शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

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*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
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*दादू साचे को झूठा कहैं, झूठे को साचा ।*
*राम दुहाई काढिये, कंठ तैं वाचा ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, एक आदमी मरा और उसने जाकर स्वर्ग में जब देखा, तो वह बहुत नाराज हुआ। एक पापी जो उसके घर के सामने ही रहता था वह परमात्मा के पास बैठा हुआ है। उसे नर्क में होना चाहिए। उसने कहा, यह अन्याय है। यह क्या मैं अपनी आंख से देख रहा हूं ! तो यह भी रिश्वत चल रही है, कि भाई-भतीजावाद चल रहा है।
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क्या मामला है ? यह आदमी यहां कैसे बैठा है ? यह पापी है। और मैं सदा तुम्हारा गुणगान गाता रहा। और सिवाय कष्ट के मुझे जिंदगी में कुछ न मिला और अब यह कष्ट तुम दे रहे हो, कि इस पापी को यहां देखना पड़ेगा स्वर्ग में ? तो मतलब हमारे पुण्य का क्या है ! परमात्मा ने कहा, कि तुम इसमें ही खैर समझो, कि तुम स्वर्ग में हो। इरादा तो तुम्हें नर्क में भेजने का था।
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उस आदमी ने कहा क्या ? और मैं राम-राम जपता रहा–दिन में नहीं, रात में तक। सोते, जागते, राम की धुन लगाए रहा। परमात्मा ने कहा, उसी की वजह से तो। तुमने मुझे तक नहीं सोने दिया। तुम खोपड़ी खा गए। एक रात चैन न लेने दिया। तुम काफी सौभाग्य समझो, कि तुम यहां प्रवेश किए जा रहे हो। और यह आदमी यहां है, क्योंकि इसने मुझे कभी सताया नहीं। इसने न तो कभी कोई प्रार्थना की, न कभी पूजा की, न यह कभी मंदिर गया। दुनिया इसे पापी समझती थी। क्योंकि दुनिया जिसे पुण्य समझती है वह पुण्य ही नहीं है। मंदिर जाने में क्या पुण्य है ?
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लेकिन इस आदमी ने चुपचाप दिनों की सेवा की है। इधर दुकान पर कमाया, उधर गरीबों को बांट दिया। बांटा भी इसने शोरगुल करके नहीं। अखबार वालों को बुला कर नहीं बांटा। फोटोग्राफर तैयार नहीं रखे। चुपचाप लोगों के घरों में डाल आया। उनको भी पता नहीं है। वह धन्यवाद देने का भी मौका इसने नहीं दिया। वह मंदिर नहीं गया, यह सच है। इसने पूजा नहीं की, यह सच है। लेकिन यह मेरा प्यारा है।
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ना मैं मूरत धरि सिंहासन, ना मैं पुहुप चढ़ाई
ना हरि रीझै जप तक कीन्हें, ना काया के जारे।
और तुम शरीर को तपाओ, जलाओ, इससे तुम सोचते हो, परमात्मा प्रसन्न होगा ? आत्मा तक प्रसन्न नहीं होती, परमात्मा क्या प्रसन्न होगा ! भीतर की आत्मा से पूछो। वह परमात्मा का प्रतिनिधि है तुम्हारे भीतर। पीड़ा पाती है। पीड़ा कभी पूजा नहीं हो सकती। उत्सव ही केवल पूजा हो सकती है।
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तुम जब प्रफुल्लित हो, जब तुम्हारा सारा शरीर खिला है और स्वस्थ है, जब तुम्हारे सारे शरीर के रंग-रंग, रोएं-रोए में जीवन की धारा बह रही है, जब तुम नाच सकते हो, तभी तुम्हारी आत्मा प्रसन्न है। और जिस बात में आत्मा प्रसन्न है, वही परमात्मा की पूजा है। तुम अपनी आत्मा की सुनो, तुमने परमात्मा की सुनी। तुमने अपनी आत्मा की न सुनी, तुम परमात्मा के दुश्मन हो।
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गुरजिएफ कहा करता था, कि दुनिया के सारे धर्म परमात्मा के दुश्मन हैं। और वह ठीक कहता था। क्यों? वे सब तुम्हें तुम्हारी आत्मा की सुनने को नहीं सिखाते। उनके पास बंधे हुए अनुशासन हैं, उनको पूरा करो। अगर तुम्हारी आत्मा इनके विपरीत है, तो दबाओ। अपने को मारो। अपना ही गला घोंटो। वे सब आत्मघाती हैं।
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ना हरि रीझै धोति छाड़े…
और नग्न हो जाने से कोई हरि को रिझा लोगे ?
ना पांचों के मार…
और पांचों इंद्रियों को भी मार डालो। फोड़ लो आंखें अपनी। कान में सीखचें डाल लो, ताकि न सुनाई पड़ेगा संगीत, न वासना पैदा होगी। न दिखाई पड़ेगा रूप, न वासना पैदा होगी। मार डालो, काट डालो पांचों इंद्रियों को। वही तो तुम्हारे साधु संन्यासी कर रहे हैं।
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परमात्मा बनाता है, तुम मिटाते हो। तुम कैसे उसके मित्र हो सकते हो? परमात्मा आंखें बनाता है, तुम फोड़ते हो। परमात्मा कान देता है, तुम बहरे बनना चाहते हो। जो परमात्मा ने दिया है, उसे मिटाओ मत, उसे संभालो। उसे सुसंस्कृत करो, उसे संवेदनशील बनाओ। आंख ऐसी संवेदनशील हो जाए, कि रूप दिखाई पड़े ही, रूप के भीतर छिपा अरूप भी दिखाई पड़ने लगे।
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कान ऐसे श्रवण की गहनता को उपलब्ध हो जाएं, कि संगीत तो सुनाई पड़े ही, सब संगीत में जो शून्य छिपा है, वह भी सुनाई पड़ने लगे। स्वर तो है ही संगीत में, शून्य भी है। स्वर ऊपर का आवरण है। शून्य भीतर का प्राण है। रूप तो है ही फूल में, अरूप भी है। रूप तो है ही एक सुंदर स्त्री में, सुंदर पुरुष में; अरूप भी है। आकार तो दिखाई पड़े ठीक, निराकार भी दिखाई पड़े। आंख चाहिए ऐसी।
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तुम आंख फोड़ रहे हो, कि रूप से डर गए हो कि कहीं रूप न दिखाई पड़ जाए, नहीं तो वासना पैदा होती है। ठीक है। रूप दिखाई पड़ने से वासना पैदा होती है। आंख फोड़ लेने से रूप दिखाई न पड़ेगा। इस भ्रांति में मत रहना। अंधे में भी वासना होती है भयंकर वासना होती है। और तुम तो कुछ भी कर सकते हो। वह बेचारा कुछ कर नहीं पाता। इसलिए बड़ी असहाय वासना होती है। बड़ी विकृत, पर्वर्टेड।
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सच है। रूप दिखाई पड़ने से वासना पैदा होती है। इसका अर्थ है कि थोड़ा और गहरे देखो: अरूप दिखाई पड़ने के करुणा पैदा होती है। रूप दिखाई पड़ने से काम पैदा होता है। अरूप दिखाई पड़ने से प्रेम पैदा होता है। आंख को बढ़ाओ, स्वाद को बढ़ाओ। स्वाद को मिटाओ मत। जीभ को जला लेना बहुत आसान है।
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क्या कठिनाई है ? स्वाद से घबड़ाओ मत। स्वाद में परम स्वाद भी छिपा है। अस्वाद को उपलब्ध नहीं होना है, परम स्वाद को उपलब्ध होना है। तब तुम परमात्मा की धारा में बह रहे हो। तब तुम्हें कुछ करना न पड़ेगा। तुम ऐसे ही बहते हुए पहुंच जाओगे। धारा जा रही है सागर की तरफ। तुम बस, धारा के साथ एक हो जाओ।
आचार्य रजनीश ओशो

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