शनिवार, 27 अप्रैल 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४१/४४*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४१/४४*
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संझ्या बेद सरीर मांहि, सुर नर सकल बिलास ।
चार बार एही कह्या, सु कहि जगजीवनदास ॥४१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि चाहे जीवन की संध्या हो या दिवस की सब वेदन से पूर्ण है । जो देव मनुष्य सब ऐश्वर्य मे में रहते हैं चारों पहर प्रभु स्मरण ही श्रेष्ठ कहा है ।
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प्रव्रिति१ में तुलसी बिराजै, मूरति सालिगरांम२ ।
कहि जगजीवन बेद सास्त्र, कोइ गति लखै न रांम ॥४२॥
(१. प्रव्रिति=लोक धर्म व्यवहार) (२. सालिगराम=शालग्राम की मूर्ति)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि लोक धर्म व व्यवहार में तुलसी जी व सालिगराम जी की मूर्ति पूजा है । व वेद शास्त्रों में भी प्रभु की लीला कोइ नहीं देख सकता है ।
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चुलू चुलू३ कर पीजिये, ये दधि पीया जाइ ।
कहि जगजीवन पीवतां, रांम पिछांणै ताहि ॥४३॥
(३. चुलू चुलू कर पीजिये=हथेली भर जल बार बार पीजिये)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि शनै शनै कर अमृत पान कीजिये पीने की प्रक्रिया से ही प्रभु योग्यता मापते हैं ।
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सह माया रति त्रिया थति, छिप्त सहंस्क्रित नांम ।
कहि जगजीवन रांम बरम ल्यौ गंगा निज ठांम ॥४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्त्री पुरूष की रति क्रिया को भी संस्कार नाम से परिष्कृत किया है । संत कहते हैं कि राम ब्रह्म व गंगा भी अपने स्थान पर परिष्कृत करते हैं ।
(क्रमशः)

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