🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका, भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
.
*चोर न भावै चांदणां, जनि उजियारा होइ ।*
*सूते का सब धन हरूँ, मुझे न देखै कोइ ॥१७८॥*
चोर को प्रकाश अच्छा नहीं लगता क्योंकि प्रकाश में चोरी नहीं कर सकता, उजाला उसके कार्य में बाधक है और प्रकाश में सब लोग जाग जाते हैं तो वह पकड़ा जाता है । किन्तु वह तो अन्धकार में ही रहना चाहता है । क्योंकि अन्धकार उसके चोरी कर्म में सहायक होता है । ऐसे ही अज्ञानी ज्ञान को नहीं चाहता है । क्योंकि ज्ञान होने पर सब दुष्कृत कर्म छूट जाते हैं । अतः अज्ञानरुपी अन्धकार में जो सोता रहता है तो उसके सारे सद्गुण रूपी धन को अज्ञान चुराकर ले जायगा । अर्थात् नष्ट कर देता है । अतः साधक को चाहिये कि वह ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करे । विवेकचूडामणि में कहा है कि- प्रमाद के कारण मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न जो भ्रान्तिजन्य है तब तक जीव भाव की सत्ता भी बनी रहेगी । जैसे रस्सी में सर्प का ज्ञान भ्रान्तिकाल में ही होता है । भ्रान्तिज्ञान के नष्ट होने पर सर्प की जैसे निवृत्ति हो जाती है वैसे ही जीव भाव भी अविद्या की निवृत्ति से दूर हो जायेगा ।
.
*॥ संस्कार आगम ॥*
*घट घट दादू कह समझावै, जैसा करै सो तैसा पावै ।*
*को काहू का सीरी नांहीं, साहिब देखे सब घट माँहीं ॥१७९॥*
मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसको भोगना पड़ता है । जिन पुरुषों ने जो कर्म किये हैं, उनका फल भी वे ही भोगेंगे, दूसरे नहीं । परमात्मा तो साक्षी मात्र है, वह न कर्म करता और न फल भोगता ।
महाभारत में- इस लोक में किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना नाश नहीं होता । वे कर्म ही कर्मानुसार एक के बाद एक शरीर को धारण करवा कर फल देते रहते हैं । मनुष्य शुभ अशुभ जो जो कर्म करता है, पूर्वजन्म के शरीर से किये गये उन सब कर्मों का फल उसको अगले जन्म में भोगना पड़ता है ।
जीव सकाम कर्म के अनुष्ठान से सोलह विकारों से निर्मित स्थूल शरीर धारण करके जन्म लेता है और वह सदा अविद्या का ग्रास बना रहता है । इतना ही नहीं, कर्मठ पुरुष देवताओं के भी उपभोग के विषय बने रहते हैं ।
अतः जो कोई पारदर्शी विद्वान् होते हैं, वे कर्मों में आसक्त नहीं होते क्योंकि पुरुष ज्ञानमय है, कर्ममय नहीं । अतः साधक को चाहिये कि ज्ञान मार्ग का अवलम्बन करके संसार सागर से पार चला जाय ।
जो मनुष्य सुख दुःख दोनों को अनित्य समझता है तथा शरीर को अपवित्र वस्तुओं का समूह समझता है और मृत्यु को कर्म फल जानता है । सुख के रूप में प्रतीयमान जो कुछ भी है वह सब दुःख ही दुःख है । ऐसा जानने वाला इस घोर दुस्तर संसार से पार हो जाता है ।
.
इति साँच का अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥१३॥
(क्रमशः)