#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू खीला गार का, निश्चल थिर न रहाइ ।*
*दादू पग नहीं साँच के, भ्रमै दहदिशि जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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**व्यभिचार का अंग ६८**
इस अंग में व्यभिचार विषयक विचार कर रहे हैं ...
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व्यभिचारी जीव बंध बिन, घट में नहीं विवेक ।
जन रज्जब पति छाङिकर, धक्के खाँहि अनेक ॥१॥
व्यभिचारी जीव में संयम रूप बंधन नहीं होता, उसके अन्त:करण में विवेक नहीं होने से वह अपने स्वामी को छोड़ कर अनेक धक्का खाता है ।
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जैसे कीला कीच का, खैंच्या दह१ दिशि जाय ।
रज्जब रामहि क्यों मिले, इहिं व्यभिचार भाय ॥२॥
जैसे कीचड़ में गाड़ा हुआ कीला खेंचने पर दशों१ दिशाओं में ही खिंच जाता है, वैसे ही इस व्यभिचारी प्राणी का भाव होता है, यह भी सभी ओर खिंच जाता है, ऐसी स्थिति में राम कैसे मिल सकते हैं ।
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मकरी चकरी तार पर, अह१ निशि आवे जाँहिं ।
मन मनसा२ ऐसे फिरहिं, कैसे पति पतियाँहिं३ ॥३॥
जैसे मकड़ी चकरी के समान दिन१ रात तार पर फिरती है, वैसे ही मन-बुद्धि२ संसार में फिरते हैं, तब स्वामी कैसे विश्वास३ कर सकते हैं कि यह मेरा भक्त है ।
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नैनहुं बैनंहु श्रवण कर, जे कतहुं चलि जाय ।
रज्जब नारी नाह बिन, मार सरोतर१ खाय ॥४॥
यदि नारी पति के बिना नेत्र, वचन और श्रवण से किसी अन्य में जाती है तो कान१ खेंचने की मार खाती है ।
(क्रमशः)
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