बुधवार, 1 मई 2024

*श्री रज्जबवाणी, विरह का अंग(४) ~ १.३०*

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*विरहनी रौवे रात दिन, झूरै मन ही मांहिं ।*
*दादू औसर चल गया, प्रीतम पाये नाहिं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
विरह का अंग (४)
हो ब्रह्म वियोग ब्रह्माण्ड में शोक,
लिये जिय१ जोग सबै दिशि रोवै।
नहीं नभ धीर परै बहु नीर,
सही२ उर पीर घटा तन खोवै ॥
फिरै शशि भान३ समीर४ समान,
रहै नहिं ठान५ दशौं दिशि जोवे६ ।
गिरै गिर धार कहैं पतझर सु,
खोस७ हि बार८ क्यों रज्जब गोवै९ ॥३०॥
हे सज्जनों ! ब्रह्म के वियोग से सभी ब्रह्माण्ड में शोक छाया हुआ है । हृदय१ में योग लेकर सभी दिशायें रो रही हैं ।
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आकाश को धैर्य नहीं है, इसी से बहुत अश्रु जल डाल रहा है, उसके हृदय में सच्ची२ पीड़ा है, वह अपने घटा रूप शरीर को भी नष्ट कर देता है ।
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चन्द्र-सूर्य३ भी वायु४ के समान प्रभु के लिये धूम रहे हैं, एक ठिकाने५ नहीं रहते, दशों दिशाओं में प्रभु को देख६ रहे हैं ।
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पर्वतों से अश्रु धारा गिर रही है । जिसे पतझर कहते हैं, वह वृक्षों का ब्रह्म वियोग जन्य दु:ख ही है, दुखी होकर ही पत्ते डालते हैं । जैन साधक वियोग व्यथा से अपने बाल८ भी उखड़वाते७ हैं । तब ऐसी दशा में वियोग कैसे छिप९ सकते हैं । सभी ब्रह्माण्ड ब्रह्म वियोग से व्यथित हैं ।
(क्रमशः)

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