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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ अबिहड़ कौ अंग ३७ - ६/११)*
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*दादू अबिहड़ आप है, अमर उपावनहार ।*
*अविनाशी आपै रहै, बिनसै सब संसार ॥६॥*
यह संसार उत्पन्न विनाशशील है । केवल परमात्मा ही अविनाशी हैं । अन्य सब कुछ क्षणभंगुर हैं । जिसने यह सारा जगत् बनाया वह ही केवल अजर अमर हैं । अन्य तो सब क्षणभंगुर हैं । क्योंकि श्रुति ब्रह्म को ही नित्य अविनाशी बतलाती हैं ।
यह आत्मा ही अविनाशी है । जिससे सारा संसार बना है और सारे संसार में व्याप्त है । अतः उस अव्यय ब्रह्म का नाश कैसे कौन कर सकता है ।
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*दादू अबिहड़ आप है, साचा सिरजनहार ।*
*आदि अंत बिहड़ै नहीं, बिनसै सब आकार ॥७॥*
जिसने सृष्टि को बनाया वह परमात्मा अविनाशी सत्य है उसका नाश नहीं होता । क्योंकि वह अच्छेद्य है । अदाह्य अक्लेद्य अशोष्य नित्य सर्वगत स्थाणु अचल सनातन हैं ।
इनका भाव यह है कि- एक दूसरे के विनाश करने वाले पदार्थ इस आत्मा का नाश नहीं कर सकते इसलिये नित्य हैं । नित्य होने से सर्वगत हैं और सर्वगत होने से यह स्थाणु हैं । अर्थात् स्थाणु की तरह स्थिर हैं । स्थिर होने से अचल और सनातन हैं । अर्थात् किसी कारण से यह नहीं बना है इसलिये चिरन्तन हैं ।
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*दादू अबिहड़ आप है, अविचल रह्या समाइ ।*
*निहचल रमता राम है, जो दीसै सो जाइ ॥८॥*
जो जो दृष्टिगोचर है वह सब मिथ्या है । सत्य तो केवल राम ही हैं जो सब भूतों में रम रहा है । वह राम ही सब भूतों में अविचल भाव से स्थित हैं । इसलिये स्वयं ब्रह्म ही सबके संगी हो सकते हैं । श्रुति में कहा है कि यह आत्मा सब पापों से रहित हैं । जो साक्षात् अपरोक्ष है जो कभी परोक्ष नहीं होता । जो भूख प्यास आदि धर्मों से रहित हैं जिसका वेद भी निषेध रूप से ही वर्णन करता है । जो विज्ञान आनन्द सत्य अनन्त रूप हैं ।
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*दादू अबिहड़ आप है, कबहूँ बिहड़े नांहि ।*
*घटै बधै नहीं एक रस, सब उपज खपै उस मांहि ॥९॥*
*अबिहड़ अंग बिहड़ै नहीं, अपलट पलट न जाइ ।*
*दादू अघट एक रस, सब में रह्या समाइ ॥१०॥*
यह आत्मा अविनाशी है, अतः न पैदा होता और न नष्ट होता है ।
गीता में लिखा है कि- जो विद्वान् इस आत्मा को अविनाशी, अज, अव्यय रूप से जानता है, वह स्वयं किसी को न मारता, न मरवाता हैं । क्योंकि आत्मा में षड्भाव विकारों का तथा लौकिक वस्तुओं के विकारों का अत्यन्ताभाव है ।
इसी अभिप्राय से महर्षि श्रीदादूजी महाराज लिख रहे हैं कि “घटे बढे नहीं” एकरस ब्रह्म की एकरसता ही ह्लासाभाव तथा वृद्ध्य भाव में कारण हैं । “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते:” इस श्रुति प्रमाण से ब्रह्म में सकल जगत् की उत्पत्ति-प्रलय हो रहा हैं । परन्तु वास्तविक दृष्टि से न कुछ पैदा होता और न लय होता, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त कोई वस्तु है ही नहीं । भ्रान्ति से जो ब्रह्म में कल्पित भेद प्रतीत हो रहा है वह भी जगत् का मिथ्यात्व ज्ञान कराने के लिये ही हैं । अतः एक ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही सब अवस्थाओं में साक्षी रूप से भासित हो रहा है ।
सर्ववेदान्तसंग्रहसार में लिखा है कि- “जो वस्तु पैदा होती है, वह ही बढती और नष्ट होती है । जो नित्य विभु आत्मा है । उसका जब जन्म ही नहीं तो उसमें घटना-बढना कैसे हो सकता है ।
यह देह पैदा होता है अतः इसका कर्मयोग से भी नाश, वृद्धि, अपक्षय आदि विकार होते रहते हैं । तू तो इन सब अवस्थाओं में ज्ञानस्वरूप है तथा साक्षीरूप से भास् रहा हैं ।
ब्रह्म तो सदा अद्वितीय विकल्पशून्य निरुपाधिक निर्मल निरन्तर आनन्दघन इच्छारहित निराधार केवल एक है ।
अतः उसमें कोई भेद नहीं, वह इन्द्रियातीत मन वाणी बुद्धि से भी अगम्य हैं । हे साधक ! तुम सुनो, तुम भी इन सबके साक्षी ज्ञान निर्मल ब्रह्म तत्त्व ही हो ।
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*जेते गुण व्यापैं जीव को, तेते तैं तजे रे मन ।*
*साहिब अपणे कारणैं, भलो निबाह्यो प्रण ॥११॥*
॥ इति अबिहड़ कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥३७॥
श्री दादूजी महाराज अन्तकाल में अपने मन की प्रशंसा कर रहे हैं कि- हे मन ! मेरे अन्तःकरण में जितने भी मायिक गुण दोष पैदा हुए, उन सब को तू ने अपने शौर्य और धैर्य से त्याग दिये । फिर से कभी पैदा न हो जाय, इसके लिये सदा ही तू ज्ञानरुपी तलवार लेकर सावधानी से उनके साथ युद्ध करता हुआ उन सब को मूलसहित नष्ट करके स्वयं ब्रह्मरूप हो गया ।
मैं अब अपने शरीर का अन्तकाल देख रहा हूं । अतः तेरे को धन्यवाद देता हूं कि तूने अपने प्रण का पालन सही ढंग से किया और जिससे स्वस्वरूप(सत्यराम) हो गया । ब्रह्मरूप हो गया और तेरी जीत हो गई ।
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॥ इति श्रीदादू पंथानुयायी सन्त-वाणी-मर्मज्ञ महामंडलेश्वर पं. आत्माराम स्वामी व्याकरण-वेदान्ताचार्य कृत भावार्थदीपिका में अबिहड़ के अंग का भाषानुवाद समाप्त ॥३७॥
दादू दीन दयाल की, वाणी बिसवा बीस ।
तिनकूं शोधि विचारि के, अंग धरे सैंतीस ॥
॥ इति श्री स्वामी दादूदयाल जी की वाणी का साखी भाग सम्पूर्ण समाप्त ॥
॥ साखी योग २५२७ ॥
(क्रमशः)