गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

*श्री रज्जबवाणी, विरह का अंग(४) ~ १.२७*

🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 卐 *सत्यराम सा* 卐 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*देह गेह नहीं सुधि शरीरा,*
*निशदिन चितवत चातक नीरा ॥*
*दादू ताहि न भावे आन,*
*राम बिना भई मृतक समान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. १०)*
================
सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
सवैया ग्रंथ भाग ३
विरह का अंग(४)
हो पीय वियोग तजे सब लोग,
न भाव हिं भोग भई वन वासी ।
भूषण भंग१ दिगंबर अंग२,
रंगी इहिं रंग अनाथ उदासी ॥
वैराग्य की रीत गई तन जीत,
भई विपरीत दुखी दुख त्रासी ।
हो३ रज्जब राम मिले नहिं वाम४,
गये सब याम५ कहो कब आसी ॥२७॥
हे सज्जनों ! प्रियतम के वियोग में व्यथित होकर मैंने सब लोगों को त्याग दिया है, भोग प्रिय नहीं लगते, वनवासी हो गई हूं ।
भूषण तोड़१ डाले हैं शरीर२ के वस्त्र पटक कर दिगंबर हो रही हूँ । इस प्रभु के प्रेम रूप रंग में रंगी हुई में अनाथा उदासीन होकर भटक रही हूं ।
वैराग्य की रीति ने शरीर को जीत लिया, मेरी स्थिति बड़ी विपरीत हो रही है । मैं दु:खी होकर दु:ख से अतिव्यथित हूं ।
हे३ संतों ! मुझ साधक सुंदरी को राम तो मिले नहीं हैं और जीवन रात्रि के सब पहर५ चले गये हैं । कहो तो सही वे प्रियतम प्रभु कब आयेंगे ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें