गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

*सहनसील कौ अंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे श्रृंगार ।*
*दादू आतम रत नहीं, क्यों मानै भरतार ॥*
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*सहनसील कौ अंग ॥*
ताती सीली सब सहै, सुख दुख सीतल घाम ।
बषनां सो साचै मतै, गिरि पड़ि कहिसी राम ॥३॥
ताती = अच्छी परिस्थिति, सीली = बुरी परिस्थिति, सुख-दुख; शीतलता और उष्णता आदि जितने भी द्वन्द्व हैं, उनको सहन अकर्ता हुआ भी सदैव एकरस रहने वाला ही सच्चा आत्म मुमुक्षु है । वही गिरता-पड़ता भी राम नाम का स्मरण कर पाता है और आत्मसाक्षात्कार कर पाता है ।
“समः शत्रौ च मित्रे च तथामानापमानयोः ।
शीतोष्ण सुखदुःखषु समः संग विवर्जितः ॥
॥१२/१८ गीता॥३॥
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*झूठा स्वांगी कौ अंग ॥*
सुहागणी सौ खाइ थी, लूटि लूटि संसार ।
बांदी राणी छोकरी, कोई बळी न लार ॥४॥
सौभाग्यवती रानी अपनी सेविकाओं(बांदी, छोकरी) के साथ, संसार लूटि लूटि = संसार के विषय भोगों को रुच-रुच कर भोगती थी, क्योंकि इन्होंने अपनी नकली भक्ति के द्वारा राजा को प्रसन्न कर रखा था किन्तु जब त्याग का अवसर आया अर्थात् राजा के मरने पर इनमें से एक भी उसके साथ सती नहीं हुई ॥४॥
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*साच स्वांगी कौ अंग ॥*
दुहागणी नैं क्यूँ नहीं, बेलाँ धान न लूँण ।
बषनां बलठी देषि नैं, भली दहौं मैं कूँण ॥५॥
दुहागणी = दुर्भाग्यवती रानी को राजा का सानिध्य तो दूर समय पर खाने को अन्न और नमक भी उपलब्ध नहीं होता था किन्तु जब राजा का देहान्त हुआ तब वह अपने पतिव्रतधर्म का पालन करते हुए उसके साथ सती हो गई । बताइये, इस सौभाग्यहीना को बलठी = जलते हुए देखकर आप दोनों में से किसे श्रेष्ठ कहेंगे ॥५॥
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बिण परचै परचा कहैं, बोलै पंचाँ माहिं ।
बषनां बलिबा की करै, सो बासण सैतै नाहिं ॥६॥
बिना आत्मसाक्षात्कार के ही अपने आपको आत्मसाक्षात्कारी बताता है । तन-मन-वचन में पांचों विषयों = शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का साम्राज्य होने से उन्हीं के बल पर अपना जीवन यापन करता है । ऐसे ढौंगी दिखावटी साधकों की स्थिति ऊपरी दिखावे की होती है ।
उनकी स्थिति ऐसी होती है जैसे कोई स्त्री पति के मरने पर घोषणा तो सती होने की करे किन्तु शला - चिता को देखकर घर भाग आवे । वस्तुतः ऐसे बासण = बर्तन = शरीरधारी = ब्राह्मण = भेषधारी, सैतै = साबुत = पूर्ण नहीं हैं ॥ भेषधारी पूर्ण तब माना जाता है जब वह पूर्णतम परब्रह्म परमात्मा से एकाकार स्थापित कर लेता है ॥६॥
इति सूरातन कौ अंग संपूर्ण ॥अंग १०२॥साषी १८२॥
(क्रमशः)

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