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बुधवार, 13 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २६


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
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*ज्यौं कोऊ त्याग करै अपनौं घर,*
*बाहर जाइ कै भेष बनावै ।*
*मूंड मुंडाई कै कांन फराइ,*
*बिभूति लगाइ जटाहु बधावै ॥*
*जैसोई स्वांग करै बपु कौ पुनि,*
*तैसोई मांनि तिसौ व्है जावै ।*
*त्यौं यह सुन्दर आपु न जांनत,*
*भूलि स्वरूप हि और कहावै ॥२६॥*
जो भी जिज्ञासु अपने घर द्वार(की संपति) का त्याग कर, इससे दूर हो(संन्यास ले)कर आध्यात्मिक चिन्तन करने वाले किसी सम्प्रदाय(भेष) में सम्मिलित होता है ।
मूँड मुँडा कर, कानों में बड़े बड़े छिद्र करा कर, शरीर पर विभूति रमा कर, या जटा बढ़ा कर उन उन सम्प्रदायों का वेश धारण करता है ।
वह अपने शरीर का जैसा भी रूप बनायगा, उस की वैसी ही मान्यता हो जायगी ।
श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - परन्तु जब तक यह साधक आत्मसाक्षात्कार नहीं कर लेगा, तब तक यह प्रमाद के कारण अन्य ही कहलायगा; वास्त्विक ‘सन्त’ नहीं ॥२६॥
॥ स्वरूप विस्मरण का अंग सम्पन्न ॥२४॥

मंगलवार, 12 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २५


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग*
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*गर्भ बिषै उत्पत्ति भई पुनि,*
*जन्म लियौ शिशु सोधि न जांनि ।*
*बाल कुमार किसोर युवादिक,*
*बृद्ध भये अति बुद्धि नसांनी ॥*
*जैसी ही भांति भई बपु की गति,*
*तैसौ ही होइ रह्यौ यहु प्रांनी ।*
*सुन्दर चेतनता न संभारत,*
*देह स्वरूप भयौ अभिमानी ॥२५॥*
जब इस प्राणी की गर्भ में स्थित बनी, फिर जन्म हुआ, शिशुरूप में आया, तब इसको कोई ज्ञान नहीं था ।
बाल्यावस्था, कुमार, किशोर, युवा आदी सभी अवस्थाएँ बीत गयीं, अब इस अतिवृद्धावस्था में तो इस की बुद्धि पूर्वापेक्षया अधिक भ्रष्ट हो गयी है ।
कहने का तात्पर्य यह है कि ज्यौं ज्यौं इस के शरीर की अवस्था बदलती थी, त्यौं त्यौं इस प्राणी के विचारों में परिवर्तन आता गया ।
*महाराज श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह प्राणी अब भी अपने वास्तविक चेतन रूप पर ध्यान नहीं दे रहा है; अपितु देहाभिमानी होकर देह के अनुरूप ही कार्य कर रहा है ॥२५॥
(क्रमशः)

सोमवार, 11 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २४


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*मैं सुखिया सुख सेज सुखावन,*
*है गय भूम महा राजधांनी ।*
*हौं दुखिया दिन रैंनि भरौं दुख,*
*मोहि बिपत्ति परी नहीं छांनी ॥*
*हौं अति उत्तम जाति बड़ौ कुल,*
*हौं अति नीच क्रिया कुल हांनी ।*
*सुन्दर चेतनता न संभारत,*
*देह स्वरूप भयौ अभिमांनी ॥२४॥*
*देहाभिमानी आत्मा* : वह कभी सोचता है - ‘मैं बहुत सुखी हूँ; क्योंकि मेरे पास सुखपूर्वक शयन के लिये कोमल शय्या है, घोड़े हैं, हाथी हैं, राज्य के लिये विशाल भूमि प्रदेश है, मेरी बहुत बड़ी राजधानी है ।’
कभी सोचता है - मैं बहुत दुःखी हूँ; क्योंकि मैं दिन रात दुःखी रहता हूँ । मुझे बड़े बड़े संकटों ने घेर रखा है । यह प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है ।’ 
कभी सोचता है - ‘मैं जाति, कुल, वर्ण के कारण बहुत उच्च हूँ ।’ 
कभी उसके ध्यान में आता है - ‘मैं अति नीच हूँ, क्योंकि मेरी क्रियाएँ बहुत ही नीच स्तर की है तथा कुल आदि भी हीन ही हैं’ 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह अपनी चेतनता को नहीं स्मरण करता; यह तो देहाभिमानी होकर अपने देह के ममत्त्व में डूबा हुआ है ॥२४॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 10 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २३


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*दीन हुवौ बिललात फिरै नित,* 
*इंन्द्रिनि कै बस छीलक छोलै ।* 
*सिंह नहीं अपनौ बल जांनत,* 
*जब जंबुक ज्यौं जीतही तित डोलै ॥* 
*चेतनता बिसराइ निरंतर,* 
*लै जडता भ्रम गांठि न खोलै ।* 
*सुन्दर भूलि गयौ निज रूप हि,* 
*देह स्वरूप भयौ मुख बोलै ॥२३॥* 
विवेक की दरिद्रता(अभाव) लिये हुए यह आत्मा दीन हीन वचन बोलता हुआ, इन्द्रियों के अधीन रहता हुआ भोगों के छिलके छीलता रहता है । 
जैसे सिंह अपना बल भूल जाता है तो वह गीदड़ो की तरह इधर - उधर वन में दीनता धारण किये हुए घूमता रहता हैं । 
वैसे ही अपने चैतन्य गुण को भूलते हुए उसके विपरीत जड़ता धारण कर पुरुष के हृदय की भ्रम ग्रन्थि खुल नहीं पाती । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह आत्मा निज रूप को भूल कर देहस्वरूप होकर उसके मुख से बोल रहा है ॥२३॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 9 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २२


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*आपु न देखत है अपनौ मुख,* 
*दर्पन काट लग्यौ अति थूला ।* 
*ज्यौं दृग देखत तैं रहि जात,* 
*भयौ जब ही पुतरी परि फूला ।* 
*छाइ अज्ञांन रह्यौ अभि अंतरि,* 
*जांनि सकै नहिं आतम मूला ।* 
*सुन्दर यौं उपज्यौ मन कै मल,* 
*ज्ञांन बिना निज रुपहि भूला ॥२२॥* 
जब दर्पण में बहुत अधिक जंग(मैल) लग जाता है तो उसमे अपना मुख भी नहीं दिखायी देता । 
तथा जैसे आँखों में फूला पड़(पटल रोग हो) जाने के कारण उसकी दर्शनशक्ति नष्ट हो आती है । 
इसी तरह हृदय में, अज्ञान का आवरण चढ़ा होने के कारण, आत्मा की वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं रहता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी तरह, मन के रागादि दोषों से मलिन होने के कारण, ज्ञान के बिना आत्मा अपने वास्तविक रूप को भूला हुआ है ॥२२॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 8 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २१


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*ज्यौं रवि कौ रवि ढूंढत है कहुं,* 
*तप्ति मिलै तनु शीत गवांऊं ।* 
*ज्यौ शशि कौं शशि चाहत है पुनि,* 
*शीतल व्है करि तप्ति बुझाऊं॥* 
*ज्यौं कोउ सांनि भये नर टेरत,* 
*है घर मैं अपनै घर जांऊं ।*
*त्यौं यह सुन्दर भूलि स्वरूप ही,* 
*ब्रह्म कहै कब ब्रह्म ही पाऊं ॥२१॥* 
अरे ! क्या कभी सूर्य किसी दूसरे सूर्य की खोज में निकलता है कि वह मिले तो उसके ताप से अपने शरीर की शीतलता मिटा लूँ ! 
इसी तरह क्या चन्द्रमा किसी दूसरे चन्द्रमा की खोज करता है कि वह मिले तो उसकी शीतलता से अपनी शरीर की ताप मिटा लूँ । 
जैसे कोई सन्निपात(त्रिदोषज) ज्वर का रोगी अपने घर में रहता हुआ भी कहता रहता है - ‘मुझे अपने घर ले चलो ।’ 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी तरह स्वरूप का बोध न होने के कारण कभी ब्रह्म ने कहा है कि मैं ब्रह्म को कैसे पाऊँ ॥२१॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 7 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २०


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*सूत्रगरे मंहि मेली भयौ द्विज,* 
*ब्राह्मण व्है कर ब्रह्म न जांन्यौ ।* 
*छत्रिय व्है करि छत्र धर्यौ सिर,* 
*है गय पैदल सौं मन मांन्यौ ॥* 
*वैश्य भयौ वपु की वय देखत,* 
*है झूठ प्रपंच वनिज्ज हि ठान्यौं ।* 
*शूद्र भयौ मिलि शूद्र शरीर ही,* 
*सुन्दर आपु नहिं पहिचांन्यौं ॥२०॥* 
ब्राह्मण द्विज होने के लिये यज्ञोपवीत धारण तो कर लिया, परन्तु ब्रह्मचिन्तन नहीं कर पाया । 
इसी तरह क्षत्रिय भी राज्याभिषिक्त होकर हाथी घोड़े एकत्र करने में ही रह गया । 
वैश्य भी शरीर की स्थिति(आयु) देखते हुए वाणिज्य व्यापार में अपना झूँठ प्रपञ्च फैलाता रहा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - शूद्र भी अपने शरीर के अनुरूप कार्य करता रहा, परन्तु इनमें से किसी ने आत्मस्वरूप का ब्रह्मसाक्षात्कार हेतु कुछ भी प्रयत्न नहीं किया ॥२०॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 6 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १९


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*इन्दव छंद* 
*आपु ही चेतन ब्रह्म अखंडित,*
*सो भ्रम तैं कछु अन्य परेखै ।* 
*ढूँढत ताहि फिरै जित ही तित,*
*साधत जोग बनावत भेखै ॥* 
*औरऊ कष्ट करै अतिसै करि,*
*प्रत्यक आतम तत्त न पेखै ।* 
*सुन्दर भूलि गयौ निज रूप ही,*
*है कर कंकन दर्पण देखै ॥१९॥* 
*भ्रम एवं अज्ञान का विशद वर्णन* : यह चेतन स्वयं अखण्डित ब्रह्म है, परन्तु भ्रम के कारण यह स्वयं को कुछ अन्य ही रूप में देखता है । 
यह उस ब्रह्म को खोजने के लिये इधर उधर फिरता है, योगसाधना करता है, विविध सम्प्रदायों में जाता है । 
इसी प्रकार अन्य अत्यधिक कष्ट सहन करता है, परन्तु प्रत्यक्ष आत्मतत्व का साक्षात्कार नहीं कर पाता । 
*श्री सुन्दरदास जी महाराज* का प्रवचन है कि यह अपने शुद्ध रूप को भूल गया है । वे कहते हैं कि यह तो वैसी ही बात हुई जैसे किसी के हाथ में कंकण होते हुए भी दर्पण में उसकी खोज करे ॥१९॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 5 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १८


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*देह ही सुपुष्ट लगै देह ही दूबरी लगै,*
*देह ही कौं शीत लगै देह ही कौं तावरौ ।*
*देह ही कौं तीर लगै देह ही कौं तुपक लगै,*
*देह ही कौं कृपान लगै देह ही कौं घावरौ ॥*
*देह ही सुरूप लगै देह ही कुरूप लगै,*
*देह ही जुवान लगै देह बुद्ध डावरौ ।*
*देह ही सौं बांधि हेत आपु विषै मांनि लेत,*
*सुन्दर कहत अैसौ बुद्धिहीन बावरौ ॥१८॥*
कभी उसको ही अपनी देह सुपुष्ट लगती है तो कभी निर्बल । इसी देह को सर्दी गर्मी सताती है । 
युद्ध में इसी देह को बाण या बन्दूक की गोली लगती है । इसी देह को तलवार लगती है या उसे आघात(घाव) लगता है । 
यह देह ही कुरूप या सुरूप लगता है । या यही युवा, वृद्ध एवं अतिवृद्ध लगता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* का उपदेश है - यह देह बन्ध का ही होता है परन्तु आत्मा अपने में मान बैठता है - इसी लिये इसको इसको मूर्ख या पागल कहते हैं ॥१८॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 4 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १७


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
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*मैं बहुत सुख पायौ मैं बहुत दुख पायौ,*
*मैं अनन्त पुन्य कीये मेरे पोतै पाप है ।* 
*मैं कुलीन विद्या कौ पंडित परवीन महा,* 
*मैं तो मूढ अकुलीन हीन मेरौ बाप है ॥* 
*मैं हौं राजा मेरी आंन फिरै चहूं चक्क मांहि,* 
*मैं तो रंक द्रव्यहीन मोहि तौ संताप है ।* 
*सुन्दर कहत अहंकार ही तै जीव भयौ,* 
*अहंकार गये यह एक ब्रह्म आप है ॥१७॥* 
‘मैंने बहुत सुख पाया’, ‘मैंने बहुत दुःख पाया’, ‘मैंने अनन्त पुण्य किये’, ‘मेरे भाग्य में पाप ही लिखा हुआ है’ । 
‘मैं उच्च कुलीन हूँ’, ‘मैं प्रवीण(कुशल) महान् विद्वान हूँ’, या ‘मैं मूढ हूँ’, ‘मैं अकुलीन हूँ’, ‘मेरे माता पिता भी हीनजाति या हीनकर्मा थे’ । 
‘मैं राजा हूँ, मेरी आज्ञा चारों दिशाओं में मानी जाती है, या ‘मैं तो दरिद्र, निर्धन तथा सर्वथा हीन हूँ - मुझे यही कष्ट है ।’ 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे अहंकार के कारण यह जीव कहलाता है । यदि इसका यह अहंकार विगलित हो जाए तो यह शुद्ध निरञ्जन स्वरूप है ॥१७॥
(क्रमशः)

रविवार, 3 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १६

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
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*कहूं भूल्यौ कामरत, कहूं भूल्यौ साधि जात,*
*कहूं भूल्यौ गृहि मधि कहूं बनवासी है ।*
*कहूं भूल्यौ नीच जांनि कहूं भूल्यौ ऊंच मांनि,*
*कहूं भूल्यौ मोह बांधि कहूं तौ उदासी है ॥*
*कहूं भूल्यौ मौंन धरि कहूं बकबाद करि,*
*कहूं भूल्यौ मक्कै जाइ कहूं भूल्यौ काशी है ।*
*सुन्दर कहत अहंकार ही तैं भूल्यो आप,*
*एक आवै रोज अरु दूजै बड़ी हांसी है ॥१६॥*
*अहंकार के कारण आत्मस्वरूप में भ्रम* : कहीं कोई कामनावासना में अन्धा है, कहीं कोई यम नियम के व्रत में बँधा हुआ है; कहीं कोई गृहस्थ के जाल में फँसा हुआ है, कोई वनवास में सुख मान रहा है ।
कभी अपने को नीच मान कर दुःखी होता है, कभी उच्च जाती का मान कर उस का अभिमान करता है । कहीं मोह से मुग्ध होकर बन्धा हुआ है तो कहीं उपेक्षा से किसी के प्रति उदासीन है । 
कहीं मौन धारण कर बैठा हुआ है तो कहीं उपदेशक के रूप में वृथा प्रलाप कर रहा है । कहीं कोई मक्का हज करने जा रहा है तो कोई द्वारका तीर्थयात्रा करने जा रहा है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - एक अहंकार के कारण यह आत्मा स्वरूप को भुला हुआ है । मुझे इसी पर हँसी आती है कि यह प्रतिदिन एक नयी उपाधि(संकट) गले में डाल लेता है ॥१६॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 2 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १५


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*आपु ही चैतन्य यह इंद्रिनि चेतनि करि,*
*आपु ही मगन होइ आनन्द बढ़ायौ है ।*
*जैसैं नर शीत काल सोवत निहालि ओढि,*
*आपु ही तपत करि आपु सुख पायौ है ।*
*जैसैं बाल लकरी कौ घौरा करि डांकि चढ़ै,*
*आप असवारि होइ आप ही कुदायौ है ।*
*तैसें ही सुन्दर यह जड़ कौ संयोग पाइ,*
*पर सुख आपु मांनि, आपु ही भुलायौ है ॥१५॥*
*इन्द्रियसुख को आत्मसुख मानना* : यह चेतन आत्मा इन्द्रियों को चेतन मान कर उनके द्वारा संसार में आसक्त होकर विषयों का आनन्द लेता है ।
जैसा कोई पुरुष शीत ॠतु में स्वयं रजाई(निहाली) ओढ़ कर, स्वयं ही गर्म होकर सुखानुभव करता है । 
जैसे कोई बालक लकड़ी के घोड़े पर स्वयं चढ़कर स्वयं उसको चलाता है, तथा उससे आनन्दित होता है । 
इसी तरह *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह चेतन आत्मा जड़(इन्द्रियों) से संयुक्त होकर उनसे प्राप्त सुख मानता हुआ आत्मस्वरूप को भूल बैठा है ॥१५॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 1 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १४

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसैं कोऊ पोसती की पाग परी भूमि पर,* 
*हाथ लै कै कहै मैं तो पाग एक पाई है ।* 
*जैसैं सेखचिली हूँ मनोरथनि कीयौ घर,* 
*कहै मेरौ घर गयौ गागरि गिराई है ॥* 
*जैसे काहू भूत लग्यौ बकत है आंक बांक,* 
*सुधि सब दूरि भई औरे मति आई है ।* 
*तैसैं सुन्दर यह भ्रम करि भूलौ आप,* 
*भ्रम कै गये तैं यह आतमा सदाई है ॥१४॥* 
जैसे कोई अफीम खाने वाला कहीं अफीम के जल की बूँद पड़ी भूमि पर हाथ रगड़ कर कहे कि मैंने अफीम का बड़ा खजाना प्राप्त कर लिया है । 
या जैसे धीर पर जल का घड़ा ले जाता हुआ शेखचिल्ली(कल्पनाजीवी) अपनी कल्पनाओं का महल बनाता रहे, उसी समय उस का घड़ा गिर कर फूट जाय तो वह कहने लगे कि मेरा घर ही नष्ट हो गया । 
या जैसे कोई पुरुष भूताविष्ट हो जाय, तथा इधर उधर - उधर का प्रलाप करने लगे, उस को होश(चेतना) न रहे तथा बुद्धि भ्रष्ट हो जाय । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी तरह यह आत्मा भी भ्रमवश स्वरूप को भूल गया है, अन्यथा यह तो नित्य स्थायी, अविनाशी एवं सर्वव्यापक है ॥१४॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १३


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसैं कोऊ सुपनैं मैं कहै मैं तौ ऊंट भयौ,* 
*जागि करि देखै उहै मनुष्य स्वरूप है ।* 
*जैसैं कोऊ राजा पनि सोई कै भिखारी होइ,* 
*आंखि उधरे तैं महा भूपति कौ भूप है ॥* 
*जैसैं कोऊ भ्रम ही तैं कहै मेरौ सिर कहां,* 
*भ्रम के गये तैं जांनै सिर तो तद्रूप है ।*
*तैसैं हि सुन्दर यह भ्रम करि भूलौ आप,* 
*भ्रम कै गयै तैं यह आतमा अनूप है ॥१३॥* 
जैसे कोई स्वप्न में स्वयं को ऊँट बना देख कर जागने पर कहने लगे मैं तो अब ऊँट हो गया हूँ । परन्तु रहता है वह मनुष्य ही । 
या, कोई राजा स्वप्न में अपने को भिखारी बना देख कर स्वयं मानने लगे, जब कि है वह अभी राजा ही । 
या किसी को, किसी कारण वश, भ्रम हो जाय कि उसका शिर नहीं रहा, जब कि भ्रम मिट जाने पर उसका शिर यथास्थान मिल जाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी प्रकार यह आत्मा भ्रम के चक्र में फँस कर आत्मस्वरूप को भूल जाता है, तथा भ्रमनिवृत होने पर पुनः स्वयं को उसी अनुपम आत्मरूप में जान लेता है ॥१३॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १२


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*दीन हीन छीन सौ व्है जात छिन छिन मांहि,* 
*देह के संजौग पराधीन सौ रहतु है ।* 
*शीत लगै घांम लगै भूख लगै प्यास लगै,* 
*शोक मोह मांनि अति खेद कौं लहतु है ॥* 
*अंध भयौ पंगु भयौ मूक हौं बघिर भयौ,* 
*अैसौ मांनि मांनि भ्रम नदी मैं बहुत है ।* 
*सुन्दर अधिक मोहि याही तैं अचंभौ आहि,* 
*भूलि कैं स्वरूप कौं अनाथ सौ कहतु है ॥१२॥* 
यह आत्मा इस देह के संयोग के कारण, दीन हीन एवं क्षीण के समान होकर क्षण क्षण में, पराधीन के तुल्य बन जाता है । 
जब भी यह सर्दी गर्मी, भूख प्यास, शोक मोह आदि द्वंदों में फँसता है तो अपने को दुःखी अनुभव करता है । 
यह अपने को अंधा, लूला, लँगड़ा, गूँगा, बहरा मानकर भ्रम के महानद में पड़ जाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - मुझको यही आश्चर्य होता है कि यह आत्मा अपना वास्तविक स्वतंत्र रूप भूल कर क्यों स्वयं को अनाथवत् समझ रहा है ॥१२॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ ११


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसैं कोऊ कांमिनी के हिये पर चूंसै बाल,*
*सुपने मैं कहै मेरौ पुत्र काहू हर्यौ है ।*
*जैसैं कोऊ पुरुष कैं कंठ विषै हूति मनि,*
*ढूंढत फिरत कछु अैसौ भ्रम भयौ है ॥*
*जैसैं कोऊ वायु करि बावरौ बकत डोलै,*
*और की औरई कहै सुधि भूलि गयौ है ।*
*तैसैं ही सुन्दर निज रूप कौं बिसारि देत,*
*अैसौ भ्रम आपु ही कौं आपु करि लयौ है ॥११॥*
*भ्रम से उत्पन्न भ्रमात्मक ज्ञान* : जैसे कोई सोती हुई स्त्री का शिशु उसका स्तनपान कर रहा है; परन्तु उसको स्वप्न में भ्रम हो जाय कि उस का पुत्र कहीं खो गया है । 
अथवा, जैसे किसी पुरुष के गले में आभूषण लटक रहा हो, परन्तु उसे भ्रम हो जाय कि उसका आभूषण कहीं खो गया, और वह उसको ढूँढने का प्रयास करे । 
अथवा, जैसे कोई वात(उन्माद) का रोगी पागल होकर इधर उधर प्रलाप करता हुआ घूमने लगे तथा अपना होश(चेतना) खो बैठे । 
इसी तरह *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं, इस प्राणी ने आत्मरूप को भूल कर स्वयं ही अपने लिये भ्रम उत्पन्न कर लिया है ॥११॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १०


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसे शुक नलिका न छाड़ि देत चंगुल तैं,* 
*जानैं काहू औरै मोहि बांधि लटकायौ है ।* 
*जैसैं कपि गुंजनि कौं ढ़ेर करि मांनै आगि,* 
*आगैं धरि तापै कछू शीत न गमायौ है ॥* 
*जैसैं कोऊ दिसा भूलि जातहु तौ पूरब कौं,* 
*उलटि अपूठौं फेरि पच्छिम कौ आयौ है ।* 
*तैसैं ही सुन्दर सब आप ही कौं भ्रम भयौ,* 
*आपु ही कौं भूलि करि आपु ही बंधायौ है ॥१०॥* 
जैसे कोई तोता नारियल में अपनी चौंच को उलझाकर उस को छोड़ नहीं पाता है; अपितु यह समझता है कि उस को यहाँ किसी अन्य ने बाँध कर लटका दिया है । 
जैसे कोई बन्दर गुंजासमूह को अग्नि समझ कर उससे अपना शरीर तापना चाहता है, परन्तु उससे उसको कुछ भी गर्मी प्राप्त नहीं होती । उसकी सर्दी(शीतता) दूर नहीं हो पाती । 
जैसे कोई दिग्भ्रांत मार्ग भटक कर पूर्व दिशा की ओर जाना चाहता हुआ पश्चिम दिशा में बहक जाता है । 
वैसे ही, *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस प्राणी का स्वयं उत्पन्न किया हुआ भ्रम उस को ही बाँध लेता है ॥१०॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 26 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ ९


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*॥ इन्दव छंद ॥*
*इंन्द्रिनि कौ प्रेरि पुनि इंन्द्रनि कै पीछे पर्यौ,*
*आपुनि अविद्या करि आप तनु गह्यौ है ।*
*जोई जोई देह कौं संकट कछु परै आइ,*
*सोई सोई मांनै आप यांतैं दुख सह्यौ है ॥*
*भ्रमत भ्रमत कहूं भ्रम कौ न आवै वोर,*
*चिरकाल बीत्यौ पै स्वरूप कौं न लह्यौ है ।*
*सुन्दर कहत देखौ भ्रम की प्रबलताई,*
*भूतनि मैं भूत मिली भूत सौ व्है रह्यौ है ॥९॥*
*भूत - प्रेतों के सदृश आचरण* : इन्द्रियों को प्रेरणा देकर, फिर उनहीं इन्द्रियों के पीछे लग गया है ।
इस प्रकार अपनी अविद्या(अज्ञान) का भार स्वयं ही वहां कर रहा है । 
और इस देह पर जब जब जब संकट आ जाता है उसे यह अपना मानने लगता है । इसीलिए यह आत्मा दुःख सहन कर रहा है । 
तब इस संसारचक्र में भ्रमण करते हुए इसके भ्रम का कोई अन्त नहीं दिखायी दे रहा है । इतना समय बीत गया; परन्तु अभी तक इसको आत्मस्वरूप का बोध नहीं हुआ । 
*श्री सुन्दरदास जी महाराज* कहते हैं - इस भ्रम की प्रबलता देखो कि यह शुद्ध निष्कलंक आत्मा, भूत प्रेतों में मिल कर, उनके समान ही आचरण कर रहा है ॥९॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ ८


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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*एक ही व्यापक बस्तु निरंतर,* 
*विश्व नहीं यह ब्रह्म बिलासै ।* 
*ज्यौं नट मंत्रनि सौं दृग बांधत,* 
*है कछु औरई औरई भासै ॥* 
*ज्यौं रजनी महिं सूझि परै नहिं,* 
*जौ लगि सूरज नांहि प्रकासै ।* 
*त्यौं यह आपहि आप न जानत,* 
*सुन्दर व्है रह्यौ सुन्दरदासै ॥८॥* 
यह समस्त जगत् वस्तुतः उस ब्रह्म की लीलामात्र है जो, स्वयं एक है, सर्वव्यापक है, स्थायी(अविनाशी) है । 
जैसे कोई नट(बाजीगर) दर्शकों सम्मोहन कर उसका दृष्टिबन्ध कर देता है, जिसके कारण दर्शक को कुछ अन्य का अन्य ही भासने लगता है ।
जैसे रात्रि होने पर प्राणी को कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता, जब तक कि सूर्य का प्रकाश न हो जाय । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वैसे ही आत्मज्ञान के बिना मनुष्य सत्पथ से विचलित हो जाता है । आत्मज्ञान में भ्रान्ति के कारण ही आज यह सुन्दरस्वामी भी ‘सुन्दरदास’ बन कर संसार में घूम रहा है ॥८॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ ७

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*ज्यौं द्विज कोउक छाड़ि महातम,*
*शूद्र भयौ करि आपुकौं मांन्यौ ।*
*ज्यौं कोउ भूमि सोवत सेजसु,*
*रंक भयौ सुपने मंहि जांन्यौ ॥*
*ज्यौं कोउ रूप की रासि अतिंत,*
*कुरूप कहै भ्रम भैंचक आंन्यौ ।*
*तैसैं हि सुन्दर देहसो व्है करि,*
*या भ्रम आपुहि आपु भुलांन्यौ ॥७॥*
जैसे कोई ब्राह्मण किसी कारणवश शूद्रों के साथ जा कर रहने लगे, तथा वहाँ कुछ समय रहने के बाद वह अपनी जाति को भूल कर स्वयं को शूद्र ही मानने लगे ।
अथवा जैसे कोई राजा पलंग पर सोया हुआ स्वप्न में अपने को दरिद्र रूप में देखने लगे ।
अथवा जैसे कोई अति सुन्दर पुरुष मतिभ्रम होने के कारण, अपने को अत्यन्त कुरूप मानने लगे ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यहाँ देह के कारण हुए भ्रम को अपना मान कर यह आत्मा भूल कर रहा है ॥७॥ 
(क्रमशः)