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बुधवार, 14 जनवरी 2015

*निज स्वरूप में प्रवेश*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*निज स्वरूप में प्रवेश~*
फिर २८१ का पद -
२८१. साधु प्रति उपदेश(गुजराती) । ललित ताल
निर्पख रहणा, राम राम कहणा,
काम क्रोध में देह न दहणा ॥टेक॥
जेणें मारग संसार जाइला, तेणें प्राणी आप बहाइला ॥१॥
जे जे करणी जगत करीला, सो करणी संत दूर धरीला ॥२॥
जेणें पंथैं लोक राता, तेणैं पंथैं साधु न जाता ॥३॥
राम नाम दादू ऐसें कहिये, राम रमत रामहि मिल रहिये ॥४॥
उक्त पद सुनाया ।
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फिर गरीबदासजी ने भविष्य के लिये पू़छा - तब दादूजी ने कहा - हमने तो भविष्य की बात निरंजन राम पर ही रखी है । उनकी इच्छानुसार ही होगा -
दादू राखी राम पर, अपनी आप समाह ।
दूजे को देखू नहीं, हो है ज्यों निरवाह ॥७३॥
(शूरातन अंग २४)
अविनाशी के आसरे, अजरावर की ओट ।
दादू शरणे साँच के, कदे न लागे चोट ॥६८॥
(काल अंग २५)
अंत मे दादूजी महाराज ने अपने मुख कमल से यह साखी उच्चारण की थी -
जेते गुण व्यापैं जीव को, तैते तैं तजे रे मन ।
साहिब अपने कारणैं, भलो निबाह्यो पण ॥११॥
(अबिहड़ अंग ३७)
*फिर तत्काल ब्रह्मलीन हो गये थे ।*
*इति श्री प्रसंग कथायें समाप्त*

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

*~ शिष्यन को नाम दृढ़ाना प्रसंग ~*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*~ शिष्यन को नाम दृढ़ाना प्रसंग ~*
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दादू नीका नाम है, आप कहै समझाय ।
और आरम्भ सब छाड़ दें, राम नाम ल्यौ लाय ॥८॥
छिन छिन राम सँभालता, जे जिव जाय तो जाय ।
आतम के आधार को, नांहीं अन उपाय ॥११॥
दादू एक राम की टेक गहि, दूजा सहज सुभाइ ।
राम नाम छाड़े नहीं, दूजा आवे जाइ ॥१५॥
दादू निमष न न्यारा कीजिये, अंतर तैं उर नाम ।
कोटि पतित पावन भये, केवल कहतां राम ॥२५॥
कछू न कहावे आपको, सांई को सेवे ।
दादू दूजा छाडि सब, नाम निज लेवे ॥३॥
दादू कहतां सुनतां राम कहि, लेतां देतां राम ।
खातां पीतां राम कहि, आत्म कमल विश्राम ॥७४॥
दादू सब ही वेद पुराण पढ़ि, नेटि नाम निर्धार ।
सब कु़छ इनहिं मांहि है, क्या करिये विस्तार ॥८५॥
(स्मरण अंग २)
निज स्वरूप में प्रवेश के समय दादूजी ने उक्त साखियों द्वारा अपने शिष्य संतों को निरंजन राम का नाम हृदय में दृढता से धारण करने का उपदेश दिया था । 
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फिर गरीबदास आदि संतों ने प्रार्थना की - भगवन् ! इस शरीर को कु़छ समय और रखिये । तब दादूजी ने कहा - सब हरि की आज्ञानुसार ही होता है देखो बादल आदि हरि आज्ञा में हैं -
दादू एक शब्द से ऊनवे, वर्षण लागे आय ।
एक शब्द से बीखरे, आप आपको जाय ॥१३॥
(शब्द अंग २२)
नूर - तेज ज्यौं ज्योति है, प्राण पिंड यूँ होय ।
दृष्टि मुष्टि आवे नहीं, साहिब के वश सोय ॥१९८॥
(परिचय अंग ४)
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उक्त साखी के समान होते हैं उनको भी हरि आज्ञा माननी ही होती है । शरीर तो नहीं रहेगा किन्तु मेरे पांच हजार वचनों में मेरा तेज स्थित है । यह कहकर यह साखी बोली -
साधु जनकी वासना, शब्द रहे संसार ।
दादू आतम ले मिलै, अमर उपावनहार ॥४॥
(सजीवन अंग २६)

सोमवार, 12 जनवरी 2015

*~ त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*~ त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
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छठे दिन मंत्री कपूरचन्द आदि के साथ नारायणा नरेश नारायणसिंह दादूजी के पास त्रिपोलिया पर आये और प्रणाम करके बैठ गये । फिर कपुचन्द ने पू़छा - स्वामिन् ! परबह्म का यथार्थ रूप कैसा है? तब दादूजी ने २४५ का पद कहा -
२४५. मल्लिका मोद ताल
ए हौं बूझि रही पीव जैसा है, तैसा कोइ न कहै रे ।
अगम अगाध अपार अगोचर, सुधि बुधि कोइ न लहै रे ॥टेक॥
वार पार कोइ अन्त न पावै, आदि अन्त मधि नांही रे ।
खरे सयाने भये दिवाने, कैसा कहाँ रहै रे ॥१॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर बूझै, केता कोई बतावै रे ।
शेख मुशायक पीर पैगम्बर, है कोइ अगह गहै रे ॥२॥
अम्बर धरती सूर ससि बूझै, बाव वर्ण सब सोधै रे ।
दादू चक्रित है हैराना, को है कर्म दहै रे ॥३॥
उक्त पद सुनकर सभी सभासद आश्चर्य चकित थे । फिर प्रणाम करके राजमहल को चले गये ।
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साधु मिलैं तब हरि मिलैं, सब सुख आनन्द मूर ।
दादू संगति साधु की, राम रहा भरपूर ॥२२॥
(साधू अंग १५)
और १९९ का पद -
१९९. संत समागम प्रार्थना । दादरा
निरंजन नाम के रस माते, कोई पूरे प्राणी राते ॥टेक॥
सदा सनेही राम के, सोई जन साचे ।
तुम बिन और न जानहीं, रंग तेरे ही राचे ॥१॥
आन न भावै एक तूँ , सति साधु सोई ।
प्रेम पियासे पीव के, ऐसा जन कोई ॥२॥
तुम हीं जीवन उर रहे, आनन्द अनुरागी ।
प्रेम मगन पीव प्रितड़ी, लै तुम सौं लागी ॥३॥
जे जन तेरे रंग रंगे, दूजा रंग नांही ।
जन्म सुफल कर लीजिये, दादू उन मांहीं ॥४॥
जब नारायणा में भूतकाल के संत पधारे थे तब उक्त साखी और पद कहा था ।

रविवार, 11 जनवरी 2015

*~ त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*

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*~ त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
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फिर उदयसिंह ने प्रार्थना की - स्वामिन् ! कोई प्रभु संबन्धी वार्ता सुनाइये ? तब दादूजी ने २४० का पद कहा -
कासौं कहूं हो अगम हरि बाता, गगन धरणी दिवस नहिं राता ॥
उक्त पद सुनकर उदयसिंह आदि सभी सभासद प्रसन्न हुये ।
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फिर साँवलादास ने प्रार्थना की - भगवन् ! निजी अनुभव का उपदेश कीजिये ? तब दादूजी ने २३९ का पद कहा -
२४०. हैरान । वर्णभिन्न ताल
कासौं कहूँ हो अगम हरि बाताँ,
गगन धरणी दिवस नहिं राता ॥टेक॥
संग न साथी, गुरु नहिं चेला, आसन पास यों रहै अकेला ॥१॥
वेद न भेद, न करत विचारा, अवरण वरण सबन तैं न्यारा ॥२॥
प्राण न पिंड, रूप नहिं रेखा, सोइ तत्त सार नैन बिन देखा ॥३॥
जोग न भोग, मोह नहिं माया, दादू देख काल नहिं काया ॥४॥
उक्त पद को सुनकर सब प्रसन्नता से प्रणाम करके राजमहल को चले गये ।
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पांचवें दिन नारायण नरेश नारायणसिंह भाई भोजराज तथा भीमराज के साथ दादूजी के पास त्रिपोलिय पर आये और प्रणाम करके बैठ गये । फिर भीमराज ने पू़छा - स्वामिन् ! परब्रह्म स्वरूप का परिचय दीजिये ? दादूजी ने २४३ का पद -
२४३. हैरान । राज विद्याधर ताल
थकित भयो मन कह्यो न जाई, सहज समाधि रह्यो ल्यौ लाई ॥टेक॥
जे कुछ कहिये सोच विचारा, ज्ञान अगोचर अगम अपारा ॥१॥
साइर बूँद कैसे कर तोलै, आप अबोल कहा कहि बोलै ॥२॥
अनल पंखि परै पर दूर, ऐसे राम रह्या भरपूर ॥३॥
अब मन मेरा ऐसे रे भाई, दादू कहबा कहण न जाई ॥४॥
उक्त पद को सुनकर भीमराज अति प्रसन्न हुये ।
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फिर भोजराज ने कहा - स्वामिन् ! आपने ब्रह्म को अकथनीय कहा है किन्तु ब्रह्म का कथन विद्वान लोग तो करते ही रहते हैं । भोजराज की उक्त शंका का समाधान करने की दादूजी ने २४४ का पद कहा -
२४४. मल्लिका मोद ताल
अविगत की गति कोइ न लहै, सब अपना उनमान कहै ॥टेक॥
केते ब्रह्मा वेद विचारैं, केते पंडित पाठ पढ़ैं ।
केते अनुभव आतम खोजैं, केते सुर नर नाम रटैं ॥१॥
केते ईश्वर आसन बैठे, केते जोगी ध्यान धरैं ।
केते मुनिवर मन को मारैं, केते ज्ञानी ज्ञान करैं ॥२॥
केते पीर केते पैगम्बर, केते पढ़ैं कुराना ।
केते काजी केते मुल्लां, केते शेख शयाना ॥३॥
केते पारिख अन्त न पावैं, वार पार कछु नांहीं ।
दादू कीमत कोई न जानैं, केते आवैं जांहीं ॥४॥
उक्त पद सुनकर भोजराज आदि सभी सभासदों ने मस्तक नमाकर
 स्वीकार किया । फिर प्रणाम करके राजमहल को चले गये । 

शनिवार, 10 जनवरी 2015

*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*

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*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
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फिर गैंदीदास ने पू़छा - स्वामिन् ! तत्व साक्षात्कार करने वाले महानुभाव प्रभु को कैसे देखते है ? तब दादूजी ने २३६ का पद कहा -
२३६. परिचय उपदेश । चौताल
पीव पीव, आदि अंत पीव ।
परसि परसि अंग संग, पीव तहाँ जीव ॥टेक॥
मन पवन भवन गवन, प्राण कँवल मांहि ।
निधि निवास विधि विलास, रात दिवस नांहि ॥१॥
सास वास आस पास, आत्म अंग लगाइ ।
ऐन बैन निरख नैन, गाइ गाइ रिझाइ ॥२॥
आदि तेज अंत तेज, सहजैं सहज आइ ।
आदि नूर अंत नूर, दादू बलि बलि जाइ ॥३॥
उक्त पद सुनकर गैदीदास अति प्रसन्न हुये ।
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फिर तिलोकदास ने पू़छा - भगवन् ! आप जिस ब्रह्म की बलिहारी जाते हैं, उसका स्वरूप कैसा है ?
दादूजी ने २३७ का पद कहा -
२३७.(फारसी) चौताल
नूर नूर अव्वल आखिर नूर ।
दायम कायम कायम दायम, हाजिर है भरपूर ॥टेक॥
आसमान नूर, जमीं नूर, पाक परवरदिगार ।
आब नूर, बाद नूर, खूब खूबां यार ॥१॥
जाहिर बातिन, हाजिर नाजिर, दाना तूँ दीवान ।
अजब अजाइब, नूर दीदम, दादू है हैरान ॥२॥
सुनाकर समझाया । तब सब प्रसन्न होकर राजमहल को चले गये । चौथे दिन उदयसिंह और साँवलदास अपने दोनों भाइयों के साथ नारायणसिंह, त्रिपोलिया पर दादूजी के पास आये और प्रणाम करके बैठ गये ।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
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तीसरे दिन राजा नारायणसिंह के साथ अमरसिंह सालीवाले, केशवदास आकोदावाले, गैंदीदास आदसवावाले, और तिलोकदास ममाणावाले भी थे । अमरसिंह ने दादूजी से पू़छा - भगवन् ! राम विमुख और सम्मुख मानवों की क्या गति होती है ? दादूजी ने ५१ का पद कहा -
५१. संजीवनी । पंचम ताल
राम विमुख जग मर मर जाइ, जीवैं संत रहैं ल्यौ लाइ ॥टेक॥
लीन भये जे आतम रामा, सदा सजीवन कीये नामा ॥१॥
अमृत राम रसायन पीया, तातैं अमर कबीरा कीया ॥२॥
राम राम कह राम समाना, जन रैदास मिले भगवाना ॥३॥
आदि अंत केते कलि जागे, अमर भये अविनासी लागे ॥४॥
राम रसायन दादू माते, अविचल भये राम रंग राते ॥५॥
अपने प्रश्‍न का उत्तर सुनकर अमरसिंह अति प्रसन्न हुये ।
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फिर केशवदास ने पू़छा - भगवन् ! मानव तन व्यर्थ क्षीण होने में मूल कारण क्या है ? तब दादूजी ने ४४ का पद कहा -
४४. उपदेश चेतावनी । पंचम ताल
मेरी मेरी करत जग खीना, देखत ही चल जावै ।
काम क्रोध तृष्णा तन जालै, तातैं पार न पावै ॥टेक॥
मूरख ममता जन्म गमावै, भूल रहे इहिं बाजी ।
बाजीगर को जानत नांही, जन्म गंवावै वादी ॥१॥
प्रपंच पंच करै बहुतेरा, काल कुटुम्ब के तांई ।
विषै के स्वाद सबै ये लागे, तातैं चीन्हत नांही ॥२॥
येता जिय में जानत नांहीं, आइ कहाँ चल जावै ।
आगे पीछे समझै नांहीं, मूरख यूं डहकावै ॥३॥
ये सब भ्रम भान भल पावै, शोध लेहु सो साँई ।
सोई एक तुम्हारा साजन, दादू दूसर नांही ॥४॥
उक्त पद सुनकर केशवदास अति प्रसन्न हुये और प्रणाम करके बोले आपका कथन यथार्थ है ।

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
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फिर हमीरसिंह धांदोलीवालों ने पू़छा - भगवन् ! आपको अति प्रिय क्या है ? तब दादूजी ने १०९ का पद -
ऐन एक सो मीठा लागै,
ज्योति स्वरूपी ठाढ़ा आगे ॥टेक॥
झिलमिल करणां, अजरा जरणां,
नीझर झरणां, तहँ मन धरणां ॥१॥
निज निरधारं, निर्मल सारं,
तेज अपारं, प्राण अधारं ॥२॥
अगहा गहणां, अकहा कहणां,
अलहा लहणां, तहँ मिल रहणां ॥३॥
निरसंध नूरं, सब भरपूरं, सदा हजूरं, दादू सूरं ॥४॥
उक्त पद सुनकर हमीरसिंह आश्चर्य में पड़ गये । कारण उन्होंने तो इसलिये पू़छा था कि स्वामीजी को जो वस्तु प्रिय होगी वही सेवा में उपस्थित करुंगा । अतः उन्होंने सुनकर प्रणाम ही किया ।
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फिर बाघसिंग कालखवालों ने पू़छा - भगवन् ! आपने गुरुज्ञान के द्वारा क्या निश्‍चय किया था ? तब दादूजी ने ९३ का पद -
९३. गरु ज्ञान । त्रिताल
ऐसा रे गुरु ज्ञान लखाया,
आवै जाइ सो दृष्टि न आया ॥टेक॥
मन थिर करूँगा, नाद भरूँगा,
राम रमूंगा, रस माता ॥१॥
अधर रहूँगा, करम दहूँगा,
एक भजूंगा, भगवंता ॥२॥
अलख लखूंगा, अकथ कथूंगा,
एक मथूंगा, गोविन्दा ॥३॥
अगह गहूँगा, अकह कहूँगा,
अलह लहूँगा, खोजन्ता ॥४॥
अचर चरूंगा, अजर जरूंगा,
अतिर तिरूंगा, आनन्दा ॥५॥
यहु तन तारूं, विषय निवारूं,
आप उबारूं, साधन्ता ॥६॥
आऊँ न जाऊँ, उनमनि लाऊँ,
सहज समाऊँ, गुणवंता ॥७॥
नूर पिछाणूं, तेजहि जाणूं,
दादू ज्योतिहि देखन्ता ॥८॥
बाघसिंह के प्रश्‍न का उत्तर सुन सभी प्रसन्न हो प्रणाम करके राजमहल को चले गये ।

बुधवार, 7 जनवरी 2015

*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*


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*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
दूसरे दिन राजा त्रिपोलिया पर दर्शन करने गये तब साथ में उनके चार भाई भी थे । वैरी साल(दुर्जन साल) गुढ़ावालों ने दादूजी ने पू़छा - भगवन् ! काल कब आता है ?
तब दादूजी ने १५७ का पद -
१५७. चौताल
आदि काल अंत काल, मध्य काल भाई ।
जन्म काल जुरा काल, काल संग सदाई ॥टेक॥
जागत काल सोवत काल, काल झंपै आई ।
काल चलत काल फिरत, कबहूँ ले जाई ॥१॥
आवत काल जावत काल, काल कठिन खाई ।
लेत काल देत काल, काल ग्रसै धाई ॥२॥
कहत काल सुनत काल, करत काल सगाई ।
काम काल क्रोध काल, काल जाल छाई ॥३॥
काल आगै काल पीछैं, काल संग समाई ।
काल रहित राम गहित, दादू ल्यौ लाई ॥४॥
से उत्तर दिया था ।
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फिर मनोहरदास मढ़ावालों ने पु़छा - भगवन् ! प्रभु प्राप्ति का यथार्थ ज्ञान मुझे बताने की कृपा करिये ? मैं इस पथ का पथिक हूँ । अतः अपना अनुभूत हो वही कहैं ? उक्त प्रश्‍न सुनकर दादूजी ने १५० का पद -
१५०. समुच्चय उत्तर । राज विद्याधर ताल
पंथीड़ा पंथ पिछाणी रे पीव का, गहि विरहे की बाट ।
जीवत मृतकह्वै चले, लंघे औघट घाट, पंथीड़ा ॥टेक॥
सतगुरु सिर पर राखिये, निर्मल ज्ञान विचार ।
प्रेम भक्ति कर प्रीत सौं, सन्मुख सिरजनहार, पंथीड़ा ॥१॥
पर आतम सौं आत्मा, ज्यों जल जलहि समाइ ।
मन हीं सौं मन लाइये, लै के मारग जाइ, पंथीड़ा ॥२॥
तालाबेली ऊपजै, आतुर पीड़ पुकार ।
सुमिर सनेही आपणा, निशदिन बारम्बार, पंथीड़ा ॥३॥
देखि देखि पग राखिये, मारग खांडे धार ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू लंघे पार, पंथीड़ा ॥४॥
उक्त उपदेश सुनकर मनोहरदास का संशय दूर होने से वे अति प्रसन्न हुये थे ।

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

*नारायणा त्रिपोलिया प्रसंग*

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*नारायणा त्रिपोलिया प्रसंग*
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त्रिपोलिया पर भाकरसिंह साखूण वालों ने पू़छा - स्वामिन् ! साधु का लक्षण कहिये ? तब दादूजी ने पद १६४ - 
१६४. साधु लक्षण । दीपचन्दी
सद्गति साधवा रे, सन्मुख सिरजनहार ।
भौजल आप तिरैं ते तारैं, प्राण उधारनहार ॥टेक॥
पूरण ब्रह्म राम रंग राते, निर्मल नाम अधार ।
सुख संतोष सदा सत संजम, मति गति वार न पार ॥१॥
जुग जुग राते, जुग जुग माते, जुग जुग संगति सार ।
जुग जुग मेला, जुग जुग जीवन, जुग जुग ज्ञान विचार ॥२॥
सकल शिरोमणि सब सुख दाता, दुर्लभ इहि संसार ।
दादू हंस रहैं सुख सागर, आये पर उपकार ॥३॥
यह सुनकर भाकरसिंह परम प्रसन्न हुये थे । 
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फिर किशनसिंह कैग्यावालों ने पू़छा - स्वामिन् ! संत परब्रह्म को प्राप्त किस साधन से करते हैं ? तब दादूजी ने १६३ का पद...
१६३. साधु साँई हेरे त्रिताल
कोई राम का राता रे, कोई प्रेम का माता रे ॥टेक॥
कोई मन को मारे रे, कोई तन को तारे रे, कोई आप उबारे रे ॥१॥
कोई जोग जुगंता रे, कोई मोक्ष मुकंता रे, कोई है भगवंता रे ॥२॥
कोई सद्गति सारा रे, कोई तारणहारा रे, कोई पीव का प्यारा रे ॥३॥
कोई पार को पाया रे, कोई मिलकर आया रे, कोई मन को भाया रे ॥४॥
कोई है बड़भागी रे, कोई सेज सुहागी रे, कोई है अनुरागी रे ॥५॥
कोई सब सुख दाता रे, कोई रूप विधाता रे, कोई अमृत खाता रे ॥६॥
कोई नूर पिछाणैं रे, कोई तेज कों जाणैं रे, कोई ज्योति बखाणैं रे ॥७॥
कोई साहिब जैसा रे, कोई सांई तैसा रे, कोई दादू ऐसा रे ॥८॥
इस पद से उत्तर दिया था । 
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फिर गिधाणीवाले राघवदास ने पू़छा - स्वामिन् ! भगवद् वचन तथा संत वचनों की क्या विशेषता है ? तब दादूजी ने १६२ का पद कहा - 
१६२. निज वचन । महिमा चौताल ध्रुपद में
ऐन बैन चैन होवै, सुणतां सुख लागै रे ।
तीन गुण त्रिविधि तिमिर, भरम करम भागै रे ॥टेक॥
होइ प्रकास अति उजास, परम तत्व सूझै ।
परम सार निर्विकार, विरला कोई बूझै ॥१॥
परम थान सुख निधान, परम शून्य खेलै ।
सहज भाइ सुख समाइ, जीव ब्रह्म मेलै ॥२॥
अगम निगम होइ सुगम, दुस्तर तिर आवै ।
आदि पुरुष दरस परस, दादू सो पावै ॥३॥

सोमवार, 5 जनवरी 2015

*रघुनाथ मंदिर नारायणा प्रसंग*

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*रघुनाथ मंदिर नारायणा प्रसंग*
मोरड़ा से नारायणा पधारने पर राज नारायणसिंह ने रघुनाथ मन्दिर में ठहराया और सत्संग के पश्चात् अकेला दादूजी के पास इस इच्छा से बैठा ही रहा कि मुझे अब आगे क्या कर्तव्य है ।
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राजा की इच्छा को जानकर दादूजी ने राजा को ३७३ का पद -
३७३. सतगुरु तथा नाम महिमा । त्रिताल
सतगुरु चरणां मस्तक धरणां,
राम नाम कहि दुस्तर तिरणां ॥टेक॥
अठ सिधि नव निधि सहजैं पावै,
अमर अभै पद सुख में आवै ॥१॥
भक्ति मुक्ति बैकुंठा जाइ,
अमर लोक फल लेवै आइ ॥२॥
परम पदारथ मंगल चार,
साहिब के सब भरे भंडार ॥३॥
नूर तेज है ज्योति अपार,
दादू राता सिरजनहार ॥४॥
इससे उपदेश किया था और राजा ने भी उक्त उपदेश के अनुसार ही आगे किया था ।

रविवार, 4 जनवरी 2015

*मोरड़ा प्रसंग*

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*मोरड़ा प्रसंग*
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फिर करड़ाले से मोरड़ा पधारे । मोरड़ा के तालाब पर ठाकुरदासजी के शिष्य और दादूजी के पौत्र शिष्य दासजी ने अपनी विशालवाणी की पुस्तक दादूजी के सामने रखी । तब दादूजी ने पू़छा रामजी ! ये क्या है ? दासजी ने कहा - यह जगतारण जहाजरूप मेरी वाणी है । यह सुनकर दादूजी ने कहा -
मसि कागज के आसरे, क्यों छूटे संसार ।
राम बिना छूटे नहीं दादू भरम विकार ॥
.
फिर मोरड़े मे वि.सं. १६५९ लगा तब परमात्मा ने दादूजी को संकेत द्वारा सूचित किया कि - वि. सं. १६६० में तुमको संसार छोड़ना है । तब दादूजी ने कहा -
ज्यों तुम भावे त्यों खुसी, हम राजी उस बात ।
दादू का दिल सिदक से, भावे दिन हो(को) रात ॥
(उक्त साखी में "हो" के स्थान में "को" भी मिलता है । यह ध्यान रहै ।)

शनिवार, 3 जनवरी 2015

*करड़ाला प्रसंग से आगे*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*करड़ाला प्रसंग से आगे*
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एक दिन करड़ाले में लालदासनागा नामक सज्जन ने दादूजी से पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म साक्षात्कार के साधन की कोई सीमा है क्या ?
दादूजी ने कहा -
दादू निबहै त्यों चले, धीरैं धीरज मांहिं ।
परसेगा पिव एक दिन, दादू थाके नांहिं । ॥३८॥
(लै अंग ७)
फिर लालदासनागा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।
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गंगादास ने पू़छा - स्वामिन् ! अज्ञान निद्रा से जागने की क्या पहचान है ? तब दादूजी ने कहा -
आदि अंत मधि एक रस, टूटे नहिं धागा ।
दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा ।
फिर गंगादास दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।
.
फिर एक दिन द्वितीय गंगादास ने पू़छा - भगवन् ! निरंजन ब्रह्म में मन लगने की क्या पहचान है ? कृपा करके बताइये । दादूजी ने कहा -
जब मन मृतक हो रहै, इन्द्रिय बल भागा ।
काया के सब गुण तजे, निरंजन लागा ॥
फिर द्वितीय गंगादास भी दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये भी सौ शिष्यों में हैं ।
.
इन्हीं दिनों में लाला बणजारे का पुत्र चतुर्भुज बणजारा सांभर में अपने बालद लेकर आया था । उसे ज्ञात हुआ कि मेरे पिता के गुरु दादुजी करड़ाले ग्राम में हैं । अतः वह करड़ाले आया । दादूजी को प्रणामादि करके सामने बैठा तब दादूजी ने उसे पद ३८७ -
३८७. उपदेश । धीमा ताल
मन मैला मन ही सौं धोइ, उनमनि लागै निर्मल होइ ॥टेक॥
मन ही उपजै विषय विकार, मन ही निर्मल त्रिभुवन सार ॥१॥
मन ही दुविधा नाना भेद, मन ही समझै द्वै पख छेद ॥२॥
मन ही चंचल चहुँ दिशि जाइ, मन ही निश्चल रह्या समाइ ॥३॥
मन ही उपजै अग्नि शरीर, मन ही शीतल निर्मल नीर ॥४॥
मन उपदेश मनहीं समझाइ, दादू यहु मन उनमनि लाइ ॥५॥
सुनाया था । उक्त उपदेश सुनकर चतुरभुज पिता के समान विरक्त हो गया था और दादूजी का शिष्य होर रामपुरा(पूर्व) में भजन करके सिद्धावस्था को प्राप्त हो गया था । ये ५२ में हैं ।

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

*करड़ाला प्रसंग*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*करड़ाला प्रसंग*
सांभर से करड़ाला पधारे । करड़ाला में एक दिन एक वधूरी नामक सज्जन दादूजी के दर्शन करने आये थे उन्होंने पू़छा - स्वामिन् ! प्राणी पर मायिक प्रपंच का प्रभाव कब नहीं पड़ता है ? दादूजी ने कहा -
जिहिं आसन पहले प्राण था, तिहिं आसन ल्यौ लाय ।
जे कु़छ था सोई भया, कुछू न व्यापै आय ॥३५॥
(लै अंग ७)
फिर बघूरी दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं । 
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बदरीदास नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म का साक्षात्कार कैसे होता है ? दादूजी ने कहा -
एक मना लागा रहे, अंत मिलेगा सोइ ।
दादू जाके मन वसे, ताको दर्शन होय ॥३७॥
(लै अंग ७)
अपने प्रश्‍न का उत्तर सुनकर बदरीदास भी दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ में हैं ।
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एक दिन करड़ाले में लालदासनागा नामक सज्जन ने दादूजी से पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म साक्षात्कार के साधन की कोई सीमा है क्या ?
दादूजी ने कहा -
दादू निबहै त्यों चले, धीरैं धीरज मांहिं ।
परसेगा पिव एक दिन, दादू थाके नांहिं । ॥३८॥
(लै अंग ७)
फिर लालदासनागा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।
.
गंगादास ने पू़छा - स्वामिन् ! अज्ञान निद्रा से जागने की क्या पहचान है ? तब दादूजी ने कहा -
आदि अंत मधि एक रस, टूटे नहिं धागा ।
दादू एकै रह गया, तब जाणी जागा ।
फिर गंगादास दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।
.
फिर एक दिन द्वितीय गंगादास ने पू़छा - भगवन् ! निरंजन ब्रह्म में मन लगने की क्या पहचान है ? कृपा करके बताइये । दादूजी ने कहा -
जब मन मृतक हो रहै, इन्द्रिय बल भागा ।
काया के सब गुण तजे, निरंजन लागा ॥
फिर द्वितीय गंगादास भी दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये भी सौ शिष्यों में हैं ।
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इन्हीं दिनों में लाला बणजारे का पुत्र चतुर्भुज बणजारा सांभर में अपने बालद लेकर आया था । उसे ज्ञात हुआ कि मेरे पिता के गुरु दादुजी करड़ाले ग्राम में हैं । अतः वह करड़ाले आया । दादूजी को प्रणामादि करके सामने बैठा तब दादूजी ने उसे पद ३८७ -
३८७. उपदेश । धीमा ताल
मन मैला मन ही सौं धोइ, उनमनि लागै निर्मल होइ ॥टेक॥
मन ही उपजै विषय विकार, मन ही निर्मल त्रिभुवन सार ॥१॥
मन ही दुविधा नाना भेद, मन ही समझै द्वै पख छेद ॥२॥
मन ही चंचल चहुँ दिशि जाइ, मन ही निश्चल रह्या समाइ ॥३॥
मन ही उपजै अग्नि शरीर, मन ही शीतल निर्मल नीर ॥४॥
मन उपदेश मनहीं समझाइ, दादू यहु मन उनमनि लाइ ॥५॥
सुनाया था । उक्त उपदेश सुनकर चतुरभुज पिता के समान विरक्त हो गया था और दादूजी का शिष्य होर रामपुरा(पूर्व) में भजन करके सिद्धावस्था को प्राप्त हो गया था । ये ५२ में हैं ।

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

*~रत्नपुरा प्रसंग~*

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*~रत्नपुरा प्रसंग~*

रत्नपुरा प्रसंग के समय माधव ने पू़छा - स्वामिन् ! निर्वाण पद कब प्राप्त होता है ? तब दादूजी ने कहा -
परमातम से आतमा, ज्यों जल उदक समान ।
तन मन पाणी लौंण ज्यों, पावे पद निर्वाण ॥३२॥
(लै अंग ७)
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रामदास ने पू़छा - भगवन् ! शरीराध्यास कैसे छूटता है ? दादूजी ने कहा -
यूं मन तजे शरीर को, ज्यों जागत सो जाय ।
दादू विसरे देखतां, सहज सदा ल्यौ लाय ॥३४॥
(लै अंग ७)
रत्नपुरा के भक्तों को सत्संग का सुख प्रदान करके फिर सांभर पधारे ।

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

*~ राहोरी प्रसंग ~*

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*~ राहोरी प्रसंग ~*
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फिर थोलाई से राहोरी के भक्त दादूजी को राहोरी ले आये । सत्संग चलने लाग । एक दिन राहोरी में रामदत्त ने पू़छा - स्वामिन् ! संपूर्ण बातों की सार रूप बात क्या है ? जिसको धारण करके प्राणी कृतार्थ हो सके । दादूजी ने कहा -
दादू सब बातन की एक है, दुनिया तै दिलदूर ।
सांई सेती संग कर, सहज सूरति लै पूर ॥२४॥
(लै अंग ७)
रामदत्त दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।
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फिर रामदत्त के भाई चतुरभुज ने पू़छा - स्वामिन् ! प्रभु के सन्मुख और सदा संग में कैसे रहा जाता है ? तब दादूजी ने कहा -
दादु सहजैं सुरति समायले, पार ब्रह्म के अंग ।
अरस - परस मिल एक हो, सन्मुख रहबा संग ॥२६॥
(लै अंग ७)
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फिर खेमदास ने पू़छा - भगवन् ! लययोग किस को कहते हैं । दादुजी ने कहा -
सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।
सहज रूप सुमिरण करे, निष्कामी दादु दीन ॥२७॥
(लै अंग ७)
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फिर हापाजी दादुजी के दर्शन करने राहोरी में आये थे उन्होंने पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म के स्वरूप में प्रवेश कैसे होता है ? दादुजी ने कहा -
दादु सेवा सुरति से, प्रेम प्रीति से लाय ।
जहँ अविनाशी देव है, तहँ सुरति बिना को जाय ॥२९॥
(लै अंग ७)

मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

*~ थोलाई प्रसंग ~*


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*~ थोलाई प्रसंग ~*
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आंधी से थोलाई के भक्त दादूजी को थोलाई ले आये । सत्संग चलने लगा । थोलाई में नगा नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! परमात्मा का साक्षात्कार कहां होता है ? तब दादूजी ने कहा -
जहां आत्म तहैं राम है, सकल रह्या भरपूर ।
अन्तरगत ल्यौ लाय रहु, दादू सेवक शूर ॥२१॥
(लै अंग ७)
फिर नगा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।
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फिर कला नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! आन्तर भक्ति की सामग्री बताने की कृपा कीजिये ? तब दादूजी ने कहा -
दादू अंतरगत ल्यौ लाय रहु, सदा सुरति से गाय ।
यहु मन नाचे मगन हो, भावै ताल बजाय ॥२२॥
दादू गावे सुरति से, वाणी बाजे ताल ।
यहु मन नाचे प्रेम से, आगे दीनदयाल ॥२३॥
(लै अंग ७)
फिर कला दादू जी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में है ।
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फिर नृसिंहदास ने पू़छा - स्वामिन् ! अनुभव का हेतु कौन साधना माना जाता है ? तब दादूजी ने कहा -
दादू एक सुरति से सब रहैं, पंचों उनमनि लाग ।
यहु अनुभव उपदेश यहु, परमयोग बैराग ॥२५॥
(लै अंग ७)
फिर नृसिंहदास दादूजी के शिष्य हो गये । ये द्वितीय नृसिंहदास सौ में हैं ।

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

*~ आंधी प्रसंग से आगे ~*

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*~ आंधी प्रसंग से आगे ~*
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फिर चतुरा ने पू़छा - स्वामिन् ! ज्ञान कौनसा उत्तम माना जाता है ? दादूजी ने कहा -
राम कहै जिस ज्ञान से, अमृत रस पीवे ।
दादू दूजा छाड़ सब, लै लागी जीवे ॥१४॥
(लै अंग ७)
उक्त उत्तर सुनकर चतुरा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।
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विष्णुदास ने पू़छा - स्वामिन्! जीव ब्रह्म कब होता है ? दादूजी ने कहा -
राम रसायन पीवतां, जीव ब्रह्म हो जाय ।
दादू आतम राम से, सदा रहै ल्यौ लाय ॥१५॥
(लै अंग ७)
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ध्यानदास ने पू़छा - भगवन् ! भक्त पूरा कब माना जाता है ? दादूजी ने कहा -
सुरति समाय सन्मुख रहे, जुग जुग जन पूरा ।
दादू प्यास प्रेम का, रस पीवे शूरा ॥
(लै अंग ७)
अपने प्रश्‍न का उत्तर सुनकर ध्यानदास दादू जी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।
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वाला नामक व्यक्ति ने पू़छा - भगवन् ! परमात्मा कहां रहता है ? दादूजी ने कहा -
दादू उलट अपूठा आपमें, अंतर शोध सुजाण ।
सो ढिग तेरी बावरे, तज बाहर की बाण ॥१९॥
(लै अंग ७)
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जग्गा नामक एक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! आश्चर्य रूप ब्रह्म का साक्षात्कार कैसे होता है ? कृपा करके आप बताइये । दादूजी ने कहा -
दादू जहां जगद्गुरु रहत हैं, तहां जे सुरति समाय ।
(लै अंग ७)
तो इन ही नैनहुं उलटकर, कौतिक देखे आय ॥१७॥
फिर जग्गा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये द्वितीय जग्गा सौ शिष्यों में हैं ।
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नेता नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! साधक बुद्धिमान कब माना जाता है ? दादूजी ने कहा -
सुरति अपूठी फेरिकर, आतम मांहीं आण ।
लगा रहै गुरु देव से, दादू सोय सयाण ॥२०॥
(लै अंग ७)
फिर नेता दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।

रविवार, 28 दिसंबर 2014

*~ आंधी प्रसंग ~*


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*~ आंधी प्रसंग ~*
कल्याणपट्टण से आंधी के भक्त दादूजी को आंधीग्राम में ले आये । वहां सत्संग होन लगा । एक दिन सत्संग के पश्चात् दामोदर ने पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म में वृत्ति लगने की क्या पहचान है ? तब दादूजी ने कहा -
दादू लै लागी तब जानिये, जे कब हूं छूट न जाय ।
जीवित यौं लागी रहै, मूवा मंझ समाय ॥२॥
(लै अंग ७)
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एक दिन पर्वत नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म में समाकर कौन साधक रहता है ? तब दादूजी ने कहा -
सब तज गुण आकार के, निश्चल मन ल्यौ लाय ।
आतम चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाय ॥४॥
(लै अंग ७)
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फिर बोहित ने पू़छा - भगवन् ! परमात्मा कहां है ? दादूजी ने कहा -
तन मन पवना पंच गह, निरंजन ल्यौ लाय ।
जहॅ आतम तहॅ परमात्मा, दादू सहज समाय ॥५॥
(लै अंग ७)
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खेमदास ने पू़छा - स्वामिन् ! परमअर्थ किसको कहते है ? दादूजी ने कहा -
अर्थ अनूपं आप है, और अनरथ भाई ।
दादू ऐसी जानकर, तसौं ल्यो लाई ॥६॥
(लै अंग ७)
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केशव ने पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म में वृत्ति कैसे लगे ? दादूजी ने कहा -
ज्ञान भक्ति मन मूल गह । सहज प्रेम ल्यौ लाय ।
दादू सब आरम्भ तज, जनि काही संग जाय ॥७॥
(लै अंग ७)
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राजू नामक व्यक्ति ने पू़छा - भगवन् ! मुक्ति महल का द्वार कैसे खुलता है ? यह सुनकर दादूजी ने कहा -
योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजै सहजै आव ।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव ॥९॥
(लै अंग ७)

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

*कल्याण पट्टण प्रसंग से आगे*

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*कल्याण पट्टण प्रसंग से आगे*
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परमानन्द ने पू़छा - स्वामिन् ! पराभक्ति में भक्त की कैसी उत्कंठा रहती है । दादूजी ने कहा -
दादु मीठा राम रस, एक घूंट कर जाउं ।(परिचय अंग ४)
पुणग न पीछे को रहे, सब हिरदै मांहिं समाउं ॥३३०॥
अपने प्रश्‍न का उत्तर सुनकर परमानन्द दादुजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ में हैं ।
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एक दिन सत्संग समाप्ति पर खींवे ने पू़छा - स्वामिन् ! सालोकादि चार मुक्तियों को कौन भक्त नहीं चाहता है ? तब दादूजी ने कहा -
दादू राता राम का, पीवै प्रेम अघाइ ।
दादू राता राम का, मांगे मुक्ति बलाय ॥३३३॥
(परिचय अंग ४)
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दामोदर ने पू़छा - स्वामिन् ! भगवान् का निजदास कौन कहलाता है ? तब दयालु दादूजी ने कहा -
उज्वल भंवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास ।
पीवे निर्मल वासना, सो दादू निजदास ॥३३४॥
(परिचय अंग ४)
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फिर श्यामदास ने पू़छा - भगवन् ! जब हरि में प्रेम होने लगता है तब वह मानव कैसे कैसे कार्य करता है? दादूजी ने कहा -
नैनहूं से रस पीजिये, दादू सुरति सहेत ।
तन मन मंगल होत है, हरि से लागे हेत ॥३३५॥
(परिचय अंग ४)
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फिर माताओं में बैठी हुई हरखांबाई ने पू़छा - स्वामिन् ! पराभक्ति में भक्त किस प्रकार जीवित रहता है? तब दादूजी ने कहा—
परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवे ।
मतिवाला माता रहै, यूं दादू जीवे ॥३३८॥
(परिचय अंग ४)
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फिर हरिदास ने पू़छा - भगवन् ! काल कर्म के बाण से कब बचा जा सकता है ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवे राम रस, युगयुग सुस्थिर होय ।
दादू अविचल आतमा, काल न लागे कोय ॥३४०॥
(परिचय अंग ४)
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तुलसी नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! भक्त अविनाशी ब्रह्म का स्वरूप कब होता है ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवे राम रस, सो अविनाशी अंग ।
काल मीच लागे नहीं, दादू सांई संग ॥३४१॥
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उक्त उत्सव में एक डोंगसी नामक सज्जन भी आये थे । उन्होंने पू़छा - भगवन् ! आपने कहा कि ज्ञानी भक्त को काल नहीं खाता है सो उसमें क्या कारण है ? क्यों नहीं खाता है ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू काल न खाइ ॥३४४॥
फिर डोंगसी दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।
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फिर पूरा नामक व्यक्ति ने पू़छा - भगवन् ! इस संसार में रहते हुये साधक काम क्रोधादि दुर्गुणों से और इस संसार के कैसे छूटते हैं ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवे राम रस, राता सिरजनहार ।
दादू कु़छ व्यापे नहीं, ते छूटे संसार ॥३४३॥
फिर पूरा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।

गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

*कल्याण पट्टण प्रसंग से आगे*

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*कल्याण पट्टण प्रसंग से आगे*
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कल्याण पट्टण में मांगा नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! भजन - रस पान करने वाला भक्त रसपान से कभी थकता भी है क्या ? दादूजी ने कहा -
रात माता राम का, मतिवाला मै मंत ।
दादू पीवत क्यों रेह, जे जुग जांहिं अनन्त ॥३२३॥
(परिचय अंग ४)
अपने प्रश्‍न का उत्तर सुनकर मांगा दादूजी का शिष्य हो गये थे । ये सौ में हैं ।
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फिर बीसा नाम के व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! साधक की दुविधा कब मिटती है ? दादूजी ने कहा -
आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहिं ।
दादू देखा नैन भर, ताके दुविधा नांहीं ॥३२७॥
(परिचय अंग ४)
बीसा उक्त वचन का आशय समझकर दादूजी का शिष्य हो गया था । ये सौं में हैं ।
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नृसिंहदास ने पू़छा - स्वामिन् ! वृत्ति सत्य ब्रह्म में स्थिर कब होती हैं ? दादूजी ने कहा -
पीवत चेतन जब लगे, तब लग लेवे आय ।
जब माता दादू प्रेमरस, तब काहे को जाय ॥३२८॥
(परिचय अंग ४)
अपने प्रश्‍न का उत्तर सुनकर नृसिंहदास दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ में हैं ।
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जगन्नाथ नाम के व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर निर्मल कब होते है ? दादूजी ने कहा -
दादू अन्तर आतमा, पीवे हरि जल नीर ।
सौंज सकल ले उद्धरे, निर्मल होय शरीर ॥३२९॥
(परिचय अंग ४)
उक्त उपदेश के अनुसार जगन्नाथ ने अपने दोनों शरीर साधन द्वारा शुद्ध कर लिये थे । ये दादूजी के शिष्य हो गये थे और सौ शिष्यों में गिने जाते हैं ।