शनिवार, 27 अप्रैल 2024

*श्री रज्जबवाणी, विरह का अंग(४) ~ १.२८*

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*दादू तलफि तलफि विरहनी मरै,*
*करि करि बहुत बिलाप ।*
*विरह अग्नि में जल गई, पीव न पूछै बात ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
विरह का अंग(४)
दुखी दनि रात परी१ विललात,
कहूं किसे बात जनम्म ताती२ ।
जु मांड३ के सुख भये सब दु:ख,
बिना पिय मु:ख सु विगसत४ छाती ॥
गई सब वयस५ न आये नरेश जु,
याही अंदेश६ परी उर काती७ ।
हो१० रज्जब कंत सु लेत है अंत जु,
हेत सु हंत८ जरी जिय९ जाती ॥२८॥
प्रियतम के बिना दिन रात दु:खी हूं, पड़ी१ पड़ी विलाप कर रही हूं, यह बात किससे कहूं, मैं तो जन्म से संतप्त२ हूं ।
जो ब्रह्माण्ड३ के सुख हैं, वे सब तो मेरे लिये दु:ख हो गये हैं, प्रियतम के मुख को देखे बिना छाती फट४ रही है ।
मेरी सभी अवस्था५ विलाप करते हुये चली गई है, किंतु वे अखिल नरों के ईश्वर अभी तक नहीं आये हैं । इसी चिंता६ से हृदय में कटार७ पड़ने जैसी पीड़ा हो रही है ।
हे१० संतों ! खेद८ है प्रभु तो मेरा अंत ले रहे हैं मेरा हृदय९ उनके प्रेम से जल रहा है और मैं मर रही हूं ।
(क्रमशः)

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