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मंगलवार, 30 जून 2020

साँच का अंग १७८/१७९

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#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका, भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*चोर न भावै चांदणां, जनि उजियारा होइ ।*
*सूते का सब धन हरूँ, मुझे न देखै कोइ ॥१७८॥*
चोर को प्रकाश अच्छा नहीं लगता क्योंकि प्रकाश में चोरी नहीं कर सकता, उजाला उसके कार्य में बाधक है और प्रकाश में सब लोग जाग जाते हैं तो वह पकड़ा जाता है । किन्तु वह तो अन्धकार में ही रहना चाहता है । क्योंकि अन्धकार उसके चोरी कर्म में सहायक होता है । ऐसे ही अज्ञानी ज्ञान को नहीं चाहता है । क्योंकि ज्ञान होने पर सब दुष्कृत कर्म छूट जाते हैं । अतः अज्ञानरुपी अन्धकार में जो सोता रहता है तो उसके सारे सद्गुण रूपी धन को अज्ञान चुराकर ले जायगा । अर्थात् नष्ट कर देता है । अतः साधक को चाहिये कि वह ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करे । विवेकचूडामणि में कहा है कि- प्रमाद के कारण मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न जो भ्रान्तिजन्य है तब तक जीव भाव की सत्ता भी बनी रहेगी । जैसे रस्सी में सर्प का ज्ञान भ्रान्तिकाल में ही होता है । भ्रान्तिज्ञान के नष्ट होने पर सर्प की जैसे निवृत्ति हो जाती है वैसे ही जीव भाव भी अविद्या की निवृत्ति से दूर हो जायेगा । 
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*॥ संस्कार आगम ॥*
*घट घट दादू कह समझावै, जैसा करै सो तैसा पावै ।*
*को काहू का सीरी नांहीं, साहिब देखे सब घट माँहीं ॥१७९॥*
मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल उसको भोगना पड़ता है । जिन पुरुषों ने जो कर्म किये हैं, उनका फल भी वे ही भोगेंगे, दूसरे नहीं । परमात्मा तो साक्षी मात्र है, वह न कर्म करता और न फल भोगता । 
महाभारत में- इस लोक में किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना नाश नहीं होता । वे कर्म ही कर्मानुसार एक के बाद एक शरीर को धारण करवा कर फल देते रहते हैं । मनुष्य शुभ अशुभ जो जो कर्म करता है, पूर्वजन्म के शरीर से किये गये उन सब कर्मों का फल उसको अगले जन्म में भोगना पड़ता है ।
जीव सकाम कर्म के अनुष्ठान से सोलह विकारों से निर्मित स्थूल शरीर धारण करके जन्म लेता है और वह सदा अविद्या का ग्रास बना रहता है । इतना ही नहीं, कर्मठ पुरुष देवताओं के भी उपभोग के विषय बने रहते हैं । 
अतः जो कोई पारदर्शी विद्वान् होते हैं, वे कर्मों में आसक्त नहीं होते क्योंकि पुरुष ज्ञानमय है, कर्ममय नहीं । अतः साधक को चाहिये कि ज्ञान मार्ग का अवलम्बन करके संसार सागर से पार चला जाय ।
जो मनुष्य सुख दुःख दोनों को अनित्य समझता है तथा शरीर को अपवित्र वस्तुओं का समूह समझता है और मृत्यु को कर्म फल जानता है । सुख के रूप में प्रतीयमान जो कुछ भी है वह सब दुःख ही दुःख है । ऐसा जानने वाला इस घोर दुस्तर संसार से पार हो जाता है ।
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इति साँच का अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥१३॥
(क्रमशः)

रविवार, 28 जून 2020

साँच का अंग १७४/१७७

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#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका, भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ सज्जन दुर्जन ॥* 
*जे पहुँचे ते कह गए, तिनकी एकै बात ।* 
*सबै सयाने एक मत, उनकी एकै जात ॥१७४॥* 
*जे पहुँचे तेहि पूछिये, तिनकी एकै बात ।* 
*सब साधों का एक मत, ये बिच के बारह बाट ॥१७५॥* 
*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।* 
*दादू मार्ग माहिं ले, तिन की बात अनेक ॥१७६॥* 
जिन्होंने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया ऐसे जो महात्मा हैं, उन सबका एक ही मार्ग एक ही बात एक ही सिद्धांत होने से वे सब भी एक ही हैं । वे कभी भी ब्रह्म के विषय में विवाद नहीं करते । क्योंकि उन्होंने ब्रह्म के स्वरूप को जान लिया । जिन्होंने आज तक उस ब्रह्म को नहीं जाना और अभी रास्ते पर ही चल रहे हैं । वे ब्रह्म और उसके मार्ग में तथा ब्रह्मज्ञान के फल के विषय में विवाद करते रहते हैं । उनसे ब्रह्म के विषय में कोई प्रश्न नहीं करना चाहिये क्योंकि उनका जो निर्णय होगा वह शास्त्रसंमत नहीं होगा । 
*सूरज साखी भूत है, साच करै परकास ।* 
*चोर डरै चोरी करै, रैन तिमिर का नाश ॥१७७॥* 
जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे सूर्य की तरह सब के साक्षी स्वरूप होते हैं । अज्ञान से उत्पन्न तापत्रयरूप आदि के दाह का नाश करने के लिये चन्द्रमा के सामने शीतल होते हैं । अज्ञानरूपी अन्धकार तथा अज्ञानजन्य संशयविपर्य तथा सब दुःखों को दूर करने में सूर्य की तरह तम के नाश में सक्षम होते हैं । परन्तु अज्ञानी लोग अपने अज्ञान का नाश नहीं चाहते, जैसे चोर रात्रि के अन्धेरे का नाश नहीं चाहता । 
योगवासिष्ठ में ज्ञानी का लक्षण बतलाते हुए लिख रहे हैं कि- जो समस्त भ्रमों से रहित, समस्त विकारों से निर्लिप्त, अतिशय मनोज्ञ एवं अविद्याजन्य सभी प्रकार की उपाधि से मुक्तस्वरूप होते हैं । उनको वह सुख प्राप्त होता है कि जो ब्रह्मादि देवों के गुणमय सुखों से अत्यधिक अच्छा है । उस परमानन्द सुख के सामने इन्द्र लक्ष्मी(स्वर्गीय) सुख तो उसी प्रकार तुच्छ हैं जैसे समुद्र के प्रवाह में बहता हुआ तिनका । यह ब्रह्म सुख नित्य अविनाशी अनन्त है । जिसका वर्णन वाणी के द्वारा संभव नहीं, अर्थात् वह अनिर्वचनीय है । केवल अनुभवगम्य है । वह सुख ब्रह्माण्ड भेद से अनन्त आकाश है और वह सुख उन सभी आकाशों में व्याप्त है । तथा समस्त दिशाओं में अनुस्यूत है । वह सुख चौदह लोकों का धारण पोषण करने वाला है । उसमें किसी प्रकार का वस्तुकृत भेद नहीं है । वह सुख उत्तम भाग्य वाले पुरुषों के द्वारा सतत सेवित होता रहता है । उसी सुख को प्राप्त करके यह ब्राह्मण ब्रह्म रूप हो गया है । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 26 जून 2020

साँच का अंग १६९/१७३

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#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका, भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*विरक्तता*
*एक राम छाड़ै नहीं, छाड़ै सकल विकार ।*
*दूजा सहजैं होइ सब, दादू का मत सार ॥१६९॥*
साधक की कर्तव्यता को बता रहे हैं कि हे साधक ! तुम राम नाम को मत छोड़ो और मन के सभी विकारों को छोड़ दो, शरीर का निर्वाह तो प्रभु की कृपा से प्रारब्धानुसार अपने आप ही होता रहेगा । उसके लिये चिन्ता मत कर ।
क्योंकि गीता में कहा है कि- जो अनन्य मन से मेरा चिन्तन करता रहता है उसका योगक्षेम मैं करता रहता हूं । क्योंकि वह मेरे में ही नित्ययुक्त रहता है ।
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*जे तू चाहै राम को, तो एक मना आराध ।*
*दादू दूजा दूर कर, मन इन्द्री कर साध ॥१७०॥*
हे साधक ! यदि तू भगवान् के दर्शनों को चाहता है तो मन और इन्द्रियों को जीतकर तथा देवादि उपासना को त्यागकर एकाग्र मन से मेरा ही चिन्तन कर ।
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*॥ विरक्तता ॥
*कबीर बिचारा कह गया, बहुत भाँति समझाइ ।*
*दादू दुनिया बावरी, ताके संग न जाइ ॥१७१॥*
कबीरजी ने तथा अन्यमहर्षियों ने इस जनता को अनेक प्रकार से समझाया हे जनो ! यह वासना दुष्ट आशा से तथा देह आदि में आत्मत्व का अभिमान होने के कारण मलिन है । अतः उस मलिन वासना को त्याग कर परमात्मा को खोजो और उसी का ध्यान करो, ऐसा बहुत समझाया, लेकिन वह तो भोगों में ही आसक्त होकर दुःख रूप संसार के खड्डे में ही गिर रही है और जो दुःख से रहित नित्य आनन्द के समुद्र भगवान् में नहीं डूबती ।
विवेकचूडामणि में कहा है कि- हे मूढ़बुद्धि वाले प्राणिन् ! इस चर्म, मांस, मेद, हड्डी, मल, मूत्र की राशि रूप शरीर में जो अनात्मा है उसमें आत्मत्व बुद्धि को त्याग दे और जो सबकी आत्मा निर्विकल्प ब्रह्म है उसमें अपनी बुद्धि को लगाओ । जिससे तुझे परम शान्ति प्राप्त हो जाय ।
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*॥ सूषिम मारग ॥*
*पावैंगे उस ठौर को, लंघैंगे यहु घाट ।*
*दादू क्या कह बोलिये, अजहुं बिच ही बाट ॥१७२॥*
यह मानव जब तक इस संसार रूपी दुर्ग भवन में जो दुःख के कांटों से भरा पड़ा है और अहंकार रूपी पर्वत आगे जाने में रास्ता रोके खड़ा है । ऐसे वन में भटकता है तब तक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । अतः पर्वत को लांघने के लिये यत्न करना चाहिये । अन्यथा प्रभु के सन्मुख क्या कहेगा? अभी तो तू बहुत दुःखों से दुःखित इस संसार में ही पड़ा है ।
विवेकचूडामणि में- जब तक विद्वान् मिथ्याभूत देह इन्द्रिय आदि में भ्रम से उत्पन्न हुई अपनी अहंता को नहीं छोड़ता तब तक उसकी मुक्ति की बात भी नहीं हो सकती । यह वेदान्तवेत्ताओं का सिद्धान्त है ।
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*॥ साच ॥*
*साचा राता सांच सौं, झूठा राता झूठ ।*
*दादू न्याय निबेरिये, सब साधों को पूछ ॥१७३॥*
जिनका अन्तःकरण सदा समाहित रहता है तथा ब्रह्म चिन्तन में मग्न रहते हैं ऐसे महात्मा सच्चे माने गये हैं क्योंकि वे सत्यब्रह्म में निष्ठ हैं । जो असत्य प्रपञ्च में रत हैं वे असत्य कहलाते हैं । अतः असत्य मार्ग पर चलने वालों को त्याग कर सत्य मार्ग से चलने वाले महापुरुषों से जो रास्ता निश्चय किया गया है साधक को उसी सत्य मार्ग से चलना चाहिये । यह निर्णय साधक को स्वयं करना है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 25 जून 2020

साँच का अंग १६५/१६८

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ सज्जन दुर्जन ॥*
*बिच के सिर खाली करैं, पूरे सुख सन्तोष ।*
*दादू सुध बुध आत्मा, ताहि न दीजे दोष ॥१६५॥*
जो ज्ञान को उपलब्ध ज्ञानी पुरुष हैं वे संतुष्ट रहते हुए परिपूर्ण ब्रह्म में लीन रहते हैं और वे तो ब्रह्मरूप हो चुके । किन्तु जो न तो अपने को ज्ञानी मानता है और न अज्ञानी किन्तु ज्ञान अज्ञान के बीच में लटका रहे हैं । अर्थात् जो किंचिज्ज्ञ हैं वे परस्पर में विवाद करते रहते हैं । उनका विवाद कल्याण का देने वाला नहीं है और भक्तों की आत्मा तो शुद्ध बुद्ध है अतः उनके मन में किसी प्रकार का विवाद उठता ही नहीं क्योंकि वे सदा भक्ति रस में लीन रहते हैं । अतः साधक को ज्ञाननिष्ठ रहना चाहिये न कि ज्ञानबन्धु ।
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*शुध बुध सौं सुख पाइये, कै साधु विवेकी होइ ।*
*दादू ये  बिच के बुरे, दाधे रीगे सोइ ॥१६६॥*
शुद्ध आत्मा भक्तों के संग से आत्मसुख की उपलब्धि होती है । विवेकी पुरुषों के संग से विवेक जागृत हो जाता है । किन्तु जो किंचिज्ज्ञ हैं उनका संग नहीं करना चाहिये । क्योंकि वे स्वयं ही त्रितापों से जलते रहते हैं और संसार रूपी आग में जलते रहते हैं ।
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*जनि कोई हरि नाम में, हमको हाना बाहि ।*
*ताथैं तुमथैं डरत हूँ, क्यों ही टलै बला हि ॥१६७॥*
मैं वितण्डावादियों से सदा डरता हूं क्योंकि वे हरिनाम चिन्तन में बाधक माने गये हैं और हरिनाम चिन्तन में मैं बाधा को ही महाविपत्ति समझता हूं । अतः उनसे मैं प्रार्थना करता हूं कि हे वितण्डावादियों आप लोग मेरे से दूर ही रहो क्योंकि मेरे हरिनाम चिन्तन में बाधा पड़ती है । लिखा है कि जो परोक्ष में कर्म की हानि करते हैं और सामने बड़ा ही प्रिय भाषण करते हैं । ऐसे पुरुषों को विष से भरे हुए घड़े के समान समझो । अर्थात् जिस घड़े में नीचे विषभरा पड़ा है और उपर मुख में दूध भरा हो ।
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*॥ परमार्थी ॥*
*जे हम छाड़ैं राम को, तो कौन गहेगा ?*
*दादू हम नहिं उच्चरैं, तो कौन कहेगा ?।१६८॥*
अकबर की सभा में सीकरी नगर में अपने शिष्यों के सहित जाते हुए श्रीदादू जी महाराज को किसी शिष्य ने हितबुद्धि से कहा कि हे भगवन् ! अकबर की सभा में राम नाम का उपदेश हम सबके लिये अनर्थ पैदा कर सकता है अतः वहां पर राम का नाम नहीं लेना चाहिये । इसके प्रत्युत्तर में श्रीदादूजी महाराज ने कहा कि “जो हम छाडै राम को” अर्थात् राम भक्त ही यदि किसी के भय से राम नाम लेना छोड देंगे तो फिर दूसरा कौन राम के नाम का उच्चारण करेगा । यदि हम ही सच्चा उपदेश नहीं करेंगे तो फिर उसको सच्चा उपदेश कौन करेगा । मैं तो राम नाम का प्रभाव जानता हूं । अतः यमराज का भी मुझे भय नहीं है फिर यह विचारा अकबर तो हमारा क्या बिगाड़ सकता है? मैं वहां जाकर सच्चा उपदेश करूंगा, क्योंकि मुझे किसी का भी भय नहीं है । 
लिखा है कि- नीतिनिपुण पण्डित पुरुष चाहे निन्दा करें या स्तुति करें, लक्ष्मी चाहे जाये या रहे । चाहे आज ही मृत्यु आ जाय या दिनान्तर में हो । परन्तु धीर पुरुष न्याय का रास्ता नहीं छोड़ते ।
हे राजन् ! प्रिय बात कहने वाले पुरुष आपको बहुत सुलभ हो सकते हैं । लेकिन अप्रिय बात, जो हितकारक है उसको कहने वाले तथा सुनने वाले थोड़े ही होते हैं ।
जो मनुष्यों के लिये सुनने में यद्यपि अप्रिय बात है लेकिन उससे हमारा हित हो तो उसके कहने वाले ही सच्चे मित्र हैं । बाकी तो अन्य मित्र का नाम ही धारण करते हैं, मित्र नहीं हैं वे ।  
(क्रमशः)

बुधवार, 24 जून 2020

साँच का अंग १६०/१६४

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साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ आत्मार्थी भेष ॥* 
*सोइ जन साधु सिद्ध सो, सोइ सतवादी शूर ।* 
*सोइ मुनिवर दादू बड़े, सन्मुख रहणि हजूर ॥१६०॥* 
*सोइ जन साचे सो सती, सोइ साधक सुजान ।* 
*सोइ ज्ञानी सोई पंडिता, जे राते भगवान ॥१६१॥* 
*दादू सोइ जोगी, सोइ जंगमा, सोइ सूफी सोइ शेख ।* 
*सोइ सन्यासी, सेवड़ा, दादू एक अलेख ॥१६२॥* 
*सोइ काजी सोई मुल्ला, सोइ मोमिन मुसलमान ।* 
*सोइ सयाने सब भले, जे राते रहमान ॥१६३॥* 
जो प्रभु प्रेम में मस्त होकर सतत प्रभु को ही भजता है । वह ही साधु भक्त सत्यवादी शूरवीर, मुनिवर, ज्ञानी, पंडित, महात्मा, सत्पुरुष, साधक, चतुर योगी, संन्यासी, सूफी, शेख, काजी, विज्ञ, इन नामों से कहलाता है । अन्यथा भक्ति के बिना इन नामों में से अपने आपको कहलाना दम्भ है । अतः सबके कल्याण के लिये भक्ति ही श्रेष्ठ साधन है । 
राम नाम को बणिजन बैठे, ताथैं माँड्या हाट । 
सांई सौं सौदा करैं, दादू खोल कपाट ॥१६४॥ 
महात्मा लोग भजनोपदेश के बहाने राम नाम को बेचते हैं । उनका सत्संग ही बाजार है । वहां जाकर परमेश्वर का भजन ध्यान भक्ति वैराग्य आदि पदार्थ खरीद लो यदि खरीदा जा सके तो और उसके बदले में अपना अहंभाव सांसारिक भाव को देकर संसार सागर से पार हो जावो । क्योंकि महापुरुषों के संसर्ग से कर्म बन्धन कट जाते हैं । 
लिखा है कि- यदि कहीं भी आपको कृष्ण भक्ति रस से भरी हुई बुद्धि मिलती हो तो उसको खरीद लो । उसके लिये कीमत में बुद्धि की चंचलता है उसको देकर खरीद लो । परन्तु ऐसी बुद्धि करोड़ों जन्मों के पुण्य से भी नहीं मिल सकती ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 23 जून 2020

साँच का अंग १५६/१५९

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साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*एक साच सौं गहगही, जीवन मरण निबाहि ।*
*दादू दुखिया राम बिन, भावै तीधर जाहि ॥१५६॥*
मरण पर्यन्त परब्रह्म परमात्मा की भक्ति में लगे रहो । अन्यथा जहां कहीं भी जावोगे तो वहां वहां दुःख ही मिलेगा । सुख तो परमात्मा की भक्ति में ही है ।
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*दादू भावै तहां छिपाइये, साच न छाना होइ ॥*
*सेस रसातल गगन धू, परगट कहिये सोइ ॥१५७॥*
*दादू छानै छानै कीजिये, चौड़े प्रगट होइ ।*
*दादू पैस पयाल में, बुरा करे जनि कोइ ॥१५८॥*
जैसे कोई चोर या व्यभिचारी मानव राजदण्ड के भय से या लोकापवाद के भय से छिपकर चोरी या व्यभिचार कर्म करता है । परन्तु वह चोरी और व्यभिचार उसके कभी प्रकट हो ही जाते हैं । पाताल में भी बैठकर यदि कोई बुरा कर्म करेगा तो वह भी कर्मफल के भोग काल में तो अवश्य प्रकट हो जायगा । अतः प्राणी को कभी भी निषद्ध कर्म “यह समझकर कि मुझे कोई देख नहीं रहा है”, नहीं करना चाहिये । क्योंकि सूर्य चन्द्र अग्नि वायु आदि देवता तथा परमात्मा सब जगह पर सब कर्मों के साक्षी हैं ।
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*॥ अद्य हिंसा ॥*
*अनकिया लागै नहीं, किया लागै आइ ।*
*साहिब के दर न्याय है, जे कुछ राम रजाइ ॥१५९॥*
पुरुष से किया हुआ ही पुण्य या पाप फल देता है । बिना किये पाप पुण्य नहीं लगता । परमात्मा न्यायकारी है अतः वह कर्मानुसार ही सबको फल देता है । महाभारत में-
देवता मनुष्य तिर्यग्योनि में पडे हुए प्राणी कर्म भूमि में किये हुए कर्मों का ही फल भोगता है । अज्ञानी मनुष्य का धर्म भी कामना को लेकर ही होता है । तथा वे कामना की सिद्धि के लिये ही गुणों को अपनाते हैं । शुभ कर्म करने वाला शुभ योनि में तथा अशुभ करने वाला अशुभ योनि में जाता है । किये हुए कर्मों के फलों को ही प्राणी भोगता है बिना किये हुए को नहीं । अतः शुभ कर्म करने वाला शुभ योनि में और अशुभ कर्म करने वाला पाप योनि में जाता है । शुभ कर्म से सुख और अशुभ कर्मों से पाप मिलता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 22 जून 2020

साँच का अंग १५२/१५५

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(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*साच अमर जुग जुग रहै, दादू विरला कोइ ।*
*झूठ बहुत संसार में, उत्पत्ति परलै होइ ॥१५२॥*
इस संसार में मिथ्या भ्रान्ति से भ्रान्त मिथ्यावादी उत्पन्न विनाशशील पुरुष तो बहुत दीखते हैं । किन्तु अपनी सत्ता से सबको व्याप्त करने वाले ब्रह्म में निष्ठ तथा ब्रह्म को जानने वाला कोई ही होता है ।
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*दादू झूठा बदलिये, साच न बदल्या जाइ ।*
*साचा सिर पर राखिये, साध कहै समझाइ ॥१५३॥*
यह संसार मायिक होने के कारण परिवर्तनशील है और ब्रह्म नित्य एक रस है । अतः उसकी ही उपासना करनी चाहिये । ऐसा संत कहते हैं ।
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*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।*
*दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥१५४॥*
जब तक शुद्ध ब्रह्म को नहीं जान लेता तब तक यह जीव ज्ञानाभाव के कारण अन्धे के सदृश ही है और सकाम कर्मों से बंधा हुआ इस संसार में भटकता रहता है । कभी भी मुक्त नहीं होता ।
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*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन नांहि ।*
*दादू निर्बंध छाड़ कर, बंध्या द्वै पख माँहि ॥१५५॥*
जब तक साधक आत्म तत्त्व को नहीं जान लेता तब तक वह अन्धा ही कहलाता है । अज्ञान के कर्ण गन्दे भोग और उन भोगों के साधन में अनुरक्त होकर परमात्मा को त्यागकर द्वैत अद्वैत के पक्षों के विवाद में पड़ा हुआ केवल क्लेश ही पाता है ।
(क्रमशः)

रविवार, 21 जून 2020

साँच का अंग १४८/१५१

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*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*दादू साचा साहिब सेविये, साची सेवा होइ ।*
*साचा दर्शन पाइये, साचा सेवक सोइ ॥१४८॥*
उपास्य वस्तु सत्य हो, सेवा भी निष्काम और निश्छल हो, और दर्शन भी सत्य हो । अर्थात् केवल भ्रम मात्र न हो । तब ही ब्रह्मप्राप्ति से साचा साधक ब्रह्मस्वरूप बनता है । अन्यथा तो सब दम्भ ही है ।
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*साचे का साहिब धणी, समर्थ सिरजनहार ।*
*पाखंड की यहु पृथ्वी, प्रपंच का संसार ॥१४९॥*
सत्यनिष्ठ भक्त का सर्वसमर्थ परमात्मा ही रक्षक है । संसार तो पाखण्ड प्रधान है । अतः सभी प्राणी पाखण्ड करने वाले की ही प्रशंसा करते हैं । सच्चे भक्त की नहीं ।
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*झूठा परगट साचा छानै, तिन की दादू राम न मानै ॥१५०॥*
पाखण्डी भक्ति के छल के द्वारा संसार में प्रसिद्ध होकर अपनी प्रतिष्ठा जमाते हैं । सच्चे भक्त तो अपने को छिपाते हैं । अतः चाहे कितना ही पाखण्ड करके प्रसिद्ध क्यों न हो जावे, परन्तु परमात्मा तो उससे प्रसन्न नहीं होता । किन्तु जो गुप्त रहकर प्रभु को भजते हैं और अपनी कोई प्रतिष्ठा नहीं चाहते उन पर ही भगवान् प्रसन्न होते हैं ।
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*दादू पाखंड पीव न पाइये, जे अंतर साच न होइ ।*
*ऊपर थैं क्यूँ ही रहो, भीतर के मल धोइ ॥१५१॥*
जिसने वेश भूषा चन्दन माला आदि से अपने शरीर को सुन्दर बना रखा है और हृदय में जिसके काम क्रोध की अग्नि जलती रहती है । वह भगवान् के दर्शनों का पात्र नहीं है । जो वस्त्र रहित मलिन शरीर तथा निर्धनता के ज्वर से दुःखी रहता है परन्तु वह शुद्ध हृदय से भक्ति रस के प्रवाह में डूबा रहता है तो वह भगवत्प्रिय भक्त भगवान् के दर्शन का अधिकारी है । 
भागवत में कहा है कि- जिसके हृदय में श्री हरि की भक्ति विराजती है और हरि भी अपने लोक को त्यागकर भक्तिसूत्र से बंधे हुए सर्वदा के लिये उसके हृदय में विराजते हैं । ऐसा भक्त भले ही निर्धन क्यों न हो परन्तु वह धन्यवाद का पात्र है । क्योंकि उसके हृदय में श्रीहरि विराजते हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 20 जून 2020

साँच का अंग १४३/१४७

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(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*सूधा मारग साच का, साचा हो सो जाइ ।*
*झूठा कोई ना चलै, दादू दिया दिखाइ ॥१४३॥*
यद्यपि सत्य का मार्ग शास्त्रप्रतिपादित तथा महर्षिजनों से अनुष्ठित होने से सरल ही है । फिर भी इस मार्ग से सत्यनिष्ठ तपस्वी महात्मा ही चलते हैं । जो असत्यवादी हैं वे इस मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते । यह सब श्री दादूजी महाराज ने सत्य का पालन करते हुए अपने आचरण से सबको बतला दिया । फिर भी सत्य मार्ग का आचरण करना सबके लिये कठिन हो रहा है ।
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*साहिब सौं साचा नहीं, यहु मन झूठा होइ ।*
*दादू झूठे बहुत हैं, साचा विरला कोइ ॥१४४॥*
संसार के प्राणियों का मन असत्य पदार्थों में आसक्त होने के कारण तदाकार होने से असत्य ही रहता है । अतः विषयों का चिन्तन करने वाले प्राणी बहुत हैं । सत्य पर चलने वाले साधक तो विरले ही होते हैं ।
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*दादू साचा अंग न ठेलिये, साहिब माने नांहि ।*
*साचा सिर पर राखिये, मिलि रहिये ता माँहि ॥१४५॥*
हे साधक ! सत्य स्वरूप परमात्मा को मत त्याग । उसका त्याग श्रेष्ठ नहीं है सत्पुरुषों से पालित शास्त्रों से प्रतिपादित जो सत्य उपदेश है, उसको मत त्यागो, किन्तु सत्य स्वरूप ब्रह्म की उपासना करके तद्रूप बन जावो ।
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*जे कोई ठेले साच कौं, तो साचा रहै समाइ ।*
*कौड़ी बर क्यों दीजिये, रत्न अमोलक जाइ ॥१४६॥*
यदि कोई पुरुष मायिक पदार्थों का प्रलोभन देकर किसी साधक को सत्य ब्रह्म की उपासना से गिराने लगे तो साधक को चाहिये कि उस सत्य ब्रह्मोपासना को क्षुद्रलोभ के कारण न त्यागे किन्तु उसकी दृढ़ धारणा के लिये बार बार यत्न करे । अन्यथा कोडी के सदृश क्षुद्र विषयों में ही जीवन व्यतीत हो जायगा ।
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*साचे साहिब को मिले, साचे मारग जाइ ।*
*साचे सौं साचा भया, तब साचे लिये बुलाइ ॥१४७॥*
जब ब्रह्म प्राप्ति के शमदमादि साधन निष्कपट होंगे तब ही सत्साधक साधन निष्ठ होकर सत्य ब्रह्म को प्राप्त करके ब्रह्मरूप होता है । अर्थात् साधनों में छल छिद्रता नहीं होनी चाहिये ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 19 जून 2020

साँच का अंग १३८/१४२


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ कस्तूरिया मृग ॥*
*दादू केई दौडे द्वारिका, केई काशी जांहि ।*
*केई मथुरा को चले, साहिब घट ही माँहि ॥१३८॥*
परमात्मा तो सर्व व्यापक सबके हृदय में ही है । अज्ञानी लोग उसको खोजने के लिये द्वारिका आदि तीर्थों में घूमते रहते हैं फिर भी उनको वहां पर मिलता नहीं । महोपनिषद् में कहा है कि- “जो हृदयस्थ परमात्मा को त्याग कर अन्यत्र उसको देखने के लिये जाता हैं वे मानो हाथ में आई हुई कौस्तुभमणि को छोड़कर रत्न प्राप्त करना चाहते हैं ।” 
सर्वोपनिषत्सार संग्रह में कहा है कि- पाषाण, लौह, मणि, मृत्तिका आदि से बनी मूर्ति की पूजा भोग और पुनर्जन्म को देने वाली मानी गई है । अतः मोक्ष की इच्छा वाला यति बाह्य पूजा को त्यागकर अपने हृदयस्थ परमात्मा की ही पूजा करता है ।
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*पूजनहारे पास हैं, देही माँही देव ।*
*दादू ताको छाड़ कर, बाहर माँडी सेव ॥१३९॥*
*॥ भ्रम विधौंसण ॥*
*ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट माँहि ।*
*दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥१४०॥*
कितने ही साधक माला तिलक आदि बाह्य चिन्हों को धारण करके बाह्य देवी देवताओं की उपासना करते हैं । साधु महात्मा तो अपने हृदय में स्थित परमात्मा की आन्तर पूजा करते हैं । अतः दोनों का मार्ग भिन्न होने से दोनों की बनती नहीं ।
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*दादू सब थे एक के, सो एक न जाना ।*
*जने जने का ह्वै गया, यहु जगत दिवाना ॥१४१॥*
सभी प्राणी उस ब्रह्म के ही अंश हैं और शास्त्र में अंश अंशी का अभेद माना है । अतः स्वयं ब्रह्म रूप होते हुए भी उस ब्रह्म चिन्तन को त्याग कर स्वार्थवश उस देवता के उपासक बन गये । अतः वे अज्ञानी हैं ।
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*॥ साच ॥*
*दादू झूठा साचा कर लिया, विष अमृत जाना ।*
*दुख को सुख सब को कहै, ऐसा जगत दिवाना ॥१४२॥*
मनुष्य देह आदि संसार जो मिथ्याभूत है उसको भी सत्य समझकर आसक्ति कर रहे हैं । जो वैषयिक सुख विष की तरह दुःखदायी है उसको भी अमृत की तरह मानकर उसका सेवन करते हैं । स्त्री पुत्र आदि के द्वारा उत्पन्न होने वाला जो दुःख है उसको ही सुख मान कर उसमें रमण कर रहे हैं । क्योंकि मोह की महिमा बहुत बलवान् है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 18 जून 2020

साँच का अंग १३४/१३७


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साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*भ्रम विध्वंसण*
*दादू पैंडे पाप के, कदे न दीजे पांव ।*
*जिहिं पैंडे मेरा पीव मिले, तिहिं पैंडे का चाव ॥१३४॥*
पापमय जितने भी कर्म हैं उनको त्याग देना चाहिये । पाप कर्म में एक पांव भी मत रखो, जो पवित्र कर्म है, उन्हीं का सेवन करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण पवित्र होकर ब्रह्म की प्राप्ति हो जाय । 
लिखा है कि- “जो हमारे पवित्र कर्म हैं उन्हीं का तुम को सेवन करना चाहिये और हमारे दुष्कृत हैं उनको कभी नहीं करना चाहिये ।”
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*दादू सुकृत मारग चालतां, बुरा न कबहूँ होइ ।*
*अमृत खातां प्राणिया, मुवा न सुनिया कोइ ॥१३५॥*
जैसे अमृत का भोजन करने वाला कभी मरता नहीं, उसी प्रकार सुकृत मार्ग पर चलने वले का कभी अकल्याण नहीं होता । अतः कल्याण चाहने वाले को सुकृत मार्ग पर ही चलना चाहिये । यह सुकृत मार्ग क्या है और उस पर कैसे चला जाता है? 
इस प्रश्न के विषय में महाभारत में लिखा है कि- “ब्रह्मचर्य गार्हस्थ वानप्रस्थ संन्यास आश्रम में स्थित ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण जिस मार्ग पर चलने हैं उन ब्राह्मणों का मार्ग एक ही है । क्योंकि वे नाना चिन्हों को धारण करके भी एक ब्रह्मबुद्धि का ही आश्रय लेते हैं । भिन्न-भिन्न आश्रमों में रहते हुए भी जिनकी बुद्धि शान्ति के साधन में लगी हुई है । अन्त में एक मात्र सत्स्वरूप ब्रह्म को उसी प्रकार प्राप्त है, जैसे सब नदियां समुद्र को प्राप्त होती है । यह मार्ग बुद्धिगम्य है । शरीर के द्वारा नहीं । सभी कर्म आदि अन्त वाले हैं तथा शरीर कर्म का हेतु है । इसलिये हे देवि ! तुम्हारे परलोक के लिये तनिक भी भय नहीं है । आप परमात्वभाव की भावना में रत हो । अतः अन्त में मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जावोगी अतः ब्रह्म बुद्धि के द्वारा ही उस मार्ग को प्राप्त कर सकते हो । अथवा वैदिक कर्म प्रवृत्ति निवृत्ति भेद से दो प्रकार के हैं । जो मन की वृत्तियों को विषय की और ले जाते हैं उनको प्रवृत्ति कर्म कहते हैं, मन की जो वृत्तियों को विषय से हटाकर शान्त एवं आत्म साक्षात्कार के योग्य बना देता है उसे निवृत्तिमार्ग कहते हैं । प्रवृत्तिपरक कर्म से बार बार जन्मता रहता है । निवृत्ति कर्म से भक्ति मार्ग या ज्ञान मार्ग द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती है । अतः परमात्मा को प्राप्त करने वाला मार्ग ही सुकृत मार्ग है । 
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*॥ भ्रम विधौंसण ॥*
*कुछ नाहीं का नाम क्या, जे धरिये सो झूठ ।*
*सुर नर मुनिजन बंधिया, लोका आवट कूट ॥१३६॥*
*कुछ नाहीं का नाम धर, भरम्या सब संसार ।*
*साच झूठ समझै नहीं, ना कुछ किया विचार ॥१३७॥*
जो ब्रह्म स्वयं रूप गुण क्रियादि से रहित है उसके जो नाम रूप गुण क्रिया आदि दीखते हैं, वे सब मायाकृत ही हैं और मिथ्या हैं । फिर भी मायाकृत नामरूपों में देवता मानव आदि सभी बद्धाग्रह हो रहे हैं और परमात्मा को भूलकर संसार कुहर में पड़ रहे हैं । कभी भी विचार नहीं करते । अतः सभी को विचार दृष्टि से जगत् को मिथ्या समझकर ब्रह्म का ही ध्यान करना चाहिये । 
श्रुति में कहा है कि- जितना भी नामधेय विकार है वह केवल वाणी का आराम्भण मात्र हैं । अर्थात् वाणी से ही प्रतीत होता है, वास्तविक नहीं है । जैसे मिट्टी से बनने वाले घट आदि केवल नाम से ही प्रतीत हो रहे हैं, वस्तुतः तो वे सब मृन्मय ही हैं । क्योंकि उनके आदि अन्त में मिट्टी ही शेष रहती है । ऐसा जानकर ब्रह्म का ही ध्यान करना चाहिये ।
विवेकचूडामणि में- “जैसे सेना के मध्य स्थित राजा सेना से अलग ही रहता है, वैसे अपने को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप समझकर अपनी आत्मा में स्थित होकर सारे जगत् को ब्रह्म में लीन कर दो । क्योंकि ब्रह्म सबका अधिष्ठान है, अध्यस्त अधिष्ठान से भिन्न नहीं होता ।”
(क्रमशः)

बुधवार, 17 जून 2020

साँच का अंग १२९/१३३

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*कालर खेत न नीपजै, जे बाहे सौ बार ।* 
*दादू हाना बीज का, क्या पचि मरै गँवार ॥१२९॥* 
*॥ कृतमकर्ता ॥* 
*दादू जिन कंकर पत्थर सेविया, सो अपना मूल गँवाइ ।* 
*अलख देव अंतर बसै, क्या दूजी जगह जाइ ॥१३०॥* 
सर्व व्यापक अपने हृदय में ही स्थित परमात्मा को त्याग कर पाषाण कल्पित मूर्ति आदि में भगवान् की पूजा करता है तो उसका जीवन व्यर्थ ही जा रहा है, उसको सौ जन्मों में भी ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि उसकी भेद बुद्धि निवृत्त नहीं होती । 
*पत्थर पीवे धोइ कर, पत्थर पूजे प्राण ।* 
*अन्तकाल पत्थर भये, बहु बूडे इहि ज्ञान ॥१३१॥* 
जो पाषण से निर्मित मूर्ति को पाषण बुद्धि से स्नान कराते हुए उस जल का आचमन लेते हैं, धूप दीपादिक से पूजन करते हैं । उनको सर्वव्यापक ब्रह्म का ज्ञान न होने से मिथ्या पूजन में लगे हुए संसार में ही डूबे रहते हैं । 
*कंकर बंध्या गांठड़ी, हीरे के विश्‍वास ।* 
*अंतकाल हरि जौहरी, दादू सूत कपास ॥१३२॥* 
कोई अज्ञानी पत्थर के टुकड़ों को हीरा मान कर जौहरी के पास उनकी परीक्षा के लिये ले जा कर दिखाता है तो जौहरी उसको देख कर कहेगा कि क्या आप इन पत्थर के टुकड़ों को ही हीरा समझ रहे हैं । क्या हीरे ऐसे ही होते हैं? आप अन्धे हैं क्या, इस तरह वह व्यक्ति हंसी का पात्र बनता है । ऐसे ही पत्थर से बनाई गई मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजता है तो वह सन्त समाज में जिन्होंने आत्मा का साक्षात्कार किया है, निन्दा का पात्र बनेगा । क्योंकि आत्मा चेतन होता है और वह मूर्ति जड़ है । अतः भ्रान्ति को त्याग कर ज्ञान प्राप्त करो । 
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*॥ संस्कार आगम ॥* 
*दादू पहली पूजे ढूंढसी, अब भी ढूंढस बाणि ।* 
*आगे ढूंढस होइगा, दादू सत्य कर जाणि ॥१३३॥* 
पूर्व-पूर्व संस्कार के कारण उत्तर-उत्तर जन्म लेते रहते हैं । पूर्व जन्म में भी पत्थर निर्मित मूर्तिपूजन के कारण इस जन्म में भी उसी का पूजन करता है । अतः यह संस्कार परम्परा नष्ट नहीं होगी और ज्ञान न होने से मोक्ष भी नहीं मिलेगा । अतः मुमुक्षुसाधक को मुक्ति के लिये भगवान् का ही पूजन करना चाहिये । 
उक्तं सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रहे- यदि साधक मुक्त होना चाहता है तो उसको रजोगुण और तमोगुण तथा उनके कार्यों से अपने मन को अलग करके विशुद्ध परमप्रिय ब्रह्म का ही प्रयत्नपूर्वक ध्यान करना चाहिये । 
(क्रमशः)

सोमवार, 15 जून 2020

साँच का अंग १२५/१२८

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साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
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(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ अमिट पाप प्रचण्ड ॥*
*भाव भक्ति उपजै नहीं, साहिब का प्रसंग ।*
विषय विकार छूटै नहीं, सो कैसा सत्संग ॥१२५॥*
बार बार सत्संग करने पर भी यदि भगवान् में श्रद्धा भक्ति पैदा नहीं होते और मानसिक विषय विकार नष्ट नहीं होते हैं तो यह समझना चाहिये कि मेरे पाप बहुत अधिक हैं । अतः बार बार सत्संग करते रहो और हरि नाम जपो ।
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*बासण विषय विकार के, तिनको आदर मान ।*
*संगी सिरजनहार के, तिन सौं गर्व गुमान ॥१२६॥*
अज्ञानी लोग भगवान् के भक्तों का भी सन्मान नहीं करते जो दिन-रात भगवान् के साथ ही रहते हैं । जो विषय विकार में लीन रहते हैं उनको अपने समान मान सन्मान करते है । भक्तों के साथ गर्व करते हैं । उनको धिक्कार हैं ।
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*॥अज्ञ स्वभाव अपलट ॥*
*अंधे को दीपक दिया, तो भी तिमिर न जाय ।*
*सोधी नहीं शरीर की, तासन का समझाइ ॥१२७॥*
जन्मांध को दीपक के प्रकाश में नहीं दीख सकता है । क्योंकि उसके नेत्र ही नहीं हैं । ऐसे जो साधक देहाध्यास को नहीं त्याग सकता तो वह शरीर की अनित्यता को भी नहीं जान सकता । उसको आत्मा का ज्ञान होने पर भी उसका भ्रम दूर नहीं हो सकता क्योंकि शरीर में उसकी आसक्ति हो रही है । 
विवेकचूड़ामणि में- “मगरमच्छ को लकड़ी समझकर यदि कोई उसको पकड़ले और नदी पार करना चाहता हो तो नहीं कर सकता । ऐसे ही कोई शरीर के लालन पालन में दिन रात अनुरक्त रहता है तो उसको आत्मज्ञान नहीं हो सकता है । क्योंकि उसका शरीराध्यास ही बाधक है । इसलिये जिसने देहाध्यास को जीत लिया वह ही मुक्तिपद प्राप्त कर सकता है ।”
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*॥ सगुना निगुना कृतघ्नी ॥*
*दादू कहिए कुछ उपकार को, मानै अवगुण दोष ।*
*अंधे कूप बताइया, सत्य न मानै लोक ॥१२८॥*
हे अन्धे ! इधर कुवा है, मत जा, अन्यथा गिर जायगा ऐसा समझने पर भी वह नहीं समझता । ऐसे ही अज्ञानी पुरुष को यह संसार असार है अतः इस वासना कूप में मत गिरो । ऐसा बार बार समझाने पर भी वह नहीं समझता किन्तु ज्ञान को असत्य या उपहास मान कर उसी वासना के कूप में गिर जाता है । समझाने वाले का उपकार न मान कर उसकी हंसी उडाता है । ऐसा मानव कृतघ्नी होता है । वह ज्ञान देने का अधिकारी नहीं है । 
विवेकचूडामणि में- “बुद्धिमान् पण्डित चतुर अत्यन्त सूक्ष्मार्थ का विचार करने वाला भी यदि तमोगुण की शक्ति आवरण से आच्छादित है तो वह बार-बार समझाने पर भी नहीं समझता है । किन्तु भ्रान्ति से आरोपित जो जीवभाव है उसी को सत्य समझता है और तद्रूप गुणों को आत्मा में आरोपित करता रहता है । अहो यह तमोगुण की वारण शक्ति अत्यधिक प्रबल है । जो ज्ञान को नहीं होने देती ।”
(क्रमशः)

रविवार, 14 जून 2020

साँच का अंग १२१/१२४


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*दादू दोन्यूँ भरम हैं, हिन्दू तुरक गंवार ।* 
*जे दुहुवाँ थैं रहित है, सो गहि तत्त्व विचार ॥१२१॥* 
हिन्दू और मुसलमान का भेद भी अज्ञान द्वारा बुद्धि से कल्पित होने से मिथ्या ही है । शरीर का भी दोनों में भेद नहीं हो सकता क्योंकि दोनों के शरीर पञ्चभूतों से बने हैं । आत्मा तो सबका समान ही होता है । अतः केवल अज्ञान के कारण बुद्धि द्वारा कल्पित भेद को त्याग कर विचार दृष्टि से सबमें धर्मातीत आत्मा को ही देखो । लिखा है कि आत्मा सबका एक ही है अतः किसी को भी क्लेश मत दो । वेदान्तसंदर्भ में लिखा है कि- “मैं बालक युवा वृद्ध नहीं हूं । न वर्णाश्रम धर्म वाला ब्रह्मचारी व गृहस्थ हूं, न वानप्रस्थी और न संन्यासी हूं किन्तु सर्वधर्मातीत जगत् के जन्म और नाश का कारण ब्रह्मरूप आत्मा हूं । 
*अपना अपना कर लिया, भंजन माँही बाहि ।* 
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥१२२॥* 
*दादू पानी के बहु नाम धर, नाना विधि की जात ।* 
*बोलणहारा कौन है, कहो धौं कहाँ समात ॥१२३॥* 
अपने अपने घट आदि पात्रों में जल के भरने पर केवल घट आदि के भेद के कारण जल का भेद नहीं हो सकता क्योंकि वह जल एक ही कूप से लिया गया है । परन्तु फिर भी अज्ञानी यह जल ब्राह्मण का है और यह शूद्र का, ऐसा कहते हुए लज्जित नहीं होते । न शरीर भेद से आत्मा का भेद होता । क्योंकि सब प्राणियों में वर्ण, आश्रम, जाति आदि धर्मों से रहित एक ही आत्मा है । अतः जिसकी सत्ता से सभी जीव बोलते सुनते हैं वह आत्मा एक ही है ऐसा जानकर विद्वानों को भेदभाव मिटा देना चाहिये । 
सर्ववेदान्त संग्रहसार में लिखा है कि- “रस्सी के स्वरूप को न जानने के कारण अज्ञानी जीव यह सर्प है ऐसा कह कर चिल्लाता है, भयभीत होकर कांपता है । किन्तु उसका यह भयभीत होना सब बेकार ही है, क्योंकि वहां सर्प है ही नहीं, ऐसे ही आत्मा में जन्म-मरण व्याधिजरा आदि धर्म है ही नहीं, फिर भी अज्ञानी जन्म, मरण, व्याधि जरा से अपने को दुःखी मानता है । अतः आत्मा का सम्यग् विचार करके उन भ्रमजन्य दुःखों को त्याग देना चाहिये । 
*जब पूरण ब्रह्म विचारिये, तब सकल आत्मा एक ।* 
*काया के गुण देखिये, तो नाना वरण अनेक ॥१२४॥* 
जब पूर्ण ब्रह्म का विचार करते हैं तो आत्मा में कहीं भेद भासित नहीं होता, जैसे घट का विचार करने पर मृत्तिका के अतिरिक्त घट नाम का कोई पदार्थ सिद्ध नहीं होता । शरीर की जब मीमांसा करते हैं तो उस में स्थूलत्व कृशत्व, गौरत्व आदि अज्ञान जन्य भेद प्रतीत होते हैं, वे भी मिथ्या हैं । जैसे स्वप्न में निद्रा के कारण सुख दुःख प्रतीत होते हैं, जीव उनको सत्य मान सुखी दुःखी होता है लेकिन क्या जागने पर वे सुख दुःख रहते हैं, नहीं । ऐसे आत्मा में अनात्मधर्मों का आरोप करके जीव दुःखी होता है, ज्ञान होने पर सब विलीन हो जाते हैं । 
वेदान्तसिद्धांत में- “आप आत्मा में अनात्म धर्मों का आरोप करके शोच करते हैं । इनको अज्ञानजन्य मान कर भय को त्याग कर सुखी हो जावो ।”
(क्रमशः)

शनिवार, 13 जून 2020

साँच का अंग ११७/१२०


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ जाति पांति भ्रम विधूंसण ॥*
*अपनी अपनी जाति सौं, सब को बैसैं पांति ।*
*दादू सेवग राम का, ताके नहीं भरांति ॥११७॥*
राम का सच्चा भक्त जाति वर्णाश्रम भेद से रहित होता है क्योंकि वह सर्वत्र राम को ही देखता है । जो अज्ञानी संसारी पुरुष है वे तो जाति वर्ण आश्रम धर्मों से बंधे हुए अपने जाति वालों को ही चाहते हैं भोजन के समय अपने जाति वालों की पंक्ति में बैठकर भोजन करते है दूसरों के साथ नहीं बैठते क्योंकि उनकी बुद्धि भ्रान्त रहती है ।
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*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥११८॥*
जो चोर अन्यायी अधर्मात्मा है वे एक जाति के होने से भोजन के समय एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर लेते हैं और राम भक्त को अपने साथ बैठने में निषेध करते हैं कि तुम हमारे साथ बैठकर भोजन नहीं कर सकते । क्योंकि आप अपवित्र हैं । ऐसे विचार वाले पुरुष भ्रान्त हैं । क्योंकि भक्त के सदृश तो कोई पवित्र होता ही नहीं जो दूसरों को भी पवित्र बना देता है ।
लिखा है कि- “जो एकबार भी मैं ब्रह्म हूं, ऐसा ध्यान कर लेता है, वह सब पापों से तर जाता है । चाहे वे पाप करोड़ों कल्पों के ही क्यों न हों ।
अत्यन्त पापी भी एक बार एक निमेष के लिये भी अच्युत भगवान् का ध्यान करता है तो वह तपस्वी बन जाता है और सभी पापियों को भी पवित्र कर देता है ।
राग द्वेष से रहित प्रभु का भक्त चाण्डाल भी ब्राह्मण से अधिक पवित्र है । जो ब्राह्मण राग द्वेष वाला है वह चाण्डाल से भी अधिक अधम है ।”
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*दादू सूप बजायां क्यों टलै, घर में बड़ी बलाइ ।*
*काल झाल इस जीव का, बातन ही क्यों जाइ ॥११९॥*
किसी के घर में यदि भूत का प्रवेश हो जाय तो वह प्रेत साधारण दण्ड आदि के दिखाने मात्र से बाहर नहीं जाता, किन्तु बार बार प्रयत्न करने से ही निकलता है । ऐसे ही जिसके अन्तःकरण में काम क्रोध आदि शत्रु बसे हुए हैं वे वर्ण आश्रम आदि कर्मों की वार्ता करने से नहीं निकलते किन्तु ज्ञान से जब भ्रान्ति दूर होगी तब ही वे निवृत्त होंगे ।
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*साँप गया सहनाण को, सब मिलि मारैं लोक ।*
*दादू ऐसा देखिए, कुल का डगरा फोक ॥१२०॥*
घने अन्धकार में सर्प के चले जाने पर उस सर्प की लकीर को सर्प मान कर दण्ड आदि से उस लकीर को मारने से सर्प नहीं मरता ऐसे भ्रान्तिजन्य जातिकृत स्पर्श अस्पर्शभेद भी जातिगत पक्षपात से या स्नानादि द्वारा शुद्धिकरण से निवृत्त नहीं होता क्योंकि वह अज्ञानजन्य है । किन्तु ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही निवृत्त होता है । अतः जातिगत भेद को लेकर स्पर्श अस्पर्शादि भेद व्यर्थ ही है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 12 जून 2020

साँच का अंग ११३/११६

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*दादू ये सब किसके ह्वै रहे, यहु मेरे मन माँहि ।*
*अलख इलाही जगत-गुरु, दूजा कोई नांहि ॥११३॥*
तैतरीय में लिखा है कि परमात्मा के भय से वायु चल रही है, उसी के भय से सूर्य चन्द्रमा उदित हो रहे हैं उसी के भय से अग्नि इन्द्र आदि देवता अपने अपने कर्मों में स्थित हैं । पांचवां मृत्यु भी उसी के भय से दौड़ता रहता है ।
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*॥ पतिव्रत व्यभिचार ॥*
*दादू औरैं ही औला तके, थीयां सदै बियंनि ।*
*सो तू मीयां ना घुरै, जो मीयां मीयंनि ॥११४॥*
हे मियां(साधक) परात्परमात्मा को क्यों नहीं पूजता, जो सबका नियन्ता है । व्यर्थ ही दूसरे पैगम्बरों का आश्रय टटोल रहा है । वे स्थिर नहीं है, अतः परमात्मा का ही पूजन करो क्योंकि वह नित्य है ।
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*॥ सत असत गुरु पारख लक्षण ॥*
*आई रोजी ज्यों गई, साहिब का दीदार ।*
*गहला लोगों कारणैं, देखै नहीं गँवार ॥११५॥*
जिस पुरुष की साधना केवल अपनी प्रतिष्ठा जमाने के लिये ही है न कि ब्रह्मसाक्षात्कार के लिये । उसकी वह साधना व्यर्थ ही है और असद्गुरु ही कहलाता है । क्योंकि अज्ञानी होने से वह असद्गुरु ही है । जो मनुष्य जन्म प्राप्त करके ब्रह्मप्राप्ति के लिये यत्न करता है उसका नर जन्म लेना सफल है । क्योंकि यह नर जन्म दुर्लभ है । अतः मनुष्य जन्म प्राप्त करके कल्याण के लिये ही यत्न करना चाहिये । इसी भाव को लेकर श्रीमद्भागवत में लिखा है कि-यह मनुष्य जन्म अनेक जन्मों के अन्त में मिलता है जो धर्म अर्थ मोक्ष का देने वाला है और अनित्य क्षणभंगुर है । अतः कल्याण के लिये यत्न करना चाहिये । क्योंकि विषय सुख तो अन्य जन्मों में भी मिलता ही रहता है । 
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*दादू सोई सेवक राम का, जिसे न दूजी चिंत ।*
*दूजा को भावै नहीं, एक पियारा मिंत ॥११६॥*
भक्तों में प्रधान वह है जो एक प्रिय परमात्मा का ही ध्यान करता है, न कि देवादिकों का और अपने योगक्षेम का भी जरा सा भी चिन्तन नहीं करता । भागवत में-
“मैं सात्विक राजस तामस सारी कामनाओं को त्याग कर केवल माया रहित गुणातीत एक अद्वितीय चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण आया हूँ ।”
मैं अनादि काल से कर्मफलों को भोगते भोगते अत्यन्त दुःखी हो रहा था उनकी दुःख ज्वाला मुझे सदा जलाती रहता थी । पांचों इन्द्रियाँ और मन ये मेरे छ शत्रु कभी शान्त नहीं होते थे । उनकी विषयों की प्यास बढ़ती ही रहती थी और क्षण भर के लिये भी शान्ति नहीं मिलती थी । अब मैं आपके भय शोक से रहित चरण कमलों की शरण में आया हूं । हे ईश्वर आप मेरी रक्षा कीजिये ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 11 जून 2020

साच का अंग १०५/११२


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साच का अंग)
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*॥ सज्जन दुर्जन ॥*
*दादू कथनी और कुछ, करणी करैं कछु और ।*
*तिन थैं मेरा जीव डरै, जिनके ठीक न ठौर ॥१०५॥*
*अन्तरगत औरै कछु, मुख रसना कुछ और ।*
*दादू करणी और कुछ, तिनको नांही ठौर ॥१०६॥*
जिनके कथन और व्यवहार में समानता नहीं है वे दुरात्मा होते हैं । वे कहते कुछ हैं और करते कुछ और ही है । उनकी संगति नहीं करनी चाहिये । क्योंकि वे विश्वास के योग्य नहीं होते । 
लिखा है कि- मन वाणी तथा कर्म में जिनकी एकता होती है वे महात्मा होते हैं क्योंकि वे जैसा कहते हैं वैसा ही करते हैं । जो दुरात्मा हैं वे मन में कुछ और ही सोचते हैं और वाणी से कुछ और ही कहते हैं और व्यवहार में कुछ और ही दिखाते हैं ।
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*॥ मन परमोध ॥*
*दादू राम मिलन की कहत हैं, करते कुछ औरे ।*
*ऐसे पीव क्यौं पाइये, समझि मन बौरे ॥१०७॥*
हे मन ! जो मनुष्य बात तो ब्रह्म साक्षात्कार की करते हैं । परन्तु जिनका आचरण पामरजन जैसा है । वे विश्वास के योग्य नहीं होते । ऐसे आचरण वालों को ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती है ।
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*॥ बे खर्च विसनी ॥*
*दादू बगनी भंगा खाइ कर, मतवाले माँझी ।*
*पैका नांही गांठड़ी, पातशाह खांजी ॥१०८॥*
*दादू टोटा दालिदी, लाखों का व्यौपार ।*
*पैका नांही गांठड़ी, सिरै साहूकार ॥१०९॥*
जैसे कोई मद्य पीने वाला मद्य पीकर पागल हुआ निर्धन होता हुआ भी अपनी मिथ्या प्रतिष्ठा को दिखाने के लिये कहता है कि मैं राज्य के खजाने का कोशाध्यक्ष हूं । मेरे पास धन की कोई कमी नहीं है । एक लाख रुपयों से तो मैं व्यापार करता हूं । ऐसे ही जिसके हृदय में ज्ञान का तो लवलेश भी नहीं है फिर भी कहता फिरता है कि मैं ब्रह्म ज्ञानी हूं । ऐसे कहने मात्र से वह ज्ञानी नहीं हो सकता । उसका ऐसा कहना व्यर्थ ही है ।
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*मध्य निष्पक्ष-“सब मतों का निशाना एक”*
*दादू ये सब किसके पंथ में, धरती अरु आसमान ।*
*पानी पवन दिन रात का, चंद सूर रहमान ॥११०॥*
*ब्रह्मा विष्णु महेश का, कौन पंथ गुरुदेव ।*
*सांई सिरजनहार तूं, कहिये अलख अभेव ॥१११॥*
*मुहम्मद किसके दीन में, जिब्राईल किस राह ? *
*इनके मुर्शिद पीर की, कहिये एक अल्लाह ॥११२॥*
सूर्य चन्द्रमा पृथ्वी जल तेज वायु आकाश दिन रात ये सब किसके धर्म के अनुयायी  हैं । ऐसा प्रश्न करने पर श्री दादूजी महाराज समाधान करते हुए कहते हैं कि- सूर्य आदि सभी देवता पञ्चभूत ये प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए परोपकार की भावना से प्रभु की प्रेरणा से निष्पक्ष मार्ग से चलते हुए उसी परमात्मा की आज्ञा का पालन करते हुए उसकी ही सेवा कर रहे हैं । ब्रह्मा विष्णु महेश भी अद्वितीय ब्रह्म की आज्ञा का पालन करते हुए जिस-जिस कर्म में इनको नियुक्त किया है उसी उसी कर्म को करते हुए परमात्मा की ही सेवा कर रहे हैं । मुहम्मद इज्राइल आदि धर्म नेता भी परमात्मा के बताये हुए मार्ग से चलते हुए उसकी ही सेवा कर रहे हैं । अतः सभी धार्मिक लोगों को परमात्मा की ही उपासना करनी चाहिये । क्योंकि मुहम्मद आदि तो परमात्मा के दूत हैं और उसके आगे तुच्छ सदोष और भ्रान्त हैं । 
(क्रमशः)

बुधवार, 10 जून 2020

साच का अंग १००/१०४

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साच का अंग)
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*एकै अक्षर प्रेम का, कोई पढेगा एक ।*
*दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढ़ैं अनेक ॥१००॥*
*दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोइ ।*
*बेद पुरान पुस्तक पढै, प्रेम बिना क्या होइ ॥१०१॥*
*दादू कहतां कहतां दिन गये, सुनतां सुनतां जाइ ।*
*दादू ऐसा को नहीं, कहि सुनि राम समाइ ॥१०२॥*
विद्वान् वक्ता की आयु कहते कहते ही व्यतीत हो जाती है । सुनने वाले श्रोता भी सुनते सुनते मृत्यु के निकट पहुँच जाते हैं । वक्ता तथा श्रोताओं के मध्य में ऐसा कोई एक भी वक्ता और श्रोता नहीं कि कथा कहते ही तथा श्रोता कथा सुनते ही ब्रह्म में लीन हो गया हो ।
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*॥ मध्य निरपख ॥*
*मौन गहैं ते बावरे, बोलैं खरे अयान ।*
*सहजैं राते राम सौं, दादू सोई सयान ॥१०३॥*
बहुत से साधक मौन धारण करते हैं, परन्तु मन में दिन रात सांसारिक संकल्प विकल्प करते रहते हैं ऐसे मौन से कोई लाभ नहीं, ऐसा करने वाले अज्ञानी ही है । क्योंकि केवल मौन धारण करने से समाधि तो लगती नहीं । ऐसे ही बहुत से साधक ब्रह्म ज्ञान की चर्चा तो बहुत करते हैं लेकिन उनमें धारणा तो जरा भी नहीं रहती । ये दोनों प्रकार के साधक उत्पथगामी माने जाते हैं । ऐसे साधक मुक्त न होकर अन्त में पश्चात्ताप करते हैं । अतः जो स्वाभाविक मनोवृत्ति से भगवान् में अनुरक्त रहता है वह ही विज्ञ है । 
महाभारत में कहा है- यदि सद्वाक्य बोलने की इच्छा हो तो सूक्ष्मधर्म का विचार करते हुए सत्यवाणी बोलो जिससे किसी की आत्मा को क्लेश न हो । जो वाणी अपवाद रहित झूठ कपट से रहित हो । कठोर तथा नृशंस न हो । जिसमें किसी की चुगली न हो । ऐसी वाणी बोलो ।
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*॥ करुणा ॥*
*कहतां सुनतां दिन गये, ह्वै कछू न आवा ।*
*दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछतावा ॥१०४॥*
हे परमेश्वर ! संसार की बातों में ही मेरे दिन पूरे हो गये । कुछ फल हाथ नहीं लगा । अब आप ऐसी कृपा करें जिससे मेरे मन में गोविन्द की भक्ति पैदा हो जाय । अन्यथा प्राणान्त में पश्चाताप करना पड़ेगा । भक्ति से तो मेरा जीवन सफल हो जायगा । वेदान्तसंदर्भ में शिवकवचस्तोत्र में – जिसकी आयु क्षीण हो गई और मृत्यु समीप आ गई हो तथा महारोग से ग्रस्त क्यों न हो । यदि वह हरि भक्ति में लग जाता है तो तत्काल सुख प्राप्त हो जाता है और उसकी आयु भी दीर्घ हो जाती है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 9 जून 2020

साच का अंग ९५/९९

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साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साच का अंग)
*सब हम देख्या सोध कर, वेद कुरानों माँहि ।*
*जहाँ निरंजन पाइये, सो देश दूर, इत नांहि ॥९५॥*
जिस निर्विकल्प समाधि में ब्रह्म की प्राप्ति होती है वह समाधि देश वेद शास्त्रों के पढ़ने से नहीं मिल सकता, किन्तु अभ्यास वैराग्यादि साधन संपत्ति से ही लभ्य है । केवल ज्ञान कथन से नहीं ।
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*पढ पढ थाके पंडिता, किनहूँ न पाया पार ।*
*कथ कथ थाके मुनिजना, दादू नाम अधार ॥९६॥*
*काजी कजा न जानहीं, कागद हाथ कतेब ।*
*पढतां पढतां दिन गये, भीतर नांहि भेद ॥९७॥*
हे काजी ! पढ पढ कर आयु क्षीण कर दी, मृत्यु भी पास ही आ गई । लेकिन तुम ने अब तक भी परमात्मा का रहस्य नहीं जान पाया, तो फिर हाथों में इतने पुस्तकों के भार को धारण करने का क्या प्रयोजन है तथा पढ़ने से भी क्या लाभ है ।
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*मसि कागज के आसरे, क्यों छूटै संसार ? *
*राम बिना छूटै नहीं, दादू भ्रम विकार ॥९८॥*
हे काजी ! स्याही से लिखी हुई और कागज से बनी हुई पुस्तक के पढ़ने मात्र से कोई भी संसार बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता और रामभक्ति के बिना कामादि विकार और भ्रम की निवृत्ति नहीं हो सकती । अतः भगवान् का भजन ही करना चाहिये ।
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*कागद काले कर मुए, केते वेद पुराण ।*
*एकै अक्षर पीव का, दादू पढै सुजान ॥९९॥*
कितने ही विद्वान् वेद शास्त्र पुराणों की टीका भाष्य आदि रचकर मृत्यु को प्राप्त हो गये । इन ग्रन्थों की रचना से कोई मुक्त तो नहीं हुआ । किन्तु एक अक्षर स्वरूप राम नाम को जप करके तो कितने ही भक्त मुक्त हो गये ।
(क्रमशः)

सोमवार, 8 जून 2020

साच का अंग ८९/९४


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(श्री दादूवाणी ~ १३. साच का अंग)
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*॥ समझ सुजानता-सब जीवों में ज्ञान ॥*
*दादू कासौं कहि समझाइये, सब कोई चतुर सुजान ।*
*कीड़ी कुंजर आदि दे, नाहिंन कोई अजान हैं ॥८९॥*
इस कलिकाल में सभी प्राणी अपने को पण्डित समझते हैं । कोई भी अपने को अज्ञानी नहीं मानता अधिक क्या कहें? कीडी से लेकर हाथी पर्यन्त सभी जीव अपने व्यवहार में चतुर दीख रहे हैं और सभी अपने को विज्ञ कहते हैं अतः मैं किस प्रकार से किस को समझाऊं । किसी के भी अन्तःकरण में ज्ञान की जिज्ञासा ही नहीं होती ।
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*॥ करणी बिना कथनी ॥*
*शूकर स्वान सियाल सिंह, सर्प रहैं घट माँहि ।*
*कुंजर कीड़ी जीव सब, पांडे जाणैं नांहि ॥९०॥*
*दादू सूना घट सोधी नहीं, पंडित ब्रह्मा पूत ।*
*आगम निगम सब कथैं, घर में नाचै भूत ॥९१॥*
भक्ति ज्ञान वैराग्य शून्य अन्तःकरण वाले पण्डित अपने को वसिष्ठ के समान ज्ञानी बतलाते हैं और वेद शास्त्रों का प्रवचन भी करते हौं किन्तु उनके अन्तःकरण में तो काम क्रोध लोभ मोह भरे पड़े हैं । अतः ज्ञान के साधनों से रहित उन पंडिताभिमानी पंडितों को आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
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*पढे न पावै परमगति, पढे न लंघै पार ।*
*पढे न पहुंचै प्राणियां, दादू पीड़ पुकार ॥९२॥*
केवल शास्त्रों के अध्ययन मात्र से परम गति को कोई प्राप्त नहीं कर सकता न संसार सागर को पार कर सकते हैं और न ब्रह्म में स्वरूपस्थिति हो सकती है । किन्तु जब विरह से पीडित होकर श्रद्धा भक्ति से भगवान् को प्रार्थना करेगा तब भगवान् प्रसन्न होते हैं । सर्ववेदान्तसंग्रह में लिखा है कि- श्रद्धावान् पुरुषों को ही पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति बतलाई है, दूसरों को नहीं । वेद में कहा है कि हे सौम्य यह परमार्थ तत्व अत्यन्त सूक्ष्म है वह श्रद्धा से ही प्राप्त हो सकता है, अतः श्रद्धा करो । श्रद्धा विहीन पुरुष की तो परमार्थ में प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती प्रवृत्ति के विना साध्य की सिद्धि न होती । अतः अश्रद्धा के कारण सभी प्राणी संसार समुद्र में डूब रहे हैं ।
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*दादू निवरे नाम बिन, झूठा कथैं गियान ।*
*बैठे सिर खाली करैं, पंडित वेद पुरान ॥९३॥*
हरि नाम चिन्तन के बिना वेद शास्त्र पुराण आदि को जानने वाले विद्वान भी व्यर्थ ही शास्त्र भार को ढोते हैं । वह उनका ज्ञान केवल शिर को पीडा देने वाला ही है । अतः ज्ञान के अनुसार कर्तव्यपालन भी अवश्य होना चाहिये । अन्यथा भक्तों की दृष्टि में शास्त्र ज्ञान भी भारभूत ही है ।
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*दादू केते पुस्तक पढ़ मुये, पंडित वेद पुरान ।*
*केते ब्रह्मा कथ गये, नांहिन राम समान ॥९४॥*
इस कलिकाल में कितने ही वेदशास्त्रों के पढ़ने वाले विद्वान् मुक्ति प्राप्त किये बिना ही पढ पढ का मर गये । ब्रह्मा के समान अपने को महर्षि मानने वाले भी बिना मुक्ति के ही नष्ट हो गये । अतः सभी मुमुक्षुओं को हरि के नाम का चिन्तन करना चाहिये । तब ही उनके शास्त्रों का अध्ययन सफल होगा । 
(क्रमशः)