गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

*व्यास गुसांई विमल चित*

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*तहँ बिन बैना बाजैं तूर,*
*विकसै कँवल चंद अरु सूर ॥*
*पूरण ब्रह्म परम प्रकाश,*
*तहँ निज देखै दादू दास ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*छप्पय-*
*व्यास गुसांई विमल चित, बांना से अतिशय विनैः१ ॥*
*चौबीसौं अवतार, अधिक कर साधु विशेखे ।*
*सप्त द्वीप मधि संत, तिते सब गुरु करि लेखे ॥*
*बन्यो महत समाज, निरख तहँ नौगुन२ तोर्यो ।*
*नूपर गुह्यो३ निशंक, कान्ह के चरण चहोर्यो४ ॥*
*राघव रीति बड़ेन की, प्रण तांई दें शीशनै५ ।*
*व्यास गुसांई विमल चित, बांना से अतिशय विनै ॥२८९॥*
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पवित्र चित्त वाले व्यास गोस्वामीजी संत भेष से अतिशय विनीत१ रहते थे । भगवान् के चौबीस चौबीस अवतारों से भी विशेष संतों को मानते थे । सातों द्वीपों में जितने संत हैं, उन सबको गुरु समझकर देखे थे ।
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एक समय शरद् पूर्णिमा के दिन रास के समय कृष्ण प्रियाजी का नूपुर टूटा हुआ देखकर, उस महान् समाज में आपने निशंक भाव से अपनी नौगुणी-जनेऊ२ तोड़कर नूपर गूंथ३ कर चरण में बाँध४ दिया था और कहा था-"आज तक तो इस यज्ञोपवीत का भार ही ढोया था पर आज यह काम आया है ।"
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राघवदासजी कहते हैं- बड़े पुरुषों की रीति ऐसी ही होती है, वे अपने प्रण की रक्षा के लिये शीश को५ भी दे देते हैं, लेश भी संकोच नहीं करते ॥२८९॥
(क्रमशः)

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