सोमवार, 22 अप्रैल 2024

*श्री रज्जबवाणी, विरह का अंग(४) ~ १.२६*

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*शब्द तुम्हारा ऊजला, चिरिया क्यों कारी ?*
*तूँही, तूँही निशदिन करूँ, विरहा की जारी ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
विरह का अंग(४)
उठी उर जागि विरह की आगि,
गई मन लागि भई तन कारी१ ।
पीर२ प्रचंड भई नव खंड जु,
बीच विहंड३ गई सुधी सारी ॥
भई चकवाल४ कहै विकराल,
नहीं कछु हाल५ सु लाज विसारी ।
हो६ रज्जब रोय कहै पिय जोय७,
दुखीअति होय वियोग की मारी ॥१॥२६॥
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विरहावस्था का परिचय दे रहे हैं -
हृदय में विरह रूप अग्नि जग उठा है और मन के लग गया है, जिसके शरीर काला१ पड़ गया है ।
नव द्वार रूप नौओं खंडों मे ही तीव्र पीड़ा२ हो रही है इस पीड़ा ने बीच ही बीच हनन३ किया है, जिससे सब सुध चली गई है ।
मुझे चक्कर४ आ रहा है और लोग विकराल कह रहे हैं । मेरी दशा५ कुछ भी ठीक नहीं है, लज्जा को तो भूल ही गयी हूं ।
हे६ प्रियतम ! मैं रोकर कह रही हूं मेरी ओर देखौ७ मैं वियोग की मारी अति दु:खी हो रही हूं मुझे दर्शन दें ।
(क्रमशः)

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