शनिवार, 27 अप्रैल 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४२०

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४२०)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४२०. (सिंधी) वैराग्य । वर्ण भिन्न ताल*
*ये खूहि पयें सब भोग विलासन,*
*तैसेहु वाझौं छत्र सिंहासन ॥टेक॥*
*जन तिहुंरा बहिश्त नहिं भावे, लाल पलिंग क्या कीजे ।*
*भाहि लगे इह सेज सुखासन, मेकौं देखण दीजे ॥१॥*
*बैकुंठ मुक्ति स्वर्ग क्या कीजे, सकल भुवन नहिं भावे ।*
*भठी पयें सब मंडप छाजे, जे घर कंत न आवे ॥२॥*
*लोक अनंत अभै क्या कीजे, मैं विरहीजन तेरा ।*
*दादू दरशन देखण दीजे, ये सुन साहिब मेरा ॥३॥*
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मेरे लिये चाहे, भोग विलास कूप में पड़ो । क्योंकि मुझे उन की कोई इच्छा नहीं हैं । भोगविलास तो भगवान् के दर्शनों के बाधक हैं । ऐसे ही मेरे लिये राजाओं का राज्य जो छत्र सिंहासनयुक्त हैं वह भी निरर्थक हैं । मेरे लिये स्वर्गसुख भी सुख देने वाला नहीं है ।
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शय्या आसन भूषण वसन आदि गृहसुख भी तुच्छ ही हैं । अतः मुझे अच्छे नहीं लगते । चाहे ये सारे भोग अग्नि में जल जाय तो भी मुझे कुछ दुःख नहीं होगा । मैं तो केवल प्रभु को चाहता हूँ । स्वर्गलोक बैकुण्ठलोक चार प्रकार की मुक्ति भी मैं नहीं चाहता । भगवान् के बिना मेरे लिये त्रिभुवन के वैभव भी तुच्छ ही हैं ।
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जिस घर में घर का मालिक न हो तो उस घर की क्या शोभा मानी जाय । इसलिये संसार के अतिरम्य हर्म्य(घर) जो अनन्त वैभवपूर्ण होने पर भी मेरे लिये तो तुच्छ ही हैं । त्रिलोकी में जो अनन्त वैभवपूर्ण स्थान हैं, वे भी निरर्थक हैं । उनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है ।
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हे नाथ ! मैं तो आपको एकमात्र देखने की इच्छा वाला विरहीभक्त हूँ इस निष्कामी भक्त को दर्शन देकर प्रसन्न करो । श्रीमद्भागवत में कहा है कि – हे प्रिय ! उद्धव जो सब और से निरपेक्ष हो गया है । किसी भी कर्म या फल की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरण को सब प्रकार से मुझे समर्पित कर दिया उसकी आत्मा में, मैं परमानन्दस्वरूप से स्फुरित होने लगता हूँ । इससे वह जिज्ञासु सुख का अनुभव करने लगता है ।
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वह सुख विषयलोलुप प्राणियों को किस प्रकार मिल सकता है । जो सब प्रकार के संग्रह से रहित अकिंचन हैं । जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर शान्त और समदर्शी हो गया । जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा पूर्ण संतोष का अनुभव करता हैं । उसके लिये सब दिशाओं में आनंद ही आनन्द हैं । जिसने अपने को मुझे सौंप दिया ।
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वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता और न देवराज इन्द्र का न सार्वभौम राज्य का सम्राट बनने की इच्छा होती और स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का भी स्वामी नहीं होना चाहता । वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता है ।
(क्रमशः)

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