शनिवार, 27 अप्रैल 2024

*काल कौ अंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू धरती करते एक डग, दरिया करते फाल ।*
*हाकों पर्वत फाड़ते, सो भी खाये काल ॥*
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*काल कौ अंग ॥*
जाकै सूरज तपै रसोई, पवन अंगना बुहारै ।
नौ गिरह बंध्या पाइ, मींच कौ कुवै उसारै ॥१॥
बिह जाकै दाणौं दलै, बंदि बांध्या तेतीस ।
बषनां वै भी कालि गिरासिया, जाकै दस माथा भुज बीस ॥२॥
जिसके यहाँ सूर्य रसोई-भोजन बनाता था, पवन देवता आंगन की सफाई करता था; जिसने नवों ग्रहों को खाट के पाये से बांधकर रखे हुये थे; यमराज को कुवे में उतार दीया था;
जिसके यहाँ बिह=विधि=विधाता आटा पीसता था; जिसने तेतीस कोटि देवताओं को बंदी बना कर अपने यहाँ कैद कर रखा था, ऐसे दस शिर और बीस भुजाओं वाले बलशाली रावण को भी काल ग्रस गया । वह भी अमर नहीं रह सका । फिर हमारे तुम्हारे जैसे साधारण मानवों की क्या बिसात ? हमें चेतकर तत्काल भगवत्स्मरण में लग जाना चाहिये ॥१-२॥
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जाकै जल था जंघ सँवाना । 
सारा मथिया करि मेर मथाणा ॥
हाथाँ धरि धरि परबत ल्याये । 
बषनां काल उसे नर खाये ॥३॥
जिनके समुद्र का मंथन करते समय, समुद्र का जल जंघाओं तक था (जंघ = जंघा । सँवाना = समान, तक) उन सभी ने उस समुद्र का मंथन मेरु को मथानी = रई बनाकर किया । मेरु पर्वत को वे लोग हाथों में उठा लाये थे; इतने बलशाली थे वे किन्तु बषनांजी कहते हैं, समुद्र का मंथन करने वाले दैत्य और देवता सभी को काल खा गया ॥३॥
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं,
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशंति ।”
गीता ९/२१॥
इति काल कौ अंग संपूर्ण ॥अंग १०३॥साषी १८५॥
(क्रमशः)

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