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卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= निष्कामी पतिव्रता का अँग ८ =*
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*पतिव्रत*
मूल गहै सो निश्चल बैठा, सुख में रहे समाइ ।
डाल पान भरमत फिरे, वेदों दिया बहाइ ॥६७॥
६७ - ७७ में निष्काम पतिव्रत की विशेषताएँ बता रहे हैं - निष्काम पतिव्रत पूर्वक ब्रह्म चिन्तन द्वारा जो अपने मूल ब्रह्म को ग्रहण करता है, वह ब्रह्मानन्द में निमग्न हुआ निश्चल रूप से ब्रह्म में ही स्थिर रहता है और जो देवता - उपासना रूप डाल तथा स्वर्गादिक - भोग रूप पत्तों में रत है, वह भ्रमित होकर सँसार में ही फिरता रहता है । शँका: - अपने सुख के साधन को त्याग कर भ्रमण करता है, ऐसा क्यों ? उत्तर: - वेद के कर्म - काँड रूप रोचक वचनों ने उसे प्रलोभन के द्वारा बहका कर चँचल कर दिया है ।
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सौ धक्का सुनहां१ को देवे, घर बाहर काढ़े ।
दादू सेवक राम का, दरबार न छाड़े ॥६८॥
जैसे श्वान१ को चाहे उसका स्वामी सौ बार धक्के दे - देकर घर के बाहर निकाल दे तो भी वह स्वामी के घर - द्वार को नहीं त्यागता, वैसे ही निष्काम पतिव्रत - युक्त को किसी कारण से कुछ समय तक भगवान् नहीं भी अपनावें, तो भी वह भगवद् - भजन रूप भगवान् के दरबार को नहीं त्यागता ।
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साहिब का दर छाड़ि कर, सेवक कहीं न जाइ ।
दादू बैठा मूल गह, डालों फिरे बलाइ१ ॥६९॥
निष्काम पतिव्रत युक्त भक्त भगवान् का भजन रूप द्वार छोड़कर कहीं भी नहीं जाता=सकाम कर्मों द्वारा प्राप्त होने योग्य स्वर्गादि लोकों के भोगादि में उसकी वृत्ति नहीं जाती । वह तो ब्रह्म - रूप मूल को ब्रह्म - चिन्तन रूप हाथ से पकड़ कर स्थित है । देवादि उपासना रूप डालों पर उसकी वृत्ति क्यों फिरे, देवादि उपासना उसे दु:ख - रूप१ भासती है ।
(क्रमशः)
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