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मंगलवार, 12 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१४५/१४८)* =

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*दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।*
*अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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जन्त्र१ गवौं२ रागै बजे, सोई राम सरबेनि३ । 
तो रज्जब सारि४ श्रृंगार का, कंध भार अधकेनि५ ॥१४५॥
बाजे१ और गायकों२ द्वारा राग बजता है, वही राग श्रेष्ठ३ है । तब पीतल के पड़दे४ आदि श्रृंगार का भार कन्धे पर अधिक५ ही लादा जाता है । अर्थात बिना पड़दे के बाजे से भी राग बजाये जाते है वैसे ही सच्चे संत भेष बिना ही भजन करते है तब भेष का भार क्यों लादा जाय ?
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सारि न रची रबाब के, गवै तंदूरै धारि । 
रज्जब राग सु एक से, बधि१ बंदौं बेगारि ॥१४६॥
रबाब नामक बाजे के पीतल के पड़दे नहीं होते और तंदुरे के होते हैं । गायक रबाब और तंदूरा दोनों को ही धारण करके एक समान राग गाते हैं । तब पड़दे के बाँधने का परिश्रम रूप बेगार व्यर्थ१ ही की जाती है । वैसे ही भेष तथा बिना भेष भी भजन द्वारा प्रभु प्राप्त हो जाता है, तब भेष बनाना व्यर्थ ही है । 
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गऊ दंत दर्शन१ दशा२, दूजी दिशि सो नाँहिं । 
यूं स्वाँगी सादे सदा, उभय माँड मुख माँहिं ॥१४७॥
गाय के मुख में आगे के दाँत देखने१ के ही हैं, ऊपर के दाँत न होने से चबाने के नहीं हैं । वैसे ही भेषधारी ब्रह्माण्ड में दर्शन की अवस्था२ में ही हैं प्रभु प्राप्ति के उपाय साधन करने की अवस्था में नहीं हैं । 
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बिन सुन्नत ह्वै तुरकनी, ब्राह्मणि तागे१ नाश । 
ऐसे माला तिलक बिन, रज्जब भक्त सु दास ॥१४८॥
जैसे बिना सुन्नत नारी मुसलमानी हो जाती है और बिना जनेऊ१ नारी ब्राह्मणी हो जाती है । वैसे ही जो भजनानन्दी होता है वह दास बिना माला तिलक के भी भक्त हो जाता है, भक्त के लिये माला तिलकादि आवश्यक नहीं, भजन ही आवश्यक है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित प्राणी स्वाँग का अंग १३२ समाप्तः ॥सा. ४२८४॥
(क्रमशः)

सोमवार, 11 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१४१/१४४)* =

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*ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट माँहि ।*
*दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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षट् दर्शन सहिनाण करि, गुरु खेचर गहि लेहि । 
जन रज्जब ज्यों श्वान शिशु, बधिक बांधणे देहि ॥१४१॥
जैसे कुत्ती के बच्चों के गले में व्याध पटिया बाँध देता है, वैसे ही स्वार्थी गुरु छ: प्रकार के भेष का चिन्ह करके प्राणियों को पकड़ते हैं । 
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तन मन पतिव्रत चाहिये, रहित सहित श्रृंगार । 
कंत न छाड़ै कामिनि, रज्जब बिन व्यभिचार ॥१४२॥
तन मन में पतिव्रत चाहिये, फिर चाहे श्रृंगार से रहित हो वा सहित हो, बिना व्यभाचार नारी को उसका पति नहीं त्यागता, वैसे ही भेष हो वा नहीं हो भगवान का भजन निरंतर होना चाहिये फिर भगवान भक्त को नहीं त्यागते । 
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श्रृंगार सहित अथवा रहित, पति परसे सुत होय । 
रज्जब भामिनी भेषबल, फल पावै नहिं कोय ॥१४३॥
जैसे नारी श्रृंगार से युक्त हो वा रहित हो पुत्र तो पति मिलने से ही होगा, वैसे ही भेष सहित हो वा रहित हो मुक्ति रूप फल तो भेष-बल से नहीं होता, प्रभु के दर्शन से ही होगा, सो भजन से होता है । 
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जन्त्र ठाट सब चाहिये, नाल हिं रंग न रंग । 
रज्जब धोखै, रंग के, नहीं राग में भंग ॥१४४॥
सितार के पड़दे, खूटी आदि सब ठाट चाहिये, नाल के रंग हो वा बिना रंग हो, रंग की भूल से राग बजाने में कोई विघ्न नहीं पड़ता । वैसे ही भेष हो वा नहीं हो प्रभु प्राप्ति के साधन भजनादि होने चाहिये फिर प्रभु दर्शन में कोई विघ्न नहीं पड़ता । 
(क्रमशः)

रविवार, 10 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१३७/१४०)* =

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*दादू स्वांग सगाई कुछ नहीं, राम सगाई साच ।*
*साधू नाता नाम का, दूजै अंग न राच ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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स्वांग स्वांग सारे कहैं, नहीं नाम की चीत । 
जन रज्जब भूला जगत, यहु देखे विपरीत ॥१३७॥
सब कहते हैं - भेष धारण करो, भेष धारण करो, किंतु हरि-नाम चिंतन की बात नहीं कहते, जगत के लोग प्रभु को भूल रहे हैं तभी तो देखो, यह विपरीत बात कहते हैं । 
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मुख मुख उकटे१ खार से, शहर सियाला२ देखि । 
महंत ही ऊषर भये, बानौ करै विशेखि ॥१३८॥
जैसे शीत२ काल में स्थान स्थान पर पृथ्वी से खार निकलता१ है और ऊषर भूमी से तो विशेष निकलता है वैसे ही शहर में देखो, तिलक करने वालों के प्रत्येक मुख पर तिलक खार उकटने के समान लगता है और महंतों के तो तिलक रूप बाना विशेष किया जाता है, वे तो ऊषर भूमी के समान ही प्रतीत होते हैं । 
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देही दर्शन१ फेरिये२, दिन देखत सौ बार । 
रज्जब मन फेरत कठिन, जो युग जांहि अपार ॥१३९॥
शरीर का भेष तो एक दिन में देखते देखते सौ बार बदला१ जा सकता है किंतु मन को बदलने का उपाय करते करते यदि अपार युग व्यतीत हो जाय तो भी उसका बदलना कठिन है । 
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स्वांग१ किया सहिनाण२ को, जीवहिं पावे जीव । 
जन रज्जब इस मामले३, कह किन४ पाया पीव ॥१४०॥
भेष१ तो पहचान२ के लिये बनाया है, जिससे जीव को जीव पहचान सके, बाकी कहो, इस भेष के व्यवहार३ से किसने४ प्रभु को प्राप्त किया है ?
(क्रमशः)

शनिवार, 9 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१३३/१३६)* =

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*दादू सोधी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात ।*
*जान कहावैं बापुड़े, आवध लिए हाथ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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स्वांग दिखावा जगत का, कीया उदर उपाव१ ।
जन रज्जब जग को ठगै, करि करि भेष बणाव२ ॥१३३॥
भेष लोगों को दिखाने के लिये है तथा पेट भरने का उपाय१ किया गया है, स्वार्थी लोग भेष बना२ कर जगत के भोले लोगों को ठगते हैं ।
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ज्यों घुण काष्ठ में खुशी, गज बाहैं१ शिर धुरि ।
त्यों रज्जब माला तिलक, पशू करै नहिं दूरि ॥१३४॥
जैसे घुण काष्ट में प्रसन्न रहता है, हाथी अपने शिर पर धूल डाल१ कर प्रसन्न होता है वैसे ही पशु तुल्य भेषधारी माला तिलकादि भेष को दूर नहीं करते, उसी में प्रसन्न रहते हैं ।
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माँणस१ माँडे२ मोर से, दीसै दुनी३ अनेक ।
रज्जब रत४ रंकार सौं, सो कोउ विरला एक ॥१३५॥
मोर के समान चित्रित२ मनुष्य१ तो संसार३ में बहुत दिखाई देते हैं किंतु राम मंत्र के बीज "राँ" के निरन्तर चिन्तन में अनुरक्त४ हो वह कोई विरला एक ही मिलेगा ।
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स्वांग१ स्वांग सारे कहै, यथा कजलिये२ राति ।
रज्जब कढ हि रूप बहु, आप डूम की जाति ॥१३६॥
जैसे स्वांग बनाने वाले तथा बहुरूपिये२ तथा रात्रि में स्वांग निकालने वाले बहुत ही स्वांग निकलते हैं, वैसे ही सब लोग नाना स्वांग बनाकर स्वयं डूम की जाति के समान बन जाते हैं और दूसरों को भी कहते हैं - भेष१ धारण करो ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१२९/१३२)* =

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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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भाँड१ भूत२ बहुते करैं, भूखे भेष अपार ।
रज्जब छलणे का मता३, ता में फेर न सार ॥१२९॥
भूखे होने से बहुत से निर्लज्ज१ प्राणी२ अनन्त प्रकार के भेष बनाते हैं । दूसरों को छलने के विचार३ से ही भेष बनाये जाते हैं । उस वक्त वचन को बदलने की आवश्यकता नहीं है, यह सार वचन है ।
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भेषों भक्ति न ऊपजै, बाने१ वश नहि पंच ।
जन रज्जब इस स्वांग२ में, खैबे ही की लंच ॥१३०॥
भेष से भक्ति उत्पन्न नहीं होती, भेष१ से पंच ज्ञानेन्द्रिय अधीन नहीं होती, उलटी इस भेष२ में आने से खाने की आदत पड़ जाती है अर्थात जीमने की लालसा बढ़ जाती है ।
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स्वांगों१ स्वारथ खाण का, भेषों भुगति२ अनंत ।
रज्जब यूं३ बाने बँधे, कदे न छोड़ै जंत४ ॥१३१॥
भेष धारियों१ में खाने का ही स्वार्थ होता है तथा भेषधारियों में अनन्त भोगाशा२ रहती है, इसलिये३ भेष में बंधे रहते हैं, स्वार्थी जीव४ भेष को कभी नहीं छोड़ते ।
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पड़े पठंगै१ भेष के, पामर पाले पेट ।
जन रज्जब इस वित्त२ पै, नहीं राम सौं भेंट ॥१३२॥
भेष की शरण१ में पड़कर पामर लोग ही पेट पालते हैं, इस भेष रूप धन२ पर निर्भर रहने से राम से नहीं मिल सकता ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 7 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१२५/१२८)* =

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*कागद का मानुष किया, छत्रपति सिरमौर ।*
*राजपाट साधै नहीं, दादू परिहर और ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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वदन१ सदन२ चित्रे चितवी३, डरै न इन्द्री चोर । 
रज्जब सूते स्वाँग बल, शक्ति न संपति भोर४ ॥१२५॥
मकान२ पर वीरों के चित्र देख३ कर चोर नहीं डरते, चित्र के वीरों के भरोसे सूते रहने से प्रात:४ संपत्ती नहीं मिलती । वैसे ही मुख१ पर तिलक का चित्र और शरीर पर भेष देखकर इन्द्रियाँ नहीं डरती, भेष के भरोसे रहने से सब शक्तियों इन्द्रियों द्वारा विषयों में क्षीण हो जाती है । 
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भजन भरोसे छूटिये, भेष भरोसा झूठ । 
रज्जब ज्यों थी त्यों कही, रजू१ होहु भावे रूठ२ ॥१२६॥
भेष का भरोसा मिथ्या है, भजन के भरोसे ही संसार से मुक्त हो सकते हैं, जैसे बात थी वैसी ही हमने कही है, इसमें चाहे तुम प्रसन्न हो या रुष्ट हो । 
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आशा बहु आसण करै, भूख१ बणावै भेख । 
रज्जब सादे साँच बिन, कबहु न मिले अलेख ॥१२७॥
आशा होने से ही बहुत आसन करते हैं और इच्छा होने से ही भेष१ बनते हैं किंतु सादगी और सच्चाई के बिना लेखबद्ध नहीं होने वाले ब्रह्म की प्राप्ति कभी नहीं होती । 
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रज्जब भूख१ भेष बहुते करे, तामें फेर न सार । 
वपु बदल्या बावन बली, बलि माँगण की वार ॥१२८॥
इच्छा१ से बहुत से भेष करते हैं, इसमें परिवर्तन को अवकाश नहीं यह सार बात है । देखो, बलि से माँगंने के समय बलवान वामन ने भी शरीर तथा शरीर का भेष बदला था । 
(क्रमशः)

बुधवार, 6 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१२१/१२४)* =

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*कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक ।*
*क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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भेष भाडली१ देखकर, मृग माला२ मन जाँहिं । 
रज्जब रीते३ स्वाँग सर, नाम नीर तहं नाँहिं ॥१२१॥
मृग तृष्णा१ के सरोवर को देखकर मृग यूथ२ उस पर जाता है किन्तु वहां जाने पर वह खाली३ मिलता है, मृगों को जाने आने का कष्ट मिलता है, जल नहीं मिलता । वैसे ही सुन्दर भेष देखकर मन जाता है किंतु वे नाम चिन्तन रहित खाली ही मिलते हैं । 
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अंब चित्र ज्यों अंब कहावे, 
तरू फल बिना कौन सचु१ पावै । 
रज्जब दरश दशा यूं जान, 
निष्फल बिना मिले भगवान ॥१२२॥
जैसे आम का चित्र आम कहलाता है किन्तु उस वृक्ष के फल लगे बिना उसके फल का सुख१ कौन पायेगा । वैसे ही भेष की दशा जानो अर्थात भेषधारी साधु कहलाता है किंतु भेष से भगवान तो मिलते नहीं तब भेष निष्फल ही है । 
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स्वाँग सिंघाड़ी निफल है, जे जप जड़ सु न लाभ । 
अफल सफल से देखिये, रज्जब बड़े अभाग ॥१२३॥
सिंघाड़े की बेल यदि जड़ से नहीं लगी है तो निष्फल है वैसे ही भेषधारी हरि नाम जप में नहीं लगा है तो उसका भेष निष्फल है, भेषधारियों को प्रभु प्राप्ति रूप फल के बिना भी सफल से देखते हैं वे बड़े अभागे हैं । 
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भेष भरोसे बूड़िये, जे नाम नाव कन१ नाँहिं । 
रज्जब कही सु२ मानिस्यौं३, पैठे४ भव जल माँहिं ॥१२४॥
यदि नाम चिन्तन रूप नौका पास१ नहीं है तब भेष के भरोसे तो डूबोगे ही, हे मनुष्यों३ ! मैनें यह ठीक ही कहा है, जो नाम चिंतन से रहित भेष के भरोसे रहा है सो२ तो संसार के विषय जल में ही प्रविष्ठ४ हुआ है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 5 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(११७/१२०)* =

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*दादू पाखंड पीव न पाइये, जे अंतर साच न होइ ।*
*ऊपर थैं क्यूँ ही रहो, भीतर के मल धोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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पछणे१ का परताप शिर, मांथे मांटी मांडि२ । 
रज्जब राम न पाइये, नाना विधि तन भांडि३ ॥११७॥
नाई के पाछने का प्रताप सिर पर है अर्थात सिर मुंडाया हुआ है और ललाट पर गोपी तलाई की मिट्टी का तिलक लगा२ रक्खा है किंतु नाना प्रकार से शरीर को मिट्टी आदि से लिप्त३ करने से राम नहीं मिलते, मन को भजन में लगाने से ही मिलते हैं । 
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भेषों भीड़१ न भाग ही, स्वाँग न सीझै२ काम । 
जन रज्जब पाखंड तज, जब लग भजै न राम ॥११८॥
भेष से दु:ख१ दूर नहीं होता और जब तक पाखंड को छोड़कर राम का भजन नहीं करता तब तक भेष से मुक्ति रूप कार्य भी सिद्ध२ नहीं होता । 
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भेषों भला न जीव का, स्वांग हुं शांति न होय । 
जन रज्जब पाखंड परि१, जनि२ रु पतीजे३ कोय ॥११९॥
भेष से जीव का भला नहीं होता, भेष से शांति नहीं मिलती, पाखंड पर१ कल्याण होने का विश्वास३ कोई भी न२ करे । 
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स्वाँग१ सरोवर मिरग२ जल, दरश३ एक उनमान४ । 
रज्जब तृष्णा तृप्ति ह्वै, सो ठाहर परवान५ ॥१२०॥
मृग२ तृष्णा के जल का सरोवर और भेष१ दोनों एक जैसे अर्थात समान४ दिखते३ हैं, जहाँ प्यास निवृत होकर तृप्ति आ जाय वही सरोवर स्थल प्रमाण५ रूप है और जहाँ तृष्णा निवृत होकर संतोष आ जाय वही स्थान प्रमाण रूप है । मृग तृष्णा से प्यास और भेष से आशा नहीं मिटती ।
(क्रमशः)

सोमवार, 4 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(११३/११६)* =

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*दादू ध्यान धरे क्या होत है, जो मन नहीं निर्मल होइ ।*
*तो बग सब ही उद्धरैं, जे इहि विधि सीझै कोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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सांई लहिये साँच में, ता में फेर न सार । 
तो रज्जब क्या धारिये, इन भेषों का भार ॥११३॥
प्रभु तो सत्य-साधन में लगे रहने से ही मिलते हैं, इसमें परिवर्तन को अवकाश नहीं है, यह सार बात है, तब इन भेषों के बोझ का क्या धारण किया जाय ?
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जे तत्त्व प्राप्ति तिलक में, माला पहर्यों मेल । 
तो रज्जब परसे पीव सब, सहज भया यहु खेल ॥११४॥
यदि तिलक लगाने से ही ज्ञान प्राप्त हो जाय और माला पहनने से ही प्रभु मिल जाय, तब तो सभी प्रभु से मिल सकते हैं, इस प्रकार तो यह प्रभु प्राप्ति रूप खेल बहुत सहज हो जाता है । 
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जे भेष धरे भव पार ह्वै, दरशण१ दे दीदार२ । 
यूं रज्जब सांई मिले, तो सभी पहुंचे पार ॥११५॥
यदि भेष धारण करने से ही संसार से पार हो जाय और भेष१ से ही प्रभु दर्शन२ दे दें इस प्रकार प्रभु प्राप्त हो तब तो सभी संसार के पार पहुँच सकते हैं । 
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शिर मुंडाय साधू भये, माला मेल रु संत । 
रज्जब स्वांगी स्वांग धरि, माटी लाय महंत ॥११६॥
शिर मुंडवा कर साधु हो रहे हैं, माला गले में डालकर संत बन रहे हैं और गोपी तलाई की मिट्टी का तिलक लगाकर महंत बन रहे हैं । इस प्रकार भेषधारी भेष बनाकर ही अपने को कृतकृत्य मान लेते हैं किंतु भजनादि साधन बिना भेष से भगवान कहां मिलते हैं । 
(क्रमशः)

रविवार, 3 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१०९/११२)* =

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*जिस देखे तूँ फूलिया रे, पाणी पिंड बधाणां मांस ।*
*सो भी जल-बल जाइगा, झूठा भोग विलास ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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जा ज्वर उतरै जगत की, जती१ चढै तिहिं ताप ।
रज्जब ऐसी गूदड़ी, ओढत मरिये बाप ॥१०९॥
जिस गुदड़ी से जगत के मानवों का ज्वर उतरता है, उसी से साधु१ के ज्वर चढ़ जाता है, यह गुदड़ी ऐसी है, बाप रे बाप ! इसके तो ओढ़ने से भी साधु अभिमान का मारा मर जाता है ।
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आरोही१ सम दीखती, तज कठोर मत काम ।
काठौं चढ़ त्यागी गहैं, मिथ्या कहै सु राम ॥११०॥
यह गुदड़ी त्यागी के ऊपर चढ़ी१ हुई सी भासती है, इस कठोर मत के काम को छोड़ दे । ये लोग खड़ाऊ रूप काष्ठ पर चढ़ कर अपने को त्यागी कहते हैं किंतु मन प्रतिष्ठा बढाने के उपाय में लगा रहता है । इसका मुख से राम कहना तो दंभ मात्र होने से मिथ्या ही है ।
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रज१ छंट२ हु छीते३ भये, हेर४ हु होली लोय५ ।
तो रज्जब बहु बरन६ कर, क्यों न बावला७ होय ॥१११॥
देखो४, होली के दिनों में रेत१ और रंग की बिन्दुओं२ से भी लोग५ तितर३ बितर हो जाते हैं, तब बहुत सा रंग६ लगाकर तो मनुष्य क्यों पागल७ होगा ।
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नाम लिये नर निस्तरहि, ताथै लीजे नाम ।
जन रज्जब जाणें नहीं, स्वांग सरै क्या काम ॥११२॥
हरि नाम चिन्तन से ही नर का उद्धार होता है, इसलिये नाम का ही चिन्तन करो, लोग इस रहस्य को जानते नहीं हैं, इससे भेष बनाते हैं किंतु भेष से क्या मुक्ति रूप कार्य सिद्ध होता है ?
(क्रमशः)

शनिवार, 2 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१०५/१०८)* =

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*दादू सोधी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात ।*
*जान कहावैं बापुड़े, आवध लिए हाथ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
जो जीव जिहिं जायगह जड्या१, तहीं जड़ै२ ले और । 
त्यों रज्जब मेघा मृग ही, मुक्तहिं राखे ठौर ॥१०५॥ 
जो जीव जिस स्थान पर स्थिर१ रहता है, वहाँ ही अन्य को भी स्थिर२ कर लेता है । जैसे मेघा नामक सुगंधित घास खुले हुये मृग को भी अपने स्थान पर ही खड़ा कर लेता है(मृग सुगंध के कारण खड़ा रह जाता है) वैसे ही भेषधारी भेष से रहित को भी भेष से बांधकर अपने स्थान में ही रख लेते हैं । वा मेधामृग काला-मृग जैसा खुले हुये मृगों को भी अपने पास ही रखता है, वैसे ही भेषधारी भेष रहित को भी अपने पास रखते हैं फिर भेष सहित कर देते हैं । 
ऊँट रेत रासभ राख, पुनि गरद गयंदै । 
खाणे को कछु नाहिं, दरशणी दरशण बँदै ॥१०६॥ 
जैसे ऊँट रेत में लौटता है, गधा भस्म में लौटता है और हाथी सूँड से धूलि अपने ऊपर डाल लेता है, वैसे ही खाने के लिये कुछ नहीं होने पर भी भेषधारी अपने भस्म रमाने रूप भेष में बाँध देते हैं । यदि भस्म से मुक्ति हो तो ऊंटादि की भी होनी चाहिये । 
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शील१ सांच सुमिरण बिना, ज्ञान खड़क कर नाँहिं । 
सीझ मूये रवि रोस लगि, बाने बकतर२ माँहिं ॥१०७॥ 
हाथ में तलवार भी न हो और केवल कवच पहन ले तब युद्ध करने में तो समर्थ हो नहीं सकता, सूर्य की तेज धूप से कवच२ में दु:खी ही होता है । वैसे ही ब्रह्मचर्य१, सत्य, हरि-स्मरण और ज्ञान तो कुछ भी नहीं हैं । केवल भेष बना लिया है, तब अपने क्रोधादि दोषों से आप ही दु:खी होकर मरता है । 
गृही औढै गूदड़ी, तो उतरे तन ताप । 
रज्जब ज्वर यति१ यहिं चढै, गूदड़ के सु प्रताप ॥१०८॥ 
गृहस्थी गुदड़ी ओढता है तब उसका तो पसीना आकर ज्वर उतर जाता है किंतु उसी गुदड़ी के प्रताप से साधु१ को वैराग्य का अभिमान रूप ज्वर चढ़ जाता है । 
(क्रमशः)

गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(१०१/१०४)* =

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*दादू माया माहै काढि करि, फिर माया में दीन्ह ।*
*दोऊ जन समझैं नहीं, एको काज न कीन्ह ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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षट्दर्शन१ मन रंजना, दुख भंजन गोविन्द ।
जन रज्जब राम हिं भजो, स्वांग२ सभी जग फंद ॥१०१॥
छ: प्रकार के भेष१ तथा भेषधारी तो मन को ही प्रसन्न करते हैं, दुख को दूर करने वाले तो गोविन्द ही हैं । भेष२ तो सभी जगत के फंदे में फंसने वाले हैं, उनका अग्रह छोड़कर राम का भजन करो तब ही मुक्त हो सकोगे ।
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माया बेड़ी तोड़ कर, कोई कोई निकसे प्राण ।
रज्जब जड़िये१ स्वांग सौं, आगे लहै न जाण ॥१०२॥
माया रूप बेड़ी को तोड़ कर कोई कोई प्राणी ही भेष के आग्रहरूप कैद से निकलते हैं, बाकि तो सब भेष के आग्रहरूप कैद में बंद१ हैं, प्रभु की ओर आगे जा ही नहीं सकते ।
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बाधे सांकल स्वांग सौं, बिनहीं ज्ञान विचार ।
ज्यों रज्जब पशु बंदि१ में, बहुते राज दुवार ॥१०३॥
जैसे राजा के द्वार पर बहुत से पशु साँकल से बंधे रहते हैं, वैसे ही भेषधारी बिना ज्ञान-विचार के ही प्राणीयों को भेष में बांधकर अपनी कैद१ में पटक लेते हैं ।
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भोला पहरै भेष को, पीछै पण पड़ि जाय ।
जन रज्जब जग यूं बंधे, कौन छुड़ावै आय ॥१०४॥
पहले भोला मानव ही भेष को पहनाता है, पिछे हठ पड़ जाता है, इस प्रकार जगत् के प्राणी बंधे हैं, कौन आकर इन्हें इस आग्रह से छुड़ावे, ये अपना हठ छोड़ते ही नहीं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(९७/१००)* =

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।*
*अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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काया छापी काठ करि, माल मेलि दश बीस ।
झाङ विलाई होय करि, किन पाया जगदीश ॥९७॥
काष्ठ की छाप लगाकर शरीर को छाप लिया और दश-बीस माला गले में पहन ली, इस प्रकार झाङ विलाई(शूलों से आच्छादित जंतु) होकर किसने जगदीश्वर को प्राप्त किया है ? जगदीश्वर तो भजन ज्ञानादि साधनों से ही मिलते हैं, भेष से नहीं ।
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स्वाँगी१ सब धुण सारिखे, पैठे२ काठहु मांहिं ।
जन रज्जब जलसी सभी, इहि घर छूटे नांहि ॥९८॥
सभी भेषधारी१ धुण के समान हैं जैसे धुण काष्ठ में घुसे२ रहते हैं, वैसे ही भेषधारी माला रूप काष्ठ में घुसे रहते हैं । काष्ठ में रहने वाले सभी धुण एक दिन अग्नि में जलते हैं, वैसे ही भेषधारी भी कालाग्नि में जलेंगे । इस भेष रूप घर में रहने से कालाग्नि से छुटकारा नहीं हो सकता ।
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ज्यों कुदें१ में दीजिये, रज्जब चोर हिं लेय२ ।
त्यों स्वांगी३ संकट पड़, कंठ काठ में देय ॥९९॥
जैसे चोर को पकङ२ कर उसका पैर काठ१ में देते हैं तब वह संकट में पङ जाता है, वैसे ही भेषधारी३ अपने कंठ को काठ में देकर दु:ख में प रहे हैं ।
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बंदि१ पङया संसार सब, षट्दर्शन२ वश होय ।
रज्जब मुक्ता स्वांग सौं, सो जन विरला कोय ॥१००॥
जोगी आदि छ: प्रकार के भेष२ धारियों के वश होकर सब संसार के प्राणी निज निज भेषफल रूप कैद१ में पड़े हैं, वह मानव विरला ही मिलता है जो भेष के आग्रह से मुक्त हो ।
(क्रमशः)

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(९३/९६)* =

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*जन्म लगै व्यभिचारणी, नख शिख भरी कलंक ।*
*पलक एक सन्मुख जली, दादू धोये अंक ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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मृतक घोड़ी स्वांग की, तिहि चढ गर्वे जीव । 
पवंग१ पलाणा२ काठ का, क्यों पहुंचेंगे पीव ॥९३॥
जैसे कोई मरी हुई घोड़ी पर चढ़कर धुड़सवार होने पर गर्व करे, वैसे ही भेष बना कर साधुता का गर्व करना है । जिसका घोड़ा१ और जीन२ दोनों काष्ठ के ही हो वह जाने योग्य स्थान को कैसे पहुँचेगा ? वैसे ही भेष से प्रभु के पास कैसे पहुँचेगा ?
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बाना१ बकतर२ पहिर कर, लड़ै सकल संसार । 
जन रज्जब सो सूरमा, जो झूझे निरधार३ ॥९४॥
कवच२ पहन कर तो सभी संसार के योद्धा लड़ते हैं किंतु सच्चा शूर तो वही है जो कवच का आधार न लेकर लड़ता है । वैसे ही भेष१ से तो सभी साधु बनते हैं किंतु भेष बिना निराधार३ ही जो मन से युद्ध करते हैं वे ही सच्चे संत हैं । 
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श्रृंगार सहित होली जली, रह्यो प्रीति प्रहलाद । 
सो रज्जब जाने जगत, कहां स्वांग परि वाद ॥९५॥
होली श्रृंगार से युक्त थी तो भी जल गई और बिना श्रृंगार के केवल प्रभु होने से प्रहलाद जलने से बच गया, सो बात सभी जगत जानता है, तब भेष की श्रेष्ठता पर विवाद करना क्या शेष रह जाता है ? अर्थात भेष से साधन श्रेष्ठ है । 
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हरि बिन होली थम्भ ज्यों, माला मेलि हजार । 
रज्जब रहै२ न इस मतै१, जल बल होसी छार ॥९६॥
हरि चिन्तन बिना गले में होली स्थम्भ के समान हजारों माला पहनाई जाय तो भी क्या ? इस विचार१ से तो काल से ही नहीं बच२ सकता, जैसे हजारों माला पहन कर होली का स्थंभ जल कर भस्म हो जाता है, वैसे ही अन्त काल के मुख में जायेगा, प्रभु को प्राप्त नहीं हो सकता । 
(क्रमशः)

रविवार, 27 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(८९/९२)* =

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*ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट माँहि ।*
*दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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षट्दर्शन१ भरु खलक२ सब, पाले३ पर चित्राम ।
रज्जब रवि सुत परसतैं, घट पट४ भागे धाम ॥८९॥
जोगी जंगामादि छ: प्रकार के भेषधारी१ और सब संसार२ बर्फ३ राशि पर लिखित चित्राम के समान हैं । जैसे बर्फ राशि पर का चित्राम सूर्य के तेज धाम के स्पर्श होते ही नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही सूर्य पुत्र यमराज के आते ही शरीर तथा भेष४ भाग जाते हैं अर्थात काल के आगे भेष का कोई महत्व नहीं रहता, भजन साधन का ही रहता है ।
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परम१ स्वांग२ ले सांच का, आदि अंत जो होय ।
जन रज्जब क्या कीजिये, जो दीसै दिन दोय ॥९०॥
जो आदि, मध्य और अंत सर्वकाल में रहता है वह सत्य ही श्रेष्ठ१ भेष२ है, उसे ग्रहण कर, जो केवल दो दिन दिखाई देता है, उस भेष का क्या करेगा ?
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बिना शशिहर१ शशिहर किया, जैनहु ने जग माँहिं ।
तैसे शशिहर स्वाँग, सो रज्जब माने नाँहिं ॥९१॥
जैन यति ने जगत में बिना चन्द्रमा१ ही चन्द्रमा दिखा दिया किंतु वह बनावटी चन्द्रमा सत्य तो नहीं माना गया । वैसे ही स्वांग के साधु को हम सच्चा संत नहीं मानते ।
दृष्टान्त - किसी नरेश की सभा में एक जैन यति था, राजा ने उनसे पूछा - 'आज कौन तिथि है ।' यति ने भंग के नशे में अमावस्या को पूर्णिमा बता दिया । नरेश ने कहा - 'पूर्णिमा होगी तो चन्द्रोदय भी होगा ?' यति ने कहा - "अवश्य होगा । " यति अपने आश्रम पर गया, नशा उतरने पर साथी ने राजा के पास हुई बात सुनाई तब यति ने अपनी बात सत्य करने के लिये बनावटी चन्द्रमा आकाश में चढाया, उसे देखकर नरेश ने चारों ओर घुड़ सवार भेज कर पता लगवाया, उसका प्रकाश चारों ओर १२-१२ कोस तक था ।
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साँचा शशिहर साँच का, सकल हिं लोक प्रकाश ।
रज्जब शशिहर स्वांग का, द्वादश कोस उजास ॥९२॥
बनावटी चन्द्रमा का प्रकाश तो १२-१२ कोस में ही था किंतु सच्चे चन्द्रमा का सच्चा प्रकाश सभी लोकों में होता है । वैसे ही भेष के साधु की पोल खुलती है और सच्चा साधु सब स्थानों में एक रस रहता है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(८५/८८)* =

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*कहै दादू जन जो कृत धारै,*
*भलो बुरो फल ताही लारै ।*
*झूठा परगट साचा छानै,*
*तिन की दादू राम न मानै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
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*स्वांग का अंग १३२*
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संग चलै सो साँच है, यहां रहै सो झूठ । 
तो क्या पण१ स्वांग शरीर का, रजू२ होहु भावे रूठ ॥८५॥
जो साथ चलता है, वह साधन ही सत्य है और जो यहा ही रह जाता है वह भेष मिथ्या है । तब शरीर के भेष का क्या बल१ है ? कुछ नहीं । इस पर चाहे प्रसन्न२ हो वा रुष्ट हो बात तो सत्य है । 
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स्वाँग१ सँगती२ देह लग, सो देही भी नाश । 
तो रज्जब तिस झूठ की, कहु क्या कीजे आश ॥८६॥
भेष१ तो देह तक साथी२ है, देह भी नष्ट हो जाता है । तब कहो उस मिथ्या भेष से उद्धार की क्या आशा की जाय । 
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प्राणी आया पिंड ले, भेष दिया भरमाय । 
रज्जब वपु बाने रहै, हंस अकेला जाय ॥८७॥
प्राणी शरीर को लेकर आया था । किंतु भेषधारियों ने भ्रम में डालकर उसे भेष दे दिया तो क्या ? वह शरीर और भेष यहां ही रह जाते हैं जीव तो अकेला ही कर्मानुसार जाता है । 
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रज्जब बाने१ वंद्या२ रासिभा३, बिन बाने भये काल । 
पांडौ४ परिहर करैंगे, जिव के कौन हवाल ॥८८॥
किसी ने गधे३ पर गैरिवाँ रंग का वस्त्र१ देखकर उसे प्रणाम२ कर लिया तो क्या ? उस वस्त्र के उतारते ही पुन: वह प्रणाम करने वाला ही उसके लिये काल रूप हो जाता है, अत: रंग४ का भरोसा त्याग कर भजन कर, भेष के भरोसे पर रहने से यमदूत जीव की क्या दशा करेंगे उसका तुझे पता भी नहीं है । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(८१/८४)* =

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*सब चतुराई देखिये, जे कुछ कीजे आन ।*
*मन गह राखै एक सौं, दादू साधु सुजान ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
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*स्वांग का अंग १३२*
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ज्यों साँभर के सर१ पड्यो, पशू पचन२ ह्वे जाय ।
तैसे रज्जब स्वाँग में, आत्म तत्त्व विलाय ॥८१॥
जैसे साँभर के नमक के सरोवर१ में पड़ने पर पशु गल२ जाते हैं, वैसे ही भेष के आग्रह से आत्म तत्त्व विलीन हो जाता है ।
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दर्शण१ चाहै दरशणी२, पाखंडी पाखंड ।
रज्जब चाहै राम को, सो लिये न प्रपंच मंड३ ॥८२॥
भेषधारी२ भेष१ को चाहता है, पाखंडी पाखंड को चाहता है, किन्तु जो राम को चाहता है, वह ब्रह्माण्ड३ के प्रपंच में लिपायमान नहीं होता ।
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स्वांग१ सनेही दर्शनी२, साँच सनेही साध ।
रज्जब खोट हुँ खर३ हुँ का, अर्थ अगोचर४ लाध५ ॥८३॥
भेषधारी२ तो भेष१ के प्रेमी हैं, और संत सत्य के प्रेमी है इस प्रकार इन्द्रियों का अविषय४ खोटे भेष धारियों और सच्चे३ संतों का लक्षण रूप अर्थ हमें मिल५ गया है ।
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मन हिं जान दे मनिये फेरै, यहु उर बात न आवै मेरै ।
छापे दे अरु राशि लुटावै, सो रज्जब कैसे करि भावै ॥८४॥
जैसे कोई रक्षक धान की राशि पर छापे देता है और घूस खाकर राशि भी लुटाता है, तो वह कैसे अच्छा लगेगा ? वैसे ही माला के मणियें फैरता है और मन को विषयों में भी जाने देता है, यह बात हमारे हृदय में उचित रूप से नहीं आती अर्थात हमें अच्छी नहीं लगती ।
(क्रमशः)

बुधवार, 23 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(७७/८०)* =

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*दादू झूठा राता झूठ सौं, साँच राता साँच ।*
*एता अंध न जानहिं, कहँ कंचन, कहँ काँच ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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बाने१ को बींदे२ नहीं, सब संतन का साखि३ । 
रज्जब राखै कौन विधि, पूज्य पुकारे नाखि४ ॥७७॥
भेष१ के आग्रह में कोई न फँसे२, यही सब संतों की साक्षी३ है, जब पूज्य 
संत भेष का आग्रह त्यागने४ के लिये पुकार कर कह रहे हैं तब हम किस प्रकार रख सकते हैं । 
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मन मंयक१ सम नीकसै, अबला२ आदित्य छाँहि । 
जन रज्जब वंदहि३ सु क्यों४, बाने५ बादल माँहिं ॥७८॥
मन चन्द्रमा१ के समान है, चन्द्रमा जब सूर्य की छाया में अर्थात सूर्य के होते हुये द्वितिया को निकलता है और बादल में होता है तब उसे कैसे प्रणाम करैं ? अर्थात उसकी कला देखकर ही तो प्रणाम३ करते हैं, वह दिखती नहीं । वैसे ही मन नारी२ की छाया में निकलता अर्थात नारी के अधीन रहता है और भेष५ के आग्रह में भी दबा रहता है, तब वह कैसे४ वंदनीय३ होगा ? उसकी साधन शक्ति तो भासती ही नहीं । 
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रज्जब रहै न स्वाँग१ में, बाने२ बंद३ हिं नाँहिं । 
आतम राम न सूझ ही, भेष भाकसी४ माँहिं ॥७९॥
हम भेष१ के आग्रह में नहीं रहते, न भेष२ को वंदन३ करते । भेष के आग्रह रूप कैद४ में घुसने पर तो अपना आत्म स्वरूप राम नहीं दीखता । 
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षट् दर्शन१ के दृग नहीं, भेषों भाने२ नैन । 
आतम राम न सूझ ही, रज्जब परे न चैन३ ॥८०॥
जोगी, जंगामादि छ: प्रकार के भेषधारियों१ के विचार रूप नैत्र नहीं है, भेषों के आग्रह ने फोड़२ डाले हैं । इसी से उन्हें आत्मस्वरूप राम नहीं दीखता और न शांति-सुख३ मिलता ।
(क्रमशः)

रविवार, 20 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(७३/७६)* =

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*दादू हंस परखिये, उत्तम करणी चाल ।*
*बगुला बैसे ध्यान धर, प्रत्यक्ष कहिये काल ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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बाँने१ बानी२ सौं रंगे, काचा काया कुंभ । 
रज्जब रति न ठाहरै, परसत अबला३ अंभ४ ॥७३॥
कच्चे घड़े को भस्म२ से रंग दिया जायेगा तो वह जल४ से स्पर्श होने पर क्षण भी नहीं ठहर सकेगा, वैसे ही असाधु शरीर को भेष१ द्वारा साधु बना दिया जायगा तो नारी३ स्पर्श से उसकी साधुता क्षण भर भी नहीं ठहर सकेगी । 
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मंझे१ मावो२ महिं किया, उतैं३ तन जरपोसि४ । 
रज्जब रचि सु मतिन्ह५ के, गुझी६ गाल्हि७ सुण्योसि८ ॥७४॥
भीतर१ मन को तो प्रभु२ प्राप्ति के योग्य नहीं बनाया किन्तु ऊपर३ शरीर को जरी४के वस्त्र पहन कर खूब सजाया है और बुद्धि५ के द्वारा रची हुई गूढ६ बातें७ भी सुनाते८ हैं किंतु जब तक मन ठीक न हो तब तक क्या मुक्ति हो सकती है ?
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चाम दाम सम स्वांग सब, ता में फेर न सार । 
रज्जब तजे सु जौहर्यों, लेसे१ मुग्ध२ गँवार३ ॥७५॥
सभी भेष चमड़े के दामों के समान हैं, इसमें परिवर्तन को अवकाश नहीं यह सार बात है । जैसे परीक्षक जौहरी तो चमड़े के रुपयों को नहीं लेते त्याग देते हैं किन्तु मूर्ख२ ले लेते हैं, वैसे ही परीक्षक साधक तो भेषधारी को संत मानकर ग्रहण नहीं करते किंतु अनजान३ लोग भेष से ही संत मानकर संत रूप से ग्रहण कर लेते१ हैं । 
.
दर्शन१ दिल बैठै नहीं, पाखंड पड़ै न प्राण । 
रज्जब राता राम सौं, समझ्या संत सुजाण ॥७६॥
जिस प्राणी का मन भेष१ में संतोष मानकर नहीं बैठता, पाखंड में नहीं पड़ता, निरंतर राम में अनुरक्त रहता है वही रहस्य को समझा हुआ बुद्धिमान संत है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(६९/७२)* =

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*दादू जे कुछ कीजिये, अविगत बिन आराध ।*
*कहबा सुनबा देखबा, करबा सब अपराध ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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कली कपट को चाहिये, कंचन कली न होय । 
रज्जब स्वांगी साधका, इहै१ पटंतर२ जोय३ ॥६९॥
कलई तो कपट के लिये ही चाहिये, सत्य के लिये नहीं । ताँबा को सुवर्ण दिखाते हैं तब सुवर्ण की कलई करते हैं, सुवर्ण पर तो कलई नहीं होती । यहाँ१ स्वांगी साधु को भी कंचन-कलई के समान२ ही देख३, असाधु को साधु दिखाने के लिये ही साधु का भेष बनाया जाता है, सच्चे साधु के लिये भेष की आवश्यकता नहीं । 
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जन रज्जब शुध१ गाय के, कंठ न बाँधै काठ । 
डींगर२ तिस के मेलिये, जो ताके३ बारह४ बाट ॥७०॥
शुद्ध१ अर्थात खेतों में न जाने वाली गाय के कंठ में काष्ठ२ नहीं बाँधते । चलने पर पैरों के लगने वाला काष्ठ उसी गाय के बाँधते है, जो खेतों में जाने के लिये इधर उधर३ देखती४ है । 
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बहुत स्वांग गणिका करे, जाके पुरुष अनेक । 
पतिव्रता सादी भली, रज्जब समझ विवेक ॥७१॥
जिसके अनेक पुरुष होते हैं वह वेश्या ही बहुत ही भेष बनाती है, पतिव्रता तो सादे भेष वाली भी अच्छी है, वैसे ही विवेक द्वारा समझ, जो असंत है वही नाना भेष रूप ढोंग करता है । सच्चे संत तो सादे भेष में ही रहते हैं । 
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जन रज्जब देही दरश१, मनोवृत्ति नहिं जाय । 
देखि दिवाली चित्रिये, अतिगति२ गोधे३ गाय ॥७२॥
देखो, दिवाली के अवसर पर गाय बैलों३ को अत्यधिक२ चित्रित किया जाता है उससे उनके व्यवहार में अंतर आता है क्या ? वैसे ही शरीर पर भेष१ बनाने से मन की वृत्ति प्रभु की और नहीं जाती ।
(क्रमशः)