सोमवार, 20 अप्रैल 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥ 
१९४. उपदेश । प्रतिताल
हरि राम बिना सब भर्मि गये, कोई जन तेरा साच गहै ॥ टेक ॥ 
पीवै नीर तृषा तन भाजै, ज्ञान गुरु बिन कोइ न लहै ।
प्रकट पूरा समझ न आवै, तातैं सो जन दूर रहै ॥ १ ॥ 
हर्ष शोक दोउ सम कर राखै, एक एक के संग न बहै ।
अनतहि जाइ तहाँदुख पावै, आपहि आपा आप दहै ॥ २ ॥ 
आपा पर भरम सब छाड़ै, तोनि लोक पर ताहि धरै ।
सो जन सही साच कौं परसे, अमर मिले नहिं कबहुँ मरै ॥ ३ ॥ 
पारब्रह्म सूं प्रीति निरन्तर, राम रसायन भर पीवै ।
सदा आनन्द सुखी साचे सौं, कहै दादू सो जन जीवै ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हरि रूप राम के नाम - स्मरण बिना सब सांसारिक प्राणी भ्रम रहे हैं । हे प्रभु ! आपके कोई निष्कामी भक्त ही सत्य - स्वरूप नाम का स्मरण ग्रहण करते हैं । जल पीने से ही तन की तृषा, कहिए प्यास दूर होती है, इसी प्रकार गुरु का उपदेश श्रवण किये बिना कोई भी परमेश्‍वर के ज्ञान को प्राप्त नहीं होता है । जिनको गुरु का ज्ञान प्राप्त हुआ है, वही हर्ष और शोक, दोनों को समान देखते हैं । न इष्ट पदार्थ की प्राप्ति से उनको हर्ष ही होता है और न अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति से शोक ही होता है । परमेश्‍वर को छोड़कर अन्यत्र जाने से ही दुःख होता है । गुरु - ज्ञान का विचार करने से अपने अनात्म आपा को विवेकी पुरुष आप ही नष्ट करता है । फिर अपना और पराया का सम्पूर्ण भ्रम अन्तःकरण से त्याग देता है और समष्टि - व्यष्टि रूप त्रिलोकी के धर्म से परे जो चैतन्य स्वरूप परमेश्‍वर है, उसमें विवेकी अपने मन को एकाग्र करता है । ऐसा उत्तम साधक ही सत्य - स्वरूप परमेश्‍वर को हृदय में अन्तर्मुख वृत्ति से साक्षात्कार करके अमर ब्रह्मस्वरूप में अभेद होते हैं । फिर वह कभी भी जन्म - मरण को प्राप्त नहीं होते । इस प्रकार परब्रह्म से जिन्होंने निरन्तर प्रीति करी है, वही राम के स्मरण रूपी रस को वृत्ति रूप प्याले से पुन - पुनः पीते हैं । उनके सदा ही सत्य - स्वरूप से स्नेह करके सुख रूप आनन्द बना रहता है । ऐसे जन सदा सजीवन भाव को प्राप्त होते हैं ।

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