🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*विरहनी को श्रृंगार न भावे,*
*है कोई ऐसा राम मिलावे ॥टेक॥*
*विसरे अंजन मंजन चीरा,*
*विरह व्यथा यहु व्यापै पीरा ॥१॥*
*नव-सत थाके सकल श्रृंगारा,*
*है कोई पीड़ मिटावनहारा ॥२॥*
*देह गेह नहीं सुधि शरीरा,*
*निशदिन चितवत चातक नीरा ॥३॥*
*दादू ताहि न भावे आन,*
*राम बिना भई मृतक समान ॥४॥*
(श्री दादूवाणी~ पद १०)
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७७. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक*
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(६)
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपु: कदा तव नामग्रहणे भविष्यति॥
प्यारे ! मैंने सुना है कि आँसुओं के भीतर जो सफेद-सफेद कांच का सा छोटा सा घर दीखता है, उसी के भीतर तुम्हारा घर है। तुम सदा उसी में वास करते हो। यदि यह बात ठीक है, तब तो प्रभो ! मेरा नाम लेना व्यर्थ ही है। मेरी आँखें आंसू तो बहाती ही नहीं, तुम तो भीतर ही छिपे बैठे रहते होगे।
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बोलना-चालना तो वाचालता में होता है, तुम सम्भवतया मौनियों से प्यार करते होगे, किन्तु दयालो ! मौन कैसे रहूँ? यह वाणी तो अपने आप ही फूट पड़ती है। वाणी को रोक दो, गले को रुद्ध कर दो, जिससे स्पष्ट एक भी शब्द न निकल सके। सुस्ती में सभी वस्तुएं शिथिल हो जाती हैं। तुम कहते हो – ‘तेरे ये शरीर के बाल क्यों पड़े हैं?’ प्यारे ! इनमें विद्युत का संचार नहीं हुआ है। अपनी विरहरूपी बिजली इनमें भर दो, जिससे ये तुम्हारे नाम का शब्द सुनते ही चौंककर खड़े हो जायँ।
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हे मेरे विधाता ! इनकी सुस्ती मिटा दो, इनमें ऐसी शक्ति भर दो जिससे फुरहुरी आती रहे। बस, जहाँ तुम्हारे नाम की ध्वनि सुनी, वहीं दोनों नेत्र लबालब अश्रु से भर आये, वाणी अपने आप ही रुक गयी, शरीर के सभी रोम बिलकुल खड़े हो गये। प्यारे तुम्हारे इन मधुर नामों को लेते हुए कभी मेरी ऐसी स्थिति हो भी सकेगी क्या !
श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(७) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्दविरहेण मे॥
हाय रे प्यारे ! लोग कहते हैं आयु अल्प है, किन्तु प्यारे ! मेरी आयु तो तुमने अनन्त कर दी है और तुम मुझे अमर बनाकर कहीं छिप गये हो। हे चोर ! जरा आकर मेरी दशा तो देखो। तुम्हें बिना देखो मेरी कैसी दशा हो रही है, जिसे लोग ‘निमेष’ कहते हैं, पलक मारते ही जिस समय को व्यतीत हुआ बताते हैं, वह समय मेरे लिये एक युग से भी बढ़कर हो गया है।
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इसका कारण है तुम्हारा विरह। लोक कहते हैं, वर्षा चार ही महीने होती है, किन्तु मेरा जीवन तो तुमने वर्षामय ही बना दिया है। मेरे नेत्रों से सदा वर्षा की धाराएं ही छूटती रहती हैं, क्योंकि तुम दीखते नहीं हो, कहीं दूर जाकर छिप गये हो। नैयायिक चौबीस गुण बताते हैं, सात पदार्थ बताते हैं।
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इस संसार में विविध प्रकार की वस्तुएँ बतायी जाती हैं, किन्तु प्यारे मोहन ! मेरे लिये तो यह सम्पूर्ण संसार सूना-सूना सा ही प्रतीत होता है, इसका एकमात्र कारण है तुम्हारा अदर्शन। तुम मुझे यहाँ फँसाकर न जाने कहाँ चले गये हो, इसलिये मैं सदा रोता-रोता कलाप रहता हूँ –
श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(८)
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा- मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापर:॥
हे सखि ! इन व्यर्थ बातों में क्या रखा है। तू मुझे उसके गुणों को क्यों सुनाती है? वह चाहे दयामय हो या धोखेबाज, प्रेमी हो या निष्ठुर, रसिक हो या जारशिरोमणि। मैं तो उसकी चेरी बन चुकी हूँ। मैंने तो अपना अंग उसे ही अर्पण कर दिया है। वह चाहे तो इसे हृदय से चिपटकार प्रेम के कारण इसके रोमों को खड़ा कर दे या अपने विरह में जल से निकली हुई मर्माहत मछली की भाँति तड़फाता रहे। मैं उस लम्पट के पाले अब तो पड़ ही गयी हूँ।
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अब सोच करने से हो ही क्या सकता है, जो होना था सो हो चुका। मैं तो अपना सर्वस्व उस पर वार चुकी। वह इस शरीर का स्वामी बन चुका। अब कोई अपर पुरुष इसकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देख सकता। उसके अनन्त सुन्दर और मनोहर नाम हैं, उनमें से मैं तो रोते-रोते इन्हीं नामों का उच्चारण करती हूँ– श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
प्रेमी पाठकों का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहे, क्या इस भिखारी को भी उसमें से एक कण मिलेगा?
इति शम् श्रीश्री चैतन्य - चरितावली समाप्तोऽयं ग्रंन्थ:।