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बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(९७/१०१) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*सब अंग सब ही ठौर सब, सर्वंगी सब सार ।*
*कहै गहै देखै सुनै, दादू सब दीदार ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
स्वयं सिद्ध तत्त्व पंच हैं, ब्रह्म बिना ब्रह्मंड । 
तो रज्जब यहु को करे, बंध मुक्त जिव पिंड ॥९७॥ 
यदि ब्रह्म बिना ही पंच तत्त्वमय ब्रह्मांड अपने आप ही होता है, तब यह जीव शरीर में बद्ध है और यह मुक्त है यह बद्ध-मुक्त करने वाला कौन है ? वह ब्रह्म ही तो है, वही उपास्य है । 
नीचौ नीचा है धणी, ऊंचौ ऊंचा सोय । 
जन रज्जब बिच सब धर्या, उस बाहर नहिं कोय ॥९८॥ 
वह विश्व का स्वामी ब्रह्म व्यापक होने से नीचे रसातलादि से भी नीचा है और सत्य लोकादि से भी ऊंचा है, सभी ब्रह्मांड उसके मध्य रखा हुआ है उसके बाहर कुछ भी नहीं है । 
सर्वंगी सब गुण लिये, अन अंग अंग अनेक । 
जन रज्जब जीवहु रच्या, अपने काज न एक ॥९९॥ 
संसार के व्यक्ति-वस्तु आदि सब उस ब्रह्म के अंग उपांग है इसलिये उसके विराट् रूप को सर्वंगी कहते हैं, वह वास्तव में तो शरीर रहित हैं फिर भी उसके सगुण रूप अनेक शरीर हैं । उसने जो कुछ रचा है वह सब जीव के उपकारार्थ ही रचा है अपने लिये एक वस्तु भी नहीं रची है, वह पूर्णकाम है । 
सोवन१ मृग वन में रच्या, तो क्यों मारण जाँहिं । 
तेते२ में सीता हरी, खबर नहीं यहु माँहिं ॥१००॥ 
यदि सगुण अवतार ही विश्व का रचियता है तो राम ने वन में सुवर्ण१ के रंग का मृग रचा था, तो फिर उसे मारने क्यों गये, फिर उतने२ में ही उधर सीता हरी गई तब भी उनको अपने भीतर पता नहीं लगा कि रावण हर ले गया है, इससे ज्ञात होता है कि सगुण अवतार सृष्टि रचियता नहीं होते ।
सीता शील सुला१ किया, दिब२ दे आनी जब्ब । 
रज्जब जानी राम की, सकलाई३ सब सब्ब ॥१०१॥ 
जब सीता के शील व्रत के दोष१ का अन्वेषण किया और उसे दिव्य२-अग्नि परीक्षा द्वारा अपनाई तब ही राम की सब शक्ति३ जानी गई थी, उन्होंने अपनी सर्वज्ञता का परिचय न देकर अपनी कमी ही बताई थी, अत: सगुण अवतार ब्रह्म नहीं निर्गुण ही ब्रह्म है ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित पीव पिछाण का अंग ४७ समाप्त । सा. १६८७॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(९३/९६) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू अविनाशी अंग तेज का, ऐसा तत्त्व अनूप ।*
*सो हम देख्या नैन भरि, सुन्दर सहज स्वरूप ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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सींगी१ पूंगी बाँसुली२, बाजहि कुंभ सु भौन३ । 
सहनाई शंख भेरी नफीरी४, नाद जु बाईक पौन ॥९३॥ 
मृग सींग१, सपेरे की पूंगी, वंशी२ घर३ में वायु से बजने वाला खाली घड़ा, शहनाई, शंख, भेरी, तुरही४, इन सबकी आवाज तथा मुख की वर्णात्म-ध्यान्यात्म आवाज, रूप रहित वायु द्वारा ही निकलती है और सींगी आदि की सहायता से रूप रहित पहचाना जाता है तथा उस स्वर के सुनने में ही सबका प्रेम होता है, वैसे ही रूप रहित निर्गुण ब्रह्म ही सबका कारण है, सब कार्य के द्वारा उस निर्गुण को जाना जाता है और जानने पर उसी में सबका रंग होता है । अत: निर्गुण ब्रह्म ही उपास्य है । 

विहंग बांग घड़ियाल सु नोबत, सहनाई सुन बात ।
शरीर स्वभाव श्रृंगारों समझे, सप्त भांति परभात ॥९४॥ 
पक्षियों की, मुल्ला की बांग की, मंदिरों के धड़ियालों की, नौबत की, शहनाई की आवाज तथा मनुष्यों की बातें और शरीर का स्वभाव श्रृंगार इन सातों प्रकार से समझ जाता है कि प्रभात होने होने वाला है, वैसे ही षट् प्रमाणों से और अनुभव से समझा जाता है कि ब्रह्म साक्षात्कार होने वाला है । 
षट् दर्शन षट् पंथ शास्त्र, गैवी माग सु मांहिं । 
सप्तों चलता देखिये, सांई शहर सु जाँहिं ॥९५॥ 
१.जैमिनी कृत पूर्व मीमांसा, २.गौतम कृत न्याय, ३.कणाद कृत वैशेषिक, ४.पंतजली कृत योग, ५.कपित कृत सांख्य, ६.व्यास कृत वेदांत, ये षट् दर्शन तथा १.नाथ, २.जंगम, ३.सेवड़े, ४.बौद्ध, ५.सन्यासी ६.शेष ये षट् पंथ और अनुभव सातों मार्ग पर ब्रह्मरूप शहर में ही आते हैं अर्थात ब्रह्म का ही कथन करते हैं । 
कोई आया कूद कर, कोउ बांध कर पाज । 
रे रज्जब लंका लई, कीया अपना राज ॥९६॥ 
हनुमानजी कूद कर लंका में गये और रामचन्द्रादि समुद्र पर सेतु बाँध कर गये किन्तु पहुँचे सब लंका में, सभी ने लंका को प्राप्त करके अपना राज्य स्थापन किया, वैसे ही अनुभवी हनुमानजी समान और षट् दर्शन तथा षट् पंथ अपने अपने विचार रूप मार्गो से ही ब्रह्म को ही प्राप्त करते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(८९/९२) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*पारस किया पाषाण का, कंचन कदे न होइ ।*
*दादू आत्मराम बिन, भूल पड़या सब कोइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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अधर१ अंभ२ ले मोरड़ी, होय सपूछा मोर । 
सोह मदन३ ले मही४ सौं, सो सुत होय लंडोर५ ॥८९॥ 
यदि मोरड़ी नृत्य करते हुये मोर की आँख का अश्रुजल२ अपनी चौंच में अधर ही झेल लेती है तब तो उसके पूंछ वाला मोर जन्मता है और वह बिन्दु३ पृथ्वी४ पर पड़ने के पीछे उठाती है तब उससे अपूंछा५ मोर जन्मता है, वैसे ही यदि जीवात्मा माया रहित ब्रह्म१ की उपासना करता है तब तो उसको मुक्तिप्रद अभेद ज्ञान प्राप्त होता है और माया सहित सगुण की उपासना करता है तब दु:खप्रद भेद ज्ञान प्राप्त होता है, अत: निर्गुण की ही उपासना करनी चाहिये । 
अधर४ अंभ१ सारंग२ ले, सारे साल संतोष । 
अन्य पंखि पीवहि पुहमि३, तृषा न भागे दोष ॥९०॥ 
अधर आकाश में स्वाति जल१-बिन्दु को चातक२ पक्षी ग्रहण करता है, उससे उसे वर्ष भर उसे प्यास नहीं लगती, अन्य पक्षी पृथ्वी३ पर पड़ा जल पीते हैं, उनको बारंबार प्यास लगती है चातक के समान नहीं मिटती, वैसे ही माया रहित निर्गुण ब्रह्म४ की उपासना से प्राणी को सदा के लिये संतोष हो जाता है और माया सहित सगुण की उपासना से तृष्णा रूप दोष नहीं मिटता अन्य नहीं तो वैकुण्ठादि लोको की ही इच्छा रहती है । 
धर्या१ उपज्या धरे२ सौं, धरे३ सु पावे पोष । 
आतम उपजी अधर४ सौं, अधर५ हिं मिले संतोष ॥९१॥ 
माया१ के कार्य अन्त:करण इन्द्रियादि माया२ से उत्पन्न हुये हैं, अत: मायिक३ सगुण अवतारों से तथा मायिक पदार्थो से ही अपना पोषण समझकर उनसे ही प्रेम करते हैं किन्तु आत्मा तो माया रहित ब्रह्म४ से प्रतिबिम्ब के समान उत्पन्न हुआ है, अत: उसे माया रहित ब्रह्म५ प्राप्ति पर ही संतोष होता है । 
चौरासी में वपु विविध, ओंकार जीव एक । 
सन्या१ शरीरों मिल चल्या, जगपति जुदा विवेक ॥९२॥ 
अन्य शब्द तो नाना है किन्तु ओंकार एक ही है और आकार, उकार, मकार रूप से सब शब्दों से मिला१ हुआ शब्द संसार में विचरता है, वैसे ही चौरासी लाख योनियों में शरीर तो विविध प्रकार के हैं किन्तु उनमें जीवात्मा एक ही है और वह शरीरों में मिल१कर जगत् में विचर रहा है, विवेक करके देखने से जगत्पति ब्रह्म उक्त दोनों से भिन्न निर्लेप अशरीरी ही सिद्ध होता है ।
(क्रमशः)

रविवार, 14 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(८५/८८) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू पख काहू के ना मिले, निर्पख निर्मल नांव ।*
*सांई सौं सन्मुख सदा, मुक्ता सब ही ठांव ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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रज्जब जाण अजाण का, निराकार सौं हेत । 
प्राण चलै पिंडहिं तजत, देखा डार सु देत ॥८५॥ 
देखो, निराकार प्राण शरीर को छोड़कर चले जाते हैं तब शरीर को अग्नि आदि में डाल देते हैं, इससे भी ज्ञानी अज्ञानी सभी का निराकार से प्रेम ज्ञात होता है । 
निराकार ऊपरि धर्या, पंच तत्व आकार । 
उडगण१ इन्दु२ आकाश तल, पाया भेद३ विचार ॥८६॥ 
पंच तत्वों से रचित आकार निराकार के ही आश्रय हैं, सूक्ष्म भूत तथा उनके कारण अहंकार, महतत्व, माया और ब्रह्म निराकार ही हैं, देखो, साकार तारा१ मंडल और चन्द्रमा२ आदि नक्षत्र निराकार आकाश के निचे ही रहते हैं, अत: हमने यह रहस्य३ विचार द्वारा जान लिया है कि साकार से निरकार की उपासना ही श्रेष्ठ है । 
शून्य१ स्वाति सद२ जलहि सौ, निपजहिं मोती मन्न । 
बासी वारि न दोय ह्वैं, समझो साधु जन्न ॥८७॥ 
स्वति नक्षत्र के ताजा२ जल से ही सीप में मोती उत्पन्न होता है, समुद्र नदी आदि के पड़े हुये बासी जल में नहीं, वैसे ही निर्गुण ब्रह्म१ की उपासना द्वारा ही मन में ज्ञान उत्पन्न होता है, सगुण की भेद युक्त उपासना से नहीं, साधुजन यह यथार्थ ही समझे, मोती तथा मन में ज्ञान ये दोनों उक्त प्रकार ही उत्पन्न होता है ।
शंख शांखुले सीप सु कोडी, काया कुंभिनि१ नीर । 
मन मुक्ता बिन शून्य२ स्वातिजल, रज्जब होय न वीर ॥८८॥ 
शंख, शाँखुले, सीप, कौड़ी ये तो पृथ्वी१ में पड़े हुये जल से भी हो जाते हैं किन्तु मोती तो आकाश२ के स्वाति जल के बिना नहीं होता, वैसे ही हे भाई ! अन्य शक्तियाँ तो सगुण अवतार शरीरों की भेद उपासना से भी मिल जाती हैं किन्तु मन में ब्रह्मज्ञान तो निर्गुण ब्रह्म की उपासना बिना नहीं होता ।
(क्रमशः)

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(८१/८४) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*निराधार निज भक्ति कर, निराधार निज सार ।*
*निराधार निज नाम ले, निराधार निराकार ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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रज्जब उदय अस्त त्रिगुणी भक्ति, इनका यही स्वभाय । 
निर्गुण निश्चल एक रस, नर देखो निरताय ॥८१॥ 
त्रिगुणात्मिका शक्ति रूप अवतार प्रकट होकर छिपते हैं, उनका यही स्वभाव है, उसकी भक्ति से उनका मायिक स्वरूप ही प्राप्त होगा, और निर्गुण ब्रह्म तो निश्चल एक रस है, इससे निर्गुण का उपासक भी उसी रूप को प्राप्त होगा । हे विचारशील नरो ! तुम भी विचार करके देखो कि उसकी उपासना श्रेष्ठ है । 
त्रिगुण रहित त्योरी१ चढ्या२, निर्गुण निरख्या नैन । 
रज्जब राता ठौर तिहिं, कदे३ न होय अचैत ॥८२॥ 
हमारी ज्ञान दृष्टि१ में त्रिगुण रहित ब्रह्म ही आया२ है, हमने निर्गुण को ज्ञान नेत्रों से देखा है, इससे हम उसी निर्गुण ब्रह्मरूप स्थान में अनुरक्त हैं, अब हमें जन्मादि संसार दु:ख कभी३ भी नहीं होगा । 
आकार इष्ट जिन आतमहुं, पै निश्चय निराकार ।
कहतों कर ऊंचे करहिं, नीचे सेवन हार ॥८३॥ 
जिन आत्माओं का इष्ट साकार है; उनके भी निश्चय में तो निराकार ही है, कारण - वे उपासक भी नीचे खड़े होकर अपने ईश्वर की सहायता आदि का कथन करते समय निराकार आकाश की ओर ऊंचा हाथ करके कहते हैं - "वह सहायता करेगा", "वह देखेगा" इत्यादि । 
निराकार सौं नरहुं के, मन वच कर्म सनेह । 
सबको देखैं शुन्य१ दिशि, रज्जब गये सुमेह२ ॥८४॥ 
वर्षा करके साकार बादल२ चला जाता है तब सभी लोग निराकार आकाश१ की ओर देखते हैं, अत: सभी मनुष्यों के हृदय में मन, वचन, कर्म द्वारा निराकार से ही प्रेम है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(७७/८०) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*जामै मरै सो जीव है, रमता राम न होइ ।*
*जामण मरण तैं रहित है, मेरा साहिब सोइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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एक कहै अवतार दश, एक कहै चौबीस । 
रज्जब सुमिरे सो धणी, जो सब ही के शीश ॥७७॥ 
एक दश अवतार कहता है तो दूसरा चौबीस कहता है, किन्तु हम तो उसी निरंजन स्वामी का स्मरण करते है जो सभी का शिरोमणी है । 
अविचल अमर अलेख गति, सकल लोक शिरताज । 
जन रज्जब सो शिर धर्या, जा शिर और न राज ॥७८॥ 
जिसका स्वरूप अविचल, अमर और लेखबद्ध नहीं हो सकता, जो सभी लोकों का शिरोमुकुट है और जिसके शिरपर कोई शासन नहीं है, हमने तो उसी ब्रह्म को शिर पर धरा है । 
चंद सूर पानी पवन,धरती अरू आकाश । 
जिन साहिब सब कुछ किया, रज्जब ताका दास ॥७९॥ 
जिन प्रभु ने आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्यादि सब कुछ उत्पन्न किया है, मैं उन प्रभु का ही दास हूँ । 
जा घर मांहिं असंख्य घर, अजों सु मुकती ठौर । 
रज्जब सेवक तिहिं सदन, जा समसरि नहिं और ॥८०॥ 
जिस ब्रह्म रूप घर में अनेक लोक रूप घर है और अब भी बहुत स्थान है, मैं उसी ब्रह्म रूप घर का सेवक हूँ, जिसके बराबर और कोई भी नहीं है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 10 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(७३/७६) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संगि खेलै पीव ।*
*बहुत भाँति कर वारणें, तापर दीजे जीव ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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पुकार लगे प्रकटे प्रभु, रजू१ भये तज रूठ२ । 
सो समसरि३ सब ठौर थे, आवण जाणाँ झूठ ॥७३॥ 
देवता तथा भक्तों के प्रार्थना करने पर रोष२ को त्याग, प्रसन्न१ होकर प्रकट हुये वे प्रभु पहले ही सभी स्थानों में समान३ रूप से थे, उनका आना जाना कथन करना मिथ्या ही है । 
बाँध्या बाँधे को भजे, मुक्त होन की आश । 
सो रज्जब कैसे खुले, इहिं झूठे विश्वास ॥७४॥ 
बँधा हुआ व्यक्ति किसी अन्य बँधे हुये से आशा करे कि यह मुझे खोल देगा, तो वह इस मिथ्या विश्वास से कैसे खुलेगा ? वैसे ही अविद्या तथा कर्म जाल में बँधा जीव माया से बँधे हुये अवतार की उपासना से मुक्त नहीं हो सकता, माया से मुक्त ब्रह्म की उपासना से ही होगा । 
रज्जब जो जामे१ मरे, ताका तजिये वास । 
हम हि अमर सो क्यों करे, आप फिर गर्भवास ॥७५॥ 
जो जन्मता१ है वो मरता है, उस सगुण के निवास स्थान की आशा छोड़ देनी चाहिये, वह स्वयं गर्भवास में आता है तब हमे अमर कैसे करेगा । 
उधर्या कहिये जीव सो, जिहिं जामण मृत नाँहिं । 
तो रज्जब आवे ब्रह्म क्यों, उत्पत्ति परले माँहिं ॥७६॥ 
जिसका जन्म नहीं होता और जो मरता नहीं, उस जीव का उद्धार हुआ कहा जाता है, उद्धार होने पर जीव का जो भी जन्म-मरण मिट जाता है, तब ब्रह्म उत्पत्ति-प्रलय में कैसे जायेगा ? अर्थात जो जन्मता-मरता है वह ब्रह्म नहीं है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(६८/७२) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*जीवित मृतक साधु की, वाणी का परकास ।*
*दादू मोहे रामजी, लीन भये सब दास ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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देवल१ मूरति गाय जल, फेरि पाइ जीव सेज । 
रज्जब रज२ काढ़तों३, निरख सु निर्गुण हेज४ ॥६९॥ 
माया रूप रज से मन को निकालते३ ही नामदेव का निर्गुण में प्रेम४ हुआ, उस निर्गुण प्रेम का प्रताप देख मंदिर१ और मूर्ति फिर गई, मरी गाय जीवित हो गई, और नामदेव जी ने जल प्रवाह को बदल कर शय्या प्राप्त की, उक्त कथायें भक्तमालों में विस्तार से हैं । 
सूखी शूली सौं हरि, बीज धना के खेत । 
रज्जब दिब१ में देखिये, निपट२ निरंजन हेत ॥७०॥ 
केवल२ निरंजन राम के प्रेम के प्रताप से भर्तहरि के शूली हरी हो गई(चोर समझकर भर्तहरि को शुली पर चढाया था किन्तु शूली में कोंपले निकल आई और वे बच गये थे) धना भक्त का खेत बिना बीज के ही उत्पन्न हो गया था । यह कथा प्रसिद्ध है और उष्ण लोहे का गोला१ सच्चे मनुष्य के हाथ को नहीं जलाता । 
गुरु सुत मारि जिलाइये, पर सुत होंहि पषान । 
रज्जब अवतारों रहित, गोरख गिरा१ बखान ॥७१॥ 
श्री कृष्ण अवतार ने गुरु पुत्रों को मार कर जीवित किया था, किन्तु अवतार बिना भी गोरखनाथ ने गोदावरी के कुँभ मेले में "ऊभे सिद्ध बैठे पाषान" यह वाणी१ कही तब अनेक नाथ पत्थर हो गये थे । अत: अवतारों बिना ही अन्य में भी निर्गुण प्रेम से शक्ति आ जाती है । 
योगेश्वर मुनि के सहित, सकल निरंजन दास । 
रज्जब परिचय प्राण पति, अवतारों सु निराश ॥७२॥ 
९ योगेश्वर और ७ मुनियों के सहित जिनका भी प्राण पति प्रभु से परिचय हुआ है, वे सभी अवतारों की आशा त्यागकर निरंजन परमात्मा के ही भक्त हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 8 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(६५-६८) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू कृत्रिम काल वश, बंध्या गुण मांही ।*
*उपजै विनशै देखतां, यहु कर्त्ता नांही ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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अवतार अग्नि वजूद१ अहार, संयोग२ सहित सोकर हि विहार३ । 
अशन४ उठे५ अंतक६ वश होय, ताकी कला न दीसे कोय ॥६५॥ 
अवतार रूप अग्नि का अहार दुष्टों के शरीर१ हैं, जब तक दुष्ट मिलते२ रहते हैं तब तक वे अवतार पृथ्वी पर विचरते हैं३, जब उनका दुष्ट शरीर रूप आहार४ समाप्त५ हो जाता है तब वे ही काल६ के वश हो जाते हैं, फिर उनकी शरीर रूपी कला वा शक्ति रूप कला नहीं दिखाई देती । 
संयोग सहित भानें घडैं, तेता सब अवतार । 
रज्जब रचे वियोग वपु, वह कहिये निराकार ॥६६॥ 
जो मायिक शरीर के संयोग से नष्ट करते हैं और उत्पन्न करते हैं वे सभी अवतार तथा साकार हैं और जो मायिक शरीर से अलग रह कर सत्तामात्र से सृष्टि रचते हैं वे निराकार ब्रह्म कहलाते हैं । 
आदि नारायण अकल है, कला रूप अवतार । 
आदम१ आतम बंदि२ विधि, वेत्ता करे विचार ॥६७॥ 
आदि नारायण ब्रह्म-कला विभाग से रहित हैं, अवतार कलारूप हैं और मनुष्य१ का आत्मा तो शरीर रूप कैद में कैदी२ के समान है, हे ज्ञानीजनों ! हमारा तो ब्रह्म, अवतार और जीव विषयक यही विचार है, आप भी विचार करो । 
अकल कला कारज सु ह्वै, सो श्री सिरजनहार । 
रज्जब जीव घट धरि करे, सो कछु भिन्न विचार ॥६८॥ 
उस कला विभाग से रहित श्री सृजनहार से ही कला रूप कार्य होते हैं और जो जीव शरीर धारण करके करते हैं वह विचार कुछ भिन्न ही हैं अर्थात जीव कर्मानुसार करते भोगते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 7 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(६१-६४) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*कृत्रिम नहीं सो ब्रह्म है, घटै बधै नहिं जाइ ।*
*पूरण निश्चल एक रस, जगत न नाचे आइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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दिनकर१ दर्पण द्रुमन२ में, अग्नि सु नाँहिं एक । 
इक निरहार अहार इक, इक वपु बंद विवेक ॥६१॥ 
सूर्य१ का दर्पण का और वृक्षों२ का अग्नि एक सा नहीं होता, सूर्य का तो काष्टादि आहार के बिना ही प्रज्वलित रहता है, दर्पण में सूर्य की किरण पड़ने से उत्पन्न होने वाला दर्पण का अग्नि दर्पण के नीचे कुछ तूल तृणादि आहार हो तो प्रकट होकर तृणादि की समाप्ति तक रहता है और वृक्षों का काष्ठ में बन्द है । ऐसा ही विवेक ब्रह्म अवतार और जीव का है । सूर्य के अग्नि के समान ब्रह्म है, दर्पण के अग्नि के समान अवतार है, और वृक्षों के अग्नि के समान जीव है । 
सांई सूरज की अगनि, सब प्राणहु प्रतिपाल । 
दिल दर्पण अवतार बासदेव, तिन तन तिनुका जाल । 
जीव ज्वाला वपु वन बँधे, इहिं ठाहर यहु हाल ॥६२॥ 
६२ में ६१का अर्थ स्पष्ट कर रहे हैं - सूर्य में अग्नि रूप परमात्मा सभी प्राणियों का पालन-पोषण करता है दर्पण के अग्नि के समान अवतार हैं, उनका काम दुष्टों के हृदय तथा शरीर रूप तृण जलाना है और वृक्षों के अग्नि के समान जीवात्मा रूप अग्नि शरीर-वन में बँधा रहता है, इस ब्रह्म, अवतार और जीव के स्वरूप के विचार रूप स्थल का यही विवरण है । 
सांई सूर चिराक है, पै कर्म काजर नाँहिं । 
रज्जब जीव ज्वाला मई, मल मसि निकसे माँहिं ॥६३॥ 
परमात्मा सूर्य की चिराग के समान है, सूर्य की चिराग से काजल नहीं निकलता, वैसे ही उनसे कर्म नहीं होता वे निष्कर्म हैं, जीव अन्य अग्नि ज्वाला के समान हैं उनसे पाप रूप कालिमा निकलती है अर्थात उनसे पाप होते हैं । 
आदि नारायण आदित्य रूप, दुपक देवी देव । 
अंतक१ आंधी मुखतैं विनशैं, रज्जब पाया भेव२ ॥६४॥ 
आदि नारायण ब्रह्म तो सूर्य रूप हैं और देवी देवता दीपक रूप है, दीपक तो आंधी से बुझ जाते हैं किन्तु सूर्य नहीं बुझते, वैसे ही देवी देवता तो काल१ के मुख में जाकर नष्ट हो जाते हैं किन्तु ब्रह्म नष्ट नहीं होते, यह रहस्य२ हमने गुरु कृपा द्वारा जान लिया है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(५५७/६०) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*जे नांही सो ऊपजै, है सो उपजै नांहि ।*
*अलख आदि अनादि है, उपजै माया मांहि ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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जीव ब्रह्म कर बोलिये, गुण लक्षण सो नांहिं । 
रज्जब बाइक१ बादि२ यहु, समझ देख मन मांहिं ॥५७॥ 
'मैं ब्रह्म हूँ' इस प्रकार जीव को ब्रह्म कहकर बोलते हैं किन्तु जब तक ब्रह्म-प्राप्ति के लक्षण रूप जो शास्त्र संतों ने कहे हैं, वे नहीं हैं तब तक 'मैं ब्रह्म हूँ' यह शब्द१ बोलने व्यर्थ२ हैं अत: अपने मन में विचार द्वारा देखो, ज्ञानी के लक्षण तुममें है या नहीं, नहीं है तो उक्त शब्द मत बोलो । 
रज्जब देख्या अमर मर, अचरज एकहि अंग । 
विनशे बोलत बुदबुदे, साहिब समुंद अभंग ॥५८॥ 
बड़ा आश्चर्य है कि जिसका नाम अमरचन्द था, उसको उसी शरीर में हमने मरते देखा है, वैसे ही जो ज्ञान के लक्षणों के बिना ही अपने को ब्रह्म कहते हैं, वे तो मृत्यु के मुख में ही जाते हैं । देखो, बोलने वाले बुदबुदे नष्ट हो जाते हैं किन्तु समुद्र तो नष्ट नहीं होता, वैसे ही केवल 'अहं ब्रह्म' बोलने वाले तो नष्ट हो जाते हैं किन्तु ब्रह्म तो अविनाशी है । 
है नाँहिं के माँहिं है, देखो अचरज अंग१ । 
जन रज्जब हैरान२ यूं, भेले भंग अभंग ॥५९॥ 
देखो आश्चर्य रूप ब्रह्म का स्वरूप१ "है" "नहीं है" इन दोनों स्थितियों में अस्तिरूप से भास रहा है, इस प्रकार नाशी और अवनाशी दोनों में ब्रह्म को मिला हुआ देखकर हम तो आश्चर्य-चकित२ हैं । 
शब्द सु सारा१ प्यारा लगै, पै जलप्या२ जीव न होय । 
तैसैं आतम राम अभ्यासै, फेर सार नहिं कोय ॥६०॥ 
'अहं ब्रह्म' यह पूर्णता१ का बोधक शब्द तो प्रिय लगता है किन्तु कथन२ करने मात्र से जीव ब्रह्म नहीं हो जाता, कथन के समान आत्मा और ब्रह्म की एकता का अभ्यास हो तब तो उक्त कथन श्रेष्ठ ही है, इसमें कोई भी परिवर्तन नहीं हो सकता ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(५३/५६) =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*सब तज गुण आकार के, निश्चल मन ल्यौ लाइ ।*
*आत्म चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाइ ॥* 
===============
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
.
अविगत१ अरु औंकार बिच, अन्तर है सो जोय । 
रज्जब जीवहु जवाब बहु, जवाब हुं जीवन होय ॥५३॥ 
परमात्मा और ओंकार में जो भेद है, वह देख-जीव से अनेक प्रश्नों के अनेक उत्तर उत्पन्न होते हैं किन्तु अनेक उत्तर जीव को उत्पन्न नहीं कर सकते, वैसे ही परमात्मा से ओंकारादि आदि अनेक शब्द उत्पन्न होते हैं किन्तु वे सब परमात्मा को उत्पन्न नहीं कर सकते । अत: कारण है और ओंकार कार्य है ।
शब्द न समझै आत्मही, आतम राम आगम्म । 
रज्जब कही विचार कर, नेतिहु कही निगम्म१ ॥५४॥ 
अज्ञानी जीव शब्दों के रहस्य को नहीं समझता, आत्माराम तो शब्दों से परे ही है, यह मैंने विचार करके ही कहा है, और स्वयं शब्द रूप वेद१ भी नेति नेति भी कहता है । 
शब्द समाना एक गुण, आतम कला अनेक । 
वचन न पुजे१ बोल से, रज्जब समझ विवेक ॥५५॥ 
शब्द में तो श्रोत्र इन्द्रिय को ज्ञान कराना रूप एक ही गुण है, आत्माराम में तो अनेक शक्ति हैं, वचन बोलने से ही आत्माराम के समान पूर्ण१ नहीं होता, अत: आत्माराम के स्वरूप को विवेकपूर्वक समझना चाहिये । 
जन्म अजन्मा के कहैं, अपने जानें नांहि । 
रज्जब समझ न शब्द की, बके विकल बुधि१ मांहिं । 
अज्ञानी प्राणियों को अपने जन्मों का तो ज्ञान ही नहीं और अजन्मा परमात्मा के जन्मों का कथन करते हैं । उनकी बुद्धि१ में विकलता रहती है, इससे शब्दों को समझे बिना ही बकते रहते हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(४९/५२) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*सब तज गुण आकार के, निश्चल मन ल्यौ लाइ ।*
*आत्म चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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जड़ जाइगहैं१ चेतन नहीं, समझे समझो वीर२ । 
ज्यों सुरही३ थणहुं बिना, सब ठाहर नहिं क्षीर४ ॥४९॥ 
जैसे गो३ के स्तनों को छोड़कर सब अंगों में दूध४ नहीं होता है, हे समझे हुये भाई२ ! वैसे ही समझो जड़ स्थान१ में चेतन नहीं होता अर्थात इन्द्रिय अन्त:करणादि जड़ पदार्थ चेतन नहीं होता । 
देखो अविगत१ उदधि तैं, अवतार सु नाले नीर । 
रज्जब रत्न न पाइये, मुक्ति न मुक्ता वीर ॥५०॥ 
हे भाई२ ! परब्रह्म१ समुद्र के समान है, अवतार नदी नालों के जल के समान है, जैसे नदी नालों के जल में मोती नहीं मिलते, वैसे ही अवतारों के ज्ञान से मुक्ति नहीं मिलती । 
सांई सोवन१ मेरु सौं, अवतार नापिगा२ धार । 
सिद्धि स्वभूकी३ तिनहुं में, रज धोवे संसार ॥५१॥ 
सुवर्ण१ के पर्वत सुमेरु से नदियों२ की धाराएं चली है उनकी रज धोकर सांसारिक प्राणी सुर्वण निकालते हैं, वैसे ही परब्रह्म से अवतार होते हैं, उन अवतारों में जो भी सिद्धि शक्ति है वह परब्रह्म३ की ही है, उनकी उपासना करके सांसारिक प्राणी अपनी पाप रूप रज धोते हैं । 
एक अविगत ने किये, पैदा प्राण अनेक । 
रज्जब जीवहु जोर घट१, सब तैं होय न एक ॥५२॥ 
परमात्मा और जीव का भेद बता रहे हैं - एक परमात्मा ने अनेक प्राणी उत्पन्न किये हैं किन्तु जीव की शक्ति कम१ है, सब जीवों की शक्ति से भी एक परमात्मा उत्पन्न नहीं हो सकता, अत: परमात्मा सर्व शक्ति संपन्न है और जीव अल्प शक्ति वाला है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(४५/४८) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू भीगे प्रेम रस, मन पंचों का साथ ।*
*मगन भये रस में रहे, तब सन्मुख त्रिभुवन-नाथ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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पियूष१ न पावक पाव ही, शशि सूरज प्रतिबिम्ब । 
आँख आरसी ना लहै, अवलोकत मधि अंब२ ॥४५॥ 
जैसे अग्नि में अमृत१ नहीं मिलता, वैसे ही अवतारों में परब्रह्म नहीं मिलता । दर्पण को देखने से जो उसके पानी२ में चन्द्र सूर्य और आँखों का प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह दर्पण में दर्पण के समान पकड़ा नहीं जाता, वैसे ही अवतारों से परब्रह्म की शक्ति का ज्ञान होता है किन्तु अवतारों के समान वह इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता । 
अवतार आतम आरसी, आदि नारायण दीप । 
रज्जब एक अनेक मध्य, पै दीपक दीप उदीप१ ॥४६॥ 
अवतार आत्माएँ दर्पण के समान हैं और आदि नारायण ब्रह्म दीपक के समान है, जैसे एक ही दीपक अनेक दर्पणों को प्रकाशित१ करता हुआ उन सबमें प्रतिबिम्ब रूप से भासता है फिर भी सबसे अलग है, वैसे ही अनेक अवतारों को शक्ति देता हुआ सब में वह एक ही प्रतिबिम्ब रूप से भासता है फिर भी उन सबसे अलग ही है । 
आतम दीपक ज्योति हरि, भाव तेल तहँ पूरि । 
रज्जब पूजि१ प्रकाश को, भूल न पड़िये दूरि ॥४७॥ 
आत्मा दीपक के समान है, परमात्मा उसकी ज्योति के समान है और प्रभु-प्रेम तेल के समान है, जैसे दीप में तेल रहे तब तक ज्योति दीखती है, वैसे ही जीवात्मा में प्रभु-प्रेम है तब तक ही हरि दर्शन होता है, प्रेम न हो तो नहीं होता, अत: भाव को पूर्ण करते हुये प्रभु-प्रकाश को स्थिर रखते हुये उपासना१ कर, प्रेम को भूलकर प्रभु से दूर मत पड़ । 
प्रतिबिम्ब परब्रह्म सुजाना, दर्पण अंबु१ आत्म अस्थाना । 
तवे ठीकरी देखे देशा, रज्जब लहै न सो लवलेशा२ ॥४८॥ 
हे सुजान ! परब्रह्म प्रतिबिम्ब के समान है और अन्त:करण दर्पण के पानी१ के समान है, जैसे तवे की ठीकरी में वह प्रतिबिम्ब किंचित२ मात्र भी नहीं दीखता, वैसे ही मलीन अन्त:करण में ब्रह्म नहीं दिखता ।
(क्रमशः)

सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(४१/४४) =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*जे नांही सो ऊपजै, है सो उपजै नांहि ।*
*अलख आदि अनादि है, उपजै माया मांहि ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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काम उसीले१ सौं करै, अलख लखावै नाँहिं । 
पड़दे सौं प्रभुजी कहै, जीव न समझै माँहिं ॥४१॥ 
परमात्मा सभी कार्य, कर्म के संबंध१ से करते हैं किन्तु उनका नाम अलख है इससे वह करते हुवे भी दिखाई नहीं देते, हे प्रभु पड़दे से अर्थात अन्तर आत्मा द्वारा कहते हैं कि अमुक काम का फल अमुक होगा, जैसे चोरी करने वाले को अपने भीतर से आवाज आती है चोरी करने से पकड़ा जाऊंगा किन्तु अज्ञानी जीव भीतर की उक्त बात का जानकर भी समझता नहीं अत: कैद भोगता है । 
पंच तत्त्व आडे दिये, काम करै सु कृपाल । 
अलख उसीला१ लख्या न जाय, लोक२ लोइणों३ पड़े न लाल४ ॥४२॥ 
कृपालु परमात्मा पंच तत्त्वों की आड़ में रहकर सबके काम करते हैं, उस अलख की सहायता१ देखने में नहीं आती, कारण-वह प्रियतम४ लोगों२ के नेत्रों३ से नहीं दीख पड़ता । 
चेतन ने जड़ जीव जगाया, लोग कहैं परमेश्वर आया । 
रज्जब देखि कला यहु उरै१, अकल पुरुष या२ हूतैं परै ॥४३॥ 
जिस शक्तिशाली सावधान व्यक्ति ने जड़ जीवों को जगाया है, उसे ही लोग कहने लगे हैं कि परमेश्वर आये हैं, किन्तु देखो, उन अवतारों की यह कलामयी शक्ति को इधर१ माया में ही है, अर्थात कला विभाग माया में ही होता है, और वह अकाल पुरुष निर्गुण परमात्मा तो इस माया२ से भी परे है ।
गऊ१ गराब२ के जीव जगावे, जगत कहै जगदीश्वर आये । 
अगम अगाध साधु कोउ जाणें, सो रज्जब उर इहां न आणें ॥४४॥ 
जैसे सूर्य उदय होकर अपनी विलक्षण२ किरणों से जीवों१ को जगाते हैं, वैसे ही शक्तिशाली महान् अवतारों ने अपनी विलक्षणता के कारण जीवों को जगाया है, अत: जगत के जीव उन्हें कहते हैं कि यह जगदीश्वर ही आये हैं किन्तु उन अगम अगाध परमात्मा को तो कोई संत ही अपने हृदय में जानते हैं, फिर भी उसे यहां नेत्रों के सामने नहीं ला सकते ।
(क्रमशः)

रविवार, 30 सितंबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(३७/४०) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू एक विचार सौं, सब तैं न्यारा होइ ।*
*मांहि है पर मन नहीं, सहज निरंजन सोइ ॥* 
===============
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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व्यापक वह्नी१ व्योम२ की, अंध्रिप३ अग्नि औतार । 
मिल हिं सु अंतर्द्धान ह्वै, तो है नाहिं उर धार ॥३७॥ 
आकाश२ में रहने वाले व्यापक अग्नि१ अंश वृक्ष३ के काष्ट में प्रकट होता है और काष्ट को जलाकर व्यापक अग्नि में ही मिल जाता है, वैसे ही अवतार व्यापक ब्रह्म की विभूति हैं, प्रकट होती है और अपना कार्य करके पुन: अंतर्द्धान होकर ब्रह्म में ही मिल जाती है, अत:सगुण अवतार ब्रह्म नहीं ऐसा ही हृदय में धारण करो । 
उष्ण१ सु काढै अंभ२ को, ऊन्हि३ सु काढै प्रान । 
त्यों अवतार सु आँटे४ कढै, मन वच कर्म कर मान ॥३८॥ 
उष्णता१ समुद्र से जल२ निकालती है, ज्वर३ शरीर से प्रान निकालता है, वैसे ही कोई राक्षासादि के द्वारा जगत् के व्यवहार में उलझन४ पड़ती है तब वह उलझन ही अवतार होने में निमत्ति बनती है, यही मन, वचन कर्म से सत्य मानो । 
राक्षस रोग जीवहुं लगे, तहँ औषधि अवतार । 
ब्रह्म वैद्य न्यारा रहै, व्यथा विध्वंसनहार ॥३९॥ 
वैद्य रोगी के रोग को औषधि देकर नष्ट करता है किन्तु रोग नष्ट करने वाला होकर भी वैद्य औषधि से अलग ही रहता है । वैसे ही राक्षस जीवों को दुखी करते हैं तब ब्रह्म राक्षसों को मारकर जगत् के जीवों को सुखी करने के लिये अवतार भेजते हैं और राक्षसों को मारकर जीवों का दु:ख दूर करने वाले होकर भी ब्रह्म अवतारों से अलग ही रहते हैं, सगुण नहीं होते । 
अनेक रोग कर मृत्यु उपावे, अनेक औषधि सारा१ । 
व्यथा सु बूँटी के शिर दीजे, हरै२ करै३ सो न्यारा ॥४०॥ 
अनेक रोग उत्पन्न करके मृत्यु करता है और अनेक औषधि उत्पन्न करके निरोग१ करता है, मृत्यु को रोगों के शिर मढ़ देता है और निरोगता औषधियों के शिर मढ़ देता है और उत्पन्न३ करने वाला तथा मारने२ वाला है, वह परमात्मा अलग ही रह जाता है, वह किसी से भी लिपायमान नहीं होता ।
(क्रमशः)

शनिवार, 29 सितंबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(३३/३६) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*काया शून्य पंच का बासा, आत्म शून्य प्राण प्रकासा ।*
*परम शून्य ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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सगुण निगुर्ण एक है, तो झगड़ा कछु नाँहिं । 
पै हथलेवा कर दाहिने, देखो ब्याव सु माँहिं ॥३३॥ 
सगुण और निर्गण दोनो एक हैं तब विवाद भी कुछ नहीं रहता किन्तु दोनों हाथ एक से होने पर विवाह के समय हथलेवा का संस्कार तो दाहिने हाथ से ही होता है, वैसे ही मुक्ति के समय तो निर्गुण को ही अपनाना पड़ता है । 
आदि नारायण सत्य है, निगम१ पुकारहिं चार । 
तो साधों को क्या कहो, पंडित पढ़ सु विचार ॥३४॥ 
आदि नारायण ही ब्रह्म ही सत्य है, ये चारों ही वेद१ पुकार करके कहते हैं, हे पंडित ! तुम संतों को ही क्या कहते हो कि - ये सगुण उपासना नहीं करते, उन चारों वेदों को पढ़कर भली प्रकार क्यों नहीं विचारते, वे भी तो निर्गुण उपासना बताते हैं । ३२-३४ में पंडित को संबोधन किया है इससे ज्ञात होता है कि इस अंग के बहुत से पद्य किसी पंडित से चर्चा करते समय कहे हैं । 
काया कुंभ जीव जल दर्शे, शशि सूरज प्रतिबिम्ब । 
घटा फूटे दिन कर गये, आभासत१ अरु अंब२ ॥३५॥ 
जैसे घड़े में जल दिखता है तब तो उसमें चन्द्र सूर्य का प्रतिबिम्ब भी दिखाई देता और घट फुटते ही उसमें से चन्द्र सूर्य के प्रतिबिम्ब भी चले जाते हैं और जल१ भी नहीं भासता२ वैसे ही शरीर में सूक्ष्म शरीर रूप जीव होता है तब तो ब्रह्म चेतन का प्रतिबिम्ब रूप आत्मा भी भासता है और शरीर नष्ट होने पर न तो आत्मा भासता और न सूक्ष्म शरीर भासता है, अत: ब्रह्म ही सत्य है । 
अर्क१ आरसी उर उदय, अग्नि अपरबल२ अंग३ । 
रवि रेजे४ रवि ही मिलै, जन रज्जब जब भंग५ ॥३६॥ 
दर्पण में सूर्य१ का प्रतिबिम्ब उदय होकर भास रहा हो उसी समय प्रचंड२ अग्नि से से दर्पण टूट५ जाय तब प्रतिबिम्ब रूप सूर्य के टुकड़े४ होकर नष्ट होता सा दिखाई देता है किन्तु वे टुकड़े नष्ट न होकर सूर्य से ही मिल जाते हैं वैसे ही अन्त:करण में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब आत्मा भास रहा है किन्तु प्रचंड ज्वर से शरीर३ छिन्न भिन्न होने के समय आत्मा भी छिन्न भिन्न होता सा ज्ञात होता है परन्तु वह छिन्न भिन्न नहीं होता व्यापक ब्रह्म में ही मिलता है । अत: ब्रह्म का भासने वाला प्रतिबिम्ब भी अखंड है तब ब्रह्म अखंड है इसमे तो कहना ही क्या है ? इससे नष्ट होने वाले सगुण शरीर ब्रह्म सिद्ध नहीं होते ।
(क्रमशः)

बुधवार, 26 सितंबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(२९/३२) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~  Tapasvi Ram Gopal  
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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दीपक होय न घर धणी, बासण ह्वै न कुम्हार । 
शशि सूरज साहिब नहीं, यूं आतम ब्रह्म विचार ॥२९॥ 
दीपक घर का स्वामी नहीं हो सकता, मिट्टी का बर्तन कुम्हार नहीं हो सकता, चन्द्र -सूर्य ईश्वर नहीं हो सकते, वैसे ही सगुण और कार्य होने से अवतार आत्मा ब्रह्म नहीं हो सकते ब्रह्म का स्वरूप निर्गुण निराकार ही है । 
सोना सोनी होय कब, लोहा ह्वै न लुहार । 
चित्र चितरे हिं देख अब, त्यों आतम करतार ॥३०॥ 
सुवर्ण सुनार कब होता है ? लोहा लुहार नहीं हो सकता, देखो अब यह भी प्रसिद्ध है चित्र चित्रकार कब बनता है, वैसे ही सगुण जीवात्मा ब्रह्म नहीं बन सकता, गुणतीत ही ब्रह्म होता है । 
घट घट माँहिं पंच है, पंच पंच में प्राण । 
पै इनको ब्रह्म न बोलिये, गुरु गोविन्द की आण ॥३१॥ 
प्रत्येक शरीर में पंच ज्ञानेन्द्रियें है और उन पंचों के सार रूप प्राण है किन्तु हम गुरु और गौविन्द की शपथ दिलाकर कहते हैं, इनको कभी ब्रह्म नहीं कहना, ये तो मायिक हैं । 
सब अवतार आकार तज, भये निरंजन रूप । 
सो हम सेवें पंडितहु, निर्गुण तत्त्व अनूप ॥३२॥ सभी अवतार अपने आकारों को त्याग कर निरंजन रूप हुये हैं, हे पंडित ! हम उसी अनुपम तत्त्व निर्गुण निरंजन ब्रह्म की उपासना करते हैं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 सितंबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(२४/२८) =

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卐 सत्यराम सा 卐
*कृत्रिम नहीं सो ब्रह्म है, घटै बधै नहिं जाइ ।*
*पूरण निश्चल एक रस, जगत न नाचे आइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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सहगुण सब कुछ देखिये, निगुर्ण शून्य स्थान । 
रज्जब उभय अगम तत्त्व, समझो संत सुजान ॥२५॥ 
जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह सभी ईश्वर का सगुण रूप है और निर्गुण तो आकाश के समान रूप रहित होने से दीखता नहीं है, हे बुद्धिमान संतों ! तुम यथार्थ ही समझो अज्ञानी प्राणियों से ईश्वर के उक्त दोनों ही रूप अगम है । 
ज्योति उदय तम नाश ह्वै, त्यों तम आये ज्योति । 
तो रज्जब क्यों वर्णिये, अकल सु इनके पोति१ ॥२६॥ 
ज्योति के उदय होने पर अंधेरा नष्ट हो जाता है और अंधेरा आने पर ज्योति नहीं रहती, तब उस कला-विभाग से रहित ब्रह्म का वर्णन इनके ढंग१ से कैसे करा जा सकता है । 
तिमिर उजाले से परे, है कछु कह्या न जाय । 
रज्जब रीझ्या वस्तु तिहिं, जो नहिं शब्द समाय ॥२७॥ 
वह ब्रह्म रात्रि के अंधकार तथा सूर्यादि के प्रकाश से परे है, उसके विषय में कुछ भी नहीं बनता, जो शब्दों में नहीं समाता उस निर्गुण ब्रह्म रूप वस्तु में ही हम अनुरक्त हैं । 
ओंकार यह आतमा, ब्रह्मांड रु पिंड प्रवेश । 
रज्जब चलि चहुं ठौर सौ, आगे अविगत देश ॥२८॥ 
यह ओंकार ईश्वर रूप से ब्रह्मांड में और जीवात्मा रूप से शरीर में प्रविष्ट है, ऊँ के - अ, उ, म्, अमात्रिक । ईश्वर के - विराट्, हिरण्यागर्भ, ईश्वर, ब्रह्म । आत्मा के - विश्व, तैजस, प्राज्ञ, तुरीय । इन चार पादरूप चारों स्थानों से आगे जाने पर मन इन्द्रियों का अविषय शुद्ध ब्रह्म रूप देश ज्ञात होता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 24 सितंबर 2018

= पीव पिछाण का अंग ४७(२१/२४) =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*जीव जन्म जाणै नहीं, पलक पलक में होइ ।*
*चौरासी लख भोगवै, दादू लखै न कोइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
*पीव पिछाण का अंग ४७*
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यह सब बाजी नट्ट की, कर खेल्या षट् अंग । 
रज्जब मानी जगत जड़, सुन कहै पित भंग१ ॥२१॥ 
यह सब संसार ईश्वर रूप नट का खेल है, वह अपने चन्द्र, सुर्य, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश इन छ: अंगो से खेल रहा है । जो कहते है कि परमात्मा पिता बनता है और नष्ट१ होता है, उस बात को सुन कर जगत् से अज्ञानी प्राणियों ने ही माना है, ज्ञानी नहीं मानते, कारण- न वह किसी का पिता बनता है और न नाश होता । 
रज्जब षट् अंग खलक१ कन२, परि खालिक३ कहया न जाय ।
चन्द्र सूर्य पाणी पवन, धर४ अम्बर६ निरताय५ ॥२२॥ 
ईश्वर के छ: अंग चन्द्र सूर्य जल वायु पृथ्वी४ और आकाश६ संसार१ के पास२ हैं अर्थात संसार में ही हैं किन्तु विचार५पूर्वक उन्हें ईश्वर३ नहीं कहा जाता । 
रज्जब जीव ज्योति मधि औतरै, जीवे माया माँहिं । 
बैठै ऊठै आतमा, हिले चले सो नाँहिं ॥२३॥ 
जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब जल पात्र में उतरता है और जल तब तक जल से हिलने से हिलता दिखाई देता है किन्तु बिम्ब सूर्य नहीं हिलता, वैसे ही जीव चेतन, ब्रह्म ज्योति से आता है और मायिक शरीर में जीवित रहता है, शरीर बैठता ऊठता है तब वह भी बैठता उठता दिखाई देता है किन्तु ब्रह्म तो कभी भी हिलता चलता नहीं, एक रस रहता है । 
रज्जब माया ब्रह्म में, आतम ले अवतार । 
भूत भेद जाने नहीं, शिरदे सिरजन हार ॥२४॥ 
२३ की साखी के अनुसार जल के कारण प्रतिबिंब आता है, वैसे ही माया के कारण ब्रह्म से चेतन उतर कर जीवात्मा का जन्म होता है, इस रहस्य को अज्ञानी प्राणी नहीं जानते, इससे जीव के जन्मादि ईश्वर के शिर मढते हैं ।
(क्रमशः)