मंगलवार, 26 मार्च 2019

= *सर्वंगी पतिव्रत का अंग ६७(१/४)* =

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू एक सगा संसार में, जिन हम सिरजे सोइ ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, और न दूजा कोइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
**सर्वंगी पतिव्रत का अंग ६७** 
इस अंग में मर्यादानुसार सब कुछ करते हुए भी पतिव्रत रखना संबंधी विचार कर रहे हैं -

सूरज देखे सकल दिशि, चलिये को दिशि एक । 
त्यों रज्जब रहि राम सौं, यहु गति वरत विवेक ॥१॥ 
सूरज सभी दिशाओं को देखते हैं किन्तु चलते एक ही दिशा को हैं, वैसे ही सभी कर्तव्य कर्म करते हुये विवेक पूर्वक राम का पतिव्रत ग्रहण करके रहना चाहिये । 
गिरद१ फिरै इक दिशि गमन, चितव२ चक्र की चाल । 
त्यों रज्जब सब दिशि समझ, पाया पंथ निराल३ ॥२॥ 
चक्र की चाल तो देखो२, चारों१ ओर फिरता है किन्तु चलता एक ही दिशा में है, वैसे ही संतों ने सभी दिशाओं में परमात्मा को समझकर कर्तव्य कर्म करते हुये सर्वंगी पतिव्रत रूप विलक्षण३ मार्ग पकड़ता है । 
प्राण१ पवन सब दिशि फिरै, गमन गमन को होय । 
जन रज्जब चलि ओर यहु, विगति२ बघूला जोय ॥३॥ 
वायु सब और फिरता है किन्तु चलता आकाश की ओर ही है, वैसे ही भक्त प्राणी१ फिरता तो सभी ओर है किन्तु गमन उसका प्रभु की ओर ही होता है, वायु के बधूले की विशेष गति२ को देखो, वह सब ओर फिरता है किन्तु चलता एक ओर ही है, वैसे ही सभी कर्त्तव्य कर्म करते हुये यह सर्वंगी पतिव्रत धारण करके प्रभु की ओर ही चल । 
ढोल बोल सब दिशि परत१, करी सैन२ दिशि सैल३ । 
जन रज्जब सर्वंग४ मिलि, गही गिरा गुरु गैल५ ॥४॥ 
ढोल की ध्वनि सभी दिशाओं को स्पर्श१ करती हुई जिधर वायु की गति रूप संकेत२ होता है उधर ही गमन३ करती है, वैसे ही साधक की वृति साधनों में भ्रमण करती हुई गुरु की वाणी का संकेत होता है उसी मार्ग५ से जाकर सर्वंगी पतिव्रत द्वारा सभी विश्व जिसका अंग है उन प्रभु४ से मिलती है । 
(क्रमशः)

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