#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
.
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
.
*ज्यौं कोऊ त्याग करै अपनौं घर,*
*बाहर जाइ कै भेष बनावै ।*
*मूंड मुंडाई कै कांन फराइ,*
*बिभूति लगाइ जटाहु बधावै ॥*
*जैसोई स्वांग करै बपु कौ पुनि,*
*तैसोई मांनि तिसौ व्है जावै ।*
*त्यौं यह सुन्दर आपु न जांनत,*
*भूलि स्वरूप हि और कहावै ॥२६॥*
जो भी जिज्ञासु अपने घर द्वार(की संपति) का त्याग कर, इससे दूर हो(संन्यास ले)कर आध्यात्मिक चिन्तन करने वाले किसी सम्प्रदाय(भेष) में सम्मिलित होता है ।
मूँड मुँडा कर, कानों में बड़े बड़े छिद्र करा कर, शरीर पर विभूति रमा कर, या जटा बढ़ा कर उन उन सम्प्रदायों का वेश धारण करता है ।
वह अपने शरीर का जैसा भी रूप बनायगा, उस की वैसी ही मान्यता हो जायगी ।
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - परन्तु जब तक यह साधक आत्मसाक्षात्कार नहीं कर लेगा, तब तक यह प्रमाद के कारण अन्य ही कहलायगा; वास्त्विक ‘सन्त’ नहीं ॥२६॥
॥ स्वरूप विस्मरण का अंग सम्पन्न ॥२४॥
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
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*ज्यौं कोऊ त्याग करै अपनौं घर,*
*बाहर जाइ कै भेष बनावै ।*
*मूंड मुंडाई कै कांन फराइ,*
*बिभूति लगाइ जटाहु बधावै ॥*
*जैसोई स्वांग करै बपु कौ पुनि,*
*तैसोई मांनि तिसौ व्है जावै ।*
*त्यौं यह सुन्दर आपु न जांनत,*
*भूलि स्वरूप हि और कहावै ॥२६॥*
जो भी जिज्ञासु अपने घर द्वार(की संपति) का त्याग कर, इससे दूर हो(संन्यास ले)कर आध्यात्मिक चिन्तन करने वाले किसी सम्प्रदाय(भेष) में सम्मिलित होता है ।
मूँड मुँडा कर, कानों में बड़े बड़े छिद्र करा कर, शरीर पर विभूति रमा कर, या जटा बढ़ा कर उन उन सम्प्रदायों का वेश धारण करता है ।
वह अपने शरीर का जैसा भी रूप बनायगा, उस की वैसी ही मान्यता हो जायगी ।
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - परन्तु जब तक यह साधक आत्मसाक्षात्कार नहीं कर लेगा, तब तक यह प्रमाद के कारण अन्य ही कहलायगा; वास्त्विक ‘सन्त’ नहीं ॥२६॥
॥ स्वरूप विस्मरण का अंग सम्पन्न ॥२४॥