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शनिवार, 18 जुलाई 2020

*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*

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*विरहनी को श्रृंगार न भावे,*
*है कोई ऐसा राम मिलावे ॥टेक॥*
*विसरे अंजन मंजन चीरा,*
*विरह व्यथा यहु व्यापै पीरा ॥१॥*
*नव-सत थाके सकल श्रृंगारा,*
*है कोई पीड़ मिटावनहारा ॥२॥*
*देह गेह नहीं सुधि शरीरा,*
*निशदिन चितवत चातक नीरा ॥३॥*
*दादू ताहि न भावे आन,*
*राम बिना भई मृतक समान ॥४॥*
(श्री दादूवाणी~ पद १०)
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*
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(६)
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपु: कदा तव नामग्रहणे भविष्‍यति॥
प्‍यारे ! मैंने सुना है कि आँसुओं के भीतर जो सफेद-सफेद कांच का सा छोटा सा घर दीखता है, उसी के भीतर तुम्‍हारा घर है। तुम सदा उसी में वास करते हो। यदि यह बात ठीक है, तब तो प्रभो ! मेरा नाम लेना व्‍यर्थ ही है। मेरी आँखें आंसू तो बहाती ही नहीं, तुम तो भीतर ही छिपे बैठे रहते होगे।
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बोलना-चालना तो वाचालता में होता है, तुम सम्‍भवतया मौनियों से प्‍यार करते होगे, किन्‍तु दयालो ! मौन कैसे रहूँ? यह वाणी तो अपने आप ही फूट पड़ती है। वाणी को रोक दो, गले को रुद्ध कर दो, जिससे स्‍पष्‍ट एक भी शब्‍द न निकल सके। सुस्‍ती में सभी वस्‍तुएं शिथिल हो जाती हैं। तुम कहते हो – ‘तेरे ये शरीर के बाल क्‍यों पड़े हैं?’ प्‍यारे ! इनमें विद्युत का संचार नहीं हुआ है। अपनी विरहरूपी बिजली इनमें भर दो, जिससे ये तुम्‍हारे नाम का शब्‍द सुनते ही चौंककर खड़े हो जायँ।
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हे मेरे विधाता ! इनकी सुस्‍ती मिटा दो, इनमें ऐसी शक्ति भर दो जिससे फुरहुरी आती रहे। बस, जहाँ तुम्‍हारे नाम की ध्‍वनि सुनी, वहीं दोनों नेत्र लबालब अश्रु से भर आये, वाणी अपने आप ही रुक गयी, शरीर के सभी रोम बिलकुल खड़े हो गये। प्‍यारे तुम्‍हारे इन मधुर नामों को लेते हुए कभी मेरी ऐसी स्थिति हो भी सकेगी क्‍या !
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(७) युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्‍यायितं जगत् सर्वं गोविन्‍दविरहेण मे॥
हाय रे प्‍यारे ! लोग कहते हैं आयु अल्‍प है, किन्‍तु प्‍यारे ! मेरी आयु तो तुमने अनन्‍त कर दी है और तुम मुझे अमर बनाकर कहीं छिप गये हो। हे चोर ! जरा आकर मेरी दशा तो देखो। तुम्‍हें बिना देखो मेरी कैसी दशा हो रही है, जिसे लोग ‘निमेष’ कहते हैं, पलक मारते ही जिस समय को व्‍यतीत हुआ बताते हैं, वह समय मेरे लिये एक युग से भी बढ़कर हो गया है।
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इसका कारण है तुम्‍हारा विरह। लोक कहते हैं, वर्षा चार ही महीने होती है, किन्‍तु मेरा जीवन तो तुमने वर्षामय ही बना दिया है। मेरे नेत्रों से सदा वर्षा की धाराएं ही छूटती रहती हैं, क्‍योंकि तुम दीखते नहीं हो, कहीं दूर जाकर छिप गये हो। नैयायिक चौबीस गुण बताते हैं, सात पदार्थ बताते हैं।
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इस संसार में विविध प्रकार की वस्‍तुएँ बतायी जाती हैं, किन्‍तु प्‍यारे मोहन ! मेरे लिये तो यह सम्‍पूर्ण संसार सूना-सूना सा ही प्रतीत होता है, इसका एकमात्र कारण है तुम्‍हारा अदर्शन। तुम मुझे यहाँ फँसाकर न जाने कहाँ चले गये हो, इसलिये मैं सदा रोता-रोता कलाप रहता हूँ –
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(८)
आश्लिष्‍य वा पादरतां पिनष्‍टु मा- मदर्शनान्‍मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्‍पटो मत्‍प्राणनाथस्‍तु स एव नापर:॥
हे सखि ! इन व्‍यर्थ बातों में क्‍या रखा है। तू मुझे उसके गुणों को क्‍यों सुनाती है? वह चाहे दयामय हो या धोखेबाज, प्रेमी हो या निष्‍ठुर, रसिक हो या जारशिरोमणि। मैं तो उसकी चेरी बन चुकी हूँ। मैंने तो अपना अंग उसे ही अर्पण कर दिया है। वह चाहे तो इसे हृदय से चिपटकार प्रेम के कारण इसके रोमों को खड़ा कर दे या अपने विरह में जल से निकली हुई मर्माहत मछली की भाँति तड़फाता रहे। मैं उस लम्‍पट के पाले अब तो पड़ ही गयी हूँ।
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अब सोच करने से हो ही क्‍या सकता है, जो होना था सो हो चुका। मैं तो अपना सर्वस्‍व उस पर वार चुकी। वह इस शरीर का स्‍वामी बन चुका। अब कोई अपर पुरुष इसकी ओर दृष्टि उठाकर भी नहीं देख सकता। उसके अनन्‍त सुन्‍दर और मनोहर नाम हैं, उनमें से मैं तो रोते-रोते इन्‍हीं नामों का उच्‍चारण करती हूँ– श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
प्रेमी पाठकों का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहे, क्‍या इस भिखारी को भी उसमें से एक कण मिलेगा?
इति शम् श्रीश्री चैतन्य - चरितावली समाप्तोऽयं ग्रंन्थ:।

*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*

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*हम तुम संग निकट रहैं नेरे,*
*हरि केवल कर गहिये ।*
*चरण कमल छाड़ि कर ऐसे,*
*अनत काहे को बहिये ॥*
(श्री दादूवाणी~ पद १८३)
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७७. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक*
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(३)
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सष्णिुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:॥
हरिनाम संकीर्तन करने वाले पुरुष को किस प्रकार के गुरु बनाने चाहिये और दूसरों के प्रति उसका व्यवहार कैसा होना चाहिये, इसको कहते हैं – भागवत बनने वाले को मुख्यतया दो गुरु बनाने चाहिये – ‘एक तो तृण और दूसरा वृक्ष।'

*तृण से तो नम्रता की दीक्षा ले, तृण सदा सब के पैरों के नीचे ही पड़ा रहता है।
कोई दयालु पुरुष उसे उठाकर आकाश में चढ़ा देते हैं, तो वह फिर ज्यों का त्यों ही पृथ्वी पर आकर पड़ जाता है। वह स्वप्न में भी किसी के सिर पर चढ़ने की इच्छा नहीं करता।* तृण के अतिरिक्त दूसरे गुरु ‘वृक्ष’ से ‘सहिष्णुता’ की दीक्षा लेनी चाहिये।
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*सुन्दर वृक्ष का जीवन परोपकार के ही लिये होता है। वह भेद-भाव शून्य होकर समान भाव से सभी की सेवा करता रहता है।’ जिसकी इच्छा हो वही उसकी सुखद शीतल सघन छाया में आकर अपने तन की ताप बुझा ले। जो उसकी शाखाओं को काटता है, उसे भी वह वैसी ही शीतलता प्रदान करता है और जो जल तथा खाद से उसका सिंचन करता है, उसको भी वैसी ही शीतलता। उसके लिये शत्रु-मित्र दोनों समान हैं। उसके पुष्पों की सुगन्धि जो भी उसके पास पहुँच जाय, वही ले सकता है। उसके गोंद को जो चाहे छुटा लावे। उसके कच्चे-पके फलों को जिसकी इच्छा हो, वही तोड़ लावे। वह किसी से भी मना नहीं करेगा।*
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दुष्ट स्वभाव वाले पुरुष उसे खूब फलों से समृद्ध देखकर डाह करने लगते हैं और ईर्ष्यावश उसके ऊपर पत्थर फेंकते हैं, किन्तु वह उनके ऊपर तनिक भी रोष नहीं करता, उल्टे उसे पास यदि पके फल हुए तो सर्वप्रथम तो प्रहार करने वाले को पके ही फल देता है, यदि पके फल उस समय मौजूद न हुए तो कच्चे ही देकर अपने अपकारी के प्रति प्रेमभाव प्रदर्षित करता है।
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दुष्ट स्वभाव वाले उसी की छाया में बैठकर शान्ति लाभ करते हैं। पीछे से उसकी सीधी शाखाओं को काटने की इच्छा करते हैं। वह बिना किसी आपत्ति के अपने शरीर को कटाकर उनके कामों को पूर्ण करता है। उस गुरु से सहिष्णुता सीखनी चाहिये।
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मान तो मृगतृष्‍णा का जल है, इसलिये मान के पीछे जो पड़ा, वह प्‍यार से हिरण की भाँति सदा तड़फ-तड़फकर ही मरता है, मान का कहीं अन्‍त नहीं, ज्‍यों-ज्‍यों आगे को बढ़ते चलो त्‍यों ही त्‍यों वह बालुकामय जल और अधिक आगे बढ़ता चलेगा। इसलिये वैष्‍णव को मान की इच्‍छा कभी न करनी चाहिये, किन्‍तु दूसरों को सदा मान प्रदान करते रहना चाहिये।
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सम्‍मान रूपी सम्‍पत्ति की अनन्‍त खानि भगवान ने हमारे हृदय में दे रखी है। जिसके पास धन है और वह धन की आवश्‍यकता रखने वाले व्‍यक्ति को उसके माँगने पर नहीं देता, तो वह ‘कंजूस’ कहलाता है। इसलिये सम्‍मान रूपी धन को देने में किसी के साथ कंजूसी न करनी चाहिये। तुम परम उदार बनो, दोनों हाथों से सम्‍पत्ति को लुटाओ, जो तुमसे मान की इच्‍छा रखें, उन्‍हें तो मान देना ही चाहिये, किन्‍तु जो न भी मांगें उन्‍हें भी बस भर-भरकर देते रहो।
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इससे तुम्‍हारी उदारता से सर्वान्‍तरयामी प्रभु अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होंगे। सभी में उसी प्‍यारे प्रभु का रूप देखो। सभी को उनका ही विग्रह समझकर नम्रता पूर्वक प्रणाम करो। ऐसे बनकर ही इन सुमधुर नामों के संकीर्तन करने के अधिकारी बन सकते हो –
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(४)
न धनं न जनं न सुन्‍दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्‍मनि जन्‍मनीश्‍वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
संसार में सब सुखों की खानि धन है। जिसके पास धन है, उसे किसी बात की कमी नहीं। धनी पुरुष के पास गुणी, पण्डित तथा भाँति-भाँति की कलाओं के कोविद आप से आप ही आ जाते हैं। धन से बढ़कर शक्तिशालिनी जन-सम्‍पत्ति है। जिसकी आज्ञा में दस आदमी हैं। जिसके कहने से अनेकों आदमी क्षणभर में रक्‍त बहा सकते हैं, वह अच्‍छे–अच्‍छे धनिकों की भी परवा नहीं करता। पैसा पास न होने पर भी अच्‍छे-अच्‍छे लखपति-करोड़पति उससे थर-थर कांपते हैं। उस जनशक्ति से भी बढ़कर आकर्षक सुन्‍दरी है।
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शिक्षाष्‍टक सुन्‍दरी संसार में किसके मन को आ‍कर्षित नहीं कर सकती। अच्‍छे-अच्‍छे करोड़पतियों के कुमार सुन्‍दरी के तनिक से कटाक्ष पर लाखों रुपयों को पानी की तरह बहा देते हैं। हजारों वर्ष की संचित की हुई तपस्‍या को अनेकों तपस्‍वीगण उसकी टेढी भौंह के ऊपर वार देने को बाध्‍य होते हैं। धनी हो चाहे गरीब, पण्डित हो चाहे मूर्ख, शूरवीर हो अथवा निर्बल, जिसके ऊपर भी भौंहरूपी कमान ने कटाक्षरूपी बाण को खींकचर सुन्‍दरी ने एक बार मार दिया प्राय: वह मूर्च्छित हो ही जाता है।
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तभी तो रा‍जर्षि भर्तृहरि ने कहा है ‘कन्‍दर्पदर्पदलने विरला मनुष्‍या:’ अर्थात कामदेव के मद को चूर्ण करने वाले इस संसार में विरले ही मनुष्‍य हैं। कामदेव की सहचरी सेनानायिका सुन्‍दरी ही है। उस सुन्‍दरी से भी बढ़कर कविता है।
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जिसको कविता कामिनी ने अपना कान्‍त कहकर वरण कर लिया है, उसके मन त्रैलोक्‍य की सम्‍पत्ति भी तुच्‍छ है। वह धनहीन होने पर भी शाहंशाह है। प्रकृति उसकी मोल ली हुई चेरी है। वह राजा है, महाराजा है, दैव है और विधाता है। इस संसार में कमनीय कवित्‍वशक्ति किसी विरले ही भगवान पुरुष को प्राप्‍त हो सकती है।
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किन्‍तु प्‍यारे ! मैं तो धन, जन, सुन्‍दरी तथा कविता इनमें से किसी भी वस्‍तु की आकांक्षा नहीं रखता। तब तुम पूछोगे – ‘तो तुम और चाहते ही क्‍या हो ?’ इसका उत्तर यही है कि हे जगदीश ! मै कर्मबन्‍धनों को मेटने की प्रार्थना नहीं करता। मेरे प्रारब्‍ध को मिटा दो, ऐसी भी आकांक्षा नहीं रखता। भले ही मुझे चौरासी लाख क्‍या चौरासी अरब योनियों में भ्रमण करना पड़े, किन्‍तु प्‍यारे प्रभो ! तुम्‍हारी स्‍मृति हृदय से न भूले। तुम्‍हारे पुनीत पादपद्मों का ध्‍यान सदा अक्षुण्‍ण भाव से ज्‍यों का त्‍यों ही बना रहे। तुम्‍हारे प्रति मेरी अहैतु की भक्ति उसी प्रकार बनी रहे। मैं सदा गाता रहूँ –
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(५)
अयि नन्‍दतनूज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्‍बुधौ।
कृपया तव पादपंकज स्थितधूलीसदृशं विचिन्‍तय॥
यह संसार समुद्र के समान है। मुझे इसमें तुमने क्‍यों फेंक दिया, हे नाथ ! इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। मैं अपने कर्मों के अधीन होकर ही इसमें गोते लगा रहा हूँ, बार-बार डूबता हूँ और फिर तुम्‍हारी करुणा के सहारे ऊपर तैरने लगता हूँ।
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इस अथाह सागर के सम्‍बन्‍ध में मैं कुछ भी नहीं जानता कि यह कितना गहरा है, किन्‍तु हे मेरे रमण ! मैं इसमें डुबकियाँ मारते-मारते थक गया हूँ। कभी-कभी खारा पानी मुंह में चला जाता है, तो कैसी होने लगती है। कभी कानों में पानी भर जाता है, तो कभी आँखें ही नमकीन जल से चिरचिराने लगती हैं। कभी-कभी नाक में होकर भी जल चला जाता है।
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हे मेरे मनोहर मल्‍लाह ! हे मेरे कोमल प्रकृति केवट ! मुझे अपना नौकर जानकर, सेवक समझकर कहीं बैठने का स्‍थान दो। तुम तो ग्‍वाले के छोकरे हो न, बड़े चपल हो। पूछ सकते हो, ‘इस अथाह जल में मैं बैठने के लिये तुझे स्‍थान कहाँ दूँ। मेरे पास नाव भी तो नहीं जिसमें तुम्‍हें बिठा लूँ।’ तो हे मेरे रसिक शिरोमणि ! मैं चालाकी नहीं करता, तुम्‍हें भुलाता नहीं सुझाता हूँ। तुम्‍हारे पास एक ऐसा स्‍थान है, जो जल में रहने पर भी नहीं डूबता और उसमें तुमने मुझ-जैसे अनेकों डूबते हुओं को आश्रय दे रखा है।
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तुम्‍हारे ये अरुण वर्ण के जो कोमल चरण कमल हैं, ये तो जल में ही रहने के आदी हैं। इन कमलों में सैकड़ों धूलि के कण जल में रहते हुए भी निश्चिन्‍तरूप से बिना डूबे ही बैठे हैं। हे नन्‍दजी के लाड़िले लाल ! उन्‍हीं धूलि कणों में मेरी भी गणना कर लो। मुझे भी उन पावन पद्मों में रेणु बनाकर बिठा लो। वहाँ बैठकर मैं तुम्‍हारी धीरे-धीरे पैर हिलाने की क्रीड़ा के साथ थिरक-थिरककर सुन्‍दर स्‍वर से इन नामों का गायन करता रहूँगा –
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
(क्रमशः)

*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*

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*दादू वाणी प्रेम की, कमल विकासै होहि ।*
*साधु शब्द माता कहैं, तिन शब्दों मोह्या मोहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*
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चैतन्‍य-चरितावली रूपी रसभरी धारा ने हमारे और पाठकों के बीच में एक प्रकार का सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर दिया है। चाहे हमारा ‘चैतन्‍य-चरितावली’ के सभी पाठकों से शरीर-सम्‍बन्‍ध न भी हो, किन्‍तु मानसिक सम्‍बन्‍ध तो उसी दिन जुड़ चुका जिस दिन उन्‍होंने अचैतन्‍य जगत को छोड़कर चैतन्‍य-चरित्र की खोज की।
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उन सभी प्रेमी बन्‍धु के श्री चरणों में हृदय से इस हृदय हीन नीरस लेखक की यही प्रार्थना है कि आप लोग कृपा करके अपने प्रेम का एक-एक कण भी इस दीन-हीन कंगाल को प्रदान कर दें तो इसका कल्‍याण हो जाय। कहावत है – ‘बूँद-बूँद से घट भरे, टपकत रीतो होय।’
बस, प्रत्‍येक पाठक हमारे प्रति थोड़ा भी प्रेम प्रदर्शित करने की कृपा करें तो हमारा यह रीता घड़ा परिपूर्ण हो जाय। क्‍या उदार और प्रेमी पाठक इतनी भिक्षा हमें दे सकेंगे?
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यह हम हृदय से कहते हैं, हमें धन की या और किसी सांसारिक उपभोगों की अभी तो इच्‍छा प्रतीत होती नहीं। आगे की वह साँवला जाने। अच्‍छे–अच्‍छों को लाकर फिर उसने इसी मायाजाल में फँसा दिया है, फिर हम-जैसे कीट-पतंगों की तो गणना ही क्‍या ! उसे तो अभी तक देखा ही नहीं। शास्‍त्रों से यह बात सुनी है कि प्रेमी भक्त ही उसके स्‍वरूप हैं, इसीलिये उनके सामने अकिंचन भिखारी की तरह हम पल्‍ला पसारकर भीख माँग रहे हैं।
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हमें यह भी विश्‍वास है कि इतने बड़े दाताओं के दरवाजों से हम निराश होकर न लौटेंगे, अवश्‍य ही हमारी झोली में वे कुछ-न-कुछ तो डालेंगे ही। भीख मांगने वाला कोई गीत गाकर या कुछ कहकर ही दाताओं के चित्‍त को अपनी ओर खींचकर भीख माँगता है। अत: हम भी चैतन्‍योक्त इन आठ श्‍लोकों को ही कहकर पाठकों से भीख माँगते हैं।
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(१)
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं
श्रेय: कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्‍दाम्‍बुधिबर्द्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्‍वादनं
सर्वात्‍मस्‍नपनं परं विजयते श्रीकृष्‍णसंकीर्तनम्।।
जो चित्‍तरूपी दर्पण के मैल को मार्जन करने वाला है, जो संसाररूपी महादावाग्नि को शान्‍त करने वाला है, प्राणियों के लिये मंगलदायिनी कैरव चन्द्रिका को विरण करने वाला है, जो विद्यारूपी वधू का जीवन-स्‍वरूप है और आनन्‍दरूपी समुद्र को प्रतिदिन बढ़ाने ही वाला है उस श्रीकृष्‍ण संकीर्तन की जय हो, जय हो !
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(२)
नाम्‍नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्‍तत्रार्पिता नियमित:स्‍मरणे न काल:।
एतादृशी तव कृपा भगवन ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:।।
प्राणनाथ ! तुम्‍हारी कृपा में कुछ कसर नहीं और मेरे दुर्भाग्‍य में कुछ संदेह नहीं। भला, देखो तो सही तुमने ‘नन्‍दनन्‍दन’, ‘व्रजचन्‍द’, ‘मुरलीमनोहर’, ‘राधारमण’– ये कितने सुन्‍दर-सुन्‍दर कानों को प्रिय लगने वाले अपने मनोहारी नाम प्रकट किये हैं, फिर वे नाम रीते ही हों सो बात नहीं, तुमने अपनी सम्‍पूर्ण शक्ति सभी नामों में समानरूप से भर दी है।
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*जिसका भी आश्रय ग्रहण करें, उसी में तुम्‍हारी पूर्ण शक्ति मिल जायगी। सम्‍भव है, वैदिक क्रिया-कलापों की भाँति तुम उनके लेने में कुछ देश, काल और पात्र का नियम रख देते तो इसमें कुछ कठिनता होने का भय भी था, सो तुमने तो इन बातों का कोई भी नियम निर्धारित नहीं किया।*
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*स्‍त्री हो, पुरुष हो, द्विज हो, अन्‍त्‍यज हो, शूद्र हो, अनार्य हो, कोई भी क्‍यों न हो, सभी प्राणी शुचि-अशुचि किसी का भी विचार न करते हुए सभी अवस्‍थाओं में, सभी समयों में सर्वत्र उन सुमधुर नामों का संकीर्तन कर सकते हैं।* हे भगवन ! तुम्‍हारी तो जीवों के ऊपर इतनी भारी कृपा और मेरा ऐसा भी दुर्दैव कि तुम्‍हारे इन सुमधुर नामों में सच्‍चे हृदय से अनुराग ही उत्‍पन्‍न नहीं होता।
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
(क्रमशः)

*१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*

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*दादू निरखि निरखि निज नाम ले,*
*निरखि निरखि रस पीव ।*
*निरखि निरखि पिव कौं मिलै,*
*निरखि निरखि सुख जीव ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*
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*६–श्रीगोपाल भट्ट*
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ये श्रीरंग क्षेत्र निवासी वेंकट भट्ट के पुत्र तथा श्री प्रकाशानन्‍द जी सरस्‍वती के भतीजे थे। पिता के परलोकगमन के अनन्‍तर ये वृन्‍दावन वास के निमित्त चले आये।
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दक्षिण-यात्रा में जब ये छोटे थे तभी प्रभु ने इनके घर पर चौमासे के चार मास बिताये थे। उसके बाद इनकी फिर महाप्रभु से भेंट नहीं हुई। इनके आगमन का समाचार श्री रूपसनातन जी ने प्रभु के पास पठाया था, तब प्रभु ने एक पत्र भेजकर रूप और सनातन इन दोनों भाइयों को लिखा था कि उन्‍हें स्‍नेह से अपने पास रखना और अपना सगा भाई ही समझना।
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महाप्रभु ने अपने बैठने का आसन और डोरी इनके लिये भेजी थी। इन दोनों प्रभुपसादी अमूल्‍य वस्‍तुओं को पाकर ये परम प्रसन्‍न हुए। ध्‍यान के समय ये प्रभु की प्रसादी डोरी को सिर पर धारण करके भजन किया करते थे। इनके उपास्‍यदेव श्री राधारमण जी थे।
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सुनते हैं, इनके उपास्‍यदेव पहले शालग्राम के रूप में थे, उन्‍हीं की ये सेवा-पूजा किया करते थे, एक बार कोई धनिक वृन्‍दावन में आया। उसने सभी मन्दिरों के ठाकुरों के लिये सुन्‍दर वस्‍त्राभूषण प्रदान किये। इन्‍हें भी लाकर बहुत से सुन्‍दर-सुन्‍दर वस्‍त्र और गहने दिये। वस्‍त्र और गहनों को देखकर इनकी इच्‍छा हुई कि यदि हमारे भी ठाकुर जी के हाथ-पैर होते तो हम भी उन्‍हें इन वस्‍त्रा भूषणों को धारण कराते।
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बस, फिर क्‍या था। भगवान तो भक्‍त के अधीन हैं, वे कभी भक्‍त की इच्‍छा को अन्‍यथा नहीं करते। उसी समय शालग्राम की मूर्ति में से हाथ-पैर निकल आये और भगवान श्री राधारमण मुरली धारी श्‍याम बन गये। भट्ट जी की प्रसन्‍नता का ठिकाना नहीं रहा। उन्‍होंने भगवान को वस्‍त्रा भूषण पहनाये और भक्तिभाव से उनकी स्‍तुति की।
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श्री निवासाचार्य जी इन्‍हीं के शिष्‍य थे। इनके मन्दिर के पुजारी श्री गोपालनाथदास जी भी इनके शिष्‍य थे। इनके परलोकगमन के अनन्‍तर श्री गोपालनाथदास जी ही उस गद्दी के अधिकारी हुए। श्री गोपालनाथदास के शिष्‍य श्री गोपीनाथदास जी अपने छोटे भाई दामोदरदास जी को शिष्‍य बनाकर उनसे विवाह करने के लिये कह दिया।
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वर्तमान श्री राधारमण जी के गोस्‍वामिगण इन्‍हीं श्री दामोदर जी के वंशज हैं। वृन्‍दावन में श्री राधारमण जी की वही मनोहर मूर्ति अपने अद्भुत और अलौकिक प्रभाव को धारण किये हुए अपने प्रिय भक्‍त श्री गोपाल भट्ट की शक्ति और एकनिष्‍ठा की घोषणा कर रही है। भक्‍तवत्‍सल भगवान क्‍या नहीं कर सकते। श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
(क्रमशः)

*१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*

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*विरहा पारस जब मिला, तब विरहनी विरहा होइ ।*
*दादू परसै विरहनी, पीव पीव टेरे सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*
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*४ – श्री रघुनाथदास जी गोस्‍वामी*
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श्री रघुनाथदास जी का वैराग्‍य, गृहत्‍याग और पुरी निवास का वृत्तान्‍त तो पाठक पढ ही चुके होंगे। महाप्रभु तथा श्रीस्‍वरूप गोस्‍वामी के तिरोभाव के अनन्‍तर ये अत्‍यन्‍त ही दु:खी होकर वृन्दावन चले आये। इनकी इच्‍छा थी कि हम गोवर्धन पर्वत से कूदकर अपने प्राणों को गँवा दें, किन्‍तु श्रीरूप-सनातन आदि के समझाने-बुझाने पर इन्‍होंने शरीर त्‍याग का विचार परित्‍याग कर दिया।
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ये राधाकुण्‍ड के समीप सदा वास करते थे। कहते हैं, ये चौबीस घंटे में केवल एक बार थोड़ा-सा मट्ठा पीकर ही रहते थे। ये सदा प्रेम में विभोर होकर ‘राधे-राधे’ चिल्‍लाते रहते। इनका जन्‍म संवत अनुमान से १४१६ शकाब्‍द बताया जाता है, इन्‍होंने अपनी पूर्ण आयु का का उपभोग किया।
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जब शकाब्‍द १५१२ में श्री निवासाचार्य जी गौड देश को आ रहे थे, तब इनका जीवित रहना बताया जाता है। इनका त्‍याग-वैराग्‍य बडा ही अदभुत और अलौकिक था। इन्‍होंने जीवन भर कभी जिह्वा का स्‍वाद नहीं लिया, सुन्‍दर वस्‍त्र नहीं पहने और भी किसी प्रकार के संसारी सुख का भोग नहीं किया। लगभग सौ वर्षों तक ये अपने त्‍याग-वैराग्‍मय श्‍वासों से इस स्‍वार्थपूर्ण संसार के वायुमण्‍डल को पवित्रता प्रदान करते रहे।
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इनके बनाये हुए (१)स्‍तवमाला, (२)स्‍तवावली और (३)श्रीदानचरित– ये तीन ग्रन्‍थ बताये जाते हैं। इनके समान त्‍यागमय जीवन किसका हो सकता है ? राजपुत्र होकर भी इतना त्‍याग ! दास महाशय ! आपके श्रीचरणों में हमारे कोटि-कोटि प्रणाम हैं। प्रभो ! इस वासनायुक्‍त अधम के हृदय में भी अपनी शक्ति का संचार कीजिये।
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*५ – श्री रघुनाथ भट्ट*
हम पहले ही बता चुके हैं, तपन मिश्र जी के सुपुत्र श्री रघुनाथ भट्ट अपने माता-पिता के परलोकगमन के अनन्‍तर आठ महीने प्रभु के पादपद्मों में रहकर उन्‍हीं की आज्ञा से वृन्दावन जाकर रहने लगे थे। ये भागवत के बड़े भारी पण्डित थे, इनका स्‍वर बड़ा ही कोमल था। ये रूपगोस्‍वामी की सभा में श्रीमद्भागवत की कथा कहते थे। इनका जन्‍म-संवत अनुमान से १४२५ बताया जाता है। ये कितने दिन तक अपने को कोकिल-कूजित कमनीय कण्‍ठ से श्रीमद्भागवत की कूक मचाकर वृन्दावन को बारहों महीने वसन्‍त बनाते रहे, इसका ठीक-ठीक वृत्तान्‍त नहीं मिलता।
(क्रमशः)

*‍१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*

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*साधु नदी जल राम रस, तहाँ पखाले अंग ।*
*दादू निर्मल मल गया, साधु जन के संग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*‍१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*
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*श्री जीवगोस्‍वामी जी*
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श्री अनूप-तनय स्‍वामी श्रीजीव जी का वैराग्‍य परमोत्‍कृष्‍ट था। ये आजन्‍म ब्रह्मचारी रहे। स्त्रियों के दर्शन तक नहीं करते थे। पिता के वैकुण्‍ठवास हो जाने पर और दोनों ताउओं के गृहत्‍यागी-विरागी बन जाने पर इन्‍होंने भी उन्‍हीं के पथ का अनुसरण किया और ये भी सब कुछ छोड़कर श्री वृन्दावन में जाकर अपने पितृव्‍यों के चरणों का अनुसरण करते हुए शास्‍त्र-चिन्‍तन और श्रीकृष्‍ण-कीर्तन में अपना समय बिताने लगे।
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ये अपने समय के एक नामी पण्डित थे। व्रजमण्‍डल में इनकी अत्‍यधिक प्रतिष्‍ठा थी। देवताओं को भी अप्राप्‍य व्रज की पवित्र भूमि को परित्‍याग करके ये कहीं भी किसी के आग्रह से बाहर नहीं जाते थे।
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सुनते हैं, एक बार अकबर बादशाह ने अत्‍यन्‍त ही आग्रह के साथ इन्‍हें आगरे बुलाया था और इनकी आज्ञानुसार ही उसने इन्‍हें घोड़ा गाड़ी में बैठाकर उसी दिन रात्रि को वृन्‍दावन पहुँचा दिया था।
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इनके सम्‍बन्‍ध की भी दो-एक घटना सुनिये- सुनते हैं कि एक बार कोई दिग्विजयी पण्डित दिग्विजयी की इच्‍छा से वृन्‍दावन में आया। श्री रूप तथा सनातन जी ने तो उससे बिना शास्‍त्रार्थ किये ही विजय पत्र लिख दिया। किन्‍तु श्री जीवगोस्‍वामी उससे भिड़ गये और उसे परास्‍त करके ही छोडा।
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इस समाचार को सुनकर श्रीरूप गोस्‍वामी ने इन्‍हें डाँटा और यहाँ तक कह दिया– ‘जो वैष्‍णव दूसरों को मान नहीं देना जानता, वह सच्‍चा वैष्‍णव ही नहीं। हमें जय-पराजय से क्‍या ? तुम जय की इच्‍छा से उससे भिड़े पड़े, इसलिये अब हमारे सामने मत आना।’ इससे इन्‍हें अत्‍यन्‍त ही दु:ख हुआ और ये अनशन करके यमुना-किनारे जा बैठे।
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श्री सनातन जी ने जब यह समाचार सुना तो उन्‍होंने रूप गोस्‍वामी के पास आकर पूछा– ‘वैष्‍णवों को जीव के ऊपर दया करनी चाहिये अथवा अदया।’ श्रीरूप जी ने कहा– यह तो सर्वसम्‍मत सिद्धान्‍त है कि ‘वैष्‍णव को जीवमात्र के प्रति दया के भाव प्रदर्शित करने चाहिये।’ बस, इतना सुनते ही सनातन जी ने जीवगोस्‍वामी जी को उनके पैरों में पड़ने का संकेत किया।
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जीवगोस्‍वामी अधीर होकर उनके पैरों में गिर पड़े और अपने अपराध को स्‍मरण करके बालकों की भाँति फूट-फूटकर रुदन करने लगे। श्री रूपजी का हृदय भर आया, उन्‍होंने इन्‍हें हृदय से लगाया और इनके अपराध को क्षमा कर दिया।
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सुनते हैं परमभक्‍ता मीराबाई भी इनसे मिली थीं। उन दिनों ये एकान्‍त में वास करते थे और स्त्रियों को इनके आश्रम में जाने की मनाही थी। जब मीराबाई ने इनसे मिलने की इच्‍छा प्रकट की और उन्‍हें उत्तर मिला कि वे स्त्रियों से नहीं मिलते, तब मीराबाईजी ने सन्‍देश पठाया– ‘वृन्‍दावन तो बांकेविहारी का अन्‍त:पुर है। इसमें गोपिकाओं के सिवा किसी दूसर को प्रवेश नहीं। ये विहारी जी के नये पट्टीदार पुरुष और कहाँ से आ बसे, इन्‍हें किसी दूसरे स्‍थान की खोज करनी चाहिये।’
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इस बात से इन्‍हें परम प्रसन्‍नता हुई और ये मीराबाई जी से बड़े प्रेम से मिले। इन्‍होंने एक योग्‍य आचार्य की भाँति भक्ति-मार्ग का खूब प्रचार किया। अपने पितृव्‍यों की भाँति इन्‍होंने भी बहुत से ग्रन्‍थ बनाये। कृष्‍णदास गोस्‍वामी ने इन तीनों के ही गन्‍थों की संख्‍या चार लाख बतायी है। यहाँ ग्रन्‍थ से तात्‍पर्य अनुष्‍टुप छन्‍द या एक श्‍लोक से है, पुस्‍तक से नहीं।
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श्रीरूप के बनाये हुए सब एक लक्ष ग्रन्‍थ या श्‍लोक बताये जाते हैं। सब पुस्‍तकों में इतने श्‍लोक हो सकते हैं। श्री जीवगोस्‍वामी के बनाये हुए नीचे लिखे ग्रन्‍थ मिलते हैं– श्रीभागवत षटसन्‍दर्भ, वैष्‍णवतोषिणी, लघुतोषिणी और गोपालचम्‍पू। इनके वैकुण्‍ठवास की ठीक-ठीक तिथि या संवत का पता हमें किसी भी ग्रन्‍थ से नहीं चला।
(क्रमशः)

*‍१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*

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*दादू नेड़ा परम पद, साधु जन के साथ ।*
*दादू सहजैं पाइये, परम पदार्थ हाथ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*‍१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण*
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*श्री सनातन जी गोस्‍वामी*
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श्री सनातन जी का जन्‍म संवत १५४४ के लगभग अनुमान किया जाता है, इनके कारावास का वृत्तान्‍त, उससे मुक्तिलाभ करके प्रयाग में आगमन, प्रभु के पादपद्मों में रहकर शास्‍त्रीय शिक्षा का श्रवण, वृन्‍दावन-गमन, पुन: लौटकर पुरी में आगमन, शरीर में भयंकर खुजली का हो जाना, श्री जगन्‍नाथ जी के रथ के नीचे प्राण त्‍यागने का निश्‍चय, प्रभु की आज्ञा से वृन्‍दावन में जाकर भजन और पुस्‍तक प्रणयन करते रहने का वृत्तान्‍त तो पाठक पीछे पढ़ ही चुके होंगे, अब इनके सम्‍बन्‍धन की भी वृन्‍दावन की दो-चार घटनाएं सुनिये।
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एक दिन ये श्री यमुना जी स्‍नान करने के निमित्त जा रहे थे, रास्‍ते में एक पारस पत्‍थर का टुकडा इन्‍हें पड़ा हुआ मिला। इन्‍होंने उसे वहीं धूलि से ढक दिया। दैवात उसी दिन एक ब्राह्मण उनके पास आकर धन की याचना करने लगा। इन्‍होंने बहुत कहा– ‘भाई ! हम भिक्षुक हैं, मांगकर टुकड़े खाते हैं, भला हमारे पास धन कहाँ है, किसी धनी सेठ-साहूकार के समीप जाओ।’
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किन्‍तु वह मानता ही नहीं था। उसने कहा– ‘श्रीमहाराज ! मैंने धन की कामना से ही अनेकों वर्षों तक शिव की आराधना की, इसलिये शिव जी ने सन्‍तुष्‍ट होकर रात्रि के समय स्‍वप्‍न में मुझसे कहा– ‘हे ब्राह्मण ! तू जिस इच्‍छा से मेरा पूजन करता है, वह इच्‍छा तेरी वृन्‍दावन में सनातन गोस्‍वामी के समीप जाने से पूर्ण होगी।’ बस, उन्‍हीं के स्‍वप्‍न से मैं आपकी शरण आया हूँ’।
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इस पर सनातन जी को उस पारस पत्‍थर की याद आ गयी। उन्‍होंने कहा– ‘अच्‍छी बात है, मेरे साथ यमुना जी चलो। यह कहकर ये उसे यमुना किनारे ले गये। दूर से ही अँगुली के इशारे से इन्‍होंने उसे पारस की जगह बता दी। उसने बहुत ढूँढा, किन्‍तु पारस नहीं मिला।
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तब तो उसने कहा– ‘आप मेरी वंचना न कीजिये, यदि हो तो आप ही ढूँढकर दे दीजिये।’ इन्‍होंने कहा– ‘भाई ! इसमें वंचना की बात ही क्‍या है, मैं तो उसका स्‍पर्श नहीं कर सकता, तुम धैर्य के साथ ढूँढो, यहीं मिल जायगा ! ब्राह्मण ढूँढने लगा, सहसा उसे पारस का टुकड़ा मिल गया। उसी समय उसने एक लोहे के टुकड़े से उसे छुआकर उसकी परीक्षा की, देखते-ही-देखते लोहे का टुकड़ा सोना बन गया।
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ब्राह्मण प्रसन्‍न होकर अपने घर को चल दिया।’ वह आधे ही रास्‍ते में पहुँचा होगा कि उसका विचार एकदम बदल गया। उसने सोचा– ‘जो महापुरुष घर-घर से टुकडे मांगकर खाते हैं और संसार में इतनी अमूल्‍य समझी जाने वाली इस मणि को हाथ से स्‍पर्श नहीं करते, अवश्‍य ही उनके पास, इस असाधारण पत्‍थर से बढ़कर भी कोई वस्‍तु है। मैं तो उनसे उसी को प्राप्‍त करूँगा। इस पारस को देकर तो उन्‍होंने मुझे बहका दिया।’
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यह सोचकर वह लौटकर फिर इनके समीप आया और चरणों में गिरकर रो-रोकर अपनी सभी मनोव्‍यथा सुनायी। उसके सच्‍चे वैराग्‍य को देखकर इन्‍होंने पारस को यमुना जी में फेंकवा दिया और उसे अमूल्‍य हरि नाम का उपदेश किया। जिससे कुछ काल में वह परम संत बन गया।
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किसी ने ठीक ही कहा है–
पारस में अरु संत में, संत अधिक कर मान।
वह लोहा सोना करै यह करै आपु समान।।
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ये मथुरा जी में मधुकरी करने के लिये एक चौबे के घर जाया करते थे। उस चौबे की स्‍त्री परम भक्‍ता और श्रीमदन मोहन भगवान की उपासिका थी। उसके घर बालभाव से श्री मदनमोहन भगवान विराजते थे। सनातन जी उनकी मूर्ति के दर्शनों से अत्‍यन्‍त ही प्रसन्‍न होते, असल में तो वे मदनमोहन जी के दर्शनों के ही लिये वहाँ जाते थे।
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उस चौबिन का एक छोटा-सा बालक था। मदनमोहन भी बालक ही ठहरे। दोनों में खूब दोस्‍ती थी। मदन मोहन तो गँवार ग्‍वाले ही ठहरे। ये आचार-विचार क्‍या जानें। उस चौबिन के लड़के के साथ ही एक पात्र में भोजन करते। सनातन जी को देखकर बड़ा आश्‍चर्य हुआ कि ये मदनमोहन सरकार बड़े विचित्र हैं।
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एक दिन ये मधुकरी लेने गये। चौबिन इन्‍हें भिक्षा देने लगी। इन्‍होंने आग्रह पूर्वक कहा– ‘माता ! यदि तुम मुझे कुछ देना चाहती हो तो इस बच्‍चे को उच्छिष्‍ट अन्‍न मुझे दे दो।’ चौबिन ने इनकी प्रार्थना स्‍वीकार कर ली और इन्‍हें वही मदन मोहन का उच्छिष्‍ट प्रसाद दे दिया। बस, फिर क्‍या था, इन्‍हें तो उस माखन चोर की लपलपाती जीभ से लगे हुए अन्‍न का चस्‍का लग गया, ये नित्‍यप्रति उसी उच्छिष्‍ट अन्‍न को लेने जाने लगे।
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एक दिन स्‍वप्‍न में मदन मोहन जी ने कहा– ‘भाई ! शहर में तो हमें ऊब सी मालूम पडती है, तुम उस चौबिन से मुझे ले आओ, मैं तो जंगल में ही रहूँगा।’ ठीक उसी रात्रि को चौबिन को भी यही स्‍वप्‍न हुआ कि तू मुझे सनातन साधु को दे दे। दूसरे दिन ये गये और इन्‍होंने कहा– ‘माता जी ! मदन मोहन अब वन में रहना चाहते हैं, तुम्‍हारी क्‍या इच्‍छा है?’
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कुछ प्रेम युक्‍त रोष के स्‍वर में चौबिन ने कहा– ‘साधु बाबा ! इसकी यह सब करतूत मुझे पहले से ही मालूम है। एक जगह रहना तो यह जानता ही नहीं, यह बड़ा निर्मोही है, कोई इसका सगा नहीं !’ भला, जिस यशोदा ने इसका लालन-पालन किया, खिला-पिलाकर इतना बड़ा किया, उसे भी बटाऊ की तरह छोड़कर चला गया। मुझसे भी कहता था– ‘मेरा यहाँ मन नहीं लगता।’ मैंने भी सोच लिया– ‘मन नहीं लगता तो मेरी बला से। जब तुझे ही मेरा मोह नहीं, तो मुझे भी तेरा मोह नहीं। भले ही तू साधू के साथ चला जा।’
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ऐसा कहते-कहते आँखों में आंसू भरकर उसने मदन मोहन को सनातन जी के साथ कर दिया। ऊपर से तो वह ऐसी बातें कह रही थी, किन्‍तु उसका हृदय अपने मदन मोहन के विरह से तड़प रहा था। सनातन जी मदन मोहन को साथ लेकर यमुना के किनारे आये। अब मदन मोहन के रहने के लिये उन्‍होंने सूर्यघाट के समीप एक सुरम्‍य टीले पर फूँस की झोपड़ी बना ली और उसी में वे मदन मोहन जी की पूजा करने लगे।
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अब वे घर-घर से आटे की चुटकी मांग लाते और उसी की बिना नमक की मधुकरी बनाकर मदन मोहन को भोजन कराते। एक दिन मदन मोहन ने मुँह बनाकर कहा– ‘साधु बाबा ! ये बिना नमक की बाटियाँ हमसे तो खायी नहीं जातीं। थोड़ा नमक भी किसी से मांग लाया करो।’ सनातन जी ने झुँझलाकर कहा– ‘यह इल्‍लत मुझसे मत लगाओ, खानी हो तो ऐसी ही खाओ, नहीं अपने घर का रास्‍ता पकड़ो।’
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मदनमोहन सरकार ने कुछ हँसकर कहा– ‘एक कंकड़ी नमक को कौन मना करेगा, कहीं से ले आना मांगकर।’ दूसरे दिन ये आटे के साथ थोड़ा नमक भी लाने लगे। चटोरे मदन मोहन को तो मीठे माखन और मिश्री की चाट पड़ी हुई थी इसलिये एक दिन बड़ी ही दीनता से बोले– ‘साधु बाबा ! ये रूखे टिक्‍कड़ तो हमारे गले के नीचे नहीं उतरते। थोड़ा घी भी कहीं से लाया करो तो अच्‍छा है।’
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अब सनातन जी मदन मोहन जी को खरी-खरी सुनाने लगे ! उन्‍होंने कहा– ‘देखो जी ! सुनो मेरी सच्‍ची बात। मेरे पास तो ये ही सूखे टिक्‍कड़ हैं, तुम्‍हें घी-चीनी की चाट थी तो किसी धनिक के यहाँ जाते, मुझ भिक्षुक के यहाँ तो ये ही सूखे टिक्‍कड़ मिलेंगे। तुम्‍हारे गले के नीचे उतरे चाहे न उतरे, मैं किसी धनिक के पास घी-बूरा मांगने नहीं जाऊँगा। थोड़े यमुना-जल के साथ सटक लिया करो। मिट्टी भी तो सटक जाते थे।’
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बेचारे मदनमोहन अपना सा मुंह बनाये चुप हो गये। उस लँगोटीबंद साधु से वे और कह ही क्‍या सकते थे। दूसरे दिन उन्‍होंने देखा, एक बडा भारी धनिक व्‍यापारी उनके समीप आ रहा है। ये बैठे भजन कर रहे थे, उसने दूर से ही इनके चरणों में साष्‍टांग प्रणाम किया और बड़े ही करुणस्‍वर से कहने लगा– ‘महात्‍मा जी ! मेरा जहाज यमुना जी में अड़ गया है, ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि वह निकल जाय, मैं आपकी शरण में आया हूँ।’ इन्‍होंने कहा– ‘भाई ! मैं कुछ नहीं जानता, इस झोपड़ी में जो बैठा है, उससे कहो।’

व्‍यापारी ने भगवान मदनमोहन से प्रार्थना की– ‘हे भगवन ! यदि मेरा जहाज निकल जाय तो बिक्री के आधे द्रव्‍य से मैं आपकी सेवा करूँ।’ बस, फिर क्‍या था, जहाज उसी समय निकल गया। उन दिनों नादियों के द्वारा नाव से ही व्‍यापार होता था। रेल, तार और मोटर आदि यंत्र तो तब थे ही नहीं।
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महाजन का माल दुगुने दामों में बिका। उसी समय उसने हजारों रुपये लगाकर बड़ी उदारता के साथ मदनमोहन जी का मन्दिर बनवा दिया। और भगवान की सेवा के लिये पुजारी, रसोइया, नौकर-चाकर तथा और भी बहुत-से काम वाले रख दिये। वह वृन्‍दावन मन्दिर में अभी तक विद्यमान है।
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इनकी ख्‍याति सुनने पर अकबर बादशाह इनके दर्शनों के लिये आया और इनसे कुछ सेवा के लिये प्रार्थना करने लगा। जब बहुत मना करने पर भी वह न माना तब इन्‍होंने अपने कुटिया के समीप के यमुना जी के फूटे हुए घाट के कोने को सुधरवाने की आज्ञा दी। उसी समय अकबर को वहाँ की सभी भूमि अमूल्‍य रत्‍नों से जटित दिखायी देने लगी।
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तब तो वह इनके पैरों में गिरकर कहने लगा– ‘प्रभो ! मेरे अपराध को क्षमा कीजिये, मेरा सम्‍पूर्ण राज्‍य भी यहाँ के एक रत्‍न के मूल्‍य के बराबर नहीं।’ यही घटना श्री हरिदास स्‍वामी जी के सम्‍बन्‍ध में भी कही जाती है, दोनों ही ठीक हैं। भक्‍तों की लीला अपरम्‍पार है, उन्‍हें श्रद्धापूर्वक सुन लेना चाहिये। तर्क करना हो तो दर्शनशास्‍त्रों को पढ़ो।
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इन्‍होंने भी भक्तितत्त्व की खूब पर्यालोचना की है, इनके बनाये हुए चार ग्रन्‍थ प्रसद्धि हैं– (‌१) बृहद्भागवतामृत(दो खण्ड), (२) हरिभक्तिविलास, टीकादिक प्रदर्शिनी, (३) वैष्‍णवतोषिणी(दशम स्‍कन्‍ध की टिप्‍पणी), (४) लीलास्‍तव(दशम चरित्र)। सत्तर वर्ष की आयु में सं. १६१५ (ईस्‍वी सन १५५८) की आषाढ सुदी चतुर्दशी के दिन इनका गोलोकगमन बताया जता है। ये परम विनयी, भागवत और भगवत-रस-रसिक वैष्‍णव थे।
(क्रमशः)

सोमवार, 13 जुलाई 2020

१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण


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*जब द्रवो तब दीजिये, तुम पै मांगूं येहु ।*
*दिन प्रति दर्शन साधु का, प्रेम भक्ति दृढ़ देहु ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण
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रुद्रोअद्रिं जलधिं हरिर्दिविषदो दूरं विहायाश्रिता:
भागीन्‍द्रा: प्रबला अपि प्रथमत: पातालमूले स्थिता:।
लीना पद्मवने सरोजनिलया मन्‍येऽर्थिसार्थाद्भिया
दीनोद्धारपरायणा: कलियुगे सत्‍पुरुषा: केवलम्॥[१]
([१] याचकों का समूह मुझसे कुछ मांगने लगे, इस भय से भगवान शंकर पर्वत पर रहने लगे, विष्‍णु ने समुद्र में डेरा डाला, समस्‍त देवताओं ने सुदूरवर्ती आकाश की शरण ली, वासुकि आदि नागराजों ने समर्थ होकर भी पहले से ही पाताल में अपना स्‍थान बना लिया है और लक्ष्‍मी जी कमलवन में छिप गयीं। अब तो इस कलिकाल में केवल संत पुरुष ही दीनों का उद्धार करने वाले रह गये हैं।)
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महाप्रभु चैतन्‍य देव के छ: गोस्‍वामी अत्‍यन्‍त ही प्रसिद्ध हैं। उनके नाम (१) श्रीरूप, (२) श्रीसनातन, (३) श्री जीव, (४) श्री गोपालभट्ट, (५) श्री रघुनाथ भट्ट और (६) श्रीरघुनाथदास जी हैं। इन छहों का थोड़ा-बहुत विवरण पाठक पिछले प्रकरणों में पढ़ ही चुके होंगे।
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श्रीरूप और सनातन तो प्रभु की आज्ञा लेकर ही पुरी से वृन्‍दावन को गये थे, बस, तब से वे फिर गौड़देश में नहीं लौटे। श्रीजीव इनके छोटे भाई अनूप के प्रिय पुत्र थे। पूरा परिवार-का-परिवार ही विरक्‍त बन गया। दैवी परिवार था। जीव गोस्‍वामी या तो महाप्रभु के तिरोभाव होने के अनन्‍तर वृन्‍दावन पधारे होंगे या प्रभु के अप्रकट होने के कुद ही काल पहले।
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इनका प्रभु के साथ भेंट होने का वृत्तान्‍त कहीं नहीं मिलता। ये नित्‍यानन्‍द जी की आज्ञा लेकर ही वृन्‍दावन गये थे, इससे महाप्रभु का अभाव ही लक्षित होता है। रघुनाथ भट्ट को प्रभु ने स्‍वयं ही पुरी से भेजा था। गोपाल भट्ट जब छोटे थे, तभी प्रभु ने उनके घर दक्षिण की यात्रा में चातुर्मास बिताया था, इसके अनन्‍तर पुन: इनको प्रभु के दर्शन नहीं हुए।
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रघुनाथदास जी प्रभु के लीला संवरण करने के अनन्‍तर और स्‍वरूप गोस्‍वामी के परलोक-गमन के पश्‍चात वृन्‍दावन पधारे और फिर उन्‍होंने वृन्‍दावन की पावन भूमि छोड़कर कहीं एक पैर भी नहीं रखा। व्रज में ही वास करके उन्‍होंने अपनी शेष आयु व्‍यतीत की। इन सबका अत्‍यन्‍त ही संक्षेप में पृथक्-पृथक् वर्णन आगे करते हैं।
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*१– श्रीरूप जी गोस्‍वामी*
श्री रूप जी और सनातन जी का परिचय पाठक पीछे प्राप्‍त कर चुके हैं। अनुमान से श्री रूप जी का जन्‍म संवत १५४५ के लगभग बताया जाता है। ये अपने अग्रज श्री सनातन जी से साल-दो-साल छोटे ही थे किन्‍तु प्रभु के प्रथम कृपापात्र होने से ये वैष्‍णव-समाज में सनातन जी के बड़े भाई ही माने जाते हैं।
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रामकेलि में इन दोनों भाइयों की प्रभु से भेंट, रूप जी का प्रयाग में प्रभु से मिलन, पुरी में पुन: प्रभु के दर्शन-नाटकों की रचना, प्रभु की आज्ञा से गौड़ देश होते हुए पुन: वृन्‍दावन में आकर निरन्‍तर वास करते रहने के समाचार तो पाठक पिछले अध्‍यायों में पढ़ ही चुके होंगे, अब इनके वृन्‍दावन वास की दो-चार घटनाएं सुनिये। आप ब्रह्मकुण्‍ड के समीप निवास करते थे।
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एक दिन आप निराहार रहकर ही भजन कर रहे थे, भूख लग रही थी, किन्‍तु ये भजन को छोड़कर भिक्षा के लिये जाना नहीं चाहते थे, इतने ही में एक काले रंग का ग्‍वाले का छोकरा एक मिट्टी के पात्र में दुग्‍ध लेकर इनके पास आया और बोला– ‘लो बाबा ! इसे पी लो। भूखे भजन क्‍यों कर रहे हो, गांवों में जाकर भिक्षा क्‍यों नहीं कर आते।’ तुम्‍हें पता नहीं– भूखे भजन न होई, यह जानहिं सब कोई।
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रूप जी ने वह दुग्‍ध पीया। उसमें अमृत से भी बढ़कर स्‍वाद निकला। तब तो वे समझ गये कि ‘सांवरे रंग का छोकरा वही छलिया वृन्‍दावन वासी है, वह अपने राज्‍य में किसी को भूख नहीं देख सकता।’ आश्‍चर्य की बात तो यह थी, जिस पात्र में वह छोकरा दुग्‍ध दे गया था, वह दिव्‍य पात्र पता नहीं अपने-आप ही कहाँ चला गया।
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इस समाचार को सुनकर श्रीसनातन जी दौड़े आये और उन्‍हें आलिंगन करके कहने लगे– ‘भैया ! यह मनमोहन बडा सुकुमार है, इसे कष्‍ट मत दिया करो। तुम स्‍वयं ही व्रजवासियों के घरों से टुकड़े माँग लाया करो।’ उस दिन से श्रीरूपजी मधुकरी भिक्षा नित्‍यप्रति करने जाने लगे।
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एक दिन श्रीगोविन्‍ददेव जी ने इन्‍हें स्‍वप्‍न में आज्ञा दी कि ‘भैया ! मैं अमुक स्‍थान में जमीन के नीचे दबा हुआ पड़ा हूँ। एक गौ रोज मुझे अपने स्‍तनों से दूध पिला जाती है, तु उस गौ को ही लक्ष्‍य करके मुझे बाहर निकालो और मेरी पूजा प्रकट करो।’ प्रात:काल ये उठकर उसी स्‍थान पर पहुँचे।
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वहाँ उन्‍होंने देखा– ‘एक गौ वहाँ खड़ी है और उसके स्‍तनों में आप से आप ही दूध बहकर एक छिद्र में होकर नीचे जा रहा है।’ तब तो उनके आनन्‍द का ठिकाना नहीं रहा। ये उसी समय उस स्‍थान को खुदवाने लगे। उसमें से गोविन्‍द देव जी की मनमोहिनी मूर्ति निकली, उसे लेकर ये पूजा करने लगे।
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कालान्‍तर में जयपुर के महाराज मानसिंह जी ने गोविन्‍ददेव जी का लाल पत्‍थरों का एक बड़ा ही भव्‍य और विशाल मन्दिर बनवा दिया जो अद्यावधि श्री‍वृन्‍दावन की शोभा बढ़ा रहा है। औरंगजेब के आक्रमण के भय से जयपुर के महाराज पीछे से यहाँ की श्रीमूर्ति को अपने यहाँ ले गये थे।
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पीछे फिर ‘नये गोविन्‍ददेव जी’ का नया मन्दिर बना, जिसमें गोविन्‍ददेव जी के साथ ही अगल-बगल में श्री चैतन्‍य देव और श्रीनित्‍यानन्‍द जी के विग्रह भी पीछे से स्‍थापित किये गये, जो अब भी विद्यमान हैं। जब श्री रूप जी नन्‍द ग्राम में निवास करते थे, तब श्री सनातन जी एक दिन उनके स्‍थान पर उनसे मिलने गये। इन्‍होंने अपने अग्रज को देखकर उनको अभिवादन किया और बैठने के लिये सुन्‍दर-सा आसन दिया।
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श्री रूप जी अपने भाई के लिये भोजन बनाने लगे। उन्‍होंने प्रत्‍यक्ष देखा कि भोजन का सभी सामान प्‍यारी जी ही जुटा रही हैं, सनातन जी को इससे बड़ा क्षोभ हुआ। वे चुपचाप बैठे देखते रहे। जब भोजन बनकर तैयार हो गया तो श्री रूप जी ने उसे भगवान के अर्पण किया, भगवान प्‍यारी जी के साथ प्रत्‍यक्ष होकर भोजन करने लगे। उनका जो उच्छिष्‍ट महाप्रसाद बचा उसका उन्‍होंने श्री सनातन जी को भोजन कराया। उसमें अमृत से भी बढ़कर दिव्‍य स्‍वाद था।
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सनातन जी ने कहा– ‘भाई ! तुम बड़े भाग्‍यशाली हो, जो रोज प्‍यारी-प्‍यारे के अधरामृत-उच्छिष्‍ट अन्‍न का प्रसाद पाते हो, किन्‍तु सुकुमारी लाड़िली जी को तुम्‍हारे सामान जुटाने में कष्‍ट होता होगा, यही सोचकर मुझे दु:ख होता है।’
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इतना कहकर श्री सनातन जी चले गये और उनका जो उच्छिष्‍ट महाप्रसाद शेष रहा उसको बड़ी ही रुचि और स्‍वाद के साथ श्री रूप जी ने पाया। किसी काव्‍य में श्री रूप जी ने प्‍यारी जी की वेणी की काली नागिन से उपमा दी थी। यह सोचकर सनातन जी को बड़ा दु:ख हुआ कि भला प्‍यारी जी के अमृतपूर्ण आनन के समीप विषवाली काली नागिन का क्‍या काम?
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वे इसी चिन्‍ता में मग्‍न ही थे कि उन्‍हें सामने के कदम्‍ब के वृक्ष पर प्‍यारे के साथ प्‍यारी जी झूलती हुई दिखाई दीं। उनके सिर पर काले रंग की नागिन-सी लहरा रही थी, उनमें क्रूरता का काम नही, क्रोध और विष का नाम नहीं। वह तो परम सौम्‍या, प्रेमियों के मन को हरने वाली और चंचला-चपला बड़ी ही चित्त को अपनी ओर खींचने वाली नागिन थी।
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श्री सनातन जी को इससे बड़ी प्रसन्‍नता हुई और उनकी शंका का समाधान प्‍यारी जी ने स्‍वत: ही अपने दुर्लभ दर्शनों को देकर कर दिया। इस प्रकार इनके भक्ति और प्रेम के माहात्‍म्‍य की बहुत-सी कथाएं कही जाती हैं। ये सदा युगल माधुरी के रूप में छके-से रहते थे। अके-से, जके-से, भूले-से, भटके-से ये सदा वृन्‍दाविपिन की वनवीथियों में विचरण किया करते थे।
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इनका आहार था प्‍यारे-प्‍यारी की रूपसुधा का पान, बस, उसी के मद में ये सदा मस्‍त बने रहते। ये सदा प्रेम में मग्‍न रहकर नामजप करते रहते और शेष समय में भक्तिसम्‍बन्‍धी पुस्‍तकों का प्रणयन करते। इनके बनाये हुए भ‍क्तिभाव पूर्ण सोलह ग्रन्‍थ मिलते हैं।
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(१)हंसदूत, (२)उद्धवसन्‍देश, (३)कृष्‍णजन्‍मतिथिविधि, (४)गणोद्देशदीपिका (५)स्‍तवमाला, (६)विदग्‍धमाधव, (७)ललितामाधव, (८)दानलीला, (९)दानकेलिकौमुदी, (१०)भक्तिरसामृतसिन्‍धु, (११)उज्‍जवलनीलमणि, (१२)मथुरामहात्म्‍य (१३)आख्‍यातचन्द्रिका, (१४)पद्यावली, (१५)नाटकचन्द्रिका और (१६)लघुभागवतामृत।
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वृन्‍दावन में रहकर इन्‍होंने श्रीकृष्‍ण-प्रेम का साकार रूप खड़ा करके दिखला दिया। ये सदा नाम-संकीर्तन और पुस्‍तक-प्रणयन में ही लगे रहते थे। ‘वृन्‍दावन की यात्रा’ नामक पुस्‍तक में इनके वैकुण्‍ठवास की तिथि संवत १६४०(ईस्‍वी सन १५६३) की श्रावण शुक्‍ला द्वादशी लिखी है। इस प्रकार ये लगभग ७४ वर्षों तक इस धराधाम पर विराजमान रहकर भक्तितत्‍व का प्रकाश करते रहे।
(क्रमशः)

*१७५. ठाकुर नरोत्‍तमदास जी*


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*दादू क्या जाणों कब होइगा, हरि सुमिरण इक तार ।*
*क्या जाणों कब छाड़ि है, यहु मन विषै विकार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७५. ठाकुर नरोत्‍तमदास जी*
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कालान्‍तर में श्री जीवगोस्‍वामी ने इन्‍हें और श्‍यामानन्‍द तथा श्री निवासाचार्य को भक्ति मार्ग पर प्रचार करने के निमित्त गौड़देश को भेजा। श्री श्‍यामानन्‍द जी ने तो अपनी प्रखर प्रतिभा और प्रबल पाण्डित्‍य तथा अलौकिक प्रभाव के कारण सम्‍पूर्ण उड़ीसा देश को भक्तिसामृत में प्‍लावित बना दिया।
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श्री निवासाचार्य ने वैष्‍णव समाज में नवीन जागृति पैदा की और नरोत्तम ठाकुर ने शिथिल होते हुए वैष्‍णव धर्म को फिर से प्रभावान्वित बना दिया। बडे पण्डित और भट्टाचार्य अपने ब्राह्मणपने के अभिमान को छोड़कर कायस्‍थकुलोद्भूत श्री नरोत्तम ठाकुर के मंत्रशिष्‍य बन गये।
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इनका प्रभाव सभी श्रेणी के लागों पर पड़ता था। इनके पिता भी इन्‍हें पूज्‍य दृष्टि से देखते थे। उन्‍होंने इन्‍हीं के आदेशानुसार श्री गौरांग महाप्रभु का एक बड़ा भारी मन्दिर बनवाया और उसमें श्री गौरांग और श्री विष्‍णुप्रिया जी की युगल मूर्तियों की स्‍थापना की गयी। इसके उपलक्ष्‍य में एक बड़ा भारी महामहोत्‍सव किया और बहुत दिनों तक निरन्‍तर कीर्तन-सत्‍संग होता रहा।
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नरोत्तम ठाकुर का प्रभाव उन दिनों बहुत ही अधिक था, बड़े-बड़े राजे-महाराजे इनके मंत्र-शिष्‍य थे। बड़े पण्डित इन्‍हें नि:संकोच भाव से साष्‍टांग प्रणाम करते। ये बँगला भाषा के सुकवि भी थे। इन्‍होंने गौरप्रेम में उन्‍मत्त होकर हजारों पदों की रचना की है। इनकी पदावलियों का वैष्‍णवसमाज में बड़ा आदर है। इन्‍होंने परमायु प्राप्‍त की थी। अन्‍त समय ये गंगा जी के किनारे गम्‍भीरा नामक ग्राम में अपने एक शिष्‍य गंगा नारायण पण्डित के यहाँ चले गये।
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कार्तिक की कृष्‍णा पंचमी का दिन था। प्रात:काल ठाकुर महाशय अपने प्रिय शिष्‍य गंगानारायण पण्डित तथा रामकृष्‍ण के साथ गंगा-स्‍नान के निमित्‍त गये। वे कमर तक जल में चले गये और अपने शिष्‍यों से कहा– ‘हमारे शरीर को तो थोड़ा मलो।’ शिष्‍यों ने गुरुदेव की आज्ञा का पालन किया। देखते ही देखते ठाकुर महाशय का निर्जीव शरीर गंगामाता के सुशीतल जल में गिरकर अठखेलियां करने लगा। नरोत्‍तम ठाकुर इस असार संसार को त्‍यागकर अपने सत्‍य और नित्‍य लोक को चले गये। वैष्‍णवों के हाहाकार से गंगा का किनारा गूँजने लगा। गंगामाता का हृदय भी अपने लाडले पुत्र के शोक में उमड़ने लगा और वह भी अपनी मर्यादा को छोड़कर बढ़ने लगीं।
(क्रमशः)

*१७५. ठाकुर नरोत्‍तमदास जी*


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*कछु न कहावे आप को, सांई को सेवे ।*
*दादू दूजा छाड़ि सब, नाम निज लेवे ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७५. ठाकुर नरोत्‍तमदास जी*
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लोकनाथप्रियं धीरं लोकातीतं च प्रेमदम्।
श्रीनरोत्‍तमनामाख्‍यं तं विरक्‍तं नमाम्‍यहम्॥[१]
([१] श्रीलोकनाथ गोस्‍वामी के परम प्रिय शिष्‍य, महाधैर्यवान् और लोकातीत कर्म करने वाले उन श्री नरोत्‍तमदास जी के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ, जो राज-पाट को छोड़कर विरक्‍त बनकर लोगों को प्रेमदान देते रहे।)
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पद्मा नदी के किनारे पर खेतरी नाम की एक छोटी सी राजधानी है। उसी राज्‍य में स्‍वामी श्री कृष्‍ण नन्‍ददत्त मजूमदार के यहाँ नारायणी देवी के गर्भ से ठाकुर नरोत्तमदास जी का जन्‍म हुआ। ये बाल्‍यकाल से ही विरक्‍त थे। घर में अतुल ऐश्‍वर्य था, सभी प्रकार के संसारी सुख थे, किन्‍तु इन्‍हें कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता था।
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ये वैष्‍णवों के द्वारा श्रीगौरांग की लीलाओं का श्रवण किया करते थे। श्रीरूप तथा सनातन और श्री रघुनाथदास जी के त्‍याग और वैराग्‍य की कथाएँ सुन-सुनकर इनका मन राज्‍य, परिवार तथा धन-सम्‍पत्ति से एकदम फिर गया। ये दिन-रात श्री गौरांग की मनोहर मूर्ति का ही ध्‍यान करते रहे।
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सोते-जागते, उठते-बैठते इन्‍हें चैतन्यलीलाएँ ही स्‍मरण होने लगीं। घर में इनका चित्त एकदम नहीं लगता था। इसलिये ये घर को छोड़कर कहीं भाग जाने की बात सोच रहे थे। गौरांग महाप्रभु तथा उनके बहुत-से प्रिय पार्षद इस संसार को त्‍यागकर वैकुण्‍ठवासी बन चुके थे। बालक नरोत्तमदास कुछ निश्चित न कर सके कि किसके पास जाऊँ।
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पण्डित गोस्‍वामी, स्‍वरूपदामोदर, नित्‍यानन्‍द जी, अद्वैताचार्य तथा सनातन आदि बहुत से प्रभुपार्षद इस संसार को छोड़ गये थे। अब किसकी शरण में जाने से गौर प्रेम की उप‍लब्धि हो सकेगी– इसी चिन्‍ता में ये सदा निमग्‍न रहते।
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एक दिन स्‍वप्‍न में इन्‍हें श्रीगौरांग ने दर्शन दिये और आदेश दिया कि– ‘तुम वृन्‍दावन में जाकर लोकनाथ गोस्‍वामी के शिष्‍य बन जाओ’। बस, फिर क्‍या था, ये एक दिन घर से छिपकर वृन्‍दावन के लिये भाग गये और वहाँ श्री जीवगोस्‍वामी के शरणापन्‍न हुए।
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इन्‍होंने अपने स्‍वप्‍न का वृत्तान्‍त जीवगोस्‍वामी को सुनाया। इसे सुनकर उन्‍हें प्रसन्‍नता भी हुई और कुछ खेद भी। प्रसन्‍नता तो इनके राज-पाट, धन-धान्‍य तथा कुटुम्‍ब-परिवार के परित्‍याग और वैराग्‍य के कारण हुई। खेद इस बात का हुआ कि लोकनाथ गोस्‍वामी किसी को शिष्‍य बनाते ही नहीं। शिष्‍य न बनाने का उनका कठोर नियम है।
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श्री लोकनाथ गोस्‍वामी और भूगर्भ गोस्‍वामी दोनों ही महाप्रभु के संन्‍यास लेने से पूर्व ही उनकी आज्ञा से वृन्‍दावन में आकर चीरघाट पर एक कुंजकुटीर बनाकर साधन-भजन करते थे। लोकनाथ गोस्‍वामी का वैराग्‍य बड़ा ही अलौकिक था। वे कभी किसी से व्‍यर्थ की बातें नहीं करते। प्राय: वे सदा मौन से ही बने रहते।
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शान्‍त एकान्‍त स्‍थान में वे चुपचाप भजन करते रहते, स्‍वत: ही कुछ थोड़ा-बहुत प्राप्‍त हो गया, उसे पा लिया, नहीं तो भूखे ही पड़े रहते। शिष्‍य न बनाने का इन्‍होंने कठोर नियम कर रखा था, इसलिये आज तक इन्‍होंने किसी को भी मंत्र दीक्षा नहीं दी थी।
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श्री जीवगोस्‍वामी इन्‍हें लोकनाथ गोस्‍वामी के आश्रम में ले गये और वहाँ जाकर इनका उनसे परिचय कराया। राजा कृष्‍णानन्‍ददत्त के सुकुमार राजकुमार नरोत्तमदास के ऐसे वैराग्‍य को देखकर गोस्‍वामी लोकनाथ जी अत्‍यन्‍त ही संतुष्‍ट हुए।
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जब इन्‍होंने अपनी दीक्षा की बात की तब उन्‍होंने स्‍पष्‍ट कह दिया कि ‘हमें तो गौर ने आज्ञा नहीं दी। हमारा तो शिष्‍य न करने का नियम है। तुम किसी और गुरु की शरण में जाओ।’ इस उत्तर से राजकुमार नरोत्तमदास जी हताश या निराश नहीं हुए, उन्‍होंने मन ही मन कहा– ‘मुझ में शिष्‍य बनने की सच्‍ची श्रद्धा होगी तो आपको ही दीक्षा देनी होगी।’ यह सोचकर ये छिपकर वहीं रहने लगे।
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श्री लोकनाथ गोस्‍वामी प्रात:काल उठकर यमुना जी में स्‍नान करने जाते और दिन भर अपनी कुंजकुटी में बैठे-बैठे हरिनाम-जप किया करते। नरोत्तमदास छिपकर उनकी सेवा करने लगे। वे जहाँ शौच जाते, उस शौच को उठाकर दूर फेंक आते।
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जिस कंकरीले, पथरीले और कण्‍टकाकीर्ण रास्‍ते से वे यमुना स्‍नान करने जाते उस रास्‍ते को खूब साफ करते। उसके कांटेदार वृक्षों को काटकर दूसर ओर फेंक देते, वहाँ सुन्‍दर बालुका बिछा देते। कुंज को बांध देते। उनके हाथ धोने को नरम-सी मिट्टी लाकर रख देते। दोपहर को उनके लिये भिक्षा लाकर चुपके से रख जाते।
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सारांश यह कि जितनी वे कर सकते थे और जो भी उनके सुख का उपाय सूझता उसे ही सदा करते रहते। इस प्रकार उन्‍हें गुप्‍त रीति से सेवा करते हुए बारह-तेरह महीने बीत गये। जब सब बातें गोस्‍वामी जी को विदित हो गयीं तो उनका हृदय भर आया। अब वे अपनी प्रतिज्ञा को एकदम भूल गये, उन्‍होंने राजकुमार नरोत्तम को हृदय से लगा लिया और उन्‍हें मंत्र दीक्षा देने के लिये उद्यत हो गये।
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बात की बात में यह समाचार सम्‍पूर्ण वैष्‍णव समाज में फैल गया। सभी आकर नरोत्तमदास जी के भाग्‍य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। दीक्षा तिथि श्रावण की पूर्णिमा निश्चित हुई, उस दिन सैकड़ों विरक्‍त भक्‍त श्रीलोकनाथ गोस्‍वामी के आश्रम पर एकत्रित हो गये। जीवगोस्‍वामी ने माला पहनाकर नरोत्‍तमदास जी को गुरु के चरणों में भेजा।
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गुरु ने पहले उनसे कहा– ‘जीवनभर अविवाहित रहना होगा। सांसारिक सुखों को एकदम तिलांजलि देनी होगी। मांस-मछली जीवन में कभी न खानी होगी’। नतमस्‍तक होकर नरोत्‍तमदास जी ने सभी बातें स्‍वीकार कीं। तब गोस्‍वामी जी ने इन्‍हें विधिवत् दीक्षा दी।
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नरोत्‍तम ठाकुर का अब पुनर्जन्‍म हो गया। उन्‍होंने श्रद्धा-भक्ति के सहित सभी उपस्थित वैष्‍णवों की चरणवन्‍दना की। गुरु देव की पदधूलि मस्‍तक पर चढ़ायी और वे उन्‍हीं की आज्ञा से श्री जीवगोस्‍वामी के समीप रहकर भक्तिशास्‍त्र की शिक्षा प्राप्‍त करते रहे।
(क्रमशः)

*१७४. श्री श्री निवासाचार्य जी*


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*दादू दत्त दरबार का, को साधु बांटै आइ ।*
*तहाँ राम रस पाइये, जहँ साधु तहँ जाइ ॥*
(श्री दादूवाणी ~ साधू का अंग)
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७४. श्री श्री निवासाचार्य जी*
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जगन्‍माता विष्‍णुप्रिया जी से विदा होकर ये शान्तिपुर में अद्वैताचार्य की जन्‍मभूमि को देखने गये। वहाँ से नित्‍यानन्‍द जी के घर खड़हद में पहुँचे। वहाँ अवधूत की पत्‍नी श्रीमती जाह्नवी देवी ने इन पर अपार प्रेम प्रदर्शित किया और कई दिनों तक अपने घर में इन्‍हें रखा।
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उन दोनों माताओं की चरण-वन्‍दना करके ये खानाकुल कृष्‍णनगर के गोस्‍वामी अभिरामदास जी के दर्शनों को गये। उन्‍होंने ही इन्‍हें वृन्दावन में जाकर भक्ति ग्रन्‍थों के अध्‍ययन करने की अनुमति दी। उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके ये अपनी माता से आज्ञा लेकर काशी-प्रयाग होते हुए वृन्‍दावन पहुँचे। वहाँ जीव गोस्‍वामी ने इनका बडा सत्‍कार किया। उन्‍होंने ही गोपालभट्ट से इन्‍हें मंत्र-दीक्षा दिलायी।
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ये वृन्‍दावन में ही रहकर श्रीरूप और सनातन आदि गोस्‍वामियों के बनाये हुए भक्ति-शास्‍त्रों का अध्‍ययन करने लगे। वहाँ इनकी नरोत्तमदास जी तथा श्‍यामानन्‍द जी के साथ भेंट हुई और उन्‍हीं के साथ ये गोस्‍वामियों के ग्रन्‍थों का अध्‍ययन करने लगे।
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श्री जीव गोस्‍वामी जी ने जब समझ लिया कि ये तीनों ही योग्‍य बन गये हैं, तीनों ही तेजस्‍वी, मेधावी और प्रभावशाली हैं, तब इन्‍हें गौड़देश में भक्तितत्‍व का प्रचार करने के निमित्त भेजा। नरोत्‍तमदास जी को ‘ठाकुर’ की उपाधि दी और श्री निवास जी को आचार्य की।
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भक्ति-ग्रन्‍थों के बिना भक्ति-मार्ग का यथाविधि प्रचार हो नहीं सकता। अत: जीव गोस्‍वामी ने बहुत से ग्रन्‍थें को मोमजामें के कपडों में बंधवा-बंधवाकर तथा कई सुरक्षित संदूकों में बंद कराकर एक बैलगाड़ी में लादकर इनके साथ भेजा। रक्षा के लिये साथ में दस अस्‍त्रधारी सिपाही भी कर दिये।
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तीनों ही तेजस्‍वी युवक अपने आचार्यों तथा भक्‍तों के चरणों में प्रणाम करके काशी-प्रयाग होते हुए गौड़देश की ओर जाने लगे। रास्‍ते में बाँकुडा जिले के अन्‍तर्गत वन विष्‍णुपुर नाम की एक छोटी-सी राजधानी पडती है, वहाँ पहुँचकर डाकुओं ने इनकी सभी संदूकें छीन लीं और सभी को मार भगाया। इस बात से सभी को अपार कष्‍ट हुआ।
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असल में उस राज्‍य के शासक राजा वीरहम्‍मीर ही डाकुओं को उत्‍साहित कर दिया करते थे और उस गाड़ी को भी धन समझकर उन्‍होंने ही लुटवा लिया था। पुस्‍तकों के लुट जाने से दु:खी होकर श्री निवास जी ने श्‍यामानन्‍द जी से और नरोत्‍तम ठाकुर से कहा– ‘आप लोग अपने-अपने स्‍थानों को जाइये और आचार्य चरणों की आज्ञा को शिरोधार्य करके भक्तिमार्ग का प्रचार कीजिये। मैं या तो पुस्‍तकों को प्राप्‍त करके लौटूँगा या यहीं कहीं प्राण गँवा दूँगा।’
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बहुत कहने-सुनने पर वे दोनों आगे के लिये चले गये। श्रीनिवास जी वनविष्‍णुपुर में घूम-घूमकर पुस्‍तकों की खोज करने लगे। दैवसंयोग से उनका राजसभा में प्रवेश हो गया। राजा वीरहम्‍मीर श्रीमद्भागवत के बड़े प्रेमी थे, उनकी सभा में रोज कथा होती थी।
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एक दिन कथावाचक राज-पण्डित को अशुद्ध अर्थ करते देखकर इन्‍होंने उसे टोका, तब राजा ने कुतूहल के साथ इनके मैले-कुचैले वस्‍त्रों को देखकर इन्‍हीं से अर्थ करने को कहा। बस, फिर क्‍या था, वे धारा प्रवाहरूप से एक ही श्‍लोक के नाना भाँति से युक्ति और शास्‍त्र प्रमाण द्वारा विलक्षण-विलक्षण अर्थ करने लगे।
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इनके ऐसे प्रकाण्‍ड पाण्डित्‍य को देखकर सभी श्रोता मंत्रमुग्‍ध से बन गये। राजा ने इनके चरणों में प्रणाम किया। पूछने पर इन्‍होंने अपना सभी वृत्तान्‍त सुनाया। तब ड़बड़बाई आँखों से राजा इन्‍हें भीतर ले गया और इनके पैरों में पड़कर कहने लगा– ‘आपका वह पुस्‍तकों को लूटने वाला डाकू मैं ही हूँ। ये आपकी पुस्‍तकें ज्‍यों की त्‍यों ही रखी हैं।’
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श्री जीव गोस्‍वामी की दी हुई सभी वस्‍तुओं को सुरक्षित पाकर ये प्रेम में गद्गद होकर अश्रुविमोचन करने लगे। इन्‍होंने श्रद्धा-भक्ति के साथ उन पुस्‍तकों को प्रणाम किया और अपने परिश्रम को सफल हुआ समझकर अत्‍यन्‍त ही प्रसन्‍न हो गये। उसी दिन से राजा ने वह कुत्सित कर्म एकदम त्‍याग दिया और वह इनका मंत्र शिष्‍य बन गया।
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वनविष्‍णुपुर के राजा का उद्धार करके फिर ये जाजिग्राम में अपनी माता के दर्शनों के लिये आये। बहुत दिनों पश्‍चात अपने प्‍यारे पुत्र को पाकर स्‍नेहमयी माता की प्रसन्‍नता का ठिकाना नहीं रहा, वह प्रेम में गद्गद कण्‍ठ से रुदन करने लगी। आचार्य श्री निवास अब वहीं रहकर भक्तिमार्ग का प्रचार करने लगे। उनकी वाणी में आकर्षण था, चेहरे पर तेज था, सभी वैष्‍णव इनका अत्‍यधिक आदर करते थे।
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वैष्‍णवसमाज के ये सम्‍माननीय अग्रणी समझे जाते थे। उनचास वर्ष की अवस्‍था में इन्‍होंने अपना पहला विवाह किया और कुछ दिनों बाद दूसरा विवाह भी कर लिया। इस प्रकार दो विवाह करने पर भी ये विरक्‍तों की ही भाँति जीवन बिताने लगे। बीच में ये एक बार पुन: अपने गुरुदेव के दर्शनों के निमित्त वृन्दावन पधारे थे, तब तक इनके गुरु श्री गोपाल भट्ट का वैकुण्‍ठवास हो चुका था। कुछ दिन वृन्‍दावन रहकर ये पुन: गौड़देश में आकर प्रचार कार्य करने लगे।
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वनविष्‍णुपुर के राजा ने इनके रहने के लिये अपने यहाँ एक पृथक भवन बनवा दिया था। ये कभी-कभी जाकर वहाँ भी रहते थे। अन्‍त में आप अपनी अवस्‍था का अन्‍त समझकर श्री वृन्‍दावनधाम को चले गये और वहाँ से लौटकर फिर गौड़देश में नहीं आये।
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उनका पुण्‍यमय अलौकिक शरीर वृन्‍दावन भूमि के पावन कणों के साथ एकीभूत हो गया। वे वैष्‍णवों के परम आदरणीय आचार्य अपनी अनुपम भक्ति और त्‍यागमयी वृत्ति के द्वारा प्रवृत्तिपक्ष वाले वैष्‍णवों के लिये एक परम आदर्श उपस्थित कर गये।
(क्रमशः)

*१७४. श्री श्री निवासाचार्य जी*


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*रामजी तूँ मोरा हौं तोरा,*
*तेरे पाइन परत निहोरा ॥*
*एकै संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥*
*तन मन तुम कौं देबा, तेज पुंज हम लेबा ॥*
*रस माँही रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा ॥*
*ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ४०७)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७४. श्री श्री निवासाचार्य जी*
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पण्डित गोस्‍वामी ने उठकर श्री निवास जी का आलिंगन किया और उनके कोमल अंग पर अपना शीतल प्रेममय करकमल धीरे-धीरे फिराने लगे। उनके प्रेम-स्‍पर्श से श्रीनिवास जी का सम्‍पूर्ण शरीर पु‍लकित हो उठा। तब अधीरता के साथ पण्डित गोस्‍वामी ने करुणकण्‍ठ से कहा– ‘श्रीनिवास ! अब मैं भी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।
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गौर के विरह में मेरे प्राण तड़प रहे हैं। मैं तो उसी दिन समुद्र में कूदकर इन प्राणों का अन्‍त कर देता, किन्‍तु प्रभु की आज्ञा थी कि मैं तुम्‍हें श्रीमद्भागवत पढ़ाऊँ। मेरी स्थिति अब पढाने योग्‍य तो रही नहीं, किन्‍तु महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य है।
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प्रभु तुम्‍हें वृन्दावन में जाकर रूप-सनातन के ग्रन्‍थों का अध्‍ययन करने के लिये आदेश दे गये हैं। वे तुम्‍हारे द्वारा गौड़ देश में भक्ति का प्रचार करना चाहते हैं। तुम अब आ गये, लाओ मैं प्रभु की आज्ञा का पालन करूँ। इससे पहले तुम पुरी के सभी प्रसिद्ध-प्रसिद्ध गौर-भक्‍तों के दर्शन कर आओ।’
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पण्डित गोस्‍वामी ने अपना एक आदमी श्री निवास जी के साथ कर दिया। उसके साथ वे श्री जगन्‍नाथ जी के दर्शन करते हुए सार्वभौम भट्टाचार्य, राय रामानन्‍द आदि भक्‍तों के दर्शनों के लिये गये और उन सबकी चरण-वन्‍दना करके इन्‍होंने अपना परिचय दिया।
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सभी ने इनके ऊपर पुत्र की भाँति स्‍नेह प्रकट किया। इस सबसे विदा होकर फिर ये भक्‍त हरिदास जी की समाधि के दर्शनों के लिये गये। वहाँ हरिदास जी की नामनिष्‍ठा और उनकी सहिष्‍णुता का स्‍मरण करके ये मूर्च्छित हो गये और घंटों वहाँ की धूलि में लोटते-लोटते अश्रुविमोचन करते रहे।
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श्री चैतन्‍य की सभी लीला स्‍थलियों के दर्शन करके ये पुन: पण्डित गोस्‍वामी के समीप लौट आये। तब गदाधर जी ने इन्‍हें महाप्रसाद का भोजन कराया। भोजन के अनन्‍तर स्‍वस्‍थ होने पर इन्‍होंने श्रीमद्भागवत के पाठ की जिज्ञासा की।
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गदाधर गोस्‍वामी के नेत्रों से जल निरन्‍तर बह रहा था। खाते-पीते, पढते-लिखते हर समय उनका अश्रुप्रवाह जारी ही रहता। वे बड़े कष्‍ट से पोथी को श्री निवास जी को देकर पढ़ने लगे। श्री निवास जी ने देखा पोथी का एक भी अक्षर ठीक-ठीक नहीं पढ़ा जाता। सभी पृष्‍ठ पण्डित गोस्‍वामी के नेत्रों के जल से भीगे हुए हैं।
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निरन्‍तर के अश्रुप्रवाह से पोथी के सभी अक्षर मिटकर पृष्‍ठ काले रंग के बन गये हैं। श्री निवास जी ने उसे पढ़ने में अपनी असमर्थता प्रकट की। तब गदाधर गोस्‍वामी ने कहा– ‘श्री निवास ! अब मेरे जीने की तुम विशेष आशा मत रखो। संसार मुझे सूना-सूना दीखता है। हाय ! जहाँ गौर नहीं, वहाँ मैं कैसे रह सकूँगा। मेरे प्राण गौर-दर्शन के लिये लालायित हो रहे हैं।
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यदि तुम पढना ही चाहते हो तो आज ही तुम गौड़ चले जाओ। नरहरि सरकार के पास मेरे हाथ की लिखी हुई एक नयी पोथी है, उसे ले आओ। बहुत सम्‍भव है मैं तुम्‍हें पढा सकूँ। श्री निवास जी समझ गये कि पण्डित गोस्‍वामी का शरीर अब अधिक दिन तक नहीं टिक सकता। वे उसी समय सरकार ठाकुर के समीप से पोथी लाने के लिये चल पड़े। श्री‍हट्ट में आकर उन्‍होंने सभी वृत्तान्‍त सरकार ठाकुर से कहा और वे जल्‍दी से पोथी लेकर पुरी के लिये चल दिये।
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अभी वे पुरी के आधे ही मार्ग में पहुँचे थे कि उन्‍हें यह हृदय को हिला देने वाला दूसरा समाचार मिला कि पण्डित गोस्‍वामी ने गौर-विरह की अग्नि में अपने शरीर को जला दिया, वे इस संसार को छोड़कर गौर के समीप पहुँच गये।
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दु:खित श्री निवास के कलेजे में सैकड़ों बर्छियों के लगने से जितना घाव होता है, उससे भी बड़ा घाव हो गया। वे रो-रोकर भूमि पर लोटने लगे। ‘हाय ! उन महापुरुष से मैं श्रीमद्भागवत भी न पढ़ सका। अब पुरी जाना व्‍यर्थ है।’ यह सोचकर वे फिर गौड़ की ही ओर लौट पड़े।
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वहाँ पानीहाटी से कुछ दूर पर उन्‍होंने एक तीसरा हृदय विदारक समाचार सुना। एक मनुष्‍य ने कहा– ‘महाप्रभु के तिरोभाव के अनन्‍तर श्रीपाद नित्‍यानन्‍द जी की दशा विचित्र ही हो गयी थी। उन्‍होंने संकीर्तन में जाना एकदम बंद कर दिया था, वे खड़दह के अपने मकान में ही पड़े-पड़े– ‘हा गौर ! हा गौर !’ कहकर सदा रुदन किया करते थे।
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कभी कभी कीर्तन के लिये उठते तो क्षणभर में ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ते और घंटों में जाकर होश में आते। सभी भक्‍त उनकी मनोव्‍यथा को समझते थे, इसलिये कोई उनसे संकीर्तन में चलने का आग्रह नहीं करता था। एक दिन वे श्‍यामसुन्‍दर के मन्दिर में भक्‍तों के साथ संकीर्तन कर रहे थे, संकीर्तन करते-करते ही वे अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े।
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यह उनकी अचेतना अन्तिम ही थी। भक्‍तों ने भाँति-भाँति के यत्‍न किये किन्‍तु फिर वे सचेत नहीं हुए। वे गौरधाम में जाकर अपने भाई निमाई के साथ मिल गये।’ श्री निवास जी के ऊपर मानो वज्र गिर पड़ा हो, वे खिन्‍न-चित्त से क्रन्‍दन करते-करते सरकार ठाकुर के समीप पहुँचे और रो-रोकर सभी समाचार सुनाने लगे। भक्तिभवन के इन प्रधान स्‍तम्‍भों के टूट जाने से भक्‍तों को अपार दु:ख हुआ।
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सरकार ठाकुर बच्‍चों की तरह ढ़ाह मारकर रुदन करने लगे। श्री निवास जी के दोनों नेत्र रुदन करते-करते फूल गये थे। वे कण्‍ठ रुंध जाने के कारण कुछ कह भी नहीं सकते थे। सरकार ठाकुर ने इन्‍हें कई दिनों तक अपने ही यहाँ रखा। इसके अनन्‍तर वे घर नहीं गये। अब उनकी इच्‍छा श्री चैतन्‍य की क्रीड़ा-भूमि के दर्शनों की हुई। वे उसी समय सरकार ठाकुर से विदा होकर नवद्वीप में आये।
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उन दिनों विष्‍णुप्रिया देवी जी घोर तपस्‍यामय जीवन बिता रही थीं। वे किसी से भी बातें नहीं करती थीं, किन्‍तु उन्‍हें स्‍वप्‍न में श्री गौरांग का आदेश हुआ कि ‘श्री निवास हमारा ही अंश है, इससे मिलने में कोई क्षति नहीं। इसके ऊपर तुम कृपा करो।’ तब उन्‍होंने श्री निवास जी को स्‍वयं बुलाया। वे इस छोटे बालक के ऐसे त्‍याग, वैराग्‍य, प्रेम और रूप-लावण्‍य को देखकर बड़ी ही प्रसन्‍न हुईं। प्रिया जी ने उनके ऊपर परम कृपा प्रदर्शित की। इनसे बातें कीं, इनके मस्‍तक पर अपना पैर रखा और अपने घर के बाहरी दालान में इन्‍हें कई दिनों तक रखा।
(क्रमशः)