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सोमवार, 3 मई 2021

अबिहड़ कौ अंग ३७ - ६/११

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ अबिहड़ कौ अंग ३७ - ६/११)*
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*दादू अबिहड़ आप है, अमर उपावनहार ।*
*अविनाशी आपै रहै, बिनसै सब संसार ॥६॥*
यह संसार उत्पन्न विनाशशील है । केवल परमात्मा ही अविनाशी हैं । अन्य सब कुछ क्षणभंगुर हैं । जिसने यह सारा जगत् बनाया वह ही केवल अजर अमर हैं । अन्य तो सब क्षणभंगुर हैं । क्योंकि श्रुति ब्रह्म को ही नित्य अविनाशी बतलाती हैं ।
यह आत्मा ही अविनाशी है । जिससे सारा संसार बना है और सारे संसार में व्याप्त है । अतः उस अव्यय ब्रह्म का नाश कैसे कौन कर सकता है ।
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*दादू अबिहड़ आप है, साचा सिरजनहार ।*
*आदि अंत बिहड़ै नहीं, बिनसै सब आकार ॥७॥*
जिसने सृष्टि को बनाया वह परमात्मा अविनाशी सत्य है उसका नाश नहीं होता । क्योंकि वह अच्छेद्य है । अदाह्य अक्लेद्य अशोष्य नित्य सर्वगत स्थाणु अचल सनातन हैं ।
इनका भाव यह है कि- एक दूसरे के विनाश करने वाले पदार्थ इस आत्मा का नाश नहीं कर सकते इसलिये नित्य हैं । नित्य होने से सर्वगत हैं और सर्वगत होने से यह स्थाणु हैं । अर्थात् स्थाणु की तरह स्थिर हैं । स्थिर होने से अचल और सनातन हैं । अर्थात् किसी कारण से यह नहीं बना है इसलिये चिरन्तन हैं ।
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*दादू अबिहड़ आप है, अविचल रह्या समाइ ।*
*निहचल रमता राम है, जो दीसै सो जाइ ॥८॥*
जो जो दृष्टिगोचर है वह सब मिथ्या है । सत्य तो केवल राम ही हैं जो सब भूतों में रम रहा है । वह राम ही सब भूतों में अविचल भाव से स्थित हैं । इसलिये स्वयं ब्रह्म ही सबके संगी हो सकते हैं । श्रुति में कहा है कि यह आत्मा सब पापों से रहित हैं । जो साक्षात् अपरोक्ष है जो कभी परोक्ष नहीं होता । जो भूख प्यास आदि धर्मों से रहित हैं जिसका वेद भी निषेध रूप से ही वर्णन करता है । जो विज्ञान आनन्द सत्य अनन्त रूप हैं ।
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*दादू अबिहड़ आप है, कबहूँ बिहड़े नांहि ।*
*घटै बधै नहीं एक रस, सब उपज खपै उस मांहि ॥९॥*
*अबिहड़ अंग बिहड़ै नहीं, अपलट पलट न जाइ ।*
*दादू अघट एक रस, सब में रह्या समाइ ॥१०॥*
यह आत्मा अविनाशी है, अतः न पैदा होता और न नष्ट होता है ।
गीता में लिखा है कि- जो विद्वान् इस आत्मा को अविनाशी, अज, अव्यय रूप से जानता है, वह स्वयं किसी को न मारता, न मरवाता हैं । क्योंकि आत्मा में षड्भाव विकारों का तथा लौकिक वस्तुओं के विकारों का अत्यन्ताभाव है ।
इसी अभिप्राय से महर्षि श्रीदादूजी महाराज लिख रहे हैं कि “घटे बढे नहीं” एकरस ब्रह्म की एकरसता ही ह्लासाभाव तथा वृद्ध्य भाव में कारण हैं । “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते:” इस श्रुति प्रमाण से ब्रह्म में सकल जगत् की उत्पत्ति-प्रलय हो रहा हैं । परन्तु वास्तविक दृष्टि से न कुछ पैदा होता और न लय होता, क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त कोई वस्तु है ही नहीं । भ्रान्ति से जो ब्रह्म में कल्पित भेद प्रतीत हो रहा है वह भी जगत् का मिथ्यात्व ज्ञान कराने के लिये ही हैं । अतः एक ज्ञानस्वरूप ब्रह्म ही सब अवस्थाओं में साक्षी रूप से भासित हो रहा है ।
सर्ववेदान्तसंग्रहसार में लिखा है कि- “जो वस्तु पैदा होती है, वह ही बढती और नष्ट होती है । जो नित्य विभु आत्मा है । उसका जब जन्म ही नहीं तो उसमें घटना-बढना कैसे हो सकता है ।
यह देह पैदा होता है अतः इसका कर्मयोग से भी नाश, वृद्धि, अपक्षय आदि विकार होते रहते हैं । तू तो इन सब अवस्थाओं में ज्ञानस्वरूप है तथा साक्षीरूप से भास् रहा हैं ।
ब्रह्म तो सदा अद्वितीय विकल्पशून्य निरुपाधिक निर्मल निरन्तर आनन्दघन इच्छारहित निराधार केवल एक है ।
अतः उसमें कोई भेद नहीं, वह इन्द्रियातीत मन वाणी बुद्धि से भी अगम्य हैं । हे साधक ! तुम सुनो, तुम भी इन सबके साक्षी ज्ञान निर्मल ब्रह्म तत्त्व ही हो ।
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*जेते गुण व्यापैं जीव को, तेते तैं तजे रे मन ।*
*साहिब अपणे कारणैं, भलो निबाह्यो प्रण ॥११॥*
॥ इति अबिहड़ कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥३७॥
श्री दादूजी महाराज अन्तकाल में अपने मन की प्रशंसा कर रहे हैं कि- हे मन ! मेरे अन्तःकरण में जितने भी मायिक गुण दोष पैदा हुए, उन सब को तू ने अपने शौर्य और धैर्य से त्याग दिये । फिर से कभी पैदा न हो जाय, इसके लिये सदा ही तू ज्ञानरुपी तलवार लेकर सावधानी से उनके साथ युद्ध करता हुआ उन सब को मूलसहित नष्ट करके स्वयं ब्रह्मरूप हो गया ।
मैं अब अपने शरीर का अन्तकाल देख रहा हूं । अतः तेरे को धन्यवाद देता हूं कि तूने अपने प्रण का पालन सही ढंग से किया और जिससे स्वस्वरूप(सत्यराम) हो गया । ब्रह्मरूप हो गया और तेरी जीत हो गई ।
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॥ इति श्रीदादू पंथानुयायी सन्त-वाणी-मर्मज्ञ महामंडलेश्वर पं. आत्माराम स्वामी व्याकरण-वेदान्ताचार्य कृत भावार्थदीपिका में अबिहड़ के अंग का भाषानुवाद समाप्त ॥३७॥
दादू दीन दयाल की, वाणी बिसवा बीस ।
तिनकूं शोधि विचारि के, अंग धरे सैंतीस ॥
॥ इति श्री स्वामी दादूदयाल जी की वाणी का साखी भाग सम्पूर्ण समाप्त ॥
॥ साखी योग २५२७ ॥
(क्रमशः)

रविवार, 2 मई 2021

अबिहड़ कौ अंग ३७ - १/५

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*(#श्रीदादूवाणी ~ अबिहड़ कौ अंग ३७ - १/५)*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*दादू संगी सोई कीजिये, जे कलि अजरावर होइ ।*
*ना वह मरै, न बीछूटै, ना दुख व्यापै कोइ ॥२॥*
सर्व कालों में अजर अमर एकरस परमात्मा ही सबका सच्चा संगी होता है । अतः उसकी ही उपासना करनी चाहिये । वह कभी भी मरता नहीं क्योंकि वह नित्य है और उसके वियोग की भी कभी संभावना नहीं हो सकती क्योंकि वह सर्वव्यापक है ।
कभी सुख दुःख भी उसको व्याप्त नहीं कर सकते क्योंकि वह निर्विकार हैं । ज्ञान वही है जो इन्द्रियों को शान्त करें । ज्ञेय भी वह ही है जो उपनिषदों द्वारा निश्चित किया गया है । वे ही धन्य हैं जो परमार्थ का निश्चय कर रहे हैं । शेष तो इस संसार में व्यर्थ ही भ्रम जाल में पड़े हैं ।
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*दादू संगी सोई कीजिये, जे सुस्थिर इहि संसार ।*
*ना वह खिरै, न हम खपैं, ऐसा लेहु विचार ॥३॥*
बार-बार विचार कर उसी का संग करो जो निश्चल अव्यय निर्विकार हो । क्योंकि उसके संग से हम भी तद्रूपता को प्राप्त करके अजर अमर भाव को प्राप्त हो जायगें । यह ही उपासना का फल है कि उपासक उपास्य रूप हो जाता है ।
आत्मानुसंधान में लिखा है कि- मैं अच्युत, अनन्त, अतर्क्य, अज, अब्रण, अकाम, असंग, अभय हूं । क्योंकि ब्रह्म भी ऐसा ही है और उसकी उपासना से मैं भी वैसा ही हो गया ।
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*दादू संगी सोई कीजिये, सुख दुख का साथी ।*
*दादू जीवन-मरण का, सो सदा संगाती ॥४॥*
जो सर्वदा सुख दुःख में सहायक होता हैं । उसी को अपना साथी बनावो । जो जीवन मरण में सदा रक्षा करता है । भगवान् भक्तों को कभी नहीं त्यागते । कोई भक्त भगवान् से प्रार्थना कर रहा है कि-
मैंने कभी भी पुण्य कर्म नहीं किये अतः बहुत बड़ा पापी हूं और दुःख के समुद्रों में पड़ा हुआ हूं जहां सुख का लवलेश भी नहीं हैं तथा मृत्यु ने मुझे हाथ से पकड़ रखा हैं । अतः आप मेरी मृत्यु से डरे हुए की आगे पीछे मध्य में सब प्रकार से रक्षा कीजिये ।
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*दादू संगी सोई कीजिये, जे कबहूँ पलट न जाइ ।*
*आदि अंत बिहड़ै नही, ता सन यहु मन लाइ ॥५॥*
जो आदि अन्त मध्य से रहित हैं । सब अवस्थाओं में एक रस रहता है । सृष्टि के आरम्भ से प्रलय पर्यन्त कभी भी भक्तों को नहीं छोड़ता । उसी भगवान् में अपने मन को लीन करो । अन्यथा संसार का भ्रमण नहीं छूटेगा ।
वेदपादस्तव में लिखा है कि- जो आत्मा पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर नीचे ऊपर मध्य में सदा रहने वाला हैं । मूढ, उस अपने अन्तस्थ परमात्मा को न जान कर इस संसार में पर्वतों की गुहा और खड्डों में घूम रहे हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 1 मई 2021

बेली कौ अंग ३६ - ११/१६

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*(#श्रीदादूवाणी ~ बेली कौ अंग ३६ - ११/१६)*
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*दादू बहुगुणवंती बेलि है, ऊगी कालर मांहिं ।*
*सींचै खारे नीर सौं, तातैं निपजै नांहिं ॥११॥*
*बहुगुणवंती बेली है, मीठी धरती बाहि ।*
*मीठा पानी सींचिये, दादू अमर फल खाहि ॥१२॥*
यद्यपि यह जीवरुपी लता अभय आदि दैव गुणों से संपन्न है परन्तु कुसंगति रूप उषरभूमि में इसका जन्म हो गया तथा विषयविषरूपी कडवे जल से इसका सिंचन हो रहा है । अतः इसमें भक्ति ज्ञान वैराग्य आदि फल नहीं लग सकते । अतः इसका जन्म निरर्थक ही है । यदि यही जल सत्संगरुपी मधुर भूमि में बोई जाती और जो भगवत्प्राप्ति के साधन हैं, उन साधन जल से जो बड़ा ही मीठा है, सिंचन किया जाता तो निश्चित ही ज्ञान रूपी अमर फल साधक को प्राप्त हो जाते । परन्तु ऐसा विवेक किसी किसी साधक को ही पुण्योदय होने से होता हैं । सर्ववेदान्तसंग्रहसार में लिखा है कि- अनन्त योनियों में पुण्य के उदय होने से और ईश्वर की कृपा से ही किसी प्राणी को होता है । हे साधक ! तुम्हारा भी भाग्य अच्छा है जो तुम परमार्थ को जानने का विचार प्रारम्भ कर रहे हो । विवेक का यही फल है कि जीव परमार्थ विचार में लग जावे ।
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*दादू अमृत बेली बाहिये, अमृत का फल होइ ।*
*अमृत का फल खाइ कर, मुवा न सुणिया कोइ ॥१३॥*
सतत ब्रह्म विचार करने वाली बुद्धि अमृत लता की तरह ब्रह्मज्ञानामृत रूप फल को ही पैदा करती हैं और उस ब्रह्म ज्ञानामृत फल को खाने वाला कभी नहीं मरता प्रत्युत अमर हो जाता हैं । श्रुति में यही कहा है कि-वह फिर संसार में नहीं आता । जैसे लोक में अमृत फल को खाने वाला कभी मरता नहीं सुना गया । ऐसे ही ज्ञानामृत का पान करने वाला भी नहीं मरता क्योंकि वह ब्रह्मरूप हो जाता हैं । इसलिये ज्ञानामृत की प्राप्ति के लिये यत्न करना चाहिये ।
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*दादू विष की बेली बाहिये, विष ही का फल होइ ।*
*विष ही का फल खाय कर, अमर नहिं कलि कोइ ॥१४॥*
जैसे विष लता विष के फल को ही पैदा करती हैं और उसको खाने वाला कभी अमर नहीं हो सकता । इसी तरह यहां पर वासना ही विष लता है तथा विषय वासना वाला प्राणी संसार में दुःखरूपी फल को ही भोगता है । अर्थात् बार-बार जन्म और मरण के चक्र में पड़ रहता हैं ।
सर्ववेदान्तसारसंग्रह में लिखा है कि- “दुःख देने वाली वस्तु कभी सुख नहीं दे सकती जैसे विष को पीने वाला कभी अमर नहीं हो सकता हैं ।”
आनन्द स्वरूप आत्मा को न जानने कारण से अज्ञानी बाह्य सुख की प्राप्ति के लिये यत्न करता है । लेकिन उस को जानने वाला नहीं, यह स्थूल शरीर स्वभावतः दुःख के देने वाले ही हैं । जिसको अज्ञानी आत्मा का स्वरूप मान कर सुख स्वरूप आत्मा को भूल कर दुःख देने वाले बाह्य पदार्थों से सुख चाहता है । अतः सुख रूप आत्मा को जानना चाहिये ।
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*सतगुरु संगति नीपजै, साहिब सींचनहार ।*
*प्राण वृक्ष पीवै सदा, दादू फलै अपार ॥१५॥*
सद्गुरु की संगति से अपने आत्मा में प्रभु की भक्ति पैदा होती हैं और उस पर प्रभु का अनुग्रह भी हो जाता है । यदि यह प्राणवृक्ष(जीवात्मा) प्रभु के कृपारस का पान करे तो जीव और परमात्मा का ऐक्यज्ञान हो जाता हैं । अतः सब साधनों में प्रभुकृपा ही सबसे बलवान् है ।
खण्डनखण्डखाद्य में लिखा है कि- प्रभु के अनुग्रह से और पूर्व जन्मों के पुण्योदय से कभी-कभी दो-तीन प्राणियों के हृदय में ही अद्वैत ब्रह्म को जानने की भावना पैदा होती हैं ॥१५॥
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*दया धर्म का रूंखड़ा, सत सौं बधता जाइ ।*
*संतोंष सौं फूलै फलै, दादू अमर फल खाइ ॥१६॥*
॥ इति बेली कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥३६॥
सब धर्मों में दयाधर्म हो प्रधान धर्म हैं । जैसे वृक्ष से पत्र, पुष्प, फल, शाखा प्रशाखा पैदा होती हैं और उससे ही बढते हैं । ऐसे ही सारे धर्म दया से ही पैदा होते हैं और वृद्धि को प्राप्त होते हैं । दया धर्म की अभिवृद्धि सत्य आचरण और संतोष से होती हैं । जैसे वृक्ष जलसिंचन से बढ़ता है । अतः दयाधर्म का पालन करने वाला मानव ब्रह्म प्राप्ति द्वारा अमर हो जाता हैं, अर्थात् मुक्त हो जाता है ।
कर्म से मन से वाणी से सब अवस्थाओं में जो किसी की भी आत्मा को पीडा नहीं देते, वह यमलोक में नहीं जाते ।
जो प्राणियों की हत्या करते हैं निर्दय होकर, वे चाहे वेद पढें, दान करें, तपस्या करें, बडे-बडे यज्ञ करें, तो भी उनकी सद्गति नहीं होती । अतः अहिंसा ही परम धर्म है, अहिंसा ही तप कहलाता हैं । अहिंसा ही दान है ऐसा मुनि लोग कहते हैं ।
जो दयालु प्राणी होते हैं वे मच्छर खटमल जूं तथा डंसने वाले सर्प आदि को भी नहीं मारते किन्तु अपनी आत्मा के तुल्य समझकर सदा उनकी रक्षा ही करते हैं । इसलिये हे वैश्य ! दोनों लोकों में सुख चाहने वाले धर्मात्मा को मन वाणी क्रिया से किसी भी प्राणी के साथ द्रोह नहीं करना चाहिये ।
॥ इति बेली कौ अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥३६॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

बेली कौ अंग ३६ - ७/१०

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साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ बेली कौ अंग ३६ - ७/१०)*
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*दादू सूखा रूंखड़ा, काहे न हरिया होइ ।*
*आपै सींचै अमीरस, सुफल फलिया सोइ ॥७॥*
संसार रूपी दावानल से संतप्त तथा खोटे अदृष्ट रूपी वायु से हिलाया गया यह अन्तःकरण रूपी वृक्ष है । यदि इसको भगवान् अपनी करुणामयी दृष्टि से स्वयं ही सिंचन करें तो सूखा हुआ भी फिर से ज्ञान वैराग्य विवेकरूपी हरियाली से सुशोभित हो जाय तथा इसको मोक्ष की इच्छा भी तीव्र हो जाय ।
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विवेकचूडामणि में लिखा है कि- मुमुक्षुता किसको कहते हैं, अहंकार से लेकर शरीराध्यासपर्यन्त अज्ञान कल्पित सारे बन्धनों को अपने आत्मस्वरूप ज्ञान से उन सब को त्यागने की जो कामना है वह ही मुमुक्षता कहलाती हैं । यह मुमुक्षुता यदि मन्द या मध्यम भी हो तो भी विवेकवैराग्यादि तथा शमदमादि साधनों से तथा गुरु की कृपा से बढ़ जाती हैं और जब तीव्र हो जाती है तब मोक्ष रूपी फल को भी पैदा कर देती है ।
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*कदे न सूखै रूंखड़ा, जे अमृत सींच्या आप ।*
*दादू हरिया सो फलै, कछू न व्यापै ताप ॥८॥*
यदि यह जीवात्मा सावधान होकर अपने अन्तःकरणरूपी वृक्ष को हरिनामामृत जल से सींचता रहे तो कामक्रोधादिरूप अग्नि की ज्वाला से यह संतप्त नहीं हो सकता । किन्तु सर्वदुःख और चिन्ता से रहित होकर अवश्य ज्ञानफलवाला हो जाता है । 
विवेकचूडामणि में कहा है कि- “जिसके अन्तःकरण में तीव्र वैराग्य तथा मुमुक्षुता पैदा हो जाती है तो उसी को शमदमादि साधनों का फल प्राप्त होता हैं ।”
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*जे घट रोपै राम जी, सींचै अमी अघाइ ।*
*दादू लागै अमर फल, कबहूँ सूख न जाइ ॥९॥*
यदि भगवान् स्वयं ही जीव के अन्तःकरण में भक्ति का बीज बो देते हैं और नामामृतजल से भक्त अपने अन्तःकरण वृक्ष को सींचता हैं तो कामक्रोध के ताप से वह संतप्त नहीं होता किन्तु भक्ति के द्वारा ज्ञानफल को प्राप्त कर लेता है । क्योंकि मोक्षसाधनों में भक्ति ही मुख्य साधन हैं ।
विवेकचूडामणि में लिखा है कि- “मोक्ष के जितने भी साधन है उन सबमें भक्ति ही एक मुख्य साधन हैं और स्वस्वरूप का निरन्तर जो अनुसंधान है, उसी को भक्ति कहते हैं ।”
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*दादू अमर बेलि है आत्मा, खार समंदां मांहिं ।*
*सूखे खारे नीर सौं, अमर फल लागे नांहिं ॥१०॥*
यद्यपि यह जीव रूपी वृक्ष अजर अमर है, ब्रह्म रूप होने से । फिर भी इस संसार समुद्र के मध्य कुसंगतिरूप खारे पानी का सेवन करने से विषयों में अनुरक्त होकर अपने मैं “अजर अमर शुद्ध बुद्ध हूं” इस आत्मज्ञान को भूल कर अनादिकाल से भ्रम जाल में पड़ा हैं और सदा संशयग्रस्त होने के कारण अपने आत्मज्ञानरुपी फल को भी प्राप्त नहीं कर सकता है । इसलिये सद्गुरु की शरण जाकर आत्मज्ञान के लाभ के लिये यत्न करना चाहिये ।
विवेकचूडामणि में लिखा है कि- “संसार के भय का नाश करने वाला एक महान् उपाय है । जिससे संसार सागर को पार करके मानव परमानन्द को प्राप्त कर सकता है, वेदान्तवाक्यों के अर्थ का निरन्तर विचार करते रहने से उत्तम ज्ञान प्राप्त होता है । जिससे संसार दुःख का आत्यन्तिक नाश हो जाता हैं ।”
(क्रमशः)

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

बेली कौ अंग ३६ - ३/६

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ बेली कौ अंग ३६ - ३/६)*
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*पसरै तीनों लोक में, लिप्त नहीं धोखे ।*
*सो फल लागै सहज में, सुन्दर सब लोके ॥३॥*
जैसे वृक्ष के आश्रित लता, पुष्प, फलों से युक्त होकर चारों तरफ से फैल जाती हैं । वैसे ही यह जीवात्मा ब्रह्म से अभिन्न होकर आत्मा को व्यापक मानता हुआ ब्रह्मानन्द फल को प्राप्त कर लेता है । जिससे फिर कभी भी विषयानन्द में आसक्त नहीं होता ।
योगवासिष्ठ में लिखा है कि- “यहां विशुद्ध अद्वितीय सच्चिदानन्द परमात्मा के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं हैं । जैसे अनन्त आकाश में शून्यता को छोड़ कर दूसरी कोई वस्तु नहीं हैं । क्योंकि चित्सत्ता और उसकी स्फूर्ति से ही जगत् की सत्ता और स्फूर्ति सब के अनुभव से सिद्ध है ।”
“यद्यपि ज्ञानस्वरूप आत्मा सर्वत्र सर्वदा चिन्मात्ररूप से स्फुरित हो रहा है लेकिन देह इन्द्रियों से अतिरिक्त आत्मा नहीं है, ऐसी अभानापादक जो अनादि भ्रान्ति हो रही है । यह तो आवरण शक्ति की प्रधानता से अविद्या कहलाती है और विक्षेपशक्ति की प्रधानता से भ्रम कहलाता हैं । अभानापादक और असत्त्वापादक अविद्या से ही यह संसार प्रतीत हो रहा है । अन्यथा ज्ञान रूपचैतन्य के अलावा कुछ भी संसार नहीं है ।
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*दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।*
*सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥४॥*
यह जीवात्मा रूपी लता धीरे-धीरे साधन द्वारा भक्ति, ज्ञान, वैराग्यादि, पुष्प फलादिकों से युक्त होती हैं । सद्गुरु भी समय-समय पर साधक को उपदेश द्वारा सावधान करते रहते हैं । परन्तु कोई धीरपुरुष ही सावधान होकर आत्मा को जानता है, अन्य नहीं, क्योंकि विवेक वैराग्यादि साधनों का अभाव होने से आत्म ज्ञान की जिज्ञासा ही नहीं पैदा होती ।
विवेकचूडामणि में लिखा है कि- “बाह्य पदार्थों के सुख की इच्छा को त्याग कर मुक्ति के लिये विद्वान् को चाहिये कि महान् यत्न करे । किसी महान् देशिक गुरु के पास जाकर समाहित मन से उनसे ज्ञान प्राप्त करें ।”
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*जे साहिब सींचै नहीं, तो बेली कुम्हलाइ ।*
*दादू सींचै सांइयाँ, तो बेली बधती जाइ ॥५॥*
यह जीवात्मा रूपी लता यदि परमात्मा की कृपारूपी जल से प्रतिदिन सींची जाय तो भक्ति ज्ञानवैराग्यादि साधनसंपन्न होकर परमात्मा के संमुख होती हुई आत्मज्ञान के लिये बढ़ती रहे । ईश्वर के अनुग्रह के बिना तो यह संसाररूपी गढ्ढे में पड़कर नष्ट हो जायगी ।
विवेकचूडामणि में लिखा है कि- “मुमुक्षुत्व, मनुष्य देह तथा महापुरुषों की संगति, ये तीनों ही दुर्लभ हैं, ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होते हैं ।”
दुर्लभ मनुष्य शरीर प्राप्त करके भी जो अपने स्वार्थ(कल्याण) की सिद्धि में भी प्रमाद करता है, तो उससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा ?
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*हरि तरुवर तत आत्मा, बेली कर विस्तार ।*
*दादू लागै अमर फल, कोइ साधू सींचनहार ॥६॥*
यदि कोई ज्ञानी महात्मा जीव रूपी लता को ज्ञान जल से सिंचन करे तो सर्वश्रेष्ठ परमात्मरूपी वृक्ष का सहारा पाकर ब्रह्मज्ञानरूपी फल से युक्त हुई बहुत विस्तार वाली हो जाय ।
विवेकचूडामणि में लिखा है कि- हे विभो ! भयंकर संसार दावानल की ज्वाला से संतप्त हुए इस दीन शरणागत को आप अपने ब्रह्मानन्द रसानुभव से युक्त परम पुनीत सुशीतल निर्मल और वाक् रूपी स्वर्ण कलश से निकले हुए श्रवण सुखद वचनामृतों से सींचिये । अर्थात् इसके ताप को शान्त कीजिये । वे धन्य हैं, जो आप के एक क्षण के करुणामय दृष्टि के पात्र होकर अपना लिये गये हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

साक्षीभूत/बेली कौ अंग ३५.३६ - १४/१७.१/२

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत/बेली कौ अंग ३५.३६ - १४/१७.१/२)*
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*ना हम करैं करावैं आरती, ना हम पिवैं पिलावैं नीर ।*
*करै करावै सांइयाँ, दादू सकल शरीर ॥१४॥*
*करै करावै सांइयाँ, जिन दिया औजूद ।*
*दादू बन्दा बीच में, शोभा को मौजूद ॥१५॥*
*देवै लेवै सब करै, जिन सिरजे सब कोइ ।*
*दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ ॥१६॥*
मैं किसी की आरती, स्तुति न करता हूं, न करवाता हूं । न चरणोदक पीता, न पिलाता हूं । किन्तु मेरे हृदय में स्थित परमात्मा आत्मरूप से स्थित होकर जैसी प्रेरणा करते हैं । वे ही मेरे शरीर के द्वारा सब कुछ करते-कराते हैं । जिसने यह शरीर बनाया है, वह प्रभु ही मेरे शरीर से कल्याणप्रद कार्य करते-करवाते हैं ।
केवल भक्त की शोभा बढाने के लिये बीच में भक्त का नाम ले देते हैं कि यह कार्य इस भक्त ने किया है । भक्त तो ब्रह्मपरायण होकर समाधि देश में साक्षीभाव से सदा स्थित रहते हैं । पञ्चविशंतिस्तोत्र में लिखा है कि- अहो ! मैं शरीर सहित इस सारे विश्व को त्याग कर अपनी कुशलता से परमात्मा को समाधि में देखता हूं । जैसे जल से तरंग और बुदबुदे भिन्न नहीं, उसी प्रकार आत्मा से निकलने वाला यह विश्व भी उससे भिन्न नहीं हैं ।
केवल आत्मा के अज्ञान से विश्व की भ्रान्ति हो रही थी, अब जब आत्म ज्ञान हो गया तो वह भ्रान्ति नष्ट हो गई । जैसे रज्जु के अज्ञान से सर्प की भ्रान्ति हो रही थी । जब रज्जु का ज्ञान हो गया तो सर्प-भ्रान्ति अपने आप ही निवृत्त हो गई ।
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*॥ कर्त्ता साक्षीभूत ॥*
*दादू जुवा खेले जाणराइ, ताको लखै न कोइ ।*
*सब जग बैठा जीत कर, काहू लिप्त न होइ ॥१७॥*
॥ इति साक्षीभूत कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥३५॥
नाना कर्मफलों के भोगने योग्य यह बाह्य पृथिव्यादि जगत् तथा आध्यात्मिक जगत् की रचना अद्भुतकारी है । जिसको बुद्धिमान् मनुष्य मन से सोच-विचार भी नहीं सकते । यह सारा खेल ध्यूत क्रीडा की तरह से है, इस जगद् रचनारूप क्रीडा में न प्रभु को हर्ष-शोक होता है । न कहीं भी उनकी आसक्ति दीखती । न वे अहंकार करते हैं । किन्तु सारे जगत् को अपने वश में करके अपनी महिमा में सदा स्थित रहते हैं ।
उनके भक्त भी अहंकार रहित समाहित मन से आत्मानन्द रूपी अमृत के सिंचन से आन्तर तापसमूह को शान्त करते हुए आनन्द स्वरूप उद्यान में सदा विचरते रहते हैं ।
आत्मविद्याविलास में लिखा है कि- “साक्षी स्वरूप ज्ञानी महात्मा किसी भी रूप को नहीं देखता और न किसी प्रकार के वचन को सुनता है तथा निरुपम भूमा ब्रह्म में दृढ़ निष्ठा बनाकर काष्ठ की तरह से स्थित रहता हैं ।
दोष बुद्धि से किसी का निषेध नहीं करता, गुण बुद्धि से किसी वस्तु का ग्रहण नहीं करता । किन्तु यह सब जगत् आविद्यक है ऐसा मानकर मौन होकर उदासीन रहता है । उदासीनता को ही साक्षी कहते हैं ।”
॥ इति साक्षीभूत के अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥३५॥
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*॥ अथ बेली कौ अंग ॥३६॥*
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*दादू अमृत रूपी नाम ले, आत्म तत्त्वहि पोषै ।*
*सहजैं सहज समाधि में, धरणी जल शोषै ॥२॥*
परमात्मा के नामामृत के चिन्तन से अन्तःकरण को शुद्ध करके साधन द्वारा धीरे-धीरे सहजावस्था रूप समाधी में स्थित होकर विषयजल का शोषण करके अपने अन्तःकरण को ब्रह्म में लीन करो । जिससे फिर संसार में न आना पडे ।
योगवासिष्ठ में लिखा है कि- “विवेकी पुरुष विषयों में दोष भावना करे और अपने में आत्मभावना करे, जिससे विषयवासना के क्षीण होने से वासनासहित सारा संसार इस प्रकार से नष्ट हो जाता हैं कि जैसे वसन्त ऋतु के अन्त में अर्थात् ग्रीष्म में पृथ्वी का रस(जल) सूख जाता हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 25 अप्रैल 2021

साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ११/१३

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ११/१३)*
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*॥ साधु साक्षीभूत ॥*
*कर्त्ता ह्वै कर कुछ करै, उस मांहि बँधावै ।*
*दादू उसको पूछिये, उत्तर नहीं आवै ॥११॥*
अपने को कर्म का कर्ता मान कर जो कर्म करता है, वह उस कर्म के फल की आशा में बंधा हुआ सुख-दुःख रूपी कर्म फल को भोगता हैं और ज्ञानी फलाशा को त्याग कर तथा अपने को अकर्ता समझकर कर्म करता है तो वह कभी बन्धन में नहीं आता, क्योंकि वह कर्म करके भी अकर्ता ही रहता हैं और न कर्मफल की कभी इच्छा करता है ।
वह तो साक्षी की तरह केवल दृष्टा बना रहता हैं । किंच कर्मशास्त्र तो प्रवृत्ति का जनक है और ज्ञान शास्त्र निवृत्ति करता है । अतः ये दोनों परस्पर में कभी भी एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं । जैसे तृण समुदाय और अग्नि अथवा तेज और अन्धकार परस्पर में विरुद्ध होने से कभी भी एक दूसरे की अपेक्षा नहीं करते । ज्ञान कर्म का समुच्चय भी विरुद्ध होने से नहीं हो सकता । किन्तु कर्म तो ज्ञान की सन्निधिमात्र को भी नहीं चाहता ।
कहा है कि सर्व वेदान्तसार संग्रह में- जैसे करोडों इन्धन समुदाय से जलती हुई अग्नि सूर्य का कुछ भी उपकार करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि ज्ञान के सामने कर्म स्वयं ही लीन(नष्ट) हो जाता है । इसी अभिप्राय से श्री दादूजी ने कहा है कि "दादू उस को पूछिये उत्तर नहीं आवे" ऐसा लिखा हैं ।
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*दादू केई उतारैं आरती, केई सेवा कर जांहि ।*
*केई आइ पूजा करैं, केई खिलावें खांहि ॥१२॥*
*केई सेवक ह्वै रहे, केई साधु संगति मांहि ।*
*केई आइ दर्शन करैं, हम तैं होता नांहि ॥१३॥*
कितने ही श्रद्धाभाव से परमेश्वर की आरती करते हैं । कितने ही उसको भजते-पूजते हैं । कितने ही भगवान् को भोजन करा कर उसका प्रसाद मान कर स्वयं भी खाते हैं । कितने ही साधु संगति कर रहे हैं । कितने ही प्रतिदिन भगवान् का दर्शन करते हैं ।
परन्तु जिनको अद्वैत ज्ञान हो गया वे ज्ञानी न किसी की सेवा, पूजा, आरती, दर्शन, प्रसाद आदि कुछ भी नहीं करते, क्योंकि इस सब साधनों का फल जो ज्ञान रूप फल है उसको प्राप्त करके कृतकृत्य हो गये । वे ब्रह्मरूप होकर साक्षिभाव से स्थित रहते हैं । 
अनुभवपञ्चविशंति में लिखा है कि- मुझे बड़ा ही आश्चर्य है कि मुझ आनन्द के महासमुद्र में जीवरुपी तरंगे स्वभाव से ही उत्पन्न होती हैं, खेलती हैं, नष्ट हो जाती हैं, बार-बार प्रविष्ट होती हैं ।
अहो ! मेरे में यह विश्व स्थित हैं । परन्तु विचार कर देखने से यह विश्व कुछ है ही नहीं, मैं ही सर्वस्व हूं । अतः न मेरा बन्ध है न मोक्ष हैं । मेरी बंध मोक्ष की निराधार जो भ्रान्ति थी वह अब शान्त हो गई ।
(क्रमशः)

शनिवार, 24 अप्रैल 2021

साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ८/१०

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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ८/१०)*
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*दादू विष अमृत सब पावक पाणी, सतगुरु समझाया ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, सोई फल पाया ॥८॥*
सद्गुरु शिष्यों को उपदेश दे रहे हैं ..
विषयों में जो आसक्ति है, वह विषपान की तरह कष्ट देने वाली है और आत्मज्ञान अमृततुल्य होने से सुख का देने वाला हैं । आसुरी गुण जीव को अग्नि की तरह सदा जलाते रहते हैं । दैवीगुण जल की तरह शान्ति प्रदान करने वाले हैं । अतः जो विषयों में आसक्त रहते हैं, वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
आत्मज्ञान से मनुष्य अमर बन जाता है । क्योंकि यह जीव शरीर मन वाणी से जैसा शुभ अशुभ कर्म करता है वैसा ही फल पाता है । इसलिये मनुष्य को विचार करना चाहिये । विचार से सब दुःख दूर हो जाते हैं । अतः विचार की कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिये ।
विचारवान् पुरुष इस आधि-व्याधियुक्त को शरीर को इस तरह से त्याग देता है जैसे सर्प अपनी शरीर की पकी हुए त्वचा को त्याग देता हैं और शीतल अन्तःकरण से जगत् को इन्द्रजाल की तरह मिथ्या समझने लगता हैं । जिस को आत्मा का सम्यक् ज्ञान नहीं है, उसी को दुःख होता हैं । लिखा है कि-इस मनुष्य लोक में मानव अमृत को त्याग कर विष को पीता है ।
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*दादू जानै बूझै जीव सब, गुण औगुण कीजे ।*
*जान बूझ पावक पड़ै, दई दोष न दीजे ॥९॥*
यह जीव गुण और अवगुणों को जानता है और उनसे क्या-क्या फल मिलता है ? इसको भी जीव अच्छी तरह समझता है परन्तु आसक्ति के कारण पतंग की तरह विषयाग्नि में पड जाता है तो फिर भगवान् का क्या दोष है ?
गीता में लिखा है कि- हे अर्जुन ! इन्द्रियों के स्पर्श से प्राप्त होने वाले भोग दुःख के ही कारण है और नाशवान् भी है । अतः बुद्धिमान् मनुष्य उन विषयों में रमण नहीं करते ।
विषयों के संग से संसार में डूबी हुई अपनी आत्मा का उद्धार स्वयं को ही करना चाहिये । दूसरा कोई ऐसा बन्धु नहीं है जो संसार से मुक्त कर दे । प्रत्युत बन्धु वर्ग तो स्नेह जनक होने से बन्धन के ही कारण हैं । यह आत्मा ही स्वयं अपना शत्रु है और स्वयं ही अपना मित्र है ।
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*बुरा भला सिर जीव के, होवै इस ही मांहि ।*
*दादू कर्त्ता कर रह्या, सो सिर दीजै नांहि ॥१०॥*
अपने किये हुए शुभ अशुभ कर्मों के फल को जीव अकेला ही भोगता है, दूसरा नहीं । कारण कि किए हुए कर्मों का ही फल भोगना पडता है, बिना किये हुए का नहीं । ईश्वर जो संसार की व्यवस्था के लिये कर्म करता है उसका फल न जीव भोगता है, न ईश्वर ही । जीव के किये नहीं, अतः उनका भोग जीव को नहीं करना पडता है, ईश्वर अकर्ता है, अतः उसे भी नहीं भोगना पडता ।
इसीलिये लिखा है- शुभ अशुभ कर्मों को भोगना ही पडता हैं । करोडों कल्प भी क्यों नहीं पूरे हो जांय परन्तु प्रारब्ध कर्म को तो भोगना ही पडता है । ओर गीता में- ज्ञानाग्नि से सकल कर्मों का नाश बतलाया है, वे सब संचित कर्म ही लेने चाहिये । प्रारब्ध कर्म तो अवश्य भोगना ही पडता है । चाहे ज्ञानी हो या अज्ञानी ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2021

साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ३/७

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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ३/७)*
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*मांही तैं मुझ को कहै, अन्तरजामी आप ।*
*दादू दूजा धंध है, साचा मेरा जाप ॥३॥*
स्वयं अन्तर्यामी परमात्मा जीवों के अन्तःकरण में स्थित होकर जीवों को प्रेरणा देते हैं कि मेरा चिन्तन ही कल्याण को देने वाला है । अन्य सब तो निष्फल है । क्योंकि मिथ्या होने से । श्रुति में कहा है कि-
वह अकेला देव सब भूतों में गुप्त रूप से स्थित तथा सब भूतों का अन्तरात्मा कर्मों का अध्यक्ष एवं सर्वभूतों का अधिष्ठान जो केवल निर्गुण आत्मा है, वह साक्षी कहलाता है ।
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*॥ कर्त्ता साक्षीभूत ॥*
*करता है सो करेगा, दादू साक्षीभूत ।*
*कौतिकहारा ह्वै रह्या, अणकर्ता अवधूत ॥४॥*
नाम रूप से व्याकृत इस जगत् का सर्वशक्तिसंपन्न परमात्मा ही कारण हैं । वह अपनी माया शक्ति द्वारा अपनी सत्ता मात्र से इस जगत् को बनाता है । परन्तु यह जगत् रचना रूपी कार्य उस परमात्मा का एक खेल है । क्योंकि वह इस जगत् रचना के कर्तृत्व धर्म से लिपायमान नहीं होता किन्तु साक्षी की तरह रहता है । इसलिये वह कर्ता हुआ भी अकर्ता ही है । अद्वैतपञ्चरत्न में लिखा है कि-
“सत्य ज्ञान रूप इस आत्मा में अज्ञान के कारण ही यह मिथ्या विश्व प्रतीत हो रहा है । जैसे निद्रा दोष के कारण ही आत्मा में मिथ्या स्वप्न की प्रतीति होती है । वह तो शुद्ध पूर्ण नित्य एक शिव स्वरूप है । यह बाह्य प्रतीत होने वाला जगत् कुछ नहीं है । क्योंकि माया से कल्पित है । अतः ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । जो कुछ है वह ब्रह्म ही है । जैसे दर्पण में प्रतिविम्बित वस्तु मिथ्या ही है, ऐसे अद्वैत ब्रह्म में मिथ्या कल्पित जगत् की अज्ञान से प्रतीति हो रही है । परमात्मा नट की तरह खेल रहा है । वह कर्तृत्व भोक्तृत्व सब धर्मों से अतीत है, साक्षी है । जैसे अवधूत महात्मा कर्म करता हुआ भी कर्म और उनके फलों से मुक्त ही रहता हैं ।”
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*दादू राजस कर उत्पत्ति करै, सात्विक कर प्रतिपाल ।*
*तामस कर परलै करै, निर्गुण कौतिकहार ॥५॥*
सत्व, रज, तम यह तीन गुण हैं । परमात्मा रजोगुण प्रधान माया से जगत् की रचना करते हैं और सत्वगुण प्रधान माया से जगत् का पालन और तमोगुण प्रधान माया से प्रलय करते हैं और अपने निर्गुण स्वरूप से इस प्रपञ्च के दृष्टा रहते हैं । निर्वाणमंजरी में लिखा है कि-
“जो अन्दर बाहर व्यापक शुद्ध एक सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं उसी से इस स्थूल सूक्ष्म प्रपञ्च का भान(प्रतीति) हो रही है और उसी से यह पैदा होता है । वही मैं शिव स्वरूप हूँ ।”
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*दादू ब्रह्म जीव हरि आत्मा, खेलैं गोपी कान्ह ।*
*सकल निरन्तर भर रह्या, साक्षीभूत सुजान ॥६॥*
हे सुजान साधक ! ब्रह्म ईश्वर जीव आत्मा परमात्मा इन नामों से ब्रह्म का ही व्यपदेश समझना । इनमें कोई भेद नहीं है । क्योंकि नामभेद से नामी का भरद नहीं होता । जो प्रतीयान भेद है, वह माया से कल्पित होने से मिथ्या है । वह परभी चराचर जगत् में व्यापक है तथा अवतारादिक के द्वारा कृष्ण, राम आदि नामों को धारण करके गोपीस्वरूप अपने भक्तों के साथ क्रीडा करते रहते हैं । शिवानन्दलहरी में लिखा है कि-
इस संपूर्ण जगत् को भगवान् अपनी क्रीडा के लिये रचते हैं अपनी माया से । अतः सब जीव उस भगवान् के क्रीडा मृग हैं । हे प्रभो मैंने आपकी प्रसन्नता के लिये जो कर्म किये हैं उससे आप प्रसन्न हो जाइये । निश्चित ही मेरे किये कर्म आपके कुतूहल के साधन हैं । मैं आपका हूँ अतः हे पशुपते ! मेरी रक्षा करना यह आप का कर्तव्य है ।
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*॥ स्वकीय मित्र शत्रुता ॥*
*दादू जामण मरणा सान कर, यहु पिंड उपाया ।*
*साँई दिया जीव को, ले जग में आया ॥७॥*
परमात्मा ने इस शरीर को जन्मने मरने वाला बनाया है । इसीलिये यह बार-बार जन्मता-मरता रहता है । इस शरीर के अध्यास को लेकर जीवात्मा प्राणियों से शत्रु मित्र भाव बनाता है । किन्तु यह नहीं जानता कि यह शरीर तो क्षण में ही नष्ट होने वाला है और अपने स्वरूप का अनुसंधान भी नहीं करता कि मैं कौन हूँ ? अतः अपने आत्मा का अनुसंधान करो कि मैं देह नहीं हूँ । किन्तु सच्चिदानन्द स्वरूप हूँ । ऐसा जान कर किसी से भी शत्रु-मित्र भाव को मत करो । सर्ववेदान्तसार में लिखा है कि-
“हे जीव ! तू देह इन्द्रियाँ प्राण, वायु, मन, बुद्धि, चित्त, तथा अहंकाररूप नहीं है । किन्तु इन सब का अधिष्ठानभूत शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म है । ऐसा जान ।”
(क्रमशः)

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

साक्षीभूत कौ अंग ३५ - १/२

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत कौ अंग ३५ - १/२)*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*सब देखणहारा जगत का, अंतर पूरै साखि ।*
*दादू साबित सो सही, दूजा और न राखि ॥२॥*
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति इनके भेद से जीव की तीन अवस्था होती है । संपूर्ण इन्द्रियों के बाह्य अर्थ का जिस अवस्था में ज्ञान होता है, उस अवस्था को जाग्रत अवस्था कहते हैं । जिस अवस्था में जाग्रद् भोगों की वासना के कारण जीव के अन्तःकरण में सूक्ष्म रूप में भोक्ता भोग्य आदि का परिणाम होता है, उस अवस्था को स्वप्नावस्था कहते हैं ।
स्थूल सूक्ष्म जगत् का अपने कारण स्वरूप अज्ञान में लय होने के बाद जो साक्षी से वैद्य अज्ञान शेष रहता है उस अवस्था को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं । आत्मा इन तीन अवस्थाओं का तथा संपूर्ण जगत् का दृष्टा भर्ता अनुमोदन करने वाला तथा अन्तर्यामी रूप से सबका प्रेरक सत्य स्वरूप है । उसकी ही उपासना सभी को करनी चाहिये । यह आत्मा सब का साक्षी कहलाता है ।
आत्मा में साक्षित्व का ज्ञान कैसे हो ! तो कहते हैं कि उस में साक्षित्व का लक्षण विद्यमान है तो फिर साक्षी का क्या लक्षण है? तो कहते हैं कि-
जैसे लोक में उदासीन वृत्ति से कोई सन्यासी महात्मा खडा है वहां पर आने वाले पुरुषों को उनकी संपूर्ण अवस्थाओं तथा उन व्यापारों को देखता हुआ भी निर्विकार रहता है । ऐसे ही आत्मा भी जीव की तीनों अवस्थाओं को और उन अवस्थाओं में होने वाले उनके व्यापार कर्मों को और जीवों देखता हुआ आकाश की तरह असंग कूटस्थ निर्विकार रूप से स्थित रहता है तथा प्रत्येक चैतन्य से उसका अभेद रहता है ।
इस प्रकार आत्मा का श्रुतियुक्ति अनुभव से साक्षित्व जाना जाता है । वही आत्मा प्रत्येक जीव के अन्दर जीव रूप से प्रविष्ट है और जीव रूप से संसार में आता जाता है । इस प्रकार आत्मा के पारमार्थिक रूप में सारे वेदान्त प्रमाण स्वरूप हैं । तीनों अवस्था वाला चिदाभास रूप जीव इस समय जागता है, सोता है, इस समय अज्ञान मोहित होकर बुद्धि का अनुभव करता है । सुखी दुःखी उदासीन है । इन सब जीव की अवस्थाओं को इन सबसे अतीत रहकर जानता है वह ही अवस्था त्रय से रहित जीव साक्षी कहलाता है । श्रुति भी केवल निर्गुण चैतन्य ब्रह्म को साक्षी बतलाती हैं ।
जीव से अतिरिक्त आत्मा को जो साक्षी कहा है उसका क्या लक्षण है ? उसके अस्तित्व में क्या प्रमाण है और उस के ज्ञान का क्या उपाय है ? इस सब शंकाओं का समाधान कह रहे हैं कि-जो निर्विकार कूटस्थ आत्मा है वह ही साक्षी है । यह आत्मा ही आकाश की तरह सर्वव्यापक सच्चिदानन्द रूप है तथा सबके अन्तःकरण में जीव रूप से प्रविष्ट होकर संसार में आता जाता है ।
अतः इस पारमार्थिक आत्मतत्त्व में सारे वेदान्तवाक्य ही प्रमाण हैं । तीन अवस्था वाला चिदाभास रूप जीव इस समय जागता है, स्वप्न देखता है, अज्ञान से मोहित होकर सुषुप्ति में रहता है, तथा सुखी दुःखी होता हैं तथा इस समय उदासीन है, यह सब जीव की जो अवस्थायें हैं उन सब को चिद्रूप साक्षी चैतन्य जान रहा है । अतः अवस्था त्रय को जानने वाला ही साक्षी कहलाता है ।
जैसे अपने मुख की सुन्दरता को स्वयं मुख नहीं जान सकता है किन्तु दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख के द्वारा मुख की सुन्दरता को जान सकता है । ऐसे ही आत्मा की निर्विकारता को अन्तःकरण प्रतिबिम्बित चैतन्य के द्वारा जाना जा सकता है । जैसे दर्पण और दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख ये दोनों ही विम्बभूत मुख को नहीं जान सकते, वैसे ही अन्तःकरण और उसमें प्रतिबिम्बित जीव भी विम्बभूत आत्मा को नहीं जान सकता ।
फिर आत्मा को कैसे जाना जा सकता है । नहीं, आत्मा को कोई भी नहीं जान सकता क्योंकि जो भी जाना जा सकता है वह ज्ञायमान होने से दृश्य कोटि में आ जाता है और आत्मा तो दृग् रूप है दृश्य नहीं । इसके अलावा आत्मा स्वयं प्रकाश होने से भी किसी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता ।
तो फिर कैसे जाना जायगा ? इसका समाधान यह है कि दृश्य जो घट है वह अपने दृष्टा को नहीं जान सकता किन्तु वह दृष्टा स्वयमेव स्वयं को जानता है प्रकाश रूप होने से । अतः आत्मा अनुभव रूप ही है, वह किसी भी ज्ञान का विषय न होने से अनुभाव्य नहीं है ।
किंच जैसे पहले बतलाये हुए संन्यासिकों पुरुष तथा तज्जन्य अवस्था और व्यापार कर्म से उत्पन्न गुण दोष स्पर्श नहीं कर सकते क्योंकि वह उदासीन है वैसे ही आत्मा भी जीवों की अवस्थात्रय तथा उससे उत्पन्न होने वाले गुण दोष से रहित है और अवस्था वाले जीवों को देखते हुए भी निर्विकार कूटस्थ असंग रूप से प्रत्यक् चैतन्य ब्रह्म से अभिन्न होकर ही रहता है । इस प्रकार जो साक्षिमात्र तथा अहंकारादि दोषों से असंम्पृक्त चैतन्य मात्र रूप से अनुभव करता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है । इसी अभिप्राय से आचार्य श्री दादूजी ने “सब देखन हारा जगत का अन्तर पूरै साखि” ऐसा कहा है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ७८/८२

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ७८/८२)*
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*साहिब सौं मिल खेलते, होता प्रेम सनेह ।*
*प्रकट दर्शन देखते, दादू सुखिया देह ॥७८॥*
यदि हमारा भगवान् से अनन्य प्रेम होता तो उसके साथ मिलकर प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए उसके साथ खेलते और उस खेल(दर्शन) से मेरा आत्मा परम सुख का अनुभव करता ॥७८॥
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*॥ करुणा ॥*
*तुम को भावै और कुछ, हम कुछ किया और ।*
*मिहर करो तो छूटिये, नहीं तो नांहीं ठौर ॥७९॥*
हे प्रभो ! आपको तो भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि प्रिय लगते हैं और हमने तो विषयासक्ति में जीवन व्यतीत कर दिया । अतः हम आपकी दया से ही भवबन्ध से मुक्त हो सकते हैं । अपने कर्तव्य से नहीं । अतः आप कृपा करें, जिससे हम जन्ममरण रूपी संसार से पार हो जाय आपकी कृपा के बिना तो परम धाम दुर्लभ ही है ॥७९॥
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*मुझ भावै सो मैं किया, तुझ भावै सो नांहि ।*
*दादू गुनहगार है, मैं देख्या मन मांहि ॥८०॥*
हे इष्टदेव भगवान् ! मैंने अपनी प्रकृति के अनुसार जो कार्य किया, मुझे इष्ट लगे वे ही मैंने सब किये । जो आपको अपनी भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि अभीष्ट हैं वे मेरे से साधन नहीं बन पाये । अतः मैं आपका अपराधी हूँ । जो कार्य आपको अभीष्ट है, मानो मैंने उनसे तो वैराग्य धारण कर लिया । यह आपका दादूदास इस भूमि पर अपराधी ही कहलायेगा । यह मैंने मन में निश्चित रूप से विचार कर लिया है ॥८०॥
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*खुशी तुम्हारी त्यों करो, हम तो मानी हार ।*
*भावै बन्दा बख्शिये, भावै गह कर मार ॥८१॥*
हे अखिलेश ! जैसा आपको अपनी आत्मा में अच्छा लगे और आपको संतोष हो जाय वैसा ही कीजिये । क्योंकि मैंने तो हार मानकर अब मौन धारण कर लिया है । मैं तो आपकी सेवा में रहता हुआ आपका अपराधी दास हूं । अतः आप क्षमा करना चाहें तो क्षमा कर दीजिये, नहीं तो इसको पकड कर मारना चाहे तो मार भी सकते हैं क्योंकि मैं तो नीच बुद्धि हूँ ॥८१॥
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*दादू जे साहिब लेखा लिया, तो शीश काट शूली दिया ।*
*मिहर मया कर फिल किया, तो जीये जीये कर जिया ॥८२॥*
॥ इति विनती कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥३४॥
यदि भगवान् मेरे कार्यों को देख कर पूर्ण योग्य विचार करेंगे तो मेरा मस्तक ही काटा जायगा । या तीक्ष्ण शूली पर लटकाया जाऊंगा । यदि कृपा करके मुझे क्षमा कर देंगे तो मेरा उज्जीवन(उद्धार) हो जायगा । साथ में मेरा जीवन भी सफल हो जायगा । इस प्रकार श्री महर्षिदादूजी ने अपने इष्टदेव की इस विनती के अंग के द्वारा स्तुति की है ॥८२॥
इति विनती के अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥३४॥
(क्रमशः)

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ७४/७७

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ७४/७७)*
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*तुम को हमसे बहुत हैं, हमको तुमसे नांहि ।*
*दादू को जनि परिहरै, तूँ रहु नैंनहुँ मांहि ॥७४॥*
हे प्रभो ! आपके तो मेरे जैसे अनेक भक्त हैं । लेकिन मेरे लिये आप जैसा दयालु स्वामी इस जगत् में एक भी नहीं हैं । अतः आप से प्रार्थना है कि मुझ दादू को आप त्यागें नहीं, किन्तु आप मेरे नेत्रों में ही आकर बस जावो । जिससे आपके दर्शन होते रहें ॥७४॥
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*तुम तैं तब ही होइ सब, दरश परश दर हाल ।*
*हम तैं कबहुं न होइगा, जे बीतहिं जुग काल ॥७५॥*
हे प्रभो ! आपकी यदि दया हो जाय और आप स्वयं चाहे तो उसी क्षण आपके दर्शन स्पर्शन आदि सभी कार्य पूरे हो जाय । किन्तु मैं तो पुरुषार्थ करके अनेक युगों में भी आपको नहीं देख सकता, कारण कि आपका दर्शन आपकी कृपा पर ही निर्भर है । अतः आप कृपा करके दर्शन दीजिये ॥७५॥
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*तुम्हीं तैं तुम को मिलैं, एक पलक में आइ ।*
*हम तैं कबहुँ न होइगा, कोटि कल्प जे जाइ ॥७६॥*
जब आप दर्शन देना चाहें तब यह जीव उसी क्षण आपकी दया से आपको जान कर आपको प्राप्त कर लेता है । किन्तु मेरे पुरुषार्थ से तो करोडों कल्प भी क्यों न व्यतीत हो जाय, तो भी आपके दर्शन दुर्लभ हैं । क्योंकि आप अपनी कृपासाध्य है । साधन साध्य नहीं हैं । अतः अब मेरे ऊपर आप कृपा कीजिये ॥७६॥
॥७६॥
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*॥ क्षण विछोह ॥*
*साहिब सौं मिल खेलते, होता प्रेम सनेह ।*
*दादू प्रेम सनेह बिन, खरी दुहेली देह ॥७७॥*
यदि मेरा मन भगवान् के प्रेम से पूर्ण होता है तो भगवान् भी हमारे से प्रेम करते तब भगवान् से मिलकर दर्शन के आनन्द का खेल उनके साथ खेलता है । अतः उनके दर्शन न होने से मेरी आत्मा दुःखी ही है ॥७७॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ६९/७३)

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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ६९/७३)*
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*॥ विनती ॥*
*तुम हो तैसी कीजिये, तो छूटेंगे जीव ।*
*हम हैं ऐसी जनि करो, मैं सदके जाऊँ पीव ॥६९॥*
हे प्रभो ! जैसी आपकी पतित पावनी अखण्ड कीर्ति है वैसी ही कृपा जीवों पर करेंगे तब ही उनका उद्धार हो सकेगा और हमारे कर्मानुसार यदि कोप दृष्टि करोगे तो हमारा कल्याण नहीं हो सकेगा । हे प्रभो ! मैं आप पर अपने को न्योंछावर कर रहा हूं । कृपा करके मेरा उद्धार करो ॥६९॥
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*अनाथों का आसरा, निरधारों आधार ।*
*निर्धन का धन राम है, दादू सिरजनहार ॥७०॥*
हे सृष्टि सिरजनहार राम ! आप अनाथों के पूर्ण आधार हैं और निराधारों के आधार हैं । निर्धनों के तो आप ही धन हैं । अतः आप हमें निराधार समझ कर अवश्य हम पर कृपा करें ॥७०॥
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*साहिब दर दादू खड़ा, निशदिन करै पुकार ।*
*मीरां मेरा मिहर कर, साहिब दे दीदार ॥७१॥*
जगत् के स्वामी प्रभु के द्वार पर बहुत देर से खडा हुआ यह आपका भक्त दादू चिरकाल से बुला रहा है कि हे प्रभो ! मेरे ऊपर दया कर के स्वयं ही श्री हरि मुझे दर्शन देंवे ॥७१॥
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*दादू प्यासा प्रेम का, साहिब राम पिलाइ ।*
*प्रकट प्याला देहु भर, मृतक लेहु जिलाइ ॥७२॥*
हे राम ! मैं आपके प्रेमरस का प्यासा आपके द्वार पर खड़ा हूं । आप ही मेरे ऊपर कृपा करके प्रगट होकर उज्जवल प्रेमामृत रस को बुद्धि पात्र में भर कर पिलाइये । जिससे भोगों में आसक्त मेरा मन प्रायः मृतक सा हो रहा है, वह जीवित होकर ब्राह्मी स्थिति में पहुँच जाय ॥७२॥
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*अल्लह आली नूर का, भर-भर प्याला देहु ।*
*हम को प्रेम पिलाइ करि, मतवाला कर लेहु ॥७३॥*
हे भगवान् ! आप अपने सौन्दर्यस्वरूप श्रेष्ठ अमृतरस के प्याले भर भर कर पिलाइये । जिससे मैं आपके प्रेममधु को पीकर उन्मत्त हो जाऊं । हे राम ! कृपा करके मुझे अपने स्वरूप में लीन कर लो ॥७३॥
(क्रमशः)

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ६५/६८

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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ६५/६८)*
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*सत छूटा शूरातन गया, बल पौरुष भागा जाइ ।
*कोई धीरज ना धरै, काल पहूँता आइ ॥६५॥
सत्य स्वरूप परमात्मा का चिन्तन छूट गया । हृदय से साधन करने का उत्साह समाप्त हो गया । शारीरिक शकित मनोबल भी न्यून होता जा रहा है । बुद्धि इन्द्रियां सब अधीर हो गये हैं । मृत्यु भी समीप आ पहुंचा । अतः हे प्रभो ! ऐसी अवस्था में आप ही रक्षा कर सकते हैं ।
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*संगी थाके संग के, मेरा कुछ न वशाइ ।
*भाव भक्ति धन लूटिये, दादू दुखी खुदाइ ॥६६॥
बुद्धि इन्द्रियाँ मन आदि मेरे सहायक साथी थे, वे भी शक्तिशून्य हो चले । बुद्धि के ठीक न रहने के कारण कामादि शत्रु भी भावभक्ति धन को लूटने में लगे हुए हैं । उन पर मेरा कोई अब प्रभुत्व भी नहीं रह गया, अतः मैं दादूराम आप से दुःखी होकर प्रार्थना कर रहा हँ कि हे जगन्नाथ ! परमात्मन् मेरी रक्षा करें । हे राम ! मेरी रक्षा करें ॥
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*॥ परिचय करुणा विनती ॥*
*दादू जियरे जक नहीं, विश्राम न पावै ।*
*आत्म पाणी लौंण ज्यों, ऐसे होइ न आवै ॥६७॥*
जैसे जल में डाला हुआ नमक जल में मिल कर एक हो जाता है । वैसे ही जब तक जीवात्मा परमात्मा का अभेद नहीं हो जाता तब तक प्राणी को शान्ति नहीं होती । जल में जल मिलने के समान अखण्ड विश्राम नहीं प्राप्त होता । जब तक मेरे मन की अखण्ड ब्रह्माकारा वृत्ति बनेगी तब ही मुझे शाश्वत सुख प्राप्त होगा । हे प्रभो ! यह सब आपकी कृपासाध्य है । अतः आपके आगे मेरी यही प्रार्थना है कि आप मेरे को अपने में मिला कर अपने से अभिन्न बनालो ॥६७॥
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*॥ दया विनती ॥*
*दादू तेरी खूबी खूब है, सब नीका लागे ।*
*सुन्दर शोभा काढ़ ले, सब कोई भागे ॥६८॥*
हे प्रभो ! आप प्रत्येक प्राणी के हृदय में जीव भाव से प्रविष्ट होकर बहुत सुन्दर लगते हैं । आप के प्रवेश से ही सब कुछ मनोहर लगता है । यदि इस सुन्दर शरीर से कदाचित् जीवशक्ति चली जाय तो उसके सभी सम्बंधीवर्ग उस से भयभीत होकर दौड जाते हैं । अतः आप अब हम पर दया करके अपने स्वरूप में लीन कर लो जिससे अखण्ड शोभा बनी रहे ॥६८॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ६१/६४

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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ६१/६४)*
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*समर्थ धोरी कंध धर, रथ ले ओर निवाहि ।*
*मार्ग मांहि न मेलिये, पीछे बिड़द लजाहि ॥६१॥*
मेरे जीवन रथ को धारण करने वाले समर्थ प्रभो ! आप इस शरीर रूपी रथ को अपने कन्धे पर धारण करके अन्त तक निभा दीजिये । मार्ग में मेरा त्याग मत करो । अर्थात् अपने स्वरूप में मिला लीजिये । यदि मध्य में ही त्याग देंगे तो आपकी भक्तवत्सलता रूपी कीर्ति लज्जित होगी । क्योंकि आप अपने भक्तों को कभी नहीं त्यागते ॥६१ ॥
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*दादू गगन गिरै तब को धरै, धरती-धर छंडै ।*
*जे तुम छाड़हु राम रथ, कंधा को मंडै ॥६२॥*
जो वस्तु आकाश से गिरे उसे पृथ्वी धारण करती है । यदि वह पृथ्वी ही उसको धारण न करे तो फिर उस वस्तु को कौन धारण करेगा । ऐसे ही हे राम ! आप मेरे जीवन रथ को अपने स्वरूप तक न पहुँचा कर मध्य में ही त्याग देंगे तो फिर उसके नीचे कंधा लगा कर कौन पार पहुंचावेगा । अतः आप कृपा करके मुझे अपने में लीन करलें ॥६२॥
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*अन्तरयामी एक तूँ, आतम के आधार ।*
*जे तुम छाड़हु हाथ तैं, तो कौन संभालणहार ॥६३॥*
हे अन्तर्यामी प्रभो ! इन सब जीवात्माओं के आश्रय तो एक मात्र आप ही हैं । यदि आप ही अपने कृपा हस्त से त्याग देंगे तो फिर इस संसार में हमें आप से मिलाने वाला कौन होगा । आप तो सब जगह पर कृपा ही करते रहते हैं ॥६३॥
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*तेरा सेवक तुम लगै, तुम्हीं माथै भार ।*
*दादू डूबत रामजी, बेगि उतारो पार ॥६४॥*
आपका यह सेवक सभी साधन प्राप्ति के लिये ही करता है और आप के समक्ष में खड़ा है । अतः इसकी रक्षा का भार आप पर ही निर्भर करता है । हे राम ! यह आपका सेवक दादूदास संसार समुद्र में डूब रहा है । आप शीघ्रता करके मेरा उद्धार कीजिये ॥६४॥
(क्रमशः)

सोमवार, 12 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ५७/६०

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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ५७/६०)*
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*दादू आत्म जीव अनाथ सब, करतार उबारै ।*
*राम निहोरा कीजिये, जनि काहू मारै ॥५७॥*
यह जीवात्मा सब प्रकार से असहाय अनाथ है । इसलिये जगत् को बनाने वाले परमात्मा को पुकारते हैं की-हे राम ! अनाथ प्राणियों पर कृपा कीजिये, जिससे उनको कामादिशत्रु नहीं मार सके ॥५७॥
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*अर्श जमीं औजूद में, तहाँ तपै अफताब ।*
*सब जग जलता देख कर, दादू पुकारैं साध ॥५८॥*
जैसे पृथिवी और आकाश के मध्य में सूर्य तपता हुआ संसार के प्राणियों को संतप्त करता है । उसी प्रकार सारे संसार को त्रिविध तापों से संतप्त देख कर संत जन प्रार्थना करते हैं कि आप विविध तापों से जलते हुए संसार की रक्षा करें ॥५८॥
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*सकल भुवन सब आत्मा, निर्विष कर हरि लेइ ।*
*पड़दा है सो दूर कर, कश्मल रहण न देइ ॥५९॥*
हे राम ! आप संपूर्ण भुवनों के संपूर्णलोकों की अविद्या को हर लो और अधिक से अधिक निर्मल करके अज्ञान रुपी पडदे को दूर कर दो । जिससे कहीं भी कोई पाप शेष न रहे और साथ में ही दर्शन देने की भी कृपा कीजिये ॥५९॥
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*तन मन निर्मल आत्मा, सब काहू की होइ ।*
*दादू विषय विकार की, बात न बूझै कोइ ॥६०॥*
सभी प्राणियों के तन मन और बुद्धि निर्मल हो जाय और कोई भी प्राणी कहीं पर भी इस लोक में विषयविकार सम्बन्धी बात भी न करें । हे नाथ ! ऐसी कृपा कीजिये ॥६०॥
(क्रमशः)

रविवार, 11 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ५३/५६

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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ५३/५६)*
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*दादू जग ज्वाला जम रूप है, साहिब राखणहार ।*
*तुम बिच अन्तर जनि पड़ै, तातैं करूँ पुकार ॥५३॥*
अहो ! ये लोग तो काम क्रोध की अग्नि की तरह जलाने वाले ही हैं । रक्षक तो एक मात्र राम ही हैं । हे राम ! मैं बार-बार प्रार्थना करता हूं कि आपके और मेरे बीच में कोई सांसारिक अन्तराल नहीं पडना चाहिये ॥५३॥
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*जहँ तहँ विषय विकार तैं, तुम ही राखणहार ।*
*तन मन तुम को सौंपिया, साचा सिरजनहार ॥५४॥*
मैंने अपना जीवन यथार्थ सृष्टिकर्ता मान कर आपको समर्पण कर दिया । अतः जहां कहीं भी इन्द्रियों के विषय विकारों में यदि चित्तवृत्ति जाय तो आप उसकी रक्षा कर के अपनी शरणागत वत्सलता का परिचय दीजिये ॥५४॥
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*॥ दया विनती ॥
*दादू कहै- गरक रसातल जात है, तुम बिन सब संसार ।*
*कर गहि कर्त्ता काढि ले, दे अवलम्बन आधार ॥५५॥*
हे प्रभो ! संसारी प्राणी महामाया से मोहित होकर परब्रह्म परमात्मा को सर्वत्र नहीं देखते । अतः वे मूढ अधोगति को जा रहे हैं । आप कृपा करके दया रुपी हाथों का अवलम्बन देकर अधोगति से बचाइये । क्योंकि आपकी कृपा ही सदा सब का आधार माना गया है ॥५५॥
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*दादू दौं लागी जग प्रज्वलै, घट घट सब संसार ।*
*हम तैं कछू न होत है, तुम बरसि बुझावणहार ॥५६॥*
हे परमेश्वर ! प्रत्येक प्राणि के हृदय में यह भयंकर भेद बुद्धि भरी पडी है । उसी से यह जीव जल रहा है । अतः हे प्रभो ! आप ही हमारी रक्षा कीजिये । क्योंकि यह जीव अपने भेद को मिटाने में स्वयं समर्थ नहीं है । आप अपनी दया दृष्टि की वर्षा करके इस भेदाग्नि को नष्ट कीजिये । जिससे प्राणियों का उद्धार हो जावे ॥५६॥
(क्रमशः)

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ४८/५२

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ४८/५२)*
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*॥ पोष प्रतिपाल रक्षक ॥*
*समर्थ सिरजनहार है, जे कुछ करै सो होइ ।*
*दादू सेवक राख ले, काल न लागै कोइ ॥४८॥*
सृष्टि की रचना करने वाला परमात्मा सर्वसमर्थ है । वे जो कुछ भी करना चाहते हैं वह ही होता है । अतः हे प्रभो ! आप अपने सेवक की रक्षा करो, जिससे काल का भय दूर हो जाय ॥४८॥
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*॥ विनती ॥*
*साँई साचा नाम दे, काल झाल मिट जाइ ।*
*दादू निर्भय ह्वै रहे, कबहूँ काल न खाइ ॥४९॥*
आप हमें अपने नाम का निष्काम भाव से स्मरण का साधन बतलाइये । जिससे काम क्रोध आदि की ज्वाला शान्त हो जाय । जिससे यह दादू भी भय से रहित हो जाय तथा किसी प्रकार का काल भी मुझे नहीं खा सके । इतनी कृपा आप मेरे ऊपर कीजिये ॥४९॥
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*कोई नहिं करतार बिन, प्राण उधारणहार ।*
*जियरा दुखिया राम बिन, दादू इहि संसार ॥५०॥*
भगवान् के साक्षात्कार के बिना जीव इस जगत् में परम दुःखी रहता है । जन्म मरण से मुक्ति देने वाला तो विश्व का बनाने वाला राम ही है । इसलिये दादू जी प्रार्थना कर रहे हैं कि मेरे प्राणों का उद्धार करने वाला और कोई नहीं । राम के बिना तो मेरा चित्त अत्यन्त दुःखी रहता है ॥५०॥
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*जिनकी रक्षा तूँ करै, ते उबरे करतार ।*
*जे तैं छाड़ै हाथ तैं, ते डूबे संसार ॥५१॥*
हे भगवान् जिन भक्तों की आप कामादि दोषों से रक्षा करते हैं वे संसार सागर से पार हो जाते हैं । जिन को आपने हाथों से त्याग दिया है वे तो संसार में डूबते ही रहते हैं ॥५१॥
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*राखणहारा एक तूँ, मारणहार अनेक ।*
*दादू के दूजा नहीं, तूँ आपै ही देख ॥५२॥*
इस संसार में मेरी रक्षा करने वाला तो एक परमात्मा ही है और मारने वाले कामादि शत्रु तो अनेक हैं और विशेष करके मेरा आपके बिना अन्य कोई आधार नहीं है । अतः आप स्वयं ही देखिये कि मैं सत्य कहता हूं या मिथ्या ? ॥५२॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ४४/४७

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ४४/४७)*
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*दादू प्राणी बँध्या पंच सौं, क्योंही छूटै नांहि ।*
*निधणी आया मारिये, यहु जीव काया मांहि ॥४४॥*
यह जीवात्मा पांचों इन्द्रियों के विषय से बंधा हुआ है । आपकी कृपा के बिना किसी भी प्रकार से मुक्त नहीं हो सकता है । आप जैसे स्वामी के रहते हुए यह जीवात्मा शरीर में आकर बार-बार मालिक के बिना जैसे वस्तु नष्ट हो जाती है वैसे ही काल के द्वारा मारा जा रहा है । आपको रक्षा करनी चाहिये ॥४४॥
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*दादू कहै-*
*तुम बिन धणी न धोरी जीव का, यों ही आवै जाइ ।*
*जे तूँ साँई सत्य है, तो बेगा प्रकटहु आइ ॥४५॥*
इस जीव का आपके बिना कोई स्वामी नहीं है । जो इस की रक्षा कर सके । इसलिये यह संसार में बार-बार जन्मता मरता रहता है । यदि आप हमारे सच्चे स्वामी रक्षक है तो शीघ्र ही हमारे हृदय में प्रकट होकर दर्शनों के द्वारा जन्म-मरण रूपी क्लेशों से हमारी रक्षा कीजिये ॥४५॥
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*निधणी आया मारिये, धणी न धोरी कोइ ।*
*दादू सो क्यूँ मारिये, साहिब सिर पर होइ ॥४६॥*
यह जीवात्मा स्वामी रहित वस्तु के समान काल के द्वारा मारा जाता है । क्योंकि इसने अपना रक्षक तथा देखभाल करने वाले परमात्मा को नहीं अपनाया । जो सर्वभाव से भगवान् की शरण में चला जाता है तथा जिसका स्वामी रक्षा करने वाला सामने ही खड़ा है वह काल के द्वारा नहीं मारा जाता । क्योंकि उसकी रक्षा करने वाला परमात्मा उसके शिर पर ही खड़ा है ॥४६॥
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*॥ दया विनती ॥*
*राम विमुख जुग जुग दुखी, लख चौरासी जीव ।*
*जामै मरै जग आवटै, राखणहारा पीव ॥४७॥*
जो जीव राम के सन्मुख जाकर शरण नहीं ग्रहण करता । वह समस्त युगों में दुःखी ही रहता है और चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ प्रायः त्रिविध तापों से संतप्त होकर बार-बार जन्मता मरता रहता है । जो सब का प्यारा सर्व प्राणियों का आत्म स्वरूप राम है । वह ही सब की रक्षा करने वाला है ॥४७॥
(क्रमशः)

सोमवार, 5 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ४०/४३

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ४०/४३)*
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*पिंड परोहन सिन्धु जल, भव सागर संसार ।*
*राम बिना सूझै नहीं, दादू खेवनहार ॥४०॥*
यह हमारा शरीर ही जो मिट्टी का पिण्ड है वह ही नौका है । संसार ही समुद्र है । इसमें विषयरूपी जल में यह पिण्डरूपी नौका डूब रही है । इस भवसागर के विषय जल से पार करने वाला राम के अलावा अन्य कोई दृष्टिगोचर नहीं होता । राम ही खेवटिया बनकर पार कर सकते हैं ॥४०॥
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*यहु घट बोहित धार में, दरिया वार न पार ।*
*भैभीत भयानक देखकर, दादू करी पुकार ॥४१॥*
अपार संसार समुद्र में बहते हुए शरीर को देख का मैं अत्यन्त भयभीत हो रहा हूँ । हे राम ! मेरे मन को भय लग रहा है कि इस को कैसे पार करूंगा हे राम ! मैं आप की शरण में हूँ अतः आप ही इस शरीर नौका को पार लगावेगें ॥४१॥
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*कलियुग घोर अंधार है, तिसका वार न पार ।*
*दादू तुम बिन क्यों तिरै, समर्थ सिरजनहार ॥४२॥*
यह कलिकाल पाप रूपी महान् अन्धकार से परिपूर्ण है । इसका पारावार भी नहीं मालुम होता है । अतः हे सृष्टि के बनाने वाले सर्वसमर्थ परमात्मन् ! आपकी कृपा के बिना इसको हम कैसे पार कर सकते हैं । आप दया करके पार लगाईये ॥४२॥
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*काया के वश जीव है, कस कस बँध्या मांहि ।*
*दादू आत्मराम बिन, क्यों ही छूटै नांहि ॥४३॥*
यह जीवात्मा इस शरीर में स्थित होने के कारण इसमें अध्यास करके अत्यधिक बन्धनों में बंधा हुआ है और विशेष कर के माया के बन्धन में बंधा हुआ है । अतः जब तक इस जीव को आत्मा का साक्षात्कार नहीं होता तब तक किसी भी प्रकार से मुक्त नहीं हो सकता ॥४३॥
(क्रमशः)