सोमवार, 29 अप्रैल 2024

*श्री रज्जबवाणी, विरह का अंग(४) ~ १.२९*

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*अन्तरयामी एक तूँ, आतम के आधार ।*
*जे तुम छाड़हु हाथ तैं, तो कौन संभालणहार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विनती का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
विरह का अंग (४)
परि झर१ मांहि जु निकसत नांहिं,
बिना वर२ बांह३ कहो कहा कीजे ।
हो श्वास उश्वास रहैं किस पास जु,
देखि निराशा नहीं घर धीजे४ ॥
पल पल पीर सु होत गंभीर,
धरैं कहँ धीर जु छिन छिन छीजे ।
हो रज्जब रट्ट५ भई जरि मठ्ठ६ जु,
पीय परठ्ठ७ सु दर्शन दीजे ॥४॥
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मै विरह नदी के वेग१ में पड़ गई हूं और निकल नहीं सकती हूँ, कहो, इस स्थिति में स्वामी२ अपनी भुजा३ से नहीं पकड़ें तब और क्या उपाय किया जाय ? अर्थात प्रभु की भुजा बिना नहीं निकल सकती ।
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हे संतों ! वे श्वास उश्वास किसके पास रहते हैं मेरे पास नहीं आते ? यह देखकर मैं निराश हो रही हूँ । घर पर भी धैर्य४ नहीं रहता है,
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प्रतिक्षण पीड़ा गहरी होती जा रही है । कहाँ धैर्य धारण किया जा सकता है ? आयु तो प्रतिणक्ष क्षीण हो रही है ।
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हे प्रियतम ! मैं आपका नाम रटते५ रटते विरहाग्नि से जल कर काली६ पड़ गई हूँ अब तो आप प्रसन्न होकर दर्शन दें ।
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(क्रमशः)

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