रविवार, 19 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ २


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसैंहि पावक काठ के योग तैं,*
*काठ सौ होइ रह्यौ इक ठौरा ।*
*दीरघ काठ मैं दीरघ लागत,*
*चोरस काठ मैं लागत चौरा ॥*
*आपुनौ रूप प्रकास करै जब,*
*जारि करै तब और कौ औरा ।*
*तैसैं हि सुन्दर चेतन आपु सु,*
*आपकौं नांहि न जानत बौरा ॥२॥*
जैसे अग्नि काष्ठ के सम्बन्ध से काष्ठ के समान होकर एक साथ रहती है । 
लम्बा काष्ठ हो तो तो वह लम्बी लगती है; और यदि काष्ठ चतुष्कोण हो तो अग्नि भी चतुष्कोण लगती है । 
परन्तु जब वह अग्नि अपना दाहक रूप प्रकट करती है तो उस काष्ठ के रूप में ऐसा परिवर्तन कर देती है कि द्रष्टा को, प्रथम दृष्टि में, समझ में नहीं आता कि यह पहले किस प्रकार का काष्ठ था । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी प्रकार यह अज्ञानी पुरुष भी अपनी आत्मा का स्वरूप नहीं पहचान पाता ॥२॥ 
(क्रमशः)

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