बुधवार, 17 अप्रैल 2024

*श्रीराधाकृष्ण-तत्त्व । नित्य-लीला*

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*जैसा है तैसा नाम तुम्हारा, ज्यों है त्यों कह सांई ।*
*तूं आपै जाणै आपको, तहँ मेरी गम नांहि ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(६)श्रीराधाकृष्ण-तत्त्व । नित्य-लीला*
सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जल रहा है । कई भक्त जो श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं, उसी कमरे में कुछ दूर पर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण का मन अन्तर्मुख हो रहा है, इस समय बातचीत बन्द है । कमरे में जो लोग हैं, वे भी ईश्वर की चिन्ता करते हुए मौन हो रहे हैं ।
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कुछ देर बाद नरेन्द्र अपने एक मित्र को साथ लेकर आये । नरेन्द्र ने कहा, "ये मेरे मित्र हैं, इन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है । ये 'किरणमयी' लिख रहे हैं ।" किरणमयी के लेखक ने प्रणाम करके आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण के साथ बातचीत करेंगे ।
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नरेन्द्र - इन्होंने राधाकृष्ण के सम्बन्ध में भी लिखा है ।
श्रीरामकृष्ण - (लेखक से) - क्यों जी, क्या लिखा है ? जरा कहो तो ।
लेखक - राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं, ओंकार के बिन्दुस्वरूप हैं । उसी राधाकृष्ण - परब्रह्म से महाविष्णु की सृष्टि हुई, महाविष्णु से पुरुष और प्रकृति, शिव और दुर्गा की ।
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श्रीरामकृष्ण – वाह ! नन्दघोष ने नित्यराधा को देखा था । प्रेम-राधा ने वृन्दावन में लीलाएँ की थीं, काम-राधा चन्द्रावली हैं ।
“काम-राधा और प्रेम-राधा । और भी बढ़ जाने पर हैं नित्य-राधा । प्याज के छिलके निकालते रहने पर पहले लाल छिलका निकलता है, फिर जो छिलके निकलते हैं उनमें ललाई नाम मात्र की रहती है, फिर बिलकुल सफेद छिलके निकलते हैं । ऐसा ही नित्य-राधा का स्वरूप है - वहाँ 'नेति नेति' का विचार रुक जाता है ।
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"नित्य-राधाकृष्ण, और लीला-राधाकृष्ण - जैसे सूर्य और उसकी किरणें । नित्य की तुलना सूर्य से की जा सकती है और लीला की, रश्मियों से ।
"शुद्ध भक्त कभी 'नित्य' में रहता है और कभी 'लीला' में । जिनकी नित्यता है, लीला भी उन्हीं की है । वे केवल एक ही हैं - दो या अनेक नहीं ।"
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लेखक - जी, वृन्दावन के कृष्ण और मथुरा के कृष्ण, इस तरह दो कृष्ण क्यों कहे जाते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - वह गोस्वामियों का मत है । पश्चिम के पण्डित लोग ऐसा नहीं कहते । उनके मत में कृष्ण एक ही है, राधा है ही नहीं । द्वारका के कृष्ण भी वैसे ही हैं ।
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लेखक - जी, राधाकृष्ण ही परब्रह्म हैं ।
श्रीरामकृष्ण – वाह ! परन्तु उनके द्वारा सब कुछ सम्भव है । वे ही निराकार हैं और वे ही साकार । वे ही स्वराट् हैं और वे ही विराट् । वे ही ब्रह्म हैं और वे ही शक्ति ।
“उनकी इति नहीं हो सकती - उनका अन्त नहीं है, उनमें सब कुछ सम्भव है...
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चील या गीध चाहे जितना ऊपर चढ़े, पर आकाश को उसकी पीठ कभी छू नहीं सकती । अगर पूछो कि ब्रह्म कैसा है, तो यह कहा नहीं जा सकता । साक्षात्कार होने पर भी मुख से नहीं कहा जाता । अगर कोई पूछे कि घी कैसा है, तो इसका उत्तर है कि घी घी के सदृश ही है । ब्रह्म की उपमा ब्रह्म ही है, और कोई उपमा नहीं ।
(क्रमशः)

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