
*पारब्रह्म सूं परिचय नांहीं, कपट न सीझै कोई ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
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चाल ले चोर की बोलिबो साधु को, 
ऐसे न साधु को बोलि विकायगो । 
हंस की बोली सु सीखी जु काग ने, 
तो व कहा कछु हंस कहायगो ॥
पोथी को पानो लह्यो जड़ पंथि ने, 
तो सब शास्त्र क्यों शोध१ में आयगो । 
पक्षी को पंख धर्यो नर के शिर, 
रज्जब सो न आकाश को जायगो ॥११॥
यदि काक पक्षी भांति भांति हंस की बोली सीख ले तो क्या वह कुछ हंस कहा जायेगा ? 
मूर्ख पथिक ने मार्ग में चलते समय पुस्तक का पाना हाथ में ले लिया तो क्या उसके विचार१ में सब शास्त्र आ जायेगा ? 
मनुष्य के शिर पक्षी का पंख धर दिया जाय तो भी वह उड़कर आकाश में नहीं जा सकता । 
वैसे ही जिसका बोलना साधु का सा और व्यवहार चोर का सा हो तो ऐसा नर के वचन साधु के समान नहीं बिक सकते अर्थात आदर नहीं पाते । 
(क्रमशः) 

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*दादू श्रोता घर नहीं, वक्ता बकै सु बादि ।*
*वक्ता श्रोता एक रस, कथा कहावै आदि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
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दशा१ करि हीन दिवानों२ बकै कछु,
सो ही कहा कछु कान धरेगो ।
थोथे३ से बाण चलावे बिना बल,
ऐसे व४ गैंडा हो क्यों ही मरेगो ॥
तुपक५ सु पूरि पलितो६ न पावक,
फूंक के फूंके का७ फोर८ करेगो ।
बूंटी न वैद्य टटोरत९ पाटी हो,
रज्जब कैसे व१० पीर हरेगो ॥१०॥
पोले३ बाणों को बिना बल ही चलाता रहे तो ऐसा वह४ दृढ गैंडा कैसे मरेगा ?
बन्दूक५ तो भर ली है किंतु अग्नि से युक्ति बत्ती६ न लगाये और फूंक से फूंके तब वह लक्ष्य को तोड़ेगा८ क्या७ ?
न तो औषधी है और न वैद्य है केवल घाव की पट्टी पर अंगुलायाँ घुमाता९ है तब वह१० अपनी पीड़ा कैसे हटा सकता है ?
वैसे ही कथन के समान अवस्था१ से रहित पागल२ की जैसे कुछ बकता है तो क्या उसे कोई कुछ कान लगा कर हृदय में धारण करेगा ? अर्थात कथन के समान करने वाले का ही उपयोग श्रोत धारण करता है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

साँच चाणक को अंग १४

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*दादू कहि कहि मेरी जीभ रही, सुनि सुनि तेरे कान ।*
*सतगुरु बपुरा क्या करै, जो चेला मूढ़ अजान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक को अंग १४
शब्द की चोभ१ रहै न अचेत२,
कोटि सुने कछु हाथ न आवै ।
भुवंग३ अनैक थलै४ विल पैसे५ सु,
पीछे न आगे सु खोज लखावै ॥
मीन अपार चलैं जल मांहिं पै६,
शोधे न संधि कहीं कोई पावै ।
पक्षी अनन्त उड़ैं बहु वायु में,
रज्जब पवन सु फाटि न जावै ॥९॥
भूमि४ के बिलों में अनेक सर्प३ प्रवेश५ करते हैं, किंतु फिर आगे उनके खोज नहीं दिखाई देते हैं ।
अपार मच्छी जल में चलती है परन्तु६ खोजने पर भी उनके जाने की संधी कोई भी कहीं नहीं मिलती है ।
बहुत प्रकार के अनन्त पक्षी वायु में उड़ते हैं किंतु उनसे वायु फटता हुआ नहीं दिखाई देता है ।
वैसे ही मूर्ख२ प्राणी के हृदय रूप शुष्क भूमी में शब्द रूप पौध१ नहीं रहती है । मूर्ख चाहे कोटि प्रकार से सुनता रहे किंतु उसके कुछ भी हाथ नहीं लगता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

साँच चाणक को अंग १४

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*कामधेनु घट घीव है, दिन दिन दुर्बल होइ ।*
*गौरू ज्ञान न ऊपजै, मथि नहिं खाया सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक को अंग १४
तेल को कूंपो न तेल सौं कोमल,
नीकी नरम्म ह्वै और अधौरी ।
गाय के दूध महाबलि बाछरो,
गाय गई अपने बल बौरी ॥
मणि सौं विष और मनुष्य को उतरे,
सर्प समीप सदा इक ठौरी ।
हो रज्जब सु:ख सदा श्रोता वक्ता के,
विनाश कदे नहिं त्यौरी ॥८॥
तेल का कुप्पा(ऊंट की चर्म से बना पात्र) तेल से कोमल नहीं होता किंतु दूसरी चर्म१ भली प्रकार कोमल हो जाती है ।
गाय के दूध से उसका बछड़ा महाबली हो जाता है किंतु गाय अपने बल को खो देती है अर्थात कमजोर हो जाती है ।
सर्प की मणि से अन्य मनुष्य का सर्प विष उतर जाता है किंतु सर्प के पास वह सदा रहती है और विष तथा मणि एक ही स्थान पर रहत है किंतु सर्प विष नष्ट नहीं होता ।
वैसे ही सज्जनों ! श्रोता को तो सुनने में सदा सुख होता है किंतु वक्ता की वह ज्ञान दृष्टि वक्ता के दु:ख को कभी नष्ट नहीं करती है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*कोटि वर्ष लौं राखिये, बंसा चन्दन पास ।*
*दादू गुण लिये रहै, कदे न लागै बास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निगुणा का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
सुध बुध को काम सरै१ सत संगति,
खेचर२ रिंद३ कदे४ नहिं सीझे५ ।
नागर निम्ब को दूध सौं पोखिये६,
देख हु जाति स्वभाव न छीजे७ ॥
क्षार समुद्र न होय सुधा रस,
पाहन८ पानी हो९ मांहि न भीजे ।
कोयला कुटिल करै कुन१० उज्वल,
रज्जब रंग क्यों शंख हि दीजे ॥७॥
शुद्ध बुद्धि वाले का कार्य सत्संग में सिद्ध१ हो जाता है किंतु स्वच्छंद३ प्रेतरूपी२ दंभी का कार्य कभी४ नहीं सिद्ध५ होता ।
देखो, नागर बेलि और नीम को दूध सींच कर पाला६ जाय तो भी उनका जाति स्वभाव क्षीण७ नहीं होता । न तो नागर बेलि फल देती है और न नीम मीठा होता है ।
क्षार समुद्र अमृत रस नहीं हो सकता और हे९ सज्जनों ! न पत्थर८ ही पानी में भीगता है ।
कोयला को कौन१० उज्वल कर सकता है ? शंख में रंग कैसे दिया जाय ? वैसे ही कुटिल प्राणी न तो पवित्र होता है और न उसमें भक्ति का रंग ही लगता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*पीव न पावै बावरी, रचि रचि करै श्रृंगार ।*
*दादू फिर फिर जगत सूं, करैगी व्यभिचार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक को अंग १४
जग त्रय१ को जोग चले जग मारग,
तासौं खलक्क२ खुशी किन३ होई ।
संसार के सेरे४ सबै लिये स्वामी जु,
काहे को रोष करै कहु५ कोई ॥
तिहिं मधि६ पाग७ मुदित्त जु मेदनी८,
मांड९ मते१० मनसा११ जु मिलोई१२ ।
हो रज्जब प्राण पुलै१३ पृथ्वी पंथि१४,
प्रीति प्रजा परलोक सौं खोई ॥६॥
तीनों१ लोक रूप जगत् के भोगों को प्राप्त करने का योग जगत के मार्ग से ही चलता है अर्थात होता है । तब उस से सांसारिक२ प्राणी प्रसन्न क्यों नहीं३ होंगे ?
संसार के भोगों को प्राप्त करने के सभी मार्ग४ साधु ने अपना लिये हैं, तब कहो५ उस पर कोई क्यों रोष करेगा ?
उसी मार्ग६ में अनुरक्त७ होकर तो पृथ्वी८ के प्राणी प्रसन्न हैं और साधु ने भी संसार९ के मत१० में ही अपनी बुद्धि११ मिलादी१२ है ।
हे सज्जनों ! पृथ्वी में प्राणी के लिये सेतु१३ रूप जो प्रभु प्रीति थी उसको इस भेषधारी पथिक१४ ने प्रभु प्राप्ति रूप परलोक से खोदी अर्थात प्रभु में प्रेम कर के लोगों को प्रभु प्रेम की शिक्षा नहीं दी ।
(क्रमशः)

बुधवार, 29 जनवरी 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*दादू यह परिख सराफी ऊपली,*
*भीतर की यहु नाहिं ।*
*अन्तर की जानैं नहीं, तातैं खोटा खाहिं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
रोग के जोग सौ लोग रिझाये हो,
हीज१ सौं फेरि इन्द्री जित कीन्हो ।
घने२ घन३ घाम४ सहे बिन धाम,
जगत्त५ सुनाय कहैं तप खीनों६ ॥
अभाग्य की चूर७ गये सुख दूर,
कहै कछु जानि देही दुख दीन्हों ।
हो रज्जब दु:ख दशा८ में बनाय,
कहीं को प्रसंग कहीं करि लीन्हों ॥५॥
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रोग के योग से लोगों को प्रसन्न किया है । हिजड़ा१ होने से अपने को इन्द्रियजीत बना लिया है ।
बिना घर के बहुत२ दिन बादल३ वर्षा तथा सुर्य की आतप४ को सहन किया है और जगत५ के प्राणियों को सुनाकर कहता है तपस्या से शरीर क्षीण६ हो गया है ।
जीवन अभाग्य मय७ होने से सुख दूर चले गये हैं और कहता है कुछ जान बूझ कर ही देह को दु:ख दिया है ।
दु:ख को संतों की अवस्था८ में बना कर अर्थात दु:ख के कारण संतो के समान रह कर कहीं का प्रंसग कहीं कर लिया है अर्थात रोग की बात योग में ले आया है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।*
*दादू भेष अनन्त हैं, लाग रह्या सो एक ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
निर्गुण१ रूप दिखाय दुनी२ कहुं,
देख हु लोग ठगे ठग सारे
कोपी३ रु टोपी गरै४ गर५ गूदर६,
मानो डकोत७ बजार उतारे८ ॥
जैसी जुगत्त९ जगत्त१० खुशी सब,
तैसी वसूल११ के स्वांग सँवारे ।
हो रज्जब दास दुनी के भये उर,
बाने१२ किराने१३ के बेचनहारे ॥४॥
सांसारिक२ प्राणियों को गुणातीत१ का सा रूप दिखा कर देखो इन ठगों ने सब लोगों को ठग लिया है ।
कौपीन३ और टोपी लगाकर तथा गले४ में गली५ हुई गुदड़ी६ डाल कर मानों डाकेतों७ के बाजार मंद८ कर दिया हो अर्थात डाकोत धर्मादा से प्राप्ति वस्तुओं को मंदी में बेचते हैं, वैसे ही भेष का भाव उतार दिया है, बिना अधिकार सब को देते हैं ।
जैसी युक्ति९ से जगत्१० के प्राणी प्रसन्न होते हैं, वैसी ही स्थिति प्राप्त११ करने के लिये सब भेष बनाते हैं ।
हे सज्जनों ! वे लोग हृदय में दुनिया के दास बनकर भेष१२ रूप मेवा मसालादि१३ किराने को बेचने वाले हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 5 जनवरी 2025

साँच चाणक का अंग १४

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*तूं मेरा, हूं तेरा, गुरु सिष किया मंत ।*
*दोन्यों भूले जात हैं, दादू बिसर्या कंत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
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साँच चाणक का अंग १४
निराश निरूप१ करै निशि वासर,
दास की आश के धामन आवै ।
सेवक सेव रचैं२ तहां बैठि जु,
विरक्त बात अनेक चलावै ॥
गाँव द्वै चरि में चित्त अटक्यो हो,
चील्ह की नाईं तहाँ मँडलावै३ ।
हो रज्जब और की और कहै कछु,
आपन दु:ख दशा४ में दिखावे ॥३॥
रात्रि दिन निराशता का निरूपण१ कहता है और अपने सेवकों की आशा लेकर उनके घरों में जाता है । 
जहां सेवक सेवा करते२ हैं, वहां बैठकर विरक्त अनेक बात चलाता है ।
जिनमें अपने सेवक होते हैं उन दो चार गांवों मन अटका रहता है और जैसे चील्ह पक्षी मृतक पशु पर चक्कर३ लगाता है, वैसे ही उन गांवों में धूमता रहता है । 
सेवकों के पास बैठकर कुछ की कुछ बातें कहता है और अपना जो कुछ दु:ख होता है, वह उन बातों के समय४ में ही सबको बता देता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

*श्री रज्जबवाणी, साँच चाणक का अंग १४*

 
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*दादू पद जोड़ै साखी कहै, विषय न छाड़ै जीव ।*
*पानी घालि बिलोइये तो, क्यों करि निकसै घीव ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
निराश रहै अरु नगरन१ सौं हित२,
देखि महंतन माया जु त्यागी ।
टोपी रु कोपी३ की नहिं कछु मन,
प्रीति प्रचंड बजाज हुं लागी ॥
अतिगति४ ध्यान धनाढ्य सौ कीजिये,
लोग सुनाय न कोडी हु मांगी ।
हो रज्जब रिंद५ कपट्ट छिपावत,
साधन को सब दीसत नागी६ ॥२॥
देखो, इन माया त्यागी महंतों को, ऊपर से तो निराश का दंभ करते हैं और हृदय में शहरों१ से प्रेम२ करते हैं ।
टोपी और कौपीन३ लेने की मन मन में कुछ भी इच्छा नहीं है फिर भी बजाजों से तीव्र प्रीति करते हैं ।
धनाढ्यों का अत्याधिक४ ध्यान करते हैं और लोग सुनाते हैं कि उन्होंने एक कौड़ी भी नहीं मांगी ।
हे सज्जनों ! ये स्वच्छंद५ लोग अपने कपट को छिपाते हैं किंतु सच्चे संतों को तो इनकी ये बातें सार६-हीन ही भासती हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 30 दिसंबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, साँच चाणक का अंग १४*

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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
विरक्त रूप धर्यो वपु बाहर,
भीतर भूख अनन्त विराजी१ ।
ऊपरि सौं पनहि२ पुनि त्यागी जु,
मांहि तृष्णा तिहिं लोक की साजी७ ॥
कपट कला करि लोक रिझायो हो,
रोटी को ठौर करी देखी ताजी३ ।
हो रज्जब रूप रच्यो ठग को जिय४,
साधु लखै सब लाखी५ रु पाजी६ ॥१॥
सत्य और चुभने वाली बातें कह रहे हैं - बाहर से तो विरक्त का रूप धारण कर रखा है और भीतर अनन्त भूख बैठी१ है ।
ऊपर से तो जूता२ त्याग कर तथा पैसा त्याग कर त्यागीजी बना है किंतु हृदय में तीनों लोकों की भोगों की तृष्णा सजा७ रखी है ।
देखो, ऐसे त्यागी कपट रूप कला से लोकों को प्रसन्न करके रोटी के लिये नवीन३ स्थान तैयार कर लेते हैं ।
हे सज्जनों ! हृदय४ में तो ठग का रूप बना रखा है, किंतु बाहर से सब लोग साधु देखते हैं और होता है वह अत्याधिक५ दुष्ट६ ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, साक्षी भूत का अंग १३*

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*दादू राजस कर उत्पत्ति करै,*
*सात्विक कर प्रतिपाल ।*
*तामस कर परलै करै, निर्गुण कौतिकहार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साक्षी भूत का अंग १३
श्वान शिला सरिता संग सोई जु,
शूकर सिंह सु सींग लखावै ।
देवल१ स्थंभ रु मूरति के मधि,
छान छबीलो सु संत की छावै ॥
गौरी२ रु गौर३ गयंद४ में गोविन्द,
सेवक संत कहां कहां धावै ।
हो रज्जब राम रह्यो रम सारे में,
रूप हि छाडि अरूप हि पावै ॥२॥६८
वे ही श्वान होकर नामदेव की रोटी खाने आते हैं । वे ही शिला से हाथ निकालकर नामदेव को मार्ग बताते हैं । वे ही नामदेव की इच्छा से नदी में सह्त्र शय्या दिखाते हैं । वे ही सेवक के साथ हैं, वे शूकर बन कर पृथ्वी का उद्धार करते हैं । नरसिंह होकर प्रहलाद की रक्षा करते हैं । वे ही श्रृंगार युक्त मच्छ बनकर मनु और सप्त ॠषियों को दिखाई देते हैं ।
वे ही नामदेव और भीखजन के लिये मंदिर१ फिराते हैं । वे ही प्रहलाद के लिये स्तंभ से प्रकट होते हैं । वे ही मूर्ति के मध्य स्थित होकर नामदेव का दूध पीते हैं । वे ही छबीले संत नामदेव की छान छाते हैं ।
वे ही नारी२ होकर भस्मासुर से महादेव की रक्षा करते हैं । और वे ही विचार३ पूर्वक हाथी४ में स्थित होकर दादूजी की रक्षा करते हैं । वे ही गोविंद संतों के सेवक बन कर उनकी सेवा के लिये कहां से कहां अर्थात अति दूर दौड़ जाते हैं तथा …
वे साक्षी राम सब में ही रम रहे हैं । किंतु रूप को छोड़ने से ही वे अरूप प्रभु प्राप्त होते हैं अर्थात देहाध्यास छोड़ने से ही मिलते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 23 दिसंबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, साक्षी भूत का अंग १३*

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*देवै लेवै सब करै, जिन सिरजे सब कोइ ।*
*दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साक्षी भूत का अंग १३
लोक लिये रु लिपे नहिं लोकनि,
प्राण को प्राण रु प्राणन न्यारो ।
ज्यों जल जीवन मीन जलच्चर,
नीर न सीर१ रु सैन२ सहारो३ ॥
मारुत मै४ वपु बैन रु बादर,
वायु विरचि५ रही रु अधारो ।
सूर सु दूरि रु नैनन नीरो६ हो,
रज्जब येहो७ विवेक विचारो ॥१॥
साक्षी स्वरूप संबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
जैसे मच्छी आदि जलचरों का जीव जल ही है किंतु जलचरों से कोई साझा१ नहीं है, संकेत२ के समान जलचरों३ का आश्रय है ।
शरीर, वचन और बादल ये वायु-मय४ ही हैं किंतु वायु इनसे अलग५ भी हो रहा है और इनका आधार भी है ।
सूर्य दूर भी है और नेत्रों के समीप६ भी है । ऐसा७ ही विवेक विचार साक्षी स्वरूप ब्रह्म का है ।
वह संपूर्ण लोकों को धारण करता है किंतु लोकों से लिपायमान नहीं होता । प्राणों का प्राण है फिर भी प्राणों से अलग ही है ।
(क्रमशः)

रविवार, 15 दिसंबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, पीव पहचान का अंग १२*

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*दादू अपणी अपणी हद में, सब कोई लेवे नाउँ ।*
*जे लागे बेहद सौं, तिन की मैं बलि जाउँ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*पीव पहचान का अंग १२*

कहै सब हद्द१ गहैं सब हद्द,
बेहद्द२ नहीं अनुमान में आवै ।
गुडी३ को उड़ान डोरी के प्रमाण हो,
चक्री हूं डोरी के वोर४ ह्वै आवै ॥
तीरको जान५ जहां लग पान६ जु,
गैंद को गौन७ पैंडे दश पावै ।
तरंग की चाल जहां लग पाल८ हो,
रज्जब डागुल९ दौर का धावै ॥२॥
पतंग३ का उड्डान डोरी के माप जितना ही होता है । चक्री भी डोरी के छोर४ के समान ही आगे आती है ।
बाण का जाना५ भी जहां तक उसमें बल६ होता है वहां तक ही होता है । गेंद का गमन७ भी दश पैंड तक हो पाता है ।
जल तरंग भी चाल भी बांध८ तक ही होती है । छत९ का दौड़ना भी छत तक का ही होता है । आगे क्या दौड़ेगा ?
वैसे ही सांसारिक प्राणी सीमा१ की ही बात कहते हैं । असीम२ प्रभु इनके अनुमान में नहीं आते ।
(क्रमशः)

शनिवार, 30 नवंबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, पीव पहचान का अंग १२*

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*दादू माया मगन जु हो रहे, हमसे जीव अपार ।*
*माया माहीं ले रही, डूबे काली धार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*पीव पहचान का अंग १२*
धरे१ ही को ज्ञान धरे ही को ध्यान,
धरे ही के गीत घरे२ घर गावै ।
धरे को विवेक धरे को विचार,
धरे ही को नाम बड़ो कै३ दिखावैं५ ॥
धरे ही की बात धरे ही की चिंत,
धरे की घात४ अनेक मिलावैं ।
धरे ही सौं लेन ही सौं देन,
हो रज्जब राम धर्यो ही बतावैं ॥१॥
प्रभु पहचान सबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
सांसारिक प्राणियों को माया१ का ही ज्ञान है । माया का ही ध्यान करते हैं और घर२ घर में माया का ही गीत गाते हैं ।
माया का ही विवेक है । माया का ही विचार करते हैं । माया के ही नाम को बड़ा कहते३ हैं और माया को ही महान बताते५ हैं ।
माया की ही बात करते हैं माया की ही चिंता करते हैं । माया की प्राप्ति के लिये अनेक युक्तियों४ का मिलान करते हैं ।
माया के संबन्ध से ही लेते हैं और माया के संबन्ध से ही देते हैं तथा माया को ही राम बताते हैं किंतु तो माया से परे ही हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 13 नवंबर 2024

*श्री रज्जबवाणी, भजन प्रताप का अंग ११*

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*फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख मांहि ।*
*सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगै नांहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*अथ भजन प्रताप का अंग ११*
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केले को नाश भयो फल लागत,
कागज नाश भयो फल पाये ।
पाप को नाश भयो पुण्य ऊगत,
बीछिनि नाश भयो सुत जाये ॥
फूल को नाश भयो फल आवत,
रैन को नाश भयो दिन आये ।
हो तैसे ही नाश भये जन रज्जब,
जामन मरन जगतपति ध्याये१ ॥१॥
भगवद् भजन का प्रताप दिखा रहे हैं -
फल लगने पर केले को काट दिया जाता है, इससे वह नष्ट हो जाता है । कागज में लिखित कार्य पूरा हो जाना रूप फल प्राप्त होने पर कागज फाड़ दिया जाता है, इससे वह नष्ट हो जाता है ।
पुण्य उदय होने पर पाप नष्ट हो जाता है । बीछिनि की संतान उसका पेट फाड़ कर जन्मती है इससे से वो नष्ट हो जाती है ।
फल आते ही फूल नष्ट हो जाता है । दिन के आते ही रात्रि नष्ट हो जाती है ।
हे सज्जनो ! वैसे ही जगतपति प्रभु का स्मरण करने से जन्म मरण नष्ट हो जाते हैं ।
(क्रमशः)