शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

*व्याह सुता हि उछाह करयो*

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*दादू पूरणहारा पूरसी, जो चित रहसी ठाम ।*
*अन्तर तैं हरि उमग सी, सकल निरंतर राम ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*व्याह सुता हि उछाह करयो,*
*पकवान सबै वर आप कराये ।*
*संतन याद करे मति लावत,*
*भाव सहेत हु भोग लगाये ॥*
*आत भये जन वेगि बुलावत,*
*मोटन बाँध रु कुंज उठाये ।*
*वंशि दिई द्विज भक्ति करो,*
*चिरियां धरि संपट साधु बसाये ॥३९५॥*
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आपकी पुत्री के विवाह में बड़े उत्साह पूर्वक बरात के लिये नाना प्रकार के अच्छे अच्छे पकवान आपके घर वालों ने बनाये थे ।
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व्यासजी ने उनको देखकर मन में विचारा ये संतों के योग्य हैं । संतों को याद करके संतों की ओर अपनी बुद्धि को लगाया और भावपूर्वक प्रभु के भोग लगाया । इतने में संत आ गये ।
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तब उन को बुलाकर जिमाया और कुंजों में भेज दिया दूसरों के लिये बड़ी बड़ी गठरियाँ बाँधकर । इतना माल खर्च करने पर भी माल ज्यों का त्यों ही रहा, कम नहीं हुआ । यह भगवत् कृपा थी । किसी द्विज ने एक सोने की वंशी भगवान् के लिए ओड़छा से भेजी थी । उसे धारण कराने लगे तब वह मोटी होने से भगवान् की अंगुली किंचित छिल गई और रक्त भी चमक आया ।
इससे आपको बड़ा दुःख हुआ । बंशी मंदिर में रख कर अंगुली बाँधने के लिए उठे । पट्टी लेकर आये तो देखा भगवान् ने बंशी धारण कर ली है । आपने गीले कपड़े की पट्टी अंगुली के बांध दी । फिर वह ठीक हो गई । सुनते हैं आपके किसी सम्बन्धी ने हँसी करने के लिए मोटी बंशी बनाकर भेजी थी ।
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उक्त घटना से बंशी चढ़ाने वाले द्विज को भगवद्भक्ति का विश्वास कराकर भक्ति करने का संकेत किया था । एक संत युगल सरकार को गीत बड़े अच्छे ढंग से सुनाया करते थे । इसलिये व्यासजी उनको जाने से सदा रोकते रहते थे ।
एक दिन उस संत ने हठ करके अपने ठाकुरजी का बटुआ माँगा । आपने शालग्रामजी के बदले एक चिड़िया शालग्रामजी के डब्बे में रखकर दे दिया । मार्ग में यमुना तट पूजन के समय बटुआ खोला तो चिड़िया उड़ गई ।
साधु देवता लौटकर आये और व्यासजी को कहा- "मेरे ठाकुरजी उड़कर आ गये हैं ।" व्यासजी ने कहा-'देख लूं ।' आप मन्दिर में से आकर कहने लगे कि "हाँ उड़कर आ गये हैं, वे वृन्दावन से बाहर नहीं जाना चाहते ।" तब वे संत प्रसन्न होकर वृन्दावन में ही बस गये ।
पश्चिम देश के एक ब्राह्मण आपके यहाँ सीधा लेकर अलग रसोई बनाते थे और पानी बकरे की चर्म से बनी हुई मशक का काम में लाते थे । आपने उनको नये जूते में भर कर घृत दिया । यह देखकर वे कुपित हुये । 
तब आपने कहा- "जिस धातु का आप का जल पात्र है, उसी धातु का तो यह घृत पात्र है ।" यह सुनकर ब्राह्मण लज्जित हो गये । फिर भगवत् प्रसाद पाने लगे । इस प्रकार आपने उनको भी भक्ति में लगाया था ॥
(क्रमशः)






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