सोमवार, 29 अप्रैल 2024

*गर्ब गंजन उपदेस कौ अंग*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू मड़ा मसाण का, केता करै डफान ।*
*मृतक मुर्दा गोर का, बहुत करै अभिमान ॥*
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*गर्ब गंजन उपदेस कौ अंग ॥कवित्त॥१*
(*१ श्रीमंगलदासजी की पुस्तक में इसे कुण्डल्या छंद लिखा है जबकि है यह कवित्त (छप्पय) छंद । वि. स. १७८० व १७८५ की दोनों ही प्रतियों में छंद का नाम नहीं है ।)
मेरैं तप परताप देखि रवि करै रसोई ।
पवन बुहारै द्वार नौग्रिह आग्या मैं होई ॥
मींच कौं कुवै उसारि जम पैं पाणी भरवावौं ।
बेदकरम करि नास इंद्र पुनि पंथ करावौं ॥
बिह मेरैं दाणौं दलै बँदि बांध्या तेतीस ।
बषनां सो गरबै गिल्या जाकै दस माथा भुज बीस ॥१॥
मेरी तपस्या के प्रताप से देखो, मेरे यहाँ सूर्य रसोई बनाता है, पवन देवता मेरे घर (द्वार=घर) में झाडू लगाता है । नौग्रह सदैव मेरी आज्ञा में रहते हैं । मैंने यमराज को कुवे में उतार दिया है और वह अपना काम छोड़कर मेरे यहाँ पानी भरता है ।
मैंने वेदानुसार होने वाले यज्ञ यागादि को करना बंद करवा कर इन्द्र को रास्ता बताने के काम में लगा रखा है । अथवा उसे पंथ = रास्ता बुहारने के काम पर नियुक्त कर रखा है । विधाता मेरे यहाँ अनाज पीसता है और मैंने तेतीस करोड़ देवताओं को बांधकर बंदीगृह में पटक रखा है ।
बषनांजी कहते हैं जो अपने प्रताप का उक्त प्रकार से बखान करके गर्व किया करता था उस दस शिर और बीस भुजा वाले रावण का भी गर्व खत्म हो गया ॥१॥
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नौ ग्रिह तेतीसौं पड्या, मेरी बंदि मैं आइ ।
बषनां माया गरब सौं, देखत गयौ बिलाइ ॥२॥
नौ ग्रह व तेतीस कोटि देवता मेरी जेल में बंद हुए पड़े हैं । बषनांजी कहते हैं जो रावण अपनी माया और गर्व के कारण उक्त प्रकार की बात कहता था, उसका भी देखता-देखते ही गर्व का गंजन हो गया ॥२॥
(क्रमशः)

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