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सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/१३-५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
*दादू तन मन के गुण छाड़ि सब, जब होइ नियारा ।*
*तब अपने नैनहुं देखिये, प्रगट पीव प्यारा ॥१३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! तन के गुण(चोरी, जारी इत्यादि), मन के संकल्प - विकल्प(तृष्णा आदि), इनसे अलग होकर कहिए, छोड़कर फिर अपने ज्ञान - विचार रूपी नेत्रों में, हृदय प्रदेश में मुख - प्रीति का विषय वह प्यारा परमेश्वर प्रकट हो रहा है । उसके दर्शन करो ॥१३॥ 
चोरी जारी हिंसता, तनहि दोष हैं तीन । 
निंदा झूठ कठोरता, वाक् चाल वक्चीन ॥ 
तृष्णा चितवन दोष बुधि, ये "नरसिंघ" मन दोष । 
काइक वाचिक मानसी, दसौं दोस तज मोक्ष ॥ 
दृष्टांत - सन्त इकहार्ट जंगल में एक वृक्ष के नीचे शान्तभाव से बैठे थे । उनका कोई पुराना मित्र उधर से गुजरा । उसने देखा - इकहार्ट अकेले बैठे हैं । वह उनके पास जाकर बैठ गया और बोला - "शायद, आप अकेले बैठे - बैठे ऊब रहे हैं, यह सोचकर आपके पास आया हूँ ।" सन्त बोले - "भाई ! मैं अकेला कहाँ था ? मैं तो अपने साथ था, मेरा प्रभु मेरे साथ था । तुमने आकर मुझे अकेला कर दिया । अब मेरा "मैं" अर्थात् "मेरा प्रभु" मुझसे छूट गया ।"(कितना गहरा रहस्यमय सन्त - वचन था !)
छन्द - 
जगमग पग तजि, सजि भजि राम नाम, 
काम क्रोध तन मन, घेरि घेरि मारिये ।
झूठ मूठ हठ त्याग, जाग भाग सुनि पुनि, 
गुन ग्यान आनि आनि, बारि बारि डारिये ।
गहि ताहि जाहि शेष, ईश ससि सुर नर, 
और बात हेरि तात, फेरि फेरि जारिये ।
"सुन्दर" दरद खोई, धोई धोई बेरि बेरि, 
सार संग अंग रंग, हेरि हेरि धारिये ॥ 
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*दादू झांती पाये पसु पिरी, अंदरि सो आहे ।*
*होणी पाणे बिच्च में, महर न लाहे ॥१४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! "झांति' कहिए, झरोखा रूपी मनुष्य शरीर को प्राप्त करके इसमें प्यारे परमेश्वर को देखिये । मनुष्य देह के हृदय रूपी मन्दिर में स्वस्वरूप का प्रत्यक्ष दर्शन करो । वह तुम्हारे भीतर ही है और तुम्हारे आत्म - स्वरूप से ही वह विद्यमान है । इसमें विलम्ब नहीं करना ।
रेखता - 
तूझे किया पैदा उन, जान के जहान बीच, 
मालिक महरबान करने को बन्दगी ।
दुनियां से लाग के, अल्लह आज भूल गया, 
कुफर कमाया कछु करी नहीं बन्दगी ।
इशक इबादती में एक सा यकीन राख, 
राज के हजूर तेरे, कीजिए न रिन्दगी ।
खेमदास जानेगा अवाज सो न मानेगा, 
परेगी खबर तब होइगी शर्मिन्दगी ॥ 
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*दादू झांती पाये पसु पिरी, हाणे लाइ न बेर ।*
*साथ सभौई हल्लियो, पोइ पसंदो केर ॥१५॥* 
इति चितावणी का अंग सम्पूर्ण ॥अंग ९॥साखी १५॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह अमूल्य मनुष्य देह प्राप्त करके अब प्यारे परमेश्वर के दर्शन करने में देर नहीं करो । तुम्हारे साथी तो सब चल पड़े हैं और तुम पड़े - पड़े वृथा मनुष्य देह के श्वासों को गँवाते हो । हे नादान ! तुम विषयों में पड़े - पड़े क्या देख रहे हो ? यह अमूल्य नर - तन प्राप्त हुआ है, अब इसमें आत्म - स्वरूप परमेश्वर का चिंतन करो । इसी में इस नर - तन की सफलता है ।
हूँई हलहल साथ मैं, खेमा नहीं बिलग्ग । 
एकै भार पलाणियां, एक पलाणन लग्ग ॥ 
वंजी पियारे सज्जनां, सैना बैनन कथि । 
तैडा कागज बंचिया, मैडा कागज हथि ॥ 

रेखता - 
अजाये भी न जाइगी, कमाई किसी दोस्त की, 
नेकी रु बदी का खेत बोवेगा जैसा लुणेगा ।
देखिए निरताइ कछु जानिये जहान ख्वाब, 
एक रोज जमीं में, औजूद मिट्टी सनेगा ।
रहेगा हमेस, एक राजिक रहीम सच्चा, 
और सब फनाफनी, केते कौन गिनेगा ।
राखिये करार उस, पैदा के करैया सेती, 
"खेमदास" दीन में, दीदार रोजी बनेगा ॥ 
इति चितावणी का अंग टीका और दृष्टांत सहित सम्पूर्ण ॥अंग ९॥साखी १५॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/१०-१२)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
*आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग ।*
*दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥१०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अहंता, ममता का त्याग करके, अपना पराया इस भाव को भी छोड़कर राम नाम के स्मरण में अपनी वृत्ति स्थिर करिये, क्योंकि मनुष्य जीवन और नर तन रूपी अवसर व्यर्थ जा रहा है । इस प्रकार अज्ञान निद्रा से शीघ्र जागकर स्वस्वरूप का बोध करो ॥१०॥ 
अयं निज: परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् । 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ 
बणिक चल्यो सुत मिलन को, मिल्यो बीच एक गांव । 
रात्रि दरद सुत कै चल्यौ, रात्रि न लीनो नांव ॥ 
दृष्टांत - एक बणिये का लड़का विदेश गया । कारोबार करने लगा । अच्छी कमाई कर ली । पिता को पत्र लिखा, आप यहाँ आ जाओ । पिता ने पत्र लिखा, तुम यहाँ आओ, सब कुटुम्बी आपको याद करते हैं । फिर पिता ने यह सोचा कि मैं ही चलकर मिलूं । उसका काम बहुत बड़ा है । तब पुत्र से मिलने चल पड़े । उधर पुत्र सपरिवार अपने देश को रवाना हो गया । एक शहर की धर्मशाला में नौकर - चाकरों सहित आकर ठहरा । सायंकाल अकेला उसका पिता भी उसी धर्मशाला की एक कोठड़ी में आकर ठहर गया । रात्रि को लड़के के पेट में भारी दर्द हो गया । शहर के वैद्य डाक्टर आने लगे । दवाइयाँ देते हैं, परन्तु आराम कुछ भी नहीं आता । लड़का पुकारता था, "हाय मरा ! हाय मरा ! हाय मरा !" वह कोठड़ी में सोया - सोया कहता रहा, "कैसा दुष्ट है यह ? सारी रात हो गई, सोने भी नहीं देता । दुष्ट मरा - मरा कहता है और मरता भी नहीं है ।" इतने में ही वह मर गया और बड़ा भारी रोना शुरू हो गया । तब बनिया बैठा हो गया और बोला - "अब सुसरे का रोग कट्या सै । पूछूं तो सही, कौन है ? कहाँ का है ?" बनिया आकर बोला - "क्यों भाई यह कहाँ का था ? और इसका नाम क्या है ?" तब नौकरों ने बताया कि यह अमुक नाम का, अमुक गांव का सेठ था । यह अपने मां - बाप से मिलने जा रहा था । यह सुनकर बनिया, ऊंचे हाथ कर, "हाय बेटा ! हाय बेटा !" रोने लगा । मुझे क्या पता था कि तूं मेरा ही बेटा है । सतगुरुदेव कहते हैं "आपा पर सब दूर कर." अर्थात् अपना और पराया का भेद न होता तो वह पुत्र से मिल लेता ।
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*बार बार यह तन नहीं, नर नारायण देह ।*
*दादू बहुरि न पाइये, जन्म अमोलिक येह ॥११॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मनुष्य का जन्म बार - बार प्राप्त होना असम्भव है । इसको प्राप्त करके परमेश्वर के भजन द्वारा परोपकार आदि साधनों से सफल बनाओ, क्योंकि यह नर तन अमूल्य है । इससे परमेश्वर की भक्तिरूप अमूल्य कार्य ही करो ॥११॥ 
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुर: । 
तत्राSपिदुर्लभं मन्ये वैकण्ठप्रियदर्शनम् ॥(भागवत)
नर तन पहला द्वार, मुक्ति के धाम का । 
नर तन में हो ज्ञान, यथार्थ राम का ॥ 
रज्जब रत्नों से जरी, मानौं मानुष देह । 
रे नर निर्धन होइगा, चौरासी के गेह ॥ 
जो जानहु जीव आपना, करहु जीव की सार । 
जियरा ऐसा पाहुना, मिले न दूजी बार ॥ 
रेखता - 
अजाजील रान्या न मान्या सिदक मोहम्मद का, 
जैसा जो करेगा बन्दा तैसा सोई पावैगा ।
भावै नेकी भावै बदी राह पै चले है कोई, 
दिल का बाप पूत न बँटावेगा ।
बोवेगा जो सावक, धतूरा, कोदौं, और ज्वार, 
भिनवा कलौंजी कोई खाता न भरावेगा ।
"खेमदास" फना है जहान, जान जान देख, 
जानेगा फहीम कोई गाफिल ठगावेगा ॥ 
उड़ै कपूर हि देख, सो न कर क्यूं ही आवै । 
क्षितिया परे समन्द, सोधि किस विधि पावै ॥ 
कदली एकै बार, फूल फल होइ सु होई । 
कागद ऊपर आँक, दूसरे लिखै न कोई ॥ 
सती सिंगार सु एकहि, ओला गले न पाइये । 
त्यूं "रज्जब" मनिषा जनम, हरिभज ठौर सुलाइये ॥ 
साखी
कबीर मानषा देही दुर्लभ, देही न बारंबार । 
तरवर तैं फल पड़ै, बहुरि न लागै डार ॥ 
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*एका एकी राम सों, कै साधु का संग ।*
*दादू अनत न जाइये, और काल का अंग ॥१२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! इस मनुष्य शरीर में अब नाम - स्मरण द्वारा राम से ओत - प्रोत हो जाओ और साधु जो सज्जन पुरुष हैं, उनका संग करो, आदर्श अपनाओ । इसके अतिरिक्त जो कुछ माया - प्रपंच है, वह काल का ही स्वरूप है, उसमें आसक्ति न करो ॥१२॥ 
संगः सर्वात्मना त्याज्य: स चेत् त्यक्तुं न शक्यते । 
स: सद्भि: कर्तव्य: सतां संगो हि भेषजम् ॥(भागवत)
सत संगति हरि नाम बिन, नर कर्म बंधन हेत । 
जन हरि संग न त्यागिये, काल कँवल कर लेत ॥ 
छन्द - 
देह सनेह न छाड़त है नर, 
जानत है थिर है यह देहा । 
छीजत जात घटै दिन ही दिन, 
दीसत है घट को नित छेहा ।
काल अचानक आइ गहै कर, 
ढाइ गिराइ करै तन खेहा । 
"सुन्दर" जानि यह निश्चय धर, 
एक निरंजन सौं कर नेहा ॥ 
(क्रमशः)

= चितावणी का अंग =(१/७-९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं करि चित्त ।*
*यह अनहद जहाँ थैं ऊपजै, खोजो तहाँ ही नित्त ॥७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अज्ञान में अचेत नहीं रहना । व्यापक चैतन्य के सन्मुख होकर अपने चित्त को उसी में लगाओ । अर्थात् जहाँ थैं कहिए, नाभि स्थान से अनहद शब्द उठता है और हृदय में आकर सुनाई पड़ता है, वहाँ हृदय स्थान में "खोजो", कहिए सुनो, इसका विचार करो । वहीं परमेश्वर के ज्ञान का साक्षात्कार होगा ॥७॥ 
छन्द - 
बालू के मंदिर मांहि, बैठो रहे स्थिर होइ, 
राखत है जीवन की, आशा कितै दिन की ।
पल पल छीजत, घटत जात घरी घरी, 
बिनसत बेर नहीं, खबर न छिन की ।
करत उपाय झूठे, लेन देन खान पान, 
मूसा इत उत फिरै, ताक रही मिनकी ।
सुन्दर कहत मेरी मेरी कर भूल्यो सठ, 
चंचल चपल माया, भई किन किन की ॥ 
मूसा(चूहा) = मन । मिनकी(बिल्ली) = काल । हे मन ! अचेतपने को छोड़ दे । विचार कर चैतन्य में स्थिर हो जा ।
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*दादू जन ! कुछ चेत कर, सौदा लीजे सार ।*
*निखर कमाई न छूटणा, अपने जीव विचार ॥८॥* 
टीका - हे जिज्ञासु ! कुछ चेत कर । मनुष्य जीवन के अमोलक श्वासों को परमेश्वर के स्मरण में विचारपूर्वक लगाकर सार्थक व्यवहार कीजिए । हे जीव ! तूं अपने आत्मस्वरूप को प्रत्यक्ष करके मनुष्य - जीवन को सफल बना ॥८॥ 
पुण्य भजन जग सार दोय, जे काहू तैं होइ । 
"जगन्नाथ" इन दोइ बिन, नर जन या ले रोइ ॥ 
बड़ी हानि हरि बिसरिये, लाभ भजन हरि नाम । 
"जगन्नाथ" ता जन्म को, नर खरचत बेकाम ॥ 
सवैया - 
पाइ अमोलिक देह यह नर, 
क्यूँ न विचार करै दिल अन्दर । 
कामहु क्रोधहु लोभहु मोहहु, 
लूटत हैं दशहु दिशि द्वंद्वर ।
तूं अब वांछित है सुरलोक हि, 
कालहु पाँय, परै सु पुरंदर । 
छाड़ि कुबुद्धि सुबुद्धि हृदय धर, 
आत्मराम भजै क्युं न सुन्दर ॥ 
एक फकीर घर गार के, बेचत है परलोक । 
सेठ मुओ सक्का मिल्यो, देखे सब ही थोक ॥ 
दृष्टांत - एक नगर में एक संत रहते थे । उनके यहाँ संतों की एक जमात आ गई । विचार किया कि इनको भोजन होना चाहिए । किसको बोलें ? तब मन में विचार हुआ, तो बैठे - बैठे एक लकड़ी के पट्टे पर गीली मिट्टी लेकर सात मंजिल का मकान बनाया । कई वृक्षों की डालियाँ लेकर बगीचा लगा दिया । प्रातःकाल सिर पर रखकर गांव की ओर चले । आवाज लगाने लगे - "परलोक के लिए यह महल और बगीचा सस्ती ही कीमत पर खरीद लो" । कई लोग देखकर हँसने लगे । उस नगर में एक धर्मात्मा साहुकार रहता था । वह संत के पास जाया भी करता था । उसने सब आवाज सुनी तो मुनीम को बोला - गद्दी पर महाराज को बिठाओ । सेठ ने आकर नमस्कार किया, पूछा - महाराज यह क्या है ? महात्मा - परलोक के लिए बगीचा और मकान है । सेठ - क्या कीमत है ? महात्मा - पांच सौ रूपया । सेठ ने पांच सौ रूपया दे दिया और मकान बगीचा ले लिया । महात्मा ने जाकर पांच सौ रूपया संतों के बीच में डाल दिया और बोले - "इन्हीं रूपयों में आप सब कुछ भंडारा - भेंट पूजा समझ लेना ।" संतों ने रसोई बनाई, परमेश्वर के भोग लगाया, प्रसाद पाया और रम गए । कुछ दिन में सेठ का अन्तिम समय आ गया । परन्तु सेठ के पड़ौसी का भी वही नाम था, जो कि सेठ का था । यमराज ने यमदूतों को हुक्म दिया कि उसके लिंग शरीर को यमलोक में ले आओ । यमदूत नाम की समानता होने के कारण धर्मात्मा के लिंग शरीर को ले गए । यमराज देखकर बोले - "किसको ले आए ? यह नहीं, इसके पड़ौसी को लाओ और इसको वापिस इसके स्थूल शरीर में ले जा कर डालो ।" तब यमदूत इसको लेकर चले, तो रास्ते में एक छोटा सा बगीचा, सात मंजिल का मकान, कुआ वगैरा सेठ ने बनते देखे । पानी ले जाने वाले, सक्का को पूछा - "यह मकान बगीचा किसका है ?" वह बोला - "मृतलोक में अमुक नाम के शहर में अमुक नाम का साहुकार रहता है, वह सपरिवार इसमें आकर बसेगा । उसने एक संत से बगीचा, मकान मोल लिया था । उसी के फलस्वरूप में यह बन रहा है ।" सेठ ने निश्चय किया कि वह तो मैं ही हूँ । यमदूतों ने सेठ के लिंग शरीर को स्थूल शरीर में लाकर डाला । चैतन्य हो गया । उपरोक्त वार्ता, सेठ ने सब अपने कुटुम्ब को बताई । पुण्य और संत सेवा की महिमा सुनकर उत्तम पुरूषों ने धन्य - धन्य किया । यह खरी कमाई है ।
संत एक सुकृत करै, माथै ले ले दाम । 
एक अनाथ सुत बणिक को, हुंडी बरसाई राम ॥ 
दृष्टांत - एक नगर में संत रहते थे । वे बड़े उपकारी थे । अन्न, वस्त्र, जल से अतिथियों की सेवा किया करते थे । वहाँ एक बनिये का लड़का था । उससे सामान उधार ले आते थे । जब पैसा आता, तो उसको दे दिया करते थे । एक रोज संत आ गए । बनिये के पास गए और बोले - "सामान देओ, भोजन के लिए ।" बनिये ने कहा - "महाराज पैसा आपकी तरफ काफी हो गया है । देने की कृपा करें ।" संत बोले - "आज तेरे धन की हुंडी बरसेगी ।" इस बात को पड़ौस के लखपति साहुकार ने सुना । वह आकर उस बनिये के लड़के को बोला - "सौदा कर ले ।" लड़का बोला - काहे का ? सेठ बोले - अपने घर मकान जायदाद का । लड़का बोला - "लिखतम् पढतम् कर लो ।" सेठ ने पांच आदमियों में लिखतम् पढ़तम् कर दी - "अपना घर, गद्दी, दुकान, सब जायदाद मैंने राजी खुशी अमुक लड़के को दे दिया, बदले में इसका घर, दुकान जायदाद, सब से लिया ।" इस पर दोनों के हस्ताक्षर हो गए । सेठ घर पर गया । उसके सारे कुटुम्ब को जिस हालत में थे, उसी हालत में साथ लेकर लड़के के घर और दुकान में आ गए । लड़का अपनी बुढिया मां, अपनी स्त्री आदि को साथ लेकर सेठ के घर गद्दी पर चला गया । दुनियां हँसने लगी । सेठ के परिवार के सदस्य कहने लगे - क्या आपकी बुद्धि खराब हो गई है ? इस झौपड़ें में आकर बैठ गए और सारी सम्पत्ति उसको दे दी । सेठ बोले - अरे मूर्खो ! हुंडी बरसेगी, न मालूम कितनी सम्पत्ति मिल जाएगी । सारा दिन पूरा हो गया । हुंडी नहीं बरसी । सेठ आँखें फाड़ - फाड़ कर आकाश में देखने लगा । फिर शाम को विचार किया कि यदि रात को धन बरसा, तो छप्पर पर से इधर उधर लुढक जाएगा और गांव वाले उठा ले जाएँगें । तब पूर्वोक्त बात अपने घर वालों को बताई और सब लोगों ने हाथों में डंडे लिये और छप्पर के अन्दर मोटे - मोटे छेद कर दिये । सारी रात सारा कुटुम्ब झाँकता रहा । सवेरा होते ही, सारा कुटुम्ब ऊँचे - ऊँचे हाथ करके फूट - फूट कर रोने लगे । सेठ संत के पास गया, और गालियां देने लगा "हुंडी तो नहीं बरसी मोड़े ! तूं कहता था हुंडी बरसेगी ! हमको तूने लुटा दिया ।" संत बोले - "आपको भाई, हमने कब बोला था ? जिसको बोला था, उसको तो बरस गई ।" सेठ लज्जित होकर आ गये और दुकान में चने मूंगफली बेचने लगे ।
साधु बोले सहज सुभाइ, साधु का बोल्या वृथा न जाइ । 
दादू जन कुछ चेत कर सौदा लीजी सार ॥ 
सुभाइ = स्वभाव
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*स्मरण नाम चितावणी*
*दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़ ।*
*जाना है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़ ॥९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर की नाम - स्मरण रूप सेवा करो । गुरुदेव, विद्वान्, दीन - दुःखी आदि की निष्काम भाव से सेवा करो और "हे हरि ! हे दयालु !' इस प्रकार नाम का स्मरण सदैव करते रहो, क्योंकि ब्रह्म अवस्था में स्थित रहना है, तो उस परब्रह्म परमात्मा से जो मुख - प्रीति का विषय है, उससे अपनी प्रीति के सहित अन्तर्वृत्ति जोड़ो ॥९॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

= चितावणी का अंग =(१/४-६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= चितावणी का अंग ९ =* 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो जीव न कीजी रे ।*
*परिहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! आप अपने जीव को उपदेश करिये कि भगवान् को अप्रिय जो काम हैं, उनको कदापि नहीं करना । परमेश्वर को प्रिय और अप्रिय क्या है ? विषय, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद इन सबको त्यागकर नाम - स्मरण रूप अमृत का पान करिए ॥४॥ 
छन्द - 
पाइ अमोलक देह यह नर, 
क्यूं न विचार करै दिल अंदर । 
कामहु क्रोधहु लोभहु मोहहु लूटत हैं, 
दशहु दिशि द्वन्दर । 
तूं अब वंछत है सुरलोकहि, 
कालहु पाइ परै सु पुरंदर । 
छाड़ि कुबुद्धि सुबुद्धि हृदय धरि, 
आत्म राम भजै क्यूं न सुन्दर ॥ 
इन्द्रिन के सुख मानत है सठ, 
याहि तैं तू बहुतै दुख पावै । 
ज्यूं जल में झख मांसहि लीलत, 
स्वाद बंध्यो जल बाहर आवै । 
ज्यू कपि मूठि न छाड़त है नर, 
रसना रस बंध पर्यो बिललावै । 
सुन्दर क्यूं पहिले न संभारत, 
जो गुड़ खाइ सु कान बिंधावै ॥ 
*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो बाट न बूझी रे ।* 
*सांई सौं सन्मुख रही, इस मन सौं झूझी रे ॥५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस मार्ग का अनुसरण करने से परमेश्वर रूप लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होवे, उस मार्ग में कभी भी प्रवृति नहीं करना । एवं प्रभु आराधना के परायण होकर इस मन की संकल्प - विकल्पात्मक वृत्तियों को परमेश्वर में लय करिये ॥५॥ 
मार्या जाय तो मारिये, मनवा बैरी मांहि । 
जन "रज्जब" यह छोड़ कर, मारन को कुछ नांहि ॥ 
लोभ मोह मारादि गुन, इनका तजिये साथ । 
जेहि आचरन हरि रुचै, सोई कर जगन्नाथ ॥ 
छन्द - 
हाथी को सो कान किधौं, पीपर को पान किधौं, 
ध्वजा को उड़ान किधौं, थिर न रहतु है । 
पानी को सो घेर किधौं, पवन उरझर किधौं, 
चक्र को सो फेर कोउ, कैसे कै गहतु है । 
अरहट की माल किधौं, चरखा को ख्याल किधौं, 
फेरी खाता बाल, कछु सुधि न लहतु है । 
धूम को सो धाव ताको, राखबे को चाव ऐसो, 
मन को स्वभाव सो तो, सुन्दर कहतु है ॥ 
तत्व प्राप्ति से चित यह, सहजैं ही रुक जात । 
घट चींटा तज के सिता, अन्य ओर नहि जात ॥ 
(सिता = मिश्री) 
दृष्टांत - एक घड़े में मिश्री का टुकड़ा डाल दें और उसमें एक काला मकोड़ा घुस जाये, तो वह मकोड़ा उसमें ऊपर नीचे घट के भीतर घूमता रहता है । जब मिश्री के पास पहुँच जाता है, फिर मिश्री के चाटने से उसका घूमना(चंचलता) बन्द हो जाता है, वहीं स्थिर रहता है । ऐसे ही यह शरीर घट है, इसमें आत्मारूपी मिश्री है । यह मन मकोड़ा है । मकोड़े की भांति यह चंचल मन इधर - उधर भ्रमता रहता है । जब मिश्रीरूप आत्म - विचार में स्थिर होकर उसका आनन्द अनुभव करने लगता है, तब फिर इसकी चंचलता निवृत हो जाती है । 
*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।* 
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर से कभी विमुख नहीं रहना । आत्मस्वरूप चैतन्य में अपने चित्त को लगाना । यह मन मोह रूप निद्रा में बेहोश हो रहा है । इसको गुरु उपदेश द्वारा जगाकर परमात्मा के साथ लगाओ अर्थात् नाम - स्मरण में स्थिर करो ॥६॥ 
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । 
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥(गीता) 
(क्रमशः)

= चितावणी का अंग =(१/१-३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= चितावणी का अंग ९ =*
अब निष्कर्म पतिव्रता के अनन्तर "साहिब जी का भावता, कोइ करै कलि मांहि.", इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप जिज्ञासुजनों को चितावने के निमित्त चितावणी के अंग का निरूपण करते हैं ।
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*मंगलाचरण*
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वंदनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जो निरंजन देव को नमस्कार करते हैं, वे अपने भक्तों को श्वास - प्रतिश्वास आत्मतत्व की चितावणी कराते रहते हैं और चेतावनी का उपदेश करने वाले गुरुदेव तथा सर्व साधुओं को कोटि - कोटि हमारी वन्दना है और सब गुण - विकार से पार मुमुक्षु प्रभु - चिन्तन में रत होते हैं ॥१॥ 
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*दादू जे साहिब कौं भावै नहीं, सो हम थैं जनि होइ ।*
*सतगुरु लाजै आपणा, साध न मानैं कोइ ॥२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज अपने को उपलक्षण करके परमेश्वर प्रभु से कहते हैं कि भक्तों की करुणारूप विनती आपसे है । आपकी सर्वव्यापक सत्ता को विसार कर हम किसी भी अकर्तव्य में प्रवृत्त नहीं होवें, क्योंकि इससे आपकी दया - सिन्धुता और सतगुरु व सर्व साधुओं की महिमा लज्जित होती है ॥२॥ 
रेखता
पातसाह, काजी, राजा, रंक चाहे कोई करो, 
बंदगी कबूल सांई सबही की मानेगा ।
ब्राह्मण, चमार, हिन्दू, तुरक, हलाल खोर, 
देखसी न ऊँच नीच जाति की न जानेगा ।
एक रोज काजी ह्वै के बैठेगा खुदाय 
जर्रे - जर्रे का हिसाब, 
दूध पानी कर छानेगा ।
खेमदास आशिकों को देइगा दीदार आप, 
गाफिलों को बीन - बीन बेहवाल रानेगा ॥ 
इक बंदे किय तीन सौ, ग्रन्थ राम गुण गाथ । 
परा शब्द ऐसा भया, इनतैं मोहि न पात ॥ 
दृष्टांत(१) :- एक भक्त ने राम - गुण गान रूप कथाओं के तीन सौ ग्रन्थों की रचना की थी । अन्त में पराशब्द(ब्रह्मवाणी) उसे सुनाई दी कि इन गाथाओं से मेरी(भगवत्) प्राप्ति नहीं होती है । भगवत्प्राप्ति तो मेरे(ब्रह्म) में परम भक्ति करने से अथवा अद्वैत निष्ठा से ही होती है । प्रभु को जो प्रिय नहीं हो, वह हमसे नहीं होना चाहिये । 
दृष्टांत(२) :- जब दादूजी महाराज नारायणा पधारने से कुछ दिन पहले मोरड़ा ग्राम में तालाब पर विराज रहे थे, तब पीरान पट्टण ग्राम से ठाकुरदासजी अपने शिष्य दासजी के साथ वहाँ आये थे । ठाकुरदासजी ने नील्या गाँव में दादूजी से दीक्षा ली थी । वे दादूजी के सौ शिष्यो में माने जाते है । दासजी ने अपने एक लाख वाणी की रचना दादूजी के सामने साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके रखी, तब महाराज ने पूछा - रामजी ! यह कपड़े में क्या है ? हाथ जोड़कर दासजी बोले - महाराज ! यह दास का बनाया जगतारण जहाज है । उक्त वचन सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - रामजी ! जितना परिश्रम इसकी रचना में किया, उतना परिश्रम रामजी का भजन करने मलगाते तो कितना अच्छा होता ! इतनी बड़ी रचना की क्या आवश्यकता थी ? बड़ी रचनाओं में तो प्राय: पुनरावृत्ति ही होती है, इनमें खोपड़ी खपाने से क्या लाभ ?
"मासि कागद के आसरे क्यों छूटै संसार । 
राम बिना छूटै नहीं, दादू भ्रम विकार ॥"
अत: संसार - बन्धन से छूटने का सरलतम उपाय तो भगवन्नाम स्मरण ही है । यह सुनकर दासजी ने अपने ग्रन्थ को तालाब में फेंक दिया, उसके कुछ पन्ने तो साधु भक्तजनों के हाथ लगे बाकी सब जल में डूब गये । 
तब महाराज ने कहा - दासजी ! मेरा तात्पर्य यह तो नहीं था कि इतने परिश्रम व बुद्धि बल से रचित ग्रन्थ को यों ही नष्ट कर दिया जाय, पारखी सज्जन तो उससे लाभ उठा ही सकते थे । तब दासजी ने महाराज का मन्तव्य जानकर अनेक उत्तम ग्रन्थों की रचना की, जिनमें उनकी लिखी "पंथ परीक्षा" अधिक प्रचलित है । भजन साधना में भी उनकी उच्च कोटि के महापुरुषों में गणना की जाती है । 
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*दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो सब परिहर प्राण ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, जे तूं चतुर सुजाण ॥३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! तुम यदि समझदार हो तो, एक ईश्वर से अतिरिक्त सर्व नामरूप माया - प्रपंच से आसक्ति हटाकर मन, वचन, कर्म(काया) से एक परमेश्वर में ही अपनी लय लगाओ ॥३॥ 
रेखता
हाथी माल मुलक बहेरा घोरा पेशखाना, 
जेता कछु देखे बन्दे साथ भी न चलेगा ।
आवेगा हलकारा जब छोड़ेगा पसारा सब, 
बन्दगी बिना जहान दोजख में जलेगा ।
बूझ देख दिल में सदा भी कोई जीया नहीं, 
मौत के तमाचे आगे किसी तैं न टलेगा ।
ना कर गुमान मन खेस अलभेष देख, 
"खेमदास" खूब तन खाक बीच रलेगा ॥ 
इक बन्दे किए तीन सौ, ग्रंथ राम गुण गाइ । 
पराशब्द ऐसै भयो, इनतें मोहि न पाइ ॥ 
दृष्टांत - एक बंदे ने तीन सौ ग्रंथ रचे । उसको भारी अहंकार हो गया कि मेरे जैसा कवि कौन होगा कि मैंने तीन सौ ग्रंथ बनाए हैं ? यद्यपि वह परमेश्वर का सेवक था, फिर भी परमेश्वर ने देखा कि इसको यह अहंकार, मेरे तक आने में प्रतिबन्धक बनेगा । तब परमेश्वर ने आकाशवाणी की कि हे बन्दे ! ऐसे अहंकार करने से मुझे प्राप्त नहीं होगा । तत्काल ही उसका अहंकार नष्ट हो गया और परमेश्वर के सामने नत - मस्तक हो गया । परमेश्वर को अहंकार प्रिय नहीं है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/९४-९५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू सांई को संभालतां, कोटि विघ्न टल जांहि ।*
*राई मन बैसंदरा, केते काठ जलांहि ॥९४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर का अखंड सुरति में स्मरण करने से जन्म - जन्मान्तरों के कर्म - बन्धन कट जाते हैं । जैसे अल्प अग्नि से असंख्य वृक्ष जल जाते हैं, इसी तरह आत्म - ज्ञान रूपी अग्नि के प्रज्वलित होते ही कर्मरूप काष्ठ प्रदग्ध हो जाते हैं ॥९४॥ 
"हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तगतैरपि । 
अनिच्छयाSपि संस्पृष्ठो दहत्येव हि पावक: ॥ 
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*करतूति कर्म*
*कर्मे कर्म काटै नहीं, कर्मे कर्म न जाइ ।*
*कर्मे कर्म छूटै नहीं, कर्मे कर्म बँधाइ ॥९५॥* 
इति निष्कर्म पतिव्रता का अंग संम्पूर्ण ॥अंग ८॥साखी ९५॥ 
टीका - हे कर्म करने वाले ! सकाम कर्म करने से कर्मों के बंधन नहीं कटते हैं । सकाम कर्मों के करने से जन्म - जन्मान्तरों के संचित कर्म नहीं छूटते हैं । बल्कि सकाम कर्मों से तो जीव बँधा रहता है अर्थात् यज्ञ आदि काम्य कर्मों से कर्मबंधन नहीं कटते हैं । प्रत्युत नाना काम्य कर्मों के वशीभूत होकर, यह प्राणी कर्म - बन्धन में ही बँधा रहता है और जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमता है । इसलिए आत्म - ज्ञान के द्वारा कर्मों से मुक्त होइये ॥९५॥ 
"कर्मण्यारभते देही, देहेनात्मानुवर्तिना । 
कर्मभिस्तनुते देहमुभयं, त्वविवेकत: ॥ 
"यावत्क्रिया: तावत् इदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्ध:" -भागवत
"नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि"(ब्रह्मसूत्र)
जीवात्मा को कर्मानुसार शरीर प्राप्त होता है और सूक्ष्म शरीर द्वारा किये गये कर्मों का फल जीव को भुगतना अवश्य पड़ता है । बिना कर्मों का फल भोगे कोई जीव बच नहीं सकता । 
"घट घट दादू कहि समझावे, जैसा करै सो, तैसा पावे ।' 
चाहे करोड़ों युग क्यों न बीत जायें । 
राम नाम निज छाड़कर, कीजे आम धरम । 
ज्यों पारस बिन लोह का, कदे न कटहि करम ॥ 
इति निष्कर्म पतिव्रता का अंग टीका और दृष्टांन्तों सहित सम्पूर्ण ॥अंग ८॥साखी ९५॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/९१-९३)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*फल कारण सेवा करै, जाचै त्रिभुवन राव ।*
*दादू सो सेवक नहीं, खेले अपना दाव ॥९१॥* 
*सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥९२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन अन्तर्यामी त्रिभुवनपति परमेश्वर से भोग्य पदार्थ एवं स्वर्ग आदि लोकों की याचना करते हैं, परन्तु ऐसे पुरुष प्रभु के पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले सेवक नहीं हैं । वे स्वार्थपूर्ति हेतु भक्ति का ढोंग करते हैं । ऐसे माया में आसक्ति रखने वाले मूर्ख संसारीजन कहिए, निषिद्ध भोगों में फँसे हुए नाना प्रकार के सकाम कर्म करते रहते हैं । अतः वे सब मोक्ष रूपी फल से निष्फल ही रहते हैं ॥९१/२॥ 
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*स्मरण नाम महात्म*
*तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार ॥९३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सिरजनहार परमेश्वर के नाम - स्मरण में अपने तन को निर्दोष(चोरी, जारी, हिंसा से रहित) बनाकर और मन को संकल्प, विकल्प, तृष्णा से हटाकर, लगे रहें और फिर परमेश्वर से इस लोक और परलोक के तुच्छ पदार्थों की याचना न करें, ऐसे निष्कामी पतिव्रत - धर्म धारण करनेवाले बिरले पुरुष होते हैं ॥९३॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/८८-९०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।*
*अठ सिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥८८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्यतम उत्तम भक्तजन उपर्युक्त चारों मुक्तियों को भी नहीं चाहते हैं और अष्ट सिद्धि एवं नौ निधि का तो कहना ही क्या है ? इनकी तो इच्छा ही नहीं करते । इस प्रकार पूर्ण निष्काम - भाव होकर एक प्रभु के पतिव्रत में ही रत रहते हैं और कामना का भाव ही विलय हो जाता है ॥८८॥ 
छन्द - 
जल को सनेही मीन बिछुरत तजै प्रान, 
मणि बिनु अहि जैसे जीवत न लहिये ।
स्वाति बिंदु को सनेही प्रगट जगत मांहि, 
एक सीप दूसरो सु चातक हु कहिये ।
रवि को सनेही पुनि कमल सरोवर में, 
शशि को सनेही सु चकोर जैसे रहिये ।
तैसे ही "सुन्दर" एक प्रभु से सनेह जोर, 
और कछु देखि काहु और नहीं बहिये ॥ 
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*आन लग्न व्यभिचार*
*स्वारथ सेवा कीजिये, ताथैं भला न होइ ।*
*दादू ऊसर बाहि कर, कोठा भरै न कोइ ॥८९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे ऊसर(कालर) भूमि के बोने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता अर्थात् धान पैदा नहीं होता है । वैसे ही परमेश्वर की सकाम भक्ति करने से आत्म - कल्याण सम्भव नहीं है और न कोई देवी - देवताओं की आराधना से ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है । इसलिए उत्तम जिज्ञासु के लिए ये सब त्याज्य हैं ॥८९॥ 
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*सुत वित मांगैं बावरे, साहिब सी निधि मेलि ।*
*दादू वे निष्फल गये, जैसे नागर बेलि ॥ ९०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर जैसी अपूर्व निधि को त्यागकर मूर्ख लोग पुत्र, धन, स्वर्ग आदि की याचना करते हैं, परन्तु नागर बेल के जैसे फल नहीं लगते, वैसे ही वे मोक्ष रूप फल से शून्य रहते हैं ॥९०॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/८६-८७)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*घट अजरावर ह्वै रहै, बन्धन नांही कोइ ।*
*मुक्ता चौरासी मिटै, दादू संशय सोइ ॥८६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह घट शरीर अजर - अमर हो जाय, जैसे भरथरी और गोपीचन्द आदि का हो गया । ये सभी माया - बन्धन हैं और चौरासी के दुःख मिट जावें, मुक्त हो जावें, ये सभी कामनारूप संशय हैं । परन्तु परमेश्वर के सच्चे पतिव्रत - धर्म को धारण करनेवाले भक्तों में तो यह कोई भी वासना रूप बन्धन नहीं होता । वे तो परमेश्वर के शुद्ध प्रेम का प्याला ही पान करते हैं ॥८६॥ 
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*लाँबि रस*
*निकटि निरंजन लाग रहु, जब लग अलख अभेव ।*
*दादू पीवै राम रस, निहकामी निज सेव ॥८६-क॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक ब्रह्म में मिलकर वृत्ति एकरूप न हो जावे, तब तक एकत्व का अभ्यास निरंजन देव में करते रहो । इस प्रकार पूर्ण निष्काम भाव से निरंजन राम के परायण होकर अखंड राम - रस पान कीजिए ॥८६-क॥ 
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*परिचय पतिव्रत*
*सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोइ ।*
*सारूप्य सारीखा भया, सायुज्य एकै होइ ॥८७॥* 
टीका -(१) सालोक - ईश्वर के साथ वास होवे ।(२) सामीप्य - जिसमें प्रभु सन्मुख रहे ।(३) सारूप्य - जिसमें ईश्वर के सदृश्य होवे ।(४) सायुज्य - ईश्वर में ही लय हो जावे ॥८७॥ 
परन्तु इनके विषय में दार्शनिकों के भिन्न - भिन्न विचार हैं, जैसे - सांख्य शास्त्र वाले आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक भेद से, भिन्न - भिन्न त्रिविध दुःखों के अत्यन्त अभाव को मुक्ति मानते हैं और प्रकृति व पुरुष के विवेक ज्ञान को उसमें कारण बतलाते हैं । योग दर्शन वाले, भोग व अपवर्गरूप पुरुषार्थ से शून्य गुणों का अपने कारणभूत प्रकृति में लय होना तथा चित्त शक्ति का अपने स्वरूप मप्रतिष्ठित होना ही मुक्ति है, ऐसा कहते हैं । वैशेषिक बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म एवं भावना संस्कार, इन नौ गुणों के अत्यन्त ध्वंस को मुक्ति बतलाते हैं और द्रव्यगुण कर्म आदि सातों पदार्था के साधम्र्य तथा वैधम्र्य के ज्ञान से उत्पन्न तत्वज्ञान सहित, आत्म - साक्षात्कार को उसका कारण बतलाते हैं । नैयायिक भी अत्यन्त दुःख निवृत्ति को ही मुक्ति का स्वरूप मानते हैं । किन्तु उसमें कारण, प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के सम्यग् ज्ञान से जन्य तत्वज्ञान को स्वीकार करते हैं । आत्म - ज्ञान पूर्वक वैदिक कर्मों को अनुष्ठान करने से धर्म एवं अधर्म का समूल नाश हो जाता है और उससे देह, इन्द्रिय आदि सम्बन्ध का अत्यन्त उच्छेद हो जाता है । देह इन्द्रियादिक सम्बन्ध के इस अत्यन्त नाश का नाम ही मुक्ति है । ऐसा प्रभाकर मत के अनुयायी मानते हैं । ज्ञान और कर्म दोनों के अनुष्ठान से जड़बोध स्वरूप आत्मा में नित्य ज्ञान एवं नित्य सुख का उदय होता है । यह नित्य सुख ही व्यक्ति की मुक्ति है, ऐसा भट्टमतानुयायी स्वीकार करते हैं । नारद कृत पंचरात्र आदि शास्त्रों में निरूपित रीति के अनुसार वैष्णव धर्मा का पालन करने से विष्णु की कृपा प्राप्त हो जाने पर विष्णु - लोक में स्थित होना ही मुक्ति है । ऐसा वैष्णव मानते हैं । गोलोक में श्री कृष्ण के साथ रासलीला आदिक का अनुभव करना मुक्ति है । यह बल्लभ सम्प्रदाय के मानते हैं । पशुपति की पूजा करने से जीव का स्वयं का पशु के पाश छूट जाने पर नित्य पशुपति के पास रहना ही मुक्ति है । यह पशुपति मतानुयायियों का मत है । वेदान्त के ज्ञान द्वारा अज्ञान का नाश होने पर नित्य सुख - स्वरूप आत्मा का ज्ञान हो जाने के बाद यह नित्य सुखरूप आत्मा ही मुक्ति का स्वरूप है । ऐसा वेदान्तियों का अभिमत है । दुःख के अज्ञानजन्य होने के कारण ज्ञान हो जाने पर दुःख नाश भी आनुषंगिक ही हो जाता है । इस तरह मुक्ति सिद्धान्त के स्वरूप एवं कारण के विषय में और भी मत हैं । किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर दुःख का अत्यन्त परिहार तथा सुख प्राप्ति ही मुक्ति का स्वरूप सिद्ध होता है । सारे मतों का सारभूत सिद्धान्त यही है । छुटकारा अर्थ का बोधक मुक्ति शब्द भी इसी अर्थ को व्यक्त करता है कि मनुष्य की अत्यन्त दुःख निवृत्ति ही मुक्ति है । परन्तु वेदान्तियों को छोड़कर शेष सभी शरीर छोड़ने के बाद ही इस दुःख निवृत्ति रूप मुक्ति को मानते हैं । देह - त्याग से पूर्व जीवित अवस्था में नहीं, किन्तु वेदान्ती केवल ऐसा मानते हैं कि ज्ञान हो जाने के बाद अज्ञान के नष्ट हो जाने से अज्ञान मूलक सब कलेशों एवं तन में राग आदि का नाश जीवित अवस्था में ही हो जाता है । इसलिये ज्ञानी को वे जीवन - मुक्त कहते हैं । जीवन शब्द का व्युत्पत्यर्थ भी इसी बात को स्पष्ट कर रहा है कि जीवितावस्था में ही ज्ञानी को क्लेशों से निवृत्ति हो जाती है, जैसा कि श्रुति बतला रही है -
भिद्यते हृदय - ग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व - संयाः । 
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥इति॥ 
ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज वेदान्त के अनुसार जीवन - मुक्ति को ही वास्तविक मुक्ति मानते हैं । उनका मत है कि मनुष्य ज्ञान के द्वारा, परमेश्वर उपासना द्वारा, नामोच्चारण द्वारा, मन इन्द्रिय व प्राण का निरोध करता हुआ देह आदि के अध्यास को सर्वथा नष्ट कर दे और शुद्ध निरंजन आत्मा में अपनी सुरति को अविच्छिन्न रूप में लगा दे । जिस से सर्वदा उस शाश्वत आनन्द की अनुभूति होती रहे और किसी भी प्रकार के दुःख की प्रतीति न हो । जीते जी इस दशा को प्राप्त करना, उनके मत में वास्तविक मुक्ति है । यदि जीते जी मनुष्य इस अवस्था तक न पहुँच सका, तो फिर देह - त्याग के बाद दुःख - निवृत्ति व आनन्द की प्राप्ति की आशा रखना सर्वथा व्यर्थ है । इस तरह वे इस बात को भी मिथ्या मानते हैं कि मुक्ति किसी लोकान्तर की वस्तु है, जैसा कि दार्शनिक गो - लोक - वास को मुक्ति स्थान स्वीकार करते हैं । मुक्ति इसी संसार में और इसी शरीर में प्राप्त हो जाती है । उसके लिए लोकान्तर - गमन की आवश्यकता नहीं है । यदि इस संसार में वा इस शरीर में दुःख निवृत्तिरूप मुक्ति नहीं हुई तो वह लोकान्तर में जाने पर मुक्ति मिलेगी, इन बातों को वे सर्वथा मिथ्या एवं पाखण्ड मानते हैं । जैसे - 
दादू जीवत छूटै देह गुण, जीवत मुक्ता होइ । 
जीवत काटै कर्म सब, मुक्ति कहावै सोइ ॥ 
दादू जीवत ही दूतर तिरै, जीवत लंघे पार । 
जीवत पाया जगत गुरु, दादू ज्ञान विचार ॥ 
जीवत मेला ना भया, जीवत परस न होइ । 
जीवत जगपति ना मिले, दादू बूडे सोइ ॥ 
जीवत दूतर ना तिरे, जीवत न लंघे पार । 
जीवत निर्भय ना भये, दादू ते संसार ॥ 
दादू मूवा पीछे मुक्ति बतावैं, मूवा पीछे मेला । 
मूवा पीछे अमर अभय पद, दादू भूले गहिला ॥ 
मूवा पीछे बैकुंठ बासा, मूवा स्वर्ग पठावैं । 
मूवा पीछे मुक्ति बतावैं, दादू जग बोरावैं ॥ 
इस तरह जीवन - मुक्ति को ही वास्तविक मुक्ति माना है । देह - त्यागान्तर मुक्ति को मुक्ति नहीं माना । इसीलिए उनमें मुक्ति एवं मुक्ति का स्वरूप बतलाते हुए कह दिया है कि "जीवित मिले सो जीवते, मुये मिलि मर जात." अर्थात् जीते जी अविद्या आदि बन्धनों का परित्याग कर परमात्मा से मेल कर लिया तो वास्तविक जीना ही मुक्ति है । अगर ऐसा नहीं तो मरने के बाद परमात्मा में मिलना नहीं, मरना ही है, संसार में आवागमन करना है, वह मुक्ति नहीं है । इस विषय में एक युक्ति का भी प्रदर्शन उन्होंने किया है कि यदि देह मुक्ति से ही मुक्ति होवे, तो फिर देह - त्याग प्रत्येक व्यक्ति का होने से प्रत्येक व्यक्ति की ही मुक्ति होनी चाहिए । यह मुक्ति स्थूल शरीर के नाश से कभी सम्भव नहीं है, किन्तु सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर अर्थात् अविद्या, काम, कर्म एवं पूर्व - प्रज्ञा के नाश से ही हो सकती है । ब्रह्मऋषि दादू जी महाराज ने स्थूल शरीर के नाश को पिण्ड - मुक्ति तथा सूक्ष्म व कारण शरीर के परित्याग को प्राण - मुक्ति पद से व्यवहृत किया है और यह भी बताया है कि पिण्ड - मुक्ति सब व्यक्ति करते हैं किन्तु प्राण - मुक्ति कहिए जीवन - मुक्ति कोई बिरले ही व्यक्ति सम्पादन किया करते हैं, जैसे - 
पिण्ड मुक्ति सब कोई करै, प्राण मुक्ति नहीं होइ । 
प्राण मुक्ति सतगुरु करै, दादू बिरला कोइ ॥ 
कबीर जी, दादू जी आदि संतों ने जीवनमुक्त पुरुष के लिये "जीवतमृतक" शब्द का प्रयोग किया है । इनके मत में वेदान्तियों की तरह आत्मा सदा नित्यमुक्त व नित्यानन्द - स्वरूप है, केवल अविद्या के कारण ही हम संसारी व बन्धनयुक्त हो रहे हैं । यदि हमने आपा को मार दिया है तो हम मुक्त हैं और परमेश्वर से मिल जाते हैं । जीवित अवस्था में ही मुक्ति के एवं परमेश्वर - प्राप्ति के प्रतिबन्धक इस आपे को मार देना चाहिये । जिस साधक ने ऐसा कर लिया, वह आपा को मारने के कारण जीवत मृतक हो जाता है और इसका अध्यास नहीं होना ही परमात्मा के साक्षात्कार का प्रधान कारण है । ब्रह्मऋषि दादू जी ने बतलाया है कि जीव - पीव की प्राप्ति के प्रतिबन्धक इस "आपा" का परित्याग करे, और उस तत्व को पहिचाने, जिससे यह आपा पैदा होता है ।
साख्या
दादू तो तूं पावै पीव को, मैं मेरा सब खोइ । 
मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होइ ॥ 
दादू तो तूं पावै पीव को,आपा कछू न जान । 
आपा जिस थैं ऊपजै, सोई सहज पिछान ॥ 
दादू तो तूं पावै पीव को, जे जीवत मृतक होइ । 
आप गँवाये पीव मिले, जानत है सब कोइ ॥ 
दादू मृतक तब ही जानिये, जब गुण इन्द्रिय नांहि ।
जब मन आपा मिट गया, तब ब्रह्म समाना मांहि ॥ 
उपर्युक्त रीति से जीते जी, मनोवृत्ति को पूर्णरूप से आत्मा में लगाकर, सुख दुःख आदि द्वन्द्वों से रहित हो जाना, यही ही जीवन - मुक्ति तथा वास्तविक मोक्ष दुःखत्रय से छुटकारा है । 
(क्रमशः)

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/८३-८५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*प्रेम पियाला राम रस, हमको भावै येहि ।*
*रिधि सिधि मांगैं मुक्ति फल, चाहैं तिनको देहि ॥८३॥* 
टीका - हे प्रभु ! हमारे को तो कहिए, आपका निष्काम पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले भक्तों के लिए तो आपकी प्रेमा - भक्ति रूप रस से परिपूर्ण प्रेम का प्याला पिलाइये, यही एक हमारी प्रार्थना है । नौ निधि, आठ सिद्धि, चार प्रकार की मुक्ति और चार फल, इनकी जिनको इच्छा लगी है, उनको देओ । हमारे तो इनकी कोई इच्छा नहीं है ॥८३॥ 
छन्द - 
नीर बिन मीन दुखी, क्षीर बिन शिशु जैसे, 
पीर जाके दवा बिन कैसे रह्यो जात है ।
चातक जू स्वाति बूंद, चंद को चकोर जैसे, 
चंदन की चाह करि सर्प अकुलात है ॥ 
नीधन ज्यूँ धन चाहै, कामिनि कूं कंत चाहै, 
ऐसी जाके चाहि ताहि कछू न सुहात है ।
प्रेम को प्रभाव ऐसो, प्रेम तहाँ नेम कैसो, 
"सुन्दर" कहत यह प्रेम ही की बात है ॥ 
.
*कोटि वर्ष क्या जीवना, अमर भये क्या होइ ।*
*प्रेम भक्ति रस राम बिन, का दादू जीवन सोइ ॥८४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ईश्वर से विमुख रहकर, कोटि वर्ष जीकर, अमर होने से भी हमको क्या लाभ है ? क्योंकि प्रेमाभक्ति रूप राम - रस का पान किये बिना यह मनुष्य जीवन वृथा ही जा रहा है । वह एक क्षण भी हमारा सफल है, जो प्रेमाभक्ति में बीतता है ॥८४॥ 
जीवनं विष्णुभक्तस्य वरं पंच दिनानि च । 
न तु कल्पसहस्त्राणि, भक्तिहीनस्य, केशव ॥ 
"पलक एक जीवन भला, प्रकट सु परसे राम । 
कोटि वर्ष क्या जीवना, बिन दर्शन बेकाम ॥ 
करडाले स्वामी रहे, तहाँ एक आवत प्रेत । 
पूछी प्रभु "मैं ग्वाल हो, बड़ी आयु वर लेत" ॥ 
दृष्टांत - ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज जब करडाले पहाड़ में निवास करते थे । वहाँ रात्रि को महाराज के सामने एक प्रेत आकर नाना प्रकार की चेष्टाएँ दिखाने लगा । गुरुदेव बोले - तू पूर्व जन्म में कौन था ? वह बोला - महाराज मैं ग्वाल था और संतों का सेवक था । गुरुदेव बोले - संतों का सेवक तो प्रेत नहीं होता है । प्रेत बोला, महाराज ! मेरे यहाँ एक संत आये, मैंने उनकी खूब सेवा की । वे प्रसन्न होकर बोले - मांग क्या चाहता है ? मैंने कहा - मेरी हजार वर्ष की उम्र कर दो । संत बोले - इस जन्म में तो नहीं, अगला जन्म तुम्हें हजार वर्ष की आयका मिल जाएगा । इसी से मुझे यह प्रेत योनि प्राप्त हो गई । ब्रह्मऋषि बोले - देखो, सकाम सेवा करने से दुःख हुआ । प्रेत बोला - अब मैं आपकी शरण हूँ, मेरा उद्धार करो । गुरुदेव ने अपनी झारी में से जल लेकर "सत्यराम" बोल कर छींटे मारे, प्रेत का शरीर छूट गया और दिव्य रूप होकर परम गति को प्राप्त हो गया ।
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*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥८५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! किसी प्रकार की भी कामना नहीं करना, क्योंकि कामना दुःख देने वाली होती है,चाहे सगुण की हो या निर्गुण की हो । जीव से पलट कर ब्रह्मगति को प्राप्त हो जावें और सब कोई हमारी मान प्रतिष्ठा करें, ये सभी कामनाएँ दु:ख देने वाली हैं । निष्काम पतिव्रत - धर्म धारण करनेवाले भक्त, इन सबसे अलग रहते हैं और प्रभु में गद्गद् बने रहते हैं ॥८५॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/७९-८१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*पतिव्रत*
*दादू दूजा कुछ नहीं, एक सत्य कर जान ।*
*दादू दूजा क्या करै, जिन एक लिया पहचान ॥८०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! आभासवान् जगत प्रपंच में किंचित् भी यथार्थता नहीं है, अर्थात् सत्यता नहीं हैं । देवी, देव आदि की नाना साधनाएं सब नश्वर हैं । एक अद्वैत ब्रह्म ही त्रिकाल में अविनाशी है और जब मुक्तजन अखंड एकरस ब्रह्मतत्व का निर्णय कर लेते हैं, तब उनको देवी, देव आदि का भरोसा या भय नहीं रहता है ॥८०॥ 
सुन्दर हरि आराधिये, सब देवन का देव । 
पीव बिन और न मानिये सबै भींत का लेव ॥ 
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*दादू कोई वांछै मुक्ति फल, कोइ अमरापुर वास ।*
*कोई वांछै परमगति, दादू राम मिलन की प्यास ॥८१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कोई तो सालोक आदि मुक्ति चाहते हैं, कोई चार पदार्थ मांगते हैं, कोई अमरापुर में वास करना मांगते हैं, कोई परमगति की इच्छा लेकर परमेश्वर का स्मरण करते हैं । परन्तु ब्रह्मऋषि सतगुरु कहते हैं कि "हमारे" कहिए, निष्काम पतिव्रत धर्म को, धारण करने वाले विरहीजन भक्तों के तो केवल राम से मिलने की ही इच्छा है ॥८१॥ 
ज्ञानत: सुलभा मुक्ति: भुक्ति: यज्ञादि पुण्यत: । 
सेयं साधन सहस्त्रे: हरिभक्ति: सुदुर्लभा: ॥ 
छन्द - 
हमकूं तो रैन दिन, शंक मन मांही रहै, 
उनकी तो बातन में ढंग हु न पाइये ।
कबहूँ संदेशा सुनि, अधिक उच्छाव होइ, 
कबहुंक रोइ रोइ आसूं न बहाइये ॥ 
औरन के रस बस होइ रहे प्यारे लाल, 
आवन की कहि कहि हमको भुलाइये ।
"सुन्दर" कहत ताहि काटिये सु कौन भाँति, 
जोइ तरु आपने सु हाथ तैं लगाइये ॥ 
*तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द ।*
*दादू देखै नैन भर, तब केता होइ आनन्द ॥८२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मऋषि अपने को उपलक्षण करके भक्तों की परम प्रेम - प्रीति का प्रतिपादन करते हैं कि हे प्रभु ! हे हरि ! हे परमानन्द स्वरूप ! हमारे अन्तःकरण में आपकी अनन्य भक्ति का भाव उदय करके आप अपने भक्तों को दर्शन दीजिए । ताकि हम अपने स्थूल नेत्रों से आपके दर्शन करके अथवा विवेक वैराग्यरूपी नेत्रों से आपके व्यापक स्वरूप का दर्शन करके कृत कृत्य भाव को प्राप्त होवें ॥८२॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/७७-९)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*साधू राखै राम को, संसारी माया ।*
*संसारी पल्लव गहै, मूल साधू पाया ॥७७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्य प्रभु भक्त एक परमेश्वर का ही पतिव्रत रखते हैं और संसारीजन सकाम कर्मरूप डाल - पत्तों में ही भ्रमते रहते हैं । संतजन एक पूर्ण ब्रह्म में अखण्ड लय लगाकर एकरस होते हैं ॥७७॥ 
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*आन लगन व्यभिचार*
*दादू जे कुछ कीजिये, अविगत बिन आराध ।*
*कहबा सुनबा देखबा, करबा सब अपराध ॥७८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अव्यक्त, अविनाशी, निराकार की आराधना छोड़कर, जो कुछ वाणी से कहना है, कानों से सुनना है, आँखों से देखना है, कर्मेन्द्रियों से कुछ कर्म करना है, ये सब "अपराध" कहिए, दुष्कर्म हैं(खोटे कर्म) हैं । इनके परिणाम का फल दुःख ही होता है अर्थात् शांति सुख प्राप्त नहीं होता ॥७८॥ 
क्या पंडित क्या मूर्ख, क्या राव क्या रंक । 
जगन्नाथ हरि बिन करै, सौ व्यभिचार कलंक ॥ 
छन्द - 
जो हरि को तज आन उपासत, 
सो मति मंद फजीहत होई । 
ज्यूं अपने भरतार ही छोड़, 
भई बिभचारनी कामिनी कोई ॥ 
सुन्दर ताहि न आदर मान, 
फिरै बिमुखी अपनी पत खोई । 
बूड़ि मरै किन कूप मंझार, 
कहा जग जीवत है सठ सोई ॥ 
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*सब चतुराई देखिए, जे कुछ कीजै आन ।*
*दादू आपा सौंपि सब, पीव को लेहु पिछान ॥७९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर की आराधना से अलग और कोई भी वैदिक या लौकिक कार्य किया जावे, वह सब दुनियावी चतुराई कही जाती है । अनन्य पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले परमेश्वर के भक्त उनमें न फँसकर अपना अनात्म - अहंकार देहाध्यास आदि सम्पूर्ण आपा परमेश्वर के अर्पण करके पीव परमात्मा को पहचान लेते हैं ॥७९॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/७४-७६)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू जब मुख मांहि मेलिये, तब सब ही तृप्ता होइ ।*
*मुख बिन मेले आन दिश, तृप्ति न माने कोइ ॥७४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे भोजन का ग्रास मुख में चबाने से समस्त शरीर तृप्त और पुष्ट होता है और वही ग्रास अन्य इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करें तो किसी की भी तृप्ति नहीं होती, प्रत्युत अंग - भंग और हो जाता है । इसी तरह अपनी अन्तःकरण की वृत्ति को एकाग्र करके पूर्ण ब्रह्म में अखंड लय लगाइये, तो सभी देवी - देवताओं की तृप्ति और नर - तन सफल हो जाता है ॥७४॥ 
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*जब देव निरंजन पूजिये, तब सब आया उस मांहि ।*
*डाल पान फल फूल सब, दादू न्यारे नांहि ॥७५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे वृक्ष के मूल में जल सींचने से वृक्ष के अंग उपांग सभी सींचे जाते हैं । इसी प्रकार एक निर्गुण राम को निज आत्म - स्वरूप जानकर उसकी उपासना करने से देवी - देव की उपासना, तीर्थ, व्रत, दान, पुण्य, यज्ञ, योग आदि सम्पूर्ण साधना उसकी मानो सिद्ध हो गई हैं ॥७५॥ 
यथा तारोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति 
तत्स्कन्धभुजोपशाखा: । 
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां 
तथैव सर्वार्हणयच्युते ज्या ॥ 
(भागवत)
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*दादू टीका राम को, दूसर दीजे नांहि ।*
*ज्ञान ध्यान तप भेष पक्ष, सब आये उस मांहि ॥७६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! एक व्यापक राम की उपासना रूप टीका को हृदय में जिसने धारण कर लिया है, वह राम से अलग अन्य अनात्म - पदार्थों को मान्यता नहीं देते हैं । ज्ञान, ध्यान, तप, भेष, बाना, पक्ष(मत - मतान्तरों की हद), ये सब ही साधनाएँ उस राम की उपासना के अन्तर्गत ही सब सार्थक हो जाती हैं, अर्थात् आ जाती हैं ॥७६॥ 
नागर टीका नाम को, और हि दिया न जाइ । 
बहु मेवा पकवान बहु, सुख होवै मुख खाइ ॥
(क्रमशः)

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/७१-७३)

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू सींचे मूल के, सब सींच्या विस्तार ।*
*दादू सींचे मूल बिन, बाद गई बेगार ॥७१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्य पतिव्रत - धर्म को धारण करने वाले जो भक्त सबका मूल कारण ईश्वर को जानकर उसकी आराधना में लगे हैं, उनकी आराधना विस्तार को प्राप्त होती है अर्थात् परमात्मा रूप ही उनको बना देती है । और जो संसारीजन ईश्वर को छोड़कर अन्य सकाम - कर्म रूप साधनों के द्वारा दूसरी उपासना करते हैं, उनकी वह साधना व्यर्थ ही नष्ट हो जाती है और उनको यथार्थ लाभ प्राप्त नहीं होता ॥७१॥ 
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*सब आया उस एक में, डाल पान फल फूल ।*
*दादू पीछे क्या रह्या, जब निज पकड्या मूल ॥७२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे वृक्ष के मूल को सींचने से समस्त डाल, पान, फल, फूल आदि का स्वतः ही पोषण होता है, इसी प्रकार आत्मा रूप परमात्मा का अनुभव होने से मनुष्य जीवन के समस्त कर्तव्य सफल हो जाते हैं ॥७२॥ 
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*खेत न निपजै बीज बिन, जल सींचे क्या होइ ।*
*सब निष्फल दादू राम बिन, जानत है सब कोइ ॥७३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! खेत में बीज नहीं डालने से फसल प्राप्त नहीं कर सकते, कितना ही पानी क्यों न सींचें । इसी प्रकार अन्तःकरण रूपी खेत में जब तक गुरु उपदेश रूपी बीज नहीं डालें, तब तक राम की भक्ति के बिना संसारीजनों को मोक्ष रूपी फल प्राप्त नहीं होता । इस बात को सभी तत्ववेत्ता पुरुष समझते हैं । इसलिए गुरुदेव का उपदेश रूपी बीज अन्तःकरण में डालिये यानी धारण करिये ॥७३॥ 
बहुत बार भू बाइये, जल सींचे सत बार । 
तामें बीज न बोइये, क्या लूणेगा गँवार ॥ 
बीज रूप हरि भक्ति है, सो तो तुम्हरे नाहिं । 
घणी सहोगे सासनां, जम की दरगह माहिं ॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/६८-७०)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*सो धक्का सुनहाँ को देवै, घर बाहर काढै ।*
*दादू सेवक राम का, दरबार न छाड़ै ॥६७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! घर में पाले हुए कुत्ते को सौ दफा ताड़ना करने से भी वह मालिक का दरवाजा नहीं छोड़ता है, इसी प्रकार राम अपने भक्तों को चाहे कितनी ताड़ना कसौटी देवे, तो भी सच्चे भक्त राम के पतिव्रत में स्थित हुए राम का दरबार(सत्संग या स्मरण) छोड़कर अन्यत्र नहीं जाते, क्योंकि वे जानते हैं कि हमारे स्वामी तो केवल हे राम! आप ही हो । आप को छोड़कर हम किसके आसरे जी सकते हैं ?।६७॥ 
भावै बरसो स्वाति जल, भावै असम अपार । 
चातक के घन ही सरन, रुचै सु करहि विचार ॥ 
रहो जु माथो टेक के, गहो कि छाडो हाथ । 
चरन सरन बिन जीव को, और ठौर नहिं नाथ ॥ 
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*साहिब का दर छाड़ि कर, सेवक कहीं न जाय ।*
*दादू बैठा मूल गह, डालों फिरै बलाय ॥६८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमात्मा का स्वस्वरूप दरबार या सत्संग रूपी दरबार, गुरु के दरबार को छोड़ कर उत्तम जिज्ञासु अन्य दूसरे साधनों में जाकर साधना नहीं करते । वे तो उसका उपादान कारण, आत्म - स्वरूप ब्रह्म को जानकर, कृत - कृत्य रहते हैं । अन्य साधनों में वे क्यों फिरने लगे ? "डालों फिरै बलाय" । उनसे विपरीत संसारीजन देवी - देवताओं की उपासना रूप बलाय को अपनी गले में डालकर जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमते रहते हैं ॥६८॥ 
*दादू जब लग मूल न सींचिये, तब लग हरा न होइ ।*
*सेवा निष्फल सब गई, फिर पछताना सोइ ॥६९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब तक वृक्ष के मूल में जल नहीं सींचें, तब तक वृक्ष हरा नहीं हो पाता, क्योंकि डाल पत्तों को सींचने से वे सब गलकर नष्ट हो जाते हैं और फिर वृक्ष ही सूख जाता है तथा वह जो पुरुषार्थ किया था, सब व्यर्थ ही जाता है । दृष्टांत में, हे जिज्ञासुओं ! सबका कारणमूल ईश्वर है, उसकी आराधना त्यागकर अन्य देवी - देवताओं की आराधना करें, तो मनुष्य - देह रूपी वृक्ष सूख जाता है, यानी नष्ट हो जाता है ॥६९॥ 
कवित्त
अजा कंठ थण को, दुह्यो, चह्यो तब नाहिं दूध पल । 
मृग मरीच दिसि धयो, गयो तब नाहिं नेक जल ॥ 
शुक सैंबल कर गह्यो, लेय फल रुई अनागत । 
सुपने संपत्ति सुक्ख, भुक्त नाहीं कछु जागत ॥ 
धूर धान जन भीष कर, नट दरिद्र अंत विधि जिसी । 
अंतकाल निरफल सकल, आन देव सेवा इसी ॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/६५-६७)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*दादू सो वेदन नहीं बावरे, आन किये जे जाइ ।*
*सब दुख भंजन सांइयाँ, ताहि सौं ल्यौ लाइ ॥६५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह संसार रूपी दुःख ऐसा नहीं है, जो किसी बहिरंग साधनों से मुक्त हो जावे । हे बावले ! सम्पूर्ण जन्म से मरण पर्यन्त दुःखों का नाश करने वाले तो एक परमेश्वर ही हैं । इसलिए अब तुम अन्तर्मुख वृत्ति होकर परमेश्वर का नाम स्मरण करो । वही सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाला है ॥६५॥ 
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*दादू औषध मूली कुछ नहीं, ये सब झूठी बात ।*
*जे औषध ही जीविये, तो काहे को मर जात ॥६६॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! "औषध मूली" कहिए ऊपर के पत्ते औषध और मूली, कहिए मूल जड़, इनमें जन्म - मरण दुःख को काटने की शक्ति नहीं है । यद्यपि दैहिक दुःख तो काट भी देते हैं, परन्तु चौरासी के दुःख काटने की इनमें ताकत नहीं है । अगर औषध मूली से ही जन्म - मरण रूपी दुःख कट जाय तो फिर कोई भी जन्म - मरण को प्राप्त नहीं होवे । इसलिए जन्म - मरण को काटने वाला तो केवल एक स्वस्वरूप आत्मा का पतिव्रत रूप स्मरण ही है ॥६६॥ 
बादशाह मरते समय, सब ठाढ़े किये लाइ । 
बैद सूर धन लोग कुल, सभी देखतां जाइ ॥ 
दृष्टांत - एक बादशाह के पास सन्त गए । बादशाह ने नमस्कार किया । संत बोले - परमेश्वर का नाम स्मरण किया करो, अंत में वही मदद करेगा । बादशाह बोला - मैं यह नहीं मानता, क्योंकि शरीर में रोग होगा, तो मेरे यहाँ डाक्टर वैद्य बहुत हैं । कोई लड़ाई करने आवेगा, तो शूरवीर बहुत हैं । और कोई आपत्ति आएगी, तो धन के खजाने भरे हैं, धन देकर निवारण कर दूँगा । मेरे बहुत परिवार है, वे मुझे सब प्रकार से सहयोग देने वाले हैं । नाम - स्मरण की क्या आवश्यकता है ? महात्मा बोले - ठीक है, अन्त समय में बताऊँगा । जब बादशाह का अन्त समय आया, महात्मा दूरदृष्टि थे, जान गए और बादशाह के पास आ पहुँचे । उपरोक्त सभी साधन बादशाह के पास मौजूद थे । महात्मा को देखकर बादशाह ने नमस्कार किया । संत बोbे - अब तुम जाने वाले हो, जिनका तुम्हें भरोसा था, उनमें से कोई भी तुम्हें नहीं बचा सकेगा प्राण - पिन्ड के दुःख से । बादशाह महात्मा के सामने नतमस्तक हो गया । महात्मा बोले - सर्वशक्तिमान् ईश्वर का नाम स्मरण कर । फिर बादशाह नाम - स्मरण द्वारा ही सद्गति को प्राप्त होगया ।
मरिये तो धन काहे को धरिये, ऊंडा ले ले क्यां न धरिये ॥ टेक ॥ 
पातसाह ले भर भंडारा । मरतां रती न चाल्यो लारा । 
लीजे दीजे खाजे बांटी । सो आगानैं थारी गांठी ॥ 
साधां सगला कह्यो पुकार । राम बिना जीव चाल्यो हार । 
'टीला' चेत रु कियो विचार । ताहे तिरत न लागी बार ॥ 
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*पतिव्रत*
*मूल गहै सो निश्चल बैठा, सुख में रहै समाइ ।*
*डाल पान भ्रमत फिरै, वेदों दिया बहाइ ॥६७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सर्व का कारण मूल एक परमेश्वर है, उसको निज आत्मास्वरूप से जानकर उसमें स्थित हो जाओ । तब तुम परमानन्द स्वरूप में समाओगे और संसारीजन तो डाल - पान रूप देवी - देवताओं की उपासना में लगकर जन्म - जन्मान्तरों में भटकते रहते हैं, क्योंकि वेदों में जो सकाम कर्मरूप वचन हैं, उनको सुना - सुनाकर बहिरंग पंडित लोग अज्ञानियों को बहकाते रहते हैं ॥६७॥ 
कुंडलिया
लटे पटे दिन काटिये, रहे घास पर सोय । 
छांह न उसकी बैठिये, पेड़ जु पतला होय ॥ 
पेड़ जु पतला होय, किसी दिन दगा कमावै । 
गहरी चाले पवन, उलट धरती पर आवै ॥ 
कहै गिरिधर कविराय, छांह मोटे की गहिये । 
डाल पान ख्रि जाय, तब भी छाया में रहिये ॥ 
(क्रमशः)

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/६२-६४)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
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*चरणहुँ अनत न जाइये, सब उलटा मांहि समाइ ।*
*उलट अपूठा आप में, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥६२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने चरणों से परमेश्वर के मार्ग पर चलना, दूसरे मार्ग पर नहीं जाना । हारिल पक्षी जमीन पर उतरता है तब अपने पंजे लकड़ी पर रखता है, जमीन पर पंजे नहीं टेकता, इसी प्रकार अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को बहिर्मुख साधनों से पलट कर अन्तर्मुख साधनों में लगाओ । सतगुरु महाराज कहते हैं कि भक्तजनों के एक परमेश्वर का ही पतिव्रत होता है, वे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों को आत्म - विचार में लगाकर अभेद होते हैं ॥६२॥ 
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*दादू दूजे अंतर होत है, जनि आने मन मांहि ।*
*तहाँ ले मन को राखिये, जहँ कुछ दूजा नांहि ॥६३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण जगत् में एक ब्रह्म - भावना किये बिना अन्तःकरण में द्वैतभाव व्याप्त होता है और परमेश्वर के पतिव्रत में भी अन्तर पड़ता है(फर्क आता है) । इसलिये देह अध्यास और माया प्रपंच के वश में होकर अपने मन में द्वैतभाव नहीं लाना । सर्व नाम रूप पदार्था में चैतन्य ब्रह्म ही व्यापक हो रहा है, ऐसा निश्चय करो । माया और माया के कार्या को मिथ्या जानकर निर्विशेष, निर्विकल्प, निरुपाधिक ब्रह्म में ही लय लगाओ ॥६३॥ 
"सुन्दर" आन सराहतां, पतिव्रत लागे खोट । 
बाल सराह्यो रैन का, बँधी न जल की पोट ॥ 
संत जुड़े परब्रह्म से, नृप आयो दीदार । 
पूछी प्रभु क्यों एकले, अबलौं द्वै बटपार ॥ 
दृष्टांत - एक संत परमेश्वर के ध्यान में बैठे थे । राजा दर्शन करने आया । दर्शन करके बोला - महाराज ! अकेले ही बैठे हो । संत बोले - अब तक तो दो(सेवक, स्वामी) थे । अब तू तीसरा स्मरण में फर्क डालने वाला बटपारा आ गया ।
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*भ्रम विध्वंस*
*भ्रम तिमिर भाजै नहीं, रे जिय आन उपाइ ।*
*दादू दीपक साज ले, सहजैं ही मिट जाइ ॥६४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने जीव में माया - प्रपंच का ज्ञान, कहिए संसार में सत्य बुद्धि और भ्रान्ति ज्ञान तथा सत्य वस्तुरूप ब्रह्म तत्व का जो अज्ञान है, वह सकाम अनुष्ठान, तीर्थ, व्रत, अन्य देवी - देवताओं की उपासना करने से तिमिर अर्थात् अज्ञान की निवृत्ति नहीं होवेगी, किन्तु सूर्य उदय होने से रात्रि रूपी अंधेरा स्वतः ही नाश हो जाता है । ऐसे ही हृदय में आत्मा का ज्ञान होने पर माया - प्रपंच की भ्रान्ति स्वतः नष्ट हो जाती है । इसलिए निरुपाधिक अद्वैत ब्रह्म का ही पतिव्रत धर्म धारण करिये ॥६४॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

= निष्कर्म पतिव्रता का अंग =(८/५९-६१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= निष्कर्म पतिव्रता का अंग ८ =*
.
*जनि बाझैं काहू कर्म सौं, दूजै आरंभ जाइ ।*
*दादू एकै मूल गहि, दूजा देइ बहाइ ॥५८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! किसी भी सकाम कर्म में अपनी वृत्ति को नहीं लगाना, क्योंकि सकाम कर्म बन्धन - कारक होता है । जो चैतन्य ब्रह्म से अलग है, वह सब कार्य विनाश होने वाला है । सर्व का मूल एक परमेश्वर है, उसमें लय लगाकर रहो और दूजी संसार की वासना, द्वैतभाव, इन सबका त्याग करो ॥५८॥ 
राम नाम निज छाड़ कर, कीजे आन धर्म । 
ज्यों पारस बिन लोह का, कदे न कट ही कर्म ॥ 
छन्द - 
जो हरि को तजि आन उपासत, 
सो मति मन्द फजीहति होई । 
ज्यूं अपने भरतार हि छाड़ि, 
भई व्यभिचारिनि कामिनि कोई ।
सुन्दर ताहि न आदर मान, 
फिरै विमुखी अपनी पत खोई । 
बूड़ि मरै किन कूप मंझार, 
कहा जग जीवत है सठ सोई ॥ 
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*बावें देखि न दाहिने, तन मन सन्मुख राखि ।*
*दादू निर्मल तत्व गह, सत्य शब्द यहु साखि ॥५९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! "बावें" - मृत्यु लोक के भोग, स्त्री, धन, पुत्र और "दाहिने" - स्वर्ग के ऐश्वर्य सुख; इन सबसे उदास होकर परमेश्वर में ही अपने तन - मन की अखंड लय लगाओ और कनक - कामिनी में कभी भी आसक्त नहीं होना । अपने तन - मन को चैतन्य परमेश्वर में स्थिर रखना ॥५९॥ 
कबीर कनक अरु कामनी, विष फल कीये उपाइ । 
देखे ही तैं विष चढ़े, खावे सो मर जाइ ॥ 
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*दादू दूजा नैन न देखिये, श्रवणहुँ सुने न जाइ ।*
*जिह्वा आन न बोलिये, अंग न और सुहाइ ॥६०॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! माया और माया के कार्य को नेत्रों से सत्य करके नहीं देखना, परमेश्वर को ही सत्य करके देखो । श्रवण इन्द्रिय से सांसारिक वार्ताएँ नहीं सुनना, परमेश्वर के गुणानुवाद श्रवण करना । अपनी जिह्वा से परमेश्वर के नाम का ही स्मरण करना, दूसरे का यश नहीं गाना । अपने शरीर में परमेश्वर से और सतगुरु से अलग और किसी का स्पर्श नहीं करना । परमेश्वर के अनन्य भक्तों को परमेश्वर के सिवाय और दूसरा कोई प्रिय नहीं लगता है ॥६०॥ 
चकोर कुरंग चातक रू मीन । 
नैन श्रवण रसन तन व्रत लीन ॥ 
जैसे चकोर की मुख्य - प्रीति चन्द्रमा से ही है, ऐसे ही मृग की मुख्य - प्रीति बरवा राग से है । चातक पपैया की मुख्य - प्रीति स्वाति नक्षत्र की बूंद से है और मछली की मुख्य - प्रीति जल से है । इन सबका उपरोक्त पदार्थों के साथ ही पतिव्रत है । ऐसे ही अनन्य भक्तों का परमात्मा के साथ पतिव्रत है ।
छन्द - 
पूरण काम सदा सुखधाम, 
निरंजन राम सु सृजनहारो । 
सेवक होइ रह्यो सब को नित, 
कीट हि कुंजर देत अहारो ।
भंजन दुःख दरिद्र निवारण, 
चिन्त करै पुनि साँझ सकारो । 
ऐसो प्रभु तज आन उपासत, 
सुन्दर ह्वै तिनको मुख कारो ॥ 
(क्रमशः)