शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

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*मति बुद्धि विवेक विचार बिन, माणस पशु समान ।*
*समझायां समझै नहीं, दादू परम गियान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है, एक आदमी मरा। अकड़ से स्वर्ग में प्रवेश किया। द्वारपाल ने पूछा कि भाई, बड़े अकड़ से आ रहे हो, मामला क्या है ? क्या पुण्य इत्यादि किए हैं ? क्योंकि पुण्य इत्यादि करनेवाले अकड़ से जाते हैं। उसने कहा कि तीन पैसे मैंने दान दिए हैं। खाते—बही खोले गए। तीन ही पैसे का मामला था कुल। हेडक्लर्क ने सब देखा— दाखा। 
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उसने अपने असिस्टेंट क्लर्क से पूछा कि भाई क्या करें, तीन पैसे इसने दिए जरूर हैं, लिखे हैं। उसके असिस्टेंट ने कहा : इसको तीन पैसे के चार पैसे ब्याज—सहित वापस कर दो और भेजो नरक। है यह नरक के योग्य ही। तीन ही पैसे दिए और ऐसे अकड़कर आ रहा है जैसे तीन लोक दे दिए हों।
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हम दे ही क्या सकते हैं ? जो भी हम दे सकते हैं वह तीन ही पैसे का है। खयाल रखना। कहानी को ऐसे ही मत समझ लेना कि तीन ही पैसे दिए तो क्या अकड़ना था ! कोई तीन लाख देता, तीन लाख भी तीन ही पैसे हैं। परमात्मा के समक्ष तुम तीन लाख दो कि तीन करोड़ दो, इससे क्या फर्क पड़ता है ? इस जगत् की संपदा ही दो कोड़ी की है। 
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सारी संपदा दो कौड़ी की है। इसमें अकड़। 8 लेकिन, लोग सोचते हैं कि स्वर्ग मिल जाएगा। वह भी धंधा है। इस दुनिया में भी दुकान चलाते हैं, वे उस दुनिया में भी दुकान चलाना चाह रहे हैं। पुण्य का तुम्हें पता ही नहीं। पुण्य का क्या अर्थ होता है ? अकारण, आनंद— भाव से किया गया कृत्य। 
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प्रेम से किया गया कृत्य। जिसके पीछे लेने की कोई आकांक्षा ही नहीं है। धन्यवाद की भी आकांक्षा नहीं है। कोई पानी में डूबता था, तुम दौड़कर उसे निकाल लिए, फिर खड़े होकर यह मत राह देखना कि वह धन्यवाद दे, कि कहे कि आपने मेरा जीवन बचाया, आप मेरे जीवनदाता हो! इतनी भी आकांक्षा रही तो पुण्य खो गया।
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तू बंदगी पर नाज न कर बंदगी के बाद
तुमने अपने आनंद से बचाया, बात समात हो गयी। तुमने किसी को अपने आनंद से दिया। इसलिए जब तुम किसी को कुछ दो तो देने के बाद धन्यवाद भी देना कि तूने स्वीकार किया। तू इनकार भी कर सकता था।
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देखते हो, इस देश में एक परंपरा है——दान के बाद दक्षिणा देने की ! वह बड़ी अतूत परंपरा है। वह बड़ी प्यारी परंपरा है। ” दक्षिणा ” का मतलब क्या होता है? दक्षिणा का मतलब होता है : तुमने हमारा दान स्वीकार किया, इसका धन्यवाद। 
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जिसको दिया है वह धन्यवाद दे, इसकी आकांक्षा है ही नहीं; जिसने दिया है वह धन्यवाद दे कि तुमने स्वीकार कर लिया हमारे प्रेम को; दो कौड़ी थी हमारे पास, तुमने स्वीकार कर लिया, इतने प्रेम से, इतने आनंद से——तुमने हमें धन्यभागी किया, तुमने हमें पुण्य का थोड़ा स्वाद दिया।
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पुण्य का कोई भविष्य, फलाकांक्षा से संबंध नहीं है। पुण्य का तो स्वाद अभी मिल जाता है, यहां मिल जाता है।
नाहिं जाने केहि पुण्य, प्रकट भे मानुष—देही।
मनुष्य का जीवन मिला और पुण्य का पता न चला, तो सार क्या है ? 
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जो तुम कर रहे हो, वह तो पशु भी कर लेते हैं, पशु भी कर रहे हैं। इसमें तुम्हें भेद क्या है ? तुम अपनी जिंदगी को कभी बैठकर जांचना, तुम जो कर रहे हो, इसमें और पशु के करने में भेद क्या है ? तुम रोटी— रोजी कमा लेते हो, तो तुम सोचते हो कि पशु नहीं कर रहे हैं ? 
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तुम से ज्यादा बेहतर ढंग से कर रहे हैं, मजे से कर रहे हैं। तुम बच्चे पैदा कर लेते हो, तुम सोचते हो कि कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो। इस देश में ऐसे ही समझते हैं लोग। बड़े अकड़कर कहते हैं कि मेरे बारह लड़के हैं। जैसे कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हो ! अरे, मच्छरों से पूछो ! हिसाब ही नहीं संख्या का। कीड़े—मकोड़े कर रहे हैं। 
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तुम इसमें क्या अकड़ ले रहे हो ? बारह बेटे कौन—सा मामला बड़ा ? और मुसीबत बढ़ा दी दुनिया की। एक बारह उपद्रवी और पैदा कर दिए। ये घिराव करेंगे, हड़ताल करेंगे और झंझट खड़ी करेंगे। लेकिन लोग सोचते हैं कि बच्चे पैदा कर दिए तो बड़ा काम कर दिया; मकान बना लिया तो बड़ा काम कर दिया। पशु—पक्षी कितने प्यारे घोंसले बना रहे हैं! उनके लायक पर्याप्त हैं।
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तुम जरा सोचना। क्रोध है, काम है, लोभ है, मद, मोह, मत्सर, सब पशुओं में है! फिर तुममें मनुष्य होने से भेद क्या है? तो एक ही बात की बात कह रहे हैं धरमदास कि पुण्य का स्वाद हो, तो तुम मनुष्य हो, तो मनुष्य होने में कुछ भेद पड़ा। इसे खयाल रखना। अरस्तु ने कहा है: आदमी का भेद यह है कि आदमी में बुद्धि है, विचार है।

ओशो

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