रविवार, 17 जनवरी 2016

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
काया शून्य पंच का बासा, आत्म शून्य प्राण प्रकासा ।
परम शून्य ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला ॥ 
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------------------------ साखी ----------------------
खग खोजन कहं तुम परे, पीछे अगम अपार। 
बिनु परिचै कस जानिहो, कबीर झूठा है हंकार ॥ ५० ॥
सदगुरु कबीर साहेब कहते हैं कि तुम स्वर्ग-कल्पना रूपी पक्षी को खोजने में लगे हो,
जिसके बारे में पीछे अगम-अपार वाणियां कही गई हैं, परन्तु बिना सही परिचय, पते या पहचान के तुम उसे कैसे जान सकोगे ?
अर्थात् सत्य ज्ञान के बिना मात्र काल्पनिक बातों के आधार पर उसकी वास्तविकता को नहीं जाना जा सकता। ऐसे तुम्हारे स्वर्गलोक का अहंकार झूठा है।
इस साखी में प्रयुक्त 'खग' शब्द का अर्थ है --- आकाशरूप या आकाश में गति करने वाला पक्षी। 
अतः उस अनुसार 'खग' शब्द का अभिप्राय 'स्वर्ग-कल्पना रूपी पक्षी' माना है। बहुत योगी एवं साधक भक्तजन निज साधना-स्थिति में अपना ध्यान शून्य(आकाश) में लगाते हैं, 
अर्थात वे परम सत्य या परब्रह्म(परमात्मा) को आकाश में मानते एवं खोजते हैं। 
इस अनुसार 'खग' शब्द से अभिप्राय 'परमसत्य या परब्रह्म' मानकर इस साखी का अर्थ इस प्रकार लगाया जा सकता है ---
सदगुरु कहते हैं कि तुम उस परमसत्य या परब्रह्म को खोजने के चक्कर में पड़े हो, जिसके पीछे अगम-अपार वाणियां कही गई हैं या जिसके पीछे अगम-अपार दिव्य रहस्य है, परन्तु बिना उसके सही परिचय, ज्ञान अथवा साक्षात्कार के तुम उसे कैसे जान पाओगे ?
उसे अपनी बुद्धि से खोजने का तुम्हारा अहंकार झूठा है, क्योंकि वह बुद्धि से परे है।
संत कबीरदास !
सौजन्य -- बीजक रमैनी !

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