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बुधवार, 15 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१४२

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१४२)*
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*१४२. परिचय । राजमृगांक ताल*
*देहुरे मंझे देव पायो, वस्तु अगोचर लखायो ॥टेक॥*
*अति अनूप ज्योति-पति, सोई अन्तर आयो ।*
*पिंड ब्रह्माण्ड सम, तुल्य दिखायो ॥१॥*
*सदा प्रकाश निवास निरंतर, सब घट मांहि समायो ।*
*नैन निरख नेरो, हिरदै हेत लायो ॥२॥*
*पूरव भाग सुहाग सेज सुख, सो हरि लैन पठायो ।*
*देव को दादू पार न पावै, अहो पै उन्हीं चितायो ॥३॥*
*इति राग केदार समाप्त ॥६॥पद २६॥*
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भा० दी०-परब्रह्म परमात्मानमिष्टदेवमहं स्वान्तःकरणे ज्ञानदृशा लब्धवानस्मि । तज्ज्योतिरनुपमं स्वान्तःस्थञ्चास्ति । पिण्डे ब्रह्माण्डे च सर्वत्र व्याप्तमेव ज्ञानदृशा दृश्यते । यच्च ज्योति- र्नित्यं प्रकाशमानस्वरूपं निरन्तरं सर्वप्राणिसमूहे परिपूर्णतया निवसति । अतो ज्ञानदृशाऽतिसमीप-
स्थत्वादेव मम प्रीतिरपि तस्मिञ्जाता ।
भाग्यवशादेव तस्य दर्शनं विधाय स्वान्तःकरणे सौभाग्य- सुखमनुभवामि । एतदर्थमेव भगवदनुग्रहान्ममेदं जन्मजातम् । कांकरियासरोवरेऽहमदावादनगरे साक्षात्कृत्याऽपि तस्य पारावारं ज्ञातुं न समर्थोऽभूवम् ।
उक्तं श्वेताश्वरोप-
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य स्वष्टारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥
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इन्द्रियों के अविषय परब्रह्म परमात्मा, जो मेरे इष्टदेव परम गुरु हैं, उनका मैंने अपने अन्तःकरण में ही ज्ञान-दर्शन किया है । वे मेरे अन्तःकरण में अनुपम ज्योति स्वरूप है । ज्ञान-दृष्टि से देखने पर वे पिण्ड और ब्रह्माण्ड में समान ही दिखते हैं, जो प्राणियों के सभी शरीरों में नित्य प्रकाश स्वरूप निरन्तर भास रहे हैं ।
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ज्ञान-दृष्टि से उनको हृदय में अति समीप ही देख कर मेरा प्रेम पैदा हो गया । मैं कोई पूर्व जन्म के भाग्योदय से ही उनके दर्शन करके हृदय-शय्या पर बैठ कर सौभाग्य-सुख का अनुभव कर रहा हूँ । उनकी कृपा से मेरा जन्म उनके दर्शनों के लिये ही हुआ है । अहमदाबाद नगर में कांकरिया तालाब पर उनके दर्शन करके भी मैं उनके आदि अन्त को नहीं जान सका ।
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श्वेताश्वतरोप.-
इस दुर्गम संसार के भीतर व्याप्त, आदि-अन्त से रहित, समस्त जगत् की रचना करने वाले, अनेक रूपधारी, जगत् को सब और से घेरे हुए, अद्वितीय, परम देव, परमेश्वर को जान कर मनुष्य समस्त कल्पनाओं से मुक्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 13 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१४१

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१४१)*
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*१४१. समर्थाई । राजमृगांक ताल*
*सिरजनहार तैं सब होइ ।*
*उत्पत्ति परलै करै आपै, दूसर नांहीं कोइ ॥टेक॥*
*आप होइ कुलाल करता, बूँद तैं सब लोइ ।*
*आप कर अगोचर बैठा, दुनी मन को मोहि ॥१॥*
*आप तैं उपाइ बाजी, निरखि देखै सोइ ।*
*बाजीगर को यहु भेद आवै, सहज सौंज समोइ ॥२॥*
*जे कुछ किया सु करै आपै, येह उपजै मोहि ।*
*दादू रे हरि नाम सेती, मैल कश्मल धोइ ॥३॥*
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भा० दी०-जगज्जन्मादिहेतुः प्रभुरेव जगदिदमभिन्ननिमित्तोपादानकारणत्वरूपेण सृजति, पाति, संहरति च । स्वयमेव घटं कुम्भकार इव स्थावरजङ्गमप्राणिनां शरीराणि निर्माति । “एकोऽहं बहुस्याम” इति संकल्पमात्रेण बहुधा भूत्वा सांसारिकाणां सृष्टिविधाय मायया तेषां मनो विमोह्य स्वयं निर्मायिकस्तिष्ठति । कर्मानुसारेण भिन्न भिन्नं फलं प्रदाय पालयति । न चैतन्माहात्म्यमीश्वरस्य कोऽपि सर्वात्मना विजानीते । अहन्तु तस्यैव परमात्मन: सर्वव्यापकस्य सामर्थ्य मन्ये । हे जीव ! त्वमपि हरिनाम कीर्तयन् स्वकीयं मानसं मलं दूरीकुरु । तदैवेश्वरस्य शक्तिज्ञानं ज्ञास्यसि । कीदृशो विलक्षण: प्रभुरस्ति ?
उक्तं श्वेताश्वतरोपनिषदि-
स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथाऽन्ये परिमुहह्यमानाः ।
देवस्यैशमहिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ॥
मुण्डके-
यथोर्णनाभि: सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामौषधय: संभवन्ति ।
तथा सत: पुरुषात्केशलोमानि तथाऽक्षरात्प्रभवन्तीह विश्वम्॥
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुयोतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी॥
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जगज्जन्मादि कर्ता प्रभु ही इस जगत् को अभिन्न निमित्तोपादान रूप से बनाता है । जैसे कुम्भकार घट का निर्माण करता है वैसे ही परमात्मा स्थावरंजंगम प्राणियों के शरीरों को बनाता है । मैं अकेला हूं, ऐसा संकल्प करके स्वयं ही अनेक रूप में बनकर संसारी पुरुषों के मन को अपनी माया से मोहित करके स्वयं मायारहित रहता है । प्राणियों के भिन्न-भिन्न कर्मानुसार उन्हें भिन्न-भिन्न फल देकर पालन करता है ।
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श्वेताश्वतर उपनिषद् में –
उसकी सामर्थ्य को कोई नही जानता । मैं तो यह सब कुछ जो है, वह परमात्मा की ही महिमा मानता हूं । हे जीव ! तुम भी परमात्मा का ध्यान करते हुए अपने मन को पवित्र बनालो तब ही ईश्वर को जान सकोगे कि परमात्मा कैसा विलक्षण सामर्थ्य वाला है ?
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श्वेताश्वतर उपनिषद् में –
कितने ही बुद्धिमान् लोग स्वभाव को ही कारण मानते हैं । कुछ दूसरे लोग काल को कारण मानते हैं । वास्तव में यह सब लोग मोहग्रस्त हैं क्योंकि वास्तविक कारण को जानते नहीं । वास्तव में यह परम देव परमात्मा की समस्त जगत् में फैली हुई महिमा है । जिसके द्वारा यह ब्रह्म-चक्र घुमाया जाता है ।
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मुण्डक में –
जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती है और स्वयं ही निगल जाती है, जैसे पृथिवी में नाना प्रकार की औषधियां उत्पन्न होती हैं, जिस प्रकार जीवित मनुष्य के शरीर में केश उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अविनाशी परब्रह्म से इस जगत् में सब कुछ पैदा होता है । उसी ब्रह्म से प्राण, मन, इन्द्रियाँ, वायु, ज्योति, जल, पृथ्वी पैदा होती है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 11 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१४०

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१४०)*
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*१४०. (गुजराती) अधीर उलाहन । त्रिताल*
*धरणीधर बाह्या धूतो रे,*
*अंग परस नहिं आपे रे ।*
*कह्यो अमारो कांई न माने,*
*मन भावे ते थापे रे ॥टेक॥*
*वाही वाही ने सर्वस लीधो,*
*अबला कोइ न जाणे रे ।*
*अलगो रहे येणी परि तेड़े,*
*आपनड़े घर आणे रे ॥१॥*
*रमी रमी रे राम रजावी,*
*केन्हों अंत न दीधो रे ।*
*गोप्य गुह्य ते कोई न जाणै,*
*एह्वो अचरज कीधो रे ॥२॥*
*माता बालक रुदन करंता,*
*वाही वाही ने राखे रे ।*
*जेवो छे तेवो आपणपो,*
*दादू ते नहिं दाखे रे ॥३॥*
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भा० दी०-जगदाधारण प्रभुणा वयं वञ्चिता: यतस्तेनास्माकं मनसि स्वमायया मायिकपदार्थे-ध्वेव रतिर्जनिता । अतो वञ्चिताः सन्तो मुग्धा जाताः । तेन स्वस्वरूपं त्वंशेनापि न दर्शितम् । न चास्पदुक्तं वचनमुररीकरोति स तु स्वमन:प्रियं कार्य विधत्ते । अस्मान् वञ्चयित्वास्माकं सर्वस्वमपहृतवान् । न च निर्बलानप्यङ्गीकरोति । स्वयं जीवह्रदये वसन्नपि तेषां मन: सांसारिकविषयष्वेव प्रलोभ्य तेष्वेव विषयेषु रमयति । अतस्ते सांसारिकविषयासक्ता जाताः ।
अस्माभिः सह क्रीडन्नस्मान् प्रसन्नीकरोति । परन्तु दर्शनं न ददाति । स च हृदयगुहां प्रविष्टो विलीयते तत्रैव न च कोऽपि तस्यान्तं वेत्ति इति महदाश्चर्यम् । यथा माता बालकं बोधयन्ती प्रसादयति तथा भगवानपि जीवान् मायया मोहयन् वशीकरोति । वास्तविकं तात्त्विकं स्वरूपं कस्मैचिदपि न दर्शयति । यावद्धि भेददृष्टिस्तावन्नाद्वैतज्ञानं जायते । अद्वैतज्ञाने जाते तु भेदनिवृत्त्या कः कं भेदेन पश्येत् ।
उक्तं वेदान्तसंदर्भे मनोलयप्रकरणे-
देहमध्ये स्थितं ब्रह्म कथं मूढ न पश्यसि
वाचा जल्यो वृथाऽयं तु निःशब्दं ब्रह्म उच्यते ॥
माया ब्रह्म कथं भिन्नं सूर्यरश्मी तथैव च
पुष्पगन्धं कथं भिन्नं जलतरङ्गं तथैव च ॥
ब्रह्मरूपमिदं सर्वं ब्रौवाहं न संशयः
मनोलयं भवेद् ब्रह्म बह्ममूलमिदं जगत् ॥
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इस पृथ्वी को धारण करने वाले परमात्मा ने हम सब को ठग रखा है । क्योंकि उन्होंने अपनी माया के द्वारा हमारे मन में मायिक पदार्थों से ही प्रेम पैदा कर रखा है । इसलिये हम सब ठगे गये । अपना स्वरूप तो अंशांश भी किसी को नहीं दिखलाते और हमरी प्रार्थना भी नहीं सुनते हैं । वे प्रभु अपने मन की ही करते हैं ।
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हमारे मन को ठग कर हमारा सर्वस्व हरण कर लिया । निर्बलों पर भी ध्यान नहीं देते । जीवों के हृदय में रहते हुए भी स्वयं अलग रह कर जीवों के मन में विषयों की ही प्रेरणा करते हैं । अतः जीवों का मन विषयों में ही आसक्त रहता है । हमारे साथ क्रीड़ा करते हुए सब को प्रसन्न करते हैं परन्तु अपना स्वरूप किसी को भी नहीं दिखाते हैं । स्वयं हृदय-गुहा में गुप्त ही रहते हैं । उनके आदि, अन्त को कोई नहीं जान सकता किन्तु वे प्रभु सब को जानते हैं ।
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यह ही सबसे बड़ा आश्चर्य है । जैसे माता बालक को प्रसन्न करती हैं, ठगती है, उसको कुछ देती नहीं, ऐसे ही भगवान् भी अपनी माया से जीवों को ठगते हैं, अपना वास्तविक स्वरूप किसी को भी नहीं दिखलाते । भाव यह है कि जब तक भेद-दृष्टि रहती है, तब तक अद्वैत-ज्ञान नहीं होता और अद्वैत-ज्ञान होने पर जीव-ब्रह्म का ऐक्य होने से कौन किसको देखे ?
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वेदान्तसंदर्भ में लिखा है कि-
नाम रूपात्मक सारी सृष्टि वाणी का ही विकार है, ब्रह्म तो निःशब्द है । अतः हे मूढ देह में स्थित उस ब्रह्म को क्यों नहीं देखता ?
जैसे सूर्य और उसकी किरणों में, पुष्प और गन्ध में, तथा जल और उसकी तरंगों में नाम मात्र का भेद प्रतीत होता है, वास्तव में सूर्य और किरण, पुष्प और गन्ध, जल और तरंग एक ही है । ऐसे मायाब्रह्म का भेद भी काल्पनिक ही है । अतः सब कुछ ब्रह्म ही है और तुम भी निःसंशय ब्रह्म ही हो । अतः अपने मन को जीतो, मन को जीतने पर सब कुछ ब्रह्म ही दिखता है । कारण कि मन से भेद पैदा होता है, मन के जीतने पर सब ब्रह्म ही प्रतीत होता है और ब्रह्ममूलक जगत् होने से भी यह जगत् ब्रह्ममय ही है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३९

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३९)*
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*१३९. विरह विनती । त्रिताल*
*मन वैरागी राम को, संगि रहै सुख होइ हो ॥टेक॥*
*हरि कारण मन जोगिया, क्योंहि मिलै मुझ सोइ ।*
*निरखण का मोहि चाव है,*
*क्यों आप दिखावै मोहि हो ॥१॥*
*हिरदै में हरि आव तूँ, मुख देखूं मन धोहि ।*
*तन मन में तूँ ही बसै, दया न आवै तोहि हो ॥२॥*
*निरखण का मोहि चाव है, ये दुख मेरा खोइ ।*
*दादू तुम्हारा दास है, नैन देखन को रोइ हो ॥३॥*
भा० दी०-जगदाधारण प्रभुणा वयं वञ्चिता: यतस्तेनास्माकं मनसि स्वमायया मायिकपदार्थे-ध्वेव रतिर्जनिता । अतो वञ्चिताः सन्तो मुग्धा जाताः । तेन स्वस्वरूपं त्वंशेनापि न दर्शितम् । न चास्पदुक्तं वचनमुररीकरोति स तु स्वमन:प्रियं कार्य विधत्ते । अस्मान् वञ्चयित्वास्माकं सर्वस्वमपहृतवान् । न च निर्बलानप्यङ्गीकरोति । स्वयं जीवह्रदये वसन्नपि तेषां मन:
सांसारिकविषयष्वेव प्रलोभ्य तेष्वेव विषयेषु रमयति । 
अतस्ते सांसारिकविषयासक्ता जाताः ।
अस्माभिः सह क्रीडन्नस्मान् प्रसन्नीकरोति । परन्तु दर्शनं न ददाति । स च हृदयगुहां प्रविष्टो विलीयते तत्रैव न च कोऽपि तस्यान्तं वेत्ति इति महदाश्चर्यम् । यथा माता बालकं बोधयन्ती प्रसादयति तथा भगवानपि जीवान् मायया मोहयन् वशीकरोति । वास्तविकं तात्त्विकं स्वरूपं कस्मैचिदपि न दर्शयति । यावद्धि भेददृष्टिस्तावन्नाद्वैतज्ञानं जायते । अद्वैतज्ञाने जाते तु भेदनिवृत्त्या कः कं भेदेन पश्येत् ।
उक्तं वेदान्तसंदर्भे मनोलयप्रकरणे-
देहमध्ये स्थितं ब्रह्म कथं मूढ न पश्यसि
वाचा जल्यो वृथाऽयं तु निःशब्दं ब्रह्म उच्यते ॥
माया ब्रह्म कथं भिन्नं सूर्यरश्मी तथैव च
पुष्पगन्धं कथं भिन्नं जलतरङ्गं तथैव च ॥
ब्रह्मरूपमिदं सर्वं ब्रौवाहं न संशयः
मनोलयं भवेद् ब्रह्म बह्ममूलमिदं जगत् ॥
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भगवान् श्रीराम को देखने के लिये मेरा मन विषयों से उपराम हो रहा है । सर्वदा ही मेरे साथ उनका वास होगा, तब ही मुझे परमानन्द प्राप्त होगा । उनका दर्शन कैसे हो ? ऐसा विचार कर उनकी प्राप्ति के लिये मेरा मन वृत्तियों को रोक कर योगी हो रहा है और मन में उनके दर्शनों की बड़ी उत्कण्ठा लगी हुई है । कैसे भगवान् अपने स्वरूप को प्रकट करेंगे ? जिससे मैं उनको देख लूं ।
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हे हरे ! मेरे हृदय में प्रविष्ट हो जावो, जिससे मैं अपने मन को पवित्र बना कर आपके मुख कमल का सदा ध्यान करता रहूं । मेरे हृदय में निवास करते हुए भी आप दर्शन नहीं देते, क्या आपकी दयालुता कहीं चली गई है ? क्या ! आप मेरे दुर्भाग्य से निर्दयी हो गये ? हे हरे ! मैं आपका दास हूं और आपके दर्शनों के लिये रो रहा हूं । अतः आप दर्शन देकर मेरे विरहजन्य दुःख को दूर कीजिये ।
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गोपीगीत में लिखा है कि –
हे कृष्ण ! हमारे प्राण आपके पास हैं और हम आपको दिशाओं में तलाश कर रही है । हम आपकी हैं और आप हमारे प्यारे हैं । अतः आपको दर्शन देना चाहिये ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३८

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३८)*
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*१३८. प्रश्‍न उत्तर । दादरा*
*कोई जानै रे, मर्म माधइये केरो ?*
*कैसे रहे ? करे का ? सजनी प्राण मेरो ॥टेक॥*
*कौन विनोद करत री सजनी, कवननि संग बसेरो ?*
*संत साधु गम आये उनके, करत जु प्रेम घणेरो ॥१॥*
*कहाँ निवास ? वास कहँ ? सजनी गवन तेरो ।*
*घट घट मांहि रहै निरन्तर, ये दादू नेरो ॥२॥*
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भा० दी०-हे साधकसखि ! माधवस्य रहस्यमयं सृष्टिकार्यं कथय, किमपि जानासि किम् ?
सतु ममैकमात्रं प्राणाधारः, स: कथं वसति ? किं विदधाति ? कथमानन्दविनोदं करोति ? केन सह क्रीडति इत्यादि सर्वस्वं किं त्वं वेत्सि ? साधवस्तु तस्य स्मरणं विदधानास्तेन सहैव रज्यन्ति । हे साधिके । स क्व वसति ! तव मनो वा कुत्र गच्छति ? इत्यादिकं सर्वं जानासि किम् ?
सर्वेषां समाधानमाह-
सर्वेषु भूतेषु तस्यैव निवासः ।
भक्ता अपि तमेव ध्यायन्ति ।
य: सर्वेषां हृदयेषु वसति ।
सर्वमपि जगत् तस्यैव कार्यम् ।
तच्च तस्य विनोदमात्रम् ।
उक्तहि कठोपनि-
यदिदं किञ्च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम् ।
महद्भयं वज्रमुद्यतं य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥
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हे साधक सखि ! भगवान् माधव के रहस्यमय सृष्टि बनाने के कार्य को कौन नहीं जानता है ? वह माधव तो मेरे प्राणों का आधार है । वह कैसे रहता है, क्या करता है, किससे-विनोद कर रहा है, इन सब को जानते हो या नहीं ? साधु, संत तो उसी का ध्यान करते हुए उसी के प्रेम में मग्न रहते हैं । हे सखि ! अच्छा यह बताओ कि वह कहां रहता है और, तुम्हारी मनोवृत्ति कहां जा रही है, क्या तुम यह जानती हो ?
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सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर दे रहे हैं कि –
वह सब भूतों में निवास करता है । भक्त उसी का ध्यान करते हैं । वह सब के पास ही रहता है । यह संपूर्ण जगद् जो उसका कार्य है, यह उसका विनोद मात्र है । कठोपनिषद् में लिखा है कि –
परमेश्वर से निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत् है, वह प्राण स्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है । इस उठे हुए वज्र के समान महान् भय-स्वरूप(सर्वशक्तिमान्) परमेश्वर को जो जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं । जो सब प्राणियों का अन्तर्यामी, सब को वश में करने वाला, वह परमात्मा अपने एक ही रूप को बहुत प्रकार से बना लेता है । उस अपने अन्दर रहने वाले परमात्मा को जो ज्ञानी पुरुष निरन्तर देखते रहते हैं, उन्हीं को सदा अटल रहने वाला परमानन्द स्वरूप वास्तविक सुख मिलता है, दूसरों को नहीं ।
(क्रमशः)

रविवार, 5 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३७

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३७)*
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*१३७. उपदेश । त्रिताल*
*सजनी ! रजनी घटती जाइ ।*
*पल पल छीजै अवधि दिन आवै,*
*अपनो लाल मनाइ ॥टेक॥*
*अति गति नींद कहा सुख सोवै,*
*यहु अवसर चलि जाइ ।*
*यहु तन विछुरैं बहुरि कहँ पावै,*
*पीछे ही पछिताइ ॥१॥*
*प्राण-पति जागे सुन्दरि क्यों सोवे,*
*उठ आतुर गहि पाइ ।*
*कोमल वचन करुणा कर आगे,*
*नख शिख रहु लपटाइ ॥२॥*
*सखी सुहाग सेज सुख पावै,*
*प्रीतम प्रेम बढ़ाइ ।*
*दादू भाग बड़े पीव पावै,*
*सकल शिरोमणि राइ ॥३॥*
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भा० दी०-हे मनोवृत्ते ! त्वं मम सखीसमानाऽसि । अतोऽहं त्वां संबोधयामि । प्रगाढनिद्रायां दिवारानं सुप्ताऽसि । आयुष्यच ते प्रतिक्षणं क्षीयते । अत: प्रियतमं प्रभुं शीघ्र प्रसादय । इदानीं बहुदूरं गन्तव्यमस्ति । अविद्याग्रस्तायास्तव भजनवस्तु तरङ्गवदनारतं गच्छति । अस्मिन्नेव मानवदेहे प्रभुः प्राप्तव्यस्त्वया नान्यस्मिन् शरीरे । अन्यथा तु पश्चात्ताप एव भवेत् । प्राणेश्वरः परमात्मा तु भक्तेभ्यो दर्शनदानाय समुद्यतो वर्तते । पुनरपि त्वं कथं स्वपिषि । सत्वरमुत्थाय प्रभुचरणशरणग्रहणं कुरु । अतिनम्रतया करुणापूर्णवाचा भगवन्तं भज । नखादारभ्य शिखापर्यन्तं सकलं शरीरं प्रभुचरणकमलयो: समर्पितं कुरु । प्रियतमेन प्रभुणा सह प्रेम प्रदर्शय । प्रेग्णैव हृदयान्तराले सौभाग्यसुखं लभ्यते, भाग्येनैव कश्चिद् भगवन्तं प्राप्नोति ।
उक्तं हि योगवासिष्ठे- -
आगमापायपरया क्षणसंस्थितिनाशया ।
नविभेति हि संसारे धीरोऽपि क इवानया॥

अध्यात्मरामायणे-
आपदः क्षणमायान्ति क्षणमायान्ति संपदः ।
क्षणं जन्म क्षणं मृत्युर्मुने किमिव न क्षणम्॥
सीदन्ति प्राणा: सीदन्त्येवेह जातस्त्वन्यो नरो दिनैः ।
सदेकरूपं भगवान् किञ्चिदस्ति न तत् स्थिरम्॥
अतो वृद्धावस्थात: पूर्वमेव सर्वैरपि भगवान् ज्ञातव्यः ।
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हे चित्तवृत्ति ! तुम मेरी सखी के तुल्य हो, इससे मैं तुझे सावधान कर रहा हूं । तुम अगाध निद्रा में सोई हुई हो । आयु प्रतिक्षण दिन-रात की तरह क्षीण हो रही है । अतः अपने प्यारे प्रभु को जल्दी ही प्रसन्न करो । अभी तुम को बहुत दूर जाना है । अविद्या में सोते रहने से राम-भजन का अवसर नदी के तरंग की तरह दिन-रात बीता जा रहा है । इसी शरीर से भगवान् प्राप्त किया जाता है अन्यथा अन्त में पश्चाताप करना पड़ेगा । 
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प्राणेश्वर परमात्मा तो भक्तों को दर्शन देने के लिये उत्कण्ठित रहते हैं, फिर भी तू कैसे सोई हुई है, शीघ्र ही खड़ी होकर(जागकर) हरि के चरणों की शरण ग्रहण करके अति नम्रता से करुणापूर्वक स्वर से भगवान् की स्तुति कर । नख से शिखा पर्यन्त सारा शरीर भगवान् को अर्पण कर दे । प्रियतम प्रभु के साथ प्रेम करो, प्रेम करने से ही वे तुम्हारी-हृदय-शय्या पर जब आयेंगे, तब तेरे को सौभाग्य-सुख प्राप्त होगा । भाग्यवान् ही भगवान् को प्राप्त कर सकता है । 
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अध्यात्मरामायण में-
हे मुने ! यहां क्षण में आपत्तियां आती है और क्षण में सम्पत्तियां, क्षण में जन्म और क्षण में मृत्यु । इस जगत् में कौनसी ऐसी वस्तु है कि क्षणिक न हो ? भगवान् कहां उत्पन्न हुआ ? मनुष्य पहले कुछ और ही था, थोड़े दिनों बाद कुछ और प्रकार का हो जाता है । यहां एक रस रहने वाले सुस्थिर वस्तु कोई भी नहीं है । अत अविद्या से जाग कर वृद्धावस्था से पहले ही भगवान को जान लेना चाहिये । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३६

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३६)*
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*१३६. हितोपदेश । त्रिताल*
*जागत को कदे न मूसै कोई ।*
*जागत जान जतन कर राखै,*
*चोर न लागू होई ॥टेक॥*
*सोवत साह वस्तु नहिं पावे,*
*चोर मूसै घर घेरा ।*
*आस पास पहरे को नाहीं,*
*वस्ते कीन नबेरा ॥१॥*
*पीछे कहु क्या जागे होई,*
*वस्तु हाथ तैं जाई ।*
*बीती रैन बहुरि नहिं आवै,*
*तब क्या करि है भाई ॥२॥*
*पहले ही पहरे जे जागै,*
*वस्तु कछू नहिं छीजे ।*
*दादू जुगति जान कर ऐसी,*
*करना है सो कीजे ॥३॥*
.
भा० दी०-सर्वतोभावेन जाग्रत: पुरुषस्य गृहे चौरा न प्रवेष्टुं प्रभवन्ति । तथैव यस्यान्त:- करणं विवेकवैराग्यादिगुणैः समाहितं तत्र न कामादिचौराणां प्रवेश: संभवति । कुतो ज्ञानधनस्य चौर्यं संभवेत् । यस्तु जीवो विवेकादिज्ञानविहीनोऽविद्यानिद्रायां सततं स्वपिति तस्य विवेक-वैराग्यादिधनं कामादयश्चौरा: बलादप हरन्ति । गृहस्वामी तु स्वयं स्वपिति । न चान्यो दिव्यगुणसंपन्न: कामादिचौराणां निषेधक: प्रहरी वर्तते, यचौरान निषेधयेत् । शून्यं गृहं मत्वा स्वामिन: सर्वस्वं कामादय-श्चौरा ज्ञानधनं हरन्ति । आयुष्यञ्च प्रतिक्षणं क्षिणोत्येव । अतो हे तात! पूर्वावस्थायामेव जागृहि । यश्च यौवन एव सावधान: (ज्ञान-संपन्न:) भवति तस्य किमपि तात्विकं वस्तु न क्षीयते । अतो यौवन एव त्वया ज्ञानसंपन्नेन भाव्यम् । यत्कर्तव्यमस्ति तत्सपद्येव तत्करणीयम् ।
उक्तंहि वासिष्ठे -वैराग्य सर्गे
इमान्यमूनीति विभावितानि कार्याण्यपर्यन्तमनोरमाणि ।
जनस्य जायाजनरञ्जनेन जवाज्जरन्तं जरयन्ति चेतः ॥
पर्णानि जीर्णानि यथा तरूणां समेत्य जन्माशुलयं प्रयान्ति ।
तथैव लोकाः स्वविवेकहीना: समेत्य गच्छन्ति कुतोऽष्यहोभिः ॥
.
हर तरह से सावधान रहने वाले के घर में चोर चौरी नहीं कर सकता है, वैसे ही जिसका अन्तःकरण विवेक, वैराग्यादि गुणों से संपन्न होकर एकाग्र हो रहा है, वहां पर कामादि चोरों का प्रवेश भी नहीं हो सकता । फिर ज्ञान-धन को तो चुरा ही कौन सकता है ?
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जो जीव विवेक-विज्ञान से रहित है तथा अविद्या-निद्रा में सदा सोता ही रहता है, उसके विवेक-वैराग्यादि धन को काम-क्रोधादि चोर जबरदस्ती लूट लेते हैं, क्योंकि घर का मालिक तो अविद्या में सो रहा है और कोई दैवीगुण संपन्न पहरेदार व्यक्ति है नहीं, जो उनका निषेध करे । सूना घर समझ का काम-क्रोधादि शत्रु उसके संपूर्ण ज्ञान-धन को लूट कर ले जाते हैं ।
.
जो यौवन में ही नहीं जाग सका(ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका) तो फिर बुढापे में वह कैसे जाग सकेगा ? आयु तो प्रतिदिन क्षीण हो रही है । हे तात ! अतः यौवन में ही ज्ञान प्राप्त करके जागो । जो यौवन में सावध न हो जाता है, उसके घर से कोई भी वस्तु(ज्ञान) नष्ट नहीं होती, अतः युवावस्था में ही ज्ञान संपन्न होकर कर्तव्य कर्मों को करना चाहिये ।
.
योगवासिष्ठ में लिखा है कि –
इनको अभी करना है और उन्हें बाद में, इस प्रकार जिनके लिये चिन्ता की जाती है, वे आपात रमणीय एवं परिणाम में अनर्थरूप सिद्ध होने वाले कर्म, स्त्रियों तथा अन्य लोगों के लिये मनोरंजनपूर्वक किये जाते हुए, वृद्धावस्था के अन्त तक लोगों के चित्त को वेगपूर्वक जीर्ण-शीर्ण(विवेक भ्रष्ट) करते रहते हैं । जैसे वृक्षों के पत्ते उत्पन्न हो कर थोड़े ही दिनों में पीले पड़ कर गिर जाते हैं, इसी प्रकार आत्मविवेक से भ्रष्ट मनुष्य इस लोक में जन्म लेकर एक दूसरे से मिलकर कुछ ही दिनों में साथ छोड़ कर चल देते हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३५

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३५)*
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*१३५. तर्क चेतावनी । प्रतिपाल*
*जात कत मद को मातो रे ।*
*तन धन जोबन देख गर्वानो,*
*माया रातो रे ॥टेक॥*
*अपनो हि रूप नैन भर देखै,*
*कामिनी को संग भावै रे ।*
*बारम्बार विषय रत मानैं,*
*मरबो चित्त न आवै रे ॥१॥*
*मैं बड़ आगे और न आवे,*
*करत केत अभिमाना रे ।*
*मेरी मेरी करि करि फूल्यो,*
*माया मोह भुलानां रे ॥२॥*
*मैं मैं करत जन्म सब खोयो,*
*काल सिरहाणे आयो रे ।*
*दादू देख मूढ़ नर प्राणी,*
*हरि बिन जन्म गँवायो रे ॥३॥*
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भा० दी०-सर्वतोभावेन जाग्रत: पुरुषस्य गृहे चौरा न प्रवेष्टुं प्रभवन्ति । तथैव यस्यान्त:- करणं विवेकवैराग्यादिगुणैः समाहितं तत्र न कामादिचौराणां प्रवेश: संभवति । कुतो ज्ञानधनस्य चौर्यं संभवेत् । यस्तु जीवो विवेकादिज्ञानविहीनोऽविद्यानिद्रायां सततं स्वपिति तस्य विवेक-वैराग्यादिधनं कामादयश्चौरा: बलादप हरन्ति । गृहस्वामी तु स्वयं स्वपिति । न चान्यो दिव्यगुणसंपन्न: कामादिचौराणां निषेधक: प्रहरी वर्तते, यचौरान निषेधयेत् । शून्यं गृहं मत्वा स्वामिन: सर्वस्वं कामादय-श्चौरा ज्ञानधनं हरन्ति । आयुष्यञ्च प्रतिक्षणं क्षिणोत्येव । अतो हे तात! पूर्वावस्थायामेव जागृहि । यश्च यौवन एव सावधान: (ज्ञान-संपन्न:) भवति तस्य किमपि तात्विकं वस्तु न क्षीयते । अतो यौवन एव त्वया ज्ञानसंपन्नेन भाव्यम् । यत्कर्तव्यमस्ति तत्सपद्येव तत्करणीयम् ।
उक्तंहि वासिष्ठे -वैराग्य सर्गे
इमान्यमूनीति विभावितानि कार्याण्यपर्यन्तमनोरमाणि ।
जनस्य जायाजनरञ्जनेन जवाज्जरन्तं जरयन्ति चेतः ॥
पर्णानि जीर्णानि यथा तरूणां समेत्य जन्माशुलयं प्रयान्ति ।
तथैव लोकाः स्वविवेकहीना: समेत्य गच्छन्ति कुतोऽष्यहोभिः ॥
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हे प्राणी ! तू माया से मोहित होकर कहां जा रहा है । तू अपने शरीर, धन, यौवन को देख-देख कर गर्व करता है, दिन रात मायिक पदार्थों में ही अनुरक्त रहता है, दर्पण में अपनी सुन्दरता को बार-बार क्या देखता है ? तुझे स्त्री का संग ही प्यारा है । विषयों में ही सुख मानता हुआ उनमें अनुराग करता है । क्या तू मृत्यु से भी नहीं डरता ?
.
तेरे मन में(मैं ही सबसे महान् हूं) ऐसे मिथ्या अभिमान के अलावा कोई अन्य सद्विचार पैदा ही नहीं होता । तू विद्या, धन, शरीर, यौवन तथा बन्धु-बान्धवों का मिथ्या ही अहंकार करता है । “यह मेरी वस्तु है” इस प्रकार के अहंकार के कारण प्रभु को भूलकर भ्रम में ही पड़ा हुआ भटकता है और मैं गुणी हूं, धनी हूं, आदि अहंकार करके तूने अपनी आयु व्यर्थ में ही खो दी ।
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तेरे शिर पर तो काल खड़ा है, क्या तू उसको भी नहीं देख रहा है ? क्या तू अंधा है ? तूने अपना जीवन हरि-भक्ति के बिना व्यर्थ में ही गँवा दिया, तेरा यह कार्य अच्छा नहीं है ।
.
योगवासिष्ठ में –
शरीर की बाल्य और युवा अवस्थाओं के बाद बुढापे की विषम अवस्था में पहुँच कर जरा-जीर्ण वाला जीव विषादमग्न हो इस लोक में अपने संचित धर्म-रहित(पापमय) कर्मों और विचारों को स्मरण करके जीव दुःसह अंतर्ज्वाला से जलता रहता है ।
जीवन के प्रारम्भ में केवल काम, अर्थ और सकाम धर्म की प्राप्ति के उद्देश्य से की गई क्रियाओं द्वारा ही अपने दिन बिताकर वृद्धावस्था को पहुँचे हुए उन मनुष्यों को हिलाते हुए मोरपंख के समान देखकर चंचल चित्त किस उपाय से सुख-शान्ति प्राप्त करे अर्थात् परमार्थ साधन के बिना सुख-शान्ति मिलना कठिन है । अतः अपनी आयु को व्यर्थ में मत गँवाओ ।
(क्रमशः)

सोमवार, 29 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३४

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३४)*
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*१३४. काल चेतावनी । पंचम ताल*
*बटाऊ ! चलना आज कि काल ।*
*समझि न देखे कहा सुख सोवे, रे मन राम संभाल ॥टेक॥*
*जैसे तरुवर वृक्ष बसेरा, पंखी बैठे आइ ।*
*ऐसैं यहु सब हाट पसारा, आप आपको जाइ ॥१॥*
*कोइ नहिं तेरा सजन संगाती, जनि खोवे मन मूल ।*
*यहु संसार देखि जनि भूलै, सब ही सैंबल फूल ॥२॥*
*तन नहिं तेरा धन नहिं तेरा, कहा रह्यो इहि लाग ।*
*दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे, काहे न देखे जाग ॥३॥*
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भा० दी०-हे पथिक ! त्वयाऽद्य श्वो वाऽवश्यं गन्तव्यमिति त्वं विचार्य पश्य, किमर्थं सुखं स्वपिषि! कथं न श्रीरामं स्मरसि ! यथा वृक्षे पक्षिण आरुहा रात्रौ विश्रम्य प्रात उड्डीयन्ते । यथा वा वणिजो वाणिज्यं विधाय दिवसावसाने आपणं विहाय स्वगृहं गच्छन्ति, तथैव संसारिणोऽपि स्वस्वकर्मानुसारं फलं भुक्त्वा शरीरान्तरं गृह्णन्ति । न हात्र कोऽपि चिरस्थायी, नहि कोऽपि तव सज्जनः सहायकः । किमर्थं व्यर्थं प्रभुं विस्मरसि । सर्वं हि जगत् किंशुकपुष्पसदृशं निर्गन्धं नि:स्नेह केवलमाभासमात्रं प्रतीयते । येषु त्वमनुरक्तोऽसि स्त्रीपुत्रादिषु, तेऽपि न ते सहायका: सन्ति । प्रभुदर्शन विना किमर्थं सुखं स्वपिषि! अविद्यां निरस्य प्रभुं किमर्थं न भजसि !
उक्तं योगवासिष्ठे-
विद्राविते शत्रुजने समस्ते समागतायामभितश्च लक्ष्याम् ।
सेवन्त एतानि सुखानि यावत्तावत्समायाति कुतोऽपि मृत्युः ॥
कुतोऽपि संवर्धिततुच्छरु -पैर्भावैरमीभिः क्षणनष्टदृष्टैः ।
विलोड्यमाना जनता जगत्यां न वेत्युपायातमहोऽनुपातम् ॥
.
हे पथिक जीव ! तुझे आज कल यहां से अवश्य जाना है, ऐसा विचार कर, व्यर्थ में ही क्यों सुख से सो रहा है । भगवान् को क्यों नहीं भजता ? जैसे पक्षी रात में वृक्ष पर बैठ जाते हैं और रात में विश्राम करके प्रातः काल उड़ जाते हैं, जैसे व्यापारी दिन में व्यापार करके अपनी दुकान को छोड़ कर सायंकाल अपने घर पर आ जाते हैं, ऐसे ही संसारी मनुष्य अपने-अपने कर्म-फलों को भोग कर दूसरे शरीर में जाते रहते हैं ।
.
इस संसार में कोई भी चिरस्थायी नहीं है । न कोई किसी का सज्जन-साथी है । तू हरि भजन के बिना अपना समय व्यर्थ में ही क्यों खो रहा है ? मिथ्याभूत संसार को देख कर क्यों प्रभु को भूल रहा है ? यह सारा संसार सेमल के फूल की तरह दिखावा मात्र है । जिन स्त्री, पुत्रादिकों में जो तू अनुरक्त हो रहा है, वे भी तेरे नहीं है । अविद्या को हटा कर प्रभु का भजन क्यों नहीं करता ।
.
योगवासिष्ठ में –
समस्त शत्रुओं को मार का र्भ्गा देने पर भी जब चारों ओर से धन संपत्ति प्राप्त होने लगती है, उस समय ज्यों ही मनुष्य इन को भोगने लगता है, त्यों ही मृत्यु कहीं से सहसा आ जाती है । जो किसी कारण से वृद्धि को प्राप्त होकर भी क्षण भर में ही नष्ट होते देखे जाते हैं । ऐसे अत्यन्त तुच्छ भोगों द्वारा इधर-उधर भटकाई गई जनता इस भूतल पर अपने निकट आई हुई मृत्यु को भी नहीं देख पाती । यह कितने आश्चर्य की बात है ?
(क्रमशः)

शनिवार, 27 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३३

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३३)*
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*१३३. मन उपदेश । पंचम ताल*
*हां, हमारे जियरा !*
*राम गुण गाइ, एही वचन विचारी मान ॥टेक॥*
*केती कहूँ मन कारणैं, तूँ छाड़ि रे अभिमान ।*
*कह समझाऊँ बेर-बेर, तुझ अजहुँ न आवै ज्ञान ॥१॥*
*ऐसा संग कहाँ पाइये, गुण गावत आवै तान ।*
*चरणों सौं चित राखिये, निसदिन हरि को ध्यान ॥२॥*
*वे भी लेखा देहिंगे, आप कहावैं खान ।*
*जन दादू रे गुण गाइये, पूरण है निर्वाण ॥३॥*
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भा० दी०- हे मनः ! त्वं मे वचनं श्रुत्वा चावधारय । हरिगुणगाथां तनु । कियदुपदिष्टं मया । अधुना तु अहंकारं त्यज । असकृदुपदिष्टे अद्यापि तव ज्ञानं न जातम् । अस्मिन् मानवदेहे हरिगुणानुवादे कृते कियानधिक आनन्दो जायते इति किं त्वं न जानासि । नहीदृशं जन्म पुनर्लभ्यते अत: स्वकीयं मनो भगक्च्चरणारविन्दयोर्निवेश्याहर्निशं भगवन्तमाश्रयस्व । किं तव बलं ये महान्तो जनाः सर्वशक्तिसंपन्नास्तेषामपि यमालये परमपीडनं भवति । अतोऽभिमानं परित्यज्य भगवद् गुणानुवादं विधेहि येन मुक्तिलभ्येत ।
उक्तहि भागवते -
आपन्न संसृति घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सदयो विमुच्येत यद् विभेति स्वयं भयम् ॥१४॥
सकृदुच्चरितं येन ' हरिरित्यक्षरद्वयम् ।
बद्धपरिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति ॥
वराह पुराणेऽपि-
सर्वधर्मोज्झिता विष्णोर्नाममात्रैकजल्पकाः ।
सुखेन यां गतिं यान्ति न तां सर्वेऽपि धार्मिकाः ॥
.
हे मन ! तू मेरे वचनों को सुन तथा उनको धारण कर । भगवान् के गुणगान कर । तेरे को कितना उपदेश दिया परन्तु तेरे एक भी उपदेश नहीं लगा । अब तू अहंकार को त्याग दे । बार-बार उपदेश देने पर भी तेरे को ज्ञान नहीं हुआ । इस मनुष्य शरीर में हरि के गुण गाने में कितना आनन्द आता है, क्या तू यह नहीं जानता ? ऐसा जन्म फिर नहीं मिलेगा ।
.
अतः अपने मन को भगवान् के चरणों में लगाकर दिन रात उनका भजन कर । तेरा तो क्या बल है, जो बड़े-बड़े महान् पुरुष सर्व-शक्तिसंपन्न थे, उनको यमराज के यहां हिसाब देना पडता है । अतः अभिमान को छोड़कर हरि के गुणगान कर, जिससे तू मुक्त हो जावे ।
.
भागवत में लिखा है कि- प्यारे ! संसार में भयंकर विपत्ति में पड़ा हुआ व्यक्ति यदि विवश होकर भी भगवान् का नाम लेता है तो वह तत्काल मुक्त हो जाता है । जिससे यम भी भय मानता है । जिसने ‘हरि’ ये दो अक्षर वाला नाम उच्चारण कर लिया, उसने मोक्ष के लिये कमर कस ली ।
.
संपूर्ण धर्मों से रहित पुरुष भी भगवान् के नाम मात्र का उच्चारण करने से सुखपूर्वक उस उत्तम गति को पा लेते हैं, जिसे धर्मात्मा लोग भी नहीं पा सकते ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३२

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३२)*
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*१३२. विनती । त्रिताल*
*ये मन माधो बरजि बरजि ।*
*अति गति विषिया सौं रत,*
*उठत जु गरजि गरजि ॥टेक॥*
*विषय विलास अधिक अति आतुर,*
*विलसत शंक न मानैं ।*
*खाइ हलाहल मगन माया में,*
*विष अमृत कर जानैं ॥१॥*
*पंचन के संग बहत चहूँ दिशि,*
*उलट न कबहूँ आवै ।*
*जहँ जहँ काल ये जाइ तहँ तहँ,*
*मृग जल ज्यों मन धावै ॥२॥*
*साध कहैं गुरु ज्ञान न मानै,*
*भाव भजन न तुम्हारा ।*
*दादू के तुम सजन सहाई,*
*कछू न बसाइ हमारा ॥३॥*
.
भा० दी०- विषयव्याप्तमिदं मे मन इतस्तत: समनुधावति । विषयप्रियमिदं मन: सिंहवद्गर्जनां कृत्वा तदर्थमुल्लसति । विषयविषाकृष्टमिदं मनस्तत्प्राप्त्यये सततमुत्कण्ठते । विषयविषं पीयूषवन्मत्वा पिबति पीत्वा च तद्विषं मद्यप इव मायिकपदार्थेषु माद्यति । पञ्चभिर्ज्ञानेन्द्रियैर्दशदिक्षु विधावति । यथा मृगो मृगरीचिकाजले जलमन्वेष्टुं मुग्धः सन् धावति तथैव मे मनोऽपीदं चञ्चलया वृत्त्या मृत्युमप्यविगणय्य संसारगर्ने पतति । उन्मत्त त्वाद्धितमप्यहितं मन्यते । न च साधूपदेश माद्रियते । गुरूपदेशमपि तिरस्करोति । नच भगवद्भजनं विदधाति । दुष्टमिदं मनस्त्वमेव शिक्षयितुं शक्नोषि । अहन्तु तज्जेतुं न शक्नोमि । त्वमेव मे सहायकोऽसि । अतो दयां विधाय भवानेव मे मनोऽनुशास्तु ।
उक्तहि वासिष्ठे-
न मनोनिवृत्तिं याति मृगो यूथादिवच्युतः ।
मनो मननविक्षुब्धं दिशोदशविधावति ॥
मन्दराहननोद्भूतं क्षीरार्णवपयो यथा ।
भोगदुर्वाङ्कुराकांक्षी श्वभ्रपातमचिन्तयत् ॥
मनोहरिणको ब्रह्मन् दूरं विपरिधावति ।
चेतञ्चचलया वृत्त्या चिन्तानिचयचञ्चरम्॥
धृति बनाति नैकत्र पञ्जरे केसरी यथा ।
चेतः पतति कार्येषु विहग: स्वामिषेष्विव ॥
.
हे माधव ! इस मेरे विषय लम्पट मन को आप ही समझाओ और रोको । इस मन को विषय ही प्यारे लगते हैं । यह सिंह की तरह गर्जना करता हुआ उन विषयों की प्राप्ति के लिये उत्कण्ठित(प्रसन्न) होता रहता है । इस मन को विषय विलास ही अच्छा लगता है । उन उन विषयों में जाते हुए इसे जरा भी संकोच नहीं होता है । 
.
विषय-विष को अमृत की तरह पीता है । उन विषयों को पीकर पदार्थों की प्राप्ति के लिये पागल हो जाता है । पांचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ दशों दिशाओं में दौड़ता रहता है । उनको छोड़ कर कभी भी आपकी शरण में नहीं आता । जैसे मृग मरीचिका के पानी को सत्य मान कर वन में दौड़ता है, ऐसे ही यह मन भी चंचल वृत्ति के द्वारा मृत्यु की भी परवाह न करके संसार रूपी गर्त में गिर जाता है । पागल होने से हित को अहित, सत्य को असत्य मानता है ।
.
साधुओं के उपदेश को भी नहीं सुनता । गुरु के उपदेश को भी नहीं मानंता । श्रद्धा-भाव से कभी भगवान् का भजन भी नहीं करता । यह मन बड़ा ही दुष्ट है, इस को आप ही समझाइये । मैं स्वयं भी इस को जीतने में समर्थ नहीं हूं । आप मेरे सदा सहायक हैं, अतः कृपा करके इस मन को शिक्षा दो । 
.
वासिष्ठ में – हे मुने ! जैसे अपने झुंड से बिछुड़ कर जाल में जकड़े हुए मृग को कभी सुख नहीं मिलता, उसी प्रकार सत्संग आदि साधनों से रहित मन भी दुर्वासनाओं के जाल में जकड़ा रहता है और उसको कभी सुख, संतोष प्राप्त नहीं होते । विषयों के चिन्तन से क्षुभित यह मन मन्दराचल के आघात से उछालती हुई क्षीर-सागर की तरंगों के समान संसार में दौड़ता रहता है, कभी भी शान्त नहीं होता । 
.
हे ब्रह्मन् ! जैसे मृग गड्ढ़े में गिरने की चिन्ता न करके हरी-हरी दूब को चरने की इच्छा से प्रेरित हो बहुत दूर दौड़ लगाता है । उसी प्रकार यह मन बि नरक रूपी गर्त की परवाह न करके भोग-लालसा की आशा में बड़ी दूर तक चक्कर लगाता है । 
.
जैसे पिंजड़े में बन्द किया हुआ सिंह चिन्ता के कारण एक जगह स्थिर नहीं रहता, उसी प्रकार नाना चिन्ताओं से अत्यन्त चपल हुआ मन अपनी चंचल वृत्ति के कारण कहीं भी स्थिर नहीं रहता और मांस-भक्षी गीध मांस को खाने के लिये उस पर टूट पड़ता है, ऐसे ही यह मन नाना कार्यों में दौड़ता रहता है । अतः यह मन दुर्जेय है । आप ही दया करके इस मन को समझाओ ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 23 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३१

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===============
*१३१. केवल विनती । त्रिताल*
*हमारे तुम ही हो रखपाल ।*
*तुम बिन और नहीं को मेरे,*
*भव-दुख मेटणहार ॥टेक॥*
*वैरी पंच निमष नहिं न्यारे,*
*रोक रहे जम काल ।*
*हा जगदीश ! दास दुख पावै,*
*स्वामी करहु सँभाल ॥१॥*
*तुम्ह बिन राम दहैं ये द्वन्दर,*
*दसौं दिशा सब साल ।*
*देखत दीन दुखी क्यों कीजे,*
*तुम हो दीन-दयाल ॥२॥*
*निर्भय नाम हेत हरि दीजे,*
*दर्शन पर्सन लाल ।*
*दादू दीन लीन कर लीजे,*
*मेटहु सब जंजाल ॥३॥*
.
भा० दी०-हे प्रभो ! भवानेव सर्वदुःखहर्ता रक्षकश्चास्ति । नान्यः कश्चित्त्वविधो रक्षकः । कामक्रोधादयः शत्रवः शब्दस्पर्शादिविद्वेषिणो निमेषमात्रमपि न परिहरन्ति माम् । भवच्छरणागतिप्राप्तये प्रतिबन्धका इमे मां नरकं नेतुमिच्छन्ति । तत्राहं नरकयातनां सहिष्ये । किं बहुना, सर्वापदांबपरमास्पदभूताः सन्ति । हा जगदीश! दासोऽस्म्यहम् । शत्रुभिः पीड्यमानं मां झटिति रक्ष । भवद्दर्शना विना शोकमोहादिद्वन्द्वानि सर्वतो दिक्षु सर्वतोभावेन पीडयन्ति माम् । भवांस्तु दीनदयालुः कीयते, किमर्थं मां दुःखिनं ज्ञात्वाऽपि पुनरधिकं दुखिनं करोति भवान् । सर्वदुःखजालानि मे प्रणिहत्य स्वस्वरूपे लीनमवस्थापय । तदैव मे जीवनं सफलं भवेदन्यथा तु भारभूतमिदं मे स्यात् । प्राप्यं संप्राप्यते येन भूयो येन न शोच्यते ।
पराया निवृत्ते: स्थानं यत्तज्जीवितमुच्यते ॥
तरवोऽपि हि जीवन्ति जीवन्ति मृगपक्षिणः ।
स जीवति मनो यस्य मननेन च जीवति ॥
जातस्तु स एव जगति जन्तवः साधुजीविताः ।
ये पुनर्नेह जायन्ते शेषा जरठगर्दभाः ॥
.
हे भगवान् ! आप ही इस संसार के सब दुःखों को मिटाने वाले और रक्षक हैं । आप जैसा दूसरा कोई भी नहीं है । काम, क्रोध आदि शत्रु - शब्द, स्पर्श. आदि पांचों इन्द्रियों के विषय क्षण भर भी मुझे नहीं छोड़ते और आप की तरफ आने में बाधक हैं तथा नरक में डाल देते हैं । वहां पर मुझे नरकयातना भोगनी पड़ती है । 
.
ज्यादा क्या करूं ? ये सब आपत्तियों के घर हैं । हा जगदीश ! मैं आपका दास हूं । इन दुःखों से दुःखित की रक्षा कीजिये । आपके दर्शनों के बिना शोक, मोह आदि द्वन्द्व चारों दिशाओं में पीड़ा दे रहे हैं । आप तो दयालु हैं फिर मुझे दुःखी देखकर भी अधिक दुःखी क्यों कर रहे हैं ? हे भगवान् ! आप अपना नाम, दर्शन और स्पर्श, प्रदान करके मुझे निर्भय और सुखी बना दीजिये । 
.
बस, दुःखों के जालों को नष्ट करके ओने स्वरूप में लीन कर दो । तब ही मैं अपने जीवन को जीवन मानूंगा, नहीं तो भारभूत ही है । लिखा है कि- वास्तव में वही जीवन उत्तम जीवन है । जिसमें अवश्य पाने योग्य परमात्मज्ञान की प्राप्ति होती है, जिस से फिर शोक नहीं करना पड़ता तथा जो परम निर्वाण रूप सुख का स्थान है । यों तो वृक्ष भी जीते हैं, पशु और पक्षी भी जीवित रहते हैं । 
.
वास्तव में उसी पुरुष का जीवन सफल है जिसका मन उन्मनीभाव को प्राप्त हो जाय । इस संसार में उसी का पैदा होना अच्छा है जो साधु जीवन यापन करता है, जिससे फिर जनम न हो । बाकी तो बूढे गधे की तरह भारवाही हैं ।    
(क्रमशः) 

शनिवार, 20 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३०

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३०)*
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*१३०. (गुजराती) विनती । पंचमताल*
*तूँ ही तूँ तनि माहरे गुसांई,*
*तूँ बिना तूँ केने कहूँ रे ।*
*तूँ त्यां तूँ ही थई रह्यो रे,*
*शरण तुम्हारी जाय रहूँ रे ॥टेक॥*
*तन मन मांहि जोइये त्यां तूँ,*
*तुज दीठां हौं सुख लहूँ रे ।*
*तूँ त्यां जेटली दूर रहूँ रे,*
*तेम तेम त्यां हौं दुःख सहूँ रे ॥१॥*
*तुम बिन माहरो कोई नहीं रे,*
*हौं तो ताहरा वैण बहूँ रे ।*
*दादू रे जण हरि गुण गाता,*
*मैं मेलूँ माहरो मैं हूँ रे ॥२॥*
.
भा० दी०-हे भगवन् ! मदीये शरीरेऽभ्यासवशात्त्वमेवाऽसि, त्वमेवासीति शरीरावयवेषु ध्वनिप्प्तोऽस्ति । त्वां विना "त्वां” शब्देन के पुरुष संबोधयामि ? अतीवस्नेहपात्रे त्वमितिशब्द प्रयुज्यते । मदीयान्त:करणवृत्तौ त्वमेव व्यापकरूपेण भाससे । अतस्तव शरणागतोऽस्मि । शरीरे मनसि बल्चि यत्र यत्र त्वां पश्यामि तत्र तत्र त्वमेव मे भाससे । त्वामेव दृष्ट्वा सुखमनुभवामि । त्वं तत्रासीति कथनमात्रेण यावहूरं भाससे तावदेव दुःखं जायते । त्वां विना न मेऽस्ति कोऽपिरक्षकः । त्वमेव मे सर्वस्वं अघुना सर्वदैव त्वदीयोऽस्मि अतो हरिगुणानुवादेन मिथ्याभूतमहंकारं विधूय स्वस्वरूपे स्थितोऽस्मि ।
उक्तहि दैवी भागवते–
अहो कृपा ते कथयाम्यहं किं त्रातस्त्वया यत्किल भक्तिहीनः ।
भक्तानुकम्पी सकलो जनोऽस्ति विमुक्तभक्तेरवनं ब्रतंते ।
.
हे स्वामिन् ! मेरे शरीर में अभ्यास के कारण ‘तूं ही तूं’ ही ऐसी ध्वनि होती रहती है, क्योंकि मैं आपको त्वं शब्द से पुकारता हूं । अतः शरीर में भी ‘त्वमेवासि’ यह ध्वनि पैदा होती रहती है । जो अत्यन्त प्यारा होता है उसको ही त्वं शब्द से पुकारा जाता है । इससे आपका और मेरा अतिशय प्रेम ध्वनित होता है ।
.
मेरी अन्तःकरण की वृत्ति में भी आप ही व्यापक रूप से प्रतीत हो रहे हैं । अतः मैं अब आपकी शरण में आ गया हूं । शरीर में मन में, जहां-जहां आपको देखता हूं, वहां-वहां पर आप ही नजर आते हैं । मैं आप को ही देख कर सुखी होता हूँ । तेरे बिना मेरा और कोई नहीं है । तू ही मेरा तो सर्वस्व है । मैं तो सदा तेरा ही हूं ।
.
इसलिये हरि का गुणानुवाद गाकर अहंकार को नष्ट करके आपके स्वरूप में स्थित हो जाऊंगा । दैवीभागवत में –
अहो ! मैं आपकी कृपा की क्या महिमा वर्णन करूं ? क्योंकि आपने मुझ जैसे भक्तिहीन की भी आश्चर्य रूप से रक्षा की । हे मां ! अपने भक्त पर तो कृपा करने वाले अनेक होते हैं परन्तु भक्तिहीन की रक्षा करना तो आप का ही व्रत है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 18 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२९

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२९)*
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*१२९. (गुजराती) । पंचम ताल*
*तूँ छे मारो राम गुसांई,*
*पालवे तारे बाँधी रे ।*
*तुज बिना हूँ आंतरे र-वल्यो,*
*कीधी कमाई लाधी रे ॥टेक॥*
*जीवूं जेटला हरि बिना रे,*
*देहड़ी दुःखे दाधी रे ।*
*एणे अवतारे कांई न जाण्यूं,*
*माथे टक्कर खाधी रे ॥१॥*
*छूटको मारो क्यारे थाशे,*
*शक्यों न राम अराधी रे ।*
*दादू ऊपर दया मया कर,*
*हूँ तारो अपराधी रे ॥२॥*
.
भा० दी०-हे राम ! त्वं ममैकमात्रस्वामी, अतस्त्वदाश्रितोऽस्मि । ममैव कर्मण: फलमिदं मनागपि नास्त्यत्र तव दोषः । अधुना तु यावद्धरिदर्शनं विना जीवामि तावदिदं शरीरं दुःखाग्नौ सततं तपति । अस्मिञ्जन्मनि मया स्वकल्याणसाधनं न विहितम् । अतोऽज्ञानसागरे पतामि । अहो मम कदा समुद्धारो भवेत् । न कदाऽपि मया रामो ध्यातः । अहं तवापराधी त्वत्सेवकोऽस्मि । अतो मां दृढस्नेहमयदृष्ट्याऽनुगृहाण ।
उक्तं ब्रह्मवैवर्ते दुर्वासकृतजगन्मंगले स्तोत्रे-
त्राहि मां कमलाकान्त त्राहि मां करुणानिधे । दीनबन्धोऽतिदीनेश करुणासागरप्रभो॥ शरणागतशोकाभियत्राणपरायण । भगवन्नव मां भीतं नारायण नमोऽस्तुते ।
.
हे राम ! आप मेरे स्वामी हैं । मैं आपका ही आश्रित हूं । आप के भजन के बिना इस संसार में भटकता हूं । यह मेरे ही कर्मों का फल है, आपका कोई दोष नहीं । अब मेरा जब तक जीवन रहेगा, तब तक दर्शनों के बिना यह मेरा शरीर दुःख रूपी आग में जलता रहेगा ।
.
मैंने इस जन्म में कोई भी कल्याण का साधन नहीं अपनाया किन्तु अज्ञान के समुद्र में भटकता रहा हूं । हे प्रभो ! मेरा उद्धार कब होगा ? मैंने कभी भी राम का ध्यान नहीं किया, मैं तो आपका अपराधी सेवक हूं । इसलिये प्रेमभरी दृष्टि से कृपा कर मेरा उद्धार कीजिये ।
.
हे प्रभो ! आप दीन बन्धु हैं, दुःखियों के स्वामी दया के सागर हैं । हे कमलाकान्त ! मेरी रक्षा कीजिये । हे करुणासिन्धो ! मुझे बचाइये ।
.
भगवन् आप शरणागत एवं शोकाकुल जनों का भय दूर करके उनकी रक्षा में तत्पर रहते हैं । मुझ भयभीत की रक्षा कीजिये । हे नारायण ! आप को मेरा नमस्कार है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२८

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२८)*
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*१२८. गुजराती भाषा । त्रिताल*
*वाहला हौं जाणूं जे रंग भर रमिये,*
*मारो नाथ निमिष नहिं मेलूँ रे ।*
*अंतरजामी नाह न आवे,*
*ते दिन आव्यो छैलो रे ॥टेक॥*
*वाहला सेज हमारी एकलड़ी रे,*
*तहँ तुजने केम न पामों रे ।*
*आ दत्त अमारो पूरबलो रे,*
*तेतो आव्यो सामों रे ॥१॥*
*वाहला मारा हृदया भीतर केम न आवै,*
*मने चरण विलम्ब न दीजे रे ।*
*दादू तो अपराधी तारो,*
*नाथ उधारी लीजे रे ॥२॥*
.
भा० दी०-अहं मम स्वामिना सह प्रेमपूर्णया ऽन्तःकरणवृत्त्या सदा क्रीडामि । निमेषमात्रमपि तं न विमोक्तुमिच्छामि । परन्तु स तु अन्तर्यामी सन्नपि न प्रादुर्भवति । मृत्युश्च सन्निहितो जातः । हे प्रियतम प्रभो ! ममेयं हृदयशय्या स्वामिनं विना शून्या वर्तते । किं कारणं तत्र त्वां शयानं न पश्यामि । मन्येऽहं पूर्वजन्मकृतकर्मफलमिदं विरहजन्यं दुःखम् । हे मम प्रियतम प्रभो ! कथय किमर्थं मम हृदये न निवससि । मुखकमलदर्शनदानेऽधुना मा विलम्बस्व । किन्तु द्रुततरं दर्शय । यद्यप्यह तव कृतापराधोऽस्मि तथापि तावकीनोऽस्मि । क्षमस्व मेऽपराधम् । नहि सर्वथा ते तिरोभाव उचितः । यतो हि त्वं स्वपरभावविवेकं वेत्सि । अन्तर्यामित्वेनाऽपि सर्व मनोभावं जानासि । नह्या- काशवच्छून्योऽसि । सर्वज्ञत्वात् सर्वव्यापकत्वाच्च । तस्मात्त्वदर्शनदानाभावे नाहं सद्धेतुं पश्यामि । अतो दर्शनं देहि ।
.
मैं अपने स्वामी के साथ प्रेम भरी अन्तःकरण की वृत्ति से सदा खेलता रहूं । एक पल भर भी उस से दूर न रहूं । किन्तु वह तो अन्दर रहता हुआ भी नहीं आता और मेरी मृत्यु भी नजदीक ही आ गयी ।
.
हे मेरे प्यारे परमात्मन् ! यह मेरी हृदय-शय्या तेरे बिना सूनी हो रही है । क्या कारण है कि जिससे मैं आपको मेरी हृदय-शय्या पर नहीं देखता ? मैं मानता हूं यह विरहजन्य जो दुःख है, यह मेरे पूर्व जन्मों के किये हुए कर्मों का ही फल है ।
.
हे प्यारे परमेश्वर ! आप ही कहिये कि यदि पूर्व जन्म के कर्मों का फल नहीं तो फिर आप मेरे हृदय में क्यों नहीं आते ? अब आप चरण-कमलों के दर्शन देने में जरा भी विलम्ब मत करो, शीघ्र दर्शन दीजिये । यद्यपि मैं आप का महा अपराधी हूं, फिर भी मैं हूं तो आपका ही ।
.
अतः हे स्वामिन् ! दर्शन देकर इस विरह व्यथा से मेरा उद्धार कीजिये । अपराध को क्षमा करो । आपका यह इस प्रकार छिपना अच्छा नहीं है क्योंकि आप अपने और पराये का ज्ञान रखते हैं और अन्तर्यामी होने से सब के मनोभावों को भी पहचानते हैं । आप आकाश की तरह जड नहीं हैं, चेतन सर्वज्ञ हैं । इसलिये दर्शन न देने में कोई सद्हेतु नहीं मानता कि जिससे मैं दर्शन का पात्र न माना जाऊं ।
(क्रमशः)

रविवार, 14 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२७

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२७)*
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*१२७. त्रिताल*
*पीव ! हौं कहा करूँ रे,*
*पाइ परूं के प्राण हरूं रे,*
*अब हौं मरणे नांहि डरूं रे ॥टेक॥*
*गाल मरूं कै, जालि मरूं रे,*
*कै हौं करवत शीश धरूं रे ॥१॥*
*खाइ मरूं कै घाइ मरूं रे,*
*कै हौं कतहूँ जाइ मरूं रे ॥२॥
*तलफ मरूं कै झूरी मरूं रे,*
*कै हौं विरही रोइ मरूं रे ॥३॥*
*टेरि कह्या मैं मरण गह्या रे,*
*दादू दुखिया दीन भया रे ॥४॥*
.
भा० दी०- हे प्रभो ! किमन्यत्कर्तुं शक्नोमि तवालम्बनं विना । अतश्शरणं गतोऽस्मि । तत्रस्थित: प्राणान् विमोक्ष्यामि अन्यथा दर्शनं देहि नाहं मृत्यो विभेमि । हिमालये शरीरं पातयित्वा शरीरमग्नौ दग्ध्वा शिरः क्रकचेन छित्वा विषं भुक्त्वा शस्त्राघातेन प्राणान् त्यक्ष्यामि । अथवा निर्जने वने प्रायोपवेशादिना विरहिजनवद् विलापं विलापं रोदं रोदं तनुं त्यक्ष्यामि । यदि त्वदर्शनं न भवेत्तदा मृत्युमेष्यामीति प्रतीज्ञातं मया । हा दर्शनं विनाऽतिदीनो दुःखितोऽस्मि ।
.
हे प्रभो ! मैं आपके चरण-कमलों की शरण ग्रहण के अलावा और क्या कर सकता हूं । अतः अब मैं आपके चरणों की शरण में आ गया हूं, चरणों में स्थित होकर प्राणों को त्याग दूंगा, नहीं तो दर्शन दीजिये । अब मैं मृत्यु से नहीं डरता, हिमालय में जाकर बर्फ से गल कर मर जाऊंगा ।
जहर खाकर शस्त्रों के प्रहार से प्राण छोड़ दूंगा अथवा निर्जन वन में उपवास आदि करके मर जाऊंगा अथवा विरही जन की तरह रो रो कर विलाप कर-कर के मर जाऊंगा । मैंने यह प्रतिज्ञा कर ली है कि यदि भगवान् के दर्शन नहीं होंगे तो मैं मृत्यु को प्राप्त हो जाऊंगा । मैं आपके दर्शनों के बिना अति दीन, दुःखी हो रहा हूं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 11 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२६

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२६)*
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१२६. विरह विलाप । झपताल
मरिये मीत विछोहे, जियरा जाइ अंदोहे ॥टेक॥
ज्यों जल विछुरे मीना, तलफ तलफ जिय दीन्हा,
यों हरि हम सौं कीन्हा ॥१॥
चातक मरै पियासा, निशदिन रहै उदासा,
जीवै किहि बेसासा ॥२॥
जल बिन कमल कुम्हलावै, प्यासा नीर न पावै,
क्यों कर तृषा बुझावै ॥३॥
मिल जनि बिछुरो कोई, बिछुरे बहु दुख होई,
क्यों कर जीवै जन सोई ॥४॥
मरणा मीत सुहेला, बिछुरन खरा दुहेला,
दादू पीव सौं मेला ॥५॥
.
भा० दीo-हे प्रभो ! तव विरहदुःखेन मे मरणप्राया दशा जाता । मन्च शोकाकुलं जातम् । यथा जलं विना मत्स्यो मृतो भवति । तथैव हरिदर्शनविरहेणाहमपि मृततुल्यो जातः । यथा च चातक: स्वातिनक्षत्रजलबिन्दु विना पिपासितो भवति रात्रि दिनञ्चोदासीनस्तिष्ठति । तथैवाहमप्यौदासीन्यं गतोऽस्मि । यथा च जलं बिना पुष्पं म्लायति तथैव प्रभुदर्शनं विनाहमपि म्लानिमनुभवामि । यथा पिपासो: पयो विना न सा पिपासा शाम्यति । तथैव प्रभुं विना मम क्लेशो न निवर्तते । वियोगे महहुःखमनुभूयते मया । अत: साधकेन सर्वात्मना प्रभुमाश्रित्यैव कीर्तितव्यमितिभाव: । अन्यथा दुःखाद् दुखान्तरमम्युपगच्छति जनः । हे प्रभो ! त्वं तु मे परमसुहृदसि त्वद् वियोगे दुःखं संयोगे च सुखमिति विज्ञाय पुरुषेण सततं संयोगनिष्ठेन भाव्यम् येन कदापि वियोगो न स्यात् । इत्येवं सततं प्रार्थयेऽहम् ।
.
हे प्रभो ! आपके विरहजन्य दुःख से मेरी मृतक तुल्य दशा हो गई । मन शोक से व्याकुल हो रहा है । जैसे जल के बिना मछली मर जाती है, वैसे मैं भी हरि दर्शनों के बिना मरे के समान हो गया हूं ।
.
जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र के पानी की बिन्दु के बिना प्यासा ही रहता है और रात दिन उदास ही रहता है, वैसे ही आप के विरह बिना में सूना सा हो गया हूं ।
.
जैसे जल के बिना कमल का पुष्प मुर्झा जाता है, वैसे ही प्रभु दर्शन बिना सूना-सा हो गया हूं ।
.
जैसे प्यासे को पानी के बिना शान्ति नहीं मिलती है, वैसे ही प्रभु के बिना मेरा क्लेश भी नहीं मिटता । वियोग में तो महादुःख है । अतः प्रभु के साथ सर्वथा सर्वात्मना संयुक्त रहना चाहिये, अन्यथा एक दुःख से दूसरे दुःखों में गिरता ही जायेगा ।
.
हे मेरे परम मित्र परमात्मन् ! अब मैंने जान लिया है कि तेरे वियोग में परम दुःख और मिलन में महासुख है । अतः मैं सदा आपसे मिलकर रहना चाहता हूं, जिससे आपका मेरे से कभी वियोग न हो ।
(क्रमशः)

बुधवार, 10 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२५

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साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२५)*
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*१२५. विरह (गुजराती) । राज विद्याधर ताल*
*म्हारा रे वाहला ने काजे,*
*हृदये जोवा ने हौं ध्यान धरूं ।*
*आकुल थाये प्राण मारा,*
*कोने कही पर करूँ ॥टेक॥*
*संभार्यो आवे रे वाहला,*
*वेहला एहों जोई ठरूं ।*
*साथीजी साथे थइ ने,*
*पेली तीरे पार तरूं ॥१॥*
*पीव पाखे दिन दुहेला जाये,*
*घड़ी बरसां सौं केम भरूं ।*
*दादू रे जन हरि गुण गाता,*
*पूरण स्वामी ते वरूं ॥२॥*
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भा० दी०-यो भगवान् भक्तदुःखनिवारको भक्तवत्सलः स्मृतमात्रेणागत्य भक्तान् सुखयति । स हृदये निरन्तरध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसाऽपि नावगम्यते । अहो महहुःखम् । अत्रेदमाकूतम्-ध्यानं हि नाम मानसी क्रिया मनस्तु भगवद्विरहदुःखसमुद्रे मग्नमतो भगवद्ध्यानमेव न जायते । नहि तद् ध्यानं विना दुःखनिवृत्ति: संभवति । न च दुःखहानि विना तद्ध्यानं जायते । अतो महादुःखम् । कथं भगवद्ध्यानं स्यात् । कथञ्च दुःखनिवृत्तिरिति । अतो हे प्रभो ! दयस्व येन तव ध्यानं भवेत् । त्वदर्शनं विना तु मे प्राणा व्याकुलीभवन्ति । अहं कस्य पुरो विरहव्यथां श्रावयित्वा दुःखमपसारयामि । हा स्मृतमात्रेण भक्तदुःखभञ्जक प्रभो । तव दर्शनेनैव मे हृदये शान्ति: समुदियात् नान्यथा । अतस्तव साहाय्येन दुःखाब्धि तरीतुं शक्नोमि । हा हन्त हन्त । प्रियतमस्य प्रभो दर्शनं विना त्विमानि दिनानि सकष्टानि मे व्यतिगमिष्यन्ति । तं विना तु क्षणमप्येकं वर्षशतायते । अत आयुषो दिनानि कथं व्यतितानि भवेयुः । भवतु नाम कष्टम्, तदपि विभुं न विस्मरामि किन्तु तत्कीर्तनेन तमेव परिपूर्णं मे स्वामिनं करिष्यामि ।
.
जो भगवान् भक्तों के दुःख को मिटाने वाले तथा भक्तों पर कृपा करने वाले स्मरण मात्र से आकर भक्तों के कष्ट को मिटा देते हैं, वे ही भगवान् हृदय में निरन्तर ध्यान का अभ्यास करके मन को वश में कर ध्यान करने पर भी दर्शन नहीं देते, यह एक महादुख का विषय है ।
.
इस कथन का अभिप्राय यह है कि – ध्यान मन की क्रिया को कहते हैं और मन विरह-व्यथा से पीड़ित होने के कारण दुःख का चिन्तन करते-करते दुःखाकार बन गया । अतः मन से भगवान् का ध्यान नहीं हो सका । बिना ध्यान के दुःख निवृत्त नहीं हो सकता और दुःख निवृत्ति के बिना ध्यान नहीं होता । यह एक भक्त के लिये महाकष्ट का विषय बना हुआ है ।
.
अतः हे प्रभो ! दया करके दर्शन देकर इस कष्ट को मिटा दीजिये । जिससे मैं आपका ध्यान कर सकूँ । आपके दर्शनों के बिना तो मेरे प्राण भी व्याकुल हो रहे हैं । मैं मेरी दुःख की कहानी किसके आगे जा कर सुनाऊं, जिससे मेरा दुःख दूर हो जावे । हा, स्मरण मात्र से भक्तों के दुःख को दूर करने वाले प्रभो ! आपके दर्शनों के बिना मेरे हृदय में शान्ति नहीं आ सकती है, अतः दर्शन दीजिये ।
.
मैं आपके संग से इस संसार-सागर को पार कर जाऊंगा । अरे प्रभु के दर्शनों के बिना तो ये दिन कितनी कठिनाई से पूरे होंगे । अच्छा कष्ट आता है तो आने दो, मैं कष्ट में भी भगवान् को नहीं भूलूंगा । उस भगवान् के गुणगान करता हुआ परिपूर्ण ब्रह्म को ही मैं अपना स्वामी बनाऊंगा ।
(क्रमशः)

सोमवार, 8 नवंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२४

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२४)*
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*१२४. (गुजराती) विरह विनती*
*राज मृगांक ताल*
*कब मिलसी पीव गृह छाती,*
*हौं औराँ संग मिलाती ॥टेक॥*
*तिसज लागी तिसही केरी,*
*जन्म जन्म नो साथी ।*
*मीत हमारा आव पियारा,*
*ताहरा रंग नी राती ॥१॥*
*पीव बिना मने नींद न आवे,*
*गुण ताहरा ले गाती ।*
*दादू ऊपर दया मया करि,*
*ताहरे वारणे जाती ॥२॥*
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भा० दी०- हे मदीय प्रभो ! मदीयवक्षस्थलस्य त्वदीयवक्षस्थलेन सह संयोग: कदा स्यादिति ब्रूहि । मम मनोवृत्तिर्ब्रह्माकारकारिता सती कदा त्वयि विलयमेष्यति । त्वमेव ब्रूहि । इदानीं मे मनोवृत्तिर्मुखस्वरूपाऽस्ति भवद् वियोगजन्यं दुःखमेव स्मरति । तस्मादेतादृशीं वृत्ति विधेहि येन त्वामेव मे मनःस्मरेन्न दुखम् त्वं परमेश्वरोऽसि, मे जन्मजन्मान्तरेऽपि सहायकः । इदानीमपि मे साहाय्यं विधास्यसि । त्वदर्शनाभावो मां दुःखीकरोति । स भगवान् मम सुहृदप्यस्ति । अतो मम हृदयगृह-मागत्य पवित्रं कृत्वा राजताम् । सुहृद्धि सुहृद्गृहं गच्छत्येव, अन्यथा कीदृशं सौहार्दम् । अहन्तु त्वदीय प्रेमपिपासुरस्मि । अत: प्रेमरसं पायय । त्वां विना तु मम निद्राध्वंसो जातः । विरहस्य दशावस्था: प्रसिद्धाः, तासु निद्राभङ्गोऽप्येकदशाविशेषः । इदानीं त्वद्गुणकीर्तनमेव मे जीवनस्य चरमं प्रयोजनम् । गुणकीर्तनेनैव भगवान् प्रसीदति ।
उक्तंहि-
शब्दो हि धूमवल्लोके बाह्याभ्यन्तरयोगतः ।
विराजते विनिर्गच्छन् तारतम्यञ्च गच्छति ॥
श्रीभागवतेउप्युक्तम्-
गायन्त उच्चैरमुमेव संहता विचिक्युरुन्मत्तकवद् वनाद् वनम् । अतोऽहमपि भगवदागमनार्थं गुणगानं करोमि । कीर्तनेन संसारमोहविस्मृति:, भगवदर्थस्मृतिष्ठ स्वत एव जायते । हे भगवन् दयस्व । यदि दीनेऽपि दयां न वितरसि तदा तव दयालुतैव निष्प्रभा भवेत् । अतस्तव चरणारविन्दयोर्नतमस्तकोऽहं प्रार्थये, प्रसीद मां पाहीति । त्वत्प्रसादाभावादेव लोकाः सुखच्युता भ्राम्यन्ति । सुखस्वरूपं त्वां विहाय बहुशो दुःखहेतुष्वपि प्रवर्तन्ते ।
अत्र चरणारविन्दयोर्नतमस्तकत्वंख्यापनेनायमभिप्रायो विद्यते यद् भक्तानां चरणारविन्देष्वेव सद्गतिः कथिता । अतो मा भवतु भगवान् प्रसन्न: किन्तु चरणानां प्रीतिस्तु मेऽनवच्छिन्ना विराजते । तयैव मे सद्गतिस्तु भवेदेव । चरणानां कृपया विना तु भगवतासादोऽपि दुर्लभः । इति भावः ।
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हे मेरे प्रिय प्रभो ! मैं अपनी छाती को आपके वक्षस्थल के साथ कब मिलाऊंगी ? अर्थात् अपने मन की ब्रह्माकार वृत्ति को आप के रूप में कब लीन करूंगी । इस समय मेरे मन की वृत्ति दुःखरूपा हो रही है । क्योंकि आपके विरह जन्य दुःख को ही याद करती रहती हूं ।
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अतः मेरे पर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं आपका ही स्मरण कर दुःख को मिटाने में सहयोग मिले । उनके दर्शनों की प्यास ही मुझे दुःखी कर रही है, कि वे दर्शन नहीं दे रहे हैं । भगवान् मेरा मित्र भी है । अतः उनको मेरे हृदय-घर में आकर मेरे हृदय को पवित्र बना कर सुशोभित करना चाहिये । भक्त के हृदय में भगवान् के विराजने से उसकी शोभा बढती है, तब ही उसका हृदय पवित्र होता है ।
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मित्र को मित्र के घर पर आना ही चाहिये अन्यथा कैसी मित्रता ? मैं आपके प्रेम की प्यासी हूं, अतः प्रेम रस का पान कराइये । तेरे बिना मेरे को नींद नहीं आती । निद्राभंग को विरह की एक दशा बतलाया है । इस समय मैं आपका गुणानुवाद करके ही जी रही हूं । क्योंकि गुणगान से भगवान् प्रसन्न होते हैं । लिखा है कि-
शब्द धूम की तरह बाहर और भीतर आते-जाते रहने के कारण भगवान् से सम्बन्ध करा देता है ।
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भागवत में लिखा है कि-
गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण का गाना गाती हुई एक वन से दूसरे वन में उनको तलाश करती हुई घूम रही हैं । अतः मैं भी भगवान् के आने के लिये ही उनका गुणगान कर रही हूं । गायन में संसार की विस्मृति और परमात्मा की स्मृति स्वतः ही हो जाती है । हे भगवान् दया करो । यदि दीन पर भी दया न करोगे तो फिर आपकी दयालुता ही व्यर्थ हो जायगी । अतः दया करो ।
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बार-बार आपके चरण-कमलों में मस्तक झुका कर प्रार्थना कर रही हूं कि आप प्रसन्न हो जाइये । आपकी प्रसन्नता के बिना ही संसारी मनुष्य सुख रूप आपको भूल कर दुःख देने वाले साधनों में प्रवृत्त हो जाते हैं । चरणों में गिरकर नमस्कार का भाव यह है कि भक्तों की सद्गति भगवान् में चरणों में ही मानी गई है ।
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अतः भले ही भगवान् प्रसन्न न हों किन्तु चरणों में प्रेम तो मेरा अखण्ड बना हुआ ही है । अतः भगवान् के चरणों की कृपा से मेरी सद्गति तो हो ही जायगी और चरणों की कृपा से भगवान् भी प्रसन्न हो जायेंगे ।
(क्रमशः)