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सोमवार, 12 अप्रैल 2021

= २०० =

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*राखणहारा राम है, शिर ऊपर मेरे ।*
*दादू केते पच गये, बैरी बहुतेरे ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- पवित्र सती
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महाराज नल दमयंति को वन में अकेली छोड़कर चले गये तब एक अजगर उसे निगलने लगा था किंतु इसी समय एक व्याध ने अजगर को मार दिया । किंतु फिर उसने दमयंती की और कुदृष्टि की इससे वह निषाद(व्याध) भी उसी समण भस्म हो गया ।
नाश होत तो सती को, लखता तज मर्याद ।
दमयंती दिशि देखतां, हो गया भस्म निषाद ॥५२॥

= १९९ =

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*निर्भय बैठा राम जप, कबहूँ काल न खाइ ।*
*जब दादू कुंजर चढै, तब सुनहाँ झख जाइ ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- पतिव्रत
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प्रतिष्ठानपुर में कौशिक नामका एक अतिक्रोधी निष्ठुर तथा कोढी ब्राह्मण था । उसकी पतिव्रता पत्नि का नाम शाण्डिली था कौशिक एक सुन्दरी वेश्या को देखकर मोहित हो गया । अपनी पत्नि से कहा - "तू मुझे उसके घर ले चल ।" पत्नि के समझने पर भी जब वह नहीं समझा तब उसे कंधे पर चढाकर वहां चली ।
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रात अंधेरी थी, मार्ग में शूली पर चढे माण्डव्य ऋषि को उस ब्राह्मण का पैर का धक्का लगा, इससे ऋषि ने शाप दिया कि "सूर्य उदय होते ही यह मर जायगा ।" यह सुनकर शाण्डिली बोली - "जब तक मैं न कहूंगी तब तक सूर्य उदय होगा ही नहीं ।" दस दिन हो गये सूर्य नहीं उगे ।
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सब देवता ब्रह्माजी के पास गये । ब्रह्माजी ने कहा "अत्रि पत्नी अनुसूईया से प्रार्थना करो ।" देवताओं ने जाकर अनुसूईयाजी से प्रार्थना की । अनुसूईया शाण्डिली के पास जाकर बोली - "सती ! तुम सूर्य को उदय होने दो, तुम्हारे पति को मैं जीवित कर दूंगी और वह निरोगा भी हो जायेगा ।" सती ने अनुसूईया की बात मान ली । अनुसुईया ने ही उसके पति को जीवित कर दिया । सब देवता सती का सम्मान करते हुये तथा वर देते हुए अपने अपने लोकों में चले गये ।
तप बल से भी है प्रबल, सती शक्ति सत जान ।
मृत पति को जीवित किया, शाण्डिली ने सह मान ॥५६॥

रविवार, 11 अप्रैल 2021

= १९८ =

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https://www.facebook.com/DADUVANI *जब लग लालच जीव का,*
*काया माया मन तजै, तब चौड़े रहै बजाइ ॥*
*तब लग निर्भय हुआ न जाइ ।* *(श्री दादूवाणी ~ शूरातन का अंग)*
https://youtu.be/VPBlv5tkaCQ
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###. . श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- कर्म #######################
विदुला के पुत्र संजय के देश पर सिंधु नरेश ने चढाई कर दी । उसकी सेना देखकर संजय यह सोच कर कि इसे जीतना असंभव है, अपने महल में जाकर सो गया । जब उसकी माता विदुला ने यह जाना तब वह उसके पास जाकर बोली - "पुत्र ! शत्रु देश को नष्ट भ्रष्ट कर रहा है, शत्रु विनाश किये बिना ही तू यहां आकर कैसे सो रहा है ? संजय - 'माताजी ! शत्रु सेना विशाल है, उसे जीतना असंभव है ।'
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अरे ! पुरुषार्थ का आश्रय कर, प्राणों का लोभ छोड़ प्रजा की रक्षा करना अपना मुख्य धर्म समझ, निर्भय होकर शत्रु का सामना कर । तेरा कायरों की भांति यहाँ आकर सोना अच्छा नहीं लगता । या तो वीरता के साथ युद्ध में मर कर स्वर्ग मे जा या विजय करके यहां आना, मेरे दूध को कभी नहीं लजाना । इत्यादि उपदेशों से उत्साहित कर पुत्र को युद्ध में भेजा । संजय भी अपने जीवन को हथेली में रखकर शत्रु से भिड़ गया और विजयी भी हुआ ।
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जो संतित का धर्म में, नव उत्साह बढात ।
सुन्दर शिक्षा दे सदा, सोई मातु सुमात ॥९॥
पुत्र प्राण लोभ न करे, चाहे सुयश सुमात ।
विदुला संजय मातु की, कथा परम प्रख्यात ॥१०॥

= १९७ =

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*सबै कसौटी शिर सहै, सेवक सांई काज ।*
*दादू जीवन क्यों तजै, भाजे हरि को लाज ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शूरातन का अंग)*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###.
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- कर्म
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एक डाकू को अपने पूर्व कर्म का विचार हृदय पर आ जाने से सहसा वैराग्य हुआ । वह एक संत के पास गया और शिष्य होने के लिये प्रार्थना की । संत ने उसे एक डंडा देकर कहा - जाओ प्रथम तीर्थ कर आओ जहां यह दण्डा हरा हो जाय वहां से लौट आना ।
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वह चला एक दिन एक वन में रात्रि को एक देवी के मंदिर में ठहरा । रात्रि में चार व्यक्ति इसके पास वाली कोठरी में आकर ठहर गये और परस्पर बातें करने लगे । आज इस गांव को लूटना चाहिये किंतु अमुक मनुष्य इसमें वीर है, इसलिये प्रथम उसकी गौशाला में अग्नि लगा दी जाय इससे वह अग्नि बुझाने में लग जायगा तथा और भी बहुत मनुष्य ऊधर चले जायेंगे । पीछे से सुगमता से हम धन निकाल कर ले सकेंगे ।
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इनकी ये सब बातें इसने सुनी और सोचा ये अपने स्वार्थ के लिये बहुतों की हिंसा करेंगे । मैंने तो बहुत मनुष्य मारे हैं क्या चार और सही, इन को मार कर बहुत गौएं तथा अन्यान्य प्राणियों की रक्षा तो कर सकूंगा । यह निश्चय कर सचेत रहा जब उनको कुछ नींद आई तब उसने दंडे से सोये हुए चारों को मार चल दिया । प्रात: देखता है कि दण्डा तो हरा हो गया । बस गुरुजी के पास आ गया ।
स्वार्थ रहित शुचि भाव से, कुकर्म से शुभ होय ।
चार हते दंड हरित, पाप हुआ नहीं कोय ॥३२॥

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

= १९६ =

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*साधु निर्मल मल नहीं, राम रमै सम भाइ ।*
*दादू अवगुण काढ कर, जीव रसातल जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निन्दा का अंग)*
https://youtu.be/RUbgJTrcey4
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###.
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- पवित्र सती
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एक श्रेष्ठ संत के पास एक सती माता सत्संग के निमित जाती थी । दुष्टों ने उस पर व्यभिचार का कलंक लगाया । यह बात जब संत और सती को ज्ञात हुई तो उन्हें दु:ख हुआ । उनका आश्रय एक मात्र ईश्वर ही था ईश्वर ने उनके उस कलंक को दूर करने के लिये नगर के परकोटा के चारों द्वार बंद कर दिये तथा वज्र समान कठोर भी कर दिये । तीन दिन हो गये नगर निवासियों के व्यवहार में बाधा पड़ी, नगर में हाहाकार मच गया । राजा प्रजा ने ईश्वर से प्रार्थना की ।
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आकाशवाणी ने कहा "यदि कोई पतिव्रता स्त्री कच्चे सूत के एक धागे से कूप में से जल का घड़ा निकाल कर, उसे चलनी में डाल कर कपाटों पर छिड़कावे तो द्वार खुल जायेंगे ।" किसी भी स्त्री की हिम्मत नहीं हुई ।अंत में जिसकी निंदा करते थे उसी ने आकाशवाणी के कथानुसार किया । द्वार खुल गये । दुष्टों के मुख नीचे हुए, सारे नगर ने सती की पूजा की ।
दोष लगाये सती के, होती हानि महान ।
नगर बंध जनता दुखी, अन्त सती का मान ॥६२॥

= १९५ =

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*कर्मै कर्म काटै नहीं, कर्मै कर्म न जाइ ।*
*कर्मै कर्म छूटै नहीं, कर्मै कर्म बँधाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्कर्मी पतिव्रता का अंग)*
https://youtu.be/gBkn0wiO7dI
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###.
श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- कर्म
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एक कांवडिया ब्राह्मण रामेश्वर को जल चढाने जा रहा था । मार्ग में एक नदी के तट एक रात रहा । वहां के नगर के राजा के महल में चोरी हुई चोरों ने नदी तट पर सोये ब्राह्मण के गले में रत्नों की माला को साधारण माला समझ कर डाल दिया और चले गये । प्रात:काल ब्राह्मण के गले में रत्नों की माला देखकर पुलिस ने उसे पकड़ लिया । राजा ने उसके हाथ कटवा डाले ।
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ब्राह्मण भक्त था, ईश्वर से प्रार्थना की कि - "भगवन ! मैंने तो कोई ऐसा पाप न किया था जिससे हाथ काटे जाये" तब आकाश वाणी ने कहा "ऐसा नहीं होता कि बिना पाप दु:ख मिले, तुमने पूर्व जन्म में गो की गर्दन कटवाई थी, इसी से तुम्हारे हाथ गये हैं । एक मार्ग में जिसके दोनों और दिवार थी, गो कसाई के हाथ से छुट कर भागी जा रही थी, तुम सामने आ रहे थे । कसाई ने तुम को आवाज दी - "गो को रोको।" तुमने अपने दोनों हाथ आड़े करके रोक लिया था, इससे कसाई ने उसे पकड़ लिया और घर ले जाकर मार दिया । उसी पाप से तुम्हारे हाथ काटे गये।" आकाशवाणी ऐसा कह रुक गई ।
पूर्व कर्म बिन दुख न हो, यह निश्चय कर जान ।
कांवडिया कर कटन का, हेतु कहा भगवान ॥१४॥

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

= १९४ =

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*खेलै शीश उतार कर, अधर एक सौं आइ ।*
*दादू पावै प्रेम रस, सुख में रहै समाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शूरातन का अंग)*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###.
श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- पतिव्रत
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गोड़ के राजा लक्ष्मणसेन की रानी को उपदेश देते समय जयदेवजी की पत्नि पद्मावती ने कहा था - "सच्ची सती पति मृत्यु सुनकर ही प्राण तज देती है ।" इसलिये पद्मावती की परीक्षा लेने के लिये एक दिन रानी ने मिथ्या ही कहा कि "जयदेवजी को सिंह ने मार दिया ।" यह सुनकर पद्मावती तुरंत मर गई । फिर जयदेव जी ने संकीर्तन के द्वारा जीवित कर दिया था ।
सत्य सती बिना अग्नि ही, सहज सती हो जाय ।
पद्मावति पति मृत्यु सुन, मरी तुरत अकुलाय ॥५९॥

= १९३ =

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*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- पतिव्रत
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एक खाती के पतिव्रता स्त्री थी । उसके दर्शन करने एक सज्जन खाती के घर आये । खाती अपने घर के द्वार में काम कर रहा था । आगत सज्जन का स्वागत करके बोला - "कहिये कैसे पधारे ?" सज्जन- "सुना है आपकी पत्नी पतिव्रता है" उनके दर्शन करने आया हूँ ।" खाती ने अपनी पत्नी को आवाज दी कि - "जिस अवस्था में हो उसी में यहाँ आ जाओ" वह घी डाल रही थी, उसी अवस्था में घी पृथ्वी में गिराती हुई पास आ गई ।
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कुछ क्षण के बाद कहा "जाओ" वह चली गई । आगत सज्जन ने पूछा - वह घी गिराती हुई क्यों आई ? घी का पात्र रखकर के आती या सीधा करके आती - "यह हानि लाभ नहीं देखती, केवल मेरी आज्ञा जैसी होती है वैसा ही करती है" सज्जन प्रसन्न होकर लौट गये ।
पति आज्ञा पाले सती, हानि लखे लव नांहि ।
खाती तिय घी डालती, आई क्षण ही मांहिं ॥५८॥

रविवार, 4 अप्रैल 2021

= १९२ =

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*दादू शब्दैं बँध्या सब रहै, शब्दैं ही सब जाइ ।*
*शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता की भक्ति
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जो माता अपने पुत्रों को बचपन में सुन्दर सुन्दर शिक्षा देकर विद्वान, धर्मात्मा और वीर बनाने का यत्न नहीं करती तथा अपनी बालिकाओं में नारी धर्म सिखाकर पतिव्रता होने की नीव नहीं डालती वह माता कैसी माता है वह तो अहिनी सम(सर्पणी के समान, सर्पणी अपने अंडों को आप ही खा जाती है) अपनी संतति को परमार्थ से आप ही नष्ट भ्रष्ट करती है । इसलिये माता का कर्तव्य है कि वह अपनी संतानों को बचपन में ही सुन्दर सुन्दर शिक्षा देकर कुमार्ग से धृणा करा दे ।
बुध धर्मात्मा भट सती, जने न कस सो मात ।
वह अहिनि सम आप ही,अपनी संतति खात ॥२४॥

= १९१ =

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*दादू एता अविगत आप थैं, साधों का अधिकार ।*
*चौरासी लख जीव का, तन मन फेरि सँवार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता का कर्तव्य
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महामुनि मृकण्ड के सन्तान न थी । उनकी पत्नी मरुदगति और उनने भगवान शंकर की उपासना की । पुत्र मिला किंतु अल्पायु । बालक मार्कण्डेय की आयु १६ वर्ष की थी । यह उनके पिता को ज्ञात था । पिता ने पुत्र को सिखाया - "बेटा ! तुम जिस किसी ब्राह्मण को देखो उस विनयपूर्वक प्रणाम अवश्य करना ।"
एक दिन सप्त ऋषिगण मार्कण्डेय के आश्रम के समीप से निकले । मार्कण्डेयजी ने प्रत्येक को बड़े प्रेम से प्रणाम किया । प्रत्येक ऋषि ने उन्हे दीर्धायु होने का आशीर्वाद दिया, फिर वशिष्ठ ने बालक की ओर देखकर कहा कि - "हम लोगों ने इसे दीर्धायु होने का आशीर्वाद दिया है, किंतु इसकी आयु तो केवल तीन दिन शेष रहे है ।" फिर ऋषियों ने अपनी वाणी सत्य करने के लिये उद्योग किया, जिससे मार्कण्डेय दीर्धायु, विद्वान, यशस्वी और महान् तपोबल सम्पन्न हो गये ।
प्रणति करे से बढत है, विद्या, यश, बल, आयु ।
प्रणति प्रताप हि से भये, मार्कण्डेय दीर्धायु ॥२३॥

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

= १९० =

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*बच्चों के माता पिता, दूजा नाहीं कोइ ।*
*दादू निपजै भाव सूं, सतगुरु के घट होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
https://youtu.be/d0L9ro_agXc
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता के कर्तव्य
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माता-पिता को चाहिये कि सांझ सबेरे सन्तति को प्रणाम करना सिखावें । माता कहे - "पिता जी को प्रणाम करो" और पिताजी कहें- "अपनी माताजी, बड़ी बहिन बड़े भाई आदि सभी बड़े - बूढों को प्रणाम करो" कारण प्रणाम करने से बड़े लोग सुभाशिष देते हैं, जिससे प्राणी की बड़ी उन्नति होती है ।
प्रणति सिखावे परस्पर, मां पितु सुतहि सप्रीति ।
विना प्रणति मिलती नहीं, शुभाशीष यह नीति ॥२२॥

= १८९ =

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*भावै भक्ति अपार, सेवा कीजिये ये ।*
*सन्मुख सिरजनहार, सदा सुख लीजिये ये ॥*
(श्री दादूवाणी ~ १६५)
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता का भक्त
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भीष्म जी के पिता शान्तनु ने भीष्मजी की सेवा से प्रसन्न होकर वर दिया था कि "तुम्हारी मृत्यु तुम्हारी इच्छा के बिना नहीं होगी ।" वैसा ही हुआ भी था ।
पिता भक्त सुत लेत है, भव में मोद महान ।
इच्छा मृत्यु हि वर लिया, भीष्म वीर मतिमान ॥३२॥

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

= १८८ =

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*दादू साध सिखावैं आत्मा, सेवा दिढ कर लेहु ।*
*पारब्रह्म सौं विनती, दया कर दर्शन देहु ॥*
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता का भक्त
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कुरूक्षेत्र निवासी कुण्डल नामक ब्राह्मण का पुत्र सुकर्मा माता पिता की भक्ति से महान शक्तिमान हुआ था ।
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महर्षि कश्यप के कुल में उत्पन्न पिप्पल ने दशारण्य में महान तप किया, उससे प्रसन्न हो ब्रह्मादि देवताओं ने दर्शन देकर वर मांगने को कहा - "पिपल ने मांगा मुझे सब विद्या आ जाये", सुरों ने तथास्तु कह दिया ।
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पिप्पल विद्याधर बन गया अब उसे अभिमान हुआ कि मेरे समान कोई भी नहीं है । तब एक सारस पक्षी ने कहा तू कुण्डल के पुत्र सुकर्मा के समान नहीं हो सकता । यह सुनकर पिप्पल सुकर्मा के पास गया ।
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सुकर्मा माता-पिता की सेवा में लगा था । पिप्पल को आया देखकर उसका सत्कार करते हुये बोला, आईये ! तुम्हें सारस रूपधारी ब्रह्माजी ने मेरे पास भेजा है ।" पिप्पल ने कहा - "मैंने सुना है भूतल पर जो कुछ है सो तुम्हारे वश में है । मैं देवताओं के दर्शन करना चाहता हूँ ।"
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सुकर्मा ने उसी क्षण देवताओं को बुलवा लिया । देवगण बोले - "हमें क्यों बुलवाया है ? सुकर्मा - "पिप्पल को दर्शन कराने ।" देवगण - "हमारा आना व्यर्थ नहीं होता, वर मांगो ।" सुकर्मा - "माता पिता में मेरी अचल भक्ति हो, वर देवें ।" देवगण तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये । सुकर्मा ने पिप्पल से कहा - "तुम भी माता-पिता की भक्ति करो।"
मात पिता की भक्ति से, आती शक्ति महान ।
गये सुकर्मा गेह सुर, करते ही आहवान ॥३०॥

= १८७ =

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*विष अमृत घट में बसै, विरला जानै कोइ ।*
*जिन विष खाया ते मुये, अमर अमी सौं होइ ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- अति उत्तम पिता
#######################
एक माता का बच्चा जब किसी की कोई वस्तु ले आता तो माता प्रसन्न होती तथा वैसे ही और लाने के लिये कहती । इस कारण वह बच्चा चोर हो गया । एक समय उसने राजमहल में चोरी की, और पकड़ा गया, राजा ने उसे शूली देने की आज्ञा दे दी । शूली पर चढने के समय उससे पूछा - "यदि तू किसी से
मिलना चाहे या कुछ कहना चाहे तो बोल ?"
.
उसने कहा 'मेरी माँ को बुलवादो।' माँ आई, उसे आती देख, दौड़कर अपने दांतों से उसने माँ का नाक काट डाला । माँ ने कहा - "अरे ! यह क्या किया ?" जो तू तो मर ही रहा है और मुझे भी नकटी कर दिया ? पुत्र ने कहा - 'यह तेरे पाप का फल है, जो मैं आज शूली पर चढाया जाता हूँ । यदि बच्चेपन में तू मुझे चोरी से रोकती तो मैं आज शूली पर नहीं चढाया जाता ।'
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विशेष - "आज उपरोक्त कोटि की माताएँ अपनी संतती को विविध बुराईयां सिखाती हैं । हाथ में डंडा देकर बच्चे को कहती है - "यह तेरा पिता आया है उसे डंडा मार, ले मेरी चोटी पकड़ कर खींच, उसे गाली दे" इत्यादि बातें बच्चों को सिखाई जाती हैं । उनका परिणाम फिर बुढापे में उन्हें ही भोगना पड़ता है । लड़के माता पिता के विरुद्ध चलते हैं, चोटी खींचते हैं ।
सुत को चोरी आदि जो, सिखात सो दुख पाय ।
नाक कटायी मातु ने, सुतको चोरि सिखाय ॥१३॥

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

= १८६ =

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*हिरदै की हरि लेइगा, अंतरजामी राइ ।*
*साच पियारा राम को, कोटिक करि दिखलाइ ॥*
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता की भक्ति
#######################
शिवशर्मा के चारों पुत्र परमधाम चले गये । शिवशर्मा अपने पंचमपुत्र सोमशर्मा को अमृतघट देकर तथा उसकी रक्षा का भार सौंपकर अपनी पत्नि सहित तीर्थ यात्रा को चले गये । दश वर्ष पश्चात दोनों कोढी का रूप बना कर आये । सोमशर्मा उनकी सब प्रकार की सेवा बड़े प्रेम से करता था फिर भी वे उसे कटु वचन कहते, डंडों से पीटते तो भी वह उनमें दोष नहीं देखता था । अन्त में अमृतघट का अमृत योगबल से शिवशर्मा ने हरण करके, पुत्र से कहा - "अमृत का घड़ा ले आओ उसके पीने से हम अच्छे हो जायेंगे।"
सोमशर्मा अमृतघट के पास गया किन्तु उसमें एक बूंद भी अमृत न था । यह देखकर सोमशर्मा बोला - "यदि मैं अपने धर्म में ही स्थित हूँ तो यह घट अमृत से भर जाय ।" इतना कहते ही वह घट अमृत से भर गया । उसे लेकर पिता के पास गया । पिता ने उसकी ऐसी दृढ भक्ति देखकर प्रसन्न हो गये तथा कोढी का रूप त्याग कर अच्छे भी हो गये ।
भक्त पुत्र मां पिता का, दोष न लखता लेश ।
नहीं सोमशर्मा लखा, पितु ने दिया कलेश ॥३७॥

= १८५ =

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*बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशै देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता की भक्ति
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अवध देश का नरोत्तम नामक ब्राह्मण माता-पिता का अनादर करके तीर्थ यात्रा करता हुआ तप करने लगा । तप के प्रभाव से उसके वस्त्र भी आकाश में सूखते थे । एक दिन एक बगुले ने उसके मुख पर बीठ कर दी । नरोत्तम ने उसे भस्म कर दिया ।
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इस पाप से आकाश में वस्त्र सुखना बंद हो गया, इससे उसे बङा दु:ख हुआ । फिर आकाशवाणी ने उसे उससे कहा - "तुम मूक चाण्डाल के पास जाओ, वहां तुम्हें धर्म ज्ञान होगा ।"
ब्राह्मण मूक चाण्डाल के घर जाकर बोला - "तुम मेरे पास आओ" मूक- "अभी मैं माता पिता की सेवा में हूँ, इनकी पूजा करके तुम्हारा आतिथ्य सत्कार करूँगा ।" यह सुनकर ब्राह्मण कुपित हो गया ।
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मूक बोला - "क्यों व्यर्थ कोप करते हो, मैं बगुला नहीं हूँ जो भस्म हो जाऊंगा । न तो अब तुम्हारे वस्त्र आकाश में सूखते हैं और न माता पिता के अनादर से तुम्हें सुख है ।"
मां पितु सेवा तज कर, तप सो सुख नहिं पाय ।
विप्र नरोत्तम की कथा, पद्य पुराण सुनाय ॥३६॥

बुधवार, 31 मार्च 2021

= १८४ =

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*दादू करणहार जे कुछ किया,*
*सो बुरा न कहना जाइ ।*
*सोई सेवक संत जन, रहबा राम रजाइ ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---माता पिता की भक्ति
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शान्तनु पुत्र भीष्मजी ने अपने पिता के अभिप्राय को जानकर पिता की बिना आज्ञा ही सत्यवती के पिता से उसे अपनी माता के रूप में मांगा और अपना विवाह नहीं करने की दृढ प्रतिज्ञा की थी । यह कथा भहाभारत आदि पर्व में विस्तार से है ।
उत्तम पुत्र - अभिप्राय लख पिता का, 
कार्य करै सुत आर्य ।
किया भीष्म ने पिता का, हितकर सत्बर कार्य ॥२५॥

= १८३ =

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*अंधे हीरा परखिया, कीया कौड़ी मोल ।*
*दादू साधू जौहरी, हीरे मोल न तोल ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---मनुज देह
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एक विचार शील सेठ के पास जाकर एक गरीब ने कहा - "मैं भूखा हूँ मेरे पास कुछ नहीं है, आप मुझे कुछ सहायता दें ।" सेठ - "तुम तो बहुत बड़े धनवान ज्ञात होते हो ।" गरीब - "आप मुझ से हंसी कर रहे हैं, मेरे पास क्या है ?" सेठ - "नहीं-नहीं, तुम्हारे पास बहुत धन है । फिर भी तुम कहते हो तो लो २०)रु० और अपने हाथ की एक अंगुली दे दो।" गरीब नट गया । सेठ - २००)रु० दूंगा एक हाथ दे दो ।" गरीब नट गया, इसी प्रकार कहते कहते सेठ ने कहा - एक लाख देता हूँ अपना सिर काट कर दे दो । तब भी गरीब नट गया । सेठ - "एक लाख से तो अधिक कीमती तुम्हारा सिर है फिर भी तुम कहते हो कि मेरे पास कुछ नहीं ।" गरीब लज्जित हो गया ।
मनुज देह ही महा धन, इस में संशय नांहि ।
इक अंगुली भी दी नहीं, बीस रूपयों माँहिं ॥८७॥

मंगलवार, 30 मार्च 2021

= १८२ =

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*साचे साहिब को मिले, साचे मारग जाइ ।*
*साचे सौं साचा भया, तब साचे लिये बुलाइ ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---माता पिता की भक्ति
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उद्दालक ऋषि ने विश्वजित नामक यज्ञ किया था । दक्षिणा बांटते समय अति वृद्ध गोओं का दान करते देख नचिकेता ने पिता से पूछा मैं भी तो आपका धन हूँ मुझे किसे देंगे, यही प्रश्न जब तीन बखत किया तब क्रोधित ऋषि ने कहा 'तुझे यमराज को देता हूँ ।' सुनते ही नचिकेता यमराज के घर चले गये और यम को प्रसन्न कर पीछे भी लौट आये थे ।
आज्ञा होत हि मध्य सुत, करते पितु का काम ।
नचिकेता यम पै गया, शीध्र त्याग निजधाम ॥२६॥

= १८१ =

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*सोइ जन साचे सो सती, सोइ साधक सुजान ।*
*सोइ ज्ञानी सोई पंडिता, जे राते भगवान ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---पवित्र सती
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उत्तंग ऋषि गुरु दक्षिणा देने के लिये, राजा पौष्य की पत्नि के कुण्डल लाने गये थे । राजा ने कहा - आप स्वयं ही अन्त:पुर में जाकर ले आवें । ऋषि गये किंतु निकट जाने पर भी रानी को देख न सके । फिर जाकर राजा से कहा - अन्त:पुर में रानी नहीं है । राजा- रानी भीतर ही है, किन्तु ज्ञात होता है कि तुम्हारा मुख उच्छिष्ट होगा । इसलिये तुम उसे न देख सके । (उत्तंग को मार्ग में धर्मरूप बैल पर चढे हुये इन्द्र मिले थे । उसके कहने से उत्तंग ने बैल का गोबर खाया तथा मूत्र पिया था और शीध्रता से साधारण आचमन करके पौष्य के पास चले आये थे) पवित्र होकर जाओ फिर उत्तंग भली भांती पवित्र होकर गये । कुण्डल लाकर गुरु पत्नि को दे दिये ।
अशुचि अवस्था में कभी, सती दृष्टि नहीं आय ।
पौष्य पत्नि को लख न सके, निकट उत्तंग सुजाय ॥५५॥