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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविध्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २. राग माली गौडी =*
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(४)
(ताल रूपक)
*परब्रह्म है परब्रह्म है परब्रह्म अमिति अपार रे ।*
*नहिं जगत है नहिं जगत है नहिं जगत सकल असार रे ॥टेक॥*
यह समस्त संसार परब्रह्म से व्याप्त है । यह परब्रह्म अमित(प्रमाण रहित) है । इसका कोई प्रमाण(मान) नहीं सिद्ध किया जा सकता । यह अपार(सीमा रहित) भी है । इसकी कोई सीमा(आदि, अन्त) नहीं बतायी जा सकती । अतएव यह समस्त संसार "जगत्' भी कहलाता है । उत्पत्ति एवं विनाश वाला होने से भी यह 'जगत्' कहा जाता है । अतः यह समस्त संसार 'असार' भी प्रसिद्ध है । उत्पत्ति एवं विनाश होने से इसमें कोई स्थायी तत्त्व(सार) नहीं होने से यह 'संसार' कहलाता है । इसलिये जनसाधारण इसे अपनी भाषा में 'चलता, फिरता' कहता है ॥टेक॥
*नहिं पिंड है न ब्रह्मांड है नहिं स्वर्ग मृत्यु पाताल रे ।*
*नहिं आदि है नहिं अंत है नहिं मध्य माया जाल रहे ॥१॥*
यहाँ पिण्ड(शरीर = व्यष्टि) एवं ब्रह्माण्ड(सृष्टि) स्वयं कोई सत्ता नहीं है, न स्वर्ग नरक या पाताल स्वयं(स्वतन्त्र) कोई सता है, क्योंकि इनका न कोई आदि है, न कोई अन्त(सीमा) ही है और न कोई मध्य भाग ही है । इसमें दृश्यमान सब कुछ मायाजाल मात्र है ॥१॥
*नहिं जन्म है नहिं मरन है नहिं काल कर्म सुभाव रे ।*
*जीव नहिं जमदूत नहिं अनुस्यूत सुन्दर गाव रे ॥२॥*
न इसका जन्म होता है, न मरण । तथा इसमें दार्शनिकों द्वारा मान्य काल, कर्म, स्वभाव आदि कोई भी लक्षण नहीं प्रतीत होता । यह न जीव है न यमदूत है । श्रीसुन्दरदास महाराज कहते हैं - यह तो सर्वत्र व्याप्त(अनुस्यूत) है । सब में ओत प्रोत है ॥२॥
(क्रमशः)
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