मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२०२. बेली । त्रिताल ~
बेली आनन्द प्रेम समाइ ।
सहजैं मगन राम रस सींचै, दिन दिन बधती जाइ ॥ टेक ॥ 
सतगुरु सहजैं बाही बेली, सहज गगन घर छाया ।
सहजैं सहजैं कोंपल मेल्है, जाणै अवधू राया ॥ १ ॥ 
आतम बेली सहजैं फूलै, सदा फूल फल होई ।
काया बाड़ी सहजैं निपजै, जानैं विरला कोई ॥ २ ॥ 
मन हठ बेली सूखण लागी, सहजैं जुग जुग जीवै ।
दादू बेली अमर फल लागै, सहज सदा रस पीवै ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें बुद्धि रूप बेली का परिचय दे रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमारी बुद्धि रूप बेली, परमेश्‍वर के प्रेम में अब समा रही है और राम - नाम स्मरण से दिन - दिन बढ़ती जा रही है तथा सहजावस्था में जाकर ब्रह्माकार हो रही है । यह अमृतरूप बेली, हृदय में, सतगुरु ने उत्पन्न की है । अब यह ‘सहज’ कहिए, निर्द्वन्द्व स्वरूप ब्रह्म में मग्न होकर, अन्तःकरण रूप घर में फैल रही है, ब्रह्माकार हो रही है । अर्थात् अन्तःकरण और इन्द्रियों में परमार्थ भावना जागृत हो रही है तथा धीरे - धीरे इसका अकुंर बढ़ता जा रहा है । इस बुद्धि रूप बेली के स्वरूप को मन में धूतने वाले महापुरुष ही जानते हैं । यह बुद्धिरूप बेली, वैराग्य का फूल और ज्ञान भक्ति रूप फल को देने वाली है । यह बेली शरीर बाड़ी की हृदय रूप क्यारी में स्वतः ही सतगुरु की कृपा से उत्पन्न हुई है, इसको कोई विवेकी संत ही जान पाते हैं । इस परमार्थ बुद्धि के उत्पन्न होने के बाद मन हठ विषयाकार बुद्धि होने पर हृदय से बेली सूखने लगती है । अमृतरूप परमार्थ बुद्धि होती है तो उसके ब्रह्म साक्षात् जीवन - मुक्ति रूप फल लगता है । उस आनन्द को पान करके निर्द्वन्द्व भाव होकर सदा सजीवन भाव को प्राप्त होते हैं ।

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