सोमवार, 27 अप्रैल 2015

*= साँभर में दो सिद्धों का आना =*

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ एकादश विन्दु ~*
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*= साँभर में दो सिद्धों का आना =*
फिर दादूजी यह पद कहा -
"तिस घर जाना वे, जहां वे अकल स्वरूप ।
सोई अब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥टेक॥
अकल स्वरूप पीव का, बान वरण न पाइये ।
अखंड मंडल मांहिं रहै, सोई प्रीतम गाइये ॥
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
प्रकट पीव ते पाइये ।
सांई सेती संग सांचा, जीवित तिस घर जाइये ॥१॥
अकल स्वरूप पीव का कैसे करि आलेखिये ।
शून्य मंडल मांहिं साँचा, नैन भर सो देखिये ॥
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार सोई,
प्रकट होई, यह अचंभा पेखिये ॥
दयावन्त दयालु ऐसो, वरण अति विशेखिये ॥२॥
अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का,
सोई जन जे पाव ही ।
दयावन्त दयाल ऐसो, सहजैं आप लखाव ही ॥
लखे सु लखणहार वे, लखे सोई संग होई,
अगम बैन सुनाव ही ।
सब दुःख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गाव ही ॥३॥
अकल स्वरूप पीव का, कर कैसे करि आँणिये ।
निरंतर निर्धार आपै, अंतर सोई जाणिये ॥
जाणहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
सुमिर सोइ बखानिये ।
श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिये ॥४॥"
अर्थ: - हे साधक ! उस निर्विकल्प समाधि रूप घर में जाना चाहिये, जिसमें कला - विभाग से रहित वे निरंजन ब्रह्म प्राप्त होते हैं । अब सब देवताओं के राजा उसी ब्रह्म का ध्यान कर ॥टेक॥
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उस निराकार स्वरूप प्रियतम के भेष रंग, जाति नहीं मिलते । जो अपनी महिमा रूप अखंड मंडल में रहते हैं, उन्हीं प्रियतम ब्रह्म का नाम गानकर और यशगान करते हुये अन्तःकरण से विचार कर, जो उस सार स्वरूप ब्रह्म का अंतःकरण से विचार करते हैं, वे उसे प्रत्यक्ष आत्मरूप से प्राप्त करते हैं । निर्विकल्प समाधि - घर में जाकर जीवितावस्था में ही उन परब्रह्म के साथ अभेद रूप सच्चा संग प्राप्त कर ॥१॥
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निरवयव स्वरूप प्रियतम ब्रह्म का किसी भी प्रकार साक्षात्कार कर, वह सत्य ब्रह्म सहसास्त्रर रूप शून्य मंडल में स्थित भागता है, उसे ज्ञान - नेत्रों से इच्छा भरकर देखो । उस विश्व के सार को ज्ञान - नेत्रों से बारंबार देखो, वहाँ यह आश्चर्य देखने में आता है कि जो निराकार हैं, वे ही ब्रह्म प्रकट हो रहे हैं । वे ऐसे दयागुण से युक्त दयालु हैं, कि रंग रूप रहित होने पर भी भक्तों पर कृपा करने के लिए अति विशेष ओंकार वर्णरूप से वा भक्त भावनानुसार रंग रूप से भासते रहते हैं ॥२॥
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जो जीव के प्राणाधार हैं, उन निरंग प्रियतम ब्रह्म के स्वरूप को जो उनका भक्त होता है, वही प्राप्त करता है । वे ऐसे दयागुणसंपन्न दयालु हैं कि भक्त को अनायास ही अपना स्वरूप दिखा देते हैं । उन्हें सुन्दर लक्षणों वाला भक्त ही देख सकता है । जो देखता है, वह अभेद रूप से उनके संग ही हो जाता है और उस अगम ब्रह्म संबन्धी ही वचन सुनाता है, उसके दुःख नष्ट हो जाते हैं, ब्रह्म का अभेद भाव रूप अमिट रंग लग जाता है, फिर वह क्यों नहीं ब्रह्म संबन्धी मंगलगीत गायेगा ॥३॥
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उस कला विभाग रहित प्रियतम ब्रह्म के स्वरूप का कृपा रूप हाथ किसी भी प्रकार साधन करके पकड़ना चाहिये । अविचल ब्रह्म का अपने आत्मस्वरूप से अभेद निर्णय करके उसी अद्वैत निष्ठा को भीतर रखना चाहिये । अन्तः करण से विचार करके उसे जानो, अन्तःकरण में विचार करके दर्शन करने से वही विश्व का सार ज्ञात होगा । उसी का स्मरण करो, उसी का कथन करो, इस प्रकार यदि परब्रह्मस्वरूप श्रीरंग से तुम्हारा प्रेम लग जाय, तभी तुमको सुख मानना चाहिये । इस स्थिति से पूर्व तो विरहपूर्वक हरिचिन्तन करते रहना चाहिये ॥४॥
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उक्त पद का रहस्य समझकर दोनों सिद्ध दादूजी के शिष्य हो गये और मारवाड़ देश के ईंदोखली ग्राम में निवास करते हुए दोनों ने ब्रह्म भजन में मन लगाया था । ये ५२ शिष्यों में हैं ।
(क्रमशः)

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