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卐 सत्यराम सा 卐
*सब अंग सब ही ठौर सब, सर्वंगी सब सार ।*
*कहै गहै देखै सुनै, दादू सब दीदार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*पीव पिछाण का अंग ४७*
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स्वयं सिद्ध तत्त्व पंच हैं, ब्रह्म बिना ब्रह्मंड ।
तो रज्जब यहु को करे, बंध मुक्त जिव पिंड ॥९७॥
यदि ब्रह्म बिना ही पंच तत्त्वमय ब्रह्मांड अपने आप ही होता है, तब यह जीव शरीर में बद्ध है और यह मुक्त है यह बद्ध-मुक्त करने वाला कौन है ? वह ब्रह्म ही तो है, वही उपास्य है ।
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नीचौ नीचा है धणी, ऊंचौ ऊंचा सोय ।
जन रज्जब बिच सब धर्या, उस बाहर नहिं कोय ॥९८॥
वह विश्व का स्वामी ब्रह्म व्यापक होने से नीचे रसातलादि से भी नीचा है और सत्य लोकादि से भी ऊंचा है, सभी ब्रह्मांड उसके मध्य रखा हुआ है उसके बाहर कुछ भी नहीं है ।
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सर्वंगी सब गुण लिये, अन अंग अंग अनेक ।
जन रज्जब जीवहु रच्या, अपने काज न एक ॥९९॥
संसार के व्यक्ति-वस्तु आदि सब उस ब्रह्म के अंग उपांग है इसलिये उसके विराट् रूप को सर्वंगी कहते हैं, वह वास्तव में तो शरीर रहित हैं फिर भी उसके सगुण रूप अनेक शरीर हैं । उसने जो कुछ रचा है वह सब जीव के उपकारार्थ ही रचा है अपने लिये एक वस्तु भी नहीं रची है, वह पूर्णकाम है ।
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सोवन१ मृग वन में रच्या, तो क्यों मारण जाँहिं ।
तेते२ में सीता हरी, खबर नहीं यहु माँहिं ॥१००॥
यदि सगुण अवतार ही विश्व का रचियता है तो राम ने वन में सुवर्ण१ के रंग का मृग रचा था, तो फिर उसे मारने क्यों गये, फिर उतने२ में ही उधर सीता हरी गई तब भी उनको अपने भीतर पता नहीं लगा कि रावण हर ले गया है, इससे ज्ञात होता है कि सगुण अवतार सृष्टि रचियता नहीं होते ।
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सीता शील सुला१ किया, दिब२ दे आनी जब्ब ।
रज्जब जानी राम की, सकलाई३ सब सब्ब ॥१०१॥
जब सीता के शील व्रत के दोष१ का अन्वेषण किया और उसे दिव्य२-अग्नि परीक्षा द्वारा अपनाई तब ही राम की सब शक्ति३ जानी गई थी, उन्होंने अपनी सर्वज्ञता का परिचय न देकर अपनी कमी ही बताई थी, अत: सगुण अवतार ब्रह्म नहीं निर्गुण ही ब्रह्म है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित पीव पिछाण का अंग ४७ समाप्त । सा. १६८७॥
(क्रमशः)