गुरुवार, 21 मार्च 2019

परिचय का अंग ३३२/३३५

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ Tapasvi Ram Gopal
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)
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दादू अमली राम का, रस बिन रह्या न जाइ ।
पलक एक पावै नहीं, तो तबहिं तलफ मर जाइ ॥३३२॥
भक्तिरस को व्यसन के रूप में मानने वाला भक्त इस रस के बिना क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकता जैसे जल के बिना मछली जीवति नहीं रह सकती । क्योंकि भक्तों के लिये क्षणमात्र का भगवद्वियोग भी असह्य हो जाता है । स्कन्द पुराण में लिखा है-
“हे देव ! आपके वियोग में मानसी वेदना(आधि) ने उसके मुख को मलिन करके सुखा डाला । जैसे ग्रीष्म ऋतू में सूर्य की किरणें तालाब को सुखा डालती है ॥”
भक्तिरसायन में भी लिखा है-
“हे सूर्य ! तुम्हारी जो सहस्त्र किरणें(हाथ) यदुपति के श्रीचरणों में गिरती हैं वे धन्य है; किन्तु मेरी(इन्द्र की) ये हजार आँखें तो व्यथ ही हैं, जो दूर होने के कारण, उन्हें क्षणभर के लिये भी नहीं देख पाती ॥”३३२॥

दादू राता राम का, पीवै प्रेम अघाइ ।
मतवाला दीदार का, मांगै मुक्ति बलाइ ॥३३३॥
रामभक्त रामरस पी पीकर उसी रस में पागल हो जाता है । तथा दर्शनों के बदले तें मिलने वाली मुक्ति का भी तिरस्कार कर बैठता है । भागवत में लिखा है-
“मैं भगवान् की भक्ति के अतिरिक्त न स्वर्गसुख, न ब्रह्मलोक का सुख, न पृथ्वी का सार्वभौम साम्राज्य, न पाताल लोक का राज्य, न योगजन्य सिद्धियाँ, यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ।
“आज मेरा सम्पूर्ण अमंगल नष्ट हो गया, मेरा जन्म भी सफल हो गया, क्योंकि योगिजनों के ध्येय भगवच्चरणों में मैं प्रणाम करूँगा ॥”३३३॥

उज्जवल भँवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास ।
पीवै निर्मल वासना, सो दादू निज दास ॥३३४॥
जैसे भ्रमरकमलरस का पान कर मत्त हो जाता है, और बार बार उसी फूल पर बैठता है, इससे भ्रमर की उस कमलरस में रुचि प्रतीत होती है । इसी प्रकार भक्त भी ब्रह्मरस का पान बारह महीने करते ही रहते हैं । अतः ऐसे भक्तजन भगवान् के मुख्य दास माने जाते हैं । इसीलिये भक्त प्रह्लाद से दास्यभक्ति की ही मांग करते हैं । वे कहते हैं-
“हे भूमन् ! मैं इस संसार में प्रिय-अप्रिय पदार्थों के संयोग-वियोग जन्य शोकरुपी अग्नि से जलता हुआ भ्रमण कर रहा हूँ । इन दुःखों की शान्ति के लिये जो सांसारिक उपाय बताये गये हैं वे भी दुःखमय है । अतः मैं तो आपकी सतत दासता की ही याचना करता हूँ । जिससे इन दुःखों से आवृत न हो पाऊं ॥”३३४॥

नैनहुँ सौं रस पीजिये, दादू सुरति सहेत ।
तन मन मंगल होत है, हरि सौं लागा हेत ॥३३५॥
ब्रह्मज्ञानी महात्मा “वह(ब्रह्म) रसरूप है” इस श्रुतिप्रतिपादित आनन्दमय ब्रह्म को सब प्राणियों में ज्ञान-विज्ञान रूपी नेत्रों द्वारा अन्तःकरणवृत्ति से देखता है ॥ गीता(१८-१२) में लिखा है-
“जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक् पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा को विभाग रहित समभाव स्थित देखता है उस ज्ञान को ‘सात्विक ज्ञान’ कहते हैं ।
जो पुरुष नष्ट होते हुए समस्त चराचर भूतों में नाशरहित परमात्मा को समभाव से स्थित देखता है वही वास्तविक ‘दृष्टा’ कहलाता है ।”
ऐसे ज्ञानी का, सर्वत्र ब्रह्मदर्शन से, मंगल होता है । और उसे पराभक्ति भी मिल जाती है । क्योंकि ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं है । लिखा है कि-
भक्ति ही ज्ञानरूप में परिणत हो जाती है । गीता कहती है -
“वह सच्चिदानन्द ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ प्रसन्नचित्त, न किसी के लिये शोक करता है और न किसी की आकांक्षा । इस प्रकार सब भूतों में समभाव से परा भक्ति को प्राप्त कर लेता है ॥३३५॥”
(क्रमशः)

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