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रविवार, 25 मई 2025

= १७७ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*दादू निराकार मन सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं सेव ।*
*जे पूजे आकार को, तो साधु प्रत्यक्ष देव ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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समस्त जीव ही नतमस्तक थे ऐसे बाबा मीणा संत "बाबा मल्ला" इन्हें जहाज़ वाले बाबा के नाम से जाना जाता है यह स्थान टहला क्षेत्र में पहाड़ों के बीचों-बीच में स्थित है !!
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मीना समाज के सिध्द संत थे 'बाबा मल्ला' बाबा का जन्म ग्राम - अलीपुर, तह.- बजूपाडा, ज़िला - दौसा में हुआ था और इन्होने जारवाल गोत्र में जन्म लिया, बाबा ने गृहस्थ जीवन को अपनाया और इनके बच्चे भी थे फिर जब इनके मन में बैराग उत्पन्न हुआ तो इन्होने बाणगंगा नदी के पास तपस्या की थी फिर सरिस्का के घने जंगलों में चले गए थे !!
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जानकार लोग बताते है कि शेर तो इनकी सुरक्षा करते थे और जब ये सो जाते थे तो शेर आकर इनके तलवे चाटा करते थे शेर इनकी आवाज़ सुनकर दौडे चले आते थे !!
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ये बाबा अपने आश्रम में आने वालो की सारी बातें पहले ही जान लेते थे ये बहुत बड़े 'माइंड रीडर' थे, बताते है कि इनके भंडारे में कभी माल खत्म नही होता था चाहे कितने भी लोग प्रसाद ग्रहण कर ले इनके छूने के बाद वहाँ पर कड़ाई में पानी डालकर पुए उतारे जाते थे और वे बेहद ही स्वादिष्ट बनते थे !!
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जब ये अंतर्ध्यान हुए तो वहाँ के जानवर बहुत बैचेंन हो गए थे और गाय,शेर आदि जंगली जानवर उन्हें आवाज़ दे दे कर पुकारते रहे थे काफी दिनों तक !!

मल्ला बाबा जैसे महान संत का जन्म मीणा वंश में हुआ जिससे पूरा मीणा समाज गर्व महसूस करता है तथा समस्त मीणा समाज कोटि कोटि नमन करता हूँ !!

रविवार, 11 मई 2025

= १७६ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*नाहीं ह्वै करि नाम ले, कुछ न कहाई रे ।*
*साहिब जी की सेज पर, दादू जाई रे ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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"शुद्र, वैश्य, क्षेत्रीय, ब्राह्मण" ये चार व्यक्तित्व के ढंग है। शूद्र वह है,,,जो परम आलस्य से भरा है। जिसे कुछ करने की इच्छा नहीं है। कुछ होने की इच्छा नहीं है। खाना मिल जाये, वस्त्र मिल जायें, बस काफी है। वह जी लेगा। और जो इस तरह जी रहा है, वह शूद्र है। तुममें से अधिक लोग शूद्र की भांति जी रहे हैं। तुम किसी और को शूद्र मत कहना। तुम क्या कर रहे हो ? खाना-कपड़े, इनको कमा लेना। रात सो जाना, सुबह उठ कर फिर कमाने में लग जाना। जन्म से लेकर मृत्यु तक तुम्हारी प्रक्रिया शूद्र की है। इसलिए मनु कहते हैं कि हर आदमी शूद्र की भांति पैदा होता है। ब्राह्मणत्व तो एक उपलब्धि है।
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दूसरा वर्ग है,,, जिसके लिए जीवन लग जाये लेकिन धन इकट्ठा करना है, पद इकट्ठा करना है, वह वैश्य है। चाहे सब खो जाये, आत्मा बिक जाये उसकी, कोई हर्जा नहीं है, लेकिन तिजोरी भरनी चाहिए। आत्मा बिलकुल खाली हो जाये, लेकिन तिजोरी भरी होनी चाहिए। बैंक-बैलेंस असली परमात्मा है। धन असली धर्म है। वह भी तुम्हारे भीतर है। उसको मनु ने वैश्य कहा है। इस वैश्य शब्द को थोड़ा सोचो। जो स्त्री अपने शरीर को बेचती है, उसे हम वेश्या कहते हैं। *और जो अपनी आत्मा को बेचता है उसे मनु ने वैश्य कहा है। वह वेश्या से बुरी हालत में है।*
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एक तीसरा वर्ग है,,, जिसकी जिंदगी में अहंकार के सिवाय और कुछ भी नहीं है। जो किसी भी तरह, ‘मैं सब कुछ हूं’, बस, इस मूंछ पर ही ताव देता रहता है। वह क्षत्रिय है। वह हमेशा तलवार पर धार रखता रहता है। उसको अहंकार के सिवाय कोई रस नहीं। धन जाये, जीवन जाये, सब दांव पर लगा देगा। लेकिन दुनिया को दिखा देगा, कि मैं कुछ हूं। ना-कुछ नहीं। वह एक वर्ग है। तीसरी दौड़ अहंकार की दौड़ है, कि मैं सब कुछ हूं।
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और एक चौथा वर्ग है, जो सिर्फ ब्रह्म की तलाश में है। जो कहता है: और सब व्यर्थ है। न तो आलस्य का जीवन अर्थपूर्ण है, क्योंकि वह प्रमाद है। होश चाहिये। न धन के पीछे दौड़ अर्थपूर्ण है, क्योंकि वह कहीं भी नहीं ले जाती। उससे कोई कहीं पहुंचता नहीं। धन तो मिल जाता है, आत्मा खो जाती है। नहीं, ब्रह्म से कम पर राजी नहीं होना है। ब्राह्मण कहता है, तुम कुछ भी नहीं हो, तभी तो जीवन का परम धन उपलब्ध होगा।
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जब तुम नहीं रहोगे, तभी तो ब्रह्म उतरेगा। आलस्य तोड़ना है शूद्र जैसा; धन की दौड़ छोड़नी है वैश्य जैसी; अहंकार छोड़ना है क्षत्रिय जैसा; तब कभी कोई ब्राह्मण हो पाता है। ये चार व्यक्तित्व के ढंग हैं। ऐसे चार तरह के लोग हैं जमीन में।
इन चार में तुम बराबर बांट लोगे। पांचवां आदमी तुम न पाओगे। और चार से कम में भी काम न चलेगा, तीन से भी काम न चलेगा। इसलिए दुनिया में जितने भी मनुष्यों को बांटने के प्रयोग हुए हैं, सबने चार में बांटा है।
ओशो; दीया तले अंधेरा

= १७५ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*दादू कहिए कुछ उपकार को,*
*मानै अवगुण दोष ।*
*अंधे कूप बताइया, सत्य न मानै लोक ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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“भारत में मैं कई राजनेताओं को जानता था, लेकिन मैंने उनमें कोई भी दिमाग नहीं देखा। सरल सी बातें, जिन्हें कोई भी समझ सकता है, जिन्हें समझने के लिए कोई महान प्रतिभा नहीं चाहिए, वे बातें भी ये नेता नहीं समझते।
मेरे एक मित्र भारतीय सेना के सेनापति थे। जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया, तो इस व्यक्ति – जिनका नाम था जनरल चौधरी – ने प्रधानमंत्री से पलटवार की अनुमति मांगी; यह आवश्यक था, केवल रक्षात्मक रहना कोई मदद नहीं करने वाला था। यह तो एक सामान्य सैन्य रणनीति है; अगर आप रक्षात्मक हो जाते हैं, तो आप पहले ही हार चुके हैं। सबसे अच्छा तरीका आक्रामक होना है।
अगर पाकिस्तान ने कश्मीर के एक हिस्से पर हमला किया था, तो चौधरी का विचार था कि हम पाकिस्तान पर चार या पाँच मोर्चों से हमला करें। इससे वे भ्रमित हो जाएंगे, बिखर जाएंगे, उन्हें समझ नहीं आएगा कि अपनी सेना कहाँ भेजें। उनका हमला विफल हो जाएगा क्योंकि उन्हें अपने देश की सारी सीमाओं की रक्षा करनी होगी।
लेकिन राजनेता ! प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें सूचित किया – ‘सुबह 6 बजे तक इंतजार करो।’ जनरल चौधरी ने मुझे बताया कि उन्हें सेना से निकाल दिया गया – सार्वजनिक रूप से नहीं। सार्वजनिक रूप से उन्हें सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त किया गया, लेकिन उन्हें दरअसल निकाल दिया गया। उनसे कहा गया – ‘या तो तुम इस्तीफा दो या हम तुम्हें निकाल देंगे।’
कारण यह था कि उन्होंने सुबह 5 बजे ही पाकिस्तान पर हमला कर दिया – आदेश से एक घंटा पहले। वह समय बिल्कुल उपयुक्त था; 6 बजे तक तो सूरज निकल आता, लोग जाग चुके होते। 5 बजे हमला करने से दुश्मन पूरी तरह घबरा जाता – और उन्होंने वैसा ही किया – पूरा पाकिस्तान काँप उठा। वे लाहौर से सिर्फ 15 मील दूर थे – जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर है।
पूरी रात नेहरू और उनकी कैबिनेट इस बात पर चर्चा करते रहे – करना है या नहीं करना। और सुबह 6 बजे तक भी कोई निर्णय नहीं लिया गया था। उन्होंने रेडियो पर सुना – ‘जनरल चौधरी लाहौर में प्रवेश कर रहे हैं।’ यह बात राजनेताओं के लिए बहुत ज़्यादा हो गई। उन्होंने उन्हें रोक दिया – लाहौर से मात्र 15 मील पहले। 
और मैं देख सकता हूँ कि यह कितनी बड़ी मूर्खता थी। अगर जनरल ने लाहौर पर कब्जा कर लिया होता, तो कश्मीर और भारत की समस्या हमेशा के लिए सुलझ गई होती। अब यह कभी नहीं सुलझने वाली – जो कश्मीर का हिस्सा पाकिस्तान ने कब्जा किया है – और वह इसीलिए हुआ क्योंकि जनरल चौधरी को वापस बुला लिया गया, ‘क्योंकि भारत एक अहिंसक देश है और तुमने आदेश का इंतजार नहीं किया।’
उन्होंने उनसे कहा – ‘मैं सैन्य रणनीति समझता हूँ, आप नहीं समझते। सुबह 6 बजे तक आपका आदेश कहाँ था ? पाकिस्तान पहले ही कश्मीर के एक सुंदर हिस्से पर कब्जा कर चुका है – और आप बस पूरी रात चर्चा ही करते रहे। यह कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर चर्चा की जाए – यह युद्धभूमि पर तय की जाती है। अगर आपने मुझे लाहौर पर कब्जा करने दिया होता तो हम सौदेबाज़ी की स्थिति में होते। अब हम सौदेबाज़ी की स्थिति में नहीं हैं। आपने मुझे रोक दिया। मुझे लौटना पड़ा।’
संयुक्त राष्ट्र ने युद्धविराम रेखा तय कर दी। अब 40 सालों से UN की सेनाएँ वहाँ गश्त कर रही हैं, उस ओर पाकिस्तानी सेनाएँ गश्त कर रही हैं, इस ओर भारतीय सेनाएँ। 40 साल – सिर्फ बकवास ! और संयुक्त राष्ट्र में वे अब भी चर्चा करते हैं लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकलता।
और जिस क्षेत्र पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया है, उसे अब वापस नहीं लिया जा सकता क्योंकि युद्धविराम हो चुका है। उन्होंने अपनी संसद में यह तय कर लिया है कि जिस भूभाग पर उन्होंने कब्जा किया है, वह अब पाकिस्तान में सम्मिलित है। अब वे अपने नक्शों में उसे पाकिस्तान का हिस्सा दिखाते हैं। वह अब ‘अधिकृत क्षेत्र’ नहीं रहा, वह पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका है।
मैंने जनरल चौधरी से कहा था – ‘यह तो बहुत ही सरल बात थी कि तुम्हें सौदेबाज़ी की स्थिति में रहना चाहिए था। अगर तुमने लाहौर पर कब्जा कर लिया होता, तो वे तुरंत कश्मीर छोड़ने के लिए तैयार हो जाते, क्योंकि वे लाहौर नहीं गंवा सकते थे। या फिर अगर युद्धविराम होता, तो कोई बात नहीं – लाहौर हमारे पास रहता। किसी भी स्थिति में हमारे पास कुछ सौदेबाज़ी के लिए होता। भारत के पास अब कुछ नहीं है – फिर पाकिस्तान क्यों परवाह करेगा ?’
लेकिन राजनेताओं के पास निश्चित ही दिमाग नहीं होता।”
— ओशो (From Darkness to Light, 1987)

= १७४ =

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*दादू सरवर सहज का, तामें प्रेम तरंग ।*
*तहँ मन झूलै आत्मा, अपणे सांई संग ॥*
*साभार ~ @Krishna Krishna*
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*"इश्क़ और प्रेम – ये दो शब्द दिखने में पास-पास लगते हैं,लेकिन इनके बीच की दूरी उतनी ही है जितनी सतह और गहराई में होती है।* इश्क़ बाहर की यात्रा है – आँखों से शुरू होती है, कल्पनाओं में भटकती है, और आकांक्षाओं में उलझ जाती है। इश्क़ में चाह होती है – किसी को पाने की, किसी को बाँधने की, और जहां चाह होती है, वहाँ भय भी होता है – खो देने का। इसीलिए इश्क़ बेचैन करता है, थका देता है।
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लेकिन प्रेम... प्रेम भीतर की यात्रा है। प्रेम में पाने का कोई आग्रह नहीं, प्रेम में बस बहाव है – देना, और फिर भी खाली न होना। प्रेम आत्मा का संगीत है – जो शब्दों से परे है। प्रेम में तुम दूसरे को नहीं, खुद को मिटा देते हो। और वही मिट जाना – मिल जाना बन जाता है। इश्क़ में तुम किसी और में खुद को देखना चाहते हो, प्रेम में तुम खुद को भूल जाते हो – और वही भूलना, ध्यान है।
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*जब इश्क़ जागरूकता में रूपांतरित हो जाता है,तो वह प्रेम बन जाता है।और प्रेम... प्रेम तो परमात्मा की सुगंध है।"*
~ओशो 💞💞

रविवार, 27 अप्रैल 2025

= १७३ =

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*जिसकी सुरति जहाँ रहै, तिसका तहँ विश्राम ।*
*भावै माया मोह में, भावै आतम राम ॥*
*साभार ~ @Chetan Ram*
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🍁*आसक्ति का परिणाम*🍁

एक संन्यासी था विरक्त भाव से शान्ति से जंगल में रहते हुए ईश्वर प्राप्ति हेतु तप करता रहता था। एक दिन वहाँ से इक राहगीर व्यापारी गुजरा और उसने विश्राम हेतु एक रात वहीं उन संन्यासी की कुटिया में बितायी।
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वह संन्यासी के स्वभाव व सेवा से बहुत प्रसन्न हुआ और जाने से पहले उस व्यापारी ने संन्यासी को एक सुंदर कम्बल दान में दिया। संन्यासी को वह कम्बल बहुत आकर्षक लगा।
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वह उसे बार-बार छू कर निहारता रहता। ऐसा सुन्दर व कोमल कम्बल उसने कभी नहीं देखा था, वह अब हर क्षण उस कम्बल को नज़रों के सामने रखता। अतः संन्यासी का दिनों दिन उस कम्बल से लगाव गहरा होता गया।
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अब उसको हर समय कम्बल की चिंता सताती कि वह ख़राब या गन्दा न हो जाये, या फिर कहीं कोई और उसे चुरा न ले आदि। समय के साथ साथ ऐसा परिवर्तन हुआ कि जो श्रद्धा – प्रेम व लगाव उसके मन में परमात्मा के लिये था उसका स्थान अब उस कम्बल ने लिया था।
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अंततः कम्बल के प्रति आसक्ति के परिणामस्वरूप जब उसकी मृत्यु का क्षण आया तब भी उस समय उसके मन में अंतिम ख़्याल केवल कम्बल का ही आया।
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जिसके कारणवंश वह संन्यासी जो परमात्मा से अत्यंत प्रेम करता था परन्तु कम्बल के प्रति गहन आसक्ति की वजह से उसके जीवन व हृदय में परमात्मा का स्थान दूसरे नम्बर पर हो गया था और वह कम्बल अब उसकी पहली प्राथमिकता हो गया था, अत: प्राण त्यागते समय भी केवल कम्बल का विचार ही उसके मन में उत्पन्न हुआ।
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जैसाकि श्रीकृष्ण ने गीता के 8:5 श्लोक में कहा है कि जो कोई भी, मृत्यु के समय, अपने शरीर को छोड़ते समय केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह मुझे व मेरा स्वभाव प्राप्त कर लेता है। इसमें कोई संदेह नहीं है।
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परन्तु उस संन्यासी को परमात्मा से अधिक लगाव सांसारिक वस्तु — एक कम्बल से हो गया था अंततः उसी का ही ख़्याल उसे मरते समय आया।
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परिणामस्वरूप अब वह संन्यासी अगले जन्म मे पतंगा (कपड़े का कीड़ा – moth) बन कर पैदा हुआ। और लगभग अगले एक सौ जन्मों तक जब तक वह कम्बल कीड़ों द्वार खा कर पूर्णतः नष्ट नहीं हो गया तब तक वह संन्यासी बार-बार वही पंतगे का कीट बन कर पैदा होता रहा।
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अब इस कहानी के आधार पर अगर हम इस तथ्य का अवलोकन करें कि जीवन में हमें जो भी मिलता है क्या वह ईश्वर की कृपा है या हमारे कर्मों का फल! तो हम पाते हैं कि ईश्वर की कृपा तो सब के लिए बराबर मात्रा में बहती है परन्तु इस अस्थायी तथा नश्वर संसार के असंख्य सांसारिक आकर्षण व लगाव वह छतरियाँ हैं.... जिन्हें हम अपने सर पर छतरी की तरह खुला रखते हैं और परमात्मा की उस कृपा को स्वयं तक पहुँचने से स्वयं ही रोक देते हैं।
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ईश्वर ने अपनी लीला द्वारा हर वस्तु का निर्माण किया है, व उनसे आनन्द पाने के लिये हमें इन्द्रियां भी प्रदान की है। व उसके साथ-साथ परमात्मा ने हमारे क्रमिक विकास व उसे (पूर्ण परमात्मा) जो जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है को प्राप्त करने के लिये – हमारे हृदय में सदा अतृप्त रहने वाली एक तड़प व बेचैनी का भाव भी भर दिया है।
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जिसके कारण हम इस संसार में जब भी परमात्मा के अलावा कुछ भी और प्राप्त करते हैं तो निश्चितता कुछ समय के पश्चात हमारे मन में उस वस्तु के प्रति असंतुष्टी का भाव या फिर उसे खोने का भय शीघ्र ही उत्पन्न हो कर हमें बेचैन करने लगता है..!!

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

= १७२ =

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*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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लाओत्सु ने कहा हैः जब मैं कुछ सत्य की बात कहता हूं तो लोग हंसते हैं, उपहास करते हैं; तब मैं निश्चित समझ जाता हूं कि जौ मैंने कहा, वह सत्य ही होना चाहिए। अगर वह सत्य न होता तो लोग उपहास क्यों करते !
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एक फकीर थे~महात्मा भगवानदीन। वे मुझसे बोले कि जब भी मैं लोगों को ताली बजाते सुनता हूं. . . बड़े प्यारे वक्ता थे. . . तो मैं दुःखी हो जाता हूं। क्योंकि जब लोग ताली बजा रहे हैं तो मैंने जरूर कोई गलत बात कही होगी। जो लोगों तक की समझ में आ रही है, वह गलत ही होनी चाहिए। लोग इतने गलत हैं !
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वे बड़े नाराज हो जाते थे, जब उनके बोलने में कोई ताली बजा दे। बड़े नाराज हो जाते थे कि मैंने कोई ऐसी गलत बात कही कि तुम ताली बजाते हो ! लोग तो ताली बजाकर प्रसन्न होते हैं, सुनकर प्रसन्न होते हैं कि ताली बजायी जा रही है; वे बड़े नाराज हो जाते थे। वे कहते थे~मैं बोलूंगा ही नहीं, अगर ताली बजायी। तुमने ताली बजायी–मतलब कि कुछ गलत बात हो गयी।
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लाओत्सु ठीक कह रहा है कि अगर लोग उपहास न करते तो मैं समझ लेता कि यह सत्य होगा ही नहीं। सत्य का तो सदा उपहास होता है, क्योंकि लोग इतने असत्य हैं। लोग झूठे हैं, इसलिए सत्य पर हंसते हैं। हंसकर अपने को बचाते हैं। उनकी हंसी आत्मरक्षा है।
“जगत् करे उपहास, पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै॥’
फिकर ही मत करना संसार की; तुम तो अपनी प्रेम की सेज बिछा लेना और परमात्मा की याद करना कि तुम आओ, तुम्हारे लिए सेज तैयार कर रखी है।
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“प्रेम की सेज बिछाय, मेहर की चादर ओढ़ै। और करुणा की चादर ओढ़ना। प्रेम का बिस्तर बनाना और करुणा की चादर बना लेना। संसार के प्रति करुणा रखना, परमात्मा के प्रति प्रेम रखना–बस ये दो चीजें सध जाएं। हंसनेवालों के प्रति करुणा रखना, नाराजगी मत रखना। अगर नाराजगी रखी तो वे जीत जाएंगे। अगर करुणा रखी, तो ही तुम जीत पाओगे। वे हंसें, तो स्वीकार करना कि ठीक ही हंसते हैं। जहां वे खड़े हैं, वहां से उन्हें हंसी आती है हम पर, ठीक ही है। उनकी स्थिति में ऐसा ही होना स्वाभाविक है। उन पर करुणा रखना।
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“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’
यह बड़ा अपूर्व सूत्र है। पलटू कहते हैं कि भक्त के प्रेम में और करुणा में, और परमात्मा के स्मरण में अपने-आप भोग-विलास छूट जाता है।
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’
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भोग-विलास छोड़ना न पड़े, छूट जाए–ऐसी रहनी रहे। परमात्मा की स्मृति जिसके जीवन में भरी है, उसको कहां भोग-विलास की याद रह जाती है ! वह तो परमभोग भोग रहा है; अब तो छोटे-मोटे भोग की बात ही कहां ! हीरे बरस रहे हों तो कोई कंकड़-पत्थर बीनता है ? अमृत बह रहा हो तो कोई नाली के गंदे पानी को भर कर घर लाता है ? जहां फूलों की वर्षा हो रही हो, वहां कोई दुर्गंध समेटता है ? जहां सच्चा सुख मिल रहा हो वहां क्षणभंगुर सुख की कौन चिंता करता है ?
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’
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परमात्मा की मस्ती में रहे। परमात्मा के आनंद-भाव में रहे। परमात्मा के प्रेम में रहे और जगत्‌ के प्रति करुणा से भरा और सुरति की धारा बहे। बस फिर अपने-आप ऐसी रहनी पैदा हो जाती है, जीवन का ऐसा ढंग, जीवन में ऐसी चर्या पैदा हो जाती है कि भोग-विलास अपने-आप छूट जाते हैं। छोड़ने नहीं पड़ते, छोड़ने पड़ें, तो बात ही गलत हो गयी। छोड़ने पड़ें तो घाव रह जाएंगे; छूट जाएं तो बड़ा स्वास्थ्य और बड़ा सौंदर्य होता है। व्यर्थ को छोड़ना पड़े तो उसका अर्थ हुआ कि अभी कुछ सार्थकता दिखायी पड़ती थी, इसलिए चेष्टा करनी पड़ी, छोड़ना पड़ा। व्यर्थ व्यर्थ की भांति दिखायी पड़ जाए, तो फिर चेष्टा नहीं करनी पड़ती, हाथ खुल जाते हैं, व्यर्थ गिर जाता है। आदमी पीछे लौटकर भी नहीं देखता।
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“रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा॥’
फिर तो भूख-प्यास तक की याद नहीं रह जाती, क्योंकि श्वास-श्वास में उसी की ही याद चलती है। कहां का भोग, कहां का विलास ! कौन धन को इकट्ठे करने में पड़ता है ! कौन पद की चिंता करता है ! कौन आदर-समादर खोजता है ! कौन सम्मान खोजता है ! जिसको उस प्राण-प्यारे की तरफ से मान मिलने लगा, इस संसार में कोई मान अब अर्थ नहीं रखता। “मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा।’ यह जो श्वास के साथ याद बहने लगती है, इससे भूख-प्यास तक मर जाती है।
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एक तुमने बात कभी खयाल की–बहुत मनोवैज्ञानिक है ! जब तुम दुःखी होते हो, तुम ज्यादा भूखे-प्यासे अनुभव करते हो। जब तम दुःखी होते हो, तब तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो। क्योंकि दुःखी आदमी भीतर खाली-खाली मालूम पड़ता है–किसी से भी भर लो, किसी तरह भर लो भीतर का गङ्ढा ! 
सुखी आदमी कम भोजन करता है। परम सुख में तो भूख भूल ही जाती है। परम सुख में तुम ऐसे भरे मालूम पड़ते हो भीतर, कि कहां भूख, कहां प्यास ! जब भी सुख घटता है तो आदमी भर जाता है। जब भी जीवन में दुःख होता है, तो आदमी जबरदस्ती अपने को भरने लगता है; खाली-खाली मालूम पड़ता है–“चलो किसी भी चीज से भर लो।’
ओशो

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

= १७१ =

*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।*
*दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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अहिंसा क्या है ?
अहिंसा आत्मा है महावीर की दृष्टि से। अगर महावीर से हम पूछें कि एक ही शब्द में कह दें कि धर्म क्या है ? तो वे कहेंगे अहिंसा। कहा है उन्होंने– अहिंसा परम धर्म है।अहिंसा पर क्यों महावीर इतना जोर देते हैं ? किसी ने नहीं कहा, ऐसा अहिंसा को। कोई कहेगा, परमात्मा; कोई कहेगा, आत्मा; कोई कहेगा, सेवा; कोई कहेगा, ध्यान; कोई कहेगा, समाधि; कोई कहेगा, योग; कोई कहेगा, प्रार्थना; कोई कहेगा, पूजा।
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महावीर से अगर हम पूछें, उनके अंतर्तम में एक ही शब्द बसता है और वह है अहिंसा। क्यों ? तो जिसको महावीर के माननेवाले अहिंसा कहते हैं, अगर इतनी ही अहिंसा है तो महावीर गलती में हैं। तब बहुत क्षुद्र बात कही जा रही है। महावीर को माननेवाला अहिंसा से जैसा मतलब समझता है, उससे ज्यादा बचकाना, चाइल्डिश कोई मतलब नहीं हो सकता। उससे वह मतलब समझता है– दूसरे को दुख मत दो। महावीर का यह अर्थ नहीं है। क्योंकि धर्म की परिभाषा में दूसरा आये, यह महावीर बरदाश्त न करेंगे। इसे थोड़ा समझें।
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धर्म की परिभाषा स्वभाव है, और धर्म की परिभाषा दूसरे से करनी पड़े कि दूसरे को दुख मत दो, यही धर्म है, तो यह धर्म भी दूसरे पर ही निर्भर और दूसरे पर ही केंद्रित हो गया है। महावीर यह भी न कहेंगे कि दूसरे को सुख दो, यही धर्म है। क्योंकि फिर वह दूसरा तो खड़ा ही रहा। महावीर कहते हैं– धर्म तो वहां है, जहां दूसरा है ही नहीं। इसलिए दूसरे की व्याख्या से नहीं बनेगा।
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दूसरे को दुख मत दो– यह महावीर की परिभाषा इसलिए भी नहीं हो सकती, क्योंकि महावीर मानते नहीं कि तुम दूसरे को दुख दे सकते हो, जब तक दूसरा लेना न चाहे। इसे थोड़ा समझना। यह भ्रांति है कि मैं दूसरे को दुख दे सकता हूं और यह भ्रांति इसी पर खड़ी है कि मैं दूसरे से दुख पा सकता हूं, मैं दूसरे से सुख पा सकता हूं, मैं दूसरे को सुख दे सकता हूं। ये सब भ्रांतियां एक ही आधार पर खड़ी हैं।
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अगर आप दूसरे को दुख दे सकते हैं तो क्या आप सोचते हैं, आप महावीर को दुख दे सकते हैं ? और अगर आप महावीर को दुख दे सकते हैं तो फिर बात खत्म हो गयी। नहीं, आप महावीर को दुख नहीं दे सकते। क्योंकि महावीर दुख लेने को तैयार ही नहीं हैं। आप उसी को दुख दे सकते हैं जो दुख लेने को तैयार है। और आप हैरान होंगे कि हम इतने उत्सुक हैं दुख लेने को, जिसका कोई हिसाब नहीं।
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आतुर हैं, प्रार्थना कर रहे हैं कि कोई दुख दे। दिखाई नहीं पड़ता...दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन खोजें अपने को। अगर एक आदमी आपकी चौबीस घंटे प्रशंसा करे, तो आपको सुख न मिलेगा, और एक गाली दे दे तो जन्म भर के लिए दुख मिल जाएगा। एक आदमी आपकी वर्षो सेवा करे, आपको सुख न मिलेगा, और एक दिन आपके खिलाफ एक शब्द बोल दे और आपको इतना दुख मिल जाएगा कि वह सब सुख व्यर्थ हो गया। इससे क्या सिद्ध होता है ?
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इससे यह सिद्ध होता है कि आप सुख लेने को इतने आतुर नहीं दिखाई पड़ते हैं जितना दुख लेने को आतुर दिखाई पड़ते हैं। यानी आपकी उत्सुकता जितनी दुख लेने में है उतनी ही सुख लेने में नहीं है। अगर मुझे किसी ने उन्नीस बार नमस्कार किया और एक बार नमस्कार नहीं किया, तो उन्नीस बार नमस्कार से मैंने जितना सुख नहीं लिया है, एक बार नमस्कार न करने से उतना दुख ले लूंगा।
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आश्चर्य है ! मुझे कहना चाहिए था, कोई बात नहीं है, हिसाब अभी भी बहुत बड़ा है। कम से कम बीस बार न करे तब बराबर होगा। मगर वह नहीं होता है। तब भी बराबर होगा, तब भी दुख लेने का कोई कारण नहीं है, मामला तब तराजू में तुल जाएगा। लेकिन नहीं, जरा सी बात दुख दे जाती है। हम इतने सैंसिटिव हैं दुख के लिए, उसका कारण क्या है ? उसका कारण यही है कि हम दूसरे से सुख चाहते हैं - इतना ज्यादा कि वही चाह हमें दुख मिलने का द्वार बन जाती है, और तब दूसरे से सुख तो मिलता नहीं – मिल नहीं सकता। फिर दुख मिल सकता है, उसको हम लेते चले जाते हैं।
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महावीर नहीं कह सकते कि अहिंसा का अर्थ है दूसरे को दुख न देना। दूसरे को कौन दुख दे सकता है, अगर दूसरा लेना न चाहे। और जो लेना चाहता है उसको कोई भी न दे तो वह ले लेगा। यह भी मैं आपसे कह देना चाहता हूं। कोई वह आपके लिए रुका नहीं रहेगा कि आपने नहीं दिया तो दुख कैसे लें। लोग आसमान से दुख ले रहे हैं। जिन्हें दुख लेना है, वे बड़े इन्वेन्टिव हैं । वे इस-इस ढंग से दुख लेते हैं, इतना आविष्कार करते हैं कि जिसका हिसाब नहीं है। वे आपके उठने से दुख ले लेंगे, आपके बैठने से दुख ले लेंगे, आपके चलने से दुख ले लेंगे, किसी चीज से दुख ले लेंगे। अगर आप बोलेंगे तो दुख ले लेंगे, अगर आप चुप बैठेंगे तो दुख ले लेंगे कि आप चुप क्यों बैठे हैं, इसका क्या मतलब ?
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हम दुख के लिए भी उत्सुक हैं– कम से कम दुख तो दो, अगर सुख न दे सको। कुछ तो दो, दुख भी दोगे तो चलेगा, लेकिन दो। इसलिए हम आतुर हैं चारों तरफ, और संवेदनशील हैं। हम अपनी सारी इंद्रियों को चारों तरफ सजग रखते हैं, एक ही काम के लिए कि कहीं से दुख आ रहा हो तो चूक न जाएं। तो उसे जल्दी से ले लें। कहीं कोई और न ले ले; कहीं चूक न जाएं; कहीं अवसर न खो जाए। यह दुख हमारे रहने की वजह है, जीने की वजह है।
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जितने दुख आपको मिल रहे हैं उसमें से निन्यानबे प्रतिशत आपके आविष्कार हैं। निन्यानबे प्रतिशत! जरा खोजें कि किस-किस तरह आप आविष्कार करते हैं दुख का। कौन-कौन सी तरकीबें आपने बिठा रखी हैं! असल में बिना दुखी हुए आप रह नहीं सकते। क्योंकि दो ही उपाय हैं, या तो आदमी सुखी हो तो रह सकता है, या दुखी हो तो रह सकता है। अगर दोनों न रह जाएं तो जी नहीं सकता।
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दुख भी जीने के लिए काफी बहाना है। दुखी लोग देखते हैं आप, कितने रस से जीते हैं? इसको जरा देखना पड़ेगा। दुखी लोग कितने रस से जीते हैं? वह अपने दुख की कथा कितने रस से कहते हैं? दुखी आदमी की कथा सुनें, कैसा रस लेता है। और कथा को कैसा मैग्निफाई करता है, उसको कितना बड़ा करता है। सुई लग जाए तो तलवार से कम नहीं लगती है उसे।
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कभी आपने खयाल किया है कि आप किसी डाक्टर के पास जाएं और वह आपसे कह दे कि नहीं, आप बिलकुल बीमार नहीं हैं, तो कैसा दुख होता है ! वह डाक्टर ठीक नहीं मालूम पड़ता । किसी और बड़े एक्सपर्ट को खोजना पड़ता है, इससे काम नहीं चलेगा। यह कोई डाक्टर है ! आप जैसे बड़े आदमी, और आपको कोई बीमारी ही नहीं है। या कोई छोटी- मोटी बीमारी बता दे, कि कह दे, गर्म पानी पी लेना और ठीक हो जाओगे। तो भी मन को तृप्ति नहीं मिलती।
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इसलिए डाक्टरों को, बेचारों को अपनी दवाइयों के नाम लैटिन में रखने पड़ते हैं, चाहे उसका मतलब होता हो अजवाइन का सत। लेकिन लैटिन में जब नाम होता है, तब मरीज अकड़ कर घर लौटता है, प्रिस्क्रिप्शन लेकर कि ये कुछ काम हुआ ! जिएंगे कैसे, अगर दुख न हो तो जिएंगे कैसे ! या तो आनंद हो तो जीने की वजह होती है। आनंद न हो तो दुख तो हो ही !
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तो महावीर की अहिंसा का यह अर्थ नहीं है कि दूसरे को दुख मत देना, क्योंकि महावीर तो कहते ही यह हैं कि दूसरे को न कोई दुख दे सकता है और न कोई सुख दे सकता है। महावीर की अहिंसा का यह भी अर्थ नहीं है कि दूसरे को मारना मत, मार मत डालना क्योंकि महावीर भलीभांति जानते हैं कि इस जगत में कौन किसको मार सकता है, मार डाल सकता है।
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महावीर से ज्यादा बेहतर और कौन जानता होगा यह कि मृत्यु असंभव है। मरता नहीं है कुछ। तो महावीर का यह मतलब तो कतई नहीं हो सकता कि मारना मत, मार मत डालना किसी को क्योंकि महावीर तो भलीभांति जानते हैं। और अगर इतना भी नहीं जानते तो महावीर के महावीर होने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। लेकिन महावीर के पीछे चलने वाले बहुत साधारण-साधारण परिभाषाओं का ढेर इकट्ठा कर दिये हैं।
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कहते हैं, अहिंसा का अर्थ यह है कि मुंह पर पट्टी बांध लेना, कि अहिंसा का अर्थ यह है कि संभलकर चलना कि कोई कीड़ा न मर जाए, कि रात पानी मत पी लेना, कि कहीं कोई हिंसा न हो जाए। यह सब ठीक है। मुंह पर पट्टी बांधना - कोई हर्जा नहीं है, पानी छानकर पी लेना - बहुत अच्छा है। पैर संभालकर रखना, यह भी बहुत अच्छा है, लेकिन इस भ्रम में नहीं कि आप किसी को मार सकते थे। इस भ्रम में नहीं। मत देना किसी को दुख, बहुत अच्छा है। लेकिन इस भ्रम में नहीं कि आप किसी को दुख दे सकते थे।
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मेरे फर्क को आप समझ लेना। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप जाना और मारना और काटना; क्योंकि मार तो कोई सकते ही नहीं हैं - यह मैं नहीं कह रहा हूं ! महावीर की अहिंसा का अर्थ ऐसा नहीं है। महावीर की अहिंसा का अर्थ ठीक वैसा है जैसे बुद्ध के तथाता का। इसे थोड़ा समझ लें। महावीर की अहिंसा का अर्थ वैसा ही है जैसे बुद्ध के तथाता का। तथाता का अर्थ होता है टोटल एक्सेप्टेबिलिटी, जो जैसा है वैसा ही हमें स्वीकार है। हम कुछ हेर-फेर न करेंगे।
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अब एक चींटी चल रही है रास्ते पर, हम कौन हैं जो उसके रास्ते में किसी तरह का हेर-फेर करने जाएं ? अगर मेरा पैर भी पड़ जाए तो मैं उसके मार्ग पर हेर-फेर करने का कारण और निमित्त तो बन जाता हूं। और मार्ग बहुत है। वह चींटी अभी जाती थी। अपने बच्‍चों के लिए शायद भोजन जूटाने जा रही थी। पता नहीं उसकी अपनी योजनाओ का जगत हे। मैं उसके बीच में न आ जाऊं। ऐसा नहीं है कि न आने से मैं बच जाऊंगा। फिर भी आ सकता हूं। लेकिन महवीर कहते है मैं उसकी तरफ से बीच में न आऊं।
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जरूरी नहीं है कि मैं ही चींटी पर पैर रखूं, तब वह मरे। चींटी खुद मेरे पैर के नीचे आकर मर सकती है। वह चींटी जाने, वह उसकी योजना जाने। महावीर जानते हैं कि यह जीवन के पथ पर प्रत्येक अपनी योजना में संलग्न है। वह योजना छोटी नहीं है। वह योजना बड़ी है, जन्मों-जन्मों की है। वह कर्मो का बड़ा विस्तार है उसका। उसकी अपने कर्मों की, फलों की लंबी यात्रा है। मैं किसी की यात्रा पर किसी भी कारण से बाधा न बनूं। मैं चुपचाप अपनी पगडंडी पर चलता रहूं। मेरे कारण निमित्त के लिए भी किसी के मार्ग पर कोई व्यवधान खड़ा न हो। मैं ऐसा हो जाऊं, जैसे हूं ही नहीं।
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अहिंसा का महावीर का अर्थ है कि मैं ऐसा हो जाऊं, जैसे मैं हूं ही नहीं। यह चींटी यहां से ऐसे ही गुजर जाती है जैसे कि मैं इस रास्ते पर चला ही नहीं था, और ये पक्षी इन वृक्षों पर ऐसे ही बैठे रहते हैं जैसे कि मैं इन वृक्षों के नीचे बैठा ही नहीं था। ये लोग इस गांव के, ऐसे ही जीते रहते हैं जैसे मैं इस गांव से गुजरा ही नहीं था । जैसे मैं नहीं हूं। महावीर का गहनतम जो अहिंसा का अर्थ है, वह है एब्सेंस, जैसे मैं नहीं हूं।
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मेरी प्रेजेंस कहीं अनुभव न हो, मेरी उपस्थिति कहीं प्रगाढ़ न हो जाए, मेरा होना कहीं किसी के होने में जरा-सा भी अड़चन, व्यवधान न बने। मैं ऐसे हो जाऊं जैसे नहीं हूं। मैं जीते जी मर जाऊं। अहिंसा का अर्थ है, गहनतम अनुपस्थिति। इसलिए मैंने कहा कि बुद्ध का जो तथाता का भाव है, वही महावीर की अहिंसा का भाव है। तथाता का अर्थ है — जैसा है, स्वीकार है। अहिंसा का भी यही अर्थ है कि हम परिवर्तन के लिए जरा भी चेष्टा न करेंगे।
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जो हो रहा है ठीक है, जो हो जाए, ठीक है। जीवन रहे तो ठीक है, मृत्यु आ जाए तो ठीक है। हमारी हिंसा किस बात से पैदा होती है ? जो हो रहा है वह नहीं, जो हम चाहते हैं वह हो। तो हिंसा पैदा होती है। हिंसा है क्या ? इसलिए युग में जितना ज्यादा परिवर्तन की आकांक्षा भरती है, युग उतने ही हिंसक होते चले जाते हैं । आदमी जितना चाहता है, ऐसा हो, उतनी हिंसा बढ़ जाएगी।
ओशो
महावीर वाणी, प्रवचन 4

गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

= १७० =

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*कर्मै कर्म काटै नहीं, कर्मै कर्म न जाइ ।*
*कर्मै कर्म छूटै नहीं, कर्मै कर्म बँधाइ ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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*अष्‍टावक्र': महागीता*~*‘तू असंग है।’*
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कोई तेरा संगी-साथी नहीं। शरीर भी तेरा संगी-साथी नहीं, श्वास भी तेरी संगी-साथी नहीं, मन के विचार भी तेरे संगी-साथी नहीं। तू असंग है। भीतर भी कोई साथी नहीं, बाहर की तो बात ही क्या ! पति-पत्नी, परिवार, मित्र, प्रियजन कोई साथी नहीं। साथ होंगे, संगी कोई भी नहीं। साथ होना केवल बाह्य घटना है। भीतर से किसी से कोई जोड़ बनता नहीं। तू असंग, क्रिया-शून्य है।
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इसलिए कर्म के जाल की तो बात ही मत उठाओ। अगर अष्टावक्र से तुम यह पूछोगे कि आप कहते हो अभी-अभी हो सकती है मुक्ति, तो कर्मों का क्या होगा ? जन्म-जन्म तक पाप किये, उनका क्या होगा ? उनसे छुटकारा कैसे होगा ? अष्टावक्र कहते हैं, तुमने कभी किये ही नहीं। भूख के कारण शरीर ने किया होगा कुछ। प्राण के कारण प्राण ने किया होगा कुछ। मन के कारण मन ने किया होगा कुछ।
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तुमने कभी कुछ नहीं किया। तुम सदा से असंग हो; अकर्म में हो। कर्म तुमसे कभी हुआ नहीं, तुम सारे कर्मों के द्रष्टा हो। इसलिए इसी क्षण मुक्ति हो सकती है। खयाल करना, अगर कर्मों के सारे जाल को हमें तोड़ना पड़े तो शायद मुक्ति कभी भी न हो सकेगी। असंभव है। अनंत काल में हमने कितने कर्म किये, उनका कुछ लेखा-जोखा करो। अगर उन सब कर्मों से छूटना पड़े तो उन कर्मों से छूटने में अनंत काल लगेगा।
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और यह जो अनंत काल छूटने में लगेगा, इसमें भी तुम बैठे थोड़े ही रहोगे, कुछ तो करोगे। तो कर्म तो फिर होते चले जायेंगे। तो यह श्रृंखला तो अंतहीन हो जायेगी। इस श्रृंखला की तो कभी कोई समाप्ति आने वाली नहीं, इसमें से कोई निष्कर्ष आने वाला नहीं। अष्टावक्र कहते हैं, अगर कर्मों से मुक्त होना पड़े, फिर मुक्ति होती हो, तो मुक्ति कभी होगी ही नहीं। लेकिन मुक्ति होती है।
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मुक्‍ति का होना इस बात का सबूत है कि आत्मा ने कर्म कभी किये ही नहीं। न तो तुम पापी हो न तुम पुण्यात्मा हो; न तुम साधु हो न तुम असाधु हो। न तो कहीं कोई नर्क है और न कहीं कोई स्वर्ग है। तुमने कभी कुछ किया नहीं; तुमने सिर्फ सपने देखे हैं, तुमने सिर्फ सोचा है। तुम भीतर सोये रहे, शरीर करता रहा। जिन शरीरों ने कर्म किये थे, वे जा चुके। उनका फल तुम्हारे लिए कैसा।
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तुम तो भीतर सोये रहे, मन ने कर्म किये। जिस मन ने किये वह प्रतिपल जा रहा है। मैंने सुना है, एक भूतपूर्व महाराजा ने देखा कि ड्राइंग-रूम गंदा है। तो नौकर झनकू को डांटा। कहा, बैठक में मकड़ी के जाले लगे हैं। तुम दिन भर क्या करते हो ? झनकू ने कहा, हुजूर ! जाला कौनो मकड़ी लगाई होई। हम तो अपन कोठरिया में औंघात रहे ! तुम तो औंघाते रहे भीतर, जाला कौनो मकड़ी लगाई होई।
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शरीर ने जाले बुने, मन ने जाले बुने, प्राण ने जाले बुने—तुम तो सोये रहे। जागो ! जागते ही तुम पाओगे तुमने तो कभी कुछ किया नहीं। तुम तो करना भी चाहो तो कुछ कर नहीं सकते। अकर्म तुम्हारा स्वभाव है। अकर्ता तुम्हारी स्वाभाविक दशा है।
ओशो; अष्‍टावक्र: महागीता

= १६९ =

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*आपै मारै आपको, आप आप को खाइ ।*
*आपै अपना काल है, दादू कहि समझाइ ॥*
*आपै मारै आपको, यहु जीव विचारा ।*
*साहिब राखणहार है, सो हितू हमारा ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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महावीर के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है..
महावीर के जन्म-उत्सव पर थोड़ी सी बातें आपसे कहूं, इससे मुझे आनंद होगा। आनंद इसलिए होगा कि आज मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए सिवाय महावीर के और कोई रास्ता नहीं है। मनुष्य को मनुष्य के ही हाथों से बचाने के लिए महावीर के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है।
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ऐसा कभी कल्पना में भी संभव नहीं था कि मनुष्य खुद के विनाश के लिए इतना उत्सुक हो जाएगा। इतनी तीव्र आकांक्षा और प्यास उसे पैदा होगी कि वह अपने को समाप्त कर ले, इसकी हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन विगत पचास वर्षों से मनुष्य अपने को समाप्त करने के सारे आयोजन कर रहा है ! उसकी पूरी चेष्टा यह है कि एक-दूसरे को हम कैसे समाप्त कर दें, कैसे विनष्ट कर दें !
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पिछले पचास वर्षों में दो महायुद्ध हमने लड़े हैं और दस करोड़ लोगों की उसमें हत्या की है। और ये युद्ध बहुत छोटे युद्ध थे, जिस तीसरे महायुद्ध की हम तैयारी में हैं, संभव है वह अंतिम युद्ध हो, क्योंकि उसके बाद कोई मनुष्य जीवित न बचे। मनुष्य ही जीवित नहीं बचेगा, वरन कहा जा सकता है कि कोई प्राण जीवित नहीं बचेगा।.. हर आदमी जो मौजूद है इस जमीन पर, इस जमीन पर जो हो रहा है, उसका सहयोग उसमें है।
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अगर दुनिया में दस करोड़ लोग मारे गए हैं, स्मरण रखें, उस हत्या का जिम्मा आप पर है। कोई यह भूल से न समझे कि उस हत्या पर मेरा जिम्मा नहीं है। जो सोचता हो कि मैं चींटियों को बचा कर निकल जाता हूं, जो सोचता हो कि पानी छान कर मैं पी लेता हूं, इसलिए मुझ पर हिंसा का क्या भार है, वह नासमझ है। उसे पता नहीं, हिंसा बहुत गहरी और बहुत सामूहिक है।
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अगर मेरे मन में थोड़ा सा भी क्रोध उठता है, अगर मेरे मन में थोड़ी सी भी घृणा उठती है, अगर मेरे मन में दूसरे को नष्ट करने का थोड़ा सा भी खयाल उठता है, तो नागासाकी में जो अणु बम गिरा, उसमें मेरा हाथ है। और भविष्य में भी अगर किसी मुल्क पर, किसी का दुर्भाग्य होगा और अणु बम गिरेंगे, उसमें मेरा हाथ होगा। वह मेरे छोटे से क्रोध की चिनगारी, जब लाखों लोगों के क्रोध की चिनगारियां इकट्ठी होती हैं तो युद्ध में परिणत हो जाती हैं। बड़े युद्ध आकाश में नहीं लड़े जाते हैं, लोगों के हृदय में लड़े जाते हैं।
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अगर आपके हृदय में क्रोध उठता है, सारे युद्धों के लिए आप जिम्मेवार होंगे। अगर आपके हृदय में घृणा उठती है, सारे युद्धों का भार और उत्तरदायित्व आपको अनुभव करना होगा। और जब तक यह अनुभव न हो, जब तक मैं सारी जमीन पर जो हो रहा है उसमें अपने को सहयोगी अनुभव न करूं, तब तक मैं धार्मिक नहीं हो सकता हूं।
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यह जो स्थिति है समय की, यह जो रुख है चीजों का, यह जो प्रवाह है समय का, इसे बदलना होगा अगर मनुष्य को बचाना है। अगर मनुष्य को बचाना है, तो मनुष्य को बदलना अपरिहार्य हो गया है। और अगर हम थोड़ी देर भी चूक गए और मनुष्य को हम नहीं बदल सके तो मनुष्यता को बचाना असंभव हो जाएगा। यह पचास वर्ष भी मुश्किल है कि आदमी बच जाए।
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यह मुश्किल है कि हम सन दो हजार देख पाएं। हम बीसवीं सदी को पूरा होते देख पाएं, यह असंभव मालूम होता है। जैसा मनुष्य है, अगर वह वैसा ही रहा, तो यह मुश्किल है कि मनुष्य के बचने की कोई संभावना मानी जाए। मनुष्य का भाग्य और मनुष्य का जीवन और भविष्य समाप्त हो गया है। एक ही आशा की किरण है कि मनुष्य परिवर्तित हो सके। और वह मनुष्य के परिवर्तन की किरण महावीर से मिल सकती है।
– ओशो, महावीर या महाविनाश
प्रवचन: ०५ व्यक्ति है परमात्मा
भगवान महावीर जयंती की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं !

= १६८ =

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*स्वांगी साधु बहु अन्तरा, जेता धरणी आकाश ।*
*साधु राता राम सौं, स्वांगी जगत की आश ॥*
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मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर है। उस गांव का राजा रात को निकलता है कभी, तो बार-बार उस फकीर को देखता है कि नीम के वृक्ष के नीचे वह सर्दी की रातों में ठिठुरता रहता है। फिर उसने गांव में पता लगाया। उसके वजीरों ने कहा, वह साधारण आदमी नहीं है, वह बहुत, बहुत अदभुत व्यक्ति है; कहीं पहुंच गया, कुछ पा लिया, कुछ हो गया है उसकी जिंदगी में। तो सम्राट ने एक रात उससे जाकर कहा कि आप यहां न पड़े रहें, मेरे मन में बड़ी श्रद्धा का उदय हुआ है, चलें आप राजमहल में, वहीं निवास करें।
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राजा ने सोचा--शायद न भी सोचा हो, लेकिन अचेतन में कहीं छाया रही होगी--कि संन्यासी तो फौरन कहेगा, राजमहल ? मैं नहीं जा सकता हूं। हम फकीर हैं, हम झोपड़ों में सड़क के किनारे पड़े रहते हैं। राजमहल हमारे लिए नहीं है। लेकिन सम्राट यह कह ही रहा था कि तभी वह फकीर उचका और राजा के घोड़े पर सवार हो गया। और उसने कहा, चलिए, किस तरफ चलें ?
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राजा को बड़ी मुश्किल हो गई। श्रद्धा एकदम समाप्त हो गई। उसने कहा कि मैंने कहा भी नहीं और यह आदमी राजी हो गया ! यह कैसा संन्यासी है ? लेकिन अपने ही शब्द वापस लेने में भी तो देर लग जाती है। अब एकदम से कैसे शब्द वापस ले ले ! मन तो वहीं खट्टा हो गया। क्योंकि भोगी जो हैं वे सिर्फ त्यागियों को पूज सकते हैं। भोगियों की पूजा ने ही त्यागियों को पैदा किया हुआ है।
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इसलिए जिसकी धन से जितनी ज्यादा लोलुपता होगी, वह उस आदमी के पास जाकर पैर छुएगा जिसने धन को लात मार दी होगी। वह इसलिए पैर छुएगा कि हां, यह है कुछ आदमी। यह पहुंच गया वहां जहां मुझे भी पहुंचना चाहिए। जो आदमी स्त्रियों के पीछे दीवाना होगा, वह ब्रह्मचारी के जाकर पैर पड़ेगा। वह कहेगा कि यह है आदमी। हम अपने से उलटे को पूजते हैं। 
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और अगर पूजा लेनी हो तो आम लोग जैसे हैं उससे उलटे होना जरूरी हो जाता है। अगर वे पैर से चलते हैं तो आप शीर्षासन करिए, फिर पूजा मिलनी शुरू हो जाती है। पूजा सिर्फ उलटे को मिलती है। और जो उलटा है, वह बदला हुआ नहीं है। सिर के बल खड़े हो जाइए चाहे पैर के बल, आदमी आप वही हैं। आदमी नहीं बदल जाता सिर के बल खड़े होने से।
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राजा बहुत मुश्किल में पड़ गया, लेकिन निमंत्रण दिया था तो फकीर को घर ले गया। अच्छे से अच्छा महल था, फकीर को ठहरा दिया। लेकिन श्रद्धा चली गई। क्योंकि श्रद्धा भोगी की त्यागी में हो सकती है। और धीरे-धीरे श्रद्धा मिटती गई। क्योंकि जो भी खाने को कहा, उसने खाना ले लिया; जहां भी सोने को कहा, वह सो गया--मखमली गद्दे थे तो स्वीकार कर लिए। 
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तब तो राजा ने कहा, बात सब खराब हो गई। मैं बड़ी गलती में पड़ गया। मैं किस तरह के आदमी को ले आया ! छह महीने बाद राजा ने एक दिन जाकर उस फकीर को कहा कि एक सवाल मेरे मन में उठा है, पूछ लूं ? वह सवाल यह है कि मुझमें और आपमें अब फर्क क्या है ? उस संन्यासी ने कहा, तुम छह महीने बाद पूछ रहे हो, सवाल तो उसी रात उठ गया था।
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उसने कहा, क्या मतलब ? संन्यासी ने कहा, जब मैं घोड़े पर सवार हुआ था, तभी सवाल उठ गया था। लेकिन बड़े कमजोर आदमी हो, पूछने में भी छह महीने लगा दिए ! उस राजा ने कहा, शायद आप ठीक कहते हैं, सवाल तो उसी वक्त उठ गया था।
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तो उसी वक्त पूछ लेना था, उस फकीर ने कहा। कैसे कमजोर आदमी हो ! फिर राजा ने कहा, अब आज तो बता दें, कि अब मुझमें और आपमें फर्क क्या है ? फकीर ने कहा, सच में ही फर्क जानना है, तो चलो उसी जगह चलें जहां से यह सवाल उठा था। वहीं जवाब दे दूंगा। वे गए गांव के बाहर, उस झाड़ के नीचे, फिर वे चलते ही गए। राजा ने कहा, वह झाड़ भी निकल गया, अब आप जवाब दे दें।
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उस फकीर ने कहा, थोड़े और आगे, थोड़े और आगे। फिर वे गांव की सीमा-रेखा पर पहुंच गए, जहां राजा का राज्य समाप्त हो जाता था। नदी थी, फकीर ने कहा, नदी भी पार कर लें। उस राजा ने कहा, लेकिन मतलब क्या है ? अब जवाब दीजिए, दोपहर हो गई, धूप सिर पर चढ़ गई। उस फकीर ने कहा, जवाब मेरा यही है कि अब मैं तो आगे जाता हूं, तुम भी साथ चलते हो ?
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उस राजा ने कहा, मैं कैसे जा सकता हूं ? मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा राज्य ! उस फकीर ने कहा, तो मैं तो जाता हूं। अगर फर्क दिखाई पड़े तो देख लेना। तुम्हारे महल में मैं था, लेकिन तुम्हारा महल मेरे भीतर न था। तुम सिर्फ महल में नहीं हो, महल भी तुम्हारे भीतर है। 
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अब कहां है महल तुम्हारा ? कहां है पत्नी ? कहां हैं तुम्हारे बच्चे ? लेकिन तुम कहते हो कि मुझे लौटना पड़ेगा--मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरा महल ! मेरा कुछ भी नहीं है। मैं तुम्हारे महल में मेहमान था, मैं तुम्हारे महल का मालिक न था। महल के भीतर था मैं, लेकिन महल मेरे भीतर न था। अच्छा मैं जाऊं ?
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राजा के मन में श्रद्धा का फिर उदय हुआ। श्रद्धा के उदय होने में भी देर नहीं लगती, जाने में भी देर नहीं लगती। वह एकदम संन्यासी के पैर पकड़ लिया और उसने कहा, महाराज, कहां मुझे छोड़ कर जाते हैं ! वापस चलें।
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उसने कहा, मैं फिर घोड़े पर सवार हो सकता हूं, लेकिन श्रद्धा का अंत हो जाएगा। अब तुम मुझे जाने दो। मुझे कोई कठिनाई नहीं है, मैं लौट सकता हूं। लेकिन तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। छह महीने मैं तो बड़े मजे में सोया, तुम बड़ी मुसीबत में रहे। 
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फिर सवाल उठ जाएगा, अगर मैं लौटा। तो अब मत लौटाओ। मैं तो लौट सकता हूं, क्योंकि मेरे लिए यह दिशा और वह दिशा, सब बराबर है। इधर जाऊं कि इधर जाऊं, कि कहीं न जाऊं, कोई फर्क नहीं पड़ता है। लेकिन तुम मुसीबत में पड़ जाओगे।
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इस आदमी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो संसार से भयभीत है वह संन्यासी नहीं है। लेकिन जो संसार में ऐसे रहने लगा, जैसे मेहमान है, अतिथि है; जो संसार में ऐसे रहने लगा कि संसार चारों तरफ है, लेकिन उसके भीतर नहीं है; वह आदमी संन्यस्त है।
~आचार्य रजनीश "ओशो"
"समाधि के द्वार पर-प्रवचन-१"

= १६७ =

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*दादू अहनिशि सदा शरीर में,*
*हरि चिंतत दिन जाइ ।*
*प्रेम मगन लै लीन मन,*
*अन्तरगति ल्यौ लाइ ॥*
*साभार ~ @Chetan Ram*
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🌼 शबरी की प्रतीक्षा राम के लिए थी… लेकिन उसका प्रेम — शिव को भी झुका गया। शबरी अब अकेली थीं। राम जा चुके थे। राह तकते-तकते… अब ना पाँवों में गति थी, ना हाथों में फूलों की थाली। वो उसी चबूतरे पर बैठी थीं — जहाँ कल राम बैठे थे। आँखें धीरे-धीरे मुंदने लगी थीं… लेकिन मन अब भी राम में डूबा था।
🍂 उसी रात — शिव प्रकट हुए।
माँ पार्वती साथ थीं। शबरी ने आँखें खोलीं… पर कुछ दिखाई नहीं दिया। लेकिन भक्ति तो आँखों से नहीं, हृदय से देखती है। धीरे से बोली — “प्रभु… आप तो राम हैं?” शिव मुस्कराए। “नहीं देवी… आज मैं उस प्रेम को देखने, समझने और वंदन करने आया हूँ — जो तुमने मेरे राम को दिया।”
पार्वती मौन थीं। शबरी की कुटिया में वो चुपचाप खड़ी थीं — वो प्रेम, वो प्रतीक्षा, वो त्याग… जिसे उन्होंने खुद भी कभी इतनी तीव्रता से नहीं जिया। शिव झुके। उनके नेत्र नम थे।
“शबरी… जो राम को अपना मान लेता है, उसे मैं भी अपना मान लेता हूँ। पर आज मैं भिक्षा माँगने आया हूँ… क्या वही बेर दे सकती हो, जो तुमने कल मेरे राम को दिए?” 
शबरी ने कहा —
“वो तो बच गए हैं प्रभु… सूख चुके हैं… कल रात से वैसे ही रखे हैं।”
शिव ने मुस्कराकर कहा — “वही चाहिए मुझे। क्योंकि जो प्रेम से दिया गया हो — वो कभी बासी नहीं होता। राम ने प्रेम लिया… अब मैं उसे प्रसाद मानकर स्वीकार करता हूँ।” 
शिव ने बेर मुख में रखे। नेत्र मूँद लिए। और मुख से निकला — “भक्ति न तर्क से आती है, न शास्त्र से… भक्ति सिर्फ समर्पण से आती है… और तू समर्पण है, शबरी।” शबरी बस सुनती रही… और फिर मौन हो गई। नेत्र बंद हुए। शरीर शांत हुआ। और आत्मा — राम में लीन हो गई।
शिव और पार्वती कुछ देर वहीं बैठे रहे… जैसे कोई प्रिय — किसी अपने के जाने के बाद, थोड़ी देर और उसके पास बैठना चाहता हो।
🌿 क्या आपने कभी ऐसा प्रेम देखा है? जहाँ ना माँगा कुछ… ना पाया कुछ… बस प्रतीक्षा थी, समर्पण था, और एक चुपचाप मिलन।
अगर कभी आपको भी ऐसा प्रेम मिला हो — या आपने कभी किसी को पूरी आत्मा से चाहा हो — इस पोस्ट को उनके साथ ज़रूर साझा करें, जो उस प्रेम को समझ सकें। शायद… शबरी हम सबके भीतर अभी भी जीवित है।
🌿और हाँ…
"हर किसी के जीवन में एक चबूतरा होता है… जहाँ प्रतीक्षा चलती रहती है… और कभी ना कभी — भगवान वहाँ अवश्य आते हैं।" "जब शिव भी झुक जाएँ — एक साधारण भक्तिन के प्रेम के आगे… तब समझो, भक्ति क्या होती है।"
#शबरी #भक्ति #

सोमवार, 7 अप्रैल 2025

= १६६ =

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*दादू सब ही गुरु किए, पशु पंखी बनराइ ।*
*तीन लोक गुण पंच सौं, सबही मांहिं खुद आइ ॥*
*साभार ~ @Kaushik Chaitanya*

🪷 *||प्रकृति एक पाठशाला ||* 🪷
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प्रकृति का कण-कण मनुष्य जीवन को एक प्रेरणा प्रदान करता है।
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ये संपूर्ण प्रकृति एक पाठशाला ही तो है। बिना प्रेरणा लिए जीवन प्रेरक नहीं बन सकता है।
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हम दूसरों को प्रेरणा दें उससे पूर्व यह आवश्यक हो जाता है कि हम दूसरों से प्रेरणा लेना भी सीखें।
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जिसने अपने जीवन में दूसरों से प्रेरणा लेने का प्रयास किया उसका स्वयं का जीवन भी एक दिन समाज के लिए प्रेरणास्रोत बन जाता है।
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प्रेरणा पर्वत से लेनी चाहिए जिसके मार्ग में अनेक आंधी और तूफान आते हैं पर उसके स्वाभिमानी मस्तक को नहीं झुका पाते।
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प्रेरणा लहरों से लेनी चाहिए जो गिरकर फिर उठ जाती हैं और अपने लक्ष्य तक पहुँचे बिना कहीं रुकती नहीं हैं।
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प्रेरणा बादलों से लेनी चाहिये जो समुद्र से जल लेते हैं और सूखे रेगिस्तान में बरसा देते हैं।
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प्रेरणा वृक्षों से लेनी चाहिए, फल लग जाने के बाद जिनकी डालियाँ स्वतः झुक जाया करती हैं

सोमवार, 31 मार्च 2025

= १६५ =

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*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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लाओत्सु ने कहा हैः जब मैं कुछ सत्य की बात कहता हूं तो लोग हंसते हैं, उपहास करते हैं; तब मैं निश्चित समझ जाता हूं कि जौ मैंने कहा, वह सत्य ही होना चाहिए। अगर वह सत्य न होता तो लोग उपहास क्यों करते !
एक फकीर थे, महात्मा भगवानदीन। वे मुझसे बोले कि जब भी मैं लोगों को ताली बजाते सुनता हूं. . . बड़े प्यारे वक्ता थे. . . तो मैं दुःखी हो जाता हूं। क्योंकि जब लोग ताली बजा रहे हैं तो मैंने जरूर कोई गलत बात कही होगी। जो लोगों तक की समझ में आ रही है, वह गलत ही होनी चाहिए। लोग इतने गलत हैं !
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वे बड़े नाराज हो जाते थे, जब उनके बोलने में कोई ताली बजा दे। बड़े नाराज हो जाते थे कि मैंने कोई ऐसी गलत बात कही कि तुम ताली बजाते हो! लोग तो ताली बजाकर प्रसन्न होते हैं, सुनकर प्रसन्न होते हैं कि ताली बजायी जा रही है; वे बड़े नाराज हो जाते थे। वे कहते थे मैं बोलूंगा ही नहीं, अगर ताली बजायी। तुमने ताली बजायी–मतलब कि कुछ गलत बात हो गयी।
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लाओत्सु ठीक कह रहा है कि अगर लोग उपहास न करते तो मैं समझ लेता कि यह सत्य होगा ही नहीं। सत्य का तो सदा उपहास होता है, क्योंकि लोग इतने असत्य हैं। लोग झूठे हैं, इसलिए सत्य पर हंसते हैं। हंसकर अपने को बचाते हैं। उनकी हंसी आत्मरक्षा है।
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“जगत् करे उपहास, पिया का संग न छोड़ै।
प्रेम की सेज बिछाय मेहर की चादर ओढ़ै॥’’
फिकर ही मत करना संसार की; तुम तो अपनी प्रेम की सेज बिछा लेना और परमात्मा की याद करना कि तुम आओ, तुम्हारे लिए सेज तैयार कर रखी है।
“प्रेम की सेज बिछाय, मेहर की चादर ओढ़ै। और करुणा की चादर ओढ़ना। प्रेम का बिस्तर बनाना और करुणा की चादर बना लेना। 
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संसार के प्रति करुणा रखना, परमात्मा के प्रति प्रेम रखना–बस ये दो चीजें सध जाएं। हंसनेवालों के प्रति करुणा रखना, नाराजगी मत रखना। अगर नाराजगी रखी तो वे जीत जाएंगे। अगर करुणा रखी, तो ही तुम जीत पाओगे। वे हंसें, तो स्वीकार करना कि ठीक ही हंसते हैं। जहां वे खड़े हैं, वहां से उन्हें हंसी आती है हम पर, ठीक ही है। उनकी स्थिति में ऐसा ही होना स्वाभाविक है। उन पर करुणा रखना।
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“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
यह बड़ा अपूर्व सूत्र है। पलटू कहते हैं कि भक्त के प्रेम में और करुणा में, और परमात्मा के स्मरण में अपने-आप भोग-विलास छूट जाता है।
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
भोग-विलास छोड़ना न पड़े, छूट जाए–ऐसी रहनी रहे। 
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परमात्मा की स्मृति जिसके जीवन में भरी है, उसको कहां भोग-विलास की याद रह जाती है ! वह तो परमभोग भोग रहा है; अब तो छोटे-मोटे भोग की बात ही कहां ! हीरे बरस रहे हों तो कोई कंकड़-पत्थर बीनता है ? अमृत बह रहा हो तो कोई नाली के गंदे पानी को भर कर घर लाता है ? जहां फूलों की वर्षा हो रही हो, वहां कोई दुर्गंध समेटता है ? जहां सच्चा सुख मिल रहा हो वहां क्षणभंगुर सुख की कौन चिंता करता है ?
“ऐसी रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।’’
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परमात्मा की मस्ती में रहे। परमात्मा के आनंद-भाव में रहे। परमात्मा के प्रेम में रहे और जगत्‌ के प्रति करुणा से भरा और सुरति की धारा बहे। बस फिर अपने-आप ऐसी रहनी पैदा हो जाती है, जीवन का ऐसा ढंग, जीवन में ऐसी चर्या पैदा हो जाती है कि भोग-विलास अपने-आप छूट जाते हैं। छोड़ने नहीं पड़ते, छोड़ने पड़ें, तो बात ही गलत हो गयी। 
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छोड़ने पड़ें तो घाव रह जाएंगे; छूट जाएं तो बड़ा स्वास्थ्य और बड़ा सौंदर्य होता है। व्यर्थ को छोड़ना पड़े तो उसका अर्थ हुआ कि अभी कुछ सार्थकता दिखायी पड़ती थी, इसलिए चेष्टा करनी पड़ी, छोड़ना पड़ा। व्यर्थ व्यर्थ की भांति दिखायी पड़ जाए, तो फिर चेष्टा नहीं करनी पड़ती, हाथ खुल जाते हैं, व्यर्थ गिर जाता है। आदमी पीछे लौटकर भी नहीं देखता।
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“रहनी रहै तजै जो भोग-विलासा।
मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा॥’’
फिर तो भूख-प्यास तक की याद नहीं रह जाती, क्योंकि श्वास-श्वास में उसी की ही याद चलती है। कहां का भोग, कहां का विलास ! कौन धन को इकट्ठे करने में पड़ता है! कौन पद की चिंता करता है ! कौन आदर-समादर खोजता है ! कौन सम्मान खोजता है ! जिसको उस प्राण-प्यारे की तरफ से मान मिलने लगा, इस संसार में कोई मान अब अर्थ नहीं रखता। “मारे भूख-प्यास, याद संग चलती स्वासा।’’ यह जो श्वास के साथ याद बहने लगती है, इससे भूख-प्यास तक मर जाती है।
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एक तुमने बात कभी खयाल की–बहुत मनोवैज्ञानिक है ! जब तुम दुःखी होते हो, तुम ज्यादा भूखे-प्यासे अनुभव करते हो। जब तम दुःखी होते हो, तब तुम ज्यादा भोजन कर लेते हो। क्योंकि दुःखी आदमी भीतर खाली-खाली मालूम पड़ता है–किसी से भी भर लो, किसी तरह भर लो भीतर का गङ्ढा ! सुखी आदमी कम भोजन करता है। परम सुख में तो भूख भूल ही जाती है। परम सुख में तुम ऐसे भरे मालूम पड़ते हो भीतर, कि कहां भूख, कहां प्यास !
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जब भी सुख घटता है तो आदमी भर जाता है। जब भी जीवन में दुःख होता है, तो आदमी जबरदस्ती अपने को भरने लगता है; खाली-खाली मालूम पड़ता है–“चलो किसी भी चीज से भर लो।’’
ओशो

= १६४ =

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*जे पहली सतगुरु कह्या, सो नैनहुँ देख्या आइ ।*
*अरस परस मिलि एक रस, दादू रहे समाइ ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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जन्म कुंडली या होरोस्कोप उसका ही टटोलना है। हजारों वर्ष से हमारी कोशिश यही है कि जो बच्चा पैदा हो रहा है वह क्या हो सकेगा ? हमें कुछ तो अन्दाज मिल जाए तो शायद हम उसे सुविधा दे पाएं। शायद हम उससे आशाएं बांध पाएं। जो होने वाला है, उसके साथ हम राजी हो जाएं।
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मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने जीवन के अन्त में कहा है कि मैं सदा दुखी था। फिर एक दिन मैं अचानक सुखी हो गया। गांवभर के लोग चकित हो गए कि जो आदमी सदा दुखी था और जो आदमी हर चीज का अंधेरा देखता था वह अचानक प्रसन्न कैसे हो गया—जो हमेशा पेसिमिस्ट था, जो हमेशा देखता था कि कांटे कहां—कहां ??!
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एक बार नसरुद्दीन के बगीचे में बहुत अच्छी फसल आ गई। सेव बहुत लगे—ऐसे कि वृक्ष लद गए ! पड़ोस में एक आदमी ने पूछा, सोचा उसने कि अब तो नसरुद्दीन कोई शिकायत न कर सकेगा —कहा कि इस बार तो फसल ऐसी है कि सोना बरस जायेगा, क्या खयाल है, नसरुद्दीन! नसरुद्दीन ने बड़ी उदासी से कहा, और सब तो ठीक है लेकिन जानवरों को खिलाने के लिए सड़े सेव कहां से लाओगे ? उदास बैठा है वह। जानवरों को खिलाने के लिए सडे सेव कहां से लाओगे, सब सेव अच्छे हैं, कोई सड़ा हुआ ही नहीं ! एक मुसीबत है।
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वह आदमी एक दिन अचानक प्रसन्न हो गया तो गांव के लोगों को हैरानी हुई तो गांव के लोगे ने पूछा कि तुम और प्रसन्न—नसरुद्दीन ! क्या राज है इसका ? नसरुद्दीन ने कहा, आई हेव लर्न्ट टु कोआपरेट विद दि इनइवीटेबल। वह जो अनिवार्य है मैं उसके साथ सहयोग करना सीख गया हूं। बहुत दिन लड़कर देख लिया। अब मैंने यह तय कर लिया है कि जो होना है, होना है ! अब मैं सहयोग करता हूं इनइवीटेबल के साथ— जो अनिवार्य है उसके साथ मैं सहयोग करता हूं। अब दुख का कोई कारण न रहा। अब मैं सुखी हूं।
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ज्योतिष बहुत बातों की खोज थी। उसमें जो अनिवार्य है, उसके साथ सहयोग—वह जो होने ही वाला है, उसके साथ व्यर्थ का संघर्ष नहीं, जो नहीं होनेवाला है, उसकी व्यर्थ की मांग नहीं, उसकी आकांक्षा नहीं ! ज्योतिष मनुष्य को धार्मिक बनाने के लिए, तथाता में ले जाने के लिए, परम स्वीकार में ले जाने के लिए उपाय था। उसके बहु आयाम है।
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हम धीरे— धीरे एक—एक आयाम पर बात करेंगे। आज तो इतनी बात, कि जगत एक जीवंत शरीर है, आर्गनिक यूनिटी है। उसमें कुछ भी अलग—अलग नहीं है—सब संयुक्त है। दूर से दूर जो है वह भी निकट से निकट जुडा है—अजुडा कुछ भी नहीं है। इसलिए कोई इस भांति में न रहे कि वह आइसोलेटेड आइलैंड है। कोई इस भांति में न रहे कि कोई एक द्वीप है छोटा—सा— अलग— थलग।
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नहीं, कोई अलग— थलग नहीं है, सब संयुक्त है और हम पूरे समय एक दूसरे को प्रभावित कर रहे हैं और एक दूसरे से प्रभावित हो रहे हैं। सड़क पर पड़ा हुआ पत्थर भी, जब आप उसके पास से गुजरते हैं तो आपकी तरफ अपनी किरणें फेंक रहा है। फूल भी फेंक रहा है। और आप भी ऐसे नहीं गुजर रहे हैं, आप भी अपनी किरणें फेंक रहे हैं।
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मैने कहा कि चांद—तारों से हम प्रभावित होते हैं। ज्योतिष का और दूसरा खयाल है कि चांद—तारे भी हमसे प्रभावित होते हैं, क्योंकि प्रभाव कभी भी एक तरफा नहीं होता। जब कभी बुद्ध जैसा आदमी जमीन पर पैदा होता है तो चांद यह न सोचे कि चांद पर उनकी वजह से कोई तूफान नहीं उठते। बुद्ध की वजह से कोई तूफान चांद पर शांत नहीं होते ! अगर सूरज पर धब्बे आते हैं और तूफान उठते हैं तो जमीन पर बीमारियां फैल जाती है। तो जमीन पर जब बुद्ध जैसे व्यक्ति पैदा होते हैं और शान्ति की धारा बहती है और ध्यान का गहन रूप पृथ्वी पर पैदा होता है तो सूरज पर भी तूफान फैलने में कठिनाई होती है—सब संयुक्त है !
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एक छोटा—सा घास का तिनका भी सूरज को प्रभावित करता है। और सूरज भी घास के तिनके को प्रभावित करता है। न तो घास का तिनका इतना छोटा है कि सूरज कहे कि तेरी हम फिक्र नहीं करते और न सूरज इतना बड़ा है कि यह कह सके कि घास का तिनका मेरे लिए क्या कर सकता है—जीवन संयुक्त है ! हां छोटा—बड़ा कोई भी नहीं है, एक आर्गनिक यूनिटी है—एकात्म है। इस एकात्म का बोध अगर खयाल में आए तो ही ज्योतिष समझ में आ सकता है, अन्यथा ज्योतिष समझ में नहीं आ सकता है।
ओशो; मैं कहता आंखन देखी

= १६३ =

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*राम जपै रुचि साधु को, साधु जपै रुचि राम ।*
*दादू दोनों एक टग, यहु आरम्भ यहु काम ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है कि #राम जब युद्ध विजय के बाद अयोध्या लौटे, राजगद्दी पर बैठे, तो उन्होंने एक बड़ा दरबार किया और सभी को पदवियां दीं, पुरस्कार बांटे, जिन-जिन ने भी युद्ध में साथ दिया था। लेकिन #हनुमान को कुछ भी न दिया और हनुमान की सेवाएं सबसे ज्यादा थी।
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#सीता बड़े पसोपेश में पड़ी। वह कुछ समझ न पाई कि यह चूक कैसी हुई! छोटे-मोटों को भी मिल गया पुरस्कार। पद मिले, आभूषण मिले, बहुमूल्य हीरे मिले, राज्य मिले। हनुमान--जिनकी सेवाएं सबसे ज्यादा थीं, उनकी बात ही न उठी। वे कहीं आए ही नहीं बीच में। राम भूल गए ! यह तो हो नहीं सकता।
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राम को याद दिलाई जाए, यह भी सीता को ठीक न लगा। याद दिलाने का तो मतलब होगा, शिकायत हो गई। तो उसने एक तरकीब की--कि कहीं हनुमान को बुरा न लगे, इसलिए उसने हनुमान को चुपचाप बुला कर अपने गले का मोतियों का बहुमूल्य हार उन्हें पहना दिया। और कहते हैं, हनुमान ने हार देखा, तो उसमें से एक-एक दाना मोती का तोड़-तोड़ कर फेंकने लगे।
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सीता ने कहाः अब मैं समझी कि राम ने तुझे क्यों कोई उपहार न दिया। यह तू क्या कर रहा है ? ये बहुमूल्य मोती है। ये मिलने वाले मोती नहीं हैं, साधारण मोती नहीं हैं। हजारों साल में इस तरह के मोती इकट्ठे किए जाते हैं, तब यह हार बना है। ये सब मोती बेजोड़ हैं। यह अमूल्य हार पहनने के लिए है। तू यह क्या करता है ?
हनुमान बोलेः यह हार पत्थर का है। इसे मूर्ख मनुष्य भला गले में पहन सकते हों, मैं तो राम-नाम को ही पहनता हूं। और मैं एक-एक मोती को चख कर देख रहा हूं, इसमें राम-नाम का कहीं स्वाद ही नहीं है। इसलिए फेंकता जा रहा हूं। शायद राम ने इसीलिए कोई पुरस्कार हनुमान को नहीं दिया। क्योंकि हनुमान के हृदय में तो राम थे। पुरस्कार तो प्रतीक होगा। जिसके पास राम हैं, उसे क्या पुरस्कार ?
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जिनने प्रभु की थोड़ी सी पहचान पाई है, उसे प्रतिमा की जरूरत नहीं है; उसे मंदिर की जरूरत नहीं है; उसे पूजा-पाठ की जरूरत नहीं है। तब तो #मलूकदास कहते हैं कि राम का नाम भी नहीं लेता मैं। अपनी मस्ती में मस्त हूं। अब तो राम मेरा नाम लेता है।
– ओशो, कन थोरे कांकर घने
प्रवचन - १०, अवधूत का अर्थ

मंगलवार, 25 मार्च 2025

= १६२ =

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*लोभ मोह मैं मेरा, मद मत्सर बहुतेरा ॥१॥*
*आपा पर अभिमाना, केता गर्व गुमाना ॥२॥*
*तीन तिमिर नहिं जाहीं, पंचों के गुण माहीं ॥३॥*
*आतमराम न जाना, दादू जगत दीवाना ॥४॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है कि एक धर्मगुरु स्वर्ग जाने की टिकटें बेचता था-सभी धर्मगुरु बेचते हैं। स्वभावत:, कुछ अमीर खरीदते तो प्रथम श्रेणी की देता। गरीब खरीदते, द्वितीय श्रेणी के। तृतीय श्रेणी भी थी, और जनता-चौथी श्रेणी भी थी। सभी लोगों के लिए इंतजाम स्वर्ग में होना भी चाहिए। तरह-तरह के लोग हैं, तरह-तरह की सुविधाएं होनी चाहिए।
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काफी धन उसने इकट्ठा कर लिया था लोगों को डरा-डराकर नर्क के भय से। लोग खाना न खाते, पैसा इकट्ठा करते कि टिकट खरीदनी है। यही कर रहे हैं लोग। खाना नहीं खाते, मैं देखता हूं तीर्थयात्रा को जाते हैं। कपड़ा नहीं पहनते, मंदिर में दान दे आते हैं।
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खुद भूखों मरते हैं, ब्राह्मण को भोजन कराते हैं। सदियों से डरवाया है ब्राह्मण ने कि हम ब्रह्म के सगे-रिश्तेदार हैं।
भाई- भतीजावाद। अपना नाता करीब का है, करवा देंगे तुम्हारा इंतजाम भी। खुद खाओगे, कोई पुण्य न होगा। ब्राह्मण को खिलाओगे, पुण्य होगा। लोग भूखों मरते हैं, पंडे-पुरोहितों को देते हैं।
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उस धर्मगुरु ने बहुत धन इकट्ठा कर लिया। एक रात एक आदमी उसकी छाती पर चढ़ गया जाकर, छुरा लेकर। और उसने कहा, निकाल, सब रख दे ! उसने गौर से देखा, वह उसकी ही जाति का आदमी था। उसने कहा, अरे! तुझे पता है, नर्क में सड़ेगा।
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उसने कहा, छोड़ फिकर, पहली श्रेणी का टिकट पहले ही खरीद लिया है, सब निकाल पैसा। तुमसे ही खरीदा है टिकट। वह हम पहले ही खरीद लिए हैं, उसकी तो फिकर ही छोड़ो। अब नर्क से तुम हमें न डरवा सकोगे। वे कोई और होंगे जिनको तुम डरवाओगे। हम टिकट पहले ही ले लिए हैं; अब तुम सब पैसा जो तुम्हारे पास इकट्ठा किया है तिजोड़ी में, दे दो।
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लोग यही कर रहे हैं। इसको तुम चरित्र कहते हो ! भय पर खड़े, लोभ पर खड़े व्यक्तित्व को तुम चरित्र कहते हो ! यह चरित्र का धोखा है।
ओशो 🌸, एस धम्‍मो सनंतनो, भाग -1,#2

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

= १६१ =

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*वास निरन्तर सो समझाइ,*
*बिन नैनहुँ देखूँ तहाँ जाइ ॥*
*दादू रे यहु अगम अपार,*
*सो धन मेरे अधर अधार ॥*
*साभार ~ @Subhash Jain*
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*विज्ञान भैरव तंत्र, विधि 63* 🌸🙏
(भगवान शिव द्वारा माता पार्वती को आत्म साक्षात्कार के लिए दी गई 112 विधियों में से एक विधी)   
*‘जब किसी इंद्रिय-विषय के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो, उसी बोध में स्‍थित होओ।’*
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तुम अपनी आँख के द्वारा देखते हो। ध्‍यान रहे, तुम अपनी आँख के द्वारा देखते हो। आंखे नहीं देख सकती। उनके द्वारा तुम देखते हो। द्रष्‍टा पीछे छिपा है। भीतर छिपा है; आंखें बस द्वार है, झरोखे है। लेकिन हम सदा सोचते है कि हम आँख से देखते है। हम सोचते है कि हम कान से सुनते है। कभी किसी ने कान से नहीं सुना है। तुम कान के द्वारा सुनते हो, कान से नहीं। सुननेवाला पीछे है। कान तो रिसीवर है।
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मैं तुम्‍हें छूता हूं, मैं बहुत प्रेमपूर्वक तुम्‍हारा हाथ अपने हाथ में लेता हूं। यह हाथ नहीं है, जो तुम्‍हें छूता है। यह मैं हूं, जो हाथ के द्वारा तुम्‍हें छू रहा है। हाथ यंत्र है। और स्‍पर्श भी दो भांति का है। एक, जब मैं सच ही तुम्‍हें स्‍पर्श करता हूं। और दूसरा, जब मैं स्‍पर्श से बचना चाहता हूं, मैं तुम्‍हें छूकर भी स्‍पर्श से बच सकता हूं। मैं अपने हाथ में न रहूँ। मैं हाथ से अपने को अलग कर सकता हूं।
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इसे प्रयोग करके देखो, तुम्‍हें एक भिन्‍न अनुभव होगा। एक दूरी का अनुभव होगा। किसी पर अपना हाथ रखो और अपने को अलग रखो; यहां सिर्फ मुर्दा हाथ होगा, तुम नहीं। और अगर दूसरा व्‍यक्‍ति संवेदनशील है तो उसे मुर्दा हाथ का एहसास हो जायेगा। वह अपने को अपमानित महसूस करेगा आप के इस व्‍यवहार से, क्‍योंकि तुम उसे धोखा दे रहे हो। तुम छूने का दिखावा कर रहे हो।
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स्‍त्रियां इस मामले में बहुत संवेदनशील है; तुम उन्‍हें धोखा नहीं दे सकते हो। स्‍पर्श के प्रति, शारीरिक स्‍पर्श के प्रति वे ज्‍यादा सजग है; वे जान जाती है। हो सकता है पति मीठी-मीठी बातें कर रहा हो। वह फूल ले आया हो, और कह रहा हो कि मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं। लेकिन उसका स्‍पर्श कह देगा कि वह वहां नहीं है। और स्‍त्रियों को सहज बोध हो जाता है कि कब तुम उनके साथ हो और कब नहीं। अगर तुम अपने मालिक नहीं हो तो तुम उन्‍हें धोखा नहीं दे सकते हो। अगर तुम्‍हें अपने ऊपर मलकियत नहीं है तो तुम उन्‍हें धोखा नहीं दे सकते। और जो अपना मालिक है वह पति होना नहीं चाहेगा, यह कठिनाई है।
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यह सूत्र कहता है कि इंद्रियाँ द्वार भर है - एक माध्यम, एक यंत्र, एक रिसीविंग स्‍टेशन और तुम उनके पीछे हो। *‘जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो, उसी बोध में स्‍थित होओ।’*
संगीत सुनते हुए अपने को कान में मत खो दो, मत भूला दो। उस चैतन्‍य को स्‍मरण करो, जो पीछे छिपा है। होश रखो। किसी को देखते हुए इस विधि को प्रयोग करो। तुम यह प्रयोग मुझे देखते हुए अभी और यही कर सकते हो। क्‍या हो रहा है ?
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तुम मुझे आँख से देख सकते हो। और जब मैं कहता हूं आँख से - तो उसका मतलब है कि तुम्‍हें इसका बोध नहीं है कि तुम आँख के पीछे छिपे हो। तुम मुझे आँख के द्वारा देख सकते हो। आँख एक यंत्र है। तुम आँख के पीछे खड़े हो। आँख के द्वारा देख रहे हो। जैसे कोई किसी खिड़की या ऐनक के द्वारा देखता है।  
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तुमने बैंक में किसी क्‍लर्क को अपने ऐनक के ऊपर से देखते हुए देखा होगा। ऐनक उसकी नाक पर उतर आयी है, और वह देख रहा है। उसी ढंग से मुझे देखो, मेरी तरफ देखो, ऐसे देखो जैसे आँख के ऊपर से देखते हो। मानो तुम्‍हारी आंखें सरककर नीचे नाक पर आ गई हों और तुम उनके पीछे से मुझे देख रहे हो। अचानक तुम्‍हें गुणवत्‍ता में फर्क मालूम पड़ेगा, तुम्‍हारा परिप्रेक्ष्‍य बदलता है। आंखे महज द्वार बन जाती है, और यह ध्‍यान बन जाता है।
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सुनते समय कानों के द्वारा मात्र सुनो और अपने आंतरिक केंद्र के प्रति जागे रहो। स्‍पर्श करते हुए हाथ के द्वारा मात्र छुओ और आंतरिक केंद्र को स्‍मरण रखो, जो पीछे छिपा है। किसी भी इंद्रिय से तुम्‍हें आंतरिक केंद्र की अनुभूति हो सकती है। और प्रत्‍येक इंद्रिय आंतरिक केंद्र तक जाती है, उसे सूचना देती है। 
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यही कारण है कि जब तुम मुझे देख और सुन रहे हो—जब तुम आँख के द्वारा देख रहे हो और कान के द्वारा सुन रहे हो, तो तुम जानते हो कि तुम उसी व्‍यक्‍ति को देख रहे हो, जिसे सुन भी रहे हो। अगर मेरे शरीर में कोई गंध है, तो तुम्‍हारी नाक उसे भी ग्रहण करेगी। उस हालत में तीन-तीन इंद्रियाँ एक ही केंद्र को सूचना दे रही है। इसी से तुम संयोजन कर पाते हो। अन्‍यथा संयोजन कठिन होता।
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अगर तुम्‍हारी आंखे ही देखती है और कान ही सुनते है तो यह जानना कठिन होता है कि तुम उसी व्‍यक्‍ति को सुन रहे हो जिसे देख रहे हो, या दो भिन्‍न व्‍यक्‍तियों को देख और सुन रहे हो; क्‍योंकि दोनों इंद्रियाँ भिन्‍न है, और वे आपस में नहीं मिलती है। तुम्‍हारी आंखों को तुम्‍हारे कान का पता नहीं है, और तुम्‍हारे कान को तुम्‍हारी आंखों का कुछ पता नहीं है। वे एक दूसरे को नहीं जानते है। वे आपस में कभी मिले नहीं है। उनका एक दूसरे से परिचय भी नहीं है। तो फिर सारा समन्वय, सारा संयोजन कैसे घटित होता है ?
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कान सुनते है, आंखें देखती है, हाथ छूते है, नाक सूँघती है, और अचानक तुम्‍हारे भीतर कहीं कोई जान जाता है कि यह वही आदमी है जिसे में सुन रहा हूं, देख रहा हूं। सभी इंद्रियाँ इस ज्ञाता को ही सूचना देती है। और इस ज्ञाता में, इस केंद्र में सब कुछ सम्‍मिलित होकर, संयोजित होकर एक हो जाता है। यह चमत्‍कार है। मैं एक हूं; बाहर से मैं एक हूं। मेरा शरीर, मेरे शरीर की उपस्‍थिति, उसकी गंध, मेरा बोलना, सब एक है। लेकिन तुम्‍हारी इंद्रियाँ मुझे विभाजित कर देंगी। 
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तुम्‍हारे कान मेरे बोलने की खबर देंगे। तुम्‍हारी नाक मेरी गंध की खबर देगी। और तुम्‍हारी आंखें मेरी उपस्‍थिति की खबर देंगी। वे इंद्रियाँ मुझे टुकड़ों में बांट देंगी। लेकिन फिर तुम्‍हारे भीतर कहीं पर मैं एक हो जाऊँगा। जहां तुम्‍हारे भीतर मैं एक होता है, वह तुम्‍हारे होने का केंद्र है। वह तुम्‍हारा बोध है, चैतन्‍य है। तुम उसे बिलकुल भूल गए हो। यह विस्‍मरण ही अज्ञान है। और बोध का चैतन्‍य आत्‍मज्ञान के द्वार खोलता है। तुम और किसी उपाय से अपने को नहीं जान सकते हो।
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*‘जब किसी इंद्रिय-विशेष के द्वारा स्‍पष्‍ट बोध हो, उसी होश में स्‍थित होओ।’*
उसी बोध में रहो; उसी बोध में स्‍थित रहो। होशपूर्ण होओ। आरंभ में यह कठिन है। हम बार-बार सो जाते है। और आँख के द्वारा देखना कठिन मालूम पड़ता है। आँख से देखना आसान है। आरंभ में थोड़ा तनाव अनुभव होगा और तुम आँख के द्वारा देखने की चेष्‍टा करोगे। और न केवल तुम तनाव अनुभव करोगे, वह व्‍यक्‍ति भी तनाव अनुभव करेगा जिसे तुम देखोगे।      
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अगर तुम किसी को आँख के द्वारा देखोगे तो उसे लगेगा कि तुम अनुचित रूप से दखल दे रहे हो, कि तुम उसके साथ अभद्र व्‍यवहार कर रहे हो। तुम अगर आँख के द्वारा देखोगे तो दूसरे को अचानक अनुभव होगा कि तुम उसके साथ उचित व्‍यवहार नहीं कर रहे हो क्‍योंकि तुम्‍हारी दृष्‍टि भेदक बन जाएगी। तुम्‍हारी दृष्‍टि गहराई में उतर जाएगी। अगर यह दृष्‍टि तुम्‍हारी गहराई से आती है, वह उसकी गहराई में प्रवेश कर जाएगी।
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यही कारण है कि समाज ने एक बिल्‍ट-इन सुरक्षा की व्‍यवस्‍था कर रखी है। समाज कहता है कि जब तक तुम किसी के प्रेम में नहीं हो, उसे बहुत घूरकर मत देखो। अगर तुम प्रेम में हो तो देख सकते हो। तब तुम उसके अंतर्तम तक प्रवेश कर सकते हो क्‍योंकि वह तुमसे भयभीत नहीं है। तब दूसरा तुम्‍हारे प्रति नग्‍न हो सकता है, समग्रता: नग्‍न हो सकता है। वह तुम्‍हारे प्रति खुला हो सकता है। लेकिन साधारणत: अगर तुम प्रेम में नहीं हो, तो किसी को घूरने की, भेदक दृष्‍टि से देखने की मनाही है।
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भारत में हम ऐसे आदमी को, जो दूसरे को घूरता है, लुच्‍चा कहते है। लुच्‍चा का अर्थ है, देखने वाला। लुच्‍चा शब्‍द लोचन से आता है। लुच्‍चा का अर्थ हुआ कि जो आँख ही बन गया है। इसलिए इस विधि का प्रयोग किसी अपरिचित पर मत करना। वह तुम्‍हें लुच्‍चा समझेगा। पहले इस विधि का प्रयोग ऐसे विषयों के साथ करो - जैसे फूल है, पेड़ है, रात के तारे है। वे इसे अनुचित दखल नहीं मानेंगे। वे एतराज नहीं उठाएंगे। बल्‍कि वे इसे पंसद करेंगे। उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगेगा। वे इसका स्‍वागत करेंगे।
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तो पहले उनके साथ प्रयोग करो और फिर अपनी पत्नी, अपने बच्‍चे, अपने प्रियजनों के साथ। कभी अपने बच्‍चे को गोद में उठा लो और उसको आँख के द्वारा देखो। बच्‍चा इसे समझेगा, सराहेंगा। वह अन्‍य किसी से भी ज्‍यादा समझेगा, क्‍योंकि अभी समाज ने उसे पंगु नहीं बनाया है, विकृत नहीं किया है। वह अभी सहज है। तुम अगर उसे आँख के द्वारा देखोगे तो उसे प्रगाढ़ प्रेम की अनुभूति होगी। उसे तुम्‍हारी उपस्‍थिति का एहसास होगा।  
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अपने प्रेमी या प्रेमिका को ऐसे देखो। और फिर जैसे-जैसे तुम्‍हें इस बात की पकड़ आएगी, जैसे-जैसे तुम इसमें कुशल होगे वैसे-वैसे तुम धीरे-धीरे दूसरों को भी देखने में समर्थ हो जाओगे। क्‍योंकि तब किसी को पता नहीं चलेगा कि तुमने इस गहराई से उसे देखा । और जब अपनी इंद्रियों के पीछे सतत सजग होकर खड़े होने की कला तुम्‍हारे हाथ आ जायेगी, तो इंद्रियाँ तुम्‍हें धोखा न दे पाएंगी। अन्‍यथा इंद्रियाँ धोखा देती है। 
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ऐसे संसार में, जो सिर्फ भासता है, इंद्रियों ने तुम्‍हें उसे सच मानने का धोखा दिया है। अगर तुम इंद्रियों के द्वारा देख सको, और सजग रह सको तो धीरे-धीरे संसार माया मालूम पड़ने लगेगा। स्वप्नवत मालूम पड़ने लगेगा। और तब तुम उसके तत्व में, उसके मूल तत्‍व में प्रवेश कर सकोगे। यह मूल तत्‍व ही ब्रह्म है।
ओशो ❤️ ❤️ तंत्र-सूत्र
भाग-तीन, प्रवचन-39
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