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सोमवार, 11 जनवरी 2021

= ४४४ =

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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
४४४ - दीपचन्दी
तेरी आरती ए, जुग जुग जै जै कार ॥टेक॥
जुग जुग आत्म राँम, जुग जुग सेवा कीजिये ॥१॥
जुग जुग लँघे पार, जुग जुग जगपति कों मिले ॥२॥
जुग जुग तारणहार, जुग जुग दर्शन देखिये ॥३॥
जुग जुग मँगलचार, जुग जुग दादू गाइये ॥४॥
(प्राण उधारणहार ॥)
इति राग धनाश्री सम्पूर्ण ॥२७॥पद ३०॥
इति श्री सँत प्रवर दादू दयालुजी महाराज की अनुभव वाणी सम्पूर्ण ॥
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हे निरंजन देव ! आपकी आरती प्रतियुग में भक्त - जन करते हुये बारँबार जय ध्वनि करते हैं ।
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प्रतियुग में ही जीवात्मा और परमात्मा रहते हैं, प्रतियुग में ही भक्ति करनी चाहिए ।
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प्रतियुग में ही परब्रह्म की आरती करके प्राणी सँसार को लाँघ कर पार गये हैं और प्रतियुग में ही विश्वपति राम को मिले हैं ।
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प्रतियुग में ही प्रभु भक्तों को सँसार से तारने वाले के रूप में स्थित रहते हैं ।
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प्रतियुग में ही उनका दर्शन करो ।
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परब्रह्म की आरती गाने से प्रतियुग में ही मँगलाचार रहता है । अत: प्रतियुग में ही परब्रह्म की आरती गानी चाहिए । यह आरती प्राणों का उद्धार करती है ।
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पद्य गिरा पर गद्य मय, रच कर तिलक विशाल ।
प्रणति करूँ श्री दादू को, करिये कृपा दयाल ॥१॥
क्लान्त निहार त्रितापन से भव, 
आय अनुग्रह दादू करा है ।
लाइ गिरामय श्रेष्ठ लता, 
रस ज्ञान स्वरूप निगूढ़ धरा है ॥
ताहि निचोड़ "नारायण” ने यह, 
गद्य सुपात्रहि माँहिं भरा है ।
पान करो सु प्रमाद विसार, 
परात्म प्रदर्शक हेतु खरा है ॥२॥
दोय सहस सत्रह अधिक, विक्रम अषाढ मास ।
शुक्ला छठ गुरुवार को, आरंभ ले सुख आस ॥३॥
दोय सहस अट्ठारह, विक्रम वैशाख मास ।
शुक्ला तेरस शुक्र को, पूरण सहित लास ॥४॥
श्री कृष्ण कृपा कुटीर में, पुष्कर तीरथ माँहिं ।
दादू गिरार्थ प्रकाशिका, पूर्ण पढ़े दुख जाँहिं ॥५॥
इति श्री पूज्य चरण स्वामी धनराम जी के शिष्य स्वामी नारायण दास कृत
श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका टीका सम्पूर्ण ।
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रविवार, 10 जनवरी 2021

= ४४३ =

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*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४४३ - भँगताल
निराकार तेरी आरती,
बलि जाउँ अनन्त भवन१ के राइ ॥टेक॥
सुर नर सब सेवा करैं, 
ब्रह्मा विष्णु महेश ।
देव तुम्हारा भेव न जानै, 
पार न पावै शेष ॥१॥
चँद सूर आरती करैं, 
नमो निरंजन देव ।
धरणि पवन आकाश अराधैं, 
सबै तुम्हारी सेव ॥२॥
सकल भवन सेवा करैं, 
मुनियर सिद्ध समाधि ।
दीन लीन ह्वै रहे सँत जन, 
अविगत के आराधि ॥३॥
जै जै जीवनि राम हमारी, 
भक्ति करैं ल्यौ लाइ ।
निराकार की आरती कीजै, 
दादू बलि बलि जाइ ॥४॥
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अनन्त लोकों१ के राजन् ! निरंजन देव ! आपकी आरती करते हुये मैं आपकी बलिहारी जाता हूं ।
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सुर, नरादि सभी आपकी सेवा करते हैं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वरादि देव आपके रहस्यमय स्वरूप का आदि अन्त नहीं जानते । शेष हजार मुखों से नित्य नूतन नाम - गान करने पर भी आपके नामों का पार नहीं पाते ।
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चन्द्र - सूर्य आपकी आरती करते हैं । पृथ्वी, वायु, आकाश, आपकी उपासना करते हैं तथा सभी महाभूत आपकी सेवा करते हैं । निरंजन देव ! आपको मैं नमस्कार करता हूं ।
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सँपूर्ण भुवन, मुनिवर, समाधि में स्थित सिद्ध भी आपकी सेवा करते हैं । आप मन, इन्द्रियों के अविषय ब्रह्म की आराधना द्वारा सँत - जन दीन भाव से आपके स्वरूप में लयलीन हो रहे हैं ।
.
हे हमारे जीवन रूप राम ! हम आपकी "जय हो, जय हो” इस प्रकार जय ध्वनि करते हुये वृत्ति लगा कर आप की भक्ति करते हैं और आप निराकार की आरती करते हुये बारँबार आपकी बलिहारी जाते हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 9 जनवरी 2021

= ४४२ =

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४४२ - उदीक्षण ताल
अविचल आरती देव तुम्हारी,
जुग जुग जीवन राम हमारी ॥टेक॥
मरण मीच जम काल न लागै,
आवागवन सकल भ्रम भागै ॥१॥
जोनी जीव जनम नहिं आवै,
निर्भय नांव अमर पद पावै ॥२॥
कल्विष१, कश्मल२ बन्धन कापे३,
पार पहूँचे, थिर कर थापै ॥३॥
अनेक उधारे तैं जन तारे,
दादू आरती नरक निवारे ॥४॥
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हे निश्चल निरंजन देव ! आप की आरती हम भक्तों की प्रति युग में जीवन रूप रही है ।
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आप की आरती करने से दु:ख रूप मरण, मृत्यु, यमदूत और काल, जीव के पीछे नहीं लगते । लोकान्तर में जाना - आना रूप चक्कर मिट जाता है ।
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जीव चौरासी लक्ष योनियों में जन्म कर सँसार में नहीं आता, निर्भयता पूर्वक नाम - चिन्तन करता हुआ अमर पद रूप अपने स्वरूप को प्राप्त करता है । 
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आपकी आरती करने से नाना प्रकार के विकार१(कल्विष१) और पाप रूप बन्धन२(कश्मल२) कट३ जाते हैं । साधक आपकी आरती करके सँसार से पार पहुंचे हैं ।
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आरती करने के फल ने उन्हें आप परब्रह्म के स्वरूप में स्थिर करके स्थापन किया है । आपकी आरती करने से आपने अनेक भक्तों का दु:खों से उद्धार करके उन्हें सँसार से पार किया है । आपकी आरती प्राणी को नरकादिक क्लेशों से बचाती है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

= ४४१ =

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४४१ - उदीक्षण ताल
आरती जगजीवन तेरी,
तेरे चरण कवल पर वारी फेरी ॥टेक॥
चित चांवर हेत हरि ढारै,
दीपक ज्ञान हरि ज्योति विचारै ॥१॥
घँटा शब्द अनाहद बाजै,
आनँद आरती गगन गाजै ॥२॥
धूप ध्यान हरि सेती कीजै,
पुहुप प्रीति हरि भांवरि लीजै ॥३॥
सेवा सार आतमा पूजा,
देव निरंजन और न दूजा ॥४॥
भाव भक्ति सौं आरती कीजै,
इहि विधि दादू जुग जुग जीजै ॥५॥
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हे जग - जीवन ! हम आपकी आरती करते हैं और आपके चरण - कमलों पर निछावर होते हैं ।
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शुद्ध चित्त से चिन्तन करना रूप चंवर हरि पर सस्नेह करते हैं । विचार रूप ज्योति वाला ज्ञान - दीपक जलाते हैं ।
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अनाहत नाद रूप घँटा बजाते हैं । आनन्द रूप आरती गाने की ध्वनि – गर्जना हृदयाकाश में हो रही है ।
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और नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्प, माला आपके ऊपर चढ़ा रहे हैं । और ब्रह्म - वाणी रूप दयाल ! हम आपकी बारबार परिक्रमा करते हैं ।
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हरि के आगे जीवात्मा रूप उपासक की सार रूप सेवा पूजा है, निरंजन देव ही उपास्य देव है, अन्य दूसरा कोई नहीं है ।
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इस प्रकार भाव - भक्ति से जो आरती करता है, वह ब्रह्म रूप होकर प्रति युग में जीवित रहता है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 7 जनवरी 2021

= ४४० =

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४४० - *आरती* । त्रिताल
इहि विधि आरती राम की कीजै,
आत्मा अंतर वारणा लीजै ॥टेक॥
तन मन चँदन प्रेम की माला,
अनहद घँटा दीन दयाला ॥१॥
ज्ञान का दीपक पवन की बाती,
देव निरंजन पाँचों पाती ॥२॥
आनँद मँगल भाव की सेवा,
मनसा मंदिर आतम देवा ॥३॥
भक्ति निरँतर मैं बलिहारी,
दादू न जानै सेव तुम्हारी ॥४॥
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४४० - ४४४ में निरंजन राम की आरती की पद्धति बताते हुये आरती कर रहे हैं निरंजन राम की आरती इस प्रकार करनी चाहिए और अन्त:करण के भीतर ही उन पर निछावर होना चाहिए ।
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तन और मन को चन्दन बनाओ, प्रेम मय पुष्पमाला पहनाओ और उन दीनदयालु के आगे अनाहत नाद रूप घँटा बजाओ, ज्ञान - दीपक जलाओ ।
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पँच - प्राण रूप वायु की पाँच बत्ती बनाओ, उन निरंजन देव पर पँच, ज्ञानेन्द्रिय रूप तुलसी - पत्र चढ़ाओ ।
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इस प्रकार आनँद रूप मँगला आरती करो । भाव मय सेवा करो । उन आत्म - स्वरूप निरंजन देव का मंदिर बुद्धि ही है ।
.
हे प्रभो ! किस प्रकार की सेवा आपको प्रिय है, यह आप ही जानते हैं, मैं नहीं जानता, किन्तु मैं मति - मँदिर में निरँतर आपकी भक्ति करते हुये आप पर निछावर होता हूं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 6 जनवरी 2021

= ४३९ =

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.
४३९ - फरोदस्त ताल
राम की राती भई माती, 
लोक वेद विधि निषेध,
भागे सब भ्रम भेद, 
अमृत रस पीवै ॥टेक॥
भागे सब काल झाल, 
छूटे सब जग जँजाल ।
विसरे सब हाल चाल, 
हरि की सुधि पाई ॥१॥
प्राण पवन तहां जाइ, 
अगम निगम मिले आइ,
प्रेम मगन रहे समाइ, 
विलसै वपु नाहीं ॥२॥
परम नूर परम तेज, 
परम पुँज परम सेज,
परम ज्योति परम हेज, 
सुन्दरि सुख पावै ॥३॥
परम पुरुष परम रास, 
परम लाल सुख विलास,
परम मँगल दादू दास, 
पीव सौं मिल खेलै ॥४॥
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हमारी बुद्धि राम की भक्ति में अनुरक्त होकर मस्त हो गई है । अब लोक लाज और वेद के विधि निषेध रूप विहित सकाम कर्म तथा निषिद्ध कर्मों का करना हमने छोड़ दिया है । भ्रम जन्य सभी भेद हमारे हृदय से भाग गये हैं । केवल अभेद चिन्तन रूप अमृत - रस ही हम सदा पान करते हैं ।
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काल की ज्वाला रूप काम - क्रोधादिक सभी आसुरी गुण अन्त:करण से भाग गये हैं । यम - जाल रूप जगत् के कपट पूर्ण सभी व्यवहार छूट गये हैं । सँसारी प्राणियों के वृत्तान्त हम भूल गये हैं और हरि की स्मरण - भक्ति प्राप्त की है ।
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प्राण - वायु सहस्रार में जाकर जहां स्थित होता है, वहां आकर के हम वेद से भी अगम ब्रह्म से मिले हैं । उनके प्रेम में निमग्न होकर वृत्ति द्वारा उन्हीं में समा रहे हैं । शरीराध्यास पूर्वक विषयों का उपभोग नहीं करते ।
.
उन ब्रह्म का रूप और प्रताप उत्कृष्ट है, वे उत्कृष्टता की राशि हैं । उनकी हृदय, शय्या श्रेष्ठ है । उनका स्वरूप प्रकाश अति उत्कृष्ट है । उनसे अत्यँत प्रेम करके हमारी मति सुन्दरी सुख पा रही है ।
.
उन परम प्रिय परम पुरुष स्वामी के साथ मिलकर हम दास, अभेद भावना रूप रास खेलते हुये, परमानन्द का उपभोग कर रहे हैं । इस प्रकार हमारे यहां परम मँगल हो रहा है ।
.
४३६ - ४३९ के ४ पद वाणी रूप मंदिर के कलश हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 4 जनवरी 2021

= ४३८ =

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४३८ - फरोदस्त ताल
गोविन्द पाया मन भावा, 
अमर कीये संग लीये ।
अक्षय अभय दान दीये, 
छाया नहिं माया ॥टेक॥
अगम गगन अगम तूर, 
अगम चँद अगम सूर ।
काल झाल रहे दूर, 
जीव नहीं काया ॥१॥
आदि अंत नहीं कोइ, 
रात दिवस नहीं होइ ।
उदय अस्त नहीं दोइ, 
मन ही मन लाया ॥२॥
अमर गुरु अमर ज्ञान, 
अमर पुरुष अमर ध्यान ।
अमर ब्रह्म अमर थान, 
सहज शून्य आया ॥३॥
अमर नूर अमर बास, 
अमर तेज सुख निवास ।
अमर ज्योति दादू दास, 
सकल भुवन राया ॥४॥
.
मनभावन गोविन्द को हमने प्राप्त कर लिया है । उन्होंने हमें अभेद रूप से अपने संग लेकर हमको अमर कर दिया है । अक्षय आनन्द और अभय पद भी प्रदान किया है । उनके स्वरूप में आभास रूप छाया और माया दोनों ही नहीं है ।
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वे हृदयाकाश से ऊपर तथा अनाहत - नगाड़े की ध्वनि से आगे हैं । चन्द्र - सूर्य के प्रकाश से अगम्य हैं । काल की लहर उनसे दूर ही रहती है । उनमें जीवत्व भाव नहीं है, न वे स्थूलशरीर रूप ही हैं ।
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उनके स्वरूप का आदि अंत किसी प्रकार भी नहीं ज्ञात होता । न उनके पास रात्रि - दिन रूप काल - भेद ही है वो उनके स्वरूप में अज्ञान रूप रात्रि और इन्द्रिय ज्ञान रूप दिन नहीं हैं । उनके पास चन्द्र - सूर्यादि उदय - अस्त नहीं होते व उनके स्वरूप में ज्ञान का उदय - अस्त नहीं होता, वे नित्य ज्ञान स्वरूप हैं । मन के द्वारा उनका चिन्तन करके हमने अपना मन उनमें लगाया है ।
.
उन अमर गुरु देव का ज्ञान अमर करता है तथा उन अमर पुरुष का ध्यान भी अमर करता है । वे अमर ब्रह्म ही देवताओं के आश्रय रूप स्थान हैं । वे विकार शून्य ब्रह्म निर्विकल्प समाधि रूप सहजावस्था में ज्ञान - नेत्रों द्वारा देखने में आये हैं ।
.
उनका स्वरूप, महिमा रूप वासस्थान, प्रताप और प्रकाश अमर है । वे सँपूर्ण भुवनों के राजा हैं । मुझ दास का उन नित्यानन्द स्वरूप में ही निवास है ।
(क्रमशः)

रविवार, 3 जनवरी 2021

= ४३७ =

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४३७ - दीपचन्दी
राम तहां प्रगट रहे भरपूर ।
आत्मा कमल जहां,
परम पुरुष तहां,
झिलमिल झिलमिल नूर ॥टेक॥
चन्द सूर मध्य भाइ,
तहां बसै राम राइ,
गँग जमुन के तीर ।
त्रिवेणी संगम जहां,
निर्मल विमल तहां,
निरख - निरख निज नीर ॥१॥
आत्मा उलट जहां,
तेज पुँज रहे तहां,
सहज समाइ ।
अगम निगम अति,
जहां बसे प्राणपति,
परसि परसि निज आइ ॥२॥
कोमल कुसुम दल,
निराकार ज्योति जल,
वार न पार ।
शून्य सरोवर जहां,
दादू हँसा रहे तहां,
विलसि - विलसि निज सार ॥३॥
.
यों तो राम सर्वत्र परिपूर्ण हैं किन्तु जहां जीवात्मा का अष्टदल - कमल है वहां ध्यानावस्था में प्रकट रूप से भी भासते हैं । वहां उन परम पुरुष का स्वरूप प्रकाश झिलमिल रूप से भासता है ।
.
हे भाई ! इड़ा रूप चन्द्र और पिंगला रूप सूर्य के मध्य की सुषुम्ना चलती है तब वहां अष्टदल कमल पर बसे हुये राजा राम भासते हैं तथा इड़ा - गँगा, पिंगला - यमुना, सुषुम्ना सरस्वती है जहां आज्ञाचक्र में इन तीनों का संगम होता है । उस संगम रूप त्रिवेणी के विमल तट पर निज स्वरूप - निर्मल नीर को बारँबार देख ।
.
जहां प्रकाश राशि आत्म स्वरूप ब्रह्म विशेष रूप से स्थित हैं, वृत्ति को अन्तर्मुख करके वहां ही उनके सहज स्वरूप में वृत्ति लय कर । जो वेद से भी अति अगम है, उस अपनी महिमा में ही प्राणपति ब्रह्म बसते हैं, उनका वृत्ति द्वारा बारँबार चिन्तन रूप स्पर्श करके ही निज स्वरूप में आया जाता है ।
.
कोमल अष्टदल - कमल पुष्प के दल पर दल प्रतिविम्बित ज्योति के समान वार पार सर्वत्र निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । जहां ब्रह्म रूप शून्य सरोवर का साक्षात्कार होता है, वहां ही विश्व के सार निज स्वरूप ब्रह्म के साक्षात्कार जन्य आनन्द का उपभोग करते हुये हम हँस रहते हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 2 जनवरी 2021

= ४३६ =

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४३६ - *परिचय ~ उपदेश* । पँजाबी त्रिताल
तिस घर जाना वे, जहां वे अकल स्वरूप ।
सोइ अब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥टेक॥
.
अकल स्वरूप पीव का, बाह्य बरन न पाइये ।
अखँड मँडल मांहिं रहे, सोई प्रीतम गाइये ॥
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
प्रकट पीव ते पाइये ।
सांई सेती संग साचा, जीवित तिस घर जाइये ॥१॥
.
अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिये ।
शून्य मँडल मांहिं साचा, नैन भर सो देखिये ॥
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार,
सोई प्रकट होई, यह अचँभा पेखिये ।
दयावन्त दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिये ॥२॥
.
अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का,
सोई जन जे पावही ।
दयावन्त दयालु ऐसो, सहजैं आप लखावही ॥
लखै सु लखणहार वे, लखै सोई संग होई,
अगम बैन सुनावही ।
सब दुख भागा रँग लागा, काहे न मँगल गावही ॥३॥
.
अकल स्वरूपी पीव का, कर कैसे करि आँणिये ।
निरन्तर निर्धार आपै, अंतर सोई जाँणिये ।
जाणहुं मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
सुमिर सोई बखानिये ।
श्री रँग सेती रँग लागा, दादू तो सुख मानिये ॥४॥
.
४३६ - ४३९ में साक्षात्कार सम्बन्धी उपदेश कर रहे हैं - हे साधक ! उस निर्विकल्प समाधि रूप घर में जाना चाहिये, जिसमें कला विभाग से रहित वे निरंजन ब्रह्म प्राप्त होते हैं । अब सब देवताओं के राजा उसी ब्रह्म का ध्यान कर ॥टेक॥
.
उस निराकार स्वरूप प्रियतम के भेष, रँग, जाति नहीं मिलते । जो अपनी महिमा रूप अखँड मँडल में रहता हैं, उसी प्रियतम ब्रह्म का नाम गान कर और यश गान करते हुये अन्त:करण से विचार कर, जो उस सार स्वरूप ब्रह्म का अन्त:करण से विचार करते हैं वे उसे प्रत्यक्ष आत्म रूप से प्राप्त करते हैं । निर्विकल्प समाधि - घर में जाकर जीवितावस्था में ही उस परब्रह्म के साथ अभेद रूप सच्चा संग प्राप्त कर ॥१॥
.
निरवयव स्वरूप प्रियतम ब्रह्म का किसी भी प्रकार साक्षात्कार कर, वह सत्य ब्रह्म सहस्रार रूप शून्य मँडल में स्थित भासता है, उसे ज्ञान - नेत्रों से इच्छा भर के देखो । उस विश्व के सार को ज्ञान - नेत्रों से बारम्बार देखो । वहां यह आश्चर्य देखने में आता है कि - जो निराकार है, वही ब्रह्म प्रकट हो रहा है । वह ऐसा दया - गुण से युक्त दयालु है कि रँग रूप रहित होने पर भी भक्तों पर कृपा करने के लिये अति विशेष ओंकारवर्ण रूप से वो भक्त भावनानुसार रँग - रूप से भासता रहता हैं ॥२॥
.
जो जीव का प्राणाधार हैं, उनका निरँग प्रियतम ब्रह्म के स्वरूप को जो उसका भक्त होता है, वही प्राप्त करता है, वह ऐसा दया गुण सम्पन्न दयालु है कि भक्त को अनायास ही अपना स्वरूप दिखा देता है । सुन्दर लक्षणों वाला भक्त ही देखता है । जो देखता है, वह अभेद रूप से उसके संग ही हो जाता है और उस अगम ब्रह्म सम्बन्धी ही वचन सुनाता है । उसके सब दु:ख नष्ट हो जाते हैं, ब्रह्म का अभेद भाव रूप अमिट रँग लग जाता है फिर वह क्यों नहीं ब्रह्म सम्बन्धी मँगल गीत भावेगा ? ॥३॥
.
उस कला विभाग रहित प्रियतम ब्रह्म के स्वरूप का कृपारूप हाथ किसी भी प्रकार साधन करके पकड़ना चाहिये। अविचल ब्रह्म का अपने आत्म स्वरूप से अभेद निर्णय करके उसी अद्वैत निष्ठा को भीतर रखना चाहिये । अन्त:करण से विचार करके उसे जानो, अन्त:करण में विचार करने से वही विश्व का सार ज्ञात होगा । उसी का स्मरण करो, उसी का कथन करो । इस प्रकार यदि परब्रह्म रूप श्री रँग से तुम्हारा प्रेम लग जाय तभी तुमको सुख मानना चाहिए । इस स्थिति से पूर्व तो विरह पूर्वक निरन्तर हरि चिन्तन करते रहना चाहिये ॥४॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

= ४३५ =

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.
४३५ - त्रिताल
ए ! प्रेम भक्ति बिन रह्यो न जाई,
परगट दर्शन देहु अघाई ॥टेक॥
तालाबेली तलफै मांहीं,
तुम बिन राम जियरे जक१ नांहीं ॥१॥
निशिवासर मन रहे उदासा,
मैं जन व्याकुल सास उसासा ॥२॥
एकमेक रस होइ न आवै,
तातैं प्राण बहुत दुख पावै ॥३॥
अँग संग मिल यहु सुख दीजै,
दादू राम रसायन पीजै ॥४॥
.
हे प्रभो ! आपकी प्रेमाभक्ति बिना मुझसे नहीं रहा जाता और आपके दर्शन न होने से इस प्रेमाभक्ति में दु:ख होता है, अत: आप हृदय में प्रकट होकर दर्शन दें, जिससे मैं तृप्त होकर सुखी हो जाऊं ।
.
भीतर मेरा मन व्याकुलता से तड़फ रहा है । राम ! आपके बिना हृदय को शाँति१ नहीं है ।
.
मेरा मन रात्रि - दिन खिन्न रहता है । मैं आपका भक्त श्वास २ प्रति व्याकुल होता रहता हूं ।
.
आपके स्वरूप में अभेद होकर अद्वैतानन्द - रस नहीं मिल रहा है, इससे मन बहुत दु:ख पा रहा है ।
.
आप मेरे आत्म रूप अँग के साथ मिलकर इस अभेद स्थिति का सुख दीजिये, जिससे मैं एकत्व चिन्तन रूप राम - रसायन पान करके मस्त रहूं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

= ४३४ =

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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
४३४ - *विनती* । त्रिताल
गोविन्द के चरणों ही ल्यौ लाऊं ।
जैसे चातक वन में बोल ह्वै, पीव पीव कर ध्याऊं ॥टेक॥
सुरजन मेरी सुनहु वीनती, मैं बलि तेरे जाऊं ।
विपति हमारी तोहि सुनाऊं, दे दर्शन क्यों हिं पाऊं ॥१॥
जात दुख सुख उपजत तन को, तुम शरणागति आऊं ।
दादू को दया कर दीजै, नाँउँ तुम्हारो गाऊं ॥२॥
.
४३४ - ४३५ में दर्शनार्थ विनय कर रहे हैं - गोविन्द के ही चरणों में वृत्ति लगाता हूं । जैसे चातक पक्षी वन में स्वाति बिन्दु के लिये पीव २ बोलता है, वैसे ही प्रियतम २ करते हुये उन प्रभु का ध्यान करता हूं ।
.
हे सुर - गणों के स्वामिन् ! मेरी विनय सुनिये, मैं आपकी बलिहारी जाता हूं और अपनी विपत्ति आपको सुनाता हूं । आप मुझे दर्शन दीजिये । मैं आपको कैसे प्राप्त कर सकूंगा, वह उपाय भी बताइये ?
.
जो आपकी शरण आते हैं, उनके दु:ख चले जाते हैं और शरीर में सुख उत्पन्न होता है । मैं भी आपकी शरण आया हूं, आपका नाम गान करता हूं, मुझे भी दया करके दर्शन द्वारा सुख प्रदान करिये ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

= ४३३ =

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*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
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.
४३३ - *हितोपदेश* । चौताल
मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजै ।
एक अँग सदा संग, सहजैं रस पीजै ॥टेक॥
सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं ।
अंतर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं ॥१॥
हिरदै सुधि विमल बुधि, पूरण परकासै ।
रसना निज नाम निरख, अंतर गति१ वासै ॥२॥
आत्म मति पूरण गति, प्रेम भगति राता ।
मगन गलित अरस परस, दादू रस माता ॥३॥
.
हितकर उपदेश कर रहे हैं - बुद्धि, मन, शब्द, वृत्ति, पँच प्राण और पँच ज्ञानेन्द्रियों को स्थिर करके सहजावस्था द्वारा सदा अद्वैत ब्रह्म स्वरूप के अभेद रूप संग में रह कर ब्रह्मानन्द - रस का पान करो ।
.
जो अहँकार को भूलकर सँपूर्ण मायिक प्रपँच से रहित अपने मूल ब्रह्म को उपास्य रूप से ग्रहण करता है और निर्मल प्रीति से वृत्ति हृदयस्थ आत्मा में ही रखता है, उसका मन अद्वैत ब्रह्म चिन्तन से ही सँतोष मानता है ।
.
उसके शुद्ध हृदय में और विमल बुद्धि में पूर्ण ब्रह्म का प्रकाश प्रकट होता है, जिव्हा पर सत्य राम आदि निज नाम रहते हैं । उक्त साधना द्वारा स्वस्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करके अन्तर्मुख वृत्ति१ द्वारा ब्रह्म में ही बसता है ।
.
आत्म चिन्तन में ही बुद्धि लगी रहने से उसका गमन पूर्ण ब्रह्म में ही होता है और साधक प्रेमाभक्ति में अनुरक्त रहता है, स्वरूप चिन्तन में निमग्न होने से अहँकार गल जाता है और ब्रह्म से अरस - परस अभेद होकर अद्वैत - रस में मस्त रहता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

= ४३२ =

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*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
४३२ - दीपचन्दी
डरिये रे डरिये, देख देख पग धरिये ।
तारे तरिये मारे मरिये, 
तातैं गर्व न करिये रे, डरिये ॥टेक॥
देवै लेवै समर्थ दाता, सब कुछ छाजै रे ।
तारै मारै गर्व निवारै, बैठा गाजै रे ॥१॥
राखैं रहिये बाहैं बहिये, अनत न लहिये रे ।
भानैं घड़ै संवारैं आपै, ऐसा कहिये रे ॥२॥
निकट बुलावै दूर पठावै, सब बन आवै रे ।
पाके काचे काचे पाके, ज्यों मन भावै रे ॥३॥
पावक पाणी पाणी पावक, कर दिखलावै रे ।
लोहा कंचन कंचन लोहा, कहि समझावै रे ॥४॥
शशिहर सूर सूर तैं शशिहर, परगट खेलै रे ।
धरती अम्बर अम्बर धरती, दादू मेलै रे ॥५॥
.
पाप कर्म और परमात्मा से डरते रहो, पृथ्वी को देख २ कर पैर धरो वो पुन: २ विचार करके शुभ कर्मों में वृत्ति लगाओ । ईश्वर उद्धार करे तब ही प्राणी का उद्धार होता है और वे मारें तो मरण होता है । इसीलिये गर्व न करके ईश्वर से डरते रहना चाहिए ।
.
वे प्रभु उदार और तारने - मारने तथा गर्व नष्ट करने में समर्थ हैं, सदा स्थिर बैठे गर्जना करते हैं । प्राणियों की भावना ग्रहण करते हैं तथा कर्मानुसार फल देते हैं । उनको सभी कुछ शोभा देता है ।
.
उनके रखने से प्राणी स्थिर रहता है, चलाने से चलता है । वे स्वयँ ही सब को नष्ट करते हैं, बनाते हैं और सुधारते हैं । सँत और शास्त्र उनके विषय में ऐसा ही कहते हैं । अत: अन्य को उपास्य रूप से ग्रहण न करो ।
.
वे समीप बुलाते हैं, दूर भेज देते हैं । उनके द्वारा सभी कुछ होता है ।
.
यदि उनके मन को अच्छा लगे तो वे पक्के को कच्चा और कच्चे को पक्का कर देते हैं । अग्नि को जल, जल को अग्नि, लोहे को सुवर्ण, सुवर्ण को लोहा करके दिखा देते हैं । ऐसा कह - कह कर प्रभु की समर्थता समझा रहे हैं ।
.
वे चन्द्र से सूर्य, सूर्य से चन्द्र बना कर प्रकट रूप से उनके साथ खेल सकते हैं । उन्होंने पृथ्वी को आकाश में और आकाश को पृथ्वी पर अधर धर रखा है, उसकी लीला अपार है ।
(क्रमशः)

रविवार, 27 दिसंबर 2020

= ४३१ =

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*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
४३१ - भयभीत भयानक । दीपचन्दी
डरिये रे डरिये, परमेश्वर तैं डरिये रे ।
लेखा लेवे, भर भर देवै, 
तातैं बुरा न करिये रे, डरिये ॥टेक॥
साचा लीजै, साचा दीजै, सांचा सौदा कीजै रे ।
साचा राखी, झूठा नाखी, विष ना पीजी रे ॥१॥
निर्मल गहिये, निर्मल रहिये, निर्मल कहिये रे ।
निर्मल लीजै, निर्मल दीजी, अनत न बहिये रे ॥२॥
साह पठाया, बनिजन आया, जनि डहकावै रे ।
झूठ न भावै, फेरि पठावै, किया पावै रे ॥३॥
पँथ दुहेला, जाइ अकेला, भार न लीजी रे ।
दादू मेला होइ सुहेला, सो कुछ कीजी रे ॥४॥
.
४३१ - ४३२ में कह रहे हैं - भयानक कर्मों से तथा परमेश्वर से डरते रहना चाहिये, हम बारम्बार कहते हैं - हृदय में ईश्वर का भय रख कर ही जीवन यापन करो, क्योंकि - वे प्रभु जीवन का हिसाब लेते हैं और कर्मों के अनुसार ही अन्त:करण में भावी जन्म का विधान तथा सँस्कार भर कर जन्म प्रदान करते हैं । इसलिये बुरे कर्म न करो ।
.
सत्य को हृदय में रखकर, वस्तु लो और दो, सत्य का ही व्यापार करो । सत्य प्रभु का ही चिन्तन हृदय में रक्खो, मिथ्या का चिन्तन त्यागो । विषय - विष का पान मत करो ।
.
शुद्ध ब्रह्म को ही उपास्य रूप से ग्रहण करो, निर्विकार रहो, निर्मल ब्रह्म का नाम उच्चारण करो, शुद्ध ब्रह्म सम्बन्धी उपदेश लो और दो । ब्रह्म - चिन्तन से भिन्न विषय - वासनादि में वृत्ति मत जाने दो ।
.
प्रभु ने तुम्हें भेजा है, तुम सत्य का व्यापार करने आये हो, विषयों से बहको मत । प्रभु को मिथ्या विषयों का व्यापार अच्छा नहीं लगता । यदि तुम विषय - व्यापार में ही जीवन व्यतीत करोगे तो प्रभु तुम्हें फिर चौरासी में भेजेंगे और तुम अपने किये कर्मों का फल पाओगे ।
.
प्रभु प्राप्ति का मार्ग अति कठिन है, उसमें एकाकी जाना पड़ता है । अत: निषिद्ध तथा शुभ सकाम कार्मों का भार मत उठाओ, जो कुछ करो वह निष्काम भाव से करो और वैसा ही विचार करो, जिससे आत्मा और ब्रह्म का अभेद रूप मिलन सुगम हो ।
(क्रमशः)

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

= ४३० =

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४३० - (गुजराती) *काल चेतावनी* । प्रतिताल
काल काया गढ़ भेलसी, 
छीजे दशों दुवारो रे ।
देखतड़ाँ ते लूटिये, 
होसी हाहाकारो रे ॥टेक॥
नाइक नगर न मीलसी, 
एकलड़ो ते जाई रे ।
संग न साथी कोई न आसी, 
तहं को जाणे किम थाई रे ॥१॥
सत जत साधो माहरा भाईड़ा, 
काँई सुकृत लीजे सारो रे ।
मारग विषम चालिबो, 
काँई लीजे प्राण अधारो रे ॥२॥
जिमि नीर निवाणा१ ठाहरे, 
तिमि साजी बांधो पालो रे ।
समर्थ सोई सेविये, 
तो काया न लागे कालो रे ॥३॥
दादू मन घर आँणिये, 
तो निहचल थिर थाये रे ।
प्राणी ने पूरो मिलो, 
तो काया न मेल्ही जाये रे ॥४॥
.
काल से सावधान कर रहे हैं - काल काया - किले को नष्ट करेगा । दो नेत्र, दो श्रवण, दो नाक, मल - मूत्रेन्द्रियां, मुख और ब्रह्म - रँध्र, ये दशों द्वार क्षीण होंगे । देखते २ ही आयु - धन को काल लूट ले जायगा तब हाहाकार होगा ।
.
काया नगर के स्वामी जीवात्मा को भी नगर में न रहने देगा, वह कर्मानुसार अकेला ही परलोक को जायगा । परलोक में उसके साथ कोई भी उसका साथी बन कर न जायगा । वहां कौन जानता है क्या होगा ?
.
हे मेरे भाइयो ! सत्य तथा ब्रह्मचर्य पूर्वक कुछ तो सुकृत - सार रूप साधन करो । कठिन मार्ग में चलना है, कुछ प्राणों का आश्रय अवश्य अपनाओ ।
.
जैसे नीची - भूमि१ में जल ठहरता है, वैसे ही तुम भी सँयमादि साधन सज कर भजन का बाँध बाँधो तो मन रूप जल ठहरेगा । फिर उस समर्थ प्रभु की भक्ति करोगे, तब काया के काल न लगेगा अर्थात् सूक्ष्म शरीर को काल पकड़ कर न ले जा सकेगा ।
.
यदि मन को स्थिर करोगे तो वह निश्चल ब्रह्म में स्थिर हो जायगा । प्राणी को पूर्ण ब्रह्म मिलने पर उसका सूक्ष्म शरीर सँसार में नहीं रहता । जैसे उसकी आत्मा ब्रह्म में लय हो जाती है, वैसे ही सूक्ष्म शरीर के इन्द्रियादि भी अपने २ कारण में मिल जाते हैं । ("सँत जन साधो” पाठान्तर भी है ।)
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

= ४२९ =

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.
४२९ - *उपदेश चेतावनी* । प्रति ताल
https://youtu.be/uROTgu0Ez64
.
जियरा ! राम भजन कर लीजै ।
साहिब लेखा मांगेगा रे, उत्तर कैसै दीजै ॥टेक॥
आगै जाइ पछतावन लागो, पल पल यहु तन छीजै ।
तातैं जिय समझाइ कहूं रे, सुकृत अब तैं कीजै ॥१॥
राम जपत जम काल न लागै, संग रहें जन जीजे ।
दादू दास भजन कर लीजै, हरिजी की रास रमीजै ॥२॥
.
उपदेश द्वारा सावधान कर रहे हैं - अरे मन ! शरीर के ठीक रहते २ ही राम का भजन कर ले, फिर न होगा । जब प्रभु तेरे से जीवन का हिसाब मांगेंगे तब बिना भजन किये उन्हें कैसे उत्तर देगा ?
.
कारण - तू गर्भ में उनके आगे भजन करने की प्रतिज्ञा करके आया था । यह शरीर क्षण २ में क्षीण हो रहा है, आगे वृद्धावस्था में जाकर तू पश्चात्ताप करने लगेगा, इसीलिये हे मन ! तुझे समझाकर कह रहा हूं, तू अभी से भजनादि सुकृत कर ले ।
.
राम - नाम जपने से यम और काम का जोर जापक पर नहीं लगता । भक्त भगवान् के साथ अभेद भाव से रह कर जीवित रहता है । मेरी बात मान कर भजन द्वारा उन प्रभु को प्राप्त कर लो । उन हरि की शरण में रह कर उनके साथ अभेद स्थिति का आनन्दानुभव रूप रास खेल ।
(क्रमशः)

बुधवार, 23 दिसंबर 2020

= ४२८ =

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.
४२८ - *कर्ता कीर्ति* । त्रिताल
.
काइमाँ१ ! कीर्ति करूँली रे, 
तूँ मोटो दातार ।
सब तैं सिरजीला साहिबजी, 
तूँ मोटो कर्तार ॥टेक॥
चौदह भुवन भानै घड़ै, 
घड़त न लागे बार ।
थापै उथपै तूँ धणी, 
धन्य धन्य सिरजनहार ॥१॥
धरती अम्बर तैं धर्या, 
पाणी पवन अपार ।
चँद सूर दीपक रच्या, 
रैन दिवस विस्तार ॥२॥
ब्रह्मा शँकर तैं किया, 
विष्णु दिया अवतार ।
सुर नर साधू सिरजिया, 
कर ले जीव विचार ॥३॥
आप निरंजन ह्वै रह्या, 
काइमां कौतिकहार ।
दादू निर्गुण गुण कहै, 
जाऊंली हौं बलिहार ॥४॥
.
ईश्वर का यश गान कर रहे हैं - हे अचल१ परमेश्वर ! मैं आपका यश गान करूँगा, आप सबसे महान् दाता हैं । हे प्रभो ! सब सँसार आपने ही रचा है, आप ही महान् और सँसार के कर्ता हैं ।
.
आप चौदह भुवनों को बना कर नष्ट कर देते हैं और पुन: बनाने में आपको कुछ भी देर नहीं लगती । आप ही सबको स्थापित करने वाले और उखाड़ने वाले स्वामी हैं । सृष्टि - कर्ता ! आपको धन्य है, धन्य है ।
.
आपने ही पृथ्वी और आकाश को बना कर रक्खा है । हे अपार ! आपने
ही जल, वायु, चन्द्र, सूर्य, दीपक और रात्रि - दिनादि सँसार का विस्तार रचा है । ब्रह्मा तथा शँकर आपने ही बनाये हैं ।
.
सँसार की रक्षा के लिये आपने ही विष्णु तथा अन्य अवतार प्रकट कर दिये हैं । देवता, नर और सँत आपने ही उत्पन्न किये हैं । अरे जीव ! उन प्रभु के गुण और स्वरूप सम्बन्धी विचार करके उन्हें प्राप्त कर ।
.
वे प्रभु सत्ता मात्र से सँसार रूप खेल करने वाले हैं, स्वयँ तो माया रहित होकर अचल हो रहे हैं । मैं उन्हीं निर्गुण प्रभु के गुण कह रहा हूं और उन्हीं की बलिहारी जाऊंगा ।
(क्रमशः)

= ४२७ =

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.
.
साजनियाँ ! नेह न तोरी रे ।
जे हम तोरैं महा अपराधी, 
तो तूँ जोरी रे ॥टेक॥
प्रेम बिना रस फीका लागै, 
मीठा मधुर न होई ।
सकल शिरोमणि सब तैं नीका, 
कड़वा लागै सोई ॥१॥
जब लग प्रीति१ प्रेम रस नाँहीं, 
तृषा बिना जल ऐसा ।
सब तैं सुन्दर एक अमीरस, 
होइ हलाहल जैसा ॥२॥
सुन्दरि सांई खरा पियारा, 
नेह नवा नित होवै ।
दादू मेरा तब मन मानै, 
सेज सदा सुख सोवै ॥३॥
.
अखँड स्नेहार्थ विनय कर रहे हैं - हे सज्जन परमेश्वर ! आप हमारे से स्नेह न तोड़ना, यदि हम महा अपराधी होने से तोड़ने लगें तो भी आप उसे जोड़ने की ही कृपा करना ।
.
जैसे प्रेम बिना मधुर रस भी मधुर नहीं लगता, फीका लगता है, वैसे ही प्रेम बिना जो सर्व शिरोमणि और सबसे अच्छे प्रभु हैं, वे भी कटु लगते हैं, प्रिय नहीं लगते ।
.
जैसे प्यास बिना जल से प्रसन्नता नहीं होती, वैसे ही जब तक प्रेम नहीं होता तब तक रस से प्रसन्नता१ नहीं होती, प्रेम बिना सबसे सुन्दर अमृत - रस भी महा विष जैसा भासता है, वैसे ही प्रेम बिना अद्वैत ब्रह्म भी प्रिय नहीं होता ।
.
मुझ सुन्दरी को मेरे स्वामी परमेश्वर अत्यधिक प्रिय हैं और उनमें मेरा स्नेह नित्य नूतन होता जाता है, किन्तु मेरा मन तब सँतोष मानेगा जब वे मेरे प्रभु मेरी हृदय - शय्या पर सदा के लिये सुख - पूर्वक शयन करेंगे ।
(क्रमशः)
 

रविवार, 20 दिसंबर 2020

= ४२६ =

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.
४२६ - चौताल
विषम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी ।
भक्ति भाव बेग आइ, भीड़ भँजन स्वामी ॥टेक॥
अंत अधार सँत सुधार, सुन्दर सुखदाई ।
काम क्रोध काल ग्रसत, प्रकटो हरि आई ॥१॥
पूरण प्रतिपाल कहिये, सुमिरे तैं आवै ।
भरम कर्म मोह लागे, काहे न छुड़ावै ॥२॥
दीनदयालु होहु कृपालु, अंतरयामी कहिये ।
एक जीव अनेक लागे, कैसैं दुख सहिये ॥३॥
पावन पीव चरण शरण, युग युग तैं तारे ।
अनाथ नाथ दादू के, हरि जी हमारे ॥४॥
.
कठिन समय में अति दयालु और अति प्रसिद्ध हरि ही आश्रय देते हैं । वे विपद् – विनाशक स्वामी, भक्ति - भाव युक्त भक्त के पास शीघ्र ही आ जाते हैं ।
.
वे ही अन्तिम आश्रय हैं और सँतों के कार्य सुधार कर सुन्दर सुख प्रदान करते हैं । हे हरे ! काम क्रोध काल हमें खा रहा है, आप हृदय में आकर प्रकट रूप से दर्शन दीजिये ।
.
आपको सँतशास्त्र पूर्ण रूप से भक्तों के रक्षक कहते हैं और आप भी स्मरण करने पर भक्तों के पास हृदयकमल में आते हैं । भ्रम, नाना प्रकार के कर्म और मोहादि मेरे पीछे लगे हैं, आप इनसे मुझे क्यों नहीं छुड़ाते ?
.
आप तो अन्तर्यामी और दीनदयालु कहलाते हैं, कृपा करिये । एक जीव के पीछे अनेक कामादिक लग रहे हैं, इनका क्लेश कैसे सहा जाय ?
.
हे पावन प्रियतम ! मैं आपके चरणों की शरण हूं । शरणागतों का आपने युग २ में उद्धार किया है, अत: अनाथों के नाथ हमारे हरिजी ! मेरा भी उद्धार करिये ।
(क्रमशः)

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

= ४२५ =

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.
४२५ - *करुणा विनती* । त्रिताल
जनि१ छाडै राम, जनि छाडै, 
हमहिं विसार, जनि छाडै ।
जीव जात न लागै बार, जनि छाड़ै ॥टेक॥
माता क्यों बालक तजै, सुत अपराधी होइ ।
कबहुं न छाडै जीव तैं, जनि दुख पावै सोइ ॥१॥
ठाकुर दीनदयाल है, सेवक सदा अचेत ।
गुण औगुण हरि ना गिणैं, अंतर तासौं हेत ॥२॥
अपराधी सुत सेवका, तुम हो दीन दयाल ।
हम तैं औगुण होत हैं, तुम पूरण प्रतिपाल ॥३॥
जब मोहन प्राणी चलै, तब देही किहिं काम ।
तुम जानत दादू का कहै, अब जनि छाड़ै राम ॥४॥
.
४२५ - ४२६ में विरह दु:ख पूर्वक विनय कर रहे हैं - हे राम जी ! हम बारम्बार विनय कर रहे हैं, आप हमको भूलकर भी न१ त्यागिये । जीव को शरीर से जाते देर नहीं लगती, न जाने वह कब चला जाय, इसलिये हमें कभी भी न त्यागिये ।
.
पुत्र दोषी भी हो तो भी माता, बालक पुत्र को कैसे तजेगी ? वह सुत को अपने मन से कभी भी नहीं त्यागती और सुत दु:ख न पावे ऐसा ही व्यवहार करती है ।
.
वैसे ही आप स्वामी तो दीनदयालु हैं, सेवक की रक्षा के लिये सदा सचेत रहते
हैं । हे हरे ! आप शरीर के सुरूप कुरूपादि गुण अवगुण तो नहीं देखते, जो क्त के भीतर हृदय का भाव है, उसी से प्रेम करते हो ।
.
हम तो आपके अपराधी सुत सेवक हैं, आप दीन दयालु हो । हमारे से तो अवगुण ही होते हैं किन्तु आप तो फिर भी पूर्ण रूप से रक्षा करते हैं ।
.
हे मोहन ! जब जीव चला जाय तब शरीर किस काम का है ? यह सब आप जानते ही हैं, मैं आपको क्या कहूँ ? मेरी तो यही विनय है कि आप मुझे न छोड़ें ।
(क्रमशः)