सोमवार, 22 अप्रैल 2024

सिर साटै जे हरि मिलै

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*खेलै शीश उतार कर, अधर एक सौं आइ ।*
*दादू पावै प्रेम रस, सुख में रहै समाइ ॥*
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*ब्यौपार कौ नाग*
बषनां इहिं व्यौपार मैं, टोटा मनहूँ न आणि ।
सिर साटै जे हरि मिलै, तब लग सहुँगा जाणि ॥१॥
बषनांजी कहते हैं, वैराग्य, भक्ति और ज्ञान का आश्रय लेकर परमात्म–प्राप्ति के प्रयत्न रूपी व्यापार को करने में लेशमात्र भी नुकसान होगा, ऐसा मन में तनिक भी विचार न लाना चाहिये ।
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥” गीता */* ॥
सिर साटै = सम्पूर्णतः समर्पण करने से भी यदि परमात्मा मिल जाता है तो इस सौदे को सस्ता ही जानना चाहिये । सिर साटै = अहंकार को मिटाकर साधना में संलग्न होने पर यदि हरि मिलते हैं तब भी यह सौदा सस्ता ही है ।
“क्लेशोऽधिकतरस्तेषां अव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ताहिगतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥” गीता १२/५॥
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हरि रस महंगा मोल कौ, बषनां लियौ न जाइ ।
तन मन जोवन सीस दे, सोई पीवौ आइ ॥२॥
बषनांजी कहते हैं, सांसारिक रस = आनंद की अपेक्षा हरिरस महंगा = कठिनता से प्राप्त होता है । इसलिये हर व्यक्ति इसको लेने का प्रयत्न नहीं करता है ।
“मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यतनामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥” गीता ७/३॥
इस आत्मानंद को तो वही प्राप्त कर पाता है जो तन, मन, यौवन और शीश = अपना सर्वस्व परब्रहम परमात्मा को समर्पित कर देता है ।
“सुनहु राम अब कहउँ निकेता ।
जहाँ बसहुँ सिय लखन समेता ॥
जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना ।
कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे ।
तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे ॥
लोचन चातक जिन्ह करि राखे ।
रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ॥
जसु तुम्हार मानस विमल, हंसिनी जीहा जासु ।
मुकताहल गुन गन चुनइ, राम बसहु हियँ तास ॥ मानस २/१२८/२॥
(क्रमशः)

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