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शनिवार, 30 जुलाई 2022

*महायोग में सब एकाकार*

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*पाणी माहैं राखिये, कनक कलंक न जाहि ।*
*दादू गुरु के ज्ञान सों, ताइ अगनि में बाहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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नरेन्द्र जब गा रहे थे, “महायोग में सब एकाकार हो गये", - तो श्रीरामकृष्ण ने कहा, "यह ब्रह्मज्ञान से होता है । तू जो कह रहा था, - सभी विद्या हैं ।"
नरेन्द्र जब गाने लगे, "हे मन ! आनन्द में मस्त होकर दोनों हाथ उठाकर ‘हरि हरि’ बोल" - तो श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र से कहा "इसे दो बार कहा ।”
गीत समाप्त होने पर भक्तों के साथ वार्तालाप हो रहा है ।
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गिरीश - देवेन्द्रबाबू नहीं आये हैं । वे अभिमान करके कहते हैं, ‘हमारे अन्दर तो कुछ सार नहीं है, हम आकर क्या करेंगे !"
श्रीरामकृष्ण (विस्मित होकर) - कहाँ, पहले तो वे वैसी बातें नहीं करते थे ?
श्रीरामकृष्ण जलपान कर रहे हैं, नरेन्द्र को भी कुछ खाने को दिया ।
यतीन देव (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप ‘नरेन्द्र खाओ' 'नरेन्द्र खाओ' कह रहे हैं, और हम लोग क्या कहीं से बहकर आये हैं ।
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यतीन को श्रीरामकृष्ण बहुत चाहते हैं । वे दक्षिणेश्वर में जाकर बीच-बीच में दर्शन करते हैं । कभीकभी रात भी वहीं बिताते हैं । वह शोभाबाजार के राजाओं के घर का (राधाकान्त देव के घर का) लड़का है ।
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श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र के प्रति हँसते हुए) - देख, यतीन तेरी ही बात कर रहा है ।
श्रीरामकृष्ण ने हँसते हँसते यतीन की ठुड्डी पकड़कर प्यार करते हुए कहा, "वहाँ जाना, जाकर खाना ।” अर्थात् 'दक्षिणेश्वर में जाना ।' श्रीरामकृष्ण फिर ‘विवाहविभ्राट’ नाटक का अभिनय देखेंगे । बाक्स में जाकर बैठे । नौकरानी की बात सुनकर हँसने लगे ।
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थोड़ी देर सुनकर उनका मन दूसरी ओर गया । मास्टर के साथ धीरे-धीरे बात कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - अच्छा, गिरीश जो कह रहा है (अर्थात् अवतार) क्या वह सत्य है ?
मास्टर - जी, ठीक बात है । नहीं तो सभी के मन में क्यों लग रही है ?
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श्रीरामकृष्ण - देखो, अब एक स्थिति आ रही है, पहले की स्थिति उलट गयी है । अब धातु की चीजें छू नहीं सकता हूँ ।
मास्टर विस्मित होकर सुन रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यह जो नवीन स्थिति है, इसका एक बहुत ही गूढ़ अर्थ है ।
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श्रीरामकृष्ण धातु छू नहीं सक रहे हैं । सम्भव है, अवतार माया के ऐश्वर्य का कुछ भी भोग नहीं करते, क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण ये सब बातें कह रहे हैं ?
श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - अच्छा, मेरी स्थिति कुछ बदल रही है, देखते हो ?
मास्टर - जी, कहाँ ?
श्रीरामकृष्ण - कर्म में ?
मास्टर - अब कर्म बढ़ रहा है - अनेक लोग जान रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - देख रहे हो ! पहले जो कुछ कहता था, अब सफल हो रहा है ।
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर चुप रहकर एकाएक कह रहे हैं - "अच्छा, पल्टू का अच्छा ध्यान क्यों नहीं होता ?"
अब श्रीरामकृष्ण के दक्षिणेश्वर जाने की व्यवस्था हो रही है ।
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श्रीरामकृष्ण ने किसी भक्त के पास गिरीश के सम्बन्ध में कहा था, "पीसे हुए लहसुन की कटोरी को हजार बार धोओ, पर लहसुन की गन्ध क्या सम्पूर्ण रूप से जाती है ?" गिरीश ने भी इसीलिए मन ही मन प्रेम-कोप किया है । जाते समय गिरीश श्रीरामकृष्ण से कुछ कह रहे हैं ।
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गिरीश (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - लहसुन की गन्ध क्या जायेगी ?
श्रीरामकृष्ण – जायेगी ।
गिरीश - तो आप कह रहे हैं – जायेगी ?
श्रीरामकृष्ण - खूब आग जलाकर लहसुन की कटोरी को उसमें तपा लेने पर फिर गन्ध नहीं रह जाती; बर्तन मानो नया बन जाता है ।
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‘‘जो कहता है 'मेरा नहीं होगा', उसका नहीं होता । मुक्त-अभिमानी मुक्त ही हो जाता है और बद्ध-अभिमानी बद्ध ही रह जाता है । जो जोर से कहता है 'मैं मुक्त हूँ', वह मुक्त ही हो जाता है । पर जो दिनरात कहता है, 'मैं बद्ध हूँ' वह बद्ध ही हो जाता है ।"
(क्रमशः)

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

*'वृषकेतु' नाटक देखना*

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*दादू खेल्या चाहै प्रेम रस, आलम अंगि लगाइ ।*
*दूजे को ठाहर नहीं, पुहुप न गंध समाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)श्रीरामकृष्ण का स्टार थिएटर में देखना 'वृषकेतु' नाटक : नरेन्द्र आदि के साथ*
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श्रीरामकृष्ण 'वृषकेतु' नाटक देखेंगे । बीडन स्ट्रीट पर जहाँ बाद में मनोमोहन थिएटर हुआ, पहले वहाँ स्टार थिएटर था । श्रीरामकृष्ण थिएटर में आकर बाक्स में दक्षिण की ओर मुँह करके बैठे । मास्टर आदि भक्तगण पास ही बैठे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (मास्टर के प्रति) - नरेन्द्र आया है ?
मास्टर - जी हाँ ।
अभिनय हो रहा है । कर्ण और पद्मावती ने आरी को दोनों ओर से पकड़कर वृषकेतु का बलिदान किया । पद्मावती ने रोते रोते मांस को पकाया । वृद्ध ब्राह्मण अतिथि आनन्द मनाते हुए कर्ण से कह रहे हैं, “अब आओ, हम एक साथ बैठकर पका हुआ मांस खायें ।” कर्ण कह रहे हैं, "यह मुझसे न होगा । पुत्र का मांस खा न सकूँगा ।”
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एक भक्त ने सहानुभूति प्रकट करके धीरे से आर्तनाद किया । साथ ही श्रीरामकृष्ण ने भी दुःख प्रकट किया ।
खेल समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण रंगमंच के विश्रामगृह में आकर उपस्थित हुए । गिरीश, नरेन्द्र आदि भक्तगण बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण कमरे में जाकर नरेन्द्र के पास खड़े हुए और बोले, “मैं आया हूँ ।"
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श्रीरामकृष्ण बैठे । अभी भी वृन्द वाद्यों का संगीत सुनायी दे रहा है ।
श्रीरामकृष्ण (भक्तों के प्रति) - यह बाजा सुनकर मुझे आनन्द हो रहा है । वहाँ पर (दक्षिणेश्वर में) शहनाई बजती थी, मैं भावमग्न हो जाता था । एक साधु मेरी स्थिति देखकर कहा करता था, 'ये सब ब्रह्मज्ञान के लक्षण हैं ।'
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वाद्य बन्द होने पर श्रीरामकृष्ण फिर बात कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - यह तुम्हारा थिएटर है या तुम लोगों का ?
गिरीश - जी, हम लोगों का ।
श्रीरामकृष्ण - 'हम लोगों का' शब्द ही अच्छा है । 'मेरा' कहना ठीक नहीं । कोई कोई कहता है 'मैं खुद आया हूँ ।' ये सब बातें हीनबुद्धि अहंकारी लोग कहते हैं ।
नरेन्द्र - सभी कुछ थिएटर है ।
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श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, ठीक । परन्तु कहीं विद्या का खेल है, कहीं अविद्या का ।
नरेन्द्र - सभी विद्या के खेल है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, हाँ, परन्तु यह तो ब्रह्मज्ञान से होता है । भक्ति और भक्त के लिए दोनो ही हैं, विद्यामाया और अविद्यामाया । तू जरा गाना गा ।
नरेन्द्र गाना गा रहे हैं –
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(भावार्थ) - "चिदानन्द समुद्र के जल में प्रेमानन्द की लहरें हैं । अहा ! महाभाव में रासलीला की क्या ही माधुरी है । नाना प्रकार के विलास, आनन्द-प्रसंग कितनी ही नयी नयी भाव तरंगें नये नये रूप धारण कर डूब रही हैं, उठ रही हैं और तरह तरह के खेल कर रही हैं । महायोग में सभी एकाकार हो गये । देश-काल की पृथक्ता तथा भेदाभेद मिट गये और मेरी आशा पूर्ण हुई । मेरी सभी आकांक्षाएँ मिट गयीं । अब हे मन, आनन्द में मस्त होकर दोनों हाथ उठाकर 'हरि हरि' बोल' ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 26 जुलाई 2022

*कलि में शुद्र की भक्ति और मुक्ति*

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*सहजैं ही सब होइगा, गुण इन्द्रिय का नास ।*
*दादू राम संभालतां, कटैं कर्म के पास ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)गिरीश का शान्तभाव । कलि में शुद्र की भक्ति और मुक्ति*
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श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर भावाविष्ट हैं । गिरीश आदि भक्तगण सामने बैठे हैं । कुछ दिन पहले स्टार थिएटर में गिरीश ने अनेक बातें बतायी थीं, इस समय शान्त भाव है ।
श्रीरामकृष्ण(गिरीश के प्रति) - तुम्हारा यह भाव बहुत अच्छा है – शान्तभाव । माँ से इसीलिए कहा था, 'माँ', उसे शान्त कर दो, मुझे ऐसा-वैसा न कहे ।'
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गिरीश(मास्टर के प्रति) - न जाने किसने मेरी जीभ को दबाकर पकड़ लिया है, मुझे बात करने नहीं दे रहा है ।
श्रीरामकृष्ण अभी भी भावमग्न हैं, अन्तर्मुख । बाहर के व्यक्ति, वस्तु, धीरे-धीरे मानो सभी को भूलते जा रहे हैं । जरा स्वस्थ होकर मन को उतार रहे हैं । भक्तों को फिर देख रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण(मास्टर को देखकर) - ये सब वहाँ पर(दक्षिणेश्वर में) जाते हैं, - जाते हैं तो जायँ, माँ सब कुछ जानती हैं ।
(पड़ोसी बालक के प्रति) - क्यों जी, तुम क्या समझते हो ? मनुष्य का क्या कर्तव्य है ?
सभी चुप हैं । क्या श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि ईश्वर की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य है ?
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श्रीरामकृष्ण(नारायण के प्रति) - क्या तू पास होना नहीं चाहता ? अरे सुन, जो पाशमुक्त हो जाता है वह शिव बन जाता है और जो पाशबद्ध रहता है वह जीव है ।"* (*बंगला में 'पास' और 'पाश' दोनों का उच्चारण एक जैसा किया जाता है ।)
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श्रीरामकृष्ण अभी भावमग्न हैं । पास ही ग्लास में जल रखा था, उन्होंने उसका पान किया । वे अपने आप कह रहे हैं, “कहाँ, भाव में तो मैंने जल पी लिया !"
अभी सायंकाल नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण गिरीश के भाई अतुल के साथ बातचीत कर रहे हैं । अतुल भक्तों के साथ सामने ही बैठे हैं । एक ब्राह्मण पड़ोसी भी बैठे हैं । अतुल हाईकोर्ट में वकील हैं ।
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श्रीरामकृष्ण(अतुल के प्रति) - आप लोगों से यही कहता हूँ, आप दोनों करें, संसार धर्म भी करें और जिससे भक्ति हो वह भी करें ।
ब्राह्मण पड़ोसी - क्या ब्राह्मण न होने पर मनुष्य सिद्ध होता है ?
श्रीरामकृष्ण - क्यों ? कलियुग में शूद्र की भक्ति की कथाएँ हैं । शबरी, रैदास, गुहल चण्डाल, - ये सब हैं ।
नारायण - (हँसते हुए )- ब्राह्मण, शूद्र सब एक हैं ।
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ब्राह्मण - क्या एक जन्म में होता है ?
श्रीरामकृष्ण - उनकी दया होने पर क्या नहीं होता ! हजार वर्ष के अन्धकारपूर्ण कमरे में बत्ती लाने पर क्या थोड़ा थोड़ा करके अन्धकार जाता है ? एकदम रोशनी हो जाती है !
(अतुल के प्रति) – “तीव्र वैराग्य चाहिए - जैसी नंगी तलवार ! ऐसा वैराग्य होने पर स्वजन काले साँप जैसे लगते हैं, घर कुआँ-सा प्रतीत होता है ।
"और अन्तर से व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । अन्तर की पुकार वे अवश्य सुनेंगे ।”
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सब चुपचाप हैं । श्रीरामकृष्ण ने जो कुछ कहा, एकाग्र चित्त से सुनकर सभी उस पर चिन्तन कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण(अतुल के प्रति) - क्यों, वैसी दृढ़ता – व्याकुलता - नहीं होती ?
अतुल - मन कहाँ ईश्वर में रह पाता है ?
श्रीरामकृष्ण - अभ्यासयोग ! प्रतिदिन उन्हें पुकारने का अभ्यास करना चाहिए । एक दिन में नहीं होता । रोज पुकारते पुकारते व्याकुलता आ जाती है ।
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"रात-दिन केवल विषय-कर्म करने पर व्याकुलता कैसे आयेगी ? यदु मल्लिक शुरू शुरू में ईश्वर की बातें अच्छी तरह सुनता था, स्वयं भी कहता था । आजकल अब उतना नहीं कहता । रात-दिन चापलूसों को लेकर बैठा रहता है, केवल विषय की बातें !"
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सायंकाल हुआ । कमरे में बत्ती जलायी गयी है । श्रीरामकृष्ण देवताओं के नाम ले रहे हैं, गाना गा रहे हैं और प्रार्थना कर रहे हैं ।
कह रहे हैं, "हरि बोल, हरि बोल, हरि बोल"; फिर "राम, राम, राम"; फिर "नित्यलीलामयी, ओ माँ ! उपाय बता दे, माँ !"; "शरणागत, शरणागत, शरणागत" ।
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गिरीश को व्यस्त देखकर श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर चुप रहे । तेजचन्द्र से कह रहे हैं, "तू जरा पास आकर बैठ ।"
तेजचन्द्र पास बैठे । थोड़ी देर बाद मास्टर से कान में कह रहे हैं, "मुझे जाना है ।"
श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति ) - क्या कह रहा है ?
मास्टर - घर जाना है - यही कह रहा है ।
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श्रीरामकृष्ण - मैं इन्हें इतना क्यों चाहता हूँ ? ये निर्मल पात्र हैं - विषयबुद्धि प्रविष्ट नहीं हुई है । विषयबुद्धि रहने पर उपदेशों को धारण नहीं कर सकते । नये बर्तन में दूध रखा जा सकता है, दही के बर्तन में दूध रखने से खराब हो जाता है ।
"जिस कटोरी में लहसुन घोला हो, उस कटोरी को चाहे हजार बार धो डालो, लहसुन की गन्ध नहीं जाती ।"
(क्रमशः)

शनिवार, 23 जुलाई 2022

*मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है*

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*सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।*
*सहज रूप सुमिरण करै, निष्कामी दादू दीन ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ लै का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है*
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"मातृभाव मानो निर्जला एकादशी है; किसी भोग की गन्ध नहीं है । दूसरी है फल-मूल खाकर एकादशी; और तीसरी, पूरी मिठाई खाकर एकादशी । मेरी निर्जला एकादशी है, मैंने मातृभाव से सोलह वर्ष की कुमारी की पूजा की थी । देखा, स्तन मातृस्तन हैं, योनि मातृयोनि है ।
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"यह मातृभाव - साधना की अन्तिम बात है । ‘तुम माँ हो, मैं तुम्हारा बालक हूँ ।' यही अन्तिम बात है ।
"संन्यासी की निर्जला एकादशी है; यदि संन्यासी भोग रखता है; तभी भय है । कामिनी-कांचन भोग हैं । जैसे थूककर फिर उसी थूक को चाट लेना ।
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रुपये-पैसे, मान इज्जत, इन्द्रियसुख - ये सब भोग हैं । संन्यासी का स्त्रीभक्त के साथ बैठना या वार्तालाप करना भी ठीक नहीं हैं - इसमें अपनी भी हानि और दूसरों की भी हानि है । इससे दूसरे लोगों को शिक्षा नहीं मिलती, लोकशिक्षा नहीं होती । संन्यासी का शरीर-धारण लोकशिक्षा के लिए है ।
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"औरतों के साथ बैठना या अधिक देर तक वार्तालाप करना - इसे भी रमण कहा है । रमण आठ प्रकार के हैं । कोई औरतों की बातें सुन रहा है; सुनते सुनते आनन्द हो रहा है, - यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की बात कह रहा है (कीर्तन में) - यह एक प्रकार का रमण है ।
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औरतों के साथ एकान्त में गुपचुप बातचीत कर रहा है यह एक प्रकार का रमण है । औरतों की कोई चीज पास रख ली है, आनन्द हो रहा है - यह प्रकार है । स्पर्श करना भी एक प्रकार का रमण है; इसीलिए गुरुपत्नी यदि युवती हो तो पादस्पर्श नहीं करना चाहिए । संन्यासियों के लिए ये सब नियम है ।
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"संसारियों की अलग बात है । वे दो-एक पुत्र होने पर भाईबहन की तरह रहें । उनके लिए अन्य सात प्रकार के रमण से उतना दोष नहीं है ।
"गृहस्थ के ऋण हैं । देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण; फिर स्त्रीऋण भी है – एक दो बच्चे होना और सती हो तो उसका प्रतिपालन करना ।
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“संसारी लोग समझ नहीं सकते कि कौन अच्छी स्त्री है और कौन बुरी स्त्री; कौन विद्याशक्ति और कौन अविद्याशक्ति । जो अच्छी स्त्री है, विद्याशक्ति है, उसमें काम, क्रोध आदि कम होता है, नींद कम होती है । वह पति के मस्तक को दूर ठेल देती है । जो विद्याशक्ति है उसमें स्नेह, दया, भक्ति, लज्जा आदि होते हैं । वह सभी की सेवा करती है, वात्सल्य भाव से; और पति की भगवान् में भक्ति बढ़ाने का यत्न करती है । अधिक खर्च नहीं करती, कहीं पति को अधिक श्रम न करना पड़े, कहीं ईश्वर के चिन्तन में विघ्न न हो ।
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"फिर मर्दानी स्वियों के भी लक्षण हैं । खराब लक्षण - टेढ़ी धँसी हुई आँखें, बिल्ली जैसी आँखें, हड्डियाँ उभरी हुई, बछड़े जैसे गाल ।"
गिरीश - हमारे उद्धार का उपाय क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - भक्ति ही सार है । फिर भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज, भक्ति का तम भी है ।
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“भक्ति का सत्त्व है दीन-हीन भाव; भक्ति का तम मानो डाका पड़ने का भाव है - मैं उनका काम कर रहा हूँ, मुझे फिर पाप कैसा ? तुम मेरी अपनी माँ हो, दर्शन देना ही होगा ।"
गिरीश (हँसते हुए) - भक्ति का तम आप ही तो सिखाते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - परन्तु उनके दर्शन होने का लक्षण है । समाधी होती है । समाधि पाँच प्रकार की होती है । (१) चींटी की गति - महावायु चींटी की तरह उठती है । (२) मछली की गति । (३) तिर्यक् गति । (४) पक्षी को गति - जिस प्रकार पक्षी एक शाखा से दूसरी शाखा पर जाता है । (५) कपिवत् या बन्दर की गति - मानो महावायु कूदकर माथे पर उठ गयी और समाधि हो गयी ।
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"और भी दो प्रकार की समाधि है । एक - स्थित समाधि, एकदम बाह्यशून्य; बहुत देर तक, सम्भव है, कई दिनों तक रहे । और दूसरी - उन्मना समाधि, एकाएक मन को चारों ओर से समेट कर ईश्वर में लगा देना ।
(मास्टर के प्रति) “तुमने यह समझा है ?"
मास्टर - जी हाँ ।
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गिरीश - क्या साधना द्वारा उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ?
श्रीरामकृष्ण - लोगों ने अनेक प्रकार से उन्हें प्राप्त किया है । किसी ने अनेक तपस्या, साधन-भजन करके प्राप्त किया है, ये हैं साधनसिद्ध कोई जन्म से सिद्ध हैं, जैसे नारद शुकदेव आदि; इन्हें कहते हैं नित्यसिद्ध । दूसरे हैं अकस्मात सिद्ध, जिन्होंने एकाएक प्राप्त कर लिया है; जैसे कोई आशा न थी । पर एकाएक नन्द बसू की तरह धन मिल गया ।
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"और कुछ लोग हैं स्वप्नसिद्ध और कृपासिद्ध । यह कहकर श्रीरामकृष्ण भाव में विभोर होकर गाना गा रहे हैं ।
(भावार्थ) - "क्या श्यामारूपी धन को सभी लोग प्राप्त करते है ! अबोध मन नहीं समझता है, यह क्या बात है !"
(क्रमशः)

गुरुवार, 21 जुलाई 2022

*ज्ञान-भक्ति-समन्वय का प्रसंग*

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*दादू दिन दिन भूलै देह गुण, दिन दिन इंद्रिय नाश ।*
*दिन दिन मन मनसा मरै, दिन दिन होइ प्रकाश ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १०७.गिरीश के मकान पर*
*(१)ज्ञान-भक्ति-समन्वय का प्रसंग*
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श्रीरामकृष्ण गिरीश घोष के बसुपाड़ावाले मकान में भक्तों के साथ बैठकर ईश्वर सम्बन्धी वार्तालाप कर रहे हैं । दिन के तीन बजे का समय है । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया । आज बुधवार है - फाल्गुन शुक्ला एकादशी - २५ फरवरी १८८५ ई. । पिछले रविवार को दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्ण का जन्म महोत्सव हो गया है । श्रीरामकृष्ण गिरीश के घर होकर स्टार थिएटर में 'वृषकेतु' नाटक देखने जायेंगे ।
.
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर पहले ही पधारे हैं । कामकाज समाप्त करके आने में मास्टर को थोड़ा विलम्ब हुआ । उन्होंने आकर ही देखा, श्रीरामकृष्ण उत्साह के साथ ब्रह्मज्ञान और भक्तितत्त्व के समन्वय की चर्चा कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति जीव की ये तीन स्थितियाँ होती हैं ।
.
"जो लोग ज्ञान का विचार करते हैं वे तीनों स्थितियों को उड़ा देते हैं । वे कहते हैं कि ब्रह्म तीनों स्थितियों से परे है - स्थूल, सूक्ष्म, कारण तीनों शरीरों से परे है; सत्त्व, रज, तम - तीनों गुणों से परे है । सभी माया है, जैसे दर्पण में परछाई पड़ती है । प्रतिबिम्ब कोई वस्तु नहीं है । ब्रह्म ही वस्तु है, बाकी सब अवस्तु ।
.
"ब्रह्मज्ञानी और भी कहते हैं, देहात्मबुद्धि रहने से ही दो दिखते हैं । परछाई भी सत्य प्रतीत होती है । वह बुद्धि लुप्त होने पर 'सोऽहम्' - 'मैं ही वह ब्रह्म हूँ' - यह अनुभूति होती है ।"
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एक भक्त - तो फिर क्या हम सब बुद्धि-विचार का मार्ग ग्रहण करें ?
श्रीरामकृष्ण – विचार-पथ भी है - वेदान्तवादियों का पथ । और एक पथ है भक्तिपथ । भक्त यदि ब्रह्मज्ञान के लिए व्याकुल होकर रोता है, तो वह उसे भी प्राप्त कर लेता है । ज्ञानयोग और भक्तियोग ।
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"दोनों पथों से ब्रह्मज्ञान हो सकता है । कोई कोई ब्रह्मज्ञान के बाद भी भक्ति लेकर रहते हैं - लोकशिक्षा के लिए; जैसे अवतार आदि ।
"देहात्मबुद्धि, ‘मैं’ - बुद्धि आसानी से नहीं जाती । उनकी कृपा से समाधिस्थ होने पर जाती है - निर्विकल्प समाधि, जड़ समाधि ।
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“समाधि के बाद अवतार आदि का 'मैं’ फिर लौट आता है - 'विद्या का मैं', 'भक्त' का ‘मैं’ । इस ‘विद्या के मैं’ से लोकशिक्षा होती है । शंकराचार्य ने ‘विद्या के मैं’ को रखा था ।
"चैतन्यदेव इसी ‘मैं’ द्वारा भक्ति का आस्वादन करते थे, भक्ति-भक्त लेकर रहते थे, ईश्वर की बातें करते थे, नाम संकीर्तन करते थे ।
.
" ‘मैं’ तो सरलता से नहीं जाता, इसीलिए भक्त जाग्रत्, स्वप्न आदि स्थितियों को उड़ा नहीं देता । वह सभी स्थितियों को मानता है, सत्व-रज-तम तीन गुण भी मानता है । भक्त देखता है, वे ही चौबीस तत्व बने हुए हैं । जीव-जगत् बने हुए हैं । फिर वह देखता है कि वे साकार चिन्मय रूप में दर्शन देते है ।
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"भक्त विद्यामाया की शरण लेता है । साधुसंग, तीर्थ, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य - इन सब की शरण लेकर रहता है । वह कहता है, यदि 'मैं' सरलता से चला न जाय, तो रहे साला 'दास' बनकर, 'भक्त' बनकर ।
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"भक्त का भी एकाकार ज्ञान होता है । वह देखता है, ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । स्वप्न की तरह नहीं कहता, परन्तु कहता है, वे ही ये सब बने हुए हैं । मोम के बगीचे में सभी कुछ मोम का है । परन्तु है अनेक रूप में ।
"परन्तु पक्की भक्ति होने पर इस प्रकार बोध होता है । अधिक पित्त जमने पर पीला रोग होता है । तब मनुष्य देखता है कि सभी पीले हैं ।
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श्रीमती राधा ने श्यामसुन्दर का चिन्तन करते करते सभी श्याममय देखा और अपने को भी श्याम समझने लगीं । सीसा यदि अधिक दिन तक पारे के तालाब में रहे तो वह भी पारा बन जाता है । 'कुमुड़' कीड़े को सोचते सोचते झींगुर निश्चल हो जाता है, हिलता नहीं, अन्त में 'कुमुड़' कीड़ा ही बन जाता है । भक्त भी उनका चिन्तन करते करते अहंशून्य बन जाता है । फिर देखता है "वह ही मैं हूँ, मैं ही वह हूँ ।'
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"झींगुर जब 'कुमुड़' कीड़ा बन जाता है, तब सब कुछ हो गया । तभी मुक्ति होती है ।
"जब तक उन्होंने मैं-पन को रखा, तब तक एक भाव का सहारा लेकर उन्हें पुकारना पड़ता है - शान्त, दास्य, वात्सल्य - ये सब ।
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"मैं दासीभाव में एक वर्ष तक था - ब्रह्ममयी की दासी औरतों का कपड़ा, ओढ़ना - यह सब पहना करता था, फिर नथ भी पहनता था । औरतों के भाव में रहने से काम पर विजय प्राप्त होती है ।
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“उस आद्यशक्ति की पूजा करनी होती है, उन्हें प्रसन्न करना होता है । वे ही औरतों का रूप धारण करके वर्तमान हैं; इसीलिए मेरा मातृभाव है ।
"मातृभाव अति शुद्ध भाव है । तन्त्र में वामाचार की बात भी है, परन्तु यह ठीक नहीं, उससे पतन होता है । भोग रखने से ही भय है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

*प्रेमाभक्ति*

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*हंस गियानी सो भला, अन्तर राखे एक ।*
*विष में अमृत काढ ले, दादू बड़ा विवेक ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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गिरीश को देखते देखते मानो श्रीरामकृष्ण के भाव का उल्लास और भी बढ़ रहा है । वे खड़े खड़े फिर गा रहे हैं –
(भावार्थ) - "मैंने अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है...।"
श्रीरामकृष्ण भाव में मस्त होकर फिर गा रहे हैं –
(भावार्थ) - “मैं देह को संसाररूपी बाजार में बेचकर श्रीदुर्गानाम खरीद लाया हूँ ।”
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श्रीरामकृष्ण (गिरीश आदि भक्तों के प्रति) - " ‘भाव से शरीर भर गया, ज्ञान नष्ट हो गया ।'
"उस ज्ञान का अर्थ है बाहर का ज्ञान । तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान यही सब चाहिए ।
"भक्ति ही सार है । सकाम भक्ति भी है और निष्काम भक्ति भी । शुद्धा भक्ति, अहेतुकी भक्ति - यह भी है । केशव सेन आदि अहेतुकी भक्ति नहीं जानते थे । कोई कामना नहीं, केवल ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति !
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"एक और है - उर्जिता भक्ति । मानो भक्ति उमड़ रही है । भाव में हँसता-नाचता-गाता है, जैसे चैतन्यदेव । राम ने लक्ष्मण से कहा, 'भाई, जहाँ पर उर्जिता भक्ति हो, वहीं पर जानो, मैं स्वयं विद्यमान हूँ ।" "
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श्रीरामकृष्ण क्या अपनी स्थिति का इशारा कर रहे हैं ? क्या श्रीरामकृष्ण चैतन्यदेव की तरह अवतार हैं ? जीव को भक्ति सिखाने के लिए अवतीर्ण हुए हैं ?
गिरीश - आपकी कृपा होने से ही सब कुछ होता है । मैं क्या था, क्या हुआ हूँ !
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श्रीरामकृष्ण - अजी, तुम्हारा संस्कार था, इसीलिए हो रहा है । समय हुए बिना कुछ नहीं होता । जब रोग अच्छा होने को हुआ, तो वैद्य ने कहा, 'इस पत्ते को काली मिर्च के साथ पीसकर खाना ।’ उसके बाद रोग दूर हो गया । अब काली मिर्च के साथ दवा खाकर अच्छा हुआ या यों ही रोग ठीक हो गया, कौन कह सकता है ?
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"लक्ष्मण ने लव-कुश से कहा, ‘तुम बच्चे हो, श्रीरामचन्द्र को नहीं जानते । उनके पदस्पर्श से अहिल्या पत्थर से मानवी बन गयी ।' लव-कुश बोले, 'महाराज, हम सब जानते हैं; सब सुना है । पत्थर से जो मानवी बनी, यह मुनि का वचन था । गौतम मुनि ने कहा था कि त्रेतायुग में श्रीरामचन्द्र उस आश्रम के पास से होकर जायेंगे, उनके चरणस्पर्श से तुम फिर मानवी बन जाओगी । सो अब राम के गुण से बनी या मुनि के वचन से, कौन कह सकता है ?"
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"सब ईश्वर की इच्छा से हो रहा है । यहाँ पर यदि तुम्हें चैतन्य प्राप्त हो, तो मुझे निमित्त मात्र जानना । चन्दामामा सभी का मामा है । ईश्वर की इच्छा से सब कुछ हो हो रहा है ।
‘गिरीश (हँसते हुए) - ईश्वर की इच्छा से न ? मैं भी तो यही कह रहा हूँ । (सभी की हँसी)
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श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - सरल बनने पर ईश्वर का शीघ्र ही लाभ होता है । जानते हो कितनों को ज्ञान नहीं होता ? एक - जिसका मन टेढ़ा है, सरल नहीं है । दूसरा - जिसे छुआछूत का रोग है, और तिसरा जो संशयात्मा है ।
श्रीरामकृष्ण नित्यगोपाल की भावावस्था की प्रशंसा कर रहे हैं ।
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अभी तक तीन-चार भक्त उस दक्षिण-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हैं और सब कुछ सुन रहे हैं । श्रीरामकृष्ण परमहंस की स्थिति का वर्णन कर रहे हैं ।
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कह रहे हैं, "परमहंस को सदा यही बोध होता है कि ईश्वर सत्य है, शेष सभी अनित्य । हंस में जल से दूध को अलग निकाल लेने की शक्ति है । उसकी जिव्हा में एक प्रकार का खट्टा रस रहता है; दूध और जल यदि मिला हुआ रहे तो उस रस के द्वारा दूध अलग और जल अलग हो जाता है । परमहंस के मुख में भी खट्टा रस है, प्रेमाभक्ति । प्रेमाभक्ति रहने से हो नित्य-अनित्य का विवेक होता है, ईश्वर की अनुभूति होती है, ईश्वर का दर्शन होता है ।”
(क्रमशः)

रविवार, 17 जुलाई 2022

*गिरीश आदि भक्तों के साथ प्रेमानन्द में*

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*एक देश हम देखिया, जहँ ऋतु नहीं पलटै कोइ ।*
*हम दादू उस देश के, जहँ सदा एक रस होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(४)गिरीश आदि भक्तों के साथ प्रेमानन्द में*
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सायंकाल हुआ । धीरे धीरे मन्दिर में आरती का शब्द सुनायी देने लगा । आज फाल्गुन की शुक्ला अष्टमी तिथि; छः-सात दिनों के बाद पूर्णिमा के दिन होली महोत्सव होगा ।
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देवमन्दिर का शिखर, प्रांगण, बगीचा, वृक्षों के ऊपर के भाग चन्द्रकिरण में मनोहर रूप धारण किये हुए हैं । गंगाजी इस समय उत्तर की ओर बह रही है, चाँदनी में चमक रही हैं, मानो आनन्द से मन्दिर के किनारे से उत्तर की ओर प्रवाहित हो रही हैं । श्रीरामकृष्ण अपने कमरें में छोटे तखत पर बैठकर चुपचाप जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं ।
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उत्सव के बाद अभी तक दो-एक भक्त रह गये हैं । नरेन्द्र पहले ही चले गये ।
आरती समाप्त हुई । श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे पर धीरे धीरे टहल रहे हैं । मास्टर भी वहीं खड़े खड़े श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक मास्टर को सम्बोधित कर कह रहे हैं, "अहा, नरेन्द्र का क्या ही गाना है !”
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मास्टर - जी, 'घने अन्धकार में’, वह गाना !
श्रीरामकृष्ण – हाँ, उस गाने का बहुत गम्भीर अर्थ है । मेरे मन को मानो अभी खींचकर रखा है ।
मास्टर – जी, हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - अन्धकार में ध्यान, यह तन्त्र का मत है । उस समय सूर्य का आलोक कहाँ है ?
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श्री गिरीश घोष आकर खड़े हुए । श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं ।
(भावार्थ) - "ओ रे ! क्या मेरी माँ काली है ? ओ रे ! कालरूपी दिगम्बरी हृतपद्म को आलोकित करती है ।"
श्रीरामकृष्ण मतवाले होकर खड़े खड़े गिरीश के शरीर पर हाथ रखकर गाना गा रहे हैं –
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(भावार्थ) - “गया, गंगा, प्रभास, काशी, कांची आदि कौन चाहता है । ..."
(भावार्थ) - "इस बार मैंने अच्छा सोचा है । अच्छे भाववाले से भाव सीखा है । माँ, जिस देश में रात्रि नहीं है, उस देश का एक आदमी पाया हूँ; क्या दिन और क्या सन्ध्या - सन्ध्या को भी मैंने वन्ध्या बना डाली है । नूपुर में ताल मिलाकर उस ताल का एक गाना सीखा है; वह ताल ‘ताध्रिम ताध्रिम' रव से बज रहा है ।
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मेरी नींद खुल गयी है, क्या मैं फिर सो सकता हूँ ? मैं याग-योग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा तुझे देकर मैने नींद को सुला दिया है । प्रसाद कहता है, मैंने भुक्ति और मुक्ति इन दोनों को सिर पर रखा है । काली ही ब्रह्म है इस मर्म को जानकर मैंने धर्म और अधर्म दोनों को त्याग दिया है ।"
(क्रमशः)

शुक्रवार, 15 जुलाई 2022

*(३)गृहस्थ तथा दानधर्म । मनोयोग तथा कर्मयोग*

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*सत्संग नित प्रति कीजिये,*
*मति होय नर्मल सार रे,*
*रुचि प्राण पति सौं उपजे,*
*अति लहहिं सुख अपार रे ।*
*मुख नाम हरि हरि उच्चरे,*
*श्रुति सुणत गुण गोविन्द रे,*
*रट ररंकार अखंड धुनि,*
*तहं प्रकट पूरण चन्द्र रे ।*
*सतगुरु बिना नहीं पाइए,*
*ये अगम उलटो खेल रे,*
*कहे दास "सुंदर" देखतां,*
*होय जीव ब्रह्म ही मेल रे ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)गृहस्थ तथा दानधर्म । मनोयोग तथा कर्मयोग*
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श्रीरामकृष्ण फिर छोटे तखत पर आकर बैठे हैं । भक्तगण अभी भी जमीन पर बैठे हैं । सुरेन्द्र उनके पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देख रहे हैं और बातचीत के सिलसिले में उन्हें अनेकों उपदेश दे रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सुरेन्द्र के प्रति) - बीच बीच में आते जाना । नागा कहा करता था, लोटा रोज रगड़ना चाहिए, नहीं तो मैला पड़ जायेगा । साधुसंग सदैव ही आवश्यक है ।
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"कामिनी कांचन का त्याग संन्यासी के लिए है, तुम लोगों के लिए वह नहीं । तुम लोग बीच-बीच में निर्जन में जाना और उन्हें व्याकुल होकर पुकारना । तुम लोग मन में त्याग करना ।
"भक्त, वीर हुए बिना भगवान् तथा संसार दोनों ओर ध्यान नहीं रख सकता । जनक राजा साधन-भजन के बाद सिद्ध होकर संसार में रहे थे । वे दो तलवारें घुमाते थे – ज्ञान और कर्म ।"
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यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाना गा रहे हैं –
(भावार्थ) - "यह संसार आनन्द की कुटिया है । यहाँ मैं खाता, पीता और मजा लूटता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी थे । उन्हें किस बात की कमी थी ! उन्होंने दोनों बातों को सँभालते हुए दूध पिया था ।"
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श्रीरामकृष्ण - "तुम्हारे लिए चैतन्यदेव ने जो कहा था, जीवों पर दया, भक्तों की सेवा और नामसंकीर्तन ।
"तुम्हें क्यों कह रहा हूँ ? तुम 'हौस'* में काम कर रहे हो । अनेक काम करने पड़ते है, इसलिए कह रहा हूँ । (House - व्यापारी की दुकान)
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"तुम आफिस में झूठ बोलते हो, फिर भी तुम्हारी चीजें क्यों खाता हूँ ? तुम दान, ध्यान जो करते हो । तुम्हारी जो आमदनी है उससे अधिक दान करते हो । बारह हाथ ककड़ी का तेरह हाथ बीज !
"कंजूस की चीज मैं नहीं खाता हूँ । उनका धन इतने प्रकारों से नष्ट हो जाता है – मामला मुकदमा में, चोर-डकैतों से, डाक्टरों में, फिर बदचलन लड़के सब धन उड़ा देते है, यही सब है ।
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"तुम जो दान, ध्यान करते हो, बहुत अच्छा है । जिनके पास धन है उन्हें दान करना चाहिए । कंजूस का धन उड़ जाता है । दाता के धन की रक्षा होती है, सत्कर्म में जाता है । कामारपुकुर में किसान लोग नाला काटकर खेत में जल लाते हैं । कभी कभी जल का इतना वेग होता है कि खेत का बाँध टूट जाता है और जल निकल जाता है, अनाज बरबाद हो जाता है; इसीलिए किसान लोग बाँध के बीच बीच में सूराख बनाकर रखते हैं, इसे 'घोघी' कहते हैं ।
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जल थोड़ा थोड़ा करके घोघी में से होकर निकल जाता है, तब जल के वेग से बाँध नहीं टूटता और खेत पर मिट्टी की परतें जम जाती हैं । उससे खेत उर्वर बन जाता है और बहुत अनाज पैदा होता है । जो दान, ध्यान करता है वह बहुत फल प्राप्त करता है, चतुर्वर्ग फल ।"
भक्तगण सभी श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से दानधर्म की यह कथा एक मन से सुन रहे हैं ।
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सुरेन्द्र - मैं अच्छा ध्यान नहीं कर पाता । बीच बीच में 'माँ माँ' कहता हूँ । और सोते समय 'माँ माँ' कहते कहते सो जाता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - ऐसा होने से ही काफी है । स्मरण-मनन तो है न ?
"मनोयोग और कर्मयोग । पूजा, तीर्थ, जीवसेवा आदि तथा गुरु के उपदेश के अनुसार कर्म करने का नाम है कर्मयोग । जनक आदि जो कर्म करते थे, उसका नाम भी कर्मयोग है । योगी लोग जो स्मरण-मनन करते हैं उसका नाम है मनोयोग ।
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"फिर कालीमन्दिर में जाकर सोचता हूँ 'माँ, मन भी तो तुम हो !' इसीलिए शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा एक ही चीज हैं ।"
सन्ध्या हो रही है । अनेक भक्त श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर घर लौट रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण पश्चिम के बरामदे में गये हैं । भवनाथ और मास्टर साथ हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (भवनाथ के प्रति) - तू इतनी देर में क्यों आता है ?
भवनाथ (हँसकर) - जी, पन्द्रह दिनों के बाद दर्शन करता हूँ । उस दिन आपने स्वयं ही रास्ते में दर्शन दिया । इसलिए फिर नहीं आया ।
श्रीरामकृष्ण - यह कैसी बात है रे ! केवल दर्शन से क्या होता है ? स्पर्शन, वार्तालाप ये सब भी तो चाहिए ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

*शास्त्र का सार श्रीगुरुमुख से*

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*चलु दादू तहँ जाइये, माया मोह तैं दूर ।*
*सुख दुख को व्यापै नहीं, अविनासी घर पूर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मध्य का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"शास्त्र का सार श्रीगुरुमुख से जान लेना चाहिए । उसके बाद साधन-भजन । एक आदमी को किसी ने पत्र लिखा था । पत्र पढ़ा भी न गया था कि खो गया । तब सब मिलकर ढूँढ़ने लगे । जब पत्र मिला, पढ़कर देखा, लिखा था - 'पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेज दो ।' पढ़कर उसने पत्र को फेंक दिया और पाँच सेर सन्देश और एक धोती का प्रबन्ध करने लगा । इसी प्रकार शास्त्रों का सार जान लेने पर फिर पुस्तकें पढ़ने की क्या आवश्यकता ? अब साधन-भजन ।"
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अब गिरीश कमरे में आये हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - हाँ जी, मेरी बात तुम लोग सब क्या कह रहे थे ? मैं खाता-पीता और मजे में रहता हूँ ।
गिरीश - आपकी बात और क्या कहूँगा आप क्या साधु हैं ?
श्रीरामकृष्ण - साधु वाधु नहीं । सच ही तो मुझ में साधु-बोध नहीं है ।
गिरीश - मजाक में भी आप से हार गया ।
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श्रीरामकृष्ण - मैं लाल किनारी की धोती पहनकर जयगोपाल सेन के बगीचे में गया था । केशव सेन वहाँ पर था । केशव ने लाल किनारी की धोती देखकर कहा, 'आज तो खूब रंग दीख रहा है ! लाल किनारी की बड़ी बहार है !' मैंने कहा, 'केशव का मन भुलाना होगा, इसीलिए बहार लेकर आया हूँ ।"
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अब फिर नरेन्द्र का संगीत होगा । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से तानपूरा उतार देने के लिए कहा । नरेन्द्र बहुत देर से तानपूरे को बाँध रहे हैं । श्रीरामकृष्ण तथा सभी लोग अधीर हो गये हैं । विनोद कह रहे हैं, "आज बाँधना होगा, गाना किसी दूसरे दिन होगा !” (सभी हँसते हैं ।)
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श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं और कह रहे हैं, “ऐसी इच्छा हो रही है कि तानपूरे तोड़ डालूँ । क्या 'टंग टंग' - फिर 'ताना नाना तेरे नुम्' होगा ।"
भवनाथ - संगीत के प्रारम्भ में ऐसी ही तंगी मालूम होती है ।
नरेन्द्र (बाँधते बाँधते) - न समझने से ही ऐसा होता है ।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - देखो, हम सभी को उड़ा दिया !
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नरेन्द्र गाना गा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे सुन रहे हैं । नित्यगोपाल आदि भक्तगण जमीन पर बैठे सुन रहे हैं ।
(भावार्थ) - (१) "ओ माँ, अन्तर्यामिनी, तुम मेरे हृदय में जाग रही हो, रात-दिन मुझे गोदी में लिये बैठी हो ।"
(२) "गाओ रे आनन्दमयी का नाम, ओ मेरे प्राणों को आराम देनेवाली एकतन्त्री ।”
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(३) "माँ, घने अन्धकार में तेरा रूप चमकता है । इसीलिए योगी पहाड़ की गुफा में रहकर ध्यान करता रहता है ।"
श्रीरामकृष्ण भावविभोर होकर नीचे उतर आये हैं और नरेन्द्र के पास बैठे हैं । भावविभोर होकर बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - गाना गाऊँ ? नहीं, नहीं (नित्यगोपाल के प्रति) तू क्या कहता है ? उद्दीपन के लिए सुनना चाहिए । उसके बाद क्या आया और क्या गया !
“उसने आग लगा दी, सो तो अच्छा है । उसके बाद चुप । अच्छा, मैं भी तो चुप हूँ, तू भी चुप रह । "आनन्द-रस में मग्न होने से वास्ता !
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"गाना गाऊँ ? अच्छा, गाया भी जा सकता है । जल स्थिर रहने से भी जल है, और हिलने-डुलने पर भी जल है ।"
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नरेन्द्र को शिक्षा - ज्ञान-अज्ञान से परे रहो
नरेन्द्र पास बैठे हैं । उनके घर में कष्ट है, इसीलिए वे सदा ही चिन्तित रहते हैं । वे साधारण ब्राह्मसमाज में आते-जाते रहते हैं । अभी भी सदा ज्ञान-विचार करते हैं, वेदान्त आदि ग्रन्थ पढ़ने की बहुत ही इच्छा है । इस समय उनकी आयु तेईस वर्ष की होगी । श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (हँसकर नरेन्द्र के प्रति) - तू तो 'ख' (आकाश की तरह) है, परन्तु यदि टैक्स* न रहता ! (सभी की हँसी) (*अर्थात् घर की चिन्ता ।)
"कृष्णकिशोर कहा करता था, मैं 'ख' हूँ । एक दिन उसके घर जाकर देखता हूँ तो वह चिन्तित होकर बैठा है, अधिक बात नहीं कर रहा है ।
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मैंने पूछा, 'क्या हुआ जी, इस तरह क्यों बैठे हो ?' उसने कहा, 'टैक्सवाला आया था, कह गया, यदि रुपये न दोगे, तो घर का सब सामान नीलाम कर लेंगे । इसीलिए मुझे चिन्ता हुई है ।' मैंने हँसते हँसते कहा, "यह कैसी बात है जी, तुम तो 'ख' (आकाश) की तरह हो । जाने दो, सालों को सब सामान ले जाने दो, तुम्हारा क्या ?"
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“इसीलिए तुझे कहता हूँ, तू तो 'ख' है - इतनी चिन्ता क्यों कर रहा है ? जानता है, श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था, 'अष्टसिद्धि में से एक सिद्धि के रहते कुछ शक्ति हो सकती है, परन्तु मुझे न पाओगे ।' सिद्धि द्वारा अच्छी शक्ति, बल, धन ये सब प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती ।
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"एक और बात । ज्ञान-अज्ञान से परे रहो । कई कहते हैं, अमुक बड़े ज्ञानी हैं, पर वास्तव में ऐसा नहीं है । वशिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी थे परन्तु पुत्रशोक से बेचैन हुए थे । तब लक्ष्मण ने कहा, 'राम, यह क्या आश्चर्य है ! ये भी इतने शोकार्त हैं !' राम बोले, 'भाई, जिसका ज्ञान है, उसका अज्ञान भी है, जिसको आलोक का बोध है, उसे अन्धकार का भी है, जिसे सुख का बोध है, उसे दुःख का भी है, जिसे भले का बोध है, उसे बुरे का भी है । भाई, तुम दोनों से परे चले जाओ, सुख-दुःख से परे जाओ, ज्ञान-अज्ञान से परे जाओ ।’ इसीलिए तुझे कहता हूँ, ज्ञान-अज्ञान से परे चला जा ।"
(क्रमशः)

रविवार, 10 जुलाई 2022

*भक्तों के साथ वार्तालाप*

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*साधु मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनन्द मूर ।*
*दादू संगति साधु की, राम रह्या भरपूर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)भक्तों के साथ वार्तालाप*
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अब भक्तगण प्रसाद पा रहे हैं । चिउड़ा मिठाई आदि अनेक प्रकार के प्रसाद पाकर वे तृप्त हुए । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, "मुखर्जियों को नहीं कहा था । सुरेन्द्र से कहो, बाऊलों (गवैयों) को खिला दें ।"
श्री बिपिन सरकार आये हैं । भक्तों ने कहा, "इनका नाम बिपिन सरकार है ।"
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श्रीरामकृष्ण उठकर बैठे और विनीत भाव से बोले, "इन्हें आसन दो और पान दो ।" उनसे कह रहे हैं, "आपके साथ बात न कर सका, आज बड़ी भीड़ है ।"
गिरीन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से कहा, "इन्हें एक आसन दो ।"
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नित्यगोपाल को जमीन पर बैठा देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "उसे भी एक आसन दो ।"
सींती के महेन्द्र वैद्य आये हैं । श्रीरामकृष्ण हँसते हुए राखाल को इशारा कर रहे हैं, "हाथ दिखा लो ।"
रामलाल से कह रहे हैं, "गिरीश घोष के साथ दोस्ती कर, तो थिएटर देख सकेगा ।" (हँसी)
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नरेन्द्र हाजरा महाशय से बरामदे में बहुत देर तक बातचीत कर रहे थे । नरेन्द्र के पिता के देहान्त के बाद घर में बड़ा ही कष्ट हो रहा है । अब नरेन्द्र कमरे के भीतर आकर बैठे ।
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श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र के प्रति) - तू क्या हाजरा के पास बैठा था ? तू विदेशी है, और वह विरही ! हाजरा को भी डेढ़ हजार रूपयों की आवश्यकता है । (हँसी)
"हाजरा कहता है, 'नरेन्द्र में सोलह आना सतोगुण आ गया है, परन्तु रजोगुण की जरा लाली है । मेरा विशुद्ध सत्व, सत्रह आना ।' (सभी की हँसी)
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"मैं जब कहता है, "तुम केवल विचार करते हो, इसीलिए शुष्क हो, तो वह कहता है, 'मैं सूर्य की सुधा पीता हूँ, इसीलिए शुष्क हूँ ।'
"मैं जब शुद्धा भक्ति की बात कहता हूँ, जब कहता हूँ कि शुद्ध भक्त रुपया-पैसा, ऐश्वर्य कुछ भी नहीं चाहता, तो वह कहता है, 'उनकी कृपा की बाढ़ आने पर नदी तो भर जायेगी ही, फिर गढ़े-नाले भी अपने आप ही भर जायेंगे । शुद्धा भक्ति भी होती है और षडैश्वर्य भी होते हैं । रुपये-पैसे भी होते हैं ।"
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श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर नरेन्द्र आदि अनेक भक्त बैठे हैं, गिरीश भी आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश के प्रति) - मैं नरेन्द्र को आत्मा स्वरूप मानता हूँ । और मैं उसका अनुगत हूँ । गिरीश - क्या कोई ऐसा है जिसके आप अनुगत नहीं भी हैं ?
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श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - उसका है मर्द का भाव (पुरुषभाव) और मेरा औरत-भाव (प्रकृतिभाव) । नरेन्द्र का ऊँचा घर, अखण्ड का घर है ।
गिरीश तम्बाकू पीने के लिए बाहर गये ।
नरेन्द्र (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - गिरीश घोष के साथ वार्तालाप हुआ, बहुत बड़े आदमी हैं । आपकी चर्चा हो रही थी ।
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श्रीरामकृष्ण - क्या चर्चा ?
नरेन्द्र - आप लिखना-पढ़ना नहीं जानते हैं, हम सब पण्डित हैं, यही सब बातें हो रही थी । (हँसी)
मणि मल्लिक (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आप बिना पढ़े पण्डित हैं ।
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श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र आदि के प्रति ) - सच कहता हूँ, मुझे इस बात का जरा भी दुःख नहीं होता कि मैंने वेदान्त आदि शास्त्र नहीं पढ़े । मैं जानता हूँ, वेदान्त का सार है - 'ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है’ । फिर गीता का सार क्या है ? गीता का दस बार उच्चारण करने पर जो होता है, अर्थात् त्यागी, त्यागी !
(क्रमशः)

बुधवार, 6 जुलाई 2022

भावमग्न

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*भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार ।*
*तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हैं । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । राम आदि भक्तगण श्रीरामकृष्ण को नवीन वस्त्र पहनायेंगे । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "नहीं, नहीं ।" एक अंग्रेजी पढ़े हुए व्यक्ति को दिखाकर कह रहे हैं, "वे क्या कहेंगे !" भक्तों के बहुत जिद करने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, “तुम लोग कह रहे हो, अच्छा लाओ, पहन लेता हूँ ।”
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भक्तगण उसी कमरे में श्रीरामकृष्ण के भोजन आदि की तैयारी कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को जरा गाने के लिए कह रहे हैं ।
नरेन्द्र गा रहे हैं –
(भावार्थ) - "माँ, घने अन्धकार में तेरा रूप चमकता है । इसीलिए योगी पहाड़ की गुफा में निवास करता हुआ ध्यान लगाता है । अनन्त अन्धकार की गोदी में, महानिर्वाण के हिल्लोल में चिर शान्ति का परिमल लगातार बहता जा रहा है । महाकाल का रूप धारण कर, अन्धकार का वस्त्र पहन, माँ, समाधिमन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? तुम्हारे अभय चरणकमलों में प्रेम की बिजली चमकती हैं, तुम्हारे चिन्मय मुखमण्डल पर हास्य शोभायमान है ।"
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नरेन्द्र ने ज्योंही गाया, 'माँ, समाधि मन्दिर में अकेली बैठी हुई तुम कौन हो ? - उसी समय श्रीरामकृष्ण बाह्यज्ञान-शून्य होकर समाधिमग्न हो गये । बहुत देर बाद समाधि भंग होने पर भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को भोजन के लिए आसन पर बैठाया । अभी भी भाव का आवेश है । भात खा रहे हैं, परन्तु दोनों हाथ से भवनाथ से कह रहे हैं, "तू खिला दे !" भाव का आवेश अभी है, इसीलिए स्वयं खा नहीं पा रहे हैं । भवनाथ उन्हें खिला रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण ने बहुत कम भोजन किया । भोजन के बाद राम कह रहे हैं, "नित्यगोपाल आपकी जूठी थाली में खायेगा ।"
श्रीरामकृष्ण - मेरी जूठी थाली में ? क्यों ?
राम - क्यों क्या हुआ ? भला आपको जूठी थाली में क्यों न खाये ?
नित्यगोपाल को भावमग्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने एक-दो कौर खिला दिये ।
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अब कोन्नगर के भक्तगण नाव पर सवार होकर आये हैं । उन्होंने कीर्तन करते हुए श्रीरामकृष्ण के कमरे में प्रवेश किया । कीर्तन के बाद वे जलपान करने के लिए बाहर गये । नरोत्तम कीर्तनकार श्रीरामकृष्ण के कमरे में बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण नरोत्तम आदि से कह रहे हैं, "इनका मानो नाव चलानेवाला गाना !" गाना ऐसा होना चाहिए कि सभी नाचने लगें । इस प्रकार के गाने गाने चाहिए –
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(भावार्थ) - " ‘ओ रे ! गौर-प्रेम की हिलोर से सारा नदिया शहर झूम रहा है ।’
(नरोत्तम के प्रति) - "उसके साथ यह कहना होता है –
(भावार्थ) – “ओ रे ! 'हरिनाम कहते ही जिनके आँसू झरते हैं, वे दोनों भाई आये हैं । ओ रे ! जो मार खाकर प्रेम देना चाहते हैं, वे दो भाई आये हैं । ओ रे, जो स्वयं रोकर जगत् को रुलाते हैं, वे दो भाई आये है । ओ रे ! जो स्वयं मतवाले बनकर दुनिया को मतवाली बनाते हैं, वे दो भाई आये हैं। ओ रे! जो चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हैं, वे दो भाई आये हैं !!”
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"फिर यह भी गाना चाहिए –
(भावार्थ) – “हे प्रभो, गौर निताई, तुम दोनों भाई परम दयालु हो । हे नाथ, यही सुनकर मैं आया हूँ, सुना है कि तुम चण्डाल तक को गोदी में उठा लेते हो, और गोदी में उठाकर उसे हरि नाम करने को कहते हो ।"
(क्रमशः)

सोमवार, 4 जुलाई 2022

*दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का जन्म-महोत्सव*

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*दादू लीला राजा राम की, खेलैं सब ही संत ।*
*आपा पर एकै भया, छूटी सबै भरंत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १०६.दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का जन्म-महोत्सव*
*(१)नरेन्द्र आदि भक्तों के साथ कीर्तनानन्द में*
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में उत्तर-पूर्ववाले लम्बे बरामदे में गोपी-गोष्ठ तथा सुबल-मिलन-कीर्तन सुन रहे हैं । नरोत्तम कीर्तन कर रहे हैं । आज फाल्गुन शुक्लाष्टमी है, रविवार २२ फरवरी १८८५ ई. । भक्तगण उनका जन्म-महोत्सव मना रहे हैं । गत सोमवार, फाल्गुन शुक्ल द्वितीया के दिन उनकी जन्मतिथि थी ।
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नरेन्द्र, राखाल, बाबूराम, भवनाथ, सुरेन्द्र, गिरीन्द्र, विनोद, हाजरा, रामलाल, राम, नित्यगोपाल, मणि मल्लिक, गिरीश, सींती के महेन्द्र वैद्य आदि अनेक भक्तों का समागम हुआ है । कीर्तन प्रातः काल से ही चल रहा है । अब सुबह आठ बजे का समय होगा । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने पास बैठने का इशारा किया ।
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कीर्तन सुनते सुनते श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो गये हैं । श्रीकृष्ण को गौएँ चराने के लिए आने में विलम्ब हो रहा है । कोई ग्वाला कह रहा है, 'यशोदा माई आने नहीं दे रही हैं ।' बलराम जिद करके कह रहे हैं, 'मैं सींग बजाकर कन्हैया को ले आऊँगा ।' बलराम का प्रेम अगाध है !
कीर्तनकार फिर गा रहे हैं । श्रीकृष्ण बंसरी बजा रहे हैं । गोपियाँ और गोप बालकगण बंसरी की ध्वनि सुन रहे हैं और उनमें अनेकानेक भाव उठ रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकर कीर्तन सुन रहे हैं । एकाएक नरेन्द्र की ओर उनकी दृष्टि पड़ी । नरेन्द्र पास ही बैठे थे । श्रीरामकृष्ण खड़े होकर समाधिमग्न हो गये । नरेन्द्र के घुटने को एक पैर से छूकर खड़े हैं ।
श्रीरामकृष्ण प्रकृतिस्थ होकर फिर बैठे । नरेन्द्र सभा से उठकर चले गये । कीर्तन चल रहा है ।
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श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम से धीरे धीरे कहा, 'कमरे में खीर है, जाकर नरेन्द्र को दे दो ।'
क्या श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के भीतर साक्षात् नारायण का दर्शन कर रहे हैं ?
कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में आये हैं और नरेन्द्र को प्यार के साथ मिठाई खिला रहे हैं ।
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गिरीश का विश्वास है कि ईश्वर श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ।
गिरीश - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - आपके सभी काम श्रीकृष्ण की तरह हैं । श्रीकृष्ण जैसे यशोदा के पास तरह तरह के ढोंग करते थे ।
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श्रीरामकृष्ण - हाँ, श्रीकृष्ण अवतार जो हैं । नरलीला में उसी प्रकार होता है । इधर गोवर्धन पहाड़ को धारण किया था, और उधर नन्द के पास दिखा रहे हैं कि पीढ़ा उठाने में भी कष्ट हो रहा है !
गिरीश – समझा । आपको अब समझ रहा हूँ ।
(क्रमशः)

शनिवार, 2 जुलाई 2022

पंचवटी में श्रीरामकृष्ण

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*दादू जल दल राम का, हम लेवैं परसाद ।*
*संसार का समझैं नहीं, अविगत भाव अगाध ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(४)पंचवटी में श्रीरामकृष्ण*
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नृत्यगोपाल सामने बैठे हुए हैं । सदा ही भावस्थ रहते हैं, बिलकुल चुपचाप ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – गोपाल ! तू तो बस चुपचाप बैठा रहता है ।
नृत्यगोपाल - (बालक की तरह) - मैं नहीं जानता ।
श्रीरामकृष्ण - मैं समझा, तू क्यों कुछ नहीं बोलता । शायद तू अपराध से डरता है ।
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"सच है । जय और विजय नारायण के द्वारपाल थे । सनक सनातन आदि ऋषियों को भीतर जाने से उन्होंने रोका था । इसी अपराध से उन्हें इस संसार में तीन बार जन्म ग्रहण करना पड़ा था । “श्रीदाम गोलोक में विरजा के द्वारी थे । श्रीमती (राधिका) कृष्ण को विरजा के मन्दिर में पकड़ने के लिए उनके द्वार पर गयी थीं, और भीतर घुसना चाहा - श्रीदाम ने घुसने नहीं दिया; इस पर राधिका ने शाप दिया कि तू मर्त्यलोक में असुर होकर पैदा हो ।
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श्रीदाम ने भी शाप दिया था । (सब मुस्कराये ।) परन्तु एक बात है - बच्चा अगर अपने बाप का हाथ पकड़ता है, तो वह गड्ढे में गिर भी सकता है, परन्तु जिसका हाथ बाप पकड़ता है, उसे फिर क्या भय है ?" श्रीदाम की बात ब्रह्मवैवर्त पुराण में है ।
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केदार चैटर्जी इस समय ढाका में रहते हैं । वे सरकारी नौकरी करते हैं । पहले उनका आफिस कलकत्ते में था । अब ढाके में है । वे श्रीरामकृष्ण के परम भक्त हैं । ढाके में बहुत से भक्तों का साथ हो चुका है । वे भक्त सदा ही उनके पास आते और उपदेश ले जाया करते हैं । खाली हाथ दर्शनों के लिए न जाना चाहिए, इस विचार से वे भक्त केदार के लिए मिठाइयाँ ले आया करते हैं ।
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केदार - (विनयपूर्वक) - क्या मैं उनकी चीजें खाया करूँ ?
श्रीरामकृष्ण - अगर ईश्वर पर भक्ति करके देता हो तो दोष नहीं है । कामना करके देने से वह चीज अच्छी नहीं होती ।
केदार - मैंने उन लोगों से कह दिया है । मैं अब निश्चिन्त हूँ । मैंने कहा है, मुझ पर जिन्होंने कृपा की है, वे सब जानते हैं ।
श्रीरामकृष्ण – (सहास्य) – यह तो सच है, यहाँ बहुत तरह के आदमी आते हैं, वे अनेक प्रकार के भाव भी देखते हैं ।
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केदार - मुझे अनेक विषयों के जानने की जरूरत नहीं है ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, जरा जरा सा सब कुछ चाहिए । अगर कोई पंसारी की दूकान खोलता है, तो उसे सब तरह की चीजें रखनी पड़ती हैं । कुछ मसूर की दाल भी चाहिए और कहीं जरा इमली भी रख ली - यह सब रखना ही पड़ता है ।
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"जो बाजे का उस्ताद है, वह कुछ कुछ सब तरह के बाजे बजा सकता है ।"
श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले में शौच के लिए गये । एक भक्त गड्डुआ लेकर वहीं रख आये ।
भक्तगण इधर-उधर घूम रहे हैं । कोई श्रीठाकुरमन्दिर की ओर चले गये, कोई पंचवटी की ओर लौट रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने वहाँ आकर कहा - "दो तीन बार शौच के लिए जाना पड़ा, मल्लिक के यहाँ का खाना - घोर विषयी है, पेट गरम हो गया ।”
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श्रीरामकृष्ण के पान का डब्बा पंचवटी के चबूतरे पर अब भी पड़ा हुआ है; और भी दो एक चीजें पड़ी हुई हैं ।
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा - "वह डब्बा, और क्या क्या है, कमरे में ले आओ ।” यह कहकर श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर जाने लगे । पीछे पीछे भक्त भी आ रहे हैं । किसी के हाथ में पान का डब्बा है, किसी के हाथ में गडुआ आदि ।
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श्रीरामकृष्ण दोपहर के बाद कुछ विश्राम कर रहे हैं । दो-चार भक्त भी वहाँ आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर एक छोटे तकिये के सहारे बैठे हुए हैं । एक भक्त ने पूछा – "महाराज, ज्ञान के द्वारा क्या ईश्वर के गुण समझे जाते हैं ?"
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श्रीरामकृष्ण ने कहा - "वे इस ज्ञान से नहीं समझे जाते; एकाएक क्या कभी कोई उन्हें जान सकता है ? साधना करनी चाहिए । एक बात और, किसी भाव का आश्रय लेना । जैसे दासभाव । ऋषियों का शान्तभाव था । ज्ञानियों का भाव क्या है, जानते हो ? स्वरूप की चिन्ता करना । (एक भक्त के प्रति हँसकर) तुम्हारा क्या है ?"
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भक्त चुपचाप बैठे रहे ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम्हारे दो भाव हैं । स्वरूपचिन्ता करना भी है और सेव्य-सेवक का भाव भी है । क्यों, ठीक है या नहीं ?
भक्त - (सहास्य और ससंकोच) - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - इसीलिए हाजरा कहता है, तुम मन की बातें सब समझ लेते हो । यह भाव कुछ बढ़ जाने पर होता है । प्रह्लाद को हुआ था ।
"परन्तु उस भाव की साधना के लिए कर्म चाहिए ।
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"एक आदमी बेर का काँटा एक हाथ से दबाकर पकड़े हुए हैं - हाथ से खून टप-टप गिर रहा है, फिर भी वह कहता है, मुझे कुछ नहीं हुआ । लगा नहीं । पूछने पर कहता है, मैं खूब अच्छा हूँ । मुझे कुछ नहीं हुआ । पर यह बात केवल जबान से कहने से क्या होगा ? भाव की साधना होनी चाहिए ।”
(क्रमशः)

गुरुवार, 30 जून 2022

*सर्व भूतों में ईश्वर*

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*जाके हिरदै जैसी होइगी, सो तैसी ले जाइ ।*
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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प्रेमोन्माद होने पर सर्व भूतों में ईश्वर का साक्षात्कार होता है । गोपियों ने सर्व भूतों में श्रीकृष्ण के दर्शन किये थे । सब को कृष्णमय देखा, कहा था, 'मैं ही कृष्ण हूँ ।' तब उनकी उन्मादावस्था थी । पेड़ देखकर उन लोगों ने कहा, 'ये तपस्वी हैं, कृष्ण का ध्यान कर रहे हैं । तृणों को देखकर कहा था, 'श्रीकृष्ण के स्पर्श से पृथ्वी को रोमाञ्च हो रहा है ।’
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"पतिव्रता-धर्म में स्वामी देवता है, और यह होगा भी क्यों नहीं ? मूर्ति की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी की क्यों नहीं होगी ?
"प्रतिमा के आविर्भाव के लिए तीन बातों की जरूरत होती है - पहली बात, पुजारी में भक्ति हो; दूसरी, प्रतिमा सुन्दर हो, तीसरी गृहस्वामी स्वयं भक्त हो । वैष्णवचरण ने कहा था, अन्त में नरलीला में ही मन लीन हो जाता है ।
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"परन्तु एक बात है - उन्हें बिना देखे इस तरह लीला-दर्शन नहीं होता । साक्षात्कार का लक्षण जानते हो ? देखनेवाले का स्वभाव बालक जैसा हो जाता है । बालस्वभाव क्यों होता है ? इसलिए कि ईश्वर स्वयं बालस्वभाव है । अतएव जिसे उनके दर्शन होते हैं, वह भी उसी स्वभाव का हो जाता है ।
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"यह दर्शन होना चाहिए । अब उनके दर्शन भी कैसे हों ? तीव्र वैराग्य होना चाहिए । ऐसा चाहिए कि कहे - 'क्या तुम जगत्पिता हो, तो मैं क्या संसार से अलग हूँ ? मुझ पर तुम दया न करोगे ? – साला !’
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"जो जिसकी चिन्ता करता है, उसे उसी की सत्ता मिलती है । शिव की पूजा करने पर शिव की सत्ता मिलती है । श्रीरामचन्द्रजी का एक भक्त था । वह दिन-रात हनुमान की चिन्ता किया करता । वह सोचता था, मैं हनुमान हो गया हूँ । अन्त में उसे दृढ़ विश्वास हो गया कि उसके जरा सी पूँछ भी निकली है ।
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“शिव के अंश से ज्ञान होता है, विष्णु के अंश से भक्ति । जिनमें शिव का अंश है, उनका स्वभाव ज्ञानियों जैसा है, जिनमें विष्णु का अंश है, उनका भक्तों जैसा स्वभाव है ।"
मास्टर - चैतन्यदेव के लिए तो आपने कहा था, उनमें ज्ञान और भक्ति दोनों थे ।
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श्रीरामकृष्ण - (विरक्तिपूर्वक) - उनकी और बात है । वे ईश्वर के अवतार थे । उनमें और जीवों में बड़ा अन्तर है । उन्हें ऐसा वैराग्य था कि सार्वभौम ने जब जीभ पर चीनी डाल दी, तब चीनी हवा में 'फर-फर' करके उड़ गयी, भीगी तक नहीं । वे सदा ही समाधिमग्न रहते थे । कितने बड़े कामजयी थे वे, जीवों के साथ उनकी तुलना कैसे हो ? सिंह बारह वर्ष में एक बार रमण करता है, परन्तु मांस खाता है; चिड़ियाँ दाने चबाती हैं, परन्तु दिन रात रमण करती है ।
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उसी तरह अवतार और जीव है । जीव काम का त्याग तो करते हैं, परन्तु कुछ दिन बाद कभी भोग कर लेते हैं, सँभाल नहीं सकते । (मास्टर से) लज्जा क्यों ? जो पार हो जाता है, वह आदमी को कीड़े के बराबर देखता है । 'लज्जा, घृणा और भय, ये तीन न रहने चाहिए । ये सब पाश हैं । 'अष्ट पाश' है न ?
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“जो नित्यसिद्ध है, उसे संसार का क्या डर ? बँधे घरों का खेल है, पासे फेंकने से कुछ और न पड़ जाय, यह डर उसे फिर नहीं रहता ।
"जो नित्यसिद्ध है, वह चाहे तो संसार में भी रह सकता है । कोई कोई दो तलवारें भी चला सकते हैं - वे ऐसे खिलाड़ी हैं कि कंकड़ फेंककर मारो तो तलवार में लगकर अलग हो जाता है ।"
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भक्त - महाराज, किस अवस्था में ईश्वर के दर्शन होते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - बिना सब तरफ से मन को समेटे ईश्वर के दर्शन थोड़े ही होते हैं ? भागवत में शुकदेव की बातें हैं - वे रास्ते पर जा रहे थे - मानो संगीन चढ़ाई हुई हो ! किसी ओर नजर नहीं जाती ! एक लक्ष्य - केवल ईश्वर की ओर दृष्टि, योग यह है ।
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"चातक बस स्वाति का जल पीता है । गंगा, यमुना, गोदावरी सब नदियों में पानी भरा हुआ है, सातों सागर पूर्ण है, फिर भी उनका जल वह नहीं पीता । स्वाति में वर्षा होगी तब वह पानी पीयेगा ।
"जिसका योग इस तरह का हुआ हो, उसे ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ।
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थिएटर में जाओ तो जब तक पर्दा नहीं उठता तब तक आदमी बैठे हुए अनेक प्रकार की बातें करते हैं - घर की बातें, आफिस की बातें, स्कूल की बातें, यही सब पर्दा उठा नहीं कि सब बाते बन्द ! जो नाटक हो रहा है, टकटकी लगाये उसे ही देखते हैं । बड़ी देर बाद अगर एक-आध बातें करते भी हैं तो उसी नाटक के सम्बन्ध की ।
"शराबखोर शराब पीने के बाद आनन्द की ही बातें करता है ।”
(क्रमशः)

सोमवार, 27 जून 2022

*योग की दूरबीन । पतिव्रता-धर्म*

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*पतिव्रता गृह आपने, करै खसम की सेव ।*
*ज्यों राखै त्यों ही रहै, आज्ञाकारी टेव ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)योग की दूरबीन । पतिव्रता-धर्म*
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पठन जारी है । अब ईश्वर-दर्शन की बात आयी । प्रफुल्ल अब देवी चौधरानी हो गयी है । वैशाख शुक्ला सप्तमी तिथि है । देवी छप्परवाली नाव पर बैठी हुई दिवा के साथ बातचीत कर रही है । चन्द्रोदय हो गया है । नाव का लंगर छोड़ दिया गया है, गंगा के वक्ष पर नाव स्थिर भाव से खड़ी है ।
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नाव की छत पर देवी और उसकी दोनों सहेलियाँ बैठी हुई हैं । ईश्वर प्रत्यक्ष होते हैं या नहीं, यही बात हो रही है । देवी ने कहा, जैसे फूल की सुगन्ध प्राणेन्द्रिय के निकट प्रत्यक्ष है, उसी तरह ईश्वर मन के निकट प्रत्यक्ष होते है ।
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श्रीरामकृष्ण - जिस मन के निकट प्रत्यक्ष होते हैं, वह यह मन नहीं, वह शुद्ध मन है, तब यह मन नहीं रहता, विषयासक्ति के जरा भी रहने पर नहीं होता । मन जब शुद्ध होता है, तब चाहे उसे शुद्ध मन कह लो, चाहे शुद्ध आत्मा ।
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मास्टर - मन के निकट सहज ही वे प्रत्यक्ष नहीं होते, यह बात कुछ आगे है । कहा है, प्रत्यक्ष करने के लिए दूरबीन चाहिए । दूरबीन का नाम योग है । फिर जैसा गीता में लिखा है, योग तीन तरह के हैं - ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग । इस योगरूपी दूरबीन से ईश्वर दीख पड़ते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - यह बड़ी अच्छी बात है । गीता की बात है ।
मास्टर - अन्त में देवी चौधरानी अपने स्वामी से मिली । स्वामी पर उसकी बड़ी भक्ति थी । स्वामी से उसने कहा - 'तुम मेरे देवता हो । मैं दूसरे देवता की अर्चना करना सीख रही थी, परन्तु सीख नहीं सकी । तुमने सब देवताओं का स्थान अधिकृत कर लिया है ।
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - 'सीख न सकी ।' इसे पतिव्रता का धर्म कहते हैं । यह भी एक मार्ग है ।
पठन समाप्त हो गया, श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं । भक्तगण टकटकी लगाये देख रहे हैं, कुछ सुनने के आग्रह से ।
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श्रीरामकृष्ण - (हँसकर, केदार तथा भक्तों से) - यह एक प्रकार से बुरा नहीं । इसे पतिव्रता-धर्म कहते हैं । प्रतिमा में ईश्वर की पूजा तो होती है, फिर जीते-जागते आदमी में क्यों नहीं होगी ! आदमी के रूप में वे ही लीला कर रहे हैं ।
"कैसी अवस्था बीत चुकी है ! हरगौरी के भाव में कितने ही दिनों तक रहा था । फिर कितने ही दिन श्रीराधाकृष्ण भाव में बीते थे ! कभी सीताराम का भाव था । राधा के भाव में रहकर 'कृष्ण-कृष्ण' कहता था, सीता के भाव में 'राम-राम ।'
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"परन्तु लीला ही अन्तिम बात नहीं है । इन सब भावों के बाद मैंने कहा, माँ, इन सब में विच्छेद है । जिसमें विच्छेद नहीं है, ऐसी अवस्था कर दो; इसीलिए अनेक दिन अखण्ड सच्चिदानन्द के भाव में रहा । देवताओं की तस्वीरें मैने कमरे से निकाल दीं ।
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"उन्हें सर्व भूतों में देखने लगा । पूजा उठ गयी । यही बेल का पेड़ है, यहाँ मै बेल-पत्र लेने आया करता था । एक दिन बेलपत्र तोड़ते हुए कुछ छाल निकल गयी । मैने पेड़ में चेतना देखी । मन में कष्ट हुआ । दूर्वादल लेते समय देखा, पहले की तरह मैं चुन नहीं सकता । तब बलपूर्वक चुनने लगा ।
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"मै नीबू नहीं काट सकता । उस रोज बड़ी मुश्किल से 'जय काली' कहकर उनके सामने बलि देने की तरह एक नीबू में काट सका था । एक दिन मैं फूल तोड़ रहा था । उसने दिखलाया पेड़ में फूल खिले हुए हैं, जैसे सामने विराट की पूजा हो रही हो - विराट के सिर पर फूल के गुच्छे रखे हुए हों । फिर मैं फूल तोड़ न सका ।
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"वे आदमी होकर भी लीलाएँ कर रहे हैं । मैं तो साक्षात् नारायण को देखता हूँ । काठ को घिसने से जिस तरह आग निकल पड़ती है, उसी तरह भक्ति का बल रहने पर आदमी में भी ईश्वर के दर्शन होते हैं । बंसी में अगर बढ़िया मसाला लगाया हो, तो 'रेहू' और 'कातला' फौरन उसे निगल जाती हैं ।
(क्रमशः)