बुधवार, 17 अप्रैल 2024

समझाइ कहौ समझाइ कहौ गुर

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*ओंकार थैं ऊपजै, बिनसै बहुत बिकार ।*
*भाव भगति लै थिर रहै, दादू आतमसार ॥*
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*प्रसन ॥*
समझाइ कहौ समझाइ कहौ गुर, संसा माहिं रहीला ।
फिरि लागा थैं कंचन हूवा, पहली क्यूँ काच कहीला ॥३॥
उक्त साषी द्वारा उपदेश प्राप्त करने के अनंतर भी शिष्य को निः संशयात्मक बोध नहीं होने पर वह गुरु महाराज से प्रार्थना करता है, मेरे मन में अब भी संशय(उभय कोट्यात्मक ज्ञान) रह गया है ।
अतः हे गुरु महाराज ! मुझे पूर्व में कहे हुए तत्त्वज्ञान को पुनः समझाकर कहो । जो संसार से विमुख होकर परमात्मा से लग गये वे तो कंचन हो गये किन्तु लगने के पूर्व वे काच थे, इसका क्या तात्पर्य है ? ॥३॥
“संसा नाहिं रहीला” पाठ भी मिलता है किन्तु १७८५ की प्रति में नाहिं की जगह माहिं पाठ है और अर्थ की संगति भी माहिं से ही बैठती है ।
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*श्रीदादू बचन प्रमाण ॥*
ओंकार थैं ऊपजै, बिनसै बहुत बिकार ।
भाव भगति लै थिर रहै, दादू आतमसार ॥२१/७॥
परमात्मा ॐ शब्द स्वरूप है ।
“सबद सरुपी राम उपज बिनसै ऊ नाहीं ।” (श्रीरामचरण वाणी)
“समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी (मानस) । मोरे मत बड नाम दुहूँ ते । (मानस)
वह अपनी माया के द्वारा इस संसार को उत्पन्न और विनाश करता रहता है ……
“मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
संभवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥३॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥४॥ गीता अ. १४॥
अतः दादूजी महाराज कहते हैं, प्रकृति की विकृति = विकार (जो मूल तत्व होता है, उसे प्रकृति तथा जो प्रकृति से उत्पन्न होता है उसे विकृति कहा जाता है । प्रकृति प्रक्रति है । जिन पंच भूतादि से शरीर बना हुआ है वे और शरीर विकृति हैं ।)
संपूर्ण संसार ॐ स्वरूप परमात्मा से उपजता है और विकारी होने से विनष्ट होता रहता है । उन्हीं में से जो भाव = श्रद्धा युक्त भक्ति से आत्मा का सार = अंशी = परमात्मा का भजन ध्यान करते हैं वे ही स्थिर परमात्मा को प्राप्त करके स्थिर होते हैं ॥२१/७॥
(क्रमशः)

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